Skip to main content

Full text of "Vayu Purana Khand-i"

See other formats


[9 
ग न ज 





एकक प 


४ 
॥ 
| वाय॒-पराण 
। (प्रथम खण्ड) ५ 
‰ ( सस्व भापानुत्राद मित ) ¢ 
| --- 
| 
| 
४ ष्ट 
$ ट 
सम्मदः 8 
वेदमूति तपोनिष्ठ ॥ 
पं० श्रीराम शर्मा +जाचा्यं ध 
चाये वेद, १०८ उपतरिषद, घट्‌ दछन, २० स्मरति 
य मोर षट पुशार्णो के भ्रसिद्ध भाव्यकार । 
॥ 1 
र ् 
् 
ष 
ध 
1 
7 प्रकाशक : ध) 
॥ संस्छृति संस्थान, वरला { 
श ( उत्तर-प्रदेश ) ४ 
५ र 


©, ञ्ल 2०७० ञ००८०अअ०्द 
यथ च्ज्ज््थअच्च् व्थच्च्०्०््--------0 





प्रंाशक ° 
सस्कृति सत्थान, 
वरेली (उ० प्र०)} 
# 1 
सम्पादक , 
प० श्रीराम शर्मा आचाय 
॥,। 
सर्वाधिकार पुरक्षित 
, 
भ्रयम सस्करण 
१६६९७ 
॥, 
मद्रक 
वम्बई मूपण प्रस, 
मधुरा 
॥; 
मूल्यः 
७) रुपया 


मूमिका 

(भारतीय पुसण-त्राहित्य यपने दद्ध कौ मनोखी स्वना है । ससार के 
भन्य प्राचीन देदो--जँसे यूनान, ईरान भादिमे भी कुयं म्न्य ठते पाये जति 
ह, जिनरौ वहाँ का पुराण कहा जत्रा है, प्र वे श्रायः वीर सोमो के अदुनृत 
प्ाहम तया भयंकर स्ट का सामना करके कोहं महत्वपुणं कायं मिद्ध करने 
की क्यवि-मान ह) प्रर भारतीय पुराणो का मुख्य उद्देश्य साघारण जन- 
समाज मे धापिक भावोका सचारकरना दै। यद्यपि उनमे भी सत्य, षद 
सत्य मौर काल्पनिक कथाये है, ट्पक्‌, अतङ्ार मौर वनिदायोक्तियो कभी 
वाह्य है, पर लेखको करा लक्ष्य लोगो कोसरदव धर्मपरा देने कादहीरहा 
है। यह ठीक करि उनङौी भत्तिशयोक्तियां यनेक स्थानो परस्ीमाको पार 
कर जातौ है, उन्होने असम्भव कल्पनार्ये भौीकी है, लोक जगह परस्पर 
निरोवौ वतिं मीलिल दी है, पर इस वका दद्य यदीहैवि मनुप्योके 
हदय मे घमं के प्रति रवि उन्पन हो बौर चाहे सासारिक सुखो के लातचसे 
ही सह, वे धर्माचिरण को अपनावें । उनका लिद्धन्तर है कि जो धमं का पालन 
करेगा उधक्ी रक्षा मौ धर्मं करेगा । ससार मे जिठनी उन्नति, उत्प, कल्याण 
है वह्‌ सव धमे परदौ भावारिति है । इसलिए लोगोको दिसी भीप्रकारसते 
घर्मकीप्रेरणा देना शुम कर्मे ही माना जायगा । 
जन-साधारण को घरे्रेरणा-- 

पराणो के मुख्य विपय खं (सृष्टि रचना) श्रतय, मन्वन्तेर ओौर युगो 

का वर्णन, देव, छपि तथा राजाभों केवो का वर्णेन कृटागया है। पर 
इनका विस्तार करते हए मोक्ष-निह्पण, मगवत भननं, देवोपासना को मी , 
उनमे सम्मिलित क्रिया मौर प्रत्येक क्या, मास्यान, उपाख्यान, गायने एक दी 
हप्टिविन्डु स्वाहैकरिं लोगोंकौ घमं कै भरति बाक्र्पणषह्ोमौरयेक्पनी 
शुदि, शक्ति, एचि ` बनुखार न्पूनाचिक मदो मे घािक्र्ता कौ तरफ मग्र 
हौ । षो सक््वाहै कि जिन लोगो ने.यपने ध्ं-विपयकं विचार बहुत ऊंचे 
तया तकं द्मौर बुद्धिवाद कौक्छौटी धर खरे उवे वातै वना र्वे 


" पतत स्र इरोदपानः । 


(४) 


उनको पुसणो के धर्म-षम्बन्धो व्विचनसे निराशा हो, उनम र्यां नजर 
क्रे, पर जो लोग खमाज के विभिन्न स्तर के व्यक्तयो के तिये उत्तममच्यम 
चर्माचरण की भावश्यक्ता को व्यवहारिक समन्ते है, वे पुराणो के मत वो 
ठीक ही बतलाकेगे, एक घर्मंशास्व मे कहा गया है- 

भजप्मु देवना बालानाम, दिव देवता मनीपिणामू 1 

शववालको का मयवा वाल-वुद्धि वाली अशिक्षितं जनता का देवता गन्ना- 
पूना सादि तीथे स्थान है । विदानो के देवता, भगवान करी दैवी शक्नर्या 
जैते-सूथं, इन्र, द, विष्णु मादि हैमौरजो सच्चे ज्ञानी ह उनका दवता 
केवल *शात्मा' री होता है ।'' 

समाज मे सभी श्रोण्यो के व्यविति पामे जाति ह। उसमे वेदभौर 
उपनिषदो के अधयातम ज्ञान को समक्षे वाते मालन्ञानी ओर मोमो भी होति 
ह, सन्न यौर मन्य कमंनाण्डो मे मलग्न पण्डितजन भीदोतिर्हु भौर केवल 
जीवन निर्वाहे कायाम दही सगे रहने वाते व्यापारौ, किसान मजहर आदि 
भरी होते हं। यद्यपि पहली दो श्रोणियां समाज मे लधिक््‌ अभाविशाली मौर 
प्रतिष्ठित मानी जाती है, पर अधिकता सदेव तीमरीश्रेणी कीदहीहोतीहै। 
तो मध प्रन होता है करि इन यदधंधिक्षित मयवा यशिक्षित जन-साधारणके लिये 
धार्मिक नैतिक, चारित्रिकः नियमो कौ जानकारी कराने भौर उन पर भावरण 
कराने मरी क्या व्यवस्थाकौजाय > पराण पेते हीलोभोको धारक शिक्षा 
देने षे साषनर्हु। एन सोमो कम यदि उपनिषदो कै निराकार ब्रह्मकाध्यान 
करने का उपदा दिया जाय अववा किसी वहे क्मकाण्डको तिशषादीजापतो 
दै उपे कया समक्त सक्ते मौर कहातक उस पर बाचरण कर सक्ते है? पर 
पुराणो कौ सरल कथाम बर रोचक दृष्टन्तोकौवेभी परौत्रूहृलपूवंक मुनते 
रै ट मौर अन्त में एतना निष्वपं निबाल दही तेते ह कि घरमे, पुण्य, सलभ 
बर षते मनुव्य षो दहनो भौर परलोक मे सुय मिलता है, दमलिये जहाँ तक 
वन पडे मनुष्य षौ वैगाक्रने का प्रयत्न करना घादिए। 
पुराणो फा प्रक्षि नाग-- 

यट हदि मच्यद्नात मेपृराो कौक्या य्ने वाते पुरग" 
धीर्‌ ध्यामो' ने उनमे बुव मिसावटषौीदै। षणे वर्देवाएणष्ो सक्ते 


५ >+ 


नेक परिवर्तन मौर परिवद्धन देश-काल केप्रभावयेदुयेरह। राज्योमे, 
शास्न-सस्या मे जंमे-जते परिवततंन होते गए उकषके प्रभाव से लोगो के रह्न- 
सटन नौर विचारो मे परिवत्तंन ह्ये मोर कथा वाचको ने उनक्रे बनुकूल वर्ति 
वदटादी 1 भिन्न-भिन्न श्रदेधो कौ परिप्थितियो के प्रभाव सेजिन पृरणोका 
जू नधिक् भ्रचार्‌ था उनमे वहा कौ वात्तो को विदोपस्थान देद्धिया गया) 
साम््रदाधिकता के बठने पर उनके साचार्यो मौर चिद्रानो ने अपने खिदान्तो की 
भृष्टि करने वाले उपाख्यान भौर विवरण पुराणो मे -सम्मिलिन कर दिये । 
अन्तिम पर्‌ एक वडा कारण कथावाचको कौ स्वार्परताका भी हमा जिसते 
उन्न ब्रव, तोर्थ, श्रा, दान के प्रकरणो को घूब बढाया मौर यधिकं से 
मचिकग दान देने की महिमा क प्रतिपादन किया इम श्रेणी की मिलावट 
क्रमण इतनी अधिक वड गर्द बौर विभिन्न भ्रकारके दानो के परिमाणतया 
उनके पुण्य फन कौ इतना वदा-चढा कर कहा गया कि श्रोतायो थो उमसे 
विरक्ति होने समी । पराणो मे जिन ब्रह्याडदान, मेरू-दान, धरा-दान, सप्त 
सागर दान, रत्नमयी धेनुदानं आदि काजो वर्णन क्रिया गया उनकी साग्र 
करी त्रागत्र कई प्रात पये तक प्टुचती है 4 हर दावमेसोपेकी मूतियो भौर 
रतो का विधाने वतलाया गया है 1 एक लेखक के क्थनानुघार “इन दानोके 
वणंना को पटकर क्भी-कमीतो रमा जान पडता है जमे कोई मायुनिक वाल 
का घटिया वरि्तापनदाता अमनी किसी वस्तु कौ तारको का पूल गौव 
रहा हो 1“ 

इस मिलावर तथा हीन मनोवृत्ति का परिणाम यह हमा है करि वर्तमान 
समयमे भविद्नाश शिक्षित व्यज्ियो ने पुराण-साहित्य कोकोरी गप्योका 
खजाना मानल्लिवाहै गौरवे विनादेखे सुने हौ एक पिरे से समस्त एराणो 
को मौर उनको तमाम वातो कौ निरथेक गौर वेकारं घोपितकर देते ह । यह्‌ 
यवम्ा समाज दथा धर्मं कै लिये सवांदछनीय ही क्टी जायभी । दक्षे फन 
स्वष्प हम उष लामक्ारौ मौर जन-क्ट्याणकायी सा्ित्य वचित रह जायेगे 
जौ पराणो मे पर्याप्त परिमाण मे सनिनिहित है । इम समस्या करे समस्व पट 


लुभो पर विचार करके एक पुराणो केल्लातवा विद्वान ने निम्न उदुगार 
च्यक्त क्थ है-- 


(६ ) 


*पूराणों मे दन अनेक गुणों पे होते हये भौ नेव लोवोपवारियो ने 
लिष्हं वास्तव मे देदा बौर जात्तिके कतयाणक्रने मौ सच्चो लगन यी, पूणं 
को स्वधा त्याज्य माना है, उनकी भरपेट निन्दा फी है, मापि दुष्ट स्थता क, 
तं के चाकू रे चीरफाड कर जनता वे सामने खोलकर रत दियादै। हः 
मानते हई कि उन्दने यहां किसी देवश नही किया हैवरनु याज्य 
दृष्ट, प्रियोऽप्यासीदगुलती बोरगदक्षता' (मर्थव्‌ सपि की कारी हं उद्गलीर्क 
तरह दोपपरणं वस्तु यध्यन्त प्रिय होने पर्‌ भी प्पाज्यहै) 


इस भूवति के मनुस्ार पराणो वो सर्वथा वदिष्छत वतलाया है । उन 
धारणा धीक्रि ये पूराण सावंजनिकं उपयोग वे लायक नही रगे 
सामाःय जनता इन मे वणित आदर्शो पर चलकर सुखी नहीं हो सकेगी, म्न 
वास्तविक कत्य भूल जायगी 1 उनकी धारणा बुदछधमश मेसत्यहै, पर्या 
बौपधि करने से पवा विष उतर जायत्तो गुली कोकाटक्रर पैक देन 
समीषीन नहीं लगता । समौ भौपधियो के भभाव भौर एके विश्लेष परित्थिि 
मे भंगूली काका देना भौ एक अन्तिम कतेव्य है, प्र जिस भंगुली ने इत, 
जीवै तक बेकदुसो एव सुखो साप दिया है यथासम्रव उसी रक्ष 
करनी ही चाये । पराणो ने चिरकाल से हि समाज का बहुत उपकाः 
क्रिया है। हमारी वश परम्परागत पवित्र भावनाय उके साय जुडी हूईद 
श्न भब बातो को देखते हये उनको एक दम वहिष्रत कर्‌ देना नितान्त भनु 
चितै, जबकि योढीसी सावधानी ही उन्हे पूर्ववतु पवित्र बना देती 
नितान्त अनगेल कचामो तया स्वाथेपूणं उपदेशो को पूराणोसे मलग फर 
माप उनकी उपादेयता से इनकार नही कंर सक्ते । पुनारो की दुकानो रक 
मिहटौको वटोरक्र धोने वालोको भौ जीवेनयापन कै तिये पर्याप्त सोना 
चौदी मित जातादै, क्षिर पुराण तो अनेक रत्नौ कै भण्डार है, हद्टि फलाश्ये 
विवेके षे जल से उन मृत्तिका मिधितं अनपेक्षित प्रसद्ा को, जिनम निषदा 
त्सा बगआदिवे सिवः दूमरी चोज नही है स्वच्छ कीजिये, सहानृषरुति एव 

विवास का सम्बल रिय, उनतने यापको भनमोल रल मिलेगे 1" 


दमने इती नोति का मनुखरण षरे पुराणो की 'बहमूत्य सखमिग्री बो 


पिमाज्ित सस्करण केत्पर मे अरकाशित करना यारम्मस्ियाहै ! उपदुक्त 
परचि्त यशो करे गततिदिक्त शरसणे के धनावदश्यक स्परे वडे हो नाने काएक 
कारण यहमी हैकिक्रितिने हौ विपयो कौ उने पूनष्क्तिकी गर्दै) जो 
प्राठ्कको सटक्ती है जते धाद, नकं, चारो वणोभौर घारो याध्रमोके 
आचार-विचार, पुदम सुनने का फल धादि यनेक विप सवम एकपेही 
दगिगयेह। कटक तो उनकी एब्दावली भीएकहीहै मौर छष्यायके 
अध्याय एक दुषरे मितते हये है 1 वार-वार एक ही तिपय को भिलते-जुतते 
शब्दो मे पढ़े से पाठक को सन्देह होने लगता दै कि यह्‌ विपय तोप्रहूनेभी 
पढाधा,फिरण्योकाद्यो कँसे मा गथा? पसे विपयोको एक भग्‌ पुरेष्प 
भेदिया खाय तो यह पुषरक्ति दोप कम खटकने वाला हौ सक्ता है । निस्तन्देह्‌ 
पराणो भँ यहसम्थक जीवनोपयोगो मौर उच्चकोटि के धार्मिके विपयोकी 
शि्ा दी गहै, पर इस मिलावट भौर नकललोरी; कौ मीढभाटमेयेषो 
जति है मौर सामान्य पाठक याश्रोताकी प्टि उन पर नही पटती 1 दसतिषए 
जैसा उपयुक्त उद्धरणमे सकेतकिया गयाहै यदि पूराणोमे पक्षपातमा 
स्वार्थवश जो अनुचित भिलाचट कर दी गरदं है उसे पृथक करके भौर यनाव~ 
दयकसखूपते वढ़ापे गये यशो को सूक्ष्म करे पूराणो को प्रकासित गौर्‌ प्रचा- 
स्ठिकरिया जातो यह हिन्दू धमं तथा प्राचीन भारतीय सस्छृति की वहत 
वहू सेवा होगी । 

शवापृ-पुराण' सम्बन्धो विवाद-- 

पौराणिक-माहित्य कौ दृष्टि ते "वायं पुरणः मे वणित णश्य-सामप्रौ 

पर विघार करने से पूवं मको यनेक विद्रानो द्वारा उठाई दस शका पर 
विचार्‌ करना सावप्यक प्रतीत होता है कि "ागु-वुरागः कौ गणना "१८ महा- 
पुराणो" मदै यानी ? इस सम्बन्ध मे बाधुनिक विद्रानोमे भी मतभेद पापा 
जाता है । कुचं बालोवकौ ने ष्से भिव महापुयषयः मे "वायवीय सरि 
नामक एव सखण्ड दोनेसे ष्ठे उक्त पूराणकाएक धद बतलाया हे, जयक्नि 
मन्य दिद्रानोने दोनो पुराणो कौ विषय मूची तेया पाद्य-खामग्रो दे मदान्‌ 
मतरके मार दको स्वतन्वर महापुराण! ही स्वीकारे बिया दह1 दस सम्बव 


¢ 5: 


भे हमने विविध पराणो के बम्तर्गेत पाई जाने वासी "१८ पुराणो की प्रचयं 
फा जव मिलान किया तो उनसे हमषौ यही प्रतीत हुमा वि "वायुपुराण" वौ 
अधिक्ाणने ८वृरा्णौमेही माना है। पाठको एरी जानकारीकेन्यिदहम 
ठन सूचिथो को नीचे देते ई 


(१) नास्द पुराण की पुराण सूची सवसे वी है । उसमे प्रत्येक पुणए 
कै लिए एक दो पृष्ट का स्वतन्त्र घभ्याय दिया है यौर प्रत्येकं पुराणके मुष्य 
मुप्य विषये की मूीके साथ उनको दान कसे की दिषि भी बतलाई है। 
उसमे दिये गये मठारह्‌ पूराणो की नामावली दस प्रकार है-- 

(१) ब्रह्मपुराण १०००० शलोक, (र) पद्मपुराण ५५००० (३) विष्य. 
पुराण २३०००, {४} वायु पुराण २४००० (५) भागवत पुराण १८००० 
(६) नारदपुराण २५०००, (७) माकण्डेय पुराण ६०००, (ष) बन्नपुराण 
१२०००, (९) भविष्यपुराण १४०००, (१०) ब्रह्मवैवतं पुराण १८००८ 
(१९१) लिङ्गपुराण ११०००, (१२) वाराह पृराण २४०००, (१३) स्कम्ः 
प्राण ८१०००, (१४) वामन पुराण १००००, {१५} ब्रम पुराण १७००० 


(१६) मत्स्य पूराण १४०००, (१७) गरुड पुराण १६०००, (१८) ब्रह्माण्ट 
पराण १२०००} 


(र) महस्य पुराणमें मौ पुराण सूची काफी विस्तार सेदी गर्दै 
उसमे विभिन्न पुराणो के इ्लोकोको जो सस्या दी गईहै वह्‌ कर्दस्यानोपः 


नारद पराण फौ मपेक्षाक्मया ज्यादा । इसमे भौ पुराणौ के दान की विधि 
सक्नेपमे दी गई है 


(१) ब्रह्मपुराण १३०००, (२) पद्मपुराण ५५०००, (३) वैष्णः 
[विष्णु] पुराण २३०००, (४) वायवौय पुराण २४००० (५) भागवत पुराण 
१८०००, (६) नारद पराग २५०००, (७) माकंण्डेय पुराण ६००० {र} 
सप्नपूराण २०००१ (६) भविष्व पुराण, १४५०००, (१०) ब्रह्मभेवतंूराण 
१८०००, {११) लिङ्धं पुराण ११०००, {१२) वाराह पुराण २५००० 
(१३) स्कन्द पूराण ८१००० (१८) वामन पराण १ (१५) करं 
पूराण १८००० (१६) मलस्य पुराण १४०००, (१७) गड पुराण १६००० 
(१८) ्रह्याण्ड पुराण १३२००. 


जि. 


(३) स्वय वायु पुराण क सध्याय १०४ पुराय-सुनी दी गरईहै । पर 
उसमे मगरहं पुराणो का उल्लेख कटने प्र भमौ वास्छव मे १६ परागोकेटी 
नाम मिलत्ते 1 इसलिये यह्‌ अनुमान किया जाताहै कि एक श्लोक किसी 
तरह लिने रद्‌ ग्या है। इसकी करम स्रस्याभी मन्य पुराणो से बहूव 
मिन है-- 

(१) मत्स्य पुराण १४०००,(२)भविप्य पुराण १४५००, (द)माकण्डेय 
पुराण ६०००, (६) त्रह्मवैवतं पुराण १२००० (७) ब्रह्य पुराण १००००) 
(ल) वामनपुराण १००००, (६ ] नादि पुराण १०६००, (१०) वागु पुराणं 
२३००० (११) नार्दीय पराण २३०००, (१२) गरड पराग १६०००, 
(१३) पद्म पराण ५५०००, (१४) कमे पुराण १७०००, (१५) सौकर 
(वाराह) पुराण २४०००, (१६) सन्द पुराण ८१००० 1 

इष सूची मे विष्णु, ममि यौर निद्ध पूरा के नाम नही लेक 
कौ भून मानकर हम यह्‌ स्वीकार कर सक्ते हक्रिएक श्लोक वेद्ूटजानेसे 
दोपुराथोकानाम रहगयाहै।तोभी इस सूचीमे लादि दुराण को श्रामिल 
कपा गया, इमे यह स्प्टहै, बाधु-पुराण के स्वयिता ने प्रचनित १८ 
पुराणो सेश्ि्ीएककोगवश्यही हटा द्विाहै। 

(४) यनि पुराण दी सूची गरी क्रम-मट्या अन्य पूराधो छे मिलती है, 
पर्‌ इमे जौ श्लोक सस्यादी है, उमम यन्य पराणो ते बहत मिक बन्तर 
है। पाण्क स्वय मिलान करके देने-- 

(१ ) बरह्म पराण २५०००, (२) पद्मपुराण १२०००, (३ ) विष्णु 
पुराण २३०००, (४) वायु पराण १४०००, (५) मावत पराण १८००० 

(६) नारदपराण २५०००, (७) माकंण्डेय पुराण ८६०००, (८) अनति पराण 
१२०००, (६) भविष्य पराग १८००० (१०) ब्रह्यवैवतं १८०००, (११) लिगर 
पुराण ११०००, (१२) वार्ह पुराण २४०००, (१३) स्वन्द पाग ८४०००, 
(४) वामनपुराण १००००, (१५) कूर्मे पुराण १८००० {१६} मत्स्य पराग 
१३०००, (१७) गरल्ड पराण १८०००, {१८} ब्रद्याण्ड प्राण १२०५० । 

(४) वामन प्राण मे पू राण-सूची केवल एक श्लोकमेदे दीहेयौर 


{ १० 4 
यह्‌ भी वदे धदुभूतद्ग मे, घन्यया घटारह पराणो का मामपएम प्सोक मं 
दिती प्रकार भाता तमव न धा 
) मद्य पष्टय चव द्व्रय चचतुष्टय । 
घतापतयदूस्कोनि पुततणानि पृषक्‌ पवष ॥ 
प्लर्यान्‌ शत पुरार्णोमेसेदोके नाम “म'ते बारम्म होते (मस्य 
गौरे माकष्डेय), ठो "ममे मारम्म हेते दै [भरागरवत योर भविष्य), सीन 
शरसे ह (ब्रह्य, ब्रह्माण्ड भौर ब्रह्मवैवर्ते), चार वसेह (वाराह, वायु, वामन 
भौर विष्णु)" शेप सात पुराणो वे प्रयम बशर द प्रवार है-लन्=यगि, नान 
नारद, पन्=प्म लि=लिङ्ख, ग=गष्ड, बू न-वूर्, स्व स्कन्द । 
(६) चिष्णु पुराण मे यह सूची सक्षप मे दी गई है, पर उने कम-- 
सख्या का निदेश बहुत स्पष्ट सूपसे व्यि है- 
प्राह पाश्म, वैष्णव च रोवे भागवत तवा। 
तथा न्यन्नारदीय (च भाङ्न्दय च प्तम्‌ 1 
मा्नेय मघ्टमं चद भविष्यन्नवमं स्पृतम्‌ । 
दशम चव श्रह्यर्ववतं तंद्गमेकादश स्मृतम्‌ ॥ 
वाराह दादक्च चंव स्कान्द चाग्न त्रयोदश । 
चतुर्दश वामन च कोपं पचददा तथा ५ 
मास्स्यच गाद्ड' चैव ब्रह्माड च तत परम । 
महापुराण न्येतानि ह्यष्टादश महाप्रुने ॥ 
(विण्पु° ३--६-२१से२९) 
कु विद्रानो का मत्त हैक्रि विष्णु पृराणमे जो करम सस्या दी गई 
है वह प्राचीनताकीदृष्टिसेहै। इसत्तथ्य को स्वीकार करः लेने पर्रम 


पुराण सवते प्राचीन भीर ब्रह्माण्ड सब से जतिम समय का रचित कहा 
जायया 1 


५ (७) माक्ण्डेय पुराण के णये अध्यायमेत्ते ११तक विष्णू 
शुराणकेये चारो श्लोक ज्यो के स्यो उदधृत्त करके पुराण-सूचीदे दी 
गृ है भोर मारंण्डेय पुराण का सातदा स्थान स्वय स्वीद्धत करियाहै। 

1 (५) स्वन्दधुरणकेकेदारखण्डमें शल पुराण कौ उथयुक्त स्रुवौ 


( ११) 


पये देकर पराम्प्रदायिक टष्ठि ते उनका वर्गीकरण भी कयि शया है) उमे 
कहा ग्याहै कि "१८ पुरार्णोमे चे दस दव, चार वैष्णवः दो वाह्य मौर दौ 
मन्योकेरह। दव, भविष्य, मार्कण्डेय, सिग, वाराह, स्कन्द, मत्स्य, वरम, 
यामन सौर ब्रह्माण्ड-ये दक पुराण रव ह! चैप्णच, भागवते, नारद नौर 
गष्ड-~-ये चार प्व ह, ब्राह्म मौर पञ्च--येदो ब्ह्याकेर्ह । भनिनिपुराण 
४ तया ब्रह्मयैवतं सूये की महिमा पूणं हँ ॥* 
पुराणोकौ इन विभिन्न सूचियोमे षवायु-वुराण' न्ये स्पष्टतः शद 
पुराणो मे साना गया क ओर उसकी इलोक.सरपा २३या २४ हजार बतलार्ई 
व 7 ल 1) 
शमत्स्प पुराणः के मतानुसार इस पुराण में वायुदेवने श्वेत वत्प के प्रस्रग 
मे खनेक्रानैक धमं प्रसगोके सय ष्टर महात्य भी विस्वारसे सुनाग्रहै 
सबसे मुस्य ध्यान देने का विष्य तो वायुपुराण तथा रिवपुराण 
केगन्तमेदी गूं 'वायवोय पहता कौ विपय सूचिं ह। जव कि वाय 
वीय सहिता के मधिकाणमे वही दक्ष, सती, पावती की कथा धयवा शिव 
दीक्षा, पाशुपत ब्रत, भस्म महिमा षिव सिग पूजा से महापापो का नाश, 
५ परण पूजा, योय मागं घादि दुटक्र विप ही अधिक पपे जति, 
~~ 75 लक्षणों के मृष्टि रचना, कल्प मौर्‌ युग, 
नाद प स दा मन्वन्तर षा वर्णन मृष्ट कां भूगोल, देवता, मुष्टि, राजामो के वगो 
मोदि का व्िद्रतापूवक वर्णेन श्रिया गया है) चह कहने 
मे दुघे का तंफोच नदौ $ वायुषु के स्वदिता गृष्टि स्वना भौर 
उसके फ़्म-विकास का जो वणेन करियादहै बहमन करई पुराणो के ठ्न 
म्बन्धी वर्णन ङो भक्षा मधिकं वृदिसगत है मौर यदि उसरी रपक 
प्ता भलकारयृक्त शैतती की जच वंजानिक तथा व्यवहारिक टृेष्टिकोण से 
कौीजायतो उसमे श्तिनिही वंदि मूष्टि-विक्षानके तप्वौ का पता लम 
सक्ता है । पुराणो की सवदे उडी विचेता यौर उपयोगिता यदी मानी गई 
हैषि वे वरदो के गढ तत्वो मौर रहस्यवादो वर्भनो वो वियदय्यास्मारे 
साप रोच षथाशेनी मे उप्थिते करते ह जिससे समान्य स्तद ढे प्राटके 
भरौ उनको समन्च घषते है । “वायु पराण" रस दृष्ट से निस्खन्दद्‌ वन्य विवे 









( १२) 


ही पूराणोकी गपेशा उच्च--श्रंणीर्मे रवेजाने योग्यदै1 
वायुपुराण को तकं संगतता-- 

यद्यपि परम्पराग्त धौली का अनुसरण करते हए वायुपरण कै 
यारम्भमे उसे भौ ब्रह्माजी, वायृदेव, व्यास जी, सूततजी,वादिकारवा 
हा कहा दै, पर अगे चलकर जव वास्तविक विवेचन नारम्भ भा है तो 
स्वपिता ने जगह-जगह रेते माव प्रकटक्रिये ह मिनत कट होता दैति 
यहु पुराण लभ्य प्रो की तरह वि विनेप ष्तरित की स्वनादै+ मृष्ट 


सचना का विपय आरम्भ कस्ते हौ तीसरे बध्याय के मतिम श्लोक मे उन्टोनि 
स्पष्ट रूपसे कह दिया है-- 


! श्रहृत्यवस्येषु च कारणेषु या च स्थितिर्याच पुनः प्रवृत्ति. ॥। 
तच्छ स्त्र युक्तया स्वभतिप्युवतात्‌ शमस्तमविष्टत धो पृतिम्पः ॥। 
दिप्रा ऋषिभ्यः समुदाहूतम्‌ यद्यथातथ तच्छुरतोच्यमानम्‌ ॥ 

र्यात्‌ '्रङृति की मूल मवस्था मे कारणो की केसी स्थिति रहती है, 
तथा फिर कसे स्वना की प्रवृत्ति होती है ये सव वाते हर शास के मतानुः 
सार भौर अपनी वुद्धि के मनुसार वृद्धिमानो के लिपे प्रकाशित कर रहै द । 
द विभरो) पू्कालमे ऋषिरयोनेजैसेकहाहै भ भी उसी प्रकार कह रहा 
हु", आप लोगध्यान से सुनिये ॥" 

जगत ङ निर्माण गीर इतिहास की घटनाथो के सम्बन्धमे कोद लेखक 
यह तो कह नौ सकता कि भ इनको मपने मन या वुद्धि से विचार कर या 
गढ कर कहु रहा ह। उनका तौ कोई न कोई आधार द्रौढना मौर बतलाना 
पगा । तेलक का कामतो यह दहै क्रि वह उन तय्यो को अपनी विशेष शैली 
मे मपे हष्टिकोण के यनुषार विधेनना करता हआ पाठको या श्रोतामो के 
सम्मुल उपस्थित करे । दस लिये वायुपुराणकार का यह कथन सर्वधा स्वा 
भाविक भौर भावश्यक्रहैकिर्मैनेजो कु लिखा दै वह अपनी कल्पना से 
मही लिख दिया है वरन्‌ उसक्गो सामग्री विभिन्न माननीय शस्त्रो बीर प्राचीनं 
विद्धानो द्वार स्वी मायामो भदिसे एकवरितकी गर्ईदहै। इसवबातको प्रकट 


करके तथ्यो की भिम्मेदारीः प्राचीन शास्तरो पर गौर व्णनक्ष॑ली तया विवे 
चन-प्रणाली की मपने उप्ररलेलीहै। 


( १३ ) 


घराणे जहां राजवणो का वर्णन आया वहाँ भीततेखकने इख पूरण 
कौ रचना फा समय साफ़ तौरपर दे दिया है । अनुपङ्खपाद समाति" शौक 
अव्याय मे पाण्डवो की बागान परीटियो का जिक्र करते हये वे कते है-- 

° राजा उनमेजय चा पुत्र शतानीक धा, जो प्रम बलशाली, सत्यवादी 
तथा विक्रमशील भा 1 रतानीक का पुत्र परम बलशाली अष्वमेवदत्त टमा 1 
अश्वमेघदत्त से रुम के किलो को जौतने वलि बगविस्वामहृप्ण नामक पनर की 
उत्पत्ति हूर 1 -छविचृन्द 1 यदी परम घम्म राजा शस समय राज्य करर 
दै । उक्ती कैः राज्य काल मे आपने इस परम इुलंमर चीन वपं चत्त वाति दीर्घ 
सव्र ( यत्त } का अनुष्ठान प्रारम्भ किया दै, इसके अत्तिरिक्त दपद्रती नद कर 
किनारे कुर्कषत्रमे मी दो वपं व्यापी एक दीर्धमत्र चल रह ट ।'* 

यो जनताको धार्मिक मान्यता तया श्रद्धाको सुदृढ रखने के उद्य 
खे सभौ घामिक ग्रन्योको किरी देवता या दैवी व्यक्ति कै मुख से निकला 
इमा बतलाया गया है, पर वायु-पुराणकार' ने उख परम्परा का पालन कस्ते 
ह्ये मी अपनी रचना को उष्य श्रन्योकी तरह मानवोय घोपित्तवर दियादै, 
यह उनका एक भ्रयरनौय गुण ही माना जायगा | 

चिकास-सिद्धान्त का प्रतिषादन-- 


भराचौनम्रन्धो मेँ से मधिकाश का यद्‌ भत प्रकट ष्टोता दै कि “सतयुग 
मर्थातु भृष्टि का मादिम्‌-काल सभ्यता, सस्ति, विद्या-वुद्धि, साचार विचार 
आदि की ्प्टि ते सर्ोत्तिम स्मय था लोर उसके पश्चातु सब्र विपर्यों ने हीनता 
अती चती गई! पर °वावु-गुराण' का सनयुग वर्णन पढने से रेशा माव उत्पत 
नहीं होता । प्रक्रट मे उन्हतै भी उतेश्रेष्ठ वतलाया है, पर उस समयके 
भराणियोकानोवबुद्ध चित्रण श्या है, उसे एक विचारशील पाठक इसी नत्तीने 
पर पहुचेमा करि उस छमय कै प्राणी एक वनमानुष से मी कम विकसित बवस्था 
भेये मोर उस समवे मनुष्य नहोक्रक्सिी भोरदही नात्तिके प्राणोद्धतो 
भी बार्य्ये नटी । प्रकर्णं ८ ( मानव सभ्यता कामारम्म } के ४५ दलोक 
से जाने कहा गयः है-- 

*उशासमयट्तयुग के यारम्म क्लमेंवे प्राणौ नदी, सरोवर, गमद 
सौर पर्वती क समीप र्ते थे 1 उनको नधिकू यीत मौर र्मी ेपीडानदी 


~ न ~ > --- 


स्तोिना शष्पा इयोदपान- । 


( १८ } 


1 लोक-तत्व मोर लोकजीवन कौ जसौ सुरता पर दै वैषी यन्यत्र 
(४ 
योग द्वारा शारीरिक भोर आत्मिक फल्याण-- 

( काधु-्राय मे योग का महत्व मौर उसके यावश्वक्ता र हठ गोर 
दिपाह गौर तभी श्वैणियोके मनुष्यो को उतकी प्रेरणा दीदै1 उस्मेवहा 
गथा है-- "जितनी तरह कौ तपप्याए, व्रत, नियम यौर यक्तफतव चादि, 
प्राणायाम कातल भोउनमे सेङ्रिसीसे कम नही हसौ सम्वतसर्‌ तक 
भ्रस्येक माम कुश के वभ्रभाग से जलविम्दु पान वरने काजोफल हौताटै, वटी 
फल प्राणायाम करने स प्राप्त हो जातादहै। भ्रायायागवेदोर्ोका नण दता 
ह, धारणा से पापो ब, प्रदयाहार से विषम समूहका मौर ध्यान से यनीष्र 


गुणो क्रा नाश होता है ।" 
भागे चलकर कहा द--"दान्ति, प्रशान्त, दीप्ति भोर प्रमाद हन चार 


को प्राणायाम का उदेश्य समधि \ शन्ति काञाश्य है दस कालत मवा 
प्रकाल मे देहषारियो दवाय स्वय क्रि हए यथवा प्रिता-मराताद्वारा, शिवा 
मेष्यो द्वारा कपि हुये भयकर अकल्याणकारक कमं से उत्पन्न वृस्सितत पापं 
समह का नाश होना । प्रशान्ति उस तपस्या को कहते हँ जिससे इस लोक भर 
परलोक मे हित के लिये लोभ मौर अश्रेयस्कर अभिमानादि पापवृत्तियो का 
संयम हो । जव प्रतिबुद्ध योगी को ज्ञान-विज्ञान युक्तं प्रसिद्ध ऋपियो की तरह 
चन्द्र, भु, प्रह, तारकादि थीर श्रुत, भविष्य, वेतेमान का विषय प्रत्यक्षो 
जाय उसे दीप्ति कहते हैँ । इन्द्रिय, इन्द्रियाय, मन ओर पव-वायु जिसे प्रसन्न 
हो उसे प्र्ाद कहते ह । यह चार प्रकार का पला प्राणायाम-षमरं हुमा । यह 
तुरन्त फलदायक भौर काल-भय का निवारक है ।” 

(इस प्रकार पुराणक्ञारमे प्राणायाम को बहुत महत्व दिया है मौर यथा- 
संभव उको व्यवहारिक विधि काज्ञान करानेकीवेष्टाबीटहै। इतके लिए 
उन्दोने साघकं को स्पष्ट चेतावनीदेदी है कि उपे श्रुव सोच-समञ्चकर भौर पूण 
जानकारी प्राप्त करके समस्त नियमो का पालन करते हये प्राणायाम करन 
चाहिये 1 जौ अनियम से बयवा मलत तरीके सै प्राणायाम करेगा उपे जडता 
वहिरापन, मूकत्व, अन्वापन, स्मृति लोप, दृता आदि अनेक प्रकारकेरोः 


( १६ }) 


उत्मन्त हौ जिह ये सव दुष्परिणाम यज्ञानपूर्वक योग कर्मं मे प्रवृत्त होने 
सेति) इ प्रकार की वेतावनो अन्य कई प्रन्थोे भौ देवने मे साती है, 
पर दुं पुराणम इनरोगोकौ जो चिकित्सा दी गद है, वह सरव॑त्र देखने मे नहीं 
साती । कों अनुमवो योगो हौ उश्ठका विधान कर सकता है । प्राणायाम 
जनित दोपो कमै चिकरत्वा वतलते हये कहा है-- 
शश्राणायाम ते उन्न दने वलि दोषो को श्लन्त करनेके तिये स्िग्व 
पदायं मिधित गमं यवागू ( जौ की पतली लपसी विनासमकं यामीठेकौ) 
गुदं कालत तक्र पीडित स्वान पर धारणा करे। इसे वातं गुल्म नष्ट होवादहै। 
गुदावतं को दूरकरने को यह्‌ चिकिट््ठा करे करि ददी षयवा यवागरु का मोजन 
करे गोर वायुग्रन्िका भेदन करके उसे ऊपर की तरफ चलावे। अगर ¶सते 
कष्टनमिटेतो मस्तकमे धारणा करे। जित योगी के स्व्खिमें केपकेपी हो 
जाय, वहु शरोर को याषनदहारा स्थिरकर मनमे किसी पर्वेत की धारणा 
करे। टाती का ददं होने प्र उसस्यानया कष्ठदेदामरर्वसौहौ धारणा क्रे। 
वोली स्के जाने पर वचन मेभोर बहरापन होतो कानो मे धारणाकरे। 
प्या का कण्ट होने से स्नेहाक्त प्रज्वलित अभि कौ धारणा करे। न चिकि 
त्सामो के प्व कौ घेयंपूरवक प्रतीक्षा करे। क्षय, कृश्र, कीलसादि राजस गेगो 
मे सात्विकी घारणा करे । जिप्त-जित स्यान मे किती प्रकार का विकार उत्पन्न 
दौ, वहां वहाँ घ्ाप्विकी धारणा करे। जो मयभीत हो जाय उसके मस्तके पर 
लकड की कील रखकर धीरे धीरे खटखटावे । {सते उषकी सन्ना लौट बाती 
है) वणरसपरनवग्टक्तियाहीले ह्वय मौर चज्दर मेधारणा करे मगर 
तिपाक्त पदां सेवन क्रेमेबागयाहो, तो हदये वि्तल्या धारणा करे॥ 
मनम पवेनमय पृव्योकी धारणा कर हदय मेँ देवता मौर समद्र कौ धारणा 
करे सोमी रेस्ती चिर्भित्सा कै लिये हजार घडे तङ से स्नान करते ह । कण्ठ तक 
जलमें पूमकर मस्तकमे धारणा करे माक (मदार) केसूदे पत्तेकी 
दीनि बनादर दीमककीमिद्री को घोलकरपौ जाय । योग सम्बन्धी दोपौ 
की चिङ्ित्पा पेती ही आन्तरिक क्रिया द्ाराकी जाय ।* 
यहो हई योमाम्याप्रमे मूलं के कारण उत्मन् हो जाने वलि बिजार 
सौर दोपो की वात। योगने लारीरिक क्रियाजो कौ श्पेदा मानच्िक भाव 


( २ ) 
ना छा महत्व यधिक है, इसलिये उसमे दोपो को विदित्वा भो मानवि 
ढणकी होनी चाहिये । योगी कौ घारणा शवित निप्सम्देह प्रभावशाली होठी है 
ओर बह शरीर की आरोग्यप्रदायक शविति को विसौ स्यान पर प्षलग्नष्रर 
1 । इसलिये योगी के दारीरिक कष्ट सामान्य उपायो ठेदहीद्रर्दौ 
जाति । 
आनसिक विकारो का प्रतिकार-- 
शारीरिक व्याधियो कौ बधेक्षा भो मानसिक विकार वडे बनिष्टकारी 
आर मनुष्य का पतन करा देने वलिते । शरीरके कष्टो को स्हतेटए 
जीवन के भावश्यक कार्यक्रमो को किसी प्रकार पूरा कियाजा प्कतादै, पर 
मनौचिकारो मे ग्रस्त प्राणी कातो भषने कपरसे नियत्रणही हट जाताहै मौर 


वह शारीरिक हृष्टि से स्वस्थ होते हये भौ निकम्मा या हानिकर हो जाताहै) 
इत सम्बन्ध मे विवेचन करते हू पुराणकार लिखते दै- 


"तत्व दृष्टि से योगियो के उपसर्गां ( व्याचिमो } पर विचार क्रनेसे 
विदित होता ह कि यदि मनूप्योचित्त विविध कामना, स्प्री-प्रसग की यपिलापा, 
पूनोपवादन इच्छा, वियादान, मनिनहोत्र, हवियं्ञ आदि तपस्याए, कपट, धना- 
जन, स्वगे की स्पृहाबादि वस्तुलोमे योगी भास्क्त हो ग्या तो वह्‌ 
विद्या के वशीभूत हो जायगा । इपलिए इनक उपसं समश्च कर निरण्तद 
इनत बचने का उपाय करना चाहिए । दूर की ध्वनि सुनने की शक्ति, देवताभो 
का दन सिद्ध का लक्षण कहा गया रहै । विद्या, कवित्व, शिल्प नँपृण्य, सब 
भापामो का बोध, विदा का तत्वज्ञान, सुनने योग्य शब्दो कौ सौ योजन दूरे 
भी नुन लेना, यक्ष, राक्षस गरघवं आदि का दिव्य दशन आदि योगियो के लिये 


विष्नस्वषूप हँ । योगौ जब सव दिशा मे देव, दानव, गन्धर्वं, ऋषि, पितरौ 
को देखने लगते ह, तव वे उन्मत्त हो जाते हैँ । 


आगे चलकर फिर कहा गया है कि योगिथों कौ ठ प्रकार की सिद्धि) 
कही. गहुजिनको योग के माठ रेश्वयं समक्ञना चाहिये । यहे तीन प्रकार 
का होता है- सावद्य, निरवद्य मौर सूक्ष्म । सावद्य नामक तत्व पषभूतात्मक 
दै, निरवद्य भी पचमूताह्मक है । स्थूल इन्द्रि, मन ओर शहदार्‌ एव सूर्म 
दृन्दिय, मन भौर बहार तथा सम्पूणं आमरपाति-अष्ट देवरथो कौ यह 


( २१९) 


वरिदिधि श्रदृतति है । व्रेलोवय में जितने जीव-जन्तु हवे सव देवे योगी के वश 
महोतेह। वे तीनो लोको के पदायंको पा सकते ह, इच्छानुरूप विपय भोग 
कर सकते है। यहां तक कि शव्द, स्पशं, रेष, गन्ध, ख्प मौर मन आदि 
प्रतिक इन्द्रियों के विषय मौ योगो कौ इच्छानुसार भ्रवतित होते रहते है । 
एसे योमी कौ जन्म, मृत्यु, छद, भेद, दाह, मोह, सयोग क्षय, क्षरण, देद भादि 
कुठ मी नहीं होते, ^¶र इतना खव होने प्रभौ गदि वे ब्रह्मनान क्रा भव 
लम्थन करफे पवग नामक परम पद की ष्ठावना नहीं करते तोये रागव 
राजप्त-तामतत कर्मो कै भाचरणते फिर उन्दीमेक्लिप्तहो जतिर्है1 उनमे से 
जौ सुहृत करते हं वे उसके फलस्वरूप स्वर्मलाम करते ह वे फलमीग करने 
की उपरान्त पुनः भ्रष्ट होकर मानव-जन्प प्रप्त करते है । ६स कारण मत्यन् 
धूक्ष्परजो परब्रह्महै वही स्वेकालीन है मौर उख ब्रह्यका ही सेवन करना 
षाहिपे 1“ 


वास्तविकता महौ है कि मनूष्य क्षान, योग, कर्म॑, मवति किसीभी मामं 
प्र वले जव तक उषे विचारोपें शुद्धता, पवित्रता, निस्वावंता भौर सात्विकता 
नही भागी, उसे बिसी विरस्थायो फल फी भाषा नही हो सवती । धोटठे समय 
धक देटपूर्वक दन्दियों को रोक कर कोटं साधन करके दिते शिवि प्राप्तकर 
लेना भौर बात है तथा मन भौर यन्त-करण क्षो क्रमणः बिल्कुल निर्मल भोर 
णुद बनाकर ईश्वरीय अदेश वे अनूद्रूल मा्णेकोही पुरी तरह प्रहण कलना 
दूसरी वातदै। पहली श्रंणी के व्यिठि योडे समय कै लिये कोई चमत्कार-षा 
दिललाक्रर दृनियां को प्रमावित कर सक्ते ६, नामवरी, यश भौर प्रदासाभी 
भ्ाप्त कर सरक्ते है, पर उनकी ये चीजें ज्यादा खमय तक टिक नदीं सकी | 
तना हौ नही रेते भ्यक्तियो मेख न्ने ही बादर्मे स्वां मौर विपयोकी 
खालसा मे फंसकर पतित मी हो जविर्है। उनकी वही गतिदोठीटै जसि 
गोता में क्ट है- 
मर्मेन्दिय सम्य य॒ शास्ते मनघास्यरन। 
इद्धियार्थान्विमूढारमा मिध्याचार ख उच्यते ॥ 
जवन के उत्यान बोर अध्याटम क्षेत्र यें उच्च स्यान प्राप्तकसेका 
मामं शुद्ध मौर बत्य मों ते धर्मानृष्ठान कना दै } जो ध्यस्तिमन के भीठद्‌ 


( द्र )} 


कामना रखकर साधन-मजन करते दँ उनको सिदिया सौर चमलार कौ एत्ति 
कर लेने प्र भौ अन्तमं गिरना दही षडतादहै। 
1 का प्रतिपादन-- 
धार्मिक-जीवन मे दिवा मौर अहिषा का प्रश्न वहत महत्वपूर्णं दै । यो 
तो हा प्राणौ जगत का एक सामान्यं नियम है मौर “जीवो ओवस्य भोजनम" 
कौ लोको प्रचतित हो मई है) भर यह नियम उन विवेकषून् प्रागियो वे 
लिये है जिनको ईश्वर ने ज्ञान रूपौ महान तत्व प्रदान नही कियाद । पररजिर 
भ्मनुष्यः प्राणौ के लिये भगवान्‌ ते क्ञान-विज्नान-अव्यात्स के सव रास्ते खो 
पिये ह उसके लिये घर्वोज्व यादशं 'मात्मवत्‌ सर्वभूतेषु का ही हौ सक्ता 
जब समस्त सपार मे एक ही भत्म-तत्व व्याप्त है मौर प्राणीमात्र एक द 
विश्व-पापी चैतन्य ततव से उद्भूत हुमा ह तव कोई ज्ञानो व्यविति किस प्रकार 
जीव हि का समर्थन कर सकता है । इस देश के कु धर्माचायों ने “वैदिक 
हि (3 हिसा न भवति" लोकोगिित का सहारा लेकर यज्ञादि मे हिसा फा प्रति 
` पदेन फरिया है, पर उनकी इस गनीतिमूलक प्रणाली के फलस्वरूप यज्ञ-षमं 
का विरोध दहने लगा मौर अन्तम ेसा समय भाया जव इस देश वे यज्ञप्रष 


न लोपहीहोग्या ॥१/बृः ^मे ष रपूवंक विवेचना 
कीरै मौर स्पष्ट शब्दो मे यह निय कियाद कि यज्ञादि मे जीवे दिता कदि 
स नही हो सकती ।) रेता युग मे यज्ञ का प्रचलन होने की वर्णेन करते 


शुषि कैं सम्बन्व तै उसमे यह कथानक मिलता दै-- 


"जव त्रेता मे वृष्टि के उपरान्त सभीं प्रकार की भौषधि्यां पृथ्वी षः 
पैदाहो गर्ह, लौग घर द्वार. भाधमं भोर नगर बनाकर रहने लगे, तो विशव 
भवता देवराय च्य ने वर्णाश्चम धमं की व्यवस्था कर एेहिक एव पारलौकिक 
कल्याण फ लिये वेद सदितायो गौर मच्रो का प्रचार करे यज्ञ की प्रया प्रचिः 
की 1 उस समय अश्वमेध यज्ञ फा कायं जव भारम्म हमा तो सभी महपिगष 
आकर उसमे सम्मिित टौ गये, भौर मेध्य पशुमो के द्वारा यन्न का मारम्भ सुन 
कर सभी सोग दर्गेनायं उपरत हुये । जव समी पुरोहितगण उस निरन्तः 
खलने वालि यज्ञ-कमं मेँ थ्यस्त हो गये, यज्ञ मे भाग लेने वाति देवता भौर महा 
स्मागण बावाहित हने लगे, ठीक उषी समय यक्ञ-मदल म समागत महपिगण 


( २३ } 


भ्ष्वयुगस को पञयुयो के स्नानादि मे सम्रुयतं देखकर उन पशु कौ दीनता 
पर करणाद्र होकर इन्द्र से योने कि “यह्‌ वुम्हारे यज्ञ की कसी विधिहै? 
¶ृहसामय धमं कायं करने के इच्छुक तुभ यह महान अधमं कायं कर र्हेहो। 
हि सुरोत्तम । तुम्हारे जे देवराज के यजञर्म यह पशुवध कल्याणकारी नहीहे। 
हन दीन पुमो कौ हिसा से तुम पने सचित धमं काविनाण कररदैहो। 
यह पशु हिसा कदापि धमं नही है, हिसा कभी भी धमं नहीं कहा जा सक्ता । 
यदि तुम्हे यज्ञ करे की अभिलापाहैतो वेद विहित यज्ञ का भनष्ठान करो 1 
हे सूरर्रे्ठ ¡ वेदानूमत विचि से किया गवा यज्ञ अक्षय फलदायी होगा । उन 
यज्ञ-बौजो ते तुम मल मारभ्म करो जिनमे हिखाकानामनही है! हैडह-ढ । 
भ्ा्ीनकाल मे बीभ वपं पुराने रते हये बीजो द्वारा ब्रह्याने यज्ञ फा भनुष्ठान 
करियाथा। वह्‌ महान घ्म॑मय यज्ञाराघन है) 

इ प्रकार्‌ उन तत्वदर्शी समागत मुनियोंके कटने पर विश्वमोक्ता 
दनद्रे को यह सशय उत्पन्नो गया कफिअव हमे स्थावर तथा जगमइनदौ 
अकारक उपक्रणोमे मि किसके द्वारा यज्ञाराघन करता चाहिये इन्द्रके 
स्च विवाद मेँ पड़े उन मुनियो न यह समन्लोता किया कि ईस विपयमे राजा 
भसु की सम्पति ग्रहण की जाय । 

छने रने राजाबगु के पाय जाकर कहा-हे परम बुद्धिप्रा राजु । 
आप परम धार्मिक राजा उत्तानपाद के पुत्र भौर स्वथ महामहिमशाली ईह, बत. 
हूमलोगो के दसं घणपको दुर करे । कृपया यह्‌ बतारवे करि भप्नि यज्ञो फी 
निधि कि प्रकारकौ देखलोहै? इस बाति को सुनकर राजा ने उचित सनृचित 
का विचार न कर केवल ग्रन्थो के यज्ञ विषयक वचनोको स्मरण करके पह 
कहा क्र शास्ीय उपदेशो के अनसार यज्ञाराषन करना षाहियि । शस्त्रो का 
कथन है कि मेष्य पशुमो दारा अथवा बौजो भौर फलो द्वारा यत्त करना 
[वाहये । यज्ञ कास्वमाव दही हिसा है, पचा मुद्े वेद॑ वाक्यो से मालूम हमा 
दै । परम तपस्वो योगी, महपियो के द्वारा अविष्कृत मत्र समुह हिता के चोतक 
{है मौरत्तारकादि दर्नोद्ारा भो यज्ञो का हिसामूलक होना अनुमित हे! राजा 
| वस क रसौ बाता से निदत्तर हकर उन येगयुक्त तयस्वी ऋषयो ने कहा- 
ह राजन 1 वरु राजा होकर भी एेखी मिष्या वाठ कह रहा टै, अत चुप रह्‌ ।' 


( ९४ ) 


दा फेने के वाद उन्दोने नीचे कौ घोरवने एव मवनकौीबयोरदेवाभीर 
कहा "अब तृ रसातल मे प्रवेश कर ।' भुनियोके एवा वहते हौ रजावघुःजौ 
धाकाश्चारो था वधुधा तल पर आ गया । जत पण्डित व्यवित को भी धमं 
कानिण॑य करनेमे बहुत सतक रहना चाहिये । क्योकि धमं के गनेकं दार 
होति ६, इसकी सूम गति का वास्तविक ज्ञान अतिशय गूढहै । महैपियो ने 
जीवह्साको धर्मकाद्वार नही माना है" 
यथपि अयोगति मे षडे जीवोके लिये हिसा कासर्वेया त्याय मौर 
महिता दे उच्च माद्यं का पालन बडा कठिन, तोभी धमं कामे हसि 
का प्रवेश कदापि वाषछठनीय नही कहा जा सकता । किसी एक व्यक्ति कै हिता 
करने से उसका प्रभाव भष-पापर के थोडे लोगो पर ही पडता है भौर उवे कौ 
महत्व नही दिया जाता, पर धर्म-कायंमें हिषाहोनेसे उते एक प्रमाणी 
तरह मान लिया जाताहै गौर समस्त समाजके लिये ही एक दुषप्वृत्ति की 
मर अग्रसर होने का मागं खुल जाताहै।! अत यज्नोकेसूपमे जीव हिसाका 
विधान निस्सन्देह, प्ूरता भोर भधामिकता का परिचायक है भोर इसत मनुष्य 
की निम्न वृत्तियो फो प्रोत्साहन मिलकर उसका पतन ही होता है। 
वैज्ञानिक दष्टिकोण-- 
~ -परचिन स्पे ज्ञान-विज्ञान के सम्बन्ध मे जितनौ खोज कोगर्ईथी 
वह्‌ पर्याप्त महत्वपूर्णं दै 1 उसी के माघार पर भाज का विज्ञान चमत्कारी 
अविष्करार कर रहा है। भग्नि भौर जल द्वाराभापका दजन वनाकर रेल 
चलाना निप्तष्देह्‌ बुद्धिमत्ता का प्रमाण है, पर लिन मनुष्यो ने दावानल के 
भयकर भग्निकाण्डमे से थोडी थग्निज्ेकर उसे शृदोपयोगी सूप मे भरयोग कयि 
वह भीकम प्रणसाकेपात्रनही दहै । सी प्रकर वतंमान-युग मे भणु-वम एक 
युग परिवतनकारी बविष्कार है, पर जिन भारतीय मनीपियोने कई 
वधं पहले यह घोषित करदिया था किरार कै प्रत्येक पदाथं का मादि 
कारण परमाणु दै भोर वौ सृष्टि्रक्रिया कामूल भआधारहैवे ही परमाु, 
विज्ञान के वादि प्प माने जावेगे । वायु-पुराणकार कौ दृष्टि भी सूष्टिअक्रिय 
खोर उत्से निमित विमिन्न प्रकारके पदाथोँकेम्रूल कारण षर रहीदै 
यरदीपि उन्हेनि पौरीणक्‌ परम्परा दे अनुसार सूये, चन्द्रमा, प्रह, सक्षत्रं + 


( २५ ) 


देवता मानकर उनके रथो, धोद, महलो गौर दरवारियों का मनोरंजक वणेन 
किया है, जिसे जन समूह उनकी मौर म।कथित हो, पर साय हौ वौच-वीच 
मे विद वैज्ञानिक तथ्यो का परिचयमीदेदियादै। यद्यपि सूरं को उन्हनि 
सरव॑सावारण कै ज्ञानानुसार पृच्वी से वहत छोटा मौर चन्द्रमा से माधा प्रकट 
किया है कौर सोकरेजन के निमित्त उसमे मूनि, ऋषि गन्धव, अप्सा यातु 
धान, सपं बादि का दरवार लगता मौ वतलापा है, पर प्तय ही अन्य स्यान 
पर यह भी प्रकट करदियाहै ससार का एकमात्र भौर मादि कारण सूरय 
ही है। उसभ णहा गया दहै-- 
“तीनो लोको का मूलकारणस्य ही है इसमे सन्देह नही । देवता, 
असुर भौर मनृष्यो से पूर्णे यह सम्भरणं जगत सूयंकाहीदहै। द, इन्द्र, उपेष्र 
भौर षन्द्रादिदेवौकाजोतेजहै, वहुसूरयंकाहो तेज दये दही सर्वामि, 
स्वंलोङेण खीर मूननरूत प्रम देवता दै $ सरं से ही खव उत्पण्य होते कहै मौर 
मं मे टी परब लीनहोतिहै) पूर्वकाल मे लोको की उत्पत्ति गौर विनाश 
भूर्यंसेही हुमा है । जहाँ से वारम्बार क्षण, महु, दिन, रात, पक्ष, मास, 
सवस्सर, -छतु, वपे, युग भादि उत्पन्न होकर जिसमे लय को प्राप्तं दोति ह, 
वहसूरयंदहीदै) सूयं कौ द्योडकर गौर किषौ साधनेसे काल की गणना नही 
कौ जा सक्ती । मौर बिना काल तया समयके न शास्र, न दीक्षा, न द॑निक 
छत्य ह्ये सकते है । ठव न श्तुमो का तिमागहोगा, न पष्प दिते न फन 
परल कौ उत्पत्ति होगी, न सस्य होगा न जौपधिर्यां डमी । सार को प्रतप्त 
करने वाति भौर जले का आाद्रण करने वलि सूयं करे बिना यहां क्या, स्वे 
मे भरी देषो का व्यवहारिक कायं सक जायगा । विप्रो । मूंदी कालदै, मग्न 
दै भौर द्वादशा प्रजापतिदहै।ये ही तीनो लोको के चराचर को भ्रतप्त किया 
करते है । पूयं देव परम तेजस्वी र लोक पालो के य्साहै ये उत्तम वागु 
मार्मं का यवलम्बन करके किरणो द्वारा ऊपर-नीचे, मगनल्न-वगल भौर सभी 
जगहो मेँ तपि-दान करते है । 
वायु पुराणनेसूर्येके विपयमे जो लिखा है वदी आधुनिक विज्ञान 
कीखाजिसेध्रक्टहमाह। सूयं से द्यां समस्त ग्रहो भर उपग्रहं का उत्पति 
होती है, वही इनमे जीवन मौर प्राणतत्व की उत्पत्ति का मख्य दतु है, वही 


\। २६ ) 


जयत ते सव व्यवहारो कौ स्यिर रघ्ने का आधारहै गौर बलम यदी ध्न 
सव कौ प्रलय भी करता है, यही विज्ञान का बाघुनिकतम हिदान्त दै! पमं 
यास्त के मतानुसार भी गव्यक्त परब्रह्म बा प्रकट स्य सूयं ही दै । वदी उत्त्ति 
पालन, मौर प्रलय के कर्ता के स्प मे.बरह्मा, विप्मु मौर दद्र बै 
कायौ की पूति करता है । दप प्रकार धरमंथास्प् तथा विज्ञान दस सम्बन्ध मे 
एक मतत टै किंसृष्टिकामूल बाधारसूरयंही है भौर यही वात उपयेक्त उद 
रण मे वायृपुराणकारने स्पष्ट श्दामेकहदीदैष। 

पहभीख्पष्टहकि खस युगमे यत्र-विद्याका इतेना भिक प्रवार 
नही था कि आजवल की तरह भीमकाय दूस्वीनो तथा अन्य ताप-मापक्‌ यत्र 
दवारा द्रुरवर्ती ग्रह, ताराओ का आन्तरिक रहस्य जान सके स्वम वायृपूराय 
ने ज्योतिप सम्बन्धी वातो का पता लगाने के लिये जिन साधनो का वणेन 
क्रियादि उने यप्रोका जिकर नही क्या है “ज्मोतिमण्डल का विस्तार" 
शोरपंक भकणं के अन्त मे उन्होने स्वय लिखा है 

"जपोतिर्मण्डल का ठीक-ठोक वर्णेन कोई मो मनुष्य चम-चकुमो रे 
देखकर नही कर सक्रता ! बुद्धिमान मनुष्य शास्प्र, अनुमान, प्रत्यक्ष एवे उपपत्ति 
(युज्रिति) दार निपुणतापूवंक परोक्षा कर इनमे भव्ति मोर सदा करे 1 वुद्धि- 
मान विभ्रो । जयोति-तत्व के निणंय मे चक्षु, व शास्व, जल, तिखित प्रन्धादि 
घौर गणित बेही पांच कारणक्हे गये है।” इससे यहसिदहोताहैकि 
पुरणं के रचयिता अपनी तकं वद्धि मौर योग॒ शक्ति (एकाग्रना मौर घ्यान) 
भे सृष्टि मूल रहृस्यो को भधिकाश मे समज्ञ सङ ये । यदि उम्ेनि ध्न विषयो 
को रूपक, उपमा, दृष्टान्त के यावरण मे दिपाकर प्रकट किया है, तो इतका 
कारण यहीहै कि वे जनसाघारण कौ सामने गहन तत्वो अधिक रूप में रखना 
निरर्थक समप्षते थे । सामान्य वुद्धि वासो को त्यन्त सरल रूप मे इन एत्वौ घे 
परिचित करा देने का काम जं यूव्रित बौर चतुरता से न पुराणकारोने 
सम्पन्न किया उष प्ररासनीय दही कहा जायगा । इनके द्वारा सवसाधारण मे 
सैकड़ों वधो तक माध्यात्मिक, नंतिक, चारित्रिक शिक्षा का प्रचार होता रहा 
मोर लोगों मं घर्म-कर्तव्य वुद्धि जागृत रही ॥ 

यह वातदूषरी है कि कालक्रमसे इसक्षत्रमे भीष्वार्यी गौर कमं 

* | 


( २७ ) 


योग्यता वाते लोगो ने प्रवेक सिया मोर अपने स्वायंको पूर्ति की निगाहसे 
्रह-तरह की मिलावट करके पुराणो कौ निर्मल धाराकोर्गदला वना दिया। 
स्वार्थीजन सर्दव लपना दाव-घात दस्त रहते है मौर जहां कही लभ का 
मौका देखते हं वही तरह-तरह के छन-दल, धूर्तता से मोत्तर चुस्त व॑र दोप 
उत्पन्न करते हँ भोर सपना मतल पररा करने कौ चेष्टा करतेर्हु। रेपे य्पक्ति 
कभी दहत कानकी भौ चिन्ता नही करते तरि हमारी इस सामयिक स्वाधेपरताके 
कारण जन-जीवन बहत रमय के लिये पतित गौर महित हो जामरगा वर्तमान 
सपय कौ राजनीतिक सरस्थाओ मे इसका उदाहरण मलीभांति देखा जा सक्ता 
है कि किस प्रकार लोग देशभक्त मोर जन नायक का वेश धर कर भीतर घुसं 
जति हं भोर सच्चे कार्यक्ठमि को हटाकर श्रष्टाचारकोजन्मदेते है। यही 
बात पुराणौ के सम्बन्धमेभीहृरईहै मोर इसी से हमको उनका विकृत सूप 
दिखलाई पडता है । 


9 प्रदायिकता के दोप का जमन-- 


पुराणों पर प्रायः साम्प्रदायिक विद्रेप को वाते फलनि का दोपारोपएण 
किया जता दै । करई दीव पृराणौमे ब्रह्मा मौर विष्णु के सम्बन्धमे वहत-सी 
हीनता द्योत्तक बातें लिखी है मौर एकाष वैष्णव पुराण मे उसी तरह रिव 
को नीचासतिद्धकरनेकीचेष्टाकी गह है। कसी नव लेखक ने तिमा 
कि श्विध्णु को भणामः करने वाला व्यवित नरकेगामी होता है'तो उसी के 
मुकावसे के क्रिस वैष्णव नामरघारी ने दिव-पूजा को घोर पाप कमं घोषित 
कर दिया । द ठष्टि घे "वायु पुराणः का दर्जा काफी ऊेचा माना नायणा 
कि जिसपर शोव-पूराण' कटलाने पर मो विष्णु. के सम्बन्ध मे कोई निन्दास्मक 
वातत नीहि वरन्‌ तीन अध्यायो मे विष्णु-वश् का वणेन करते हये जगह 
जग्रह उनकी प्रशसा ही की गड है ।(वायु पूराणणमे मी दक्ष मौर हिव के 
विरोष तया स्यं की कया दी मई है पर उसमे विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र लादि की 
यसी दुर्मति तथा हीनता का एक शब्द भो नहीं भिता जता किं श्विवपुराण, 
दाहितं दियत राक णू पुर्ण दिविद्ोङी इष्टि का प्ल कौर 
सवं शक्तिमान बतलाया गया है पर विष्णु के सस्बन्धमेंभो उने जव कमी 


( २८ ) 


उनको पर्वा आरै, सम्भान युक्त मापा का प्रयोग शया दहै। पिप्यू षै 
विभिन्न सवतारो षे रदस्य को जानने की द्च्या रतने दते पिरयो ने उनकी 
महिमा का जित प्रकार वणन गया उदे श्रबटहोता दहै भि हम पुराण बै 
रचयिता देः विवारानुमारः विष्णु का सम्परान महादव वे पमानही है} पिरयो 
ने मूतजौते विष्णु भगवन कौ कथा सुनने को प्रमिनपा करते हये दहा-- 


“श्ूतजी ! भगवान विष्णु किसिकलिमे पृथ्वी पर्‌ प्रासूत होति? 
उनके कितने भवतार कटै जाते ह ? भविष्य मेभन्य कितने यवतारदोगि? 
युगान्त के भवसर पर्‌ ब्राह्मण एव क्षत्रिय जातिर्मेवे विप्र तिये उत्प होते 
है? वे हस प्रकार बारम्बार मानव-योनिमेंक्रिस लिये जन्मधारण क्से? 
षस हम लोग जानना चाहते है, कृपया किये । उन परम बुद्धिमान ध्रु षहार- 
कारी भगवान हृप्ण के शरीर से जो-जो कमं सम्पन्न होते ह, उन सवश्ीहम 
भली भाति सुनकर वाहते ह । उनके ठेमे कार्यो को कमपूवंक हमे वताश्ये, 
उसी प्रकार [उनके मवतारों के विषय मेमी वर्णेन कीजिये। उन सर्वेष्यापी 
भगवान कौ भ्रवृत्ति के विषयमे मी हमें जिकास है । महा महिमामय वे भग 
वान विष्णू क्रिस प्रयोजन की सिद्धिके किए वसुदेव के कुल मे उत्पन्न होकर 
वासुदेव (वमृदेव के पृश्र) की पदवी प्राप्त करते है ? देवताभो भोर मनुष्यो को 
उचिन मागे पर लानि वलि, भूमुंव आदि लोको के उत्पत्तिकर्ता मगवानि हरि 
फिसलिए्‌ दिव्यगुण सम्पन्न अपनी भात्मा को मानव-योनि मे समाविष्ट करते 
ह? चक्र धारण करने वालोमे भ्रष्ठ जौ भगवान भकैलेही सकार के मानव 
मात्र के मनरूपी चक्र को सवंदा परिचालित करते रहते ह, उन्हे मानव-योनि 
मे उष्पन्न हनेकी इच्छा वयो हई ? सर्वत्र व्याप्त रहने वाते जो मगवान 
विष्णु त समस्त चराचर जगतकौ सर्वत्र रक्षा करने वाने है, वे किसलिये 
षस पृथ्वी परर भवतीणं होते है मौर किसलिट गौर्मो का पालन करते है। 

“जौ भूतात्मा मगवान सपार के समस्त भूतो (पृथ्वी, जलत, मग्निं 
आदि) कोधारणं केरने वलि तथा उन्न करने वल्लि, जो लक्ष्मीदार 
धारण किये जने वलि, वे एक मध्यं लोक निवासिनी सामान्य गृहिणी के गर्भं 
मे किस निये यति ह जिन्दने देवताओं को यज्ञमोक्ता तथा पित्तरो को धाद 
पेतः करप, ऊ स्क्फ वपतादि दुन कपे ने त्क के अपत्वा्ट भग के लिट 


{ २६ ) 


६ 


यन्न रूपमे प्रतिष्ठिठ होते है, जिन्होने युग के अनुसार तीन लोको की क्रमा. 
नुसार रचना कर क्षण, निनद, काष्ठा, कला, सूत, सविष्यत्‌, वतमान, ये तीन 
काल, महतं, तिथि, मास संवत्सर, ऋतु, काल, योग मादिकी रचनाकीरहै, 
जिन्दौने भवं जीव समूर्होमे व्याग्त रहकर सवजीवोकौ सृष्टिक़्ीहैजो 
मानवकी इन्धियोमें योगद्वारा रमण करते है, जौ गत-अागत सवकेनेदारहै, 
जो सर्वश्र विराजमान एवं जगत के विस्तृत विविध विधानो के अधीश्वर ई, 
ओ धर्मात्मा लोगो की एकमात्र गत्तिर्है, जो पापात्माभो के लिये दुर्मततिस्वरूप 
है, जो चारो वर्णो, के उप्पत्तिकर्तां एव रक्षक हु, उनका वणन हमे सुनाष्ये 1 
“हन समस्त लोको की सृष्टि करने याला जौ सनातन पुश्प रहै, बह 
दप्त मत्यंलोक मे किस तिये आगमन करताहै ? परम बुद्धिमान सूजी ! 
दसवात काह्मेवढा ही सब्देहहै मौर महान विस्मयम तोगहहैकरिजो 
स्वयमेव सदृगति प्राप्त करने वालो मी गतिर, वह्‌ मनुष्य शरीर धारण दही 
क्यो करता दै ? भगवान विष्णु के इन भाणए्चयं मे डालने वाले वर्मोके विषय 
परे हम लोग क्रमानुसार सुनना चाहते ह । वेद एव देवगण उन ॒भ्रगवान विष्णू 
फ परम माश्चयंमय बतलाते हैँ । हे महामते ! भगवान विष्णु की उष आश्चयं. 
परी सम्मति को भाप बत्तलाहये । उनका भास्यान कहने मोर सुनने वालो को 
ररम सृलदेनै वाला । उनके वल एव परक्रम की विरेय स्यातिदटहै।वे 
परभ रश्वर्यशाली एव महाय हैँ । उनके वमे आश्चयं से भरे है, उनके परा- 
क्रमके सम्बन्यमेभी हम लोगो को बतलाइये 1" 
क्रिी मन्य शेव-धूराणमें विष्णु का इसप्रकार गुणगान नही षाया 
जाता । उस्टा मनेक तेको ने उनङ़ लिये अनुचित, अपमानजनक शब्द घौर 
धटनाक्रमो का प्रयोग क्या है। यद शेली दीक नदी ौर इस प्रकारकी 
मोटी बते पढने ३ पारक के हृदय मे कहने वालो कै प्रति सम्मान की भावना 
कम होजाती है। इस दृष्टिसे श्वायु पूराण' के वणन सर्व॑न सम्यता भौर 


( ३० } 


होकर पौते--“ विष्णो ! देव ! ताद्वत ! पुनो, नेरी वुम्हारे ऊपर यत्यन्ठ 
परीति 1 प्रपाद-यव्रतराण, जङ्खम-स्वादर, ब्रषवा यहु साराविदवदीष्द 
मौर नारायणप्यरह। पै जनिहतुम सोमो, तुमरात्रि यौरर्मे दिनि! 
तुर््वदोरमत्यहै।वुमययहो ग उका फतहि । वुमन हयर्भे मेष 
ह| सुगत करे वति जन तुम्हारा जप वर, तुमवो प्रसन्न कर मुं धविष्ट 
हो जति । युगक्षयकानमेहमदोनोकोदछछोडषर दूमरी वो ग्तिनद्ी है) 
दुम घनेको अति समश्लो गौर मु्त्नो पुष्प । तुम जिस प्रशरारमेदे चाधि 
शरीर हयोरसी प्रार्य मौीतुन्ह्रा भषाशरीर ह। तुम हमारे महन 
श्रीवत्स पद तक्षण इयामन वाम पाशवं हो यौट पे नील लोहित दक्षिण पाश्वं 
ह। हि विष्णो तुममेरेहृदय होबौरर्मे तुम्हारे हृदये त्वित । तुम समी 
कायो के कर्ता मौर प कंिच्ठित देवता हृं । तुम्हा क्त्याण दो +" 

वायु पूराणकारने ओ इत प्रकार की घदाशयता, प्रालीनता षौ परि 
शेय दिपाद वहु घमं केलिये परम हितकारी है) यदि न्य पुराणवारभी 
सी ही मनोरृ्तिका परिचय देते तोथाज यहं देण साम्प्रदायिक विद्वेष 
भौर पारस्परिक विरोध-मावना से बहत कु मुर होवा! यदि फो्ईररिती 
सन्ध के उपास्यदेव परकटाक्ष करेणातो वहमी वसो भावना भरकट 
करेगा गौर इसते समाजमे कलह तथा वि्द्धलता फैलेगो भौरधर्मकी 
घप्रतिष्ठा होगी । इमनिए इसं विपय मे वायुपुराण" की नीति सर्वथा 

केन है) 

ष्वायु पुराणः क वर्णना कौ स्पष्ठता-- 

जैसा पृते वतननापा जा चुका है पराणकारो ने घनेक वदिक-तत्वो से 
रूपक, अलकारयुक्त वडौ-व्डी कथये बनाकर मनोरजन के साथ धर्म॑-शिक्षप ' 
कौविधि तेकामल्लिया है 1 उदाहरण केलिए वापनावतार' काकयान्‌ः 
श्रविद्धहै। वेदो मे विष्णू की प्रशक्ता करते हए दो-चार स्थानो पर यह कट्‌ 
सयाद कि “यह्‌ समस्त जिश्व नप्रकीषैरो की पूलस सरमाया हुवा ह+" 
यहे कयन त्राह्ण प्रलयो मेव्याख्परा द्वारा वलि-वामन को संक्षेप कयाके रपरे 
बदल दिया गया भौर पुराणो मे इसे क्रमदाः वाति हृए मन्त भे ष्वामने पुरा 
जेते स्वतन्त्र प्रन्यके रूपमे प्रस्तत्र करद्विप्ना मद्रा. 


( ३१ ? 


यही वात देवीं यादुर्ा की क्या कया के सम्बन्य में है । भाककंण्डेय 
पुराण" मे दी गई दुर्गा सप्तशती" कौ कथामे दुर्गां मौर बमुरौ केसम्रामका 
वरणेन वडे वौरताधू्णं यौर रोचक दद्ध सेका गया है। देवी भाग्वठ"भे 
तो उत्ते एक (महाडखणः के समान विस्ृ ख्पदे दिया मथा है! इनमे पूवं 
चरिव्र में मघु-कंल्म कावधहै, मध्यम चरिनमे महिपासुरक्रानधदैगौर 
उत्तर चरित्र मे शुम्म निशुम्भ यादिके वधघका वणन क्ियागयादै। 

देवौ काउत्तेव वेदोमे मीया हषर वहाँ विश्व कौमूलब्रूत 
विति-णक्ति ही देवौ" ह । उसका एक मुख्य रूप वाक्‌ या वाणो भी वताया 
गयादहै। वह शवाम्देवो' मपनो महिमा मौर शशि का वणन करती हर्द 
कटनी है -- 

“मित्र गौर वर्ण, इनदर मौर मम्नि, दोनो मरिवनीष्टमार इनक्ोर्मही 
धारेण करती हँ वमु च्द, बादिव्य इष श््रिक' कासचरणमरेहीदारया 
होता है 1 ब्रह्याणस्पति, सोम, व्वष्टा, पूपा, भगे हुनका भरण करने वाली 
हीह। राष्ट्र कोनापिकामुके दहीसमयो । महो वस्तुरोका सचयकरने 
वाली वसु पत्नी हं । जिठने यञ्ञौय बनुप्ठान रहै सवमे प्रथम भेरास्थानहै। 
देवो ने मुषे शनेक स्यानोंमे प्रतिष्ठित कियादहै। जो देखत, सुनतामौर 
सासलेवादै वहमेरी ही शक्ति से मन्न खाताहै। मँ जिक्षका वरण करती ह 
उ्सेटी उग्र, व्रह्मा, ऋति सौद मेषावी वनादेतीहँ {श्र के धनुपममेरीदही 
दाविति प्रविष्ट दै1 मेया अपना जन्मस्थान जलो के भीतर पारमष्टीसमुद्रमे 
है 1 वहांसे जन्म लेकर सव लोज्ञों मेंव्याप्तहो जाती हं । मेरी ऊचाई 
यलोक कौ स्पर्शं करती है । सञ्ञावात की तरह सांप नेतो हदं मै सव भुवनो 
का उपादान ह! द्लोक (स्व्यं) मौर पृथ्वी मेभी परेमेरी मर्हिमादहै। 

(ऋग्वेद १०।१२५} 
परबुराणोमे देनो के वणन को भव्यन्त विस्तारयुक्त क्थाकासूप 
देकर एक {भिन्न प्रकार की उपासना पदति कथा खम्प्रदाय का खोत वना दिया 
गया । उनेमे मधु कंटम बघके व्रसर परदेवीका विष्णू कौ भ्हामायाः 
करूपे व्ण॑न क्रिया गया, जिसने ब्रह्माजी द्वारा स्तुति क्रिये जनि.पर ^ ˆ 
जगाया बौर मघुवैटमको मोहित करके विष्ण 


{ ३२ } 


महिषासुर के उपाख्यान मे उत्करे पूरे रीर का वर्णन नियः गयाहै कि महा- 
देवजीके मुखस जो तेज निकला उसे उसका मूल वना, यम के तैजसे केण 
मौर विष्णु के वेज से उक्षो दोनो बाह वनी? चन्दमाके तेजसे दोनो स्तन, 
दरक तेज से मध्यदेश, वदण के तेज से जधा भौर उर, पृष्दी के तेज से नितम्ब, 
ब्रह्मकेतेजसे दोनो चरण, सूर्यं केतेज सेष॑रोकीमगली भौर वभुगणौके 
तेजसे ायोकी मुल बेनी | कुवेर से नासिका, प्रजापत्ति से दात्‌, शवक के 
तैजसे तीनोनेव्र, वायु के तेजते दोनो कान वेने (" इत धकार वद्‌ मगलमयौ 
देबौ उष्यन्न हई । सव देवताभो ने उसे अपने-मपने मख्य मस्तवर-श्स््र भी दिये 
जिनके दारा सग्रामं करके उपने महिपासुर को मार दिया) 

च्वायु पुराणम भौ मधु कंटमकेवथका वणेन आया है। यह्‌ वर्णेन 
वहे सरलदढद्धसे किया गया है। उसमे कहा गया है-- 

“सनवान शकरके चने जाने पर प्रम्न होकर पिल्णु भगवान फिर 
शयन करने जल मे घूस गये } तव पद्म जन्मा ब्रह्यागी भी असन्न होकर उस 
परस्ासन पर्‌ जा वंठे । उसके बहुत दिन वद वहां मधु कट नामक दो मतुल 
नीप बलशाली भाताओ ने तरण सूर्यं कोतरह चमक्ने वत्ति उस पद्मक) 
हिलाना प्रारम्भ कर दिया} उन दोनोकी आसँ अन्वक्रारमे चमकददीषथी 
सौरवेदोनोंदही वीर दस-देस निमेयभावसे पदप्नोको तोडरहैये)उन 
दोनोनेब्रह्मासे का तुम हमारे भक्ष्य बनो । यहु कहकर वे दोनो भन्तर्दनि 
ह गये । पद्मयोनि ब्रह्याने उनके कठोरभाव कोबौर अपने पराक्रम को 
जानवर तात्कालिक रहस्यम को जानना चाहा । वे उत कमल नाल के ॥ 
सीधे रसात मेँ उत्तर गये \ वह उग्टोने इृष्माजिन मौर उत्तरोप धारी 
विष्णु को देखा । उने उनको ज्गाणा मोर जगे प्रर ब्हा--ष्देव } हेमे भरते 
सेधयदहौरहाहै, उष्यि, हमे वचाष्ये हमारा कल्याण कीजिये !* 

श्वतं गो दमन करने वाति स्वय भगवान विप्णू हसते दूये बोने~-धुः 
चिन्ता नष्टौ, डरने षौ कोई वात नही ।' म्रह्याजी वे चते जाने पर उन भन. 
भगवान ने मपे मुख से विष्णु बौर जिष्णु नामक दो ध्रताजौ को उद्यन 
कखे शहा तुमदोनो प्रह्माकौो रकषाकरो । इधर मधु-वंटमने विष्य्‌-जिप 
षै मावागमनक्ौ वार्ता जान कर उनकौहो तरट्‌ अपनः रप वनालिया | उठ 


१ २३ 


एल कौ मपनी माया से स्तम्मित्त कर दिया आर विष्णु-जिष्णु से सप्रामेकेग 
चमे 1 उनको शुद्ध करते हुये सौ दिव्य वयं ध्यत्तीत हो यथे पर रणमदसेम 
उनभेसे कोई भरी युद्ध से विरत नही हया । उनका जाकार-प्रकार गौर सत्या 
परादि एक प्रकारका था गौर गति, स्थिति भी उनकी प्रमान दही थी तथा दोनो 
हा स्वष्परभीएक प्रकार काही था, इषपे ब्रहया च्याकरुल दो ध्यान करने 
रो । तव उन्टनि दिग्य-टृ्टि से उनके रहस्य को समज्ञा बोर विष्णु-जिष्णु के 
प्रपरके दारीरको कमत केतर छ सूक्ष्म कवच दारा वोप दिया वीर मन्तो 
ग पाठ करते लगे । मन्त्र जपते हृए ब्रम्ह कौ एक इन्दुवदना, पद्मसुन्दरी 
न्या उत्पन्न हई । ब्रह्मा ने पुद्दा--ठुम कौन हो? कन्याने कटा वाप मृज्ञे 
वष्णू की बान्नानुवतिनी मोहिनी माया समन्ते । इवर युद्ध करते-करते मघु-कंटम 
कि ये भोर विम्मू-जिष्णू ने उनको मर गला +“ 


प्दक्ल-पज्ञ का विचित्र कथानक-- 
र वागु-पुराणमे दक्ष-यत्तके विष्वस का जौ वर्णेन किया दै वह बन्य समस्त 
राणो से भिन्न दै। मभी तक सव जग्रह यही पढनेमे भायाया कि शिव. 
परली सती नै दक्यज्ञमे रकद का मागम देखकर यौगाग्नि मे जल कर 
प्स-बस्िदान कर दिया, तव शिवजी ने वीरभद्र को भेजकर यश फा 
व्रष्यस करा दिया 1 इसके वहतं काल पण्वातर देवतार्भो कौ मपार चेष्टा करने 
वदि उन्होनि पार्वती से विवाहक््िाथा। परर शवायुषुखणः का कथनदहैकि 
किसी समय सती दकष के धर परिवार वातौ से मिलने गर्दी पर दक्षने 
सकरा सम्मान मही किया जिसते उस्ने स्वतः आत्मघात्त केर लिया 
व शिव ने दक्षको श्राप दिषाकि तुम गले जन्म मे एक वृक्ष-कन्या के गर्म 
‰ उस्न गि मौरदुतेव नी तुम्हारा नामदका ही रखा जायगा । रसा दी हमा 

आर उप जन्ममे भी दक्षने एक यज्ञ क्रिया भौर महादेव को उम्रमे नही 
¶लाया । उस्र गवसरे पर देवताभो को आकाश मागं से जाति देखकर पावंतीजी 
8 उसका रण शृद्धा { जव उनको श्तिव के भषमान कौ बात मानूम हई ववे 
न्त रुष्ट हई सौर शिवजी को प्रेरिठ करके वौरभद्र द्वारा यज्ञ क नष्ट करवा 
श्या । उसी समय उमाके क्रोष से मद्रकाली की उत्पति हद जिभ्रने इस 
दभ भे पूर्णं खद्यो दिया । 


3४ ५ 


दस प्रकार व्वागुपुराणः मै वणित दक्षयज्ञ के नष्ट द्रिये नाने 
वर्णन शिव पुराणः (रामायण' दिके वर्णत स्ने बट मिन्नत र्वा! 

सम्भवत पुराण-रमी सवा उत्तर "कल्प-भेद' ब्रतलार्ये, प्र जव घ 
सव कथायं दसी समय की हो शौर धन्य ग्रन्पो से मिलती होतो किसी एक। 
हो पूर्वकल्प फी कहना कोई सारयुक्ते तकं नहीं ६} 


ज्योतिमेय तिद्ध फो कथा-- 


मूराणो मे अनेक स्यलो पट सृष्टि लारम्महोनेसे पूवं ब्रह्माभौ 
विष्णू के पारस्परिकं विवाद कै वसाः पर ज्योतिलिद्धंके उदूमव कीक! 
शो ग्र्दै भौर एकाध पुराण मे ईस प्रस भे प्रह्याजी को षहूत नीचा दिखा 
गया है भौर विष्णू कोभ शिव की गवेक्षा ब्रहुत दीन अ्कट किया गयादै 
पर "वायुवुराण' मँ इस क्याको भौ बहुतस्वामाविकसूप में दिया गया 
भौर शिवजी दारा यही कहलाया गरबा है कि--"देवताभो मे धष्ठ! मठ 
दोनो प्र प्रसन हूं । पूर्वकाल मे तुम दोनो सनातन पुरुष !भेरे एरीर से । 
उतपन्न हये हो । यह लोक पितामहं ब्रह्मा मेरे दाहिगे हाप बौर यह्‌ निः 
युद्ध मे स्थि रहने वालि विष्णु मेरे वायि हाय ह!“ इस कथानकमे भौर 
पूराणोंभेतब्रह्माकोसमूठां बनाने गौर उनका, एक मस्तके काट दिए जनि 
„मसि वणनों मे जमीन मासमान का मेद है। 


भध्यात्म ज्ञान फी अ्रधानता- 


भ्रन्यके धन्तमं पुराणकारने घ्यासजीके हृदयम निराकारधं 
साकार ब्रह्यका प्रए्न उस्नेकौ बात कहं फर दस विषय परे विचार किया 
कि परब्रह्म का स्वरूप वेदो के कयनानुसार भक्षर, जव्यव, अतीन्द्रिय मं 
चिन्मात्र है, यवा जसा मरकत प्रान कार्म कै प्ररोता बत्तलाति ह षह नाः 
प्रकार के मामरण धारण करे, वेणु वादन करते हुए गोपियौ सङ्क रासलील 
हाख-विलास, रतिक्रीडा धादि के प्रमो, गौं कौ रकषायं र-उधर दौढते ह॒ 
राधा दिलादीङैरूपमेदै। भक्तगणो ने उन प्रम पुरुष श्रीहृष्ण को गोलो 
धामे वासी व्तायाहैमीरक्हयाहै कि वे ब्षर, मव्य ब्रह्मसेभी परे 


( ३५ ) 


सत्पवदी नन्दन श्वास जी जव बहुत खोच विचार कर्ने षर यी ईस 
मस्या का निराकरण नही कर सकै तौ उन्ेनिं एकान्त मेँ वेठकर हाद 
ब्रत्तं एव यानै प्रर मविद्धार अठ करके एकाग्र मनसे चारो वेदो का गर्विहिनि 
कया । दीषं कास्न तक इच प्रकार स्मरण बौर व्यान करने के पश्चातु मूति- 
न वेद उनके समक्ष उपस्थित हये तौ ग्यास जौ ते उनसे जिज्ना्ा कौ कि-- 
शपते दन्द ब्रह्मान शेयैरो से जाप लोगौं ने मधिकं भद बनाकर कर्मं 
नौर ज्ञान कां उपदेश दिया है! उसके अनुखार कामनामो से धिरे हये वित्त 
पत भनुप्यों फ जो कुद सत्तम होति रहै, उका फल स्वगे कहा गया है ॥ 
रीर ईश्वर मे हौ वपी चित्त वृत्ति लगराने वाति पुर्यो के कमो का फल वित्त 
[दि मानी गहै | चित्त शुद्धिदैही शानकौ प्रष्ठिटोचीदहै मोरज्ञानते 
¶ मौक्न नितता द । वहो मोद ही ब्रह्म के साय एकता ६, वहे सत्‌ चितूएव 
नन्द स्वरूप ह { ध्‌ पव जान लेने परं भौ मेरे हृदय में एक जिन्नाषा 
(1 रही दै कि उख यरग्रह्यसे"भी ग्ड कर कोई अन्य घता यथवा 

वेदोके क्थनसेन्यसणीकोनजो कुद जान पडा उसका नि्क्यं यही 
कला कि “वहं परब्रह्म यस्षर, परम योर कारर्णो को कारण स्वस्पदहै, 
र्यात्‌ उससे परे कोई नटी है । पुष्प के रख एव गन्ध कौ भाति वह भारमस्वसूप 
1 भी आलस्वरूप दै, उसी को सवते परम घछमञ्लो ! वह्‌ मघर ब्रह्म शब्दो 
ग्रा गम्यनह है!" 
ौ अधिकौ पुराणो में शिख प्रकार गवठारो के वणंन को प्रधानता देकर 
गवान के साकार स्वस्प कौ उपासना प्रर मधिकः जर दिया ह, पद्‌ बातत 
धावु पुराण" मे देने म नहं भातौ 1 इसमे ज्ञान मौर यौग्र एर बाघारिति 
¶व्यात्म-मागं की श्रच्छता स्वीकार कीग्ईदै गौर मन्त येय्पाष के सन्देह 
गी 4 सूपे श्वत्तय्यकोस्पष्टसूपते प्रकट मी कड दिषा दै । 
॥ शवाप्रु-गुराणः कौ दष प्रकार कौ अनेक विदेपताथो पर ध्यान देने पर 
स्त ममहतफुरर्णो को सूवी मे स्यान देना चब प्रकार चे चमीचीन मालूम देता 
। 1 वासव मे पौराणिक-सादित्य एकं व्रि्ेष केत गौर वगर छे खम्वन्धिव है 


१२. 


१३. 
।# 
१५. 
१६. 
१७, 
। १८. 
१६. 
२०५ 
२९. 
२२. 
२३. 
२४ 
२५. 


२९. 
२७. 
रत 
२६. 


३१. 


[ १८ ] 
योगमागे मे विष्व-सिद्धियोंष्चि षयरण 


पतनं की सम्मावना त 
योगमा के रेएवयं श 
पाणुपतयोग का स्वम ° 
परा्ुपत-योग् महिमा त 
शोचाचार दवारा मनुष्य कीं सद्गति प 
परमाश्चय प्राप्ति ~ 
प्रायरिचित विधि ~ 
भरष्ट वणंन--मृत्यु का समय जानने कै लक्षण ˆ“ 
भोद्धार प्राप्ति के लक्षण = 
कल्पं निरूपणं प 
कत्प-संख्या निरूपण ४ 
महेशवरावतार-योग न 
शावंस्वोध ० 


मधुकैटभ उत्पत्ति, घक़्द्वारा उनकां वष 

घोर सृष्टि रचना न 
स्वरोतत्ति, ओङ्कार गौर वेदों का भाविर्भाव १ 
कऋपिवंत कीतंन--भृगु मरीचि,मगनि भादि कौ तति `" 


भ्ग्नि-वश वणेन ¬ “९ 
देव. वर्णन श 
युग -षमं निरूपण , 
स्वायम्भुव वेश कीतंन-षात द्वीप के उ 

कछषपिपतियो का वरणेन पमी 


१४ 
८ 
१८ 
१९ 
१६९ 


२० 
२० 
२१ 
२१ 
#॥ 
२३ 
२४ 


रद 
1 
२६ 
२६ 
३० 
६९१ 


३९. 
३३. 


ते, 


३५. 


३५. 


२३६. 


१७. 


१६, 


मुवन-विन्यास्-भारत फे दिभिस्न प्रदेशो का वणंन *““ 


उथोतिष प्रचार (१) चौदह लोक, सप्तद्वीप, 
सये, चन्द्र ग्रह, नक्षत्रो का स्वशूप वर्णन गभ 


जयोतिष प्रचार (२) सूर्य, चन्द्र, वारा, नक्षत्र, 

ग्रह, भादि की गति, वर्षां कटने बाते 

मेर्पो का वणेन श्न 
धुव-षर्था--शयं के रय के देव, यन्धंव यादि, 


समस्त प्रहोके रय व पडो का वर्णन, ध्रुव 
द्वारा सबका धारण विया जाना श्य 


(क) ज्योविष मण्डल का विस्वार--गरिविधि मन्न, 
भगत भादि ग्रहों श सूयं घे उसत्ति, ज्योतिष 
शास्त का भापार = 


नीतकण्ठ स्तुति, समुद्र मन्यनर्मेविपके 

निकलने पर्‌ ब्रह्मा द्वारा मगवान चिवकी 

स्मुति लौर उनका गरल-पान ० 
तिमोदूमव स्तुति, ब्रह्मा मौर विष्णु के सम्मुद > 
ज्योति्तिगकाप्रकटहोनागौरदोर्नोकेदारा 

उसकी स्तुति ९ 


पिरयर्णन--पुरवा द्वारा पिततो का षण, ¬< 
विभिन्न प्रकार के पिरयो भौर उनी धाद 
विथिका वर्णन 4 


यज्ञ-प्रया का वणंन-चारोयुर्गोके धमे क्यतमे 
यज्ञ का महत्व, हिखारूप यज कय निपेष. राजा 
यमुका पठन नर 


३३६ 


३४द 


रद 


२३६३ 


# 4). 


४२७ 


४२८ 


ण्ट 


४६२ 


४५. 


४१, | 


४२ 


१.९.२1 


चारो युगो का धाद्यान - वसे युगो का परिमाण, 
युगभेद, युगघर्म, युगरनिध, युगा वौर वुम~-सपात 
का तत्व, राज्य तथा रमाजषकी ददा सै 


चपि-तक्षण - साधू के लक्षण, तस्याम 
ख्य, ुगानरुलप ष्यवदार, गदि, पि, ऋपीक 
के भे, प्रायोनकात के मुख्य ऋषिवशों फी गणना 


अहास्थान तीथं वणंन--वेदो को शापाना का 

विभाजन बौर उनके प्रवतं श्पिर्यो षा 

परिषय राजा जनकके प्च मे धाकल्य 

का विनाश ५४ 


112: 


५५ 


५१८ 


वायु-महापुराण 
1 मुनियो वारा पुराण-जिन्नासा ।१ 


नारायण नमस्टृत्य नरं व नरोत्तमम्‌ 1 

देवी सरस्वती चव ततो जयमुदीरयेत्‌ 1 

जयत्ति पराखरदुनुः मद्यवतीहूदयनन्दनो ध्यायः १ 
यस्थास्यकमलगलित बाड.मयमगृतत जगत्‌ पिवति 4 
पचे देव मीशान भाच्छत प्रुवमव्ययम्‌ । 

महादेव महात्मान सरयेस्थ जगत पतिम्‌ ॥¶ 
श्रह्याण लोक्कर्तार सर्वज्ञमपराजितम्‌ 1 

प्रभु भ्रुतभविप्यस्य साम्प्रतस्य च सन्पनिम्‌ ॥९ 
जञानमप्रतिम यत्य चैराग्य च जगत्पते ! 
श्वर्यं व घमश्च सहसिद्धिचतुष्टय. ॥३ 

य इमान पश्यते भावाच्नित्म सदसादात्मकाच्‌ 1 
खगविशन्ति पुनस्त वे क्रियामावा्थमीग्वरम्‌ (र 


लोकक्ृत्लोकत्त्यन्नो योगमास्थाय तत्ववित्‌ । 

लम्रजत्‌ सर्वभूतानि स्यावराणि चरायि च ॥५ 

समज विश्वकर्माणं चित्ति लोकपाक्िणम्‌ 1 

पुराणा ख्याजजिन्नाघ्व्रजामि फरण प्रभुम्‌ ॥६ 

थी मतारध्यण क्तो नमस्कार करर गीरनयोमे उक्तम नर द) मस्कार 
रे + इसी प्रक्र देवो सरस्वती को नमस्कार करे इक पश्चात्‌ “जय ण्व 
1 उच्वारण करना चाहिए 1 इत्यवक्ती के हदय को मानन्द प्रदान करने बाकि 
राणर ऋचि के ध्र व्यास मुनि की जय हो, जिनके मुख र्पो कमषपतेनिरृत 


५२ ] [ अवुषृरत्र। 


अमृत का यह्‌ समस्त जगत्‌ पान करता है । निश्नल, मविनाश्ी, शाए्वत, महान 
यस्मा वाने, मस्त जगत्‌ कै पति देव-द्यान महद्रैव कौ शरणप्मतिम जान 
हं ॥१॥ इम लोक फ रचना कटने दाने, भवं विषयो कै न्षाता, पराजिनिन दने 
वे, भूतकाल भौर भविप्य-बाल पै पति तया यतमान समय कै मति 
प्रह्माजीकी शरणमे जाना ह ॥२।॥ जिम जगत्‌ ॐ पति का सनुपम ज्ञान मौर 
वंराग्यहैत्तथ्ा चारो निद्धियो के साथ धमं ओर देश्वथं भी बदूमूनदटै।।३॥ 
जो स सत्‌ ओर यमतु स्वल्प वाने भार्यो षो नित देवने हवे क्रियामात्रे 
भ्यं खूप ईृश्वरर्ये फिरप्रवेश कर जातिर्दै॥४॥ लोकगो क) सूजन करने वाते 
भौर लोको के तत्व कौ जानने वाले तत्त्ववेत्ता ने योगम ह्थिर होद्र रथाव 
श्रौर चर समर्त प्राणियोकी सृष्टिक ॥ ५॥ पुराण के आस्पानोंकौ ज 

की इच्छा रखने वाला म पतत अजन्मा, विश्वकर्था अर्यात्‌ सम्पूणं विन कौ रचन 
वि, ज्ञानकेपति लोको के साक्षी प्रभुकौदारणमे जाता हं ॥६॥ 


ब्रह्मवायुमहेन्् भ्यो नमस्छृत्य समाहितः । ॥ 
ऋपीणाश्च वरिछठाय वसिष्ठाय महालने ॥७ 
तन्नप्तने चातियणसे जातूकर्णाय चर्पये । 

वसिष्ठाय च शुचये कृप्णदं पायनाय च ॥८ 

पुराण सम्प्रवक्ष्यामि ब्रह्मोक्त वेदसम्मितम्‌ 
धम्थिन्यायसंगुक्तं रागमेः सुव्रिभरुपितभ्‌ ॥२ 
असीमङ्ृष्ठो विक्रान्ते राजम्येऽनुपमत्विपि । 
प्रशासतीमा धर्मेण भूर्मि भरूमिपसत्तमे ॥१० 
ऋषयः सशितात्मान' सत्यव्रत परायणाः । 
शहजवो नष्टरजसः शान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः ॥११ 
धर्मक्ेत्रे कुर्ते दीरव॑सवरन्तु ईजिरे । 

नचास्तीरे दृपदत्याः पुण्याय शुचिरोधसः 1 
दीक्षितास्ते यथाथान्रे नँ त्रिपारण्यगोचराः ॥१२ 
द्रष्टु तावर स महावृद्धिः सुनः पौराणिकोत्तम. † 
लोमानि हपं याचक्रे प्चोतरृणा यत्‌ सूभावितंः। 


मुनियों दास पराण जिङषा ] ¶ ४३ 


चर्मणा प्रथितस्तेन लोकेऽस्मज्लोमहपं ण ११३ 
तप श्रुताचारनिधेवेंदव्यासस्य घीमत. । 
शिष्यो वभव मेधावी त्रिषु लोकेषु विभ्रतः ।॥१४ 


समाहित भर्योत्‌ सावधाने होकर ब्रह्य, वाथ ओर परटैन््रके तिये नमस्कार 
करके, ऋषियो मै सवशर महात्मा वृकि के “लपे, मट्थन्वे यशस्वी उनके नाती 
जातूकणं चपि देः क्तिय परम पत्र वमिष्ठ बे निवे तया दृष्णद्वपायन के लिये 
तमस्कार करके धमे. लय बरौरन्यायसे सङ्गत अर्थात स्क्त जागम ते सुगो. 
भित्त वेदो की सम्मति से युक्त ब्रह्य पुराण को भनीर्मानि वट्ूवाहे। ७-न 
६॥ अनूपम कान्ति बालि, परण दिक्रमयाती, ममरस्तचूय मण्डतरमें मतिप्रे्र 
सपीमदृष्ण नामेक राजाङकेद्राराइसभ्रू मण्डल पर प्रान कखे के समयमे 

*प्यङेद्रतर्मे तत्यर, परम सर्ज रदोगुणमे हीन, शान्त प्रदृति वाते दमने- 

पोल गौर दृद्दि्ो को जीतने वाते छपि लोग सरित भासां वति कर घमं 
भाम दुरकनेतर भें पवित्र त्तद वाली परम पवित्र दृष्दतौ नदीकेतट पर दीर्घंसश्र 
कायजनकरनेलगे। सभी नपि लोग जास््रकौ वित्रि के गनुमार्‌ दीक्षा प्राप्त 
करने षाले मौर नैमिषारण्य के च्रमण करने वाते ये ॥१०-११-१०॥ मदद 
हीर बृद्धि बाले, पुराणों के कता ठथा वक्ता्मों म परमश्रेष्ठ सूतनीने उन 
च्छपिरयो को देकन॑ के निमे वहं माद्र मपनी सुन्दरे उत्तियो कै द्वारा लोगोकोौ 
हिन कर दिया अर्थात खगदो पुतत्रित ठनाद्विा। द्रौ सत्कमे रे अति 
परूलकायमान बनादेनेकेकामसे सार मेवे लोम-दपेण' इम नाम से प्रिद 
हा मये थे ॥१३॥ वे तपस्या, कास्त्रो का भ्रव मौर मावार कौ निधि अत्यन्त 
धुद्धिमान्‌ व्यास मुनिके श्रेष्ठ वृद्धि वाले सूतज प्रिप्यये नौर नोकोंमे बहूव 
कि परसिद्ध थ (1 १४॥ 

पुराण वेदो ह्यछिनो यस्मिन्‌ स्म्यक्‌ प्रतिष्ठित 1 

भारती चैव विपुला महामारतवद्धिनी १1१५ 

धर्मर्थिकाममोक्तार्णाः नेथा यस्मिन्‌ प्रतिष्ठिता १ 

सक्ता इपटिप्नापग्क्मरा्नोप्रतयो दया 1185 

स तानु च्यायेन सुधियो न्यायविस्मुविपुद्धवाय्‌ 4 


४ [ वायु-पराच 


अभिगम्यौपसंसृत्य नमद्टृत्य एताञ्नलि । 
तोपयामास मेधावो प्रणिपातेन तानृपीन्‌ 111७ 
ते चापि सत्रिण. प्रोता सदस्या महौजक्तः 1 
तस्फै साम च पूजा यथावत्‌ प्रतिपेदिरे ।\१८ 
अथ तेषा पुराणस्य शुश्रूषा सम्यत ) 

टरा तमतिविश्वस्त विद्रा्त लोमहपंणम्‌ ॥१५ 
तस्मिन्‌ सत्रे गृहपतिः सर्वशाख्विशारद. 1 
इद्जितेभीवमालक्ष्य तेषा दुतमनोदथत्‌ ॥२० 
त्वया सूत मदावुद्धिरभंगकान्‌ ब्रह्यवित्तम । 
इतिहासपुराणं व्यासः सम्थगुपारसित । 
दुदोह वै मति तस्य त्व पुर्या श्चया कथाम्‌ ॥२१ 


समस्त पुराण गौर सम्धूणं वेद जिममे भली-रमाति प्रतिणिति यर्मारि 
महाभारत के वने वावी प्रचुर सरस्वतो विराजमान थो ॥+ १५॥ घमं भथ, 
क्राम यौर भक्षक प्रयोजन वाली अनेक कथादे जिते प्रति्ित थौ! सूक्त भौर 
यच्छी परिमापाे शूमिमे भौपधियो के तुर्य जिनमे विद्यमान थीं ॥ १६।१ 
एमे म्याय के ज्ञा उन सूतजीने न्याय से जच्टी वुद्धि व्तेठन श्रे मूनिर्योके 
समीप बाकर मौर निकट मे परटुच कर दाय जोहकर उटुं नमस्कार किया मीर 
उन समस्त व्विणो को मए प्राणिग्रात तप्त विनच्र व्यवहार से सन्नुट किष 
॥ १७१! सक्र का यजनं करने कासे महद भोज वले सदस्यो के सहित ये सव भी 
उम समयवबहृतहौ प्रपन्न हए मौरवे भौन सूतनी काकरना्च॑न यया- 
विधि करने मे तप्फर हए ॥१८॥ इसन्ने अनन्तर उन समस्त ऋषियो क हदय 
मे पुराणके श्रवण कटे की इच्या उतयन्न हुई वयोक्ति उ.दोनि अत्यन्त विग्धासः 
केः पात्र भौर महान्‌ विद्वान्‌ लोमहरपेण मुनिं का दर्शेन प्रात कर लिया था ॥१६॥ 
खम सत्र मे समस्त शास्म्रो के पण्डित गृहपति ने उन सव पियो के ठाद्रिक 
भाव को दद्धो के दवारा लक्ष्य करके श्री सूतजी को प्रेरित क्रिया १२० ॥ 
गृहपति ने फदा--है सूतजी ! जपने ब्रह्य के ज्ञातां मेँ गति श्रे महानु वुद्धि 
शाली भगवानु व्यातजौ की इतिहाप भौर पुराणोके जान प्राप्त करनेङे व्यि 


मुनये दारा पुराण-सिज्ञाा |] १ य 


जसीति उपासना की है ओर यापने पुराणो वाधितं कया चानौ उनकी 
बृद्धि का अस्थ वरह दोहन श्िमा दै अर्था आपने अच्छा पोराणिकर जान उनदे 
अमङ्पिहै। २११५ 


एपाच छपिमूय्याना पुराण प्रति धीमताम्‌ + 

शुशरूपारिति महावुद्धे तच्छरावयितुमहुनि ॥२र 

सवे हीमे महात्मानो नान मोत समागता 1 

स्वान स्वान्‌ शान पूराणंस्तु शपुयुत्रं वादिन १२३ 

सपुतराच्‌ दीर्षंरत्रेऽस्मिच्द्वयेथा मुनीनय । 

दीक्षिप्यमाणेरस्पामि स्तेन प्रागसि सस्मृतः ॥२८ 

षति सक्नोदितः सूतस्नरेव मुनिभिः पुरा। 

पुराणार्थं पुराणज्ञं मत्यव्रतपरायर्णः २५ 

स्वधमे एप मूतश्य सद्भि ्ट- पुरातनः 

देवनानामृपौणाच्च राज्ञाच्वामिनतेजपताम्‌ २६ 

चेशानः घारण्‌ क्यं श्रतानाच महाल्मनाम्‌ । 

इनिहासपुरणेष्‌ दिष्टाय ब्रह्यवादिभि ॥२७ 

नदि वेदेष्यधोकार कश्चित्‌ सूलस ट्यने । 

वैन्यस्य हि बृयोरयेन्ने व माने महात्मन । 

सुत्यायामभचत्‌ मूनः प्रयम वपेरवद्त. ॥२८ 

दै महध्युदं । श्न वृष्टिमान्‌ मुच्य श्यो शौ पराण कै प्रति शरवग 
षरे षी मदयस्त हादरिर व्च्छादसो आप द्वह मुननिको योग्यद्ोने 
॥२२॥ यै स्र मदह्ब््‌ जना यतेर्ह जौर बने गोत्र वत्ति यहा एक्तिन दर्‌ 
है । ये मृद द्रहवारी लो दुरे के द्वारा अक्ने-भग्ने वथो भा धकरण कर्‌ 
॥ २३॥ दम भीष-मत्रमे पुत्रो ङे महनि षन मूनियो भौ शरवणं ष्राष्मे। 
उनतरै दारा दी्तिप्यकान हम सवे दारा आप पदि्तिदही सभ्पृत दृष्‌ हो ॥२४॥ 
धष प्रप्र मे सत्यवत्‌ म प्रायण पुरष्योके क्ति उन्ही मुरि वे ष्ारा षदिति 
पूरपणङे लिये यनो म्मत्‌ नरौ वदा गपा 1 २४ ॥ प्राचौन मद्यृष्याने यह्‌ 
सूषा जना पर्पेदेवा दै कि देक्तामो रा च्विर्योवा मौर यपरदिम्ति तेज 


५६] वागुराः 


वाति राजाभौ कां तथा महात्माओ क्रे धुत व्यो काधारण करना चाहिर्‌ 
जौकतिब्रह्यवादिर्यो ते इतिहास मौर परराणोमे द्टविये है1) २६२७१)" 
विन्तुसूतका वेदोमे कही भो कोई अधिकार नदी गिला देन) दै कमो 
मृहारमा राजा वेनके पुत्र पृधुकरे वतमान यद्ध मे मूल्या मे प्रणम विदन चण 
कति सूर कौ उलत्ति हुई थी ॥ २८) 


देनद्रेण हविषा तच्र दवि पृक्त बरहस्पते ॥ 

जुदाविन्दाय देवाय तत. सूतो व्यजायत । 

प्रमादात्तत सञ्ज प्रायश्चितच्च कर्मसु ॥ २ 

शिष्परहव्येन यत्‌ पृक्तमभिमूत गुरोर्हविः। 

अधरोत्तरचारेण जज्ञे तद्वणेयैकृत ॥३० 

यच्चे क्षतात्‌ समभवदुत्राह्मणाऽवरथोनित } 

तत पूर्वेण साधर्म्यात्तृत्यधरमा प्रकोत्तितः ॥देषे 

मध्यमो ह्यं ष सुतस्य धर्मः क्षतोपजीवनम्‌ । 

रथनागाश्वचरित जघन्यश्च चिकित्सितम्‌ 1३२ 

तत स्वधर्ममह पृष्ठो भवदुभित्रं यवदिभि.॥ 

कस्मात्‌ सम्यङ्न विग्य पुराणमूपिुजितम्‌ 1३३ 

प्िदणा मनसी कन्या वासवी समप्चन } 

अपध्याता च पितरृनिर्गद्स्ययोनौ वभूव सा 11२४ 

अरणोव हुताशस्य निमित्त पस्य जस्यत । 

तस्या जातो महायोगो व्यासो वेदविदा वरः |(.५ 

वहा पर्‌ दन सम्बन्धी हवि से पृक्तः ह्यति कीह्वि कोषद्रदेवके 

पिद ल्विदुन्रिपाय। 1 दमने मत की उनप्ति दुद । वहा प्रमदे का 
मे प्रामरिवत क्रिया २९॥ जो हिष्यके हव्यमेगुद कावि पृक्त होकर 
अरमिभूतद्यो गया मौर ष््म अपरोत्तर घारते ही यह्‌ कणं वंन उयप्रदृए 
॥ ३० ॥ भौर्जो दत्रिय म॑द्राद्मण कौ जवर धोतिसयेहुम्रा वह्‌ पिते वै साव 
साप्यं हो दे वारण गुल्प धमं वाला षदा गया ॥ ३१॥ द्‌, तागभोौर 
-खष्द भष यतय द्वि पा 'उथर्षेने वदे पूतं वा मध्यम प्रेमी व प हेति 


मूनियो द्वारा पूराण-जिज्ञाष्ा | [ ४७ 


है त्तथा चिकित्सा करना जषन्यश्रणी का धमं दै। ३२ 7 सोब्रह्यवादी भप 

 लौगोने मृन्लमे मेरे धर्म के गनत दी पदा ह 1 र्म व्टयो क द्वारा षमिति 
पपणको भवी-मति क्यो नदौ कहना अर्थात्‌ वश्य ही कुया ॥३३॥ नितिसे 
की चासवौ नामक मानपी कन्याहं थी वह पितगेके हारा अपघ्यात्त होकर 
मत्स्य योनिमे हद यौ) ३४॥ जिम तगह अग्नि को उद्यत्ति का निमित्त 
भरनी होती है उमी भातिवेदो ङे जानानो मे एर्वधेष महाव योषो व्यत्त पूनि 
उश्च उत्प्र हृए ॥३५॥। 


तरमै भगवते कृत्वा नमो व्यासाय वेधसे 1 

पुरूपाप पुराणापा भृगुवक्यभ्रवत्तिने । 

मानुपच्छंद्पाय विप्णवे प्रभविष्णवे ॥३६ 

जातमायच्च यं वेद उपतस्थे मप ग्रद्‌ 1 

धर्ममेव पूरस्कृत्म जातरकणदिवाप तम्‌ ॥३७ 

मति मन्यानमाविध्य येनामौ शुतिस्रागात्‌ । 

प्रकाश जनितो लोक्रे महामारनचन्रमाः ॥१३८ 

येदद्रम्च य प्राप्य सशाप समपद्यत \ 

भूमिकालगुणावर प्राप्य ब्ाहुशाखो यथा दुम. ॥ञयै 

तस्माददुमूष रत्य पुराण ब्रह्मवादिन. ॥ 

सर्वनात्सर्ववेदेपु पूजितादीप्रतजसः 1० 

पुराण सम्प्रवष्यामि यदुक्त मातररि्रना। 

पृष्टेन मुनिभिः पूर्वं नेमिपौयं मेदात्ममि ।।४१्‌ 

उन पुराण पद्य, शगु वे वातय भरवर्तो, वियु , दयसे मनुप्यकास्प 
धारण करने वाले, होनहार विष्णु भगवान्‌ व्यामजी क लिये नमस्तार करके 
जिने उत्पत्रहाने दी संग्रह्‌ सहित नम्दूणं वेद वन्यत होग्ये ये, रन्त 
धर्मकोटही मर्यादा का पालन क्र जानूग्ण सेम प्रातन त्रिया धा ।। ३६- 
३७ १] जयने शति स्पो पागरर नैवुदधिष्यी मन्यन करे वतिमे मयक्र 
ममारप महामान्त स्पीचन्द्रमाको उड्टकर दिखतराया है ।३८।१ जि 
वर्ह भूमिके त्याङ्तवे गूणोषोप्राप्त कर वृजन बहृतौ शाखा्थो मे दुक्त 


५ ] { वुनुगण 


हो नाहा है उ तरह व स्पौ वृक्ल मी वेद व्याप मनि बो प्राप्त कर जनक 
शावाभरो षे युक्त हो गया ॥ ३६॥ उन दही दीक तेन वाले, समप्त्‌ वेरोमे 
पूजित, सर्वजन ओर ब्रद्यके क््ताप्तिमने उपश्ववर्ण करे पिरे महाः मीर 
नैमिषारण्य मे निवास कटे वलि मुनियोके दवारा द्धे गये वापुदेव नेणो 
पुराणक्ाया उत्त वापुपुराणको पै ववया सामो के समद पे कहु 
है ॥ ४०-४१॥ 

कथ्यते यत्र विप्राणा वायुना ब्रहव!दिना । 

धन्य यशकस्यमादुष्य पुष्य पपप्रणाशनम्‌ । 

कौत्तेन श्रवेण चास्य धारणच् विक्षेपः ॥४२ 

अनेन हि क्रमेलेद पुराण सप्रचक्षयते } 

मुखमर्थं समासेन महानप्यूपलभ्यते । 

तस्मात्‌ किचिित्सुमुदिश्य पश्चादृक्ष्ामि विस्तर \)४३ 

पादमाद्यमिद सम्यक्‌ योऽधीयीत जितिन्दिय' । 

तेनाघीत पुराण ततु सवं नास्त्यत्र संशय, ४४४ 

यो विद्याचतुरो वेदान्‌ सा द्धोपनिषदो दिजः । 

न चेत्पुराण सविययान्नंव स स्याद्धिचक्षमः ।॥४५ 

इतिदासदुरणःम्या वेदे पपरपदर हयेन । 

विभेत्यत्पश्र. तद्ेदो सामय प्रतरिष्यति ४६ 

अप्यसप्निममध्याय साक्षात्‌ प्रोक्त स्वयम्भुवा । 

आपद प्राप्य मुच्येत यथेग प्राप्नुयादुगतिम्‌ ॥४७ 

पस्मातु पुरा छनि तद पुराण तैन तन्‌ स्पृतम्‌ । 

निषक्तमस्य यो वैद सवपापः प्रमुच्यते ॥४८ 

नारायण. सवेमिद विश्च ्याप्य प्रवर्तते! 

तप्यापि जगतः सट. सटा देवो महेश्वर. 1४द 

शत्च गरदोपमिमं श्यणुध्य महेश्वरः य्वमिद पुराणम्‌ ! 

ससद च यरोति गर्गान्‌ पद्ारकाते पुन सददीत्त ५० 

गुतहीने चटा स्मि वाप्‌ पूरणे ब्रदादाही वादेक दवारा षिणो 


मुनियो दादा वूराग-जिन्ाह्ना [ ५६ 


फा धन, यश मौरमायुकेदेने वाना, पाणो कानाग कखे वाता परम पुण्यमय 
धर्तन मौर दनकत्रा श्रवणतया विनेपसू्प ठे धारण क्रना कदा जाताहै 
॥ ४२॥ मौ छम से यह पुराण कहाजाता टै\ सप्रे से सुशपूरवंक महान्‌ 
अथं उपनध्व दोता है दमत कुछ पमुदिष्ट करये पदे विस्तारपूर्वक इपक्ना वणन 
कषणा 1 ४३।, जो कोई अपनो इन्द्रियो को जीद लेने वाला दृ्प हयक प्रथम 
पाद का अध्ययन करता है उनने इम समस्त पुगण का अध्ययन कर लिया 
द्मे तनिक भी गशय नही है ॥४४॥ जो दिन चारे वेदो शो उनके रस्त 
पडद्नो तवा उपनिषदो के राहिन जानत है ओर यदिदपुगण का ज्ञान नही 
रताद तो वह्‌ विलक्षण नदी होता दै + ४५॥ इसनिये इतिहास मीर पुराणं 
न दोनो ते वेदको मन्छी त्द्‌ उव हिन कसना चाहिए । जो भन्यश्रुत द्विज 
होता है उममे वेद भी भयमीत होना है पि मुक्ते अल्पय यह ब्रमण अनार्त 
करदेणा॥ ४६॥ दम अध्याया अभ्यासम करने वाति स्वयम्भू मगप्ूने 
साथात्‌ स्वय कहाहैङ्ति दमा मव्ययन रने वाला पुय आपत्ति मे फेन कर 
भी मक्त टौ जायगा मौर यवेष्ट मच्यी ग्तिषो प्राप्त करेगा ॥ ८७ ॥ पिते 
जिसने यड्‌ पुराण पूणं दिया उरने हमा स्मरण श्रियादै। जो इकर निदन 
कौ जानना दै षद पमस्त पापौसे छुटकारा पा जाता है ॥ ४८ ॥ दम समस्त 
विश्वपे नारायण व्यातत होर प्रदत्त होतेह उष जमले टाका भी मूनन 
करने वाते मटेश्वरदेव रए ४६॥ इमलिपे भय लो मेस इम पुतन 
षाश्रवण करे 1 द्हुसगंङे समयमे भणं कोननेदहै मौरमहारक्रनैके 
गमय माने परर पुनः दमङ्ञा मादान करतियाग्रतेट॥५०॥। 
॥\ दादशवर्पोप सच्र निदपण 11 

प्रत्यत्र.वनर पुन मूनमृपयस्ते तपोधनाः । 

युवसात्र सममव तेपामद्भुतकरमंणाम्‌ ॥१ 

कियन्त चैव तताल कय च समवर्तत । 

अआचवक्ष पुराणं च कय तेभ्य. प्रस्नः ॥२ 

साचदव विस्नरेगोदं पर कोनरुटृतं दिनः 1 

दरति समनोदितः सूनः प्रन्ुवाच युमववः॥द्‌ 


५० ] [ यवृवृराणं 


शयृुध्य यद्रते धौरा ईतिरे मव्रमृत्तमम्‌ 1 

यावन्त चाभवत्‌ कार यथा च न्मवर्तत 14 

सिमृक्षमाणा विश्वः हि यद्र विश्न पूरा। 

सत्र हि ईजिरे पुण्य सख परिवि"मगन्‌ 1५ 

सपो गृहपति ब्रह्मा ्रह्याऽमयन्‌ स्वपम । 

इलाया यत पन्नौत्व शामित यत्र वृद्धिमानु । 

मृत्युश्च मदति नास्नत्मिय्‌ मूत्रे मटात्पनाम्‌ ॥६ 

विदुधा ईजिरे तव महस प्रतिप्नमराच्‌ । 

श्रमो धर्मचक्रस्य यत्रनेतिरगो्येत। 

कर्मणा तेन दिख्यात नैमिष मुनिदूनितम्‌ ॥० 

शी धुश्देवत्ी ने वदा--तपपचरथाके ठी णन वति उन छ्विशोने 
सूती तते किर कहा ङि पह मथ कहां पर दमा जो त्रि अद्भुन सर्र करने वप्त 
उन ऋपिपोते किपाया?॥ ११ इन सत्र को किनते पमपतव्र मौर त्रिष 
प्रकारसेक्ाया णोर प्रमजञ्जन (वापु) ने उनको किप तरह पटे पुराण कहा 
पट्‌ सव सप छू करके वित्तास्पूर्वक वर्णन करर, मेयो हम सवौ इस वत 
काक्तानभ्रात करनेकेलिमे हदपमे अल्यपिककौतृदेलहो रहाहै) इत तरट्‌ 
से चऋपिपो के हासा पू गये मूनजी पडे चभ वचन बोले 1 २-3 ॥ मूतजी ने 
चहा-है ऋषियो । भाप लोग ध्रकण करर, पै बतलतिा ह, जह पर उन पसम 
धीर्‌ ऋषियो ने इय उत्तम मवरकापतनर्िपाया, जितत प्रकारते आौर विहन 
समपत्क फिपा घा) ४ ॥ तटिनि जहाँ पर इप विश्व ङे सृजनकरने वासोंने 
विषयक सुजन करते हुए एक सद्र दपं पपत इत परम पवित्र सत्र कायन 
त्िपाया}) ५१) {जत स्यान पर तगोयृह्‌ का पतिन्रह्ा स्वय ब्रट्ा हुमा 
निस स्थान पर इना कै पल्नीत्व हृ! भौर महाचू ठेज वाते भृप्पु रे जह पः 
शाप्निश्न ( पशु वधते का स्यान } क्रिया या उन मदास्मामोके सत्रे देकोने 
एक सद प्रति वस्सर वह्‌ यजन यःया जरा पर घम चक्रके ध्रषण करते 
दए नेमि दि्भीणंदहो मर्थो इन वम के कारण वह्‌ मृनियोके दास परम पूजित 
-यह्‌ स्यन्‌ शनेभिष--दइस नाम स (स्यत दूज रै + ६~७ ५ 


द्वादगन्वर्पोय मतर निन्य्ण 1 ५१ 


यत सा गोमती वृष्या सिद्धतारण सेविना 1 
रोहिणो सुपुवे तत ततः सौम्ोऽभवतु सुत 1" 
शक्तरजये्ठः समभवद्सिषएठस्य महात्मने 1 
अम्न्धत्या सृता यत्र शतमुततमतेजन. र्य 
कल्मापपादो नृषतिर्थव शक्तश्च शक्तिना । 

यत्र वैरं समभवदिश्वामित्रवतिष्यो ॥९१० 
अह्यन्त्यां समभवन्मुःनर्यंल पराशरः 1 
पराभवो वसिष्ठस्य यस्मन्‌ जातेऽप्यवत्तत 1११ 
तव ते ईजिरे मत्र नैमिषे ब्रह्मवादिनः । 

नैभिपे दजिरे यव नैमिषेयास्तनः स्मूनाः ॥१२ 
तच्छवमभवत्ेषां समा द्वादश धीमताम 1 
पुरूरवसि विकान्ते प्रशासति वसुन्धराम्‌ १३ 
अष्टादश समुद्रस्य दीपानण्नयू पुरूरवाः 1 
वुतोप नैव रत्नानां लोभादिति हि नः भुनम्‌ १४ 


जिस स्थान पर यडेबेडेस्षद्धोत्तवा चरणो के द्वारा सेचित परम पित्र 
गोमतो है वहाँ पर रोहिणो ने पुत्र का प्रसव किय जोक्रि परम सौम्य हमा १८५ 


जरह पर महरम वतिष्के अएन्यतोसे अन्युतमतेनं वाले सौ पुत्र उन्न द्रण 
उनभे शक्ति नाम वाला समे वडापृतया॥ ६ 11 उम व्नि्ठके पृत्रधक्तिके 
दवारा कल्मापगद नामकराताकौ शापदिया यथाथा मौर व्सिस्थान मे 
विश्वपि ओर्‌ वसतिष्ठका पारस्परिकवेर हो गया था॥ १०॥ जहाँ परर 
दृश्यमान न होतो हई मे पराशर मुनि ह्‌ जिनके उध्पन्न दोने पर भी वरिष्ठजी 
का पराभव हराया ११॥ वहां पर नैमिप नामक स्थानम ब्रह्मवादी उन 
च्पियो ने सत्र का यजन शिया था क्योकि वह सत्र उन्होने नैमिपनाम वानि 
स्थानमेकरिथा था अतषए्रत्तमीसे वे सव्र नंमिवेय इस नामे कहे गये ह ॥१२॥ 
उन घीमनु ऋषयो का वह्‌ सत्र वरट्‌ वं व्यन्त हा जवक्रि विक्रमशील 
पृर्र्वा राका इस भरू-मण्डल का च्ाखन करतः थ) १३11 प्रवा रजाको 
समूद्रके अठारह द्वीपो को अपने अधिहारमे रसते हए भी रत्नो के लोभकी 
अधिका हनि क कारम सन्तोय नही इजा चा, देषा हमने सुना है ।॥ १४॥ 


५९ |] { वापृ्ण 


उर्वशी चक्मेयचदेवहूनिप्रगोदिता ! 

आजहार च तत्सत स्पर्वे श्यासदम दरतः ॥१५ 

तस्मिन्नरपनौ सत्र नैमिपेया प्रचक्रिरे 1 

यगर्मेसुपुतरेगद्ना पावत्रादीमतेजक्तम्‌ । 

तदुल्व पर्व॑ते न्यम्त दिरप्य प्रत्यप्र्यन ।1१६ 

हिरण्मय तनश्चक्रे यज्ञवाट महात्मनाष्‌ । 

विश्वभर्ता स्वथ देवो भावयन्‌ लोकभावनम्‌ 19 

बृहप्पतिस्ततए्नव तेपाममिततेजसाम । 

एल दृ्रवा भेजे त देश मृगया चरन्‌ ॥१८ 

तृष्ट महदाश्चर्यं यज्ञवाट हिरण्मयम्‌ 1 

लोभेन इतविज्ञानस्तदादातु प्रचक्रमे 11१६ 

नँमिपेयास्ततस्तस्य वुक्रुधुन्‌ पतेर णम्‌ 1 

निजघ्नुश्वापि सक दा" कुशवचं मनीषिणः । 

ततो निशान्ते राजान मुनधो दैवनोदिताः ॥२० 

कुशवच्ं विनिष्िष्टः स राजा व्यजहात्तनुम्‌ 1 

ओ्वेशेय ततस्तस्य पुनन्रुनृ प मुवि ॥२१ 

देवहुति के हारा प्रेरित वी हृई उवंश्षौ उसङ़े समीपमे ग मौर उत 
स्वगे कौवेष्याके साथमे सङ्गति करने वाले अपने उससत्रका आहरणकर 
चियाथा॥१५॥ उष राजाके होनेके समयमे नैमिपेयच्छपियोने हम सत्र 
की क्या धा, जिस उदूरीष्ठतेज दाते को अग्निसे गद्धाते गरभमे प्रसूत क्रिया 
धा, वह्‌ गमं परवत पर रख दिया गया, जोकि सुवणं हो मया या ॥१६॥ लोको 
की भावना वो हृप्य मे विवारते ए देव निश्वक््मा ने स्वय महात्मानौ के 
उस यक्चवाट को उससे हिरण्मय क्र दिया था ॥१७॥ दके अनन्तर अपरिमिन 
तेज के घार्ण करने वाते उने वृरस्पति हए । एक बारे शिकार करते हए 
पुरूरवा एेल वहाँ पर्‌ उसरदेशमे प्टैव गया था ॥१८॥ उपने उप यज्ञ-वाट 
को दिरण्मय देखकर वहूत अधिक्‌ आश्चयं त्रिया बौर लालच के कारण श्नान- 

क्र ख्षे ्रदणक्रनेकी इच्याक्ते ॥१६॥ द्मे अनन्तर नैमिषेय 


द्रादशवर्पोय सव निन्पण |] ५५ 
ऋपियो नै उख राजा पर्‌ बन्त क्रोव क्रिया बौर देवे भ्रेरित उन म 
पियो ने वि्ञेप क्रोधित दोकरप्रात्तःकालमे कु्ास्पी वच्रोसे उम राजा 
ग्न मीक्रिथाधा ॥२०। डामके वयौसे वि्रेवस्पसे पितिटृएच्ख 
अपने शरीर का रयाग कर दिया । इनके पश्चातु मूमिपर उर्वशीके 
ब उसके पृत्र कौ राजा वना दिया गया ॥२१५। 


नहुन्य महात्मन पिनरे य प्रचक्षते । 
सतेपु वत्ति सम्प्ग धर्मशोनो महीपन्ति.1 
आगुरागौग््मत्युग्र नर्मन्‌ म॒ नरमत्तम. 11२२ 
सान्त्वयिता च राजान तेता ब्रह्मव्रिदा वरा. । 
सत्रमारेभिरे कत्त यथाव्रदरमभरूनये ॥२३ 
वभरुव सव्र तत्तेषा व त्वाश्चयं महात्मनाम्‌ । 
विश्व सिमृक्षतराणाना पुरा विश्वनूजाभिव 11८ 
चैखानसै- त्रियसख॑रवाखयित्यर्मसेचिक 1 
सन्ये मूनिभितुंष्ट मूरयवश्रानरप्रमै ॥२५ 
पिष्देवाप्सर निदेगन्धर्वोरगचार. । 
सम्भारेस्तु युर्मजुंषट तेरवेन्धसदो यथा ।२६्‌ 
स्नोवरसत्रग्रदैदेवानु प्रितृन्‌ पिच्ैन्च कममि । 
भानन्रंश्च यथाजाति गन्धर्यारीनु ययापवचि ॥२७ 
(आराघयिनु पिच्छनस्ता कर्मान्नरेप्वय । 
जगु सामानि गन्वर्वा ननृतुश्चप्तरोगणाः ॥र्‌न 
{8 ----*------- 


जिप्र महान भाखा वात्तेको नहुष क्या पिताकहूते दै, वह ध्पणील 

शपजा उन सगने कषाय वहूनदौ मच्टावरताय क्रताभथा। वह्‌ एक परमधे्र 
नष या, एसलिये उसमे बल्यृप्र आगेग्व भौर वायु रमौ बु था ॥२२॥ प्रत्य 
" वाद्यो मे परमन्र् ऋवियोने फिर उछ राजाक्यी सा^्ट्वना करके ययारीत्ति 
चमो विमूतिकौ बृद्धिके लिव लने सत्रे दरनेकायारम्मदढर्‌ दिया 
॥२३॥ दिले समयमे एम दिग्द को पृष्टिक्टे क इच्छा दते विष्व खशर्मो 
की भांति उन महानु आत्मा वाति पिरयो का वद्‌ सत्र सरयन्त आत्वं एर धूं 


५२ |] [ शपुर 


का या ॥२४)) प्यारे सखा वैवानमों के डारा गन कित्पोकरे, मरीविक 
सौर भुय वथा अम्निके समान प्रभा वलति अत्य अनेक पुनियोकै द्वारां उस सव 
ष्य सेवन किया प्रया था ।२५) पतिर, देव, बे-पराण्ण, तिद्ध गन्धं चण 
बौर चारणो के द्वारा अनेकानेक शुभ सम्भागे ते युक्त होकर इन्दर के निषा 
स्यान {घ्वगे } की माति इस सत्र का सेवन किया गवा या ११२६॥ प्तो4 
सत ग्रहो देवताभो का तथा पिष्यनर्मोके इरा पितृणा आरब 
समम्त गन्वदं आदिका उनकी जन्ति एव स्वभावके अनुसार विधि विधान द 
भाप दही अर्वेनक्िवाया ॥२७। (दके अनन्तर घन्य दर्मो मे बाराचना मी 
द्-छाकरते हृए्‌ गन्धर्वो साम का प्रायन करिणा मौर अप्राणो नै वह्‌ 
नृयक्िा॥र२्]) 


व्याजह.मु नथो वाच चित्रपदा गभम्‌! 
मन्नादितत्तवविहयासो जगदुश्च परस्परम्‌ ॥२६ 
वितण्डावचनाश्चं के निजघ्नुं प्रतिवादिन । 
छऋपस्तत विदढास साड. द्यार्यन्याय ङोषिदा ॥३० 
न तव दुरित किचिद्रिदधत्रंहाराक्षसा । 

न च यज्ञहनो रैत्यान च यज्ञमूपोऽमुराः॥३१ 
भरायश्चित्तदृरिष्ट चान तत्र समजायत । 
धक्तिप्ज्ञा क्रियायोगैिधि रासीत्‌ स्वनुष्ठित ॥३२ 
एव विनेनिरे सत द्दशान्द मनोपिण । 

भृग्वाद्या ऋपयो धौरा ज्योतिष्टोमान्‌ पृयक्‌ पृथन्‌ । 
चक्रिरे पृषठगमनानु सर्वानयु7दक्षिणानर्‌ १)३३ 
समा्रयजनास्ते सर्वे वायुमेव महाधिपम्‌ । 
पप्रच्ुरमिताद्मान भवदुभिवर्यदह्‌ दिनाः । 
प्रपोदितश्च वशां सच तानत्रवौलमु 11२४ 
शिष्य स्वयम्मुदो देव सर्व॑मत्यक्षटगव्णी | 
अयिप्रादिभिराभिरेशवयेय समन्वित ५३५ 


सन्त भादि वे तन्वदे क्ता परम दिद्ानु सृन्नगण भति व्िषित्र पदा 


हवादय-वरपीपि सत्र निरूपण | { ५५ 


पति वती चुम कल्पाणकारिणो वाणी ज्ञा उच्चारण करने लये ओर परस्पर 
२ बोलने समे ॥२६॥ वहां प्रर साच्य दर के अथं तथा न्याय-दर्णन-गास्तर 
6 बर्थं के जानने वाले परम विद्धान्‌ कु च्छवि लोग वितण्डायुक्त वचन बोलते 
ए भपने प्रतियादियो पर वात्ब्रहार फरने लगे ॥३०॥ वह उस दोषं सममे 
पह्यराक्षपरो ने कोई दुरित ( पात } कमं नहीं कियाया+ दत्यलोगो ने भी 
पक्तफा हनन करने का कोई कमं नही किया र्‌ वहं यज्ीय वस्तुजोका हैरण 
रने वाले मभुरभी नही ये ॥३१॥ वहां उष समय कोई भी मनी एवं 
प्रायप्वित्त के योग्य कमं नही हरा था। प्रत्ति, बुद्धि गौर्‌ क्रिया के सद्योगो के 
हारा षहृत दही मच्छीतर्हते कौ गह विधिका भनुशनदहो रहा था ॥३२॥ 
परम धीर मूग मादि मनीपौष्ट्पियोने इस प्रक्ररे वहां पृयञ्-बृषक्‌ ण्थंति- 
छम बिपे भौर वाह्‌ वपं पयत उममन्को करतेग्हे मौर समी पृष्गमनो 
को भयु दक्षिणावति ल्या या॥३३॥ यत ममत क्ेवाने उनम्व्रने 
धमित भात्मा वालि महान्‌ स्वामी वायूमेही पा भौर वायुदेवने कहा-- 
है ब्राह्यणो | यदि आपलोगोने पृमेही वत कथन कम्ने के तिये प्रिरितकिप 
तो सुनो-एेला प्रमु वायुरेव ने उनि करदा 11३८॥। वे स्वयम्भू के ष्य, सव 
खो प्रत्यक्ष क्पे देखने वाने, यथने ही वशर्मे रहने यत्ते देव ह, जो माठ 
सणिमादि देष्वर्योमे युक्त \९५।। 

तिर्य्योन्य' दिभिधेर्मे सर्वंलोग्ान्विमत्ति स. । 

सप्तस्वन्धादिक शश्चनु प्लवते योजनाद्रर- ॥३६ 

विषये नियता यस्य सस्यित्ता प्ता गणा. । 

व्युहाख्र पाणा भूताना वर्वर यश्च महाप्लः। 

तेजषघ्राच्युपघ्यानन्दधातीम शरोरिणमू ॥३७ 

प्राणादया वृत्तयः पठ्व कृरणाना च वृत्तिभिः। 

्रेयंमाणाः ल्रैराणां बुवते यास्तु धारणम्‌ ॥रप 

आकाशयोनिहि गुणः शब्दस्पंसमन्विनः । 

तेजलसप्रकृतिश्चोक्तरम्ययं भावो मनीपिमि. ॥ द 

तय्राभि मानो भगवान्‌ वाधुश्रातिक्रियात्मकः॥ 


५६ । { वागु-ुराय 


चातारनि समायात" शब्दाच्च विशारदः 1४० 
भारत्या शवक्ष्णया सर्वानू मुनीन्‌ प्रह्धादयच्निव । 
पुराणज्ञः सुमनस ॒पुराणाश्रययुक्तया 11५१ 


जो तिर्यष्योनि आदि चर्मा समस्त लोकतोका भरण कणने है भौ 
श्र जो निरू्ठर योनेन से सत स्कन्ध आदि का प्वन करते ह ॥३६॥ जिनके 
धियथ मे नियत सद्तकगण सशव रहते है ओर जौ महाव क्ल वाला तीन 
भूतो कव्यहौको करता हुमा तेन के उपघ्यान को लानादहै मौर इस शरीर 
फोषरण करता है ॥३७॥ प्रणाच( पाच वृत्ति होनी है नौरजो दिगो 
पृत्तियो से प्रेयंपराण होती हृरद शरीरो को धारण करती ह ।३८॥ भकाः 
योनि वाना गुण, शष्द भोर स्पशं मे स्मग्विन होतो 1 मनीषपियो केष्रारा 
मह भाव तेजस प्रकृति दाना भौ कहा गया ॥३६॥ मान बाला भगत्राच्‌ वायुः 
देव अर्यधिक क्रिया के स्वल्प वाला होना है । यह शब्द माके पण्ड 
सवा पुराणो केज्ञाताने पदाणो के आश्रय से युक्त परम मघुर वाणीके दरार 


कच्छ मन वाजे समल्न मूनिमोको परमादह्वादसे पूरणं कस्ते हृष्‌ ववारणिक्ष 
यणेन क्रिया ॥४०।४१। 


।। भ्रजापति सृष्टि कथन !1 
महेश्व रायोत्तमवोयंक्मेणे सुरपंभायामितवुद्धितेजसे 1 
सदरसनूर्यानिलवचे से नमद्धिनोकसदहारविसूश्ये नम॒ ॥१ 
प्रजापतीन्‌ तोकनमस्कृता स्तथा स्वयम्भुर्दरप्र्ृतोनू महेश्वरान्‌ 1 
भग मसि परमेष्ठिन मनु रजस्तमोधर्ममथापि कदयपम्‌ ।२्‌ 
चसिष्ठदसात्रिपुनस्त्यकद्‌ं मानु चि विवस्वन्तमथापि च क्रतुम्‌ । 
मुनि तयेवाद्भिरम प्रजरति प्रणम्य ूर्ध्ना पुलह्‌ च भावत. ॥३ 
तयेव चुक्रोधनमेकवरिशति प्रना विवृदधघापितकार्येलापनम्‌ । 
पुराननानप्यपराश्च शाश्वतास्तभेव चान्यान सगपानवस्थिताच्‌ ।॥४ 
तथव चा्यानपि धंयंशोनिनो मुनीन्‌ वृहस्पतयुशन,. पुरोगमान्‌ । 
तपु व्रानारपीन्‌ दयान्विताद्‌ प्रणम्य यद्ये क तिपापनाधिनी म्‌।४ 


प्रजापति गृष्टि कयन |] { ५७ 


प्रजापतेः सृष्टिमिमामनुत्तमां सुरेश देविगणं रलकृताम्‌ 1 

शुभामतुल्थासनचापृपिप्रिषां प्रजापत्तीनामपि चोल्वणाच्विषाग्‌ ॥६ 

तपोमृता ब्रह्मदिनादिकालिकरी प्रभरुतमाविष्कृतपौरुपियम्‌ । 

शती स्मृतौ च प्रसृता प्रुदाहूतां परा पराणामनिवप्रकोत्तिताम्‌ ॥3 

सूती ने कदा--समस्त देवों मे परमश्रेष्ठ, अपरिमित वृद्धिकेतेत्र 

गरले, सदृसो" सूरयो के मनस के तुल्य वच॑स वाले, उत्तम वीयं केकमंक्यने 
ब्रातति महेश्वर भगवानके लिये नमस्कारै भौरतीनो लोर्कोकेसंहारकी 
वेगृष्टि करने वासो के लिये नमस्कार है !1१॥ समस्त लोको के बन्दनीष प्रजा 
पतिमोङो तथा स्वयम्भू ( ब्रद्या ) मौर रद्र ्रमृत्ति महावर ईष्वरोको एवं 
भगु, मरोचि, परमेशो गौर रजतधा तमके धमं वत्तिमनुको मौर क्यप 
कौ भी नमस्कार है ।२॥ वरिष्ठ, दक्ष, लमनि, पलट गौर वदंमफोभौर 
सधि, विवस्वान्‌ तथा प्रतु एवं भागिरतत मनि तया प्रजापति कौ नतमस्तक ते 
प्रणाम करके पुचह्‌ कौ भाव सहित नमस्कारहै 11 उमी भाति प्रजा की 
विप दृद्धिके लिते साय-णासन बौ सित कर देने वातत इङो चुद्धोश धन 
षौ नमस्तार है भौर इरे ुरात्तनौ को, नित्य निवाय करने वालो' कतया 
मणो" के सहित मवस्थित अन्यो बो नमस्कार टै ॥४॥ दी प्रकारसेधपेकी 
एोभा याते वृदस्पति एव उशना जिनके भग्रसरहै, दते अन्य मृनिषो फो, 
दया ते युक्त तरश्चर्या एवे णुम माचार वाते क्पियोः को प्रणम्‌ वृर वलि 
मणक पापोः के नाय करने वाती प्रजापति की सषि को षहताहं॥\५॥ 
यह प्रजापति की सट सर्गोत्तिम दै भौर सुरेण तथा देवपियोः के शमूहुने 
अलंद्रनहि। यहु सृष्टि परम शुभ, सतुपम, निष्पाप मौर छपिषो" की भ्त 
त्रिपद एवं अत्यन्त तीग्र कान्ति कति प्रजाप्रतियो कौीभो प्यारीदहै दनो 
तपस्वी लोग दै,उनङोभीप्रियदहै। ब्रह्माके दिनसे भौ अविक फालवा्रीदहै। 
यह्‌ खष्टिठेसी दै, जिक्ने भस्ययिक पुष्पा्यकी ध्रीवा आविष्कार क्िादै 
तथा श्रुति एमं स्मृति पे प्रसत एवं उशत दै । पहुपरेरे भीपरे हैभीरययु 
कै द्वारा प्रकौतित दै ॥७॥ 

समासवन्धैनियतैर्ययातयं चिशव्दनेनापि मनप्रद्िघीम्‌ 1 

यत्यास्च वद्धा प्रथमा प्रवृत्तिः प्राघानिकी चेश्वरकारिता च 5 


र [ { ादुुराण 


यत्तत्‌ स्मृत कारणमक्रमेय ब्रह्य प्रधान प्रङृतिप्रसूति 
भात्मा गुहा योनिरयापि चक्षु क्षे त्तथवागृतमक्षर्व 1४ 
शक्र तप सत्त्वमतिप्रकाश तद्य नित्य पुर्ष द्वितीयम्‌ । 
तमप्रमेय पुस्पेण युक्त स्वयम्भूवा लोक्पितामहेन ॥॥१० 
उत्पादकत्वाद्रजसोतिरेकात्‌ कालस्य योगात्तिनमावधघेश्च 1 
षेत्रसयुक्तानु तियद्तान्विका रानू लोकस्य सन्तानविवृदिरैतृन्‌ । 
रकर्पवस्या सुपुवे तथाष्टौ सद्धुल्पमानरेण महेश्वरस्य ॥११ 
देवायुराद्विद्रमहाग रणा मनुप्रजेशपिपित्रद्रिजानाप्‌ 1 
विशाचयक्षोरगराक्षसाना ताराग्र हावकंक्षनिशानराणाम्‌ ॥१२ 
मास्तु सवल्सररार्यहाना दिवकालयोगादियुगायनानाम्‌ 1 
वनौपधीनामपि वीरुधान्च जलोौकसमिप्सरसा पञूनाम्‌ ।१३ 
वियुत्सर्न्मिधविहंङ्घमाना यत्मूक्षमग यद्भुवि यद्वियत्स्थम्‌ 1 
यत्‌ स्थावरयन यदस्ति विश्विवु सर्वस्य तस्यास्ति मतिविमक्ति।१४ 
यथातथ अर्थात समुचितस्पद्े नियत समत बन्धो के द्वारा ग्नि 
ध्वनिकेभी मनको परम प्रप देने वाती है। जिते प्रधान की प्रयम प्रवृत्ति 
सौर दूश्वरादिता बद्धहो रदी ता जो ब्रह्याका धविषय कारका 
पयार, वहब्रहय चया भकृतिकी भूति प्रषान है। गुहा ङी योनि वाला 
आप्मा, चक्षु कषेत्र, अमृत ओर मक्षर्‌, शुक्र, तप मौर अति प्रराश वाला स्व 
एव वह्‌ पृक निधय द्वितीय पुष्य को, पृर्पकेद्वारा बप्रमेय लोका" के पितामह 
स्वयम्भू से युत उष पूस्पशो, उत्पादक हाने सते, रजोगुण के अत्तिरेक से, कालत 
दै थोग भीर निगम कौ सववसे लोक की सतन कौ विशेष वृद्धिषे ददु 
स्यष्पद्येक्नसे युक्त नियत मित्रासो को मदैश्वर वे पद्धुल्प माघ्र सै भाट 
प्रहत फौ अवश्या को उस्पन्न रिय ।६।1१०।११॥ देव, असुर, भद्रि, द्रम 
शामरे की-मनु) प्रजा, ईश, श्वि, पिहृगण सौर द्विजो की पिशाच, 
राश, उष्ण भौर यक्षो सौ--तारा, ग्रह्‌, यकं, चक्ष भौर निशाचरो की-- 
मामः चनु, सम्बल्मर, रात्रि बौर्‌ दिवसो को--दिगा, काल, योगादि, पृष 
नीर अयनो कौ--कन की लोवधियो कौ--वीरुषो दी--जतप्रेषर दतो को- 


परत्रापि मृषि कयन | [ ४६ 


मप्राभौ को--पु्रा कौ--ग्वद्युन, स्ति ( नदी ), मेष लोर विहममों की 
स्विति गजो सूददम गमयरक्रने वालादहै, जोभृश्रमदटैमौरमजोनममे स्थित 
है तथाजौ स्मावरदै, जहांभीजो ददै उत सय्की गि बिभक्तिदी 
दै ॥१२।१३।१४॥ 


छन्दासि वेदा सनो यजु सि सामानि सोमश्च तथैव यत्न । 

भआजीव्यमेषा यदुमीप्मित श्च देवस्य तस्येव च वरै प्रचापते 1१५ 

सैवस्वतस्पास्य मनो पुरस्ताच्‌ सम्भर निर्क्ता प्रसवश्च तेपाम्‌} 

येपामिद पुण्यकृता प्रसूत्या लौकनय लोकनमस्कृनानाम्‌ । 

सुरेशदेवपिमनुग्रघौनामापूरितर्मोपरिभूपिनन्च ॥॥१९ 

स्द्रस्थ शापान्‌ पुनहद्ूवश्च दक्षस्य चाप्य मनु्यताे । 

वास्त क्षितौ वा नियमादुभवस्य दक्षस्य चात प्रतिष्रापलान 1१७ 

मन्वन्तराणा परिवर्तनानि युतेषु मम्भूत्तिविरत्पनच । 

श्पित्वमा्पस्य च सवरदृद्धियया युगादिप्वि चेर्तदन ।८ 

ये द्वापरेषु प्रयर्यान्त वेदानु व्याप्ताश्च तेऽतकरमणो निदा । 

कत्परय सध्या भुवनस्य सन्या ब्राह्मस्य चाप्यत्र दिनस्य सस्या ।१६ 

अण्डोदूर्भिजस्वेदजरायुजान। धर्मास्मा स्वगनिवासिना वा। 

ये यातनास्यानगताश्र जीवास्तकेण तेषामपि च प्रमाणम्‌ ॥२* 

आत्यन्तिक प्रादुततिकश्च याऽ नैमित्तिक प्रनिषर्टतु । 

यन्धश्च मोक्षद विक्षिप्य तच प्राक्ता च समारगनि परा चर्‌। 

्रदृत्यवस्मेपु च कारणोपु या च स््ितिर्या च पुन प्रदत्त । 

तच्छा््रपुक्त्या स्वमतित्रयल्नात्‌ समस्तमाविष्टरनधीपृतिन्य । 

वित्रा पिम्य समुदाढत यद्ययातव तच्टगुतोच्यमानम्‌ ॥२२ 

छद, ये, व्छपरााङे सदितियनु, गाममौर मोम तथा यन ह्न 

पचन्तं ध्ाजोप्व लौरजो भौ धतङ्ा छरभोरमित दै, वहस उपि प्रशक्निदम्‌ 
का पिर्वितस्तपसे होतार ॥१६॥ पङ्ति हय ववस्य मुक्त सम्भूतिपही 
षट मोरडउाङ्प्रणर मयति नत्भीक्ढागयादटे) यततीतो कषत 
भारा यदनोव सुरे, दर्वि, मु जादा को प्रमुत्रिमे मदु परमयपृग्य 


६ [{ वाग पुराणं 


शालियो के जन्मसे समघ्तीनो तोर परिूष्ति है मौर षुयिव भी है ।१६॥ 
दम मनुप्यलोकमे सद्रकेशापते ददा ङ पुनर्जन्म मथवा भुमण्डत मे निवाप 
हया आर नियम से यहाँ पर दक्ष का मौर भव का प्रतिशाप लाम हुमा 
१७॥ मन्व ठरो का परिदतंन युभोमे उनको सम्पति ( उत्पत्ति} शरोर 
विङ्ल्यन तवा युमारिमे ऋपित्व भौर पं कौ सप्रृदि हृई वंषी ही पहा पट 
भी हुई 11१८ जिन व्यासदेवने द्वापरे वेदो का विस्तार विया, वे पहा षर 
भी क्रमश निग्रह! क्ल्य कौसल्या है, मुत्र को सस्या दै भोर ब्रह्मा 
फेदिनिकौोमीसघ्या होतीदहे॥१३५) जी्वोंकौजो अण्डज, उदुभिनर 
स्वेदन है भौर जरायुन है, धर्मारमा है यास्व के निवासत करने वाते जीवै 
मौर भो यतना सहने के लिये यातना स्थान (नरक) मेंप्डे हुदै, छक 
सेन सारका भी प्रमाण है )२०। यात्वन्तिक, ब्राहृ भौर नंमित्तिक 
को यह्‌ प्रतिं फाहैतु है तथा वन्व मौर विशेयं कर मोक्ष नते वहार 
परा, सार की गि वका मई दै 1) २१॥ प्रङृति मे, सवस्य करारपोमे जौ 
स्थिति होती दे, मयवा जो प्रवृत्ति होती है, हे विप्रो 1 वह तापर की पृक्तिते 
भपृनी बृद्धि के प्रप से समस्त धैय ओर बुद्धि षो भाविष्छृत करे गले 
श्रषियो केलिये जो भनी भौतिसमदाकर कहा गयाहै, भव यापर लोग कटै 
जाने वे उस सवन श्रदण करो ॥२२) 
1) हिरण्यगर्भ के र्प मे विभिन्न तत्वों कौ उत्पत्ति 11 

पयस्तु तत श्रुत्वा नेभिपारण्यवात्तिन 1 

भ्रत्युस्ते ततत. सवं सूत प्यङ्गिलेक्षणः ॥१ 

भवान्‌ वै वशकुशलो व्यासात्‌ प्रत्यक्षदशेवान्‌ 1 

तस्माच भवने छृत्स्न लोष्यामुप्य वणेय 1 

यस्य यस्यान्वया ये ये तास्तानिच्छाम वेदितुम 1 

तेया पूरवचिनष्टि च विचित्रा ता प्रजापते ॥३ 

वसषत्परिपृर्स्तेमेदात्मा कोमदर्पण. । 

विस्तरेणानुपूरव्य च क्ययामास सत्तम 1४ 


द्िरष्पगर्भ ङे सू मे विप्निन त्वो कौ उत्पत्ति ] [ ६१ 


पृ च॑ता कथा दिव्या ण्लक्षणा पापप्रणाशिनीम्‌ । 

कथ्यमानां मया चिता वत्तर्था धर तिस्तम्मताय्‌ ॥५ 

यश्च माधारयेच्नित्य श्गुयाद्राप्यभोक््णशः । 

श्रावयेनचचापि ति्रेभ्यो यतिभ्यश्च विशेषत" ॥६ 

शुचि पर्व॑सु युक्तात्मा तीेप्वायतनेषु च । 

दी्मायुरवःप्नोत्ति च पूरागानुरीत नात्‌ । 

स्ववेशधारण कृष्वा स्वर्गलोके महीयते 11७ 

मैभिपारण्य के निवारा करने वाते -ऋहवियो ने यह्‌ मुनङर दशर अनन्तर 
पर्थातरत नेप्रो वाते उन सथने मूलनोमेक्हा ॥ १॥ महा महपिष्याप्तजीते 
म्प्य दशन करने कारणस माप निश्चयी वश पुशल महापु्ष रै, दश 
लिये प इम लोक का सम्पूणं भवनक। टृमारे सामने वर्णन वरे ॥२॥ 
जिएनिप्फेजोजौ अन्वय (वश) ह ओर उनी प्रजापति की विचित्र पूरव 
सपतीन चपिष) को खेषटि के) तथा म-वपो को ट्म जनि च्रे ह ५६५ 
पियो दे दवाय इय प्रकार वार-बार दुद याते प्र महामा वोमरपणयी, जौ 
परि सष्ुष्योमरे परमधेह उत विष्तारसे तपा आनुरवीक्षि बह्ने लये ॥४।, 
लोमहपंण जो ते कहा--मृस्ल ते पृद्धी गपी यह कथा अध्यन्त दिन्य-मघुर घौर 
पातकनाशन वानीदहै मौर अव्रमेरे द्वारा कही जरति वाली यह वथा 
सर्वधा श्रुति (वेद) ते मम्मतत, गदरे अर्थं परिपूणं मौर भति विमि षटै। 
जौपृ्पद्रमकधा को निप्य धारण करेगा अषवा भरद्‌ वाद्श्चवण षररेगा मोर 
भरह्यणो को श्चयण वरायेगा तथा विक्ेपस््यते यनिषा षो सुनाविगा मौर देवा- 
यतनोमे, पवं दिनौमे पवित्र तया समाहित होतर्‌ श्रवण करायेना वदृ धष 
पुराण पे अनुरर्ततक्रे ते दीधं आयु को अवव्य हीप्रप्नकर वेतादटै मोर 
भयनेवश् षयो धारण गरड ्वगेलोद मे जाकर मन्व मे प्रति होत्रादै 
॥ ५-६-31 

चिस्तारवयय तेपा ययाणब्द फयाध्‌तम्‌ 1 

की्यमान नियोधध्व स्वे पा कीत्तिवद्धनम्‌ ५८ 

धन्य यशस्य शश्रुघ्न स्वग्यं मायुधिवर्धनन्‌ । 

कीर्तन स्यिररीत्ताना सवे पा दुष्यकारिणाम्‌ ॥६ 


९२ 1 { वरा 


सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वशो मन्वन्तराणि च 1 
वशानुचरित-च ति पुराण पचलक्षणम्‌ ॥१० 
कल्पेभ्योऽपि हि य क्प. ुचिभ्यो नियत शुचि । 
पुराण सम्प्रवक्ष्यामि मारत वेदसम्मितम्‌ ॥११ 
प्रवोध प्रलयश्च व स्थितिर्‌ पत्तिरेव च ! 
प्रक्रिया प्रथम पाद कथ्यवस्तुपरिग्रहं ॥१२ 
उपोद्धातोजनुपद्धश्च उपसंहार एव च । 
धर्म्यं यशस्यमायुप्य्‌ सर्वपापप्रणाशनम्‌ १३ 
एव हि पादाश्चत्वार समासात्‌ गीत्तिता मया । 
वक्ष्याम्येतान्‌ पुनस्तस्तु विस्तरेण यथाक्रमम्‌ ॥१४ 
उनके दरित्तारके अद्ध क्तो जिन शब्डोमे जैसा भी मनि सुना है वह भग्र 
भरेद्राराकीर्मनस्रियाजारदारै आप उति समक्न लवे, यह्‌ सरकौ त्तिक 
यदि वाताहै।)प८॥ परम पुण्यङ्नारी गौर स्थिर वौत्ति वातरे सवको यहं 
कीर्तन धन प्के वटानि वात्राहै, शत्रुमो का साक, स्वर्गे प्रदान कराने 
याला मौर भापु कौ वृद्धि कराने वालादै॥ द ॥ पुराणके पंच लक्नणहेते 
है, पुराण म सम प्रतिमं बश, मन्वन्तर भौर वयानुचरित ये पाचों हेते ई 
पभो वह्‌ पूणं लग सम्न् पुराण कहाजाताहै ॥ १०॥ क्ह्पो के भी जो 
षल्य भोर णुचिपोकाभो गो निवन गुचिहैरेमावेदरो सम्मत यहं माद्त 
पुराय ्मव्ह्नाह ॥ ११ प्रोप्र-प्रलय स्थिति भोर उपति ये क्रिय) 
प्रयप्रपाददै। बयत वे पोष्य वस्तु शा परिग्रहण-उपोदूधात-अवुपद्न भो 
उपमा होता! पहपमंसे युक्तया धमं देने वाता यशदाता, वायु वदतं 
धौरसयप्रयारदे पाका गाक्होताटै ॥१२-- १३) दसप्रकारते ॥ 
सक्नेवमे चारपादोक्ोदतत्रादियादै पुन हनो द्रमानुनार वि्तार बे घाप 
षट्वा ॥ १४॥ 
तस्ये हिरण्पगभयि वुग्पयिश्वरायच। 
सन्ताय प्रयमयेव विचिष्टाप प्रजात्पने । 
प्रतो तोपान्वाय नमस्दप्य स्वयन्नुवे १५ 


दरण्यगमे के स्पमे परिभिन्न तवोदी उगत ] [ ६३ 


महदा चियैपान्त सवैरूप्यं सलक्षणम्‌ । 

पद्चभ्रमाण पट्‌ श्येत पुर्पाचिष्टिन नुतम्‌ 1 

सत्तगयाद्‌ प्रवक्ष्यामि वृतमर्गमनुत्तमम्‌ ॥१६ 

सव्यक्त' कारण यत्तु निच्य सदमदा-गकप्‌ । 

प्रधाने ग्रति चैव यमाहूस्तत्त चिन्तका ॥1१० 

गन्ववगे रसोर्टूनि पब्दस्यकषविपज्जिनम्‌ । 

अजाति ध्रूवमक्षय्य नित्य म्बात्मनयवस्यि पम्‌ 1¶८ 

जगयानि महदुभून पर ब्रह्य सनातनम्‌ । 

विग्रह्‌ सर्व॑भूलानामव्यक्तममेवन्‌ विल (षद 

अनाद्यन्नमज रूक्ष्माप्रगुण प्रभवाव्ययम्‌ । 

अमाम्परतमप्रिलेय ब्रह्माग्रे ममवत्तत २० 

दम्यएमन्द गर्मिर वयसमणपदम्दम्रयम््‌ 4 

गूण्ाम्ये तदा तस्मिन्‌ गुणमापरे नमोमये २१ 

सरग॑परति प्रधानस्य क्षेतज्ञाधित्रिनस्य वं। 

गूणमावाद्राच्यमानो मदान्‌ प्रादूर्वश्रूय € ।२२ 

उम दिरष्यगभं पूरप भौर टृयर्पे पिपरे-अन्त स्प नौर प्रथम एवम्प 
दादेः निवे - विदनेदरार्मोदे युक जोट प्रनाजा पे तिर सोतन व्र, ग्ययम्भू 
षटाओरके निदे नपन्बार दरे ॥ १५॥ मेदेव मवेप्रेय दमभ्रूतव गतश 
सिन पिमो सत्यकेब्द्ता हे निगके मादिममदट्दृदै, मते मे त्रिनेवषदट, 
चष्प्यमे वुकदै भर तक्रपदे गहि ठया पचि प्रमात दातादै, परण्यन 
युक है एयदृष्यमे जपित है ओय वन्दिनि है ॥ १६ तर्‌ गो दूगका 
ध्य भारण् ट चट्‌ न्ति थौर मतु दपा नतु स्यष्प वावा हाद । वत 
षै (सि-त करे याते परव उत प्रधन भौरत्छलि क्य भरने $ ॥१७॥ 
भप उग सस्य बा वेगन त्रिया जाता, पट यथ्य्त गन्धव मौरस्मनम 
बहिर ठपार्प्दमौरस्पनगन्मोरने टोका पञ तवात्र, पय, भव्य, 
पिन्द भोर भातत आन्माय अपनु स्पन्यमे अवर्षति र ॥ १८६ पद्‌ 
थर द्व टनव पा निर सरृदुदू सताठन, प्रभोर ध्ये है । तत्य 


६४ 1 [ कापु पयण 


्राणियो भा विघ्रह देषा जथ्यक्त हमा था ॥ १६॥ जिमवान बादिहै भर 
न अन्त ही है देषा अन्तजन्त, मजसूदम, श्िगु, प्रभवाम्यय, बसाम््रव बौर 
अविज्ञेय अर्थात्‌ न जानने के योग्य अव्यक्त ब्रह्य वे बागे आया ॥ २०॥ उनकी 
मात्मा से अर्थात्‌ स्वल्प से यह्‌ सव अन्धद्गारमय व्यापन या। उम सेमरयमूत्रन 
के फलम गुण साम्य अर्यात्‌ गणो कौ सष्टिपे धर्‌ तभरौमय गुण भाव 
त्रत के द्वारा सधिष्टित प्रधान के गुण माव मे वाच्यमान सदान प्रादुभूत हना 
अर्या उत्ते हमा 1 २१--२२॥ 

सूक्ष्मेण महता सोऽथ अग्यक्तेन समारत । 

सत्वोद्िक्तो महानगर सत्वमानप्रकाशकम्‌ । 

मनो महश्च विज्ञेयो मन स्तत्कारण स्मृतम्‌ ॥२३ 

लिङ्खमालसमुलन्नः शेनजाधिष्ठिनस्तु सः। 

धमदीनान्तु त्पाणि लोकततत्वाथंहेतव. । 

महास्तु सर बुसते नो्यमान सिसृक्षया ॥२४ 

मनो महान्मतित्रं ह्या पूवुंद्धि स्यातिरीश्वर"। 

प्रा चिति. स्मृति सितु विपुर चोच्यते वधे ॥२५ 

मनुते सर्वभूताना यस्मा चे ्टाफल विभुः । 

सौष्मघ्वेन विवृद्धानां तेन तन्मन उच्यते २६ 

तत्वानामग्रजो यस्मान्महाश्च परिमाणत. । 

गपेभ्योऽपि गृणेभ्योऽक्तौ महानिति तत" स्मृत ॥२७ 

विभर्ति मान मनुते विभागं मन्यतेऽपि चं । 

पुरुपौ भोगसम्बन्धात्‌ तेन चासौ मति. स्मृत. ॥२८ 

अन्यक्न शौर सूक्ष्म महद्‌ से समारत वह सत्व के उदेक वाला महात्‌ 
क्षगि दभा जो वेवलं सत्व काप्रकरा् करनेवाला धा) वह महव मन द 
समचा चाहिये वोम मन ही उघहा गारण कहा गया £ 1 २३॥ वह केस 
कैदारा ययिष्ित महान्‌ विद्धमाव्र उलप हमा । धर्मं जादि केप तो लोक 
कत्वायेकेहेनुह1 सृजन क्सने बोष्च्छातते प्रेरित त्रिया हुभा वह महात्‌ 
ग्ण्कौ करता है ॥२४॥ विद्वानो के द्रारा यह महाय मन, मति, ब्रह्म, 


हिरिण्यगर्भकेष्परमे विभिन्न त्वो कौ उ पत्ति 1 {[ ६५ 


परवु दि, र्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, चिति, स्मृति, सवित नौर विपरा जातताहे 
॥ २५॥ सूध्मतासते विधेये हुए समस्तभूतो कवे के पलक यह 
विमु भववोधितक्रताहै दसी कारणसे यहमन क्हाजाता है २६॥ यह 
समत भन्यतत्वो के परिले उत्पन्न हुआ दै मौर परिणाम मे महान्‌ नर्थात्‌ व्डा 
है तथाशेप अन्यगुणोसेभौवडादै इसील्यि इमे महान्‌ शहा गयाहै॥ २७॥ 
मान कौ धारण क्रतादै भौर विभग ङो समन्ताहै त्था भोगके सम्बन्ध से 
पुद्प भी मानता है दसल्यि महु "मति' इन नामरसेक्हागयादहै ॥ रेन ॥ 

वृहः्वाद 'टणत्वाच्च भावाना सतिलाश्चयात्‌ । 

यस्मादत्र हयते भावान ब्रह्मा तेन निरुच्यते २६ 

आरूरधिष्वा यस्माच्च उर्स्नान्‌ देहाननूरहे १ 

तत्वाभावाएच नियता स्तेन पूरिति चोच्यते 1३० 

वुश्यते पुरश्चात्र सर्वंभावान्‌ हिताहितान्‌ 1 

यस्माद्ववोधयते चैव तेन वुद्धिनिरच्यते ॥६१ 

ख्यातिः प्रत्युपभोगश्च यस्मान्‌ सवत्तते ततः । 

भोगर्च ज्ञाननिष्टववात्तेन छ्यानिरिति स्मृत ॥३२ 

स्यायते तद्गुणैर्वापि नामादिभिरनेकशः 1 

तस्माच्च महतः सन्ना प्यातिरित्याभिधीयते (३३ 

साक्षात्‌ सव विजानाति महात्मा तेन चेश्वरः । 

तस्ताञ्जाता ग्रहुएचव प्रना तेन स उच्यते ॥३४ 

ज्ञानादीनि च सूपायि कनुकर्मफनानिच। 

चिनोति यस्मादुमोगा्यन्तिनासौ चितिरच्यते ॥३५ 

पृषु काभावहोनेसे मौर दृृहृणत्वरे षारणमे तया भावो बे णति- 
भाश्रय होने पद्‌ भाोंक्तो वृहति वरतादै इमीतिद षटवे प्रहाग्टा जाता 
है ॥२६९॥ प्स पारगते क्रि पह अनुष्र्यषे दारा तमत्त देहोभा तेषा 
नित ह्वमायो परा आपूर सदि रराद इमकानाम चप्‌ "ण्ड बदा 
जाताहै ॥३०॥ गमे पृप्पद्ित योर अदि समी शवो फो जानता 
सीर निषे कनि प्राप्त रिषातररवा है इणनिदे दमनाय नमि “धुदि' क्ट ररा 


९४ } { कापु पुरा 


जततादै ॥३१॥ स्याति बौर प्रसयुपमोग जिगमे दनि ह तथा ज्ानवी 
निन्ता देने स मोग होता इनीलिये यह ' व्याति" कद जाता है ३२॥ 
उमके मुणोके द्वारा अनेक नामादिद्त यह स्यात होता है द््रीलिवरे इम मह्न रौ 
स्याति" यह सन्नाव्टीजतौदहै ॥ ,३॥। यह मभीवबुद्धको साक्षात्‌ ष्पे 
जानता है इसीनिये इत महाप्मा का 'ईश्वर' नाम होता है। भौर इते समस्त 
रहो की उपपत्ति ई दै मतरएव वह श्रता स नामस कहाजातादहै॥ ३४॥ 
सान मादिके खूप ओरक्रतु कमं के फल कोतयाभोगार्योकोजो चयन रता 
दै इसीनिये वह चिति" --इक्त नामते कटा जता ठै ॥} ३५॥ 

वर्तमानान्यतीतानि तथा चनागतान्यवि । 

स्मरत सर्वेकार्याणि तेनासौ स्मृतिरुच्यते 1३६ 

कृत्स्न च विन्दते ज्ञान तस्मामाहातम्यमुच्यते । 

तस्माद्विेविदेष्च॑व सविदित्यनिधीयते ।(३७ 

वित्ते स च स्वत्मिद्‌ सवं त््मिऽच रिचते; 

तस्मात्सविदिति प्रोक्तौ महावै वुद्धिमत्तरं ॥३८ 

ज्ञानाततु ज्ञानमित्याह्‌ भगवान्‌ ज्ञानसच्चिधि । 

दरन््राना विपुरीभावाद्विपुर रच्यते बुधं ॥३६ 

सवे एत्वान्च लोमानामवश्य च तथेश्वर । 

बृहच्च स्मृतो ब्रह्मा भूतत्वाद्‌मव उच्यते ॥१० 

क्षेषितरनविज्ञानादेकत्वाचसक स्मृत । 

यस्मान्‌ पूर्य नुेते च तस्मात्‌ पुरुप उच्यते । 

नोलादितत्वार्‌ पूर्वत्वात्‌ स्वयम्भूरिति चोच्यते ४१ 

पर्योयिवाचरः शब्देस्तत्वमायमन्‌्तमम्‌ । 

वपराव्यात नत्वभावजरेव सदृमावचिन्तक्त. ४२ 

वर्तमान, मूत ओर बनागत्त समस्त कायो का स्मरण इष्के द्वारा त्रिया 
जाता है इमलिवे यहं स्मृति दस नाम वाताक्दा सथा है ॥ ३६९१ यह 
म्ू्ण तान का लाम क्रतां मते (माहसम्य" कढाजाना है बौर पूणंक्ञान 

ग प्ताता होने ते द्मवा नाम मित्‌" वदाजानादै ॥ ३७1 वह तभीमे 


हिरण्यगर्भकेषख्पमे विभिश्न तदवो री उस्तति ] [ ६५ 


विद्यवान रहना है यौर सभी बद्ध इममे विमान है दमोलियि चेष्ट युदि वाले 
फेद्धारा यट महान "सविद" कहा गत्ता 1 ३८ ॥ क्ञानहोगे से इमे श्लान" 
कहा जाताहै बौर ज्ञान कौ अचौ निधिदहोनेकै कारण “भगगानु" हा 

जातादटै 1 समस्त ड्न्द्रो ङ विपूरोमाव होनेकेकारण वृधो केरा इसका 
नाम व्रिूरः--यह्‌कदाजातादै।॥३६॥ लोकोका सव्ये वडा्हृशहोनेके 
कारणवशही इम महन्‌ कनाम !ईश्रः-यह हा है। वृ्यु होनेमे 
शरदा --यहुक्डा प्याह यौर भूततर भाव इममे रटने से इते "भवय्‌ कटा 
जकतादहै 1४० ॥ क्षेत्र गौरक्षेग्रज्नके िेपज्ञानदहोनेमे यौर एक्त्वेदटोने 
सेमे 'क'--यहक्हाजानादहै। कथो वह्‌ पुरी मे अनुगेन कथा करता 
दै अनएत्र उसका नान "वृर्व--यहु कटा जाताहै। वह्‌ मिसीके द्वा उता. 
दित्तनहौहूभ्रा हं ओरपूरवत्तां ह इमोतिवे स्वयम्भू -इम नाम वाना हूं ।॥५१॥ 
तत्वभाक के नाता तथा मदुभाव के चिन्तन क्रमे वानोके द्वारा पर्याप्रवाचक्‌ 
(4 ममाना्पकर चोतक् तव आय्य" ओर उत्तमम्‌-दन शन्दोसे व्यार्या की 
गई हं ॥ ४२॥ 

महान मृष्ट विदरसते चोयमान. सिसृक्षया । 

मद्ल्पाञप्ववसायशए्च तस्य वृत्तिद्रय स्मतम्‌ 1४३ 

धर्मादोनि च रूपाणि लोऊतत्वार्थदेतवः । 

वरिगुणस्तु स विज्ञेयः सत्वराजसतामसः ॥1 ४४ 

तिगुणाद्रनमोद्विक्ताददं द्धः रस्ततोऽभवत्‌ । 

मह्ना चरत. र्गो भूतादिविडतस्तु सः ॥४५ 

तस्माच्च तमसोद्रिक्तादहङ्ारादजायत। 

भूततन्माव्रसरग्नु भूतादिस्तामसस्तु सः ॥४४द्‌ 

सकाश णपिर तस्मादुद्रिक्तं शब्दलक्षणम्‌ । 

आकायं चतदमातन्तु मूादिरवादृगोन्‌ पनः ॥४७ 

शब्दमावन्तदाराव स्वर्शमात्र मसं ह। 

भूतादिस्तु विद्धुठ्याण शत्दमात्र सज्जं ह्‌ 1४८ 

वचया जायते वावुः्स वे स्पर्गगुणोमत.} 

माकाश शव्दमाचन्नु स्वसीतातव समारृषोन. 11४5 


६० ] वाप पुरष 


सूमन करते को इच्छाः मे जव इत म्हाद्‌ को प्रेरणा दी जातीं लोग 
हम जगत्‌ की भृष्टि रिया कस्त है 1 उक्तकी सद्धू्प ओर अध्यवसाय येदो 
प्रकर की वृत्ति कही गई ईं । मानसिकं दानाम दद्ध मौर लगातार 
रमसे कायं करने को यश्यवमाय कहते है ॥ ४३॥ धमं आष्दकै स्प सोक 
केतव्वा्ंकेटेन होते ह। बह सात्विक राजतत खरौर तामस प्रकारमे तीन गणौ 
वाला समञ्ञना चाहिये 1! ४४॥ उम त्रिगुण स्वल्प से जव रजोगुण का उदर 
होता है तौ उसे महद्धारहुमराहै। वह्‌ सर्गं मद्वु से सवृ है घौर भूतादि 
मे विष्केन स्वल्पवाला होता है ॥ ४५॥ तमोगुण के उद्रेक वाले उप्त अद 
द्ुरते भ्रूतो की तम्मात्राओोक्ा सर्ेहोता दहै । वह मूतादि वाला उसका 


तामसे स्वरूप । ४६॥ उसमे दाब्द लक्षण वाला बाकराश न उद्रिक्त 
हमा । शन्द मातर माकाश को फिर भूतादि ने बाघरूत कर लिया ॥४७॥ 


मङ्ग अनन्तर दाब्दं माव लाराश को स्वं मात्र सृजन किया । ब्त षप वति 
हते दये भूतादिने शब्द माध कामूजन किया ॥ ४८1 फिर वन वाला वपु 
उप्र होता टै जिसका एक मात्र बुणस्वत होक ग्या है। एस मात्र 
आकारा ने स्पदां मात्र वायुको समातं क्रल्तियाया ॥ ४६॥ 

रसमात्रास्तु ता ह्यापो रूपमातरानिरादृणोत, 

आपो रसान विकुवेन्त्यो गन्धमातर ससज्जिरे ॥५० 

सद्धातौ जायते तस्मात्तस्य गन्धो गुण. स्म्‌.त. ! 

रममात्रन्तु तत्तोय गन्धमान समात्रृणोत. ॥५१ 

तर्िपस्तस्मितु तन्माना तेन तन्मात्रता स्मता । 

अविददोपवाचर्त्वादविशेषास्ततः स्मता. । 

अशन्तघोरमूदत्वादविशेषास्ततः पुन" ॥५२्‌ 

भूततन्माव्रसर्गोऽय विज्ञेयस्तु परस्परात. । 

वैकारिवादद्‌द्ध1रात्सतरोद्रिक्तात्तु सात्विङात. । 

वैकारिकः स सर्भस्तु युगपल्सम्प्रवर्तति ॥५३ 

गुद्धिन्दरियाणि पञ्चव पच्य वमिं द्धियाष्यपि। 

साधकरानीद्धियाणि स्युटा रारिका दश । 

एवादश मनस्तव देवा वैवारिवा. स्मता. 11५४ 


हिरण्ण्ग्मे के खूप मे विभिन्न तत्वों को उत्ति ] [ ६६ 


श्रोत्र त्वक. चश्चुपी जिह्वा नासिका चेव पच्चमी । 
शब्दादोनामवाप्त्यर्बुद्धिगृक्तानि वक्ष्यते ।५५ 
पादौ पायुरूपस्यन्च हस्तौ वाग्दणमी भवेत. । 
गति्ितर्मो ह्यानन्दः शिल्पं वाक्च कमं च ॥५६ 
जल केवल रस म्र होतादहैजोज्जि ल्प मानाभोसे मदृह हजाथा। 
जलने रसो का विकार करते हुये ग-धमात्ताका सूजन क्रिया ॥ ५० ॥ उसे 
स्वात्तं की उरान्ति होको दै जिसका गुग गव टोताहै) रसमात्रा कृते जन 
ने ग्न्य मात्रा वते क्रो समावृत करं लियाया + ५१॥ उस्र उसमे जो तन्मात्रा 
है उममे उही तन्मानता कही गधी है । अतिञचेय वाक होनेसे ततवये अवि- 
शेप कटै गये ह । मशान्त, घोर ओर मूढहोनेसे फिर भविशचेप कहैग्येहै 
॥ ५२॥ इपर प्रकार परस्पर मे यह भूत तमान का सगं जनना चाहिये। 
चैकारिक् अर्थात्‌ विक्र'रथुक्त गहङ्खा८से भौर षत्व के ्द्रोकं घाते साप्विकसे 
वह वैहारिक सगे एक साथ सम्प्वृत्त होता है ॥५३॥ पाच बुद्धीन्द्रि 
अर्यात्‌ नानार्जैन करने वाली ज्ञानेन्दियां गौर पांच साधक कमे्द्रणां अथि 
केवल क्म करके जञानार्जन करने वाली इन्द्रि उलयन्न होती है। इनके दणं के 
दश ही भषिषठातता देव होते हजोर्वकारिक कटहैजति है। उनदश उयुक्त 
इन्द्रियो के अनिरिक्त ग्यारहूवाँ मन होता है । वहाँ वंकारिक देव होते है ॥५४॥ 
सव उन समस्त उक्त इन्द्रियो कै विषयमे बतलाति हैं । श्रोत, त्वक्‌, चु, जिह्वा 
मौर पाँचवो दन्द्यं नासिकाहै। ये सव शब्दादि ग्पियोका जान प्राप्त करने 
फ लिये होती दह इसील्िये बुद्धीन्द्रिय क्हानाभा ई ॥ ५५॥ दोनो चरण, 
पायु र्यात्‌ गुदा-उपस्य अर्थात्‌ मूतरेन्दरि दोनो, हाय मोर दशवी वाक्ये इन्द्रियां 
दस तरह 1 इनकाक्रमसे कमंगति-विमगं अयति मलल का त्याग, आनन्द 
भर्यादु रमण सुख, शिल्प अर्थात्‌ दस्तकारौ ओर वाक्य कयन दता है ॥५६॥ 
आकाशं शन्दमालच्च स्पर्यमाधरं समाविशेत. । 
द्विगुणस्तु ततो वायूः शब्द स्पर्शाप्मकोऽमवत, ॥५७ 
रूपन्तयेव विशनः शब्दस्पर्शगुणाबुभौ । 
त्रिगुणस्तु तत्तड्चाग्निः च शब्दस्पर्शाह्पवान्‌ ॥ ४ 


७० | { कष्य पृ 


सशब्दस्पर्शाष्माच्च रगमात्त समाविशत. 1 

तस्माचतृगु णा ह्यापो विज्ञे पास्ता रमात्मितराः ॥५६ 

सशब्धस्पर्शल्पेषु मन्स्तेषु तमातरिणन । 

संयुक्ता गन्धमात्रेण आचिच्वन्ति मदौमिमाम्‌ 1 

तस्मासपश्वगुणा भूमि स्य्‌लभूतेपु इष्यते 1६० 

शान्ता घोराश्च मूडाण्च विदोपास्तेन ते स्मता. । 

परस्परानुप्रवेशाद्वारयन्ति परस्परम्‌ ॥६१ 

भूमे रन्तम्त्विद सर्वं लोकालोक्घनाव्रृतम्‌ । 

विशेषा इन्दियग्रह्य नियतप्वाञच ते स्मता. (६२ 

गुण पूर्वस्य पूर्वस्य प्राप्नुवन्ुत्तरोत्तरय्‌ । 

तेपा यावच्च यद्यत्र तत्तत्ताबदगुणं स्मा.तम. ॥६२ 

उपलभ्य शुचेर्म-ध केचिद्वायोरनपणात्त, । 

पृथिव्यामेव तटि्यादेपा वायोश्च सश्रयात ॥॥६९४ 

एन्द मात्र आङ्ग स्पशं माना वलति वायु मे पमावेषा करतादै। मत- 
एव वागु स्पशं नौर शद दन दो गुगो वाना हो गया ॥ ५७ ॥ शब्द भीर स्वशं 
येदोनोमुण् उमौप्रक्रारसै स्पमेसमरव्रेश करते हँ । इसत्िये भमि लब्द~ 
स्पदांथौर स्प इन तीष गुणोवाना हो गया !॥ ५८॥ इमी रोति से शब्द 
स्पृशं गीर रू रस तन्माता वाने जलमे समाकिष्ट हो गये । द्म्तिये जलं 
शब्द, स्पर्श, रूप भौर रभ इन चार गुणो वाला हो गया ॥ ५६॥ शब्द, स्पर्शे, 
रूप, रस इनमे ग्न्ध का समावेश हो गया । किन्तु महीको केवलगन्धसेही 
तिर्घादिति क्थ करते ह! वस्तुन यह भूमिपा गुणो वाली स्थूल भूतोमे 
दिलाई देती है ॥ ६० ॥ शान्त घोर गौर मूढ ह अतएवये विशेषक्हैगये 
है। येप्रस्रमे अनूप्रेश क्रेरे परस्परङो धारण त्रिया करते है ॥६१॥ 
लोकालोक घन वे यावृत यह सव भूमिवे गष्दरदह। व्िश्ेप इन्दरिणोके द्वार 
प्रहण रने योग्य दै नियत होने सेवेक्दे ग्ये ह ॥ ९९॥ पूवं पूवं के गुण 
उत्तर से उत्तर षो भ्रात होते ह 1 उनद्गा जिततनाओरजोदै वह्‌ उतनादही गुण 
कतय ग्या दै ५६३१ एथ सोगर दातुके गन्धको प्राप्तकर निष्रूण्वाके 


हिःण्यगमंकेस्पमे विभिन्न तत्व कौ उत्पत्ति ] [ ७१ 


समप ेउतेवायुकाही गुण मानच्तेह््नतु देता नही है। इमे पृथिवी 
का ठी समन्नना चापि बौर वायु मे तो केवल उनङ्गाखथ्रप हो जावा 
है॥ ६४॥ 

एते सप महचोर्या नानाभ्रुता. पृथर्‌ पृथक्‌ 

नाशवनुतेनू प्रजाः सष्ट्मसमायम्य कृत्स्नशः 1 

ते समेत्य महात्मानौ ह्ययौन्यस्यव संश्रयात्‌ ॥६१ 

पुरुपाधिष्ठिनत्वाश्च अव्यक्तानुग्रहेण च । 

महुदाया विश्ञेपान्ता अण्डमुत्पादयन्ति ते ॥६६ 

एककालं समूत्पन्न' जचवृद्वुदवचच तत्‌ । 

विकेयेग्योऽण्डमभवद्‌ वदेत्तटुदकं च यत्‌ । 

तत्तस्मिनु कार्यंकरण स्रसिद्ध ब्रह्मणस्तदा ॥९७ 

भराकृते ण विवृद्धं सन्‌ लेनज्ञो ब्रह्मस्नित + 

सवै शरीरी प्रवमः सवं पुर्प उच्यते (1६ 

आदिकर्त्ता च भरतानां ब्रह्माऽग्रो समवत्तति । 

हिरण्यमरभः सोऽपरो ऽस्मिन्‌ प्रादुभूं तघ्रतुमुंखः। 

सगं च प्रति सर्गे च लेवज्ञो ब्रद्मसनित. ॥ ६ 

करणः मह सुज्यन्ते प्रत्याहारे त्यजन्ति च 1 

भजन्ते च पूनर्दहानसमादारसन्विपु 9० 

हिरण्मयस्तुमो मेरस्तस्योत्वं तन्मटात्मनः 1 

गर्भोदकं समूद्राश्च जरायस्थीनि पर्वताः 1७१ 

ये सन्त मटानु वों वात्र ह मोर पृथङ्‌ पृवङ्‌ अनेक भांतरिके होते 
है । पूर्ण्प से नभिलक्गर प्रजादी सृष्टि करे मे समवंनटी हृष्ये 
महाम्‌ आाह्मा वाते अन्योष्य के र्यात्‌ एक्‌ दूरे के सशय से भिलक्षर दुष्प 
कै यथिषितिदोनेते भौर अन्यक्त के अनुग्रह से मरत्‌ से ञादिलेकर वि्चेप 
क घरन्ततफवे सप्र अण्ड को उत्पादित त्रिरा वरते है ॥६५-६६५ एकटी 
क्लमे वह्‌ जलने बुदवुदे की आदि वमु्यन्न टया जौर विगेयेसेयण्डङे 
स्वष्पमें हुमा । ररि वह्‌ गार उदक बृहन हमा मार उप्तम उप्त मय ब्रह्य 


७२ 1 { वायु पुतन 


की कायं करणता सिद हू 11९७॥) प्ादरृत अण्ड कै विुद्धदोने पर दैक 
रह्म सज्ञावाल। हुमा । वही सरव्॑रयम शरोरवायी है मौर वदी पुद--ध्य 
नामस कहा जाता है ॥६८॥ भूनो का अर्थान प्राणियो का वादपर्ता श्रयति 
सरवप्रयम मूजन करने वाला परहिते ब्रह्य हर । वह दिरण्यगमं इसमे बागे षार 
मुवो वाना प्ा््रुत अर्थात प्रकट हृभ्रा। मौर स्मे, अरति-षगं मे दौत्रज् ब्रह 
सज्ञा वाला होता है ॥६६। इन्द्रियो के साथ सुजन क्रिये जति है मौर प्रत्याहर 
मेत्याग देते ह तथा फिर अ्माहार सन्धयो देहो को धारण करतेतेरै। 
॥७०॥। उष महाद्‌ आमा को उत्व हिरण्मय मेशुकी है समुद्र यर्भकानजत दै 
भौर जरादि अस्थिरा पर्वत है ॥७१।1 


तस्मिन्नण्डे त्विमे लोका अन्तभरुतास्तु सपर वै। 
सप्तदीपा च पृथ्वीय समुद्रः सहं सप्तभि ॥७२ 
पर्वतैः सुमहदभिश्च नदोभिश्च सहस्रशः । 
अन्तस्तस्मिस्त्विमे लोका अन्तविश्वमिद जगत्‌ 1७३ 
चन्द्रादित्यौ सनक्षत्रौ सग्रहौ मह्‌ वायुना । 
लोकालोक च यत्‌ किचिन्चाण्डे तस्मिन समर्पितम्‌ ॥५४ 
अदुभिर्दशगुणाभिस्तु वाह्यनोऽण्ड समावृतम्‌ । 

यापो दशगुणा द्यं वन्तेजसा बाह्यतो वृताः 11७५ 
तेजोदशगुणेनव वाह्यतो वायुना वृतम्‌ । 

वायोहं शगुणोनेव वाह्यतो नभस्ता वृतम्‌ ॥७६ 
भकाशेन वृतो वायुः ख च भूतादिना वृतम्‌ ! 
भरूतादिमेहता चापि अव्यक्तेन वृतो महाव । 
एतंरावरण रण्डं सप्रभिः प्राठ़सेकृं तम्‌ ।७७ 
एताश्चावरृत्य चान्योन्यमष्टौ प्रतयः स्थिताः 1 
प्रसर्गकाते स्थित्या च ग्रषन्त्येताः परस्परम्‌ )। ध्म 


उस्र बण्डप्रेये सतो लोक अन्तभूत है अर्थात्‌ उसके बन्दर रहते ह । 
मान दीप भौर सातो समृद्रो वे सहित यहे भूमण्डल, बटे विशाल पर्वत, सदो 
कौ मद्या वाली नदिया यै सव चउपीके धन्त्मागिरमेदह) ये सव सौव धीर 


हिर्प्वयर्म कै रूपमे विभिर तत्वों क्य उत्ति ] { ७३ 


ग्ट सम्पू जगन तया समस्त विश्व उस्के ही न्दर ठते ह ॥७२.४३॥ 
बेन्धमा भौर मूर्यं समस्त नकष्रो के खाय तथा सम्पूणं ग्रहो के इदि उसमे 
शरीर वेायु कर स्राथ लोकालोक जौ दरुयमी है उषी मण्ड मे समपि है ॥1७४॥ 
प्रह मण्ड वाहिर्खे ददा गुने जले खमादृव है जौर परि जल से दघ गुने तेज 
दी प्रकार बाहिरि से जाघ्रूत है 1७५॥। दी मातरि ठेज जिना है उवे दग 
गना वायु से वान्त होवाहै बौरवायु सै दश गना उदके बाद माकाश से मृत 
दतादै॥७६ वागु से माकाश ठे मावृतहै योर्‌ नम मूतादिसे मावरृनहै) 
मृठादि घव महान्‌ सेवया यह मट्‌ अव्यक्त से मवृ होतादै। इख प्रकारसे 
यह भण्ड इन सान प्राङृत याव््णो से गावत दोताद्धै ॥ ५८॥ इनन 
छन्थोन््र कौ आतृ करके आठ श्रहृियां स्थित होती ह । श्रषरगे के कालमे 
येस्वितत होकर परक्तरमें ग्रपती है ॥०८॥॥ 


एवं परस्परोधन्ना धारयन्ति परस्परन्‌ ।॥ 

साधायद्ैव्विन विकारस्य विकारिपु ॥॥७द 

अव्यक्त क्षोनगदिषट ब्रह्मा क्ष ्रज्ञ उच्यते । 

दव्येष प्रातः सर्गः क्ेनज्ञानि्टितस्तु खः 1 

बुद्धिपूर्व प्रामासीत्‌ प्रादुमूता तडिद्यया (1*० 

एतद्धिरण्यगर्भम्य जनम यो बैद तच्वतः । 

नायुप्मानू कौतिमानु घन्यः प्रजावाश्च नवत्युते ॥८१ 

निवृत्तिकामोऽपि नर. गुद्धाव्मा मते गतिम्‌ । 

पुराणश्रवणानित्यं सुख च दौममाप्तुयात्‌ 15२ 

इ रचि से परस्परमे चन्र हत्ती हुई भभ्स्परमेहोये धारन विया 
करती है विक्रार वार्लोनें विक्रारक्ा तावार-नायेय मव टोदा है 1 
यह दख व्यक्त को क्षेत्र बताया गया ई, ब्रह दख दैत कटा जाठादै। 
गह प्रा्रत-प्गे टेतादहैजो कि क्षेवन्नके दारा बधिप्रिन रीत्ता है । यह्‌ षदिति 
वृद्धि पूवं वाल धा भौर जिद दरद्‌ अचानद् जव चमन दर दिला 
देया कर्ती है उसी तर्द यह प्रादमूठ हमा ॥य०ा इय हिरण्यम कै उन्म 
मनै ठव बुदि पूर्वर टोक-टौक जी वानठादै वद्‌ जापर काला-रीत्ति वाता-धन्य 


७४ ] { वपुर 


भौर प्रजा बाना होता ई ॥८१॥ जो मानव निवृत्ति की कामना र 
मह भौ गुद आत्मा वाला न्धी गतिको प्रास करताहै) पुराणम न 
श्रवण करने रे मुख मौर क्षेम शो गाति होती है ॥९२॥ 


॥ सृष्टि रचना जीर देवी शक्तिर्या ॥ 


यद्धि सृष्टस्तु स्यात मया कालान्तरद्दिजः. 1 

एतन्‌ कालान्तर ज्ञेयमहर्वे पारमेश्वरम्‌ ॥१ 

रातिरस्वैतावती ज्ञेया परमेशस्य कृत्स्नश । 

भहस्तस्यतु या सृष्टि प्रलयो रात्रिरुच्यते 1२ 

अश्च वियते तस्यन रात्रिरितिधारणा) 

उपचार प्रक्रियते लोकाना टितवाम्यया ॥३ 

प्रजा प्रजानाम्पतय च्लपयो मुनिभि सह्‌ 1 

ऋषी सनलुःमारास्यान्‌ ब्रहमसायुज्यगे सहे 1) 

इन्द्रियाणीद्दियायश्चि महाभूतानि प च) 

तन्माना इन्धिययणो बुद्धिश्च मनसा सद 1५ 

अहस्तिष्ठन्ति ते सें परमेशस्य धीमत 1 

जहरते प्रलीयन्ते राय्यन्ते विश्चसभव ॥६ 

स्वाटमन्यवस्यिते सप्ये विकारे प्रतिसंहते । 

साध्येणावतिषठ ते प्रधानपु्पावभौ ॥७ 

श्रीोमटपनशी ने बहा--दे दिजवृन्द । यह ने जोयष्टि षा 
नरको सप्पा है यह्‌ का्ता-तर परमेश्वर भराति रम्तवा पाहिषु ॥ 
भरमस्यर की रातिभी समनो हो जाननी वादिए्‌ उष्ाजोद्धि तेता दै 
मृ्िषाषातहणाटैथोर्जो रात्रि होती वह पर्प कहा वाता! 
उमशादिविहो राद रितु रतिमदा होती है--यह्‌ चारणासोकौ के 
षो षागनाव उपचार हिपा जाता 11२0 अरमा प्रतआाके पपि--गपि 
मुनिर्यादे सहल--सततुमासदि माम वति ब्रह्य सागग्य षौ जा षार 
शटि पम दद्रपो मरह दद्रमो दे सव धर्ष धरत विपप--पचमह 
पात त्नमाकणसयो प्रागु श्रौर म्पे पाथ पदि पे णड प्ते 


सृष्टि रचना मौर दवौ पक्तिं |] [ ७५ 
+ : 
दिनके समयमेरदाक्रतै हमौर उतर धीमान परमेश्वर के दिनके वन्त 
पषभयमेये सवर प्रलीनहो जति फ्रि जव्रे रात्रि का अवप्तानहोतादै तो 
षस विश्व की उत्त्तिहो चातौ टै ५४८५-६ अपनी भात्मामे छत्व फे षव- 
पयित हने पर भौर विक्रार प्रतिखट्त दौ जाने पर प्रधान मौर पुन्य दोनो 
साधम्यं चे वस्त रहाश्रते हं ^< 


तेम मच्वगुणावेतौ समत्वेन व्यवस्थितौ 1 
अनोद्िक्तौ प्रसुनौ च तौ तथा च परस्परम्‌ । 
गुणसाम्ये लयो ज्ञेयो वपम्ये सृष्टिरुच्यते र 
तिचतेषु वा पया तैल घृत पयसि वा स्थितम्‌ । 
त्तया तमसि सत्त्वे च रजोऽव्यक्ताध्रित स्थितम नं 
उपास्य रजनी कृस्ना परा माहेश्वरी तदा । 
यहमुं ये वृत्ते च | परछृतिसम्भव ॥१० 
स्लोभयामास ५ परमेश्भर । 

प्रधान पुरपस्चैव प्रि क्याण्ड महैश्धर १९ 
मरघानात्‌ क्षोभ्यमाणात्तु रजो वै समवर्तत । 

सर्ज. प्रवत्तं क तत वीजेप्वपि यया जलम्‌ ॥१२ 
गणवेपम्यमासाच् प्रसूयन्ते ह्यधिष्िना 1 

गुरोभ्य क्षोभ्यमाणेभ्यल्लयो देवा विजज्ञिरे ! 
लाधित्ता परमा गुह्या स्व्मिनः शरीरिण ॥१३ 
स्जो ब्रह्मा तमो द्यग्नि स्व विप्णू रजायत । 

रज प्रकाशको ब्रह्मा सरष्टूटतयेन व्यवस्थितं 11१४ 


तपरोगुण् भौर सत्वगुण ये दोनो समत्व म्पमे व्यनेरिवनह॥ यट पर 
ये दोनो उद्रक बाति हतत ह यौर परस्परमे प्रनत दते दै । जव गुमोका घाम्य 
हो सर्थान्‌ दोनो यण समान स्वरूप मे स्विति रने वलिते सृष्टिवा 
लय परमञ्च लेना चाहिए । जव इनौ विपमताक्ामावदहोताहैततोरउते हो 
मृष्ट बहा जाता है ॥८५ वम्तुत स्पष्ट द्ंनम्रेयेदोही गुण जाति दै सत्वतुण 
ओर तयोग कन्तु तुरीय जौ रनोगुणटता है वह चिहठवरहश्रियेमेदंन 


७६ 1 [ सामु पृयण 


र्ता है भोर दध मे धृत दहा वरता है विन्त वह्‌ तंल भीर धृत स्वष्ट दिसलाई - 
मही दिया करता है उसौ ततर्ह तमोगुण मे भौर स्तण में रजोगुण वयक्त 
स्पते बाधित होकर स्थित रहता है जौ भरि प्रक्ष दिलाई नही देवा है ॥६॥ 
मदश्वर प्रभु षौ परा सम्पूणं रजनी कौ उपासना करके तव दिनके भारम 
दृत दौ जाते प्र आम प्रकृति का सम्भव ( उलतति } टमा 1 १०५ मप्र 
नेखण्डमे प्रवल करकेउग्रयोग से प्रपान मौर पुष्पको शु्धवर दिया 
11११५ उस सभय जव प्रधाने क्षोभ्यमाण हज तो उत्त रजोगुण हभा वहां पर 
बीजोमे जल के सहश बह रजोगुण ही प्रवत्तंक हो गया ।1१९॥ उस समय 
गणो की विषमता को प्रात कर जो गण्ड मे यधिषटित ये वै प्रमृत होते ६। धीम 
को प्राप्त हए गुणो से तीन देव मुतपत्न हुए नो वहां मध्रित ये-परम गुह्य ये 
सव की भामा स्वरूप ये भोर शरीर धारण करने वति ध ॥(१३॥ रजोगुण ले 
एह ई- दमोगुण् अनि रै. दौर स्वगुण ६», उत्पद्‌ हुए. 1 ब्रह्मा सृष्टा हणे 
से रजोगुण के प्रकाशक व्यदेध्ित दए ॥ {ध 


तम प्रकाशकोऽग्निस्तु कालत्वेनं व्यवस्थितः 1 
सत्वभ्रकाशको विष्णुरौदासीन्ये व्यवस्थितः 1९५ 

एत एवं त्रयो वेदा एत एव त्रयोऽग्नयः } 

परस्पराधिता ह्यं ते परस्परमनुव्रताः ॥\१६ 

परस्परेण वर्तन्ते धारयन्ति परस्परम्‌! 

अन्योन्यमियुना ह्य ते ह्यन्योन्यमूपजीविन । 

क्षण वियोगो न ह्ये पाच्च त्यजन्ति परस्परम्‌ 1१७ 

ईश्वरो हि परो देवो विप्णुस्तु महत" पर. । 

ब्रह्या तु रजसोद्विक्तः सर्गायेह्‌ प्रवत्त॑ते । 

परश्च पृरूपो ज्ञेयः प्रकृतिश्च परा स्मृता ॥८ 
अधिष्ठिनोऽसौ हि महेश्वरेण प्रवत्तं ते चोयमानः समन्तात्‌ } 
अनुप्रवर्तन्ति महान्त एव चिरस्थिताः स्वे विपये प्रियत्वात्‌ ॥९४ 
भ्रधानं गुणवपम्यात्सगेकाते प्रवर्तति । 

ई्राधिषठिताद्‌ पूर्वन्तस्मास्सदसदात्मकात्‌ 1 


सृष्ट रषेना बौर दैवो शक्त्यां ]} {[ ५४ 


व्रह्मा बुद्धिश्च मिथुने युगपत्मम्वभूवनु ॥२० 
तस्माचमोऽव्यक्तमयः क्षे तनो व्रह्मसज्ञित 1 
ससिद्ध कार्यकरणंब्रह्याऽग्रं समवर्तत ॥२१ 


भग्नि तमोगुण का प्रमाण करने बालादै भन वहकातकेस्वरधपते 
ध्यवप्िथते हूए 1 सत्त्वगुण के प्रङागक विष्ठु ई घत उदासीनता की स्ति म 
व्यवस्थित हुए रै ॥१५॥ येही तीनवेदर्हैये दी दीन अन्नियां ह वे परस्पर 
मे एक-दूरे के जाध्रित ई गौर परस्पर म अनुव्रत व्षते भो होत है ॥१६॥ये 
प्ीगो परस्परमे वरत्रावाक्रते ह मौर परस्परमेषारण किथाकरतेर्हु1 वे 
अन्परोय मिथुन अर्यात्‌ जोड़े वाते हँ ओर अन्योन्य वे उपजीवो हति ह । इनका 
भापसमे एकं दूषरेतेएकषण मात्रवामी वियोयं नदीटाताहैमौरयेषए 
दूषरे वो आपसे कभी ल्यागनही करते ह ॥१3॥ ईश्वर सवसेपरदेवरहै 
शौर विष्णु मटानूखे शीषर! ब्रह्यातो रजोगुण बे य्द्रोक वाते जो यहा 
स्गैकेत्िषह ४ टरोत द! एख्प को पर समना चादिषए यौर प्रह्ति परा 
गही गहै ॥ नो ष्वरके द्वारा अविपरिति यह चारो गोरे उद्यमे युक्त 
हता हमरा ्रवत्त होता है । अपने बिपय मे श्रिय होन के कारण चिर्‌ प्यति 
महान ही फिर अनुपरवृत्त क्रिया क्रते हु ॥१६॥ प्रघान युपो विपमतादहोने 
केकारणसे सगं बात्तमे मर्थातू सृजन के समयमे प्रवृत्त होता है! पिमे 
ईष्वर से भधिष्रिति उप सदगदात्मकसंनब्रह्या मौर वृद्धिका गोडाएक्र ही समय 
मे उत्पश्न हुमा ॥८२०॥१ इस कारण ते तम अ यक्तमय ओर क्षेवज्ञ ययाच 
चालाोत्तादै तथा कार्थं कारणोसे सद्विदध टोता हआ ब्रा याने हमा ॥२१॥ 

तेजसा प्रयमो धीमानन्यक्त सप्रकाशते 1 

सवे शरीरी प्रथम कारणत्वे व्यवस्थित ॥२२्‌ 

अप्रतीधेन ज्ञानेन रेश्चरयेण च सोऽन्वित । 

धर्मेण चाप्रतीचेन वैराग्येण समन्वितः १२३ 

तस्येश्वरस्याप्रतिघ ज्ञान वँ रग्यलक्षणमू । 

धर्मेश््यष्टतः वृद्धिरत्राह्मी जचेऽभिमानिन २४ 

अ-यक्ताज्जायते चास्य मनसा च यदिच्छति । 


७८ ] [ वपु पृण 


वशीकृत त्वादध गूण्यान्‌ सुरेशत्वात्स्वभावत" ॥२५ 

चवतुमूं खस्तु ब्रह्मवे कालव्वे चाव्रकोऽपवन्‌ । 

सहस्रमूर्धा पुरपस्तिल्लोऽयस्था स्वयम्भुन ॥२द 

सत्व रजश ब्रह्मपे कातल च रजम्तम । 

सात्तिक पुरुपत्वे च गण़त्ति स्वयम्मूव ॥२७ 

लोकान्‌ मूजति ब्रह्मं ति कालघ्वे सक्षिपत्यपि । 

पुरुप्वे ह्य .दासोनसिचोऽवस्था प्रजापते ।।२५ 

प्रयम्‌ धीमान्‌ मव्यक्त तैजसे मली भाति प्रका्ित होता है । वह्‌ प्रथम 
श्रीरधारणकरने वालाहै जो क्रि कारण ल्पते व्यवस्थित हुमा दै ।॥२२॥ 
वह अनुपम धम्म गौर वैराग्य से सर्मावत्त तथा भप्रतीघन्लान एव देषवयं धे 
भावत था ॥२३।1 उस ईश्वरका वैराग्य के लक्षण वाता मप्रतिधत्तानथा 
आर अभिमान वाले उसको घम तया एेण्वयसे की ह्त्रह्यो वुद्धि उचश्न हई 
॥२४॥ इसके मनसे जो भी वह चादता दै वही अव्यक्त सदा जाता है वयोकि 
स्वभाव से वशीकृत व॑गुण्य भौर सुरेरत। थी ॥२५।; चतुमु ख तो ब्रह्मप्व भौर 
फालघ्व मे अन्तक हुभा 1 भौर षहस मूर्धा वाला पुष्प हमा! दत प्रकार 
स्वयम्भु की तीन अवस्यादे हह 1२६॥ ब्रह्यघ्व मे सत भौर रजोगुण की वृत्ति 
थी, कालघ्व की अवस्या मे रजोगुग मौर तमोगुण की वृत्ति थो इया पृरुपतव 
षी दणामे स्वयम्म्‌ कीवेवनं सात्विका गण वृत्ति थी ॥२७॥ वही स्वयम्भू 
ग्रहत्वं के स्वरूपसेलोकोकामृनन करता है मीर कालव्वकी दार्मे भव 
त्वित होक्रर सहार निया करता टै तया पुर्पप्व कै स्वल्प वह्‌ उदासीन माव 
से प्पित रहता है । ये प्रजापति कौ तीन मवस्वा होती द ॥९८॥। 


बरहा कमलगर्मामि कालो जाव्याञ्जनप्रभ 1 
पुष्प पुण्डरीकाक्षो हप तत्परमाप्मन. ॥२5 
योगेश्वर शरीराणि करोति विकरातिच॥। 
नानाटठृतिकियाहपनामवृत्ति स्वनीलया ।१३० 
तरिधा यदरत्त॑ते लोके तस्माल्तिगुण उच्यते । 
चतुद प्रविभक्तप्वाचतुच्वूं ह्‌ प्ररीतित 1२१ 


ष्टि स्वना गौर देवो श्त्या 1 [ ७६ 


यदाप्नोति यदादत्ते यच्चास्ति विपयं प्रति 1 
तेचास्य सतत भावस्तस्मादात्मा निश्च्यते ॥३२ 
ऋपि सवंगतत्वाच्न शरी राद्याहस्यय प्रम ॥ 
स्वामित्वपस्य तत्म्वं विष्णुः सर्वप्रवेशनात्‌ ।३३ 
भगवान्र भगसद्रावाद्वायो रमस्व सामनात्‌ 1 
परथ तु प्ऱृतत्वादवनादोमिति. स्मृतः (1३४ 


स्ेज्ञ. सर्वविज्ञानात्‌ सवः सर्वं यतस्ततः 1 

नराणामयन यस्मात्त न नारायण. स्मृतः १३५ 

यपनी मवस्था के लनुमार्‌ उस परमान्मा केत्तीन प्रकारके सूपहौते 
है । जब बही श्रह्माहोताहै तो उमका दप कमलकेसर्भवौ साभाके समान 
हूभाक्रताहै, काल षा प्वस्पहता है उम समय अल्जन कै सहश म्परहोता 
टै गोर जत्र पृक स्वन्पमे टोत्ता टै तवे पृण्यरौक्ाक्ष अर्थात्‌ कमलके तुत्य 
नरो वाला टता है ॥२६॥ बह योय कास्वामी भरनी लीताये यनेक बाहति- 
निविष द्रिपा-पचुर्‌ हप, नाम तपा वृन्त वालाहै तयाश्नरीरो कौ धारन करता 
है मौरस्यमग दिया करता द ॥३०॥ वह लोक मे तीन स्वष्पोते र्हताहै द्म 
सिपि बह त्रिगुण बर्थान्‌ तीन गृण बाला वहा जाता है} चार प्रक।रते प्रविभक्त 
दौनिसते वह चकृ्यूहक्टा गयादै ॥3१॥ जो प्रात करस्तादहै-चो भी ग्रहण 
करतादटै मौर विषय के प्रतिजो भीकुदधदै वह मदाद्मीकाभावदहोतादै 
दमी कारण से यह मात्मा वहा जाया क्दतादै 1 ३२॥ स्वमे गतहोनिवाता 
है इभी क्ारणप्िक्रपिटै, णरीरघतेि भी बाद्यते चे स्वय प्रम है गौरस्प्रमे 
प्रवेश होनेये विष्णु कहा जाता है, समस्त वस्तु जातत पर दमश्ा स्वामित्व हता 
६ ।॥३३॥1 मग नाम पट्‌ रेण्वर्ये का होता है उरक तदमव होने स यही भगवानु 
षटमनापरसेकहाज्ातादहै) रागके शसनक्रने से “राग" क्डते दै, प्रहृत होने 
सैपर तथा राण करने ते ओम्‌" यह्‌ नाम इसका क्टा गया ॥३४॥ समस्त 
भ्रशार का विन्चेप श्वान होने चे "सरवंजञ'-यह्‌ नाम हुभा । उरक र्हा वहां नमी 
युय रहता हि ब्रतए्द खद यह नामदहै 1 समस्तनये का यह्‌ अयन नर्व 


भाधारस्पानहोताहै दमो कारण चे इव नारायण'---इम नम ते पृकारा 
प ॥३५।। 


=+ ॥ { बापु पुरा 
त्रिधा विम्य स्वालमान्‌ं गेलोक्य सम्प्रवर्तते ! 
सृजति ग्रसते चैव वीक्षते च वरिभिस्तु यत्‌! 

गरे हिरण्यगभः स प्रादुभूं तण्चनुमुं यः ॥३६ 
आदित्वाचाद्दिवोऽसावजातत्वादजः स्मृतः । 

पाति यस्माखनाः सर्वाः जापति स्मृतः ॥.७ 
देवेषु च महान देवो महादेवस्ततः स्मृतः । 
सर्ेग्रत्वाच्च लोक्रानामवश्यत्वात्तयेश्चरः ॥ ३५ 
वृहत्वाच्च स्मृतो ब्रह्मा भूतत्वादुभूत उच्यते । 
्षत्रजञः कषेत्रविन्ञाना्धिमुः सर्वगतो यतः ॥ रेष 

यस्मात्‌ पुरनूशेते च तस्मान्‌ पुष उच्यते । 
नोत्पादितत्वाच्‌ पूर्वत्वात्‌ स्वयम्भूरिति स स्मृत. ॥४० 
इञ्यत्वादुच्यते यज्ञ. कविविक्रान्तदशेनाव्‌ । 

क्रमण. क्रमणीय वाद्रणंकस्याभिपालनात्‌ ॥४१ 
भआदित्यसन्ञः कपिलस्त्वग्रजोऽग्निरिति स्मृतः । 
हिरण्यमस्य गर्भीनमूद्धिरण्यस्यापि गर्भजः। 
तस्माद्धिरण्यगर्भ. स पुराणेऽस्मितिरुच्यते ॥४२ 


पनी माहमा को तीन्‌ प्रकार से विभक्ते करके इसु तैलोकय मे सम्धवृत्त 
होतादै। तीनतरहकी दशासेदीलो्कोका सूजन करता है, सहार करता 
दै यौर वीशषण विया करता है। वह पहिले चार मुखो वाला हिरण्यगभं के 
स्वरूपे प्रकट हुए ॥३६।, सवके आदिमे होने से "आदिदेव" तथा मजन्मा 
हने के भ्रारण से "अज" कटा गया है । समस्त प्रजाओ का पालन-पोपण कप्त 
है, धत्व श्रजापति' कटा गया है ॥३७1। समस्त देवताभौ मे सवस वडा देव दै, 
द्सीलिये धसका "महादेव" यह्‌ नाम पड गया है । समस्त लोकों का भावण्यष 
स्पर्ग हीनेेकारणते ही (ईष्वरः इस याभस यदु पुकारा जाया करता 
दै ॥३९॥ स्मे बृह होने से श्रह्याः तथा भ्रूत होने के दारण ते "भूतः दत 
मामति यह व्हा जतादहै। केतके दिप ज्ञान होने से प्रत्त मीर 
म्यो यदे रबने गव होकर रहावर्ताद, इद्मये ष्ये विरु दण नाम॑ते 


मृष्ट रवन। ओर देवरा श्क्तियां | [ ८१ 


वदागयादि ३७ चूक यहुपुरमे अनुनयन क्िपाङ्रताहै इमीकारणम 
हमे श्यः ्दागयादै। ति्रोकेद्वारा उत्रारित नी क्रि्यागयादहै धौर 
शके परते हाने वाला है, इत्ते हसक 'स्वयम्भ्रूः यह नाम कहा गया 
टै ॥४०॥। यट इय अर्यानु भूनन क्रेकेयोग्यटै दमीलिएु यक्ना नाम यज्ञ 
थहदोताटै। विक्रान्तिकै देखनेसे विनाम होत्ताहै। क्रमण करके 
मोप्यदोने चे "क्रमण" तया अभिपालनक्रनेते वर्णेक' यनाम हए दै ॥४१॥ 
क्रित, आदिर सक्ता वाला प्रन ओर अग्नये नामके गये ह। इमप् 
गर्म हिरण्य हुभाया यौरदहिरष्यकं हौ गर्भेमेजन्मनेन वाता दै, इमतिय 
दष पुगणम उमे 'हिरण्यगम' हय नाममेक्दा जाता दै ।४२ 


स्वयम्भुवो निदृत्तस्य कालौ वरपाग्रजम्तु य 1 

न शक्यं परिसर.्रातुमपि वपंशतेरपि ॥४३ 
वल्पमष्टयानिदृरप्तु पराख्यो ब्रह्मणः स्मृत । 
तावच्छपोऽम्य कालोऽन्यस्तस्यान्ते प्रतिमृज्यते ॥४४ 
कौटिवोटिमदस्राणि न्तमूतानि यानि व । 
समतीतानि कल्पानान्तावच्छेपा परास्तु ये ॥४५ 
यस्त्वय प्रर्तते कट्पो वाराहन्त निवोयत । 

प्रयम साम्प्रतस्तेपा कल्पोऽय वत्ते द्विजा. ॥४६ 
तस्मिन्‌ स्वायम्मुवायास्तु मनव स्युश्चतुदण? 
अतीता वत्तंमानाए्च भविषप्याये चवं पुन ॥४७ 
सैरिय परयिवो सवा सक्दरीपा समन्तत । 

पूर्णं युगमह॒स्न बं परिपाल्या नरेप्यरं । 
भ्रजामित्तप्ा चैव तेषा न्टयुन विस्तरम्‌ ॥ ८ 
मन्वन्तरेण चैकेन सर्वाण्येवान्तराणि वें! 
भविष्याणि भविप्ये्य कल्य कत्वेन चैव ह्‌ 1९६ 
अनीतानि च कल्यानि सोदगानि सटान्यये । 
अनागर्तेयु तद्वच्च तक्र कार्या विजानता ॥५० 


निपतत द्वपम्मूषे चथ पदिन उवह वारजो शल, वह 


त्रे । [ वागु ृद्यष 


संक्डो वपोँमे भी नही गिनाजा सवता है 1४८२ वल्य दी सस्या वै निवृत्त 
होमे बलि ब्रह्माको ्रास्य' कटा जाता दै। उदका उतना भन्प तेय-वान 
होता ६, उक अन्त मे प्रतिमूजन दिया जाता है ॥४४॥ करोडो-करोडो सदय 
जो अननभूंत अनीत हू है, धर्यानु अन्दरमे रहे वति गुजर चुके दवे उतने 
शेप परक्हे जति ॥४५॥ जो यह्‌ वर्तमान क्ल है, उभका नाम वाराह समा 
नेना चाहिए । हे द्िजवरृद 1 उन अन्य समप्तक्त्मो मे यह इष समय वरते 
वाला प्रयम हो क्त्य है ५४६॥ दस वाराह कल्प मे स्वायम्पूव कादि चोदह मवु 
हृएहै, जो कुच तो अतीत हो चुर, दु वतमान ह धीर कुयं बफेहोये 
॥४७॥ उन सबके द्रा चारो गोर यह्‌ भूमण्डल सात दीपो वानरै, ओकि 
पुरे एक सहन युग पर्म-त नद्यरो के द्वारा परिपालन करने के पोभ्यहै। 
भ्रजाओोकेद्रारा भौरतपसे युक्त दै, उपकापूणं विस्ञार ब बतलाना 
उसका आप सोग अव श्रवण कट्‌ ।४८]। एक मन्वन्प्ररके द्वारा सही अमन्यत 
होतेह !जोआगहोगे, बे अगे हने बानोके हारा यौरक्त्प, कल्पक द्रा 
यन्तयत हते ह ।४६॥ विशेष स्परे जानने वानेकेद्वारा अन्वयो के सहिवभोर 
पतोद मो त्प व्यतीतहोग्ये है तयः उती अकार से जो अनागत है बद्‌ 
अर्वाद्‌ भगे माने वाले रह, उनमे तक्रं करना चाहिए ॥५*०॥ 


}) सृष्टि रचना फे विभिघ्न समे 11 
आपो ह्यभ्ने सममवन्नष्टेऽग्नौ वृथिवीतते । 
सान्तरालंकलीनेऽस्माच्नप्टे स्यावरजद्वमे । 
एकार्णवे तदा तस्मिन्‌ न प्राज्ञावते परिचन॥ 
तदा स भगवान्‌ ब्रह्मा सहर्ष. सट्स्रपात. ॥२ 
सटम्रशीर्पा पुर्पो र््मवर्णोऽद्यतीन्धिय- । 
ब्रह्मा नारायणाय स सुष्वाप सलिले तदा ॥३ 
सत्वर वाति. प्रवुदस्तु दून्य लोप्रमुदोध्य स्र । 
इम चोदाद्‌रल्यद्न दलो नारायण भ्रति ।४ 
सापो नारा वे तनव दृत्यपा नाम दुपघूम 1 
पप्य चेते च ततम्माततेन वारायण स्मृत ५८ 


सृष्टि रचनाक विभिन्नसर्ग |] [ ३ 


तुल्यं युग्ह््रस्य नखं कालनुपास्य स. ! 
शर्वेयेन्ते प्रक ते ब्रह्मत्व सर्गकारणात. ॥\६ 

बरह्मा त्रु सलिते तस्मिन्‌ वायुभू ता तदाचरत. 1 
निशायामिव पद्योतः प्रावृट्‌काने ततम्ततः 119 


धो दूतजीनेक्हा-ग्मनिमे जढहूए्‌ भौरप्रथिवीतलमे मभ्तिके 
हो जाने प्र तथा अन्तराल कै सहित स्षीन होने पर स्थावर भौर जद्धम 
नष्ट हो गये ॥१।। उतत समय उस्रएकभप्वमे दुयुमीनदी जाना गषाथा॥ 
त्र सहश्र नेत्रो वाखा भौर सहस्र चरण वाला भगवान्‌ ब्रह्मा तया सहस 
मूषा वाता दकम ( सुवर्णे ) के समान वणे से युक्त, इरयो से बगोचर्‌ पुरुप 
ज (नारायण) इस नामसेकद्राजाता है, वहं ब्रह्मा उस समयमे जल मे शयन 
करता धा ॥२॥३॥ उम समय सत्व केद्द्रोक होमे से वह प्रवृद्ध हर्‌ भौर 
उष्होने दप लोक की पूर्णतया दन्य देखा । यहाँ नारायण के प्रति म दोक 
फो उदष्टूत करते है ॥४॥ माप नारयेततुर, देषाजलोका नाग गुनतेर। 
भेयोक्रि जरो मे शयन पिया परते, दमी कारणस्ते "नारायण" यहुनामक्दा 
गया है ॥*॥ एक युगोकै सर्र के तुतथ्र निशा का समय पूर्गन्त उपने वह 
उपो तरह उताना कौ भर किर रत्नि के यन्तम सगं (मून) के 
षारण होने ब्रहत्वको प्रास्त करते 1६) उमर जलमे ब्रह्मा उत धपय 
वायु होकर विचरण करता या, जसे कोई सचत { जुगतरु} वर्पा-कनि कौ 
राप्निमे हयट्-उ्धरपूमावरतादटै।'७ष 


ततस्तु सलिले तस्मिन्‌ विज्ञायान्तर्गता महीम्‌ 1 
अनुमाना वसंपृटो भूमेरद्ररणं प्रति ॥८ 
अकरोत. स तनु" त्वन्या कल्पादिषु यया पृग। 
ततो महात्मा मनसा दिव्यं रूपम चिन्तयत. ॥ द 
सचिततेनाप्लुता भूमि दृषट्य स चु समन्तत- 1 
त्रिन्नु रूपं महत. दूरेवा उद्धरेयमह्‌ महीम्‌ ॥१० 
जत्तकरीडामू र्विर वाराहं ङ्पमरस्मरत.। 


८४ | [ कापु पदा 


अदृप्य सर्वभूताना वाट.मय ध्र्मतज्लितम्‌ ॥११ 
दशोजन विस्तीर्णं शतयोजनमुच्तम्‌ । 
सीलमेधप्रतती काश मेधस्तनितनि स्वनम्‌ ॥१२ 
महापवंतवर्प्माण श्वेत तीक्ष्मोग्रदष्टिणन, 1 
विद्युदगिनप्रकाशाक्षमादिप्यसमतेजतम. १३ 
पीनवृनायतस्कन्ध सिहविक्रान्तमामिनम, । 
पीनोन्नतकटीदेश सुदलक्ष्ण शुभलक्षणम, ॥१४ 
रूपमास्थाय विपुल व।राहुममित हरि । 
पृथिष्युदरणार्थाय प्रविवेश रसातलम. ॥१५ 


हके अन.तर उप्त जल मे मतत मुपि का जान प्रात करके भी भूनि 
केउदधार के प्रति वहु अनुपान से असमूढ था अर्थात्‌ अनुमाने ज्ञाने 
पुनः थ। (।८॥ दके अनन्तर उने मय तनु त्रिया, जैना करि पिले कल्प 
शादिमे बनायाया भौर फिर उस महान्‌ अआप्माने मनसे उत दिव्य रूपका 
चिन्तन श्रिया था ॥\६॥ उशन उत समय चारो गोर जल मे आप्लुन दष भूमि 
को देकर विवार पिया कि क्या म अपना महानु रूप बनाकर ईष भमि 
फा उद्धार कष्ट ?॥१०॥ जल की फ्रीडाभो मे बप्यन्त सुन्दर वाराहकेस्प 
क्ास्मरण क्रिया, जक्रि समस्त प्राणियो केद्वारा वपितन करमेके योग्य 
होता है तथा वाह.मय मौर धर्मं को सज्ञा वाला है ॥११॥ घव उम वाराह 
के टप का विस्तृत वणेन स्यि जता है-वहु वाराह जोरि भगवानु ने उतत 
समय अपना रूप दनाया था दश योजन विस्तीण अर्थात्‌ लम्बा या, एक सौ 
योमन डवा था, नोते मेध के समान कान्ति वाराया भौर मेव की घोर 
पजगावे मष्ट णष्द करने वाला था ॥१२॥ एक वहूतं ही विशाल पर्व॑त के 
शमान भक्रार वाला, एवैत था भौर उमे अप्यन्त तीण तथाबहृतहीयग्र 
दा + दिजलो एव म्नि के तुल्य प्रकाश ( चम ) बेलि उषे नेवये भौर 
सूयं दे समानतेजवागाथा ॥१३॥ मोदे गौर चौ क्धो वाला था, निह 
मे विद्रमसे युन गमने समान गमनक्रने वाटा था। मोटेभौदम्े 
~~ ~ पदर एव धूमकक्रणयाकटिदेशते युक्तया ॥१६॥ ठो अप्रा 


मृष्ट रवनाके विभिन्नष्यं |] [ ०५ 


मद्र वाटा त्यन्त विशार अपना यभिमदत वाराह का स्प हरि भगवान्‌ 


ने धारण कर्‌ पृची के उद्ारक्टेके शधि रलतम प्ररे क्रिया 
चा। १५) 


स वेदवाद.पद्रषटा ऋनुवक्षाश्चितीमुख. 1 

जग्निजिद्ो दभभसेमा ब्रह्मशीर्पो महातपा ॥१६ 

अहोरा क्षणवरो वेदाद्धशुतिशूपणः 1 

लाज्यनास्न स्रु वनुण्ड सामवोपस्वनो महानु ॥१३ 

सत्यवर्ममय. श्रीमान्‌ घम्मेविक्रममस्िनः। 

प्रायश्नित्तरतो घोरः गुज नुर्महाङृति 1015 

ऊर्दगानो हौमलिद्ध- स्यानयीजो महौपधि 1 

वे्ान्तरात्मा मन्रिफ्गाज्यस्पृक्‌ सोमणोधित. 1१९ 

वेदस्वन्धो हनिर्गन्धो हःयकव्यात्तििगवानर । 

भाग्वंशकायौ दयुतिमानानादीक्षाभिरस्वित. ॥२० 

दक्षिणाहृदणो गोपी महामत्रमयो विमू । 

उपाकरमेषटिरचिरः प्रत्रग्यवित्तभूपण १५२१९ 

नानाच्छन्रोगत्तिपयो गु्योपनिपदासन- 1 

घ्ययापल्नीहायो बै म्थिश्यद्त दवोच्छित. 1 

भूत्वा यज्ञवाराहो वे यप घ प्राविशन्‌ भ्रम 1२र्‌ 

अच उष वाराट्‌ त स्वल्पमे प्रू वै प्रवे क्लेका व्रिन्तृह णोमा 
समन्वित षृर्णन श्रियाः जातादै-वहदहरिका वाराट्‌ स्वप वेदाय का 
उषद्रशाचा, क्तु दी निमा वक्षस्यलथा भौर चिच्चिवे शुखवानाथा।यच्य 
वाराही जिह्वा घाक्षाव्‌ भन्निदेवये, दनं रोम रपय, ब्रह्य निमङ्गा शोषं 
( मष्तङ्र)} पा, महावर तप वाला या॥१६।. दिन नोर र्रिस्पोनेर्व्रोकौ 
धारण करने वाला, वेदमौर पट्‌ वेर्योक्अगोदे अ्रामरप वाला, धृती 
जिघ्को नादिनो बौरन्रवाजिमन्रा मुतया तयाण़ागरेद का गात 
खथकये मदाद्‌ घ्वनियी ।1१अ खयनौर घर्मे परिपरूलंप्रौच्चपुष्व्या 
चमसो विद्रनमे संस्थिति क्यने वावा था भरायन्वित्तमं बनुदापर रने 


८९ |] { वागु 


वाला, प्नयुकीजानुवनला, परम घोर्‌ ओर महानु अशङघत्ति वाना उठ वाराह. 
फा स्वप था ॥१८॥। ऊर्वं गात्र वाला तथा हीम के वृक्यं वात्ता, स्वानके 
मोज वाला, मदत्‌ भौपधिस्वेष्प था। वड्‌ जानने के योग्य अन्तदात्मा वाता, 
मन््रही जिकर स्फिह्‌ ये तवा घृनस्पृम्‌ वाला भौर समके रक्त वाला उत 
चाराह्‌ का स्वरूप था ।१६॥ वद जिम वःराहुके स्कन्धेये, हवि निषक्नी गय 
धी भौर हव्य तथा कव्यही उपङेवेमये जिने वह्‌ युक्त था) प्राश के 
काया याला, द्यत्तिवावा नौरविविविरनानि कौ दीक्षाओसे सममिवित स्वष्प 
बाना वह्‌ वाराह षा ॥२०॥ दक्षिगा हदय, योगी, महापत्रमय भौर विभु दथा 
उपरम की हृष्टि से युन्दर एकं प्रष्रमयं पित्त भौर भूप वाला वाराह स्वष्प 
घा ॥२१) अनेक चछन्दोकौ गतिके मागे वाला, गुह्ये उपनिपदो के गासन 
षाला दाया रूिणी अपनी पत्नी की सहायता से युक्त अल्यद्रत मणिर्न की 
भीति होकर उम रभु यत्त दाराह्‌ ने जतमे परवेर्क्िा था ॥२२॥ 


उदुभिः सेठादितापूर्वी स त्ताम्नन्‌ प्रजापतिः। 
उपगम्योञ्जदाराशु अपस्ताश्च स विन्यसत. ॥[२३ 
सामुद्रीवं समुद्रेषु नादेयौश्च नदीप्वरथ। 

रसातलतले मगना रसातलतते गताम्‌ । 
प्रभू्लोकदितार्याय दष्टृयाभ्युञ्जहार याम्‌ ॥ ४ 
तत्त स्वस्यानमानीय पृथिवी पृथिवीकरः ) 

मुमोच पूवं मनसा धारयित्वा धराधर 1२१ 
तस्योपरि जलौवस्य महती नीरिव स्थितः} 
चरित्त्वाच्च देवस्य न महौ याति विप्लवम्‌ २६ 
ततोदधत्य क्षिति देवो जगत. स्यापनेच्छ्या | 
पृथिव्या. प्रविजागय मनश्च ऽम्पुजेक्षणः । 
धरथियौ वु समी पृथिव्या सोऽचिनोद्गिरीन्‌ ।२७ 
भ्राब्‌्‌ सवं दल्मानास्तु तदा सवत्तंकाभ्निना | 
तेनाग्निना बिशीर्णाह्ते परवृत्ा भुवि स्मः ५२८ 


खषटि द्नना के विभिन सगं ] [ = 


परोत्यादेकार्णेवे तस्मिन्वायुनापन्तु संहृताः 1 

निपिक्तायत यनास्रत्तवतेव्राचलोऽप्वन, 11२8 

प्रजापति ने जलोतते भलो भाति ढकी हर्द उस पृथ्नीको खोजते हृष्‌ 
वहू जाकर्‌ एीघ्र हौ उसका उद्धार किया नोर उनजछ्लौका विन्यामतवर्‌ 
दिया ।२३॥ समृद्रोमे सामुद्री तेथानेदियो मे नदी सम्बन्धौ जलो का व्रिन्यातं 
किया । दरस अनन्तर रसातल मे निमण्न तवा रसातनमे गर हुई भूमि 
फो प्रभूनेलोकोके हिक लिप भपनी दषते (दादे ) उपर लाकर उदार 
जिया {२५५1 इपर भनन्वरर धृथ्वी की रवना रने वाले रभू उष पृष्ठीको 
यपे स्थान पर लाकर धरा कै धारण करने के पहिले मनसे धारणक फिर 
स्यापक्रियाया ॥२५॥ उमजवके ठमूहके ऊर स्थित पृष्वौ एक बडी 
व्रिणालि नोकाकौ तर्ही, किन्तु वह्‌ महीदे्के ्ारासानिके कारणस 
फिर विप्लव कौ प्राततनेही होती है।२६॥) ईइगके उपरान्त देवने भूमिकौ 
उपर लाकर जग्तेकेस्थापनक्रनेकी षच्छाक्ी ॐौर्‌ उसी इच्छासे कमलके 
समान नेत्रो वते पृ्वी प्रविभाग कएने कै ते मन करिण । प्रृष्वी को 
समान करके उस पृश्वी प्रर उय देवने पव॑तोको चुन दिया +२७॥ पिठ 
यक्ष मणे वे सव मवर्तक्ान्निसे दद्यमनिये ओौर भूमि पर रन मोरे उत 
सन्तिके द्वारा वै सश्च पवत प्रिभोणहो गये य ॥२८। शंत्पसे उत्त एकराणंवमे 
वायुकैद्वारा अल सहत त्रिये गये भौर जर्टा जहां पर्‌वे निपिक्त ये, वहा 
पर चक हो गये ॥२६॥ 

स्कन्नाचवत्वादचलाः पर्वभिः पर्वताः स्मृताः} 

भिरयोऽन्तनिमीर्णेत्वाच्चयनाच्च शिलोच्चयाः 11३० 

ततस्तेषु विशी्णेपु लोघ्नोदधिगिरिप्वय 1 

विश्वकर्म्मा विभजते कल्पादिषु पुनः पूनः ॥३१ 

ससमुद्रामिमा पुरी सप््ठीपा सपर्वताम्‌ । 

भूरायाश्चतुरो लोखन पुनः सोग्य प्रकल्ययत. 1 

लोकान्‌ ध्रङृ्पपित्वा च प्रजासर्गं समर्ज्जं ह्‌ ।॥३२ 

रहा स्वयम्भूर्भगवान्‌ सिमृुविविधाः प्रजाः 1 


प्ट |] [ वायुपुराण 


ससज्जँ सृटिन्तद्रपा कल्पादिषु यया पुरा ॥३३ 

तस्याभिध्ाथत सर्ग तदा वे वुदधितूवकम्‌ । 

श्रधानसमकाल वं प्रादुभूतस्तमोमथः ॥३४ 

तमो मोहो महामोहस्तामिसो हयन्यसच्चितः। 

अविद्या पर्पर्वेषा प्रादुभू ता महात्मनः ।३५ 

स्वत्र भौर मचल होनिसे वे भल क्दे गये त्या परवोते परवत कटे 
गये है । अन्तभ्निषीणं होने वे इनका नाम गिरि पडगयादहै। इनकी शिलाओं 
मा चयन क्रिमे जाने से इनका नाम शिलोच्छष हुभ। है ।३०॥ दके अन"तर 
उन लोक्-उदधि भौर परव॑तोके विशीणं हो जने पर विश्वकर्मा बवारवार 
कल्पादि मे विभाग करते है ।॥३१॥ समुद्रो के सहिन इस पृथ्वो को, पात द्वीपो 
को, समस्त पवतो को भौर भूमण्डलसे आदि चार लोकोको उतने पुनः 
प्रकह्पित पयि था। इष तरह लोको का प्रकल्पन करके फिर प्रजाके सगं को 
स्वना की ॥३२॥ स्वयम्भू भगवान्‌ ब्रह्माजी ने अनेक प्रकार कौ प्रजा मूजन 
की षृच्डा करते वाना होकर जिस प्रकार पहिले कल्पादिमे धी, उषी षप 
वालो सृष्टिकी रचनाकी थी ।,३॥ संक्री करने की भावना से मभिध्यानु 
करते हु उनके समक्षम उस समय वृद्धिपूरवंकएकही समयमे प्रधानतया 
तमोमय प्रादभूत हुआ ॥३४।। तम, मोह, महामोह, तामिस्र भोर मन्वा 
याला तया महात्मा से पाँच पर्वं वालौ यह्‌ अवि प्रादुभरूत हरं ॥३५॥ 

पञ्चधा चाधित सर्गो ध्यायतः सोऽभिमानिनः । 

सर्भतस्तमसा चैव दीप कुम्भवदावृत । 

वहिरन्त. प्रकाशश्च शुद्धो नि सन्न एव च ॥३६ 

यस्मात सट्ता वुद्धिमुं ्यानि करणानि च ॥ 

तस्मात्ते संदृतात्मानो नगा मुख्याः प्रकीर्तिता ॥३७ 

मुष्यसर्गे तथाभूत ब्रह्मा द्रा ह्यसाधकम्‌ । 

भग्रसन्तमनाः सोऽय ततो न्थासोऽभ्यमन्यत्त ॥३८ 

तस्याभिध्यायतस्तत्र तिर्य खोतोऽम्यवत्तंतः 1 

य्म्त्तिर्येग, व्यवत्तेत तिर््यक्छोतस्ततः स्पृतम्‌ ।1३्‌ 





सृष्टि रना कै विभिन्न खगं ] { =£ 


तमोवहुत्वातते सर्वे ह्यज्ञान ग्रहुला स्मृता 1 
उत्पथग्राहिणए्चापि व्यानाद्यानमानिन 1४० 
तिय्येकसोतस्तु दृषा वै द्वितीय विश्वमीश्वर । 
सटकृता महमना अष्टाविशद्विधात्मका ४१ 
एकादनञेद्रियविधधा नवधा चोदयस्तथा । 
भष्टौचत्तारकायाश्न तेषा शक्तिविधा स्मृता ॥५२ 


ध्यान करते हए यमिमानी का वह सभे पांच प्रक्रार मे गाधित हूभा। 
यद्ग कुम्भसे दीपक मति सवलोरसे तमसे ग्वृत्तया। वाहिरमौर 
मदर शुद्ध प्रकाश था, जिसको कोई सन्ता नदी थो ॥३६॥ जिते उनके द्वारा 
शुदि घवृत्त थौ भौर मुस कारण पवृत चे, उमे वे सवृत भामा वालि नण 
मुस्यवट गये ई ॥३७॥ समुप्य समं मे ब्रह्याजौ ने उम प्रकारके अप्ताघकको 
देकर अपने मनमे बहुली समप्रपत्तता की मौर इसके जनन्वर उठने फिर 
म्पासं करने बृगे मन मे माना ।\३८।। इस प्रकार सगं करो के लिये उसके ध्यान 
कर्ते टर्‌ यद्‌} प्रर तियक्‌ सोत हभ । क्योकि वह तिय ग्भवहर करता 
है दसीलिये षह तिक्‌ खोत' स नामसेक्टागयाहै \\३६॥ उन सवमे 
तमोगुण कौ सधिक्ता होने से वे सव भविक भन्नान वालं षदेगये हि । ध्यानवे 
मानीकेध्यानसे पे प्तभी उत्पयबे प्रहणक्रने वततिभी ये ॥४०॥ तिक्‌ 
स्मोत्त पाले ्ए्वरने स द्वितीय विश्वको देखा, ओकरिष्मम भौरमनमे 
अह्‌ भाव वाला ठया अट्टा प्रकारके स्वल्प वाला है ॥४१।) एकश 
द्दरियोके प्रकार तयानौ उद्यके प्रकार द, धाटतार अदिके तथा 
उनी णक्तिकेप्रवार कहे गेह 1४२ 

भत प्रवाशास्ते स्वे आवृताश्च वहि पृनः। 

यस्मात्तिर्यय्‌ प्रवर्तेत तिर््यंक्लोता स उच्यते ॥\४३ 

ति्थसोताश्च दृष्ट वै द्वितीय विश्वमीष्पर । 

अभिप्रायमयोदूमूत दृष्ट सर्वेन्तवाभिघम्‌ 1 

तस्याभिध्यायतो नित्य सात्विर समवर्तत ॥४४ 

अरसोताष्टर्ीयस्तु स कंवोदव्वव्यत्त 


९ ] { भुरण 


यस्मा्यवर्ततोढं नतु ऊध सोतास्तत स्मृततः (५८ 
ते मुखभ्रीतिवहुला वहिरन्तश्च सृता 1 

प्रकाशो वहिरन्तश्च उदंसौतोदुभवा. स्मृताः (४६ 
तेन वा तादयो ज्ञेवा सृष्टाप्मानो व्यवरिथता 1 
उद्ंसोतरस्तृतीयो वे तेन सर्गस्तु स स्मृतः 118७ 
ज्दसौोत.सु सृष्टेषु देवेषु स तदा प्रभु" } 
भ्रौतिमानभवदृब्रह्ा ततोऽन्य सोऽभ्यमन्यत । 
ससन सर्ममन्य स साधक प्रभुरीश्वरः टय 
अयाभिध्याण्तस्तस्य सत्याभिध्यायिनस्तदा ? 
मदुर्वमूव चाव्यक्तादर्वाक्सोतः चुसाधकम्‌ } 
यस्मादर्वाग्‌व्यवर्तेत ततोऽव सोत उच्यते 11४८ 
तेच प्रकोशवहुलास्तम सन्वर्जोधिको । 

तस्मात्ते दु छयहुका भूयो भूयश्च कारिण ॥१० 


दपरतियये सत्र प्राण टै भौर फिर बाहिरिवे सय मावृत्तै। नि 
कारणस उनदी तिरक प्रवृत्ति होती है, एसीतिये बह सगं तिर्ण्‌ घेत 
दाताक्टा जाता दहै ।४३। ईश्वर ने जोकि तिर्यव्‌ घोत वाता दै, दशं प्वितोयं 
पिरदे को देखा भौर उस प्रकार वाते पमस्व उद्भूत भभिप्रापको देवा । दष 
तरह्‌ निष्य ही सर्ग-र्षना के ध्यान करने वाते वौ समक्ष सात्विक भा 
{४५। यह वृ्वौय समं ऊष्वं सोत कता था धोर्‌ उष्वं कौ ओददहौी ध्यवेपव 
भो षा प्ट उष्ंको मोर प्रवृत्त था, पतौ दारयते एमफा नाम ठष्वंप्ोहा 
षहा पपाद ॥षमा ये सवमुततभरप्रोतिको प्रयुता वाषेये, वाहिरभोद 
कण्दर शृदृतये, बाह्ि भौर मन्तमगिनें प्रङागमयये। मे सर उध्वं प्रोठो. 
दूमव कटे षये ह ४६] एने यात्र आदि जानने षाहिए्‌, जोरि सृष्ट एवस्य 
वापे ध्दथस्पितव है) पह हूतीय एतं उष्दं सोतदामां हि धत यहु पसीमाम 
तिष्ट भीयदा टै 11४3) इन उष्दं रोतो दरवो सृष्टहोनिपर वप 
हमा रस समय बहून हैः प्रोति वपे दटृए्‌ ध्वन्‌ व््यायीशे धत्य परषप्र 
११। हणे भन्यर्‌ उष्टं कव भर्म ङ्तेका मते विचार हिद भौ 


भृष्टि रवनाके विभिन्न स्म |] [ ६१ 


दए्वर प्रभू ने अन्य साधक समंको सृष्टि की ।४८॥ इपके अनन्तर अगमिध्यान 
करते हुए जन सत्य का अभिष्यायीवे इए तब उसका घब्यक्त से सु्ाधक 
भव्‌ स्लोत का भादुमवि हुभा ।! वह अर्वाक्‌ की मोर वरतावा करतादहै, इसी 
क्षारणसे वह्‌ मर्वाक्‌ सोत इस नामसे कहा जाता है ४८॥ भौर बहुल प्रक 
ष्ातरेवे होते है, जिनमे तम, सत्व बोर रजोगण बधिक होता दटै। इषेवे 
पुनःपुनः करने वलि तथा मधिक दुख वले होतेह \॥८०॥ 


भ्रकाशा बहिरन्तश्च मदुष्याः साधकाश्च तेष 

लक्षणैस्तारकाचैस्ते अष्टधा च व्यवस्थिताः ॥५१ 

सिद्धात्मानो मनुष्यास्ते गन्धवेसहधम्मिणः । 

इत्येष तेजसः सर्गो ह्यर्वाक्सोताः प्रकी पितः ।५२ 

पञ्चमोऽनुग्रह. सर्गे्चतुद्धा स व्यवस्थित. 1 

विपर्ययेण शक्त्या च तुष्टया सिचा तथेव च ) 

विवृतं वत मानचच तेऽ्थं जानन्ति तत्वतः ॥५३ 

भूतादिकाना सत्वानां पछठः सर्गः स उच्यते । 

विपर्ययेण भूतादिरशकेत्या च व्यवस्थित. ॥।१४ 

प्रथमो महतः सर्गो विज्ञेयो महतस्तु स । 

तन्मात्राणा द्वितीयस्तु भूतसगं : स उच्यते ॥५५ 

वेकारिकस्तृतीयस्तु सगं एेन्द्रियकः स्मृतः । 

इत्येप प्राकृतः सर्गः सम्भूतो बुद्धिपूर्वकः ॥\५६ 

मुख्यसर्गश्चुथ॑स्तु मुख्या वे स्थावराः स्मृता ! 

तिरग्यकूसोताएच यः सर्गस्तिग्येग्योनि. स पमः 11५७ 

घाहिर भौर सन्दर प्रकाशयुक्त हैँ! वे मनप्य जोर साधक । तारकाच्च 
लक्षणोसे वे भार प्रकार स व्यदस्थित होते ह ।॥५१॥ सिद्धात्मा वे मनुष्य, जो 
गन्धवों के सहृषरमो होते है \ यह तेजम सर्गहोता है मौर मर्वान्‌ स्रोता कठा 
सया है ,॥५२॥ पाँंचवां अनुग्रह षगं होता है गौर वह्‌ चार प्रकार से स्यव्वित 
होताहै। विप्येयते, शक्तिसे, तुष्टिसे मौर चतुथं प्रहारं क्तिद्धि मे 
चम्पत, दै, \, ठ, छिलृल्ू. दौर. वल्‌ मान, अथं को, त्त, शयन, सानि स्प. भे. 


६९२९ 1 [ कषु वुराण 


जानते दै ॥५३॥ मूगादि का जो सगं होदा दै, वहं च्व सगं बहा जातादै। 
परतादि विपर्यय से तथा शक्ति से व्यवस्थित होता दै ॥५४॥ प्रथम सर्ग मद्वु 
षा होता, जो वह महत्‌ का हौ सगं जानना वाहिए । तन्मााजौ का दृषा 
सर्ग होता द, वह्‌ भूत क्षण कहा जाया करता दै ॥५५॥ वतीय तम वैरकि 
समे होता है, जो द्द मे दम्बन्ध रवते वाजा रेन्धिक दीह पण ट। 
शतमा यह परारिन एगं है, जो बुदिपूर्क हभ है ॥१.६॥ चतुर्थे सगं भुष्य सग 
होता है । स्थावर मुख्य कटे जाते हे! तिर्‌ दखोता जो सर्गहोनादै, व्ह 
पयां तिवृग्योनि होता है ॥५७॥ 

तथोद्धेसोततसा पषठो देवसर्गस्तु स स्मृतः 1 

तथार्वाक्‌सोतया सर्म सप्तम सवृ मानुषः भरल 

अष्टमोऽनुग्रहः सर्म सात्विकस्तामसस्तु स. 1 

पचेते वैद्ताः सगः प्राकृतास्तु रयः स्मृताः 1५5 

प्राकृतो वैकृतश्नैव कौमारो नवम स्मृतः । 

पराङृतास्तु त्रयः सग" कृतास्ति बुद्धिपुवंकाः 11६° 

बृदविपूव प्रवतेन्ते पट्सर्गा ब्रह्मणस्तु ते । 

विस्तरानुग्रह सर्म कौर्यमानं निवौधत ॥*६१ 

चतुर्दावस्यित सोऽय सर्वेभूतेपु कृत्स्नशः । 

विपर्ययेण शक्त्या च तुष्टया सिद्धया तथेव च ॥ द्‌ 

स्यावरेप्‌ विपय्सिस्तिर्यग्योनिषु शतक्तिता । 

सिद्धात्मानो मनुष्यास्तु तृष्ट वेषु कृत्स्नश ।।६: 

इत्येते प्राकृताश्चैव वं्ृताश्च नव स्मृता. । 

सर्फ परस्परस्याथ प्रकारा वहवः स्मृताः 1६४ 

इभी प्रकार से उध्वं स्रोत वालो काजौःद्ठव सम होता 2, वह दै 
सगं" कठा मयाहै + दसं प्रकार से अर्वाक्‌ ल्लौत वासो का सात्वं सगं होतादहै 
शोर वहु मनुष्य सर्म कटा गया दै 11५७1 आवौ बनुग्रहु सगं है, जो साप्विक 
धौर तामत दै । पे पाँववह्ृनसर्गं होतेह गौर तीन सगं श्रत सगं कै 

दै ॥*५६॥ व्रात घौर वहन कमार चेवम कहा मर्याद । प्राक्त समंतो 


मूषि रचना ऊ विनिन्भं ] [ ६३ 


ततोन है, जोकि वे वुद्धिपरवक क्रिवि गये है 1६० ब्रह्माकेवे च सं बुदि- 
पूर्वक प्रवृत्त होने ह । विस्तरानुग्रद्‌ सर्गं अव क्दा जाता है,उसे जान लो ॥६१॥ 
धह सर्गं समस्त प्रालियोने पूरनंह्प से चर प्रकार से व्यवत्थिते हुमा है। 
विपर्पेय, शक्ति, तुष्टिं मौर उषी भांति घिद्धिते व्यचस्वाकी गर्ह ॥६२॥ 
स्थावरो मे तौ विपर्याप् होत्तां है! त्ियभ्योनिषो मे शक्तितता होतो है। 
भनुप्य तिद्ाल्मा होतर्है, बर्थाद्‌ मनृष्योने सिदिहोत्तीहै मौरदेरोमे तृषि 
होती ह 11६३॥ ये सव प्रात है मौर व॑हत नौ कडेगये है। ये परस्पर के सगे 
है मौर इनके वहूते ते प्रकार बताये गये ह ॥६४।1 

अग्रे सज्जं वै ब्रह्मा मानसानात्मनः समान्‌ । 

सनन्दनच्च सनक विद्ांस च सनातनम्‌ ॥६५ 

चिज्ञानेन निवृत्तास्ते ववर्तेन महौजस. । 

संबुद्ाश्चंव नानात्वादपर्विदाखधोऽपिते। 

ममूष्टुव प्रजासगः प्रतिसगं गताः पुन. ॥६६ 

तदा तेषु न्यतीतेपु तदान्याचु साधकाश्च तानू । 

मानसानसृजदुत्रह्या पुनः स्थानाभिमानिनः । 

जामूतसंम्लवावस्थान्नामतस्तान्निवोधत ॥६७ 

आपोऽग्निः पृथिवौ वयुरन्तरिदा दिशस्तथा । 

स्वर्गं दिवः समुदाश्च नदायु शोलानू बनस्पतीमू 114८ 

मोपधीनां तथात्मानो ह्यात्मनो इलवीरुषाम्‌ । 

लवाः काष्ठाः कलाश्चैव मुहूर्ताः सन्विरात्हा. ॥६४ 

भद्धं रास्ाश्च मासाश्च अयनाब्दयुगानि च + 

स्थानाभिमानिन सरवे स्यानाख्याक्चैव ते स्मृताः ॥७० 

वक्तास्य ब्राह्मणाः सप्रमूताः तद्रलस्तः क्षत्रियाः पूर्वभागे. 1 

वैश्याश्चोरवरिंस्य पदुभचाच् यद्राः सरे वर्णा गात सप्रमुता. १७१ 

नारायणः परोऽव्यक्तादण्डमव्यक्तसम्मवम्‌ । 

अण्डाज्जज्ञे पुनत्रं ह्या लोकास्तेन कृताः स्वयम्‌ ॥9२ 

एप व कथित. पादः समासान्न तु विस्तयन्‌ 1 

अनेनाद्येन पादेन पृराणं सथ्क्ीपितिम्‌ ॥७३ 


६५ 1] [{ वायु पूरण 


सवसे भाय अर्द्‌ परहिते ब्रह्न ते पने ही समान मानष का पूजनं 
क्रिया अर्थाद्‌ मनसे समुस्पनं हनि बा्ोकी रचनाकौ } उन मानसो मे ठकदन, 
सनक मौर विद्रव सनातन है । वे महन्‌ बोज बावे ववतं विशेयन्नान दहने वे 
निवृत्त हो गये अर्थात्‌ निवृत्त मामं के अनुगापी दन गये] वेसचढ हेते 
तीनो ही इस नानात्व स्वल्प सृजन से अपविद्ध हौ ग्ये। प्रजाकौोमृिकीन 
करफेहीवे फिर प्रतिश्रगं को चते गये ५६६।1 उत्त समय उन सनकादि कै 
चते जाने षर ब्रह्माओी ने तव कतिर स्थानािमानी यन्य मानस सराचर्वी का 
सूजन किया । भव भूत से लेकर सप्लवायस्या वालोके नामोष्ठो जान तौ 
॥1६७॥ जले, मन्न, पृथिवी, वायु अन्तरिक्ष, दिशा, स्वगं + दिव, समृद्र, चद, 
शोल, वनश्पति, भौपयियो कौ आत्मा तथा की मौर वृक्षो कर भासा, सव, 
काष्ट, कला मृहूत्त, सध, रात्रि, दिव, सर्धं पाप्च माम, अयत्‌, शब्द, गु 
ये सव स्थानाभिमानी हमत वे स्यात के नाम वाते कटे गे हैँ ६८-९६-७० 
जिसके भुख से ब्राह्मण उन हए, उत्क दक्षस्यल से क्षत्रिय उदरषरत हृषु 
उद्भ से वैश्यो की उत्ति हई भौर रो ते शूदर वर्णं वारे उत्पन हए । ९ 
तरहये सभौ वर्णे ब्रह्यानीके शरीरके विभिन्न भागोँसे ही उतन्न ९ 
३।५७१॥ नारापण भव्यक्त से परे दै भोर मण्ड व्यक्त स उत्व हभा ई । 
उस भ्डसेब्रह्माजो ने जन्म ग्रहृण किया मौरद्िरिउन ब्रह्याजीनेस्वप्ष 
ममस्त सोको कौ रचना षौ है ॥७२॥ यह्‌ पाद सक्ेपसे कह दिया गया ६1 
ममे विस्तार नही किया है। इस आच पाद पुराण का भौ भीति कीर्तन 
विया गपा है ॥७३॥ 


11 वतमान कलत्पमें मानुषी वृष्टि भे 


द््येष प्रथम पादः प्रक्रियायै प्रकीतितः। 
श्रत्वा तु सह्टमना बा्यपेय सनातन १ 
सप्वोध्य सूत वचा प्रपच्छाथोच्रा कथाम्‌ 1 
अतःप्रभृति वतपज्ञ प्रतिसन्धि प्रचक्ष्व न ॥२ 
समतीत्य केत्यस्य वत्तेमानस्य चोमयो. 1 
म॒ल्पयोरम्तरं यत्च प्रतिमधिर्यवस्नयो । 


वतमान क्सम मानुकीमृष्टि | [ ६ 


एतद्रे दितुमिच्छाम अव्यन्तकुशलो ह्यसि 11३ 

नतर वोऽट्‌ परवक्ष्यामि प्रतिसयिच यस्यो १ 

समतीतस्य कल्पस्य वर्तमानस्य चोभयो ॥४* 

म-वन्तराणि कल्पपु येषु यानि च पुत्रता 1 

यश्चाय वस्ति कत्पो वाराह साम्प्रत गुम ॥५ 

अस्मात्‌ कत्पास्च य॒ केल्प पूर्वोऽनीत सनातन 1 

तस्थ चास्य च कल्पस्य मव्यावस्वातितोधत 11६ 

प्रत्याहृते पूवेकल्पे प्रततिपधि च तत वै । 

अन्य प्रवति कल्पो जनात्लोकान्‌ पुन पून ॥७ 

इम प्रकार यह प्रयम पाद प्रक्रिणाके नरियेहीक्टौ गया । इता 
श्रवण करके सनातन काश्यपेय वहत ही मनमे प्रसत हुए ॥१। दमे जन्वन्तर 
घाणी ते मुततरौ का सम्बोवन करके उटोने दममेञआि कौ कथा पृदधी-उन्हेने 
फहा-दे कसल । इयते अगे अप हमको प्रति सम्थि का वर्णन कर समक्ता 
॥२॥ जो क्सपे व्यनोतदौ गप्रा ओर द्भ समय वर्तमानहै दइनदोनोंक्त्पोको 
जो प्रतिसम्पि है उने हम जानना बहते दै वयोति माप जत्यन्त कूगन ह माप 
सभी कु जानते है । यद्‌ हे बुनाद्ये ॥ ३ ॥। लोमदह्पंणजी ने क्दा-र्मै भव 
जापिक्रो समतीत क्लप ओर वर्तमान क्ल्पइने दोनों कीजो प्रतिसन्धि हाती है 
उमे बतनाता हं ४५) ह सुव्रत वालो 1 जिन कल्पो मँ जो मन्वन्तर हत्त है गौर 
जी यह्‌ कन्थ होता है वटौ ब्तलाताहू । वर्तमान समय कैकन्प का शुनाम्‌ 
याराहटै 1141 इम क्तम त्ते पटिले जौ सनात्तन कत्र नीते हा है उम कल्प 
की ओर इस क्तप्र कौ मन्यावस्या को जान लो ।1.1 पूव कंत्प कै प्रत्याहूतहो 
जाने पर वदां प्रति सन्धि होतो दै मोर वार वार जन-नोकर स॒ अन्य क्ल हमा 
श्रव््त हवा दै ॥७1 


व्युच्छिन्रात्‌ प्रतिसधे्तु कल्पाच्‌ कल्प प्ररम्रम्‌ 
य्युच्छियन्ते स्या सर्वा कल्पान्ते सवं शस्तदा 1 
तस्मात्‌ कल्यात्त्‌, कल्पस्य प्रतिसधिनिगयते ॥= 
मनवन्तरयृगारफानःपप्युच्छिनडव सन्वय 1 


६६ ] { वापुपुराण 


परस्परा प्रवर्तन्ते मन्वन्तरथुगै सह्‌ 112 

उक्ता ये प्रक्रियार्थेन पूवकल्पा समासत । 

तेपा पराद्धकल्पाना पूर्वो ह्यस्मात्‌. य पर । 

आसीत्‌ कल्पो व्यतीतो वै परार्देन परस्तु स ॥१० 

मन्ये भविष्या ये कल्परा अपरारधादुगुणीद्ेता । 

प्रथम साम्प्रतस्तेपा कत्पोऽय वर्तेत द्विजा ।११ 

यस्मि वृं पराद्धे तु द्वितीये पर उच्यते । 

एतावान्‌ स्थितिकालश्च प्रत्याहारस्तत स्मृत ॥१२ 

भस्मान्‌ वल्पात्त्‌, य पूर्वं कत्पोऽनीत सनातन । 

चतुयुं गसहसरान्ते बहो मन्वन्तरं पुरा ॥१३ 

क्षीते क्त्ये तदा तस्मिनू दाहुवाले ह्य पर्यिते । 

तस्मि कल्ये तदा देवा आसन्वेमानिरास्तु ये 11१४ 

भ्रति सन्पिकेष्युन्दित्र होने से प्रछर मे कलपये कल्यङेभन्ठ्े 
समस्त द्विपा उग एमय समी मोर स व्युच्छिप्न हो जाया वरती ह । दौरे 
षाप्ररो षत्पदीप्रतिर्साध गही जातो टै ॥६॥ पल्लाफो भाति दी मन्वत 
सोर युगोकमामवालोग्रीर्षापया भो उच्िप्रहूमा करती भौरये खर 
परसरमरे मवतर बोर पुगोके षायप्रवृत्त हतिहै॥ ६॥ जो समेपषठ 
भरणि के दारा पूवं कल्पक गये है मव उन दत्गोके प्ररादधं ए्वसूपो मँ 
द्गते जो पहता या मोर जोपरयपा दमम पराढतेजोक्लय ध्यतीत हो ष्पा 
यदररया १०५ हे द्विगो | भरर ने गदी द्न सन्य जोक भविष्यते 
हति उनम प्म भम्यरलनशला यदप्रवम श्नलदटैजो कवदरतमानमवा 
रहा ट।११॥ जिच दविनीयपरद भंदूवं पर वदाजता दै द्वाद प्फ 
णा प्ाण प्रप्पाह्ास्पृटा पपार ॥१२॥ एण वत्तमान कत्म जो पिता सता 
दन पस्य प्रोता गया वह्‌ पटिति मन्दसे वताय ततुवुग, ततान प्रप 
बिदुयद्नवार्दयो पुपो क एरय दास्टोजनेषे पन्तय समतता टै 
पदा उषु ममपश्त्य दृष शोजोवर दादुकाकोत उपफपत (ण 


धौष्षरम यदम्‌ त्यम उन एय दश्वा सोवजोम द दिपो एषति 
-श१ ४२ पं 11 


सृष्टि सचना के विन्न मर्म | { ८३ 


नक्षव्रग्रहुतारास्तु चन्द्रसूरयग्रदाश्च ये॥ 

अधर्धिशतिरेव॑ताः कोस्यस्तु सृष्नालमनाम्‌ ॥¶५ 

मन्वन्तरे तथेकस्मिन्‌ चतुर्दणमु वं तथा 1 

शरीषि कोटिशतान्यासन्‌ कौट. याद्विनपतिस्तथा 1 

बष्टाधिका सप्तशता सदग्बाणा स्मृता पुरा ॥१६ 

वैमानिङाना देवाना कतपेऽनीते तु येऽभवन्‌ । 

एवेक्मस्तु वलये वं देवा वैमानिकाः स्मृताः ॥१७ 

अय मनवन्तरेप्वासश्चतुदशमु वं दिवि । 

देवाश्च पितरश्च व भुनो मनवस्तया ॥१८ 

तेपामनुचसा ये च मनुःास्तथंव च । 

वर्णौधमिभिरोड.याद्च तस्मिन्‌ कले तुये सुगा 1 

मन्वन्तरेषु ये द्यासनू देवलोके दिवौकमः 1१९ 

तेतं सथोजकै- साद्ध पराप्ते सद्भलने तथा । 

तु्मनिष्ठस्तु ते सवे प्राप्ते ह्याभूतसप्लवे ॥२० 

ततस्तेऽ् श्यभावित्वादुनुद्धा पर्यायमात्मनः 

घरं लोकधवासिनो देवास्तस्मिन्‌ प्राप्ते द्य.पप्लवे ॥।२१ 

तेऽनौत्ुज्यविपादेन रयवत्वा स्यानानि भावत 1 

महतर्वोकाय सविग्नास्ततन्त दधिरे मतिमर्‌ ।1२र 

भौरजोमक्चत्र, ग्रह खौरताराये तया चन्र सूयं भादि प्रह येवे सव 
सुक्गवात्माओ की बठ.याईष करोड हीमन्या धी ॥ १५॥ दमी प्रकार एक 
मन्वन्तर मरे दया चौदह मन्वन्तरो मे तीन सौ क्योट ये नौर पिते मट.ठानवें 
करोड सातसौ सरत क्दग्ये हँ ॥ ६९॥ क्ल के व्यनीत हो जानिषर 
विमानो भे सस्त देववाथो मेजोह्येये एकणएक कल्प मे विमानोमें वैष्ने 
चाति देवा कटे मये ह ॥ १७ ॥ इमके अनन्तर द्विव मे चोदहं मन्वयं मे 
दमी भाति देवता, पिदर, मुनि सोग भोर मनुगण ये ॥ १८ ॥ मौर उनके 
बनुगामी जो मनु पुत्रये मौर इषौ प्रकार वर्णो आच्रमोमे रहने दानोके 
द्रा बन्दि हुये जो उठ समयम युस्गण ये गौर मन्वन्तरौमे जो दिवम ग्ने 


६ | [ वायुपुराण 


याल देवलोकूमेये वे सव सद्धुलनके प्रात होने पर उन सयोजक्रौके साप भूत 
सप्ठव के प्राप्त होने के समय मे तुत्यनिष्ठा वानि ये ।। १६-२० ॥ इसके पश्चाद्‌ 
उन नैगोकय के निव सौ देवो ने अत्रयम्भावी होने से अपनो पारी को नानत 
उक उपध्नव करे भात होने पर उप्तुकता मौर विपाद न रखते हये भावदि स्या्गो 
कात्याग क्रक फिर मर्तो के सिये सविग्न हते हुये उ होने मपनी बृद्धि 
धरण की ॥ *१--२२॥ 

ते युक्ता उपपद्यन्ते महसिस्थं ्रीरकं 1 

विशुद्धिवहुला सरवे मानमी सिद्धिमास्यिना ॥२३ 

ते. कल्प वास्षिभि सादं महानाप्नादिनस्तु यै 

ब्राह्मणे क्षत्रिरोर्वेश्यैस्तद्क्तंदवापरज्जनौ ॥२४ 

मत्वा तुते महर्लोक देवसञ.घादचतुदट्‌ भ । 

तत्ते जनलोकाय सो दगा दधिरे मिम्‌ ।२५ 

विशुद्धिवहुला सवे मानसी क्िद्धिमास्विता । 

तं केल्पवासिभि साद्ध महानासादितस्तु ये ।[२९ 

दशद्त्व इवावृप्ा तस्मादृगच्छन्ति स्वस्तप । 

तन्न कल्पान्‌ दश स्थित्वा सप्य गच्छन्ति गै पुन । 

एतेन क्रमयोगेन यान्ति कल्पनिवासिन ॥२७ 

एव देवयुगानान्तु सहलाणि परस्परात्‌ । 

गतानि ब्रह्मलोक ने अपराव्तिनी गतिम्‌ ॥२३ 

वे रथ बधिक्‌ विशुद्धि वाते भौर मानी सिद्धिम भाहिथते क्ते ए 
महर्लोक परे हिषत शरीरो से युक्त होकर उपयन्नहोने ह ॥२३॥ जो ब्रह्मण, 
त्रिय, वश्य भीर उनके भक्त दूरे लोग ह उन क्त्पवासियों कै साथ उदहोने 
महान्‌ षो्रापतषरलियाया ॥२४॥ वे चौदह देव सद्धं महर्लोक फो मान- 
कर पिर उ-टोने जन-सोक के लिये उद्धरण वै साथ अपना विचार किया ॥२५॥ 
विश्ुदि भी प्रषुरता यत्ति दे सद मानसो सिद्धिमे त्वित ष्ट ग्ये मौर उन 

दयाततिर्यो के सायनिनहने मदाद्‌ कोप्रासि वियाषा ॥ २६॥ भावति तै 
ए ारकौ तर्ट्रष्ते स्वनेन मोरतपलोदङो गतेष्व वटौ दग कतपर्यत 


गृष्टि रचना के विभरिप्नत्गं |] ) ६६ 


रहकर फिरवे सत्यलोक को जतिदह। हसी फम वे योध्यते क्ल्य निवासी 
णाति । २७1] इम प्रकारसे देव युगो के सदृ वर्था हस्तो देवयुग पर 
स्पर से व्यतीत हये फिरः ब्रह्मलोक को भपरावत्तिनी गति कवौ प्राते टये ॥ २०८ ॥ 

माधिपत्ये विनाते गैरेश्वध्णतुतत्समाः। 

भवन्ति ब्रह्मणस्तुल्या स्पे विषयेण च 11२४ 

तेत्र ते ह्यवति्ठन्ति प्रोतियुक्ता प्रसद्धमात, । 

आनन्दं ब्रमणः प्राप्य मुच्यन्ते ब्रह्मणा सहं “१३० 

अवण्यम्भाविन।ऽयेन प्राकृतेरीव ते स्वयम्‌ । 

नाना च्वेनाभिसम्बद्धास्तदा तटालभ।विनः ॥२१्‌ 

स्व्पतो बुद्धिपूवं यथा भवति जाग्रतः । 

तत्कालमावि तेषा तु तया ज्ञान प्रवर्तति 1२२ 

प्रत्याहरे तु मेदाना येपा भिच्ताभनिसूप्मणाम्‌ } 

तः साद प्रतिसृज्यते कार्याणि करणानि च 1३३ 

नानाव्वदर्नात्त पां ब्रह्मलोकनिवासिनाम्‌ । 

विनष्टस्वाधिकाराणा स्वेन धमेण तिष्ठताम्‌ ॥३४ 

ते तुल्यलक्षणाः सिद्धः शुद्धात्मानो निर जनाः] 

प्रकृती कारणातीता. स्वात्मन्येव व्यवस्यता. ॥।३५ 

वहा वे आधियत्यके बिनार्वभवमे उन्हीके समान सूप मौर विषम 
मेब्रह्माकेही तुल्य दते ह ॥ २६।। वहां पर गुन्दरराङ्गग दौत्रेते बीदी 
श्रीन्तते युक्त होकरवे रहतेर्है। ब्रह्याके अनन्दको प्रात करब्रह्माके साय 
ही मुक्तं क्रि जाठर ॥ ३०॥ वै स्वय अवश्यम्मावी प्रन अधंसेद 
मानित्वं बे अभिसम्बद्ध होते हुये उम समय उसकाल मेहने वलिते ह 
21 ३११ जि प्रहार जाप्रत स्वत्प पे वृदिपूर्वकर होतादै उन्न कोल मे होते 
वासा उनका वैसा ही ज्ञान प्रवृतच्च होता है ॥३२॥ भिन्न अभिसुपा जिनके 
भेदके प्रस्मादारये ही उनके साय कार्यं भौर करण प्रतिमृष्टि श्िि जते ह 
11 ३३ \1 अपने मधिक्रारो के विनाश हो जाने वाते, अपने धमं चे स्थित रहने 
वान्ते भर्‌ ब्रह्मलोक के निवात करने वाते उनके नानात्व कै दर्णनसेवे तुल्य 


१०० 1 { वाषुपणग 


लक्षण वाते, निरल्जन, शुद्ध बाप्मा वति सिदध श्वि मेंश्रारण से तोत ष्ट 
वाति अपनी भाह्मामे टी व्यवहिथत होत ह ॥ ३४--३५॥ 


प्रव्यापयित्वा छ्यात्मान प्रकृतिस्तेयु सर्वग । 

पुरुपान्यवहूतप्वेन प्रतीता न प्रवत्तति ॥(३६ 

भ्रवतिते पून सर्गेतेपावाकारण पून । 

सयोगे प्राते तेपा युक्ता" तत्दशिनाम्‌ ।\.७ 

अनापवगिणा तेपामपुनमर्िंगामिनाम्‌ । 

अभाव पुनरुतपत्तौ शान्तानामश्निपामिव ॥३८ 

ततस्तेषु. गतेपू्ं ब्रं लोकयात्मुमहार्मयु । 

ते साद्ध ये महर््लोकरात्तदा नासादिता जना 1 

तच्छिशाश्चेह तिष्ठन्ति कल्पाद्‌ हुमुपासते ॥ ६४ 

गन्धर्वाद्ा पिशाचान्ता मानुपा ब्राह्मणादय. । 

पशक पद्षिणप्चैव स्थावरा सप्ररीसूपा ॥४० 

तिष्ठत्सु तेषु त्वाल पृथिवीतल्वा्षिपु 1 

सहस्र यत्‌. रश्मीन सूर्यस्येह विभासते ॥ 

ते सष्ठरदमयो भूवा द्यं कंको जायते रवि ॥७१ 

क्रमेणोचतिषठमानास्तं तीन्‌ लोकान्‌ प्रदहुन्टयुत । 

जद्धम स्थावर चव नदी सर्वाश्च प्ेता्‌ । 

पूर्वै शुष्का ह्य ावृषटय। सूरवस्तेरव प्रदुमिता ॥४२ 

उनर्भे कवर भोरे रटति अपने आपको प्रख्यापित करके पृद्पवरै साय 
कषथ्यवहूत होने से प्रतीत होकर प्रवृ्ानही होती दहै ॥३६॥ उनत्रा किर 
सगं प्रशत्तिन होन प” मथवा तत्वदर्शी युक्त उने प्राटृत सयोग मे पुन कारण 
होता है ॥ ३७॥ यदं पर पुन माप॑मामौ न होने वाले उन लपवगं वातो 
का पृर्मन्म शान्त होने वातो मभ्नि की उ्वालाभौ के समान भमाव्र होता 
धर्थान्‌ अपवर्गं वातो कौ भुन उदप्ति नही होती है॥३८॥ दस्फे भनेतर 
धच्छी एव महान तमा याते उनङे प्रलोकय ते उपर जनि पर उनके सापो 
सदन प उम समय षहौ जन बादादितनहौ हात । ~त नेये गछते 


भृन्टि स्वना के विभिन्न सर्म 


प्रे यदू रहै ह गौरक्मसेदेहको चथा कस्यै ई । ३६ +! गर्वो 
प मादि लेकर पिशाचो के अन्त पयत मानुपं बौरब्राह्मण भ्रति पसु पक्षीगण 
धरीसृपो के सहित स्थावर उस समय उन पृथिवो तल मे निवात्त करने बालो क 
गहने पर यहौ पर मूं की एक सहचर क्रिरणो कौ विभासमानत्रा होनीदहै। वे 
फिर सात रदिमयां टोकर उनम बे एक एक रवि हो जाना है॥ ४० --४१।। 
क्म सेवे उकिषमान होकर दन तीनो लोको को प्रदग्व करदेते ह जिनमे चर 
प्राणो सर्यानु जगम मृष्ट स्यावर घर्याच्‌ मर गृधि--नदी भौर पवत ये सभी 
अश्व हो जति ह। पितिवे दृष्टि केन होने शुष्क दहो जति है भौर फिर उन 
सीव्रनम परयो से प्रपूपित मर्याच्‌ प्रतप्त किय जाति ह ॥ ४२॥ 

तदा त्त विविणु सर्वे निद गधा. सुय रश्मिमि । 

जङ्गमा स्यावरा स्वे धर्माधर्माप्मकास्तु वँ ॥*३ 

दग्धदेहास्ततस्ते वै गता पापयुगाप्वये । 

योन्या तया द्यनिमू क्ता शुमपापानुव्रवया 1४४ 

ततस्त ह्य.पपयन्त तुल्यरूपा जने जना । 

विशुद्धिवहुला सवे मानती सिद्धिमास्थिता ॥४५ 

उपिल्वा रजनी ततर ब्रह्मणोऽव्यरव्तजन्मन ॥ 

पुन सगे भवन्तीह ब्रह्मणो मानसीप्रजा ।1४६ 

ततस्तु प्रवृत्तेषु जने तं लोक्यवासिपु । 

निर्द्धेपु च लोकेषु तेपु सूर्यस राप्तभि । 

वृष्ट्या क्षितौ व्लाविताया विशीर्णेप्वा लयेपु च ॥४० 

समुद्राश्च व मेघाश्च माप रुवश्चि पाथिवा । 

व्रजन्तयेकार्णवत्व हि सललिलाष्यास्तदाधिता ॥४न 

आगतागतिक तद्रं यदा तु सलिल वहु । 

सछाच मो स्थित्ता भरूमिमर्णेवाघ्या तदा च सा 1४४ 

उस समय वे सव जङद्धम मौर स्थावर वाहि वे धर्मासमा होया अधर्म 
प्वख्य चलि हो, षिदोप रुप मे सूं को करिरणो ते जतत हये दोते हृए विवय हो 
जायाकरते ह ।\ ४३1 दग्य देहो वात्ेवे वदाँसे फिर पाप-युग के मत्यय 


१०२९ 1 [ वादुपूराष 


मे च्लेजते हु भौर पुर तथा पावने अनुदनव वानी खय यानि वे निरमुं 
नही हति है ।। ४४॥ इसके अनन्तर वे मनुष्य जन लोक मे तुल्य खूप वति 
हत्ति है! उप्र समयवे सव प्रचुर विशुद्धि वा हति हये मानी तिद्िम 
आस्थित हृभा कर्ते ह ॥ ४५ ॥ वद पर अव्यक्त से जन्मे प्रदूण करने षति 
प्रह्वा की एक रात निवास कर फिर यहा ममे त्रद्मा की मानसी अर्थात मन 4 
उद्भव वानी प्रजा हति ।॥ ४६॥ इमे पश्वाद्‌ उने तैतोतय-वातियो कं 
द्म जन-लोक मे प्रवृत्त होने पर ओर तात प्रखरतर सूर्या के द्वारा उन तोके 
पण््रहो जानि प्र उन परम विशीण षरोभे वृष्टि ते समभ्त वृमण्दल के प्लावित 
हो जने प्रर सद्ग समुद्र मेघ ओर पायिव जल तदाध्रित होते हये सतित नाम 
वति एत्राणवता को प्राप्त हो जति ह 1 ४७-४्ट ॥ माया हुमा भौर बिना 
गति वाल। वह सलिल जग्र यत्यचिक मानामेहोजाना है तव वह दस ध्यित 
भूमि को दककर वह्‌ भणव नाम वालो हो जाती है ॥ ४६९॥ 


आभाति यस्मान्नाभान्ति भासन्तो व्याप्तिदोपरपु । 
सर्वत समनुप्लाव्य तासाश्ाम्भौ विभाव्यते 1५० 
तदम्भस्तनुते यस्मात्‌ सर्वा पृथ्वी समन्तत } 
घातुस्तनोतिविस्तारे तेनाम्मस्तनव स्मूता ।\५१ 
भरमित्मेप शीघ्रन्त्‌ निगरात कविभि स्मृत । 
एकार्णवे भवन्त्यापो न शौघ्रास्तेन ते नरा ॥५२ 
तस्मिन्‌ युगसहस्रान्ते सस्थिते ब्रह्मणोऽहनि । 
राजन्या वत्तं मानायान्तावत्तत्‌ सलिलात्मना ॥॥५३ 
ततस्तु सिते तस्मिन्नष्टे ऽग्नौ पृथिवीतले । 
प्रशान्तवातेऽन्धकारे निरालोके समन्तत ॥५४ 
येनवाधिष्ठित दीद ब्रह्मा स पुरूप प्रभु । 
विमागमस्य लोकस्य पूर्वे कतुं मिच्छति ॥५५ 
एवाणवे तदा तस्मिनष्टं स्थावरजङ्गमे । 

तदा स॒ भवति ब्रह्मा सहस्राक्ष सहस्रपात्‌ ।५६ 


जिमङे कारण दे व्वशत दीतियोते भौ मष्छमानहने हवै भी उव 


भृष्टि रना के विनिन्नेयगं {[ १०३ 


समय भासित नटी हेते हु स्वे मोरसे भली भाति प्रावन कर अर्थात निममन 
करके उस समय केवल उनङे जलदौ विमावित द्योता था ५० क्योकि घट 
जल पूर्णया व्रिस्तर वाला होता है यौर इस समस्त पृथ्व्रीवो सवमोरमे 
धेरलेतादै। त्रिधात्ता के विष्तारकै फलान परदे इते जल केतनुक्हे गये 
है ॥५१॥ नर यह्‌ कवियोके द्वारा शीघ्र निपातक्हा गयाहै। एकरार्णेवमे 
भवह होतेह शौर द्मे वे नरकशीघ्र नहीहोतेर्ह1 ५६) ब्ह्माजीके दिनं 
फ स्थित होने पर उस एरुस्टस युगके मन्तमे तव तक वेवल जलके स्व 
ख्पसे हौ इस पृथी के वत्तभान रहने पर दपकरे पश्वाच्‌ उप्त जल के पृथ्वी तल 
भे रहने वालो लण्निमे नष्टहो जने प्रचारो लोर निरालोक् भति प्रकाश 
घे हीन भन्वकार्‌ छया हमा थाभीर वात प्रणान्ठहो ग्यायादेतै समयर्मे 
तिके दवारा यहे भविष्िति चा वह्‌ द्रह्या पर षृष्प प्रमया बौर उमने किर 
षप लोहके विमाग कएने कीष्च्छा की मचवा इच्छाकरता है ॥५३-५४- 
५५॥ उम एक अर्णव अथव समुद ये समस्त स्यावर मौर जङ्गमकेनशटटो 
जाने पर्‌ उत घमय वद ब्रह्मा सटृत्रनेन भौर सदस चरण वाला दहो जातत 
६ ॥५६॥ 


सदख्रशीरपा पुर्पो भ्वमवर्णो ह्यतीन्दियः। 

प्रह्णा न(रायणाव्यस्तु सुष्वाप सलिले तदा ५७ 

स्यो कान्‌ प्रवदटस्तु शून्य लोकमवेशष्य च 1 
द्मच्वोदाहुरन्ध्यन श्लोक नागयण भ्रति ।1४८ 

मपो नारार्यास्तनव इदयपाघ्नाम शुश्रू मः। 

मापूरवं नामि तत्रास्ते तेन नारायणः स्मृत 1४४ 

सहलशोर्पा सुभनाः सहसृषातु सहेसुचश्ुवंदनः सहसृभुक्‌ । 
सहसृवाहुः प्रथम. प्रजा पतिख्यीपये य पुर्पो निरुच्यते 1६० 
मादित्यवर्णं भुवनस्य गोप्ता एको दापू प्रधमं तुरापाट्‌ । 
हिरण्यगर्भः पुरपो महास्मा ख पठ्यते वे तमसः परस्तात्‌ ॥६१ 
केत्पादौ स्जसोद्रिक्तो ब्रा भूत्वाऽमृजच्‌ प्रजा. । 

कल्पान्ते तमसरोद्रिक्तो कालो भूत्वाऽग्रसनु पुन ॥६२ 


१०४ ] [ वायुषु 


सवै नारायणाख्यस्तु सत्वोद्रिक्तोऽ्णवे स्वपन 1 
क्रिया विभज्य चात्मने वं लोक्ये समवर्तत ।॥६३ 


सरल पोप गता देम के तरप देदीप्यमान वणं वाला, समस्त दद्र 
से अगोचर अर्थात्‌ परे षड्‌ धद ब्रह्या नारायण-- दत नाम वाला उन षम्य भे 
जल मे फयन करता या ।५५॥ सस्व दी अधिकता के हने से बह प्रबुद भर्पात्‌ 
जाग्रत हुभा सौर उमने चेतना गुक्त दोर इष तोक को शू-य देवा । या प 
उम नारायण कै परति इस निम्न श्लोकः को उदात करते हँ ॥५८॥ प अर्थात्‌ 
अल नारद नाम वाते तनु ह ष्टी नलोके नामको ुनते ह । वहा परनामि 
क्षो आ्रूरित कर यह्‌ होता है इसतिये "नारायण" यह्‌ कहा माद ॥१५६॥ 
सद द्वीपं (सप्तक) वाला, अच्च मन वाला, सहृख चरणो बाला, सट नेत्रो 
वासा, सदघ् मु दामा, सख बो भोग करने वाला, तरे वराहो वाना 
मथर प्रमापति है जो वधीय मरे पुष्य कदा जा है ॥६०॥ सूयं कै तुल्य षे 
वाला, भुवने कौ रधा करने वाला, एक ही प्रयम तुरापदट्‌, हिरण्यपभं महातमा 
धोर पष्प हजोञ्खतमसे प्रष्ठा णाता है ॥६१॥ वही कसक ादि मे 
रजोगण के एदरेक ते युक्त होकर ब्रह्मा बनकर प्रजा कय सूजन करता ध प्रर 
जव कठा फा भन्न होता तो उत समपमे काल होकर फिरे उस सूष्टिका प्रघ 
कररेताथा 1६२| दही नारायण नाम वाला सत्वगुण से इद्रिक्त होता भा 
समुदरमे भयने क्रतो है तथा बह इत प्रहार अपे स्वरूपकी तीनसरूपै बर 
विभक्त करके छं लोत्रय प बरताव विया करता ६ ॥६३॥ 


मृजते श्रसते चैव वोधन्ते च त्रिभिस्तु तम्‌ { 
एकार्णवे तदा लोपे नष्टं स्थावरजद्धमे 1६9 
चेतुयुं गसदघान्ते स्वेतः सतिताकृते । 

श्रह्मा नारायणाष्यस्तु बप्रषाणणेवे स्वपन्‌ ॥६५ 
चतुदिधाः प्रता ब्रस््वा ब्राह्मया राप्रपा महार्णवे । 
पश्यन्ति त मर्लर्बोकान्‌ सुपर काल महु्पयः ॥६६ 
भृग्वादयो यथा मन्न वत्वे ह्यस्मिन्‌ हूय: । 
लते केवदरीमनिम्त्दान्‌ पीरगत परः ॥६७ 


गृष्टि रचना के विभिन छने ] { १०५ 


गत्यर्याद्‌ ऋषयो धातोत्नामनिद्रं ्तिरादिन । 
तस्म्रारपिपरत्वेन महास्तस्पाम्महूर्पयः पदन 
महन्लकिस्थितेहं ट कालः सुप्म्तदा च ते 1 
सत्याद्या सम ये ह्यासन्‌ कल्पेऽनीते मह्पय. ।1६ 
एव ब्राह्मोपु रातीपु ह्यतीतासु सहन्रश । 
ृश्वन्तस्तथा ह्यन्ये सुप्त काल मदूर्पय ७० 


ष्नतीनखूपोसे उन लोकोका सूजन करता है, प्रसन करता है मौर 
नका वीक्षण करता दै । जव एवार्णव मे स्यावर्‌ मौर जन्गम लोके नटो 
भाने पर इम लोक प्रसन का कार्यं भौ नटी क्रा करता दहै किन्तु प्रत्येक कर्य 
$ स्वरूप निनं ॥६८)\ सतयुग, तरेना, द्वापर, क्तियुग, इन चारो यगो कौ 
लोक्टी के एक सरटस्र सर्पा समाप्त हो जाती ह तद उसके अन्तर्ये धव योद 
जल से वावृत होने पर प्रका रिव भर्यात्‌ अन्वक्रारमय सागररमे नारायण 
नाम वालि ब्रह्मा छ्यन करते हृए्‌ चारो प्रकार की प्रजाकाग्रासक्केवब्रषलयी 
रात्रिम महा्णेव भ स्वित रहते ह मौर मर्हापिगण महर्लोक से ठस सुनकाल कौ 
देखते है ॥६५-६९॥ दस कल्प मे भगु मादि सात मदविक्हेगपदह। उनके 
दवारा विशेष रूप से वह उप्यित होकर वह्‌ षर महाव चारोमोरसे परिगत 
होगा ॥६७॥ गतिक भयं वालो षातुस ऋषिस नामकी निव्रृत्ति 
होतो दै) उसे महावर यदमी ऋषि प्ररप्व है यतएव महपंय, एषा कदा गया 
है ।॥६०॥ महर्लोक मे स्थित उनके दवारा उस सप्रय कानपुर होता हुमा देता 
गया । नीत कल्प मे सत्य माद्य ये छात महपि ये ॥६६॥ इष प्रकार सं सदस्नो 
ही ब्राह्मी अर्थाव्‌ ब्रह्मा से सम्बन्ध रखने वाली रात्रिर्यां व्यतीत हो जाने पद 
उसी प्ररारसे उस समय अन्य मर्हिपोनै भीकातको सोया हआ देखा ।७०॥ 

कत्पस्यादौ तु वहुशो यस्मात सम्वाश्चतुदं श । 

कल्पयामा् वे ब्रह्मा तस्मात्‌ कालो निस्च्यते ॥1अ१्‌ 

स खषा सर्वभूताना कत्पादिपु पुन. पुन ॥ 

व्यक्ताव्यक्ते महादेवस्तस्य सवमिद जगन्‌ ॥जर्‌ 

इत्येष प्र्तिन्विर्वेः कीततित्त कन्पयोद्रयो 1 


१९९ ॥ [ कामं पुराण 


साम्पतातीतयोर्मध्यं प्रागचस्या वमूव या 1७३ 

कोत्तिता तु समासेन कल्पे कल्ये यथग त्तथा । 

साम्प्रतं ते प्रवक्ष्यामि कल्यमेत नि्वोयत्त 11७9 

क्ल्पके मादि श्रद्ा न बहून सो चौदह मस्यायो को कल्पना की यौ 
हकतीनिथे वह्‌ काल एता कहर जाता है ॥७१॥ कल्यो के कादि कालो मे समक्त 
श्राणिये? का मूजन करन वाला वह महादेव बार-वार्‌ व्यक्त भौर भव्यक्त होता दै 
सौर उसी का यह समस्त जगत्‌ ह ॥७२॥ यौ दोनो कल्पो की प्रति्समधि हेती 
हि जो सप्तके सम भँ वण्ष्ति करदी मई । अव कै समय वालि लौर व्यती 
इए स्न दोनो के भध्व मे ज प्रागवस्था हई थो वह सक्षपरते वर्णेन करदौ ॥ 
हणो जैसी कल्प कल्प मे थो 1 गव लापके सामने इस कल्प काः वर्णन करता 
उसे खाप लोम धरवण करें या समज्ञ लेवें ७३ ७४॥ 

१ मानद सस्यता के रस्म 1? 

नुल्य यगसहस्य' नैश कालमुपास्य स । 

शवै्यन्ते प्रकुरुते ब्रह्मत्व सर्गकारणात्‌ (१ 

ब्रह्मा तु सिने सस्मिन्‌ वायुर त्वा तदाचरत्‌ # 

अन्धकारे तदा तस्मिन्‌ नष्टं स्थावरञङ्धमे ॥।२ 

* जलेन समनुव्याप्त सर्वेत पृथिवीते + 

अविभागेन भूतेषु समन्तात्सुस्थितेपु च ।1३ 

निशायामिव खयोत प्रावृट्काले ततस्तत ! 

तदाकाषै चरन्‌ सोऽय वीक्ष्यमाण स्वयम्भुव ॥४ 

प्रतिष्ठाया ह्यपायन्तु मार्गेमाणस्तदा प्रमु । 

ततस्तु सलिते तस्मिन्‌ ज्ञात्वा हयन्तगेता महीम्‌ ॥५ 

मनुमानात्त्‌, सम्बुद्धो भूमेशुदधरण प्रति । 

चकारान्या तनुच क पू्वेकल्पादिषुः स्मताम्‌ ॥६ 

सतु ख्प वराहस्य छृत्वाऽ्प श्रविश्चद्‌ रभु । 

अदूभि सञ्छादितामूरवी समीक्ष्याय प्रजापततिः (15 

श्री सूजी ने कदा--वह एक सदर युगो के सत्य रात्रि ॐ समव री 


मानव सभ्यता का यारम्भ |] [ १.७ 


पपासा कर फिर रात्रिक यन्तमे सगेकरने केकारणमे ब्रह्मत्वको प्रात्र 
तिता है ॥१।१ उस जणमे बायुकेस्वन्पमे दोदर परिदरण करताया क्योक्रि 
उस समय स्थावर आरे नद्धय सवके मष्ट ह नाने षर वहं केवल अधकारदही 
अन्धकार था 1211 समस्त यहे पृय्वीतलं चारो गोरसे जलसेही समनुव्यास 
हो रहा था मौर वरहा समन्त प्राणी विभाव रहित होते हए सुस्थित चे ॥२॥ 
जित तरह वर्पा ऋतु मे रात्रि के समयमे सद्योत इर से उधर विचरण करता 
हआ दिखाईदेनाता है इष तरह वह भी उस सम्य आकाशमे इवर-उधर 
प्रूमता हरा दिलाई देता या ।(४५। उस्र समय प्रमु ने पुन प्रतिष्ठाके उपाय को 
सो करते हए उस जरल के अन्दर गई हुई भूमि का ज्ञान प्रात किवा ॥६1 उत 
समय यनुमणन से भली भाति ज्ञान प्राप्त करनेने भूमण्डल के उद्वारकरतेके 
कायं की भोर पूणं चेतना प्रास्त की सौर पहिले कल्प गादि मेँ वारण भरिया दभा 
शरीर का स्मरण करिया ।1६।। उस समप प्रनापत्तिने जल द्वारा तम्य पप्रा 
से माच्छादित क्स भूमिक देएक्रर उन्होने तप्र वाराह का स्वरूपषारणकर 
जल के मन्दर प्रवेशक्रिया था अ 


उद्ध.त्योवमिथादुभचस्तु अपस्तास्तु स विन्यसव्‌ । 
सामूद्रीस्तु समुद्रे पु नादेयीत्रिम्नगास्वपि । 
पाथियीस्ठु स विन्यस्य पृथिव्या सोऽचिनोदुगिरीव्‌ ॥८ 
भराव्‌स्े दह्यमाने तु तदा सवत्ते काग्निना । 
तेनाग्निना प्रलोनास्त पर्वता मुवि सर्वेश थ 
शेत्यादेकारणेवे तस्मिन वायुनापस्तु सहता. 1 
निषक्ता यन यास्तस्तनत्तत्राऽचलोऽमवत्‌ ११० 
स्कन्नाचलत्वादचला पवि. पर्वता स्म्रता । 
गिरयोऽदुनिनिगीर्णत्वाच्चयनाच शिलोचया ११ 
ततस्तु ता समुदधत्य क्षितिमन्तज्जंलात्‌ प्रभु । 
स्वस्थाने स्यापयित्वा च विभागमकरोत्‌ पुनः 1१२ 
सम सप्त तु नर्या तस्यः दीपेषु सप्तसु १ 
विपपाधि समीट्त्य शिलाभि रचिनोद्‌ गिरीन्‌ ।(१६३ 


१०८ ] [ वागु पराच 


होपेषु तेषु वर्षाणि चत्वारिशद्य्थैव च † 
तावन्तः पर्वेताश्चं व वर्षान्ते समवस्थिताः 1 
सर्गादौ सच्निविष्टास्ते स्वभावेनैव नान्यथा (१४ 


इसके अनन्तर जल मेँ निमग्न मृमण्डल का उद्धार किया मौर उस जतं 
का बही विन्यास क्रियाथा। जो समुद्र से सम्बन्व रखने वाला जल था उप्तका 
समूद्धोमे लोर जो नदियो से सम्बद्ध था उसका नदियो मे विन्याह्त किया। जो 
पृथ्वी ते सम्ब्रत्विति था उति पृष्वौभे हौ विन्णसर किया तया उसने पृथ्वी मे 
पर्वतो को चुन व्यि था ॥८।॥ पहिले सगं मे उस समय संवर्तानिके दारा 
शचारोमोरसे दाहकेहोनिसे भूमिमे उस्र यभ्नि से समस्त परवत प्रलीन हो गये 
ये ॥६॥ धत्यके कारण से उस एकाणंव मे वायु के दारा संहत जल नहाना 
पर नियिक्त हुए कहा-वहां वह मचल हो गये ये ॥१०॥ ये स्विन्न होकर मचल 
होने से अचल" मर इनमे "पवो" के होने के कारणसे ये "पर्वत" कहुलाये यवे 
ह । जलकेद्वारा पृरणेतया निगीणे हो जनिसे गिरि" बौर शिलां के गहं 
मे चपने होने के कारण से इन्हे 'शिलोच्यथ' कहा जाता है ॥११॥ इसके भनन्तर 
प्रभु ने उस भूमि को भन्तजंल से उद्ध.त करके पुनः उते बपने हो स्यान पर 
स्यापि कर दिया था शौर फिर उसका विभाग भी किया था ॥१२॥ उस 
भूमि मण्डलक सातसातट्रपोमे सात-सात वर्पो कौ रचना की भौर जो विपपर 
स्थषूप मे ये उनको समान बनाकर परवतो को शिलामो से चुन दिया या ॥१३॥ 
उम दीपोमे घालोस वपं गौर उततनेही पव॑त वेषं के यन्ते समवस्थित्रेये। 
शं के गादिमवेस्वभाव से हौ सद्निविष्ट हो गये ये न्मया कुमी न्दी 
क्रिया गया था ॥१६॥ 

सप्तद्वीपा: समुद्राश्च अन्योन्यस्य तु मण्डलम्‌ ! 

स्िष्ृ्ाः स्वभावेन समादृत्य परस्परम्‌ ॥१५ 

भृरा्यांश्चतुरो लोकाश्चन्द्रादित्यौ ग्रहैः सह्‌ 

पूरयतु निर्ममे ब्रह्मा स्थानानीमानि सर्वशः १९६ 

कल्पस्य चास्य ब्रह्मा वै ह्यगरुज्‌ स्थानिनः पुरा ॥ 

आपोयस्निः पुषवियो वायुरन्तरिक्षं दिव तया 11१७ 


मानव सम्यताकाञारम्भम { १०९ 


स्वं दिश समुद्राश्च नदौ सर्वश्च पवताद 1 

ओपधीनां तथात्मानमाप्मान वृक्षवीरुधाम्‌ 11१८ 

चवा काष्टा. कलाश्च व मुहूर्तं सन्धि राग्यहुम्‌ १ 

अद्धमासाश्च मासाश्च अयमान्दयुमानि च ॥१६ 

स्थानाभिमानिनश्चैव स्थानानि च पृथक्‌ पृथक्‌ । 

स्थानात्मान स सूषा वै युगावस्था विनिर्ममे ॥२० 

ृत.तरेता द्वापर च कलि चव तथा युगम्‌ । 

चल्पस्यादौ कृतयुगे प्रथमे सोऽसृजत्‌ प्रजा ॥२१ 

सात द्रीपमौर समुद्र म योन्यके मण्डल के सन्निषृष्ट होग्ये भौर वे 
परस्परमे मपनेही जापस्वभाव से समावृतहो गये ये ॥१५॥ सवप्रधम त्रह्याजी 
ने सूर्यं ओर षद्रादि ग्रहो केसायम्‌ इस नाम वाल वार लोकोका निर्माण 
विया भौर हनके सव अर से स्थानोकी रवनाकी थो ।१६॥ दसकन्पव् 
ब्रह्माजी ने पटिति स्थानियो का सूजन किया ( जसे-जल, धनि, पृथिवी, वायु 
भत्रिक्ष भौर उसी ्रक्रार से दिव इनः सव्र कामृक्न क्ियाजो कि स्थानी होते 
ह ॥१७॥ हषी तरह स्वगं, दिशा, समूद, नदी, पवत समस्त गोपधियो बै 
स्वह्प तथा सम्पूणं वृक्ष गौर बीख्वो के लू्पकी रचना की थी ॥१८॥ सन्‌, 
कष्टा, कला मूर्त सन्धि, राति भौर दिन, पक्ष, माष जयन, युगु मौर व्रपं 
ये मव स्यान मौर इनके पयक् पृथन्‌. स्थानो के अभिमानी मर्या उनमे रहने 
चाने उन्होने स्यानोके स्परूपो का सूजन कर फिर युगा को अवस्या का निर्माण 
किपा था ॥ १६ २०॥ हृत युग, त्रेता, द्वापर ओर कलिषुग इन चारो युगोकां 
सुजन करक्पपके मादि कात मं उनने सवप्रयम हृत युगमे प्रजामोकीमृष्टि 
कीधी॥२१॥ 





भरागुक्ता या मया तुभ्य पुवंकाल प्रजास्तु ना 1 
तस्मिन्‌ सवर्तमाने त कल्पे दग्धास्तदाऽग्निना ।र२२ 
अघ्राप्ता यास्तपोलोक जनलोक सम्राधिता । 
भरवर्तन्ति पुन से वीजाथं ता भवन्ति हि ॥२३ 
चीजायेन स्यितास्तव्र पुन सर्गस्य कारणात्‌ । 


११० 1 { वाव वृण 


ततस्ताः सृज्यमानास्तु सन्तानाथं भवन्ति हि ॥२४ 
घम्मंकाममोक्षाणामिह ताः साधकाः स्मृताः । 
देवाश्च पितरश्च॑व ऋपयो मनवस्तथा ॥२५ 
ततस्ते तपसा युक्ताः स्थानान्यापूरयन्ति हि ।' 
ब्रह्मणो मानसासते वै सिद्धात्मानो भषन्ति हि ५२६ 
ये सर्गा पयुक्तन कर्मेणाते दिव गता । 
अपवर्तमाना इह्‌ ते सम्भवन्ति युगे युगे ।॥२७ 
स्वकर्मफलशेपेण व्याताश्चेव तथात्मिका । 
सभवन्ति जनात्लोकत्‌ क्मसशयवन्धनात्‌ रन 


सके पूवं समय मे जो अनि वु्हरे सामने रजा का वेन करिया थाव 
समस्त प्रजा उष कल्प कै सवज्यंमान होने प्र उसी समय अग्निमेदण्षहो गई 
थी॥२२॥ जो त्प लोकमे प्रात नही हुई भौर इम जनलोकमे ही समाश्रित 
र्टौवेषदही पुनः संम प्रवृत्त होति हं बौरवे बीजके ल्िही राक्‌ 
॥२३॥ फिरसपंके होने के लिये वे वहां बीजे सिदे ही स्थित रहे के 
पचादु वे मूज्यमाने होकर सन्तान के लिये होते ह ।२४॥ यहाँ पर वे मब देव 
पितर, शि मौर मनुय चर्मायं काम भोर मोक्षके तिये साघक कटे गये 
॥।२५॥ हमके पश्चातु वे तप से युक्त होकर समस्त स्थानो फो भर दैनेहै। वे 
भ्रह्मा के तिद बात्मा वाते मानस मृष्टिकैरूपमे होते ह ॥२६॥ जोसं एष 
चे युक्त होकर क्रमं केद्वारा दिवको प्रा हौ जतिहैवे ण्ह पर पुगयुग मे 
सवतत मान होते हए जन्म धारण व्या करते ह ॥२७१) अपने कि हृष कम 
बे ननेपरहे दए पनां के दाराजो उस स्वष्पमे प्रमिद्ध होते हवे क्षमां कै 
स्ापयुक्त बन्यन कै कारणस जनलोक से यहां माकर जन्म लिया रतौ 
४ ५२५॥ 


आशयः कारण तव्र वोढव्य कर्मणा तु सः । 

तैः कमेभिस्तु जायन्ते जनात्योका. दुमायुैः ॥ २ 
गृह्छन्ति ते णरीदाणि नानाष्पाननि योनिषु । 
देवा्यस्यावरान्ते च उत्पचन्ते परस्परम्‌ ॥१० 


~~ 
ध) 
(1 


सनव घम्यता काञारम्म ] त्‌ 


ततेपाये यानि कर्माणि प्रार्‌ सृष्टः प्रतिपेदिरे 1 
तान्येते प्रतिपद्यन्ते सृज्यमाना पुन. पून ॥३१ 
हिला्हिस मृदुक्र.रे धमाधम तानते 4 

तदुमवता प्रपद्यन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते ।।३२ 

कत्पेप्वासमु व्यतीतेषु रूपनामारि यानि च 1 

त्ान्येवानागते काले श्रायल्ः प्रतिपेदिरे ३३ 

त्तस्पात्त्‌, नामरूपाणि तान्येव प्रतिपेदिरे 

सुन पुनस्ते क्पैयु जायन्ते नामत्पतव ॥३४ 

कर्मोक्रा कारण आश्चय ही समक्चना बाहिर † उन शुभम भोर अशुभे 
मो से मनुप्य यहाँ जन्म लिया ररते ५रकष॥ वे यहादेषसंभादितेकेर 
स्थावर पर्यन्त नाना भाति कौ योनियोपे परस्परे उत्पन दोतते हए जनक 
प्रकारके णरीरोक्तो घारणद्रिया कर्ते 1३० गृष्टि हने के पषति उनढे 
जो-नोभी कमथ उन्ही कर्मो अनुसार यहाँ बार-बार गृग्यमान होतु 
ऋन्मोको भोगा करते ह ॥३१५! उनके {दिखा तपा महत्ता वाले, मृदु तया 
फ़.रतासि मरे हए, धमे से युक्तं त्था पृं लष्मंसे मरे हुए भौर सत्यणएष 
शस्य जसे भी पदि कमं होतते हैँ उनको देमो ही भावने होती ई भौरर्वेषा 
ष्टी यष भोगते है क्योकि उनका स्वमाव नी देखा दीष्टोताहैङ् फ़िर य्न 
घटी अच्छा भी लमा करता है चाहे गह टीकर हो मथवा नही 1६२१ दोन हए 
भन्पोये जने भो उनके नाम सोर स्वरूप्रहोतेदहैवमेही दे आने धाने खमयमे 
भी प्राय. प्राप्त किया करते हैँ ।॥३३। दसौ कारथतेषउन्दीनाम ओौर सूपो 
भी परात्तिकरतेहै योरि क्षो मे चे गार-दरजन्मनाममगोरल्पसटो 
लिय) क्रते ह ।३४॥ 


तततः सरमे ह्यव््ये सिमृक्तोद्र हाणस्तु वै 1 
भ्रजास्ता ध्यायतस्तस्य सत्याभिध्यायिनस्तदा ॥ -' 
मिथुनानां सहसृन्तु सेऽभुजदवं मष्यत्तदा { 
जनास्ते ह्य.पपद्यन्ते सत्त्वोद्रिक्ता मुचेतम २६ 
सटसमन्यद्रक्षम्तौ मिथूनाना ससच्यं ह्‌ ! 


११६२ ] [ वागुपृराण् 


ते सवं रजसोद्रिक्ता गुप्मिणश्चाप्यशुप्मिण ॥३७ 
मृष्टा सहसूमन्यत्त्‌. दन्द्रानामूरत पुन ॥ 
रजस्तमोम्यामुद्रिक्ता ईहाशीलास्तु ते स्मृकत्त ॥३८ 
पद्भघा सहस॒मन्यत्‌, मिथुनाना ससर्ज्ज ह्‌ । 
उद्विक्तास्तमसा सर्वे नि श्रीका ह्यल्पतेजस 18 
ततो वै हपंमानास्ते हन्दोत्पन्नास्तु प्राणिन । 
अन्योन्या हृच्छ्याविष्टा मेथुनायोपचक्रमु ॥४० 
तत प्रभृति कल्पेऽस्मि्‌ भिथुनोत्पचतिरुच्यते } 
मापि मासेर्तव यद्त्तदाज्ञासीद्धि योपितान्‌ ॥४१ 
तस्मात्तदा न सुपुवु सेवितेरपि मधुने 1 
आयूपोऽन्त प्रसूपन्त मिथूनान्येव त छत्‌ ॥४२्‌ 


इवे अनन्तर सग के यवष्टन्ध हो जानि पर सूजन कौ पूण दचछ 
स्ने वालि ब्रह्माजी के जो सय के सभिध्यान करने वाले ये, उष समय उही 
मुख से सदो भ्रजा के मियुन उत्पन्न श्ियि, षे मनुष्य सत्वके उद्रेकसे भन 
चित्त वालि होते है ॥३५३६॥ उन्होने सदसो मिथुनौ को मपन वक्ष स्थल 
उत्पन्न करिया वे सभो रजोगुणके उदरेकवालेये जो शुष्मी होतते हए भी अशुभः 
ये ॥३७॥ अन्य सहस्रो द्रो वौ ब्रह्माजी ने अपने उष्भोसे उत्पन्न किया 
जोङ्गि रजोगुण मौर तमोगुणके उद्रेक दिये भौरवे ईहाके स्वभाव वा 
फट्‌ गये है ॥२८॥ दके पश्चात्‌ ब्रह्माजी ने सदसो जो को घपने वरणो 
उत्पप्नक्याथा जा ङ्गि समो तमोगुणकेखद्रोक व्तिये बौरश्रीर्हितषए 
तेजस णशूत्य ये ।३८॥ हमे अनन्तर अपने अपने दरद्रोकेरूपमे उतप्रही 
खासवे समी प्राणो परम प्रसन्न दए बोर मयोन्य काम वतना में तितत होक 
भेथुन मे प्रवृत्त हो गय ४० ॥त्तमीस्र लेकर ख षल्प मरं पिधुन उरसा 
भटौ जतो है) प्रप्येक माच में त्ियोको जो तुमं होत्ताया वह 
समय उपोब्रह्याकषीधक्ञायी 1>४१॥ इमततिय उस मार्तवक्ात में मधुल 
सवनक्टेकसोननी ल्ियोङेखावशयननदी दि अयू षठ 
14114. 


मानव सन्यत का गारम्भ्‌ ] { ११३ 


कटका कुविकाश्रंव उत्पद्यन्ते मुभरुपिताः। 
ततःप्रभृति कल्पेऽम्मिचु मिथुनाना हि सम्भव. 11३ 
घ्याति तु मनसा तास्ता प्रजग्ना जायतते सष्त्‌ 1 
शब्दादि विपयः युद्धः प्रघ्येक पन्चसक्षणः 11४४ 
इत्येव मनसा पूवं प्राक्‌ सृष्ट्या प्रजापतेः । 
तस्यान्ववाये सम्मूतायैरिद पूरित जगन्‌ ॥९५ 
रारित्छर समुद्राश्च सेवन्ते प्वेतानपि 1 

तदा नात्यम्बुशीतोप्णा युगे तस्मिन चरन्ति वे ॥४६ 
पृथ्वौरसोद्‌भव नाम आहार ह्याहरन्ति वं । 

ता प्रजा. कामचारिष्यो मानसी ष्िद्धिमास्विताः 1४७ 
धमधिमौ न तास्वास्ता निविशेषाः प्रजास्तु चा. 1 
तुल्यमायु मुख रूप तासा तस्मिव दते युगे 1४5 
धमधिमौ न तास्वास्ता कल्पादौ तु छते युगे । 
स्वेन स्वेनाधिकारेण जज्ञिरे ते इते युगे ॥्६ 


षुटक मौर कुविक मरने कौ इच्छा वाले उत्पन्न होते! तमीसेतेष्र 
स क्ल्परमे भियुनों का जन्म हूय धा ॥४३॥। मने ध्यान करने पर ठन 
भ्रजामों का एक्बार पांच लक्षण। वाला शुद्ध ्व्दादि का विपव उत्सन्न होता 
है ॥४४॥ इरी प्रकार से प्रजापति की जौ पूवं मृष्टि पिते हृ६ उठी अन्ववायः 
में उषी यद समस्त प्रजा हुई है जिनसे यद घमस्त जगु परिपूरित हौ रहा 
11४५॥ वह प्रजायति की प्रजा सरितु सरोवर, समद्र मौर पर्वनो का सेवन 
करती है 1 उषे समय यूगमें वे सव लर्यतत जल, शीत बौर उष्णानि रहति 
होते हए सर्वत्र विचरण श्रिया करते ह ॥४६। वह समन्त प्रजा घपनी इच्धा 
के जनुरूप आचरण करने वालो मानो चिद्धिमे अवस्थित होती हुई पृय्वौ के 
खसे टसन्न बाहार को ग्रदणक्रठो है ।४८)॥ उस टत युगेँ उन प्रजाजों 
मे धमं तथा मघम द्ध मी नदींये 1 उछ सखमयक्यौ वह प्रज। विके रदित 
थो। उने खवकी तुल्य यायु खुखभौरस्प या1 कटभी कुषुभी बापतमें 
मन्दर नहीं चा देना खचयुष का चमस्वश्रजायथो धथ । क्के आदिमे हत 


११४ ] [ वागु पुराण 


युग्मे उन प्रजार्ओंमे घर्मं मौर अघम कदमभी नदीथा! कृत युगमेव 
अपने-अपने भधिकार के अनुसार यजन करते ये ॥४९॥ 


चत्वारि तु सहुखागि वर्पाणा दिव्यसल्यया । 

आद्य कृतयुग प्राहु- सन्ध्यानान्तु चतुः शतम्‌ 11५० 

तत. सहसृशस्तासु प्रजासु प्रयितास्वपि । 

न तासा प्रतिवातोऽस्ति न दन्धन्नापि च क्रमः 1५१ 

पर्वतोदधिसेविन्ो ह्यनिक्रेताश्चयास्तु ताः ¦ 

विर्शोकाः सत्ववहुला एकान्तसुखितप्रजाः ॥५२ 

ता वे निकामचारिण्यो नित्य मुदितमानसा 1 

पशव पक्षिणश्चव न तदासन्‌ सरीपृपाः 1५३ 

नोदूभिज्जा नारकाश्चंव ते ह्यधर्म्रसूतयः । 

न मूलफलपूप्पर्च नात्ति ह्य.तवो न च 11५४ 

सवेकाममुख कालो नात्यथं ह्य.प्णणौतता । 

मनोभिलपिताः कामास्तासा सर्वत्र सर्वदा ॥५५ 

उततिष्ठन्त वृचिन्या वै तानिर्ध्याता रसोत्थिताः । 

वलवर्णकरी तासा सिद्धिः सा रोगनाशिनी ॥५६ 

दिव्यसष्पाते वार ह्मारवपं का अच इृत-युगक्हागया दषं 
चारसोदेपंशन््यार्मोेः क्हेगये दै ॥५०॥ उन सदृसो प्रथिते प्रमाभो 
उनका कोषह्रिपात नटो ह्ोनाहैन कोद दद्ध होतारम कोपर 
होता दै ५५१॥ हत यगन प्रजा दरद॑त ओर समुद्र बे सेवन करने वालो । 
शवा किन नित्रेत भोर भाय वासो पी । उम समय उनप्रजाभोर्भे णो 
अमावथा, एत्व को प्रवुरता धो भोर एकान्त गदते यृक्तधी ॥५२। ब्‌ 
यूममे सपरष्ठ प्रजा व्दल्दानृदून यावरण बरन वपो भोर निष्यहापः 
पमन वितवालीधो। उन समय परु, वषौ बोरतगगृव नष्ैच॥१४) 
थमे त जिनको उत्तत्तिदहोती दै एने नास्वौय वृष्य भोष्उदूमिखभीन 
रेष नमूनदा,नपृष्पये जोर न कहोपेत्याद्छवुषा धमेभौरत् 
"र गीषे ॥५५ कृत यद्रे उर समय पत्त कताव मूलदेनषा 


म. । सम्पा कायारम्म | [ १११५ 


कैल ध्रा । उस्र समयन सविर रप्णता थी सौरन शोतलता हौ यी ।उयसमय 
खन हृतयुग की प्रजाजा के समी कार भन के अभित्ययित्र ही सवंत गौर ख्दा 
होते ये १४५ पृथिवी म उनके द्वारा घ्यान की हई इसे उत्त वम भौर 
वणं कौ करने वाली उनकी सिद्धि उण्तीयो ओ समम्तगोगोके नाप्त करन 
वाली थी 1५६ 


मंसस्कार्ये शरीरेश्च प्रजास्ता स्थिरयौवना 1 

तासा वियुद्धात सङ्धल्ाज्जायन्ते मिथुना प्रजा ॥५ॐ 

सम जन्म च रूपस्च श्रियन्ते चैव ता समम्‌ । 

तदा सत्यमलोभश्च क्षमा तुष्टि सुख दम ॥५८ 

निविदेपा स्ता सर्वा खूपायु लीचचेष्टित 1 

अबु द्धिपूरवेक वृत्त प्रजाना जायत स्वयम्‌ ५८ 

अप्रवृत्ति कृतेयुगे कर्न॑णो शुभपापरयो । 

वर्णाश्रमन्यवस्थाषएव न तदासन चद्धर 1६० 

अनिच्छाद्र पयुक्तास्ते वत्तं यन्ति परस्परम्‌ । 

तुत्यरूपायुप सर्वा अधमोत्तमवजश्जिता ॥-ष्‌ 

सुखश्राया ह्यशोकाश्च उत्पथन्त छते युगे 1 

निच्यपरहृ्टमनसो महासत्वा महावला १६२ 

लामालाभी न तास्वास्ता मितामितरे परियाप्रिये .. 

मनसा विपयस्तासानिरीहाणा प्रवर्तते 1 

न लिप्तन्ति हि ताऽन्योन्य नानुगृहन्ति चव हि ॥1६३ 

ने सस्मार करने क योग्य चरीरो र द्वाद वह समस्ते प्रजा स््विर यौवन 
वाक्ती यौ । उनके विशुद्ध सद्धूल्प स मिथुन प्रजा उत्पन्न हृदं ।५७॥ उन सव का 
जननभौरस्पसमानहीयागौरवेसायहीमत्तेभीथ | उस्न समय स्वम 
सत्य--लोभ का ममाव--क्षमा-तुष्टि-सुख ओर दम वत्तमान या । स्प, अयु, 
शील बौरचेष्टितोके द्वारा सव विशेषता मे रहितकरदियथ। प्रजाओौँका 
गृत्त अवद्ध रे साय स्वय होता है ।\५६.१ इतयुग मँ पाप भौर युमगक्त कमो 
भे प्रवृनि का जमाव रहना या 1 उञ खमय सतयुगम चारो वर्णोवीर वासे 


११६ |] [ वायुपुराण 


आश्रमो को कौक्भौ व्यवस्थाही नही थी मौर नडहृतयुणमे वणं सद्भुत्तादी 
यी ॥६०॥। उस समय के लोग सब इच्छाभीरदरैपते युक्तन होति हृए ही परः 
स्परमे बरताव किया करतेये ! उस्र समयन तो कोई किसी से उत्तमा 
सओरन कोष यघम ही अयति उत्तमाघमके होने काको मवसरदहीनदीं षा 
अौर सब समान वय भौर रूप याये ॥६१॥ इृत्युगये प्राय समीपुवब 
गुक्त भौर क्षोकसे रदित ये बौर दसो प्रकार का जीवन लेकर उचत हैते 
ह। वे निष्य हौ ्रह्ट चित्त वाले, महान्‌ सत्व से सथूत मौर महाम्‌ वल वाते 
थे ॥६२॥ उस समय के व्यक्तियो के विचर मे कोर लाभ या कुं मलाभ 
अर्थात हानिदहै रसा होता ही नही चा। उनमेन कोई किसीका मित्रया 
मौरन कोड शरु अर्थात मिधाभिन्र का मेद-माव सर्वेथायाही नही । किसी 
काश्रिय ओर विसौ काञप्रियहोने की भावना भी चित्कुल नही थी बिना 
ईहा वाले उनका विपय मन से प्रवृत्त होता है। वे बन्पोव्यकी को निषा 
नही करते हैँ मौरन क्स पर कोई अनुग्रह्‌ किया करते है ।{६३॥ 


ध्यान पर कृतयुगे त्रेताया ज्ञानमुच्यते । 

प्रकृत्तं द्वापरे यन्न दान कलियुगे वरम्‌ ॥६४ 

सत्त्व छेत रजघ्चेता द्रपरन्तु रजस्तमौ । 

कलौ तमस्तु विज्ञेय युगवृत्तवशेन तु ॥६५ 

काल कृते युगे त्वेप तस्य सख्यानिबोधत । 

चत्वारि तु सहसि वर्पाणा तत्‌ कृत युगम्‌ ।॥६६ 
सन्व्याशी तस्थ रिव्थानि शतान्यष्टौ च सस्थया। 

तदा तासा वभूवायुतं च क्लेशविपत्तय ॥६७ 

त टृतयुगे तस्मिन्‌ सन्घ्याशे हि गतेतुवै। 

पादावशिष्टो भवति युगधर्मस्नु सर्वश ॥द८ 

सन्ध्यायामप्यतौतायाम.तकाते युगस्य तु । 

एव शते तु नि शेपे सिदिस्त्वन्तदधे तदा ॥६८ 

तस्याख सदौ श्रष्टाया मानस्यामभवत्तत ॥ 

सिष्धिर्न्यय दरगे तस्मि तम्नते श्र ५७ 


मानव सम्यता का नारम्म ] { ११५ 


कृतयुग मे सवे प्रधान च्यान मानागया है ओरत्रेतायूगयेन्तानका 
सव्रते मधिक्र महत्व होत्ता है.। इपर युग मे यज्ञ यागादि का सवते बधिक 
गौरव माना जाताथाबौर इस कतिधुगमे दानकी सवेधेष्ठता भनी गर्ह 
॥६४॥ गुगवृत्त कौ वता के कारण ते कृतयुग मे सत्वगुण- तरेता मे रजो- 
गुण--द्वापरमे रजोगुण यौर तमोगुण तथा कलियुग ये केवल तमोगुण का 
माधिपटय रहता है । ६५॥ इृतयुग मे जो काल होता है उसकी रख्या सगक्त 
सो । चार्‌ सहुत्त-व्ं का वह्‌ इतयुग होता रै ॥६६॥ उसके सल्या-सन्व्याय दिष्य 
माठ सौ वपं सच्पामे होति हं । उस समय उनकौ वायु रेसीहीहोतीथी करि 
खत कोभ केश तया विपत्तियां नही होती थी ॥६ ॥ इसङ़े नन्त उम 
हृतमुगके सन्ध्याशके चले जाने पर एक पाद से यवशिष्ट युग-घमं सभी भोर 
सै होता है ॥॥६८॥ अन्तकाल मे युगको सन्ध्या के भी व्यतीतहो जनि पर 
युभका एक पाद से सन्ध्या-घमं मवस्थित रहता है ॥ इम प्रकारसे कृनयुगके 
निशपहो जाने परर उष समय सिद्धि अन्तित हो जाती दै ॥॥६६॥ तव उष 
मानसी सिदधिकेश्रष्टहो जाने पर उसयुगनेत्रेतामे गन्वरमें कीहृई्मन्य 
सिद्धि होती दै ॥५७१॥ 


सर्गादौ या मयषष्टौ तु मानस्यो वै प्रकीतिताः । 
अष्टौ ताः क्रमयोगेन सिद्धयो यान्ति सक्षयम्‌ 1७१ 
कल्पादौ मानसी ह्यपा सिद्धिभवति सा कृते । 
मन्वन्तरेषु सर्वेप्‌. चतुयुं गविभागश. । 
वर्णाध्रमाचारछृतः कर्म॑सिदधोदुभवः स्मरन 11७र्‌ 
सच्ध्याङृतस्य पादेन सन्ध्यापादेन चां शतः । 
कृतसन्ध्याशका ह्यं ते वीक्लीन्‌ पादान्‌ परस्परान्‌ 1 
हसन्ति युगवमैस्ते त ए: श्रुतवलायुपं (1७३ 

ततः कृताश क्षीरो तु वभूव तदनन्तरम्‌ 1 

तरैताया युगमन्यन्तु कृताशमूृपिसत्तमाः ।७४ 
तस्मिगे क्षो कृताषे तु तच्छ््ासु प्रजास्विट्‌ 1 
कल्पादौ सप्रदृत्ताया्ने ताया प्रमुवे तदा (८५ 


मानव सम्या का वारम्म |] { ११६ 


ततस्तेनैव योगेन वर्तता मिथुने नदा ॥८२ 
तासा तत्ालभा वित्वान्धासि मास्युपपच्छ्ताम्‌ 1 
अकाले ह्या्तवोत्पत्तिर्ग भेत्पित्तिरजायत ॥८३ 
चिपयेयेण तासा तु तेन कातेन विना । 
प्रणप्यन्ति ततः सर्वे वृक्षास्ते गृहस्थिता ॥<१ 
एश वार होने वाली ही उष्ठवृष्टस पृथ्व तले जन से पदिपू्णेतया 
मथुक्त हो जाते पर उस समय उनके घरो मे सत्वित वृक्षो का प्रदरा हो गया 
र्या वृ्!दि लूब अच्छी तदद्‌ उत्तन हए 11७11 उनसे उन प्रजा कानी 
प्रकार का उपमोग सम्भनहौ जाना दै ।प्रोतयुग के बारम्म में श्रना उन वृक्षों 
कफो बरत्रावमं छाती हैं । ७६ ॥ दके अनन्तर मिक काल उतत्रेतायुगका 
व्यतीत होने पर उन्ही प्रजा कं दुं विपर्ययहो जाने से तद्र अचानक राग 
भौरलोमकेल्प्रवाला माय उत्त गया ॥८०॥ स्तरण षे जोविदठान्तमे 
जो बात्तेव होता ह उम समय वह नहोहोनाहैवो फिर योगे वल से उनको 
फिर मासँ म्यात्‌ प्रये मास मे वह तुं वम प्रवृत हरा मौर किर डमौ 
थोग से उस समय वे मिथुन मेँ प्रवृत्त दए है ।1= १८२ उवको उतर सपय मे 
त्तु घम होनेसे उन स्त्रियो का उपगमन करे भौर प्रवेक मातमँहौ करना 
चाहिए । लश्नाल मे घार्त॑व को उत्पत्ति गर्म को उत्पत्ति हद ॥1५८३॥ उक्त समय 
मे होने वाले उनकै विपर्यये उस खपय खव गरट्‌ सस्यिन वृक्ष नष्ट हो जाति 
ह 15४1 
ततस्तेषु प्रणष्टेषु विघ्रान्ता व्याकुतेन्द्रिया । 
अभिघ्यायन्ति ता सिद्धि सत्यार्भिघ्यायिनस्तदा ॥=५ 
प्रादु॑भवुस्तासा च वृक्षास्ते गृद्मप्थिता. 1 
वसख्छणि च प्रसूयन्ते फलान्याभरणानि च ॥न६ 
पेप्वेव जायते तासा गन्घवर्णरसान्वितम्‌ । 
अमाक्षिक महावीरं पुटके पुटके मधु 11७ 
तेन ता वर्तयन्ति स्म मूचे त्रेतायुगस्य च 1 
हृष्तष्टास्वथा सिद्धया प्रजा व विगतज्वरा ॥द८ , 


१२० ] { बाय एुसष 


पुन. कालातरेणव पुनल्लोभवृतस्तु ता 1 
वृ्षास्तानू पर्मगृह्न्त मधु वा माक्षिकं वताद्‌ ॥प्६ 
तास्रा तना प्रचारेण पुनल्लोकिङतेन वं । 

प्रणष्टा मधुना सारद कल्पवृक्षा क्वचित्‌ क्वचित्‌ 11६० 


तब उम समय उन बक्षोके प्रनष्टहो जाने परवे वहत हौ भ्रान्त ए 
उनकी समस्त इन्द्रिया व्याकुलित हो गद तव सत्थ के जभिध्यायौ उन्होनि उष 
सिद्धिका ध्यान शिया ।॥२१५॥ फिर तिद्धिकेष्यानसतेवे सद गृहमे रहने वाति 
यृक्षप्रादुभ्रठहो गेये) ओरवे म्य एव तथा अनेक घ्राभरणों फा प्रपव 
त्रिय षरते ह ॥८६। उन प्रनाओं के उन्दी वृक्षो गन्ध, वर्णं भोर रषद 
युक्त महद्‌ वीयं युक्त पुट-पुड में गमाक्षिक मधु उसत्न होता है 1०७} वरे तुग 
षे भारम्म कलमे सभो प्रजा उसो काव्यवहार करतेये। इसतेवे सवप्रम 
दृशु गोर उर्दि पे दिय्ठ ज्र वर्या हुख रहित छे परमे 95९ र 
फरक पराव हौ लोम से यावृत हृए्‌ उन वृक्षो का परिग्रूण करते 
मौर दसपुर उनका मयु अववा मालिकरभौ प्दणकरते है ॥ ८९ ॥ उनके 
उतसोश्दटृधपवार्ठे फिरङ्टीषदीये कत्यवृक्षम्रपुके सापो षाव 
म्टष्ो यथ ये 41६०1 


तस्याेवाल्पत्तिष्टापा सन्ध्यापातवणःतदा 1 
श्रावं तदा ताता द्न््रान्धभ्युप्वितानि तु ॥ १ 
शोतवानातपस्तीद्रस्ततेस्ता दुःखिता भृशम्‌ ॥ 
ृन्रंस्ला पोडपमानापस्तु वक्रावरणानि च ॥द२्‌ 
शृत्वा दन्द प्रतीकार निकेतानि हि भेजिरे! 

पूवं (िषामनारारत अनिकेनाघ्रपां न्रृणम्‌ ॥1६३ 
यदायोग्य ययाप्रीनि निवैतेप्नवतन्‌ पून 1 
स्यन्दसु निम्नेयु ववनेषु नद्रोपु ष! 

भधपन्ति क दुगाति परन्वान शाश्यनोदकम्‌ ॥२३ 
यथापाग यथाकाम सनेव विपु च्‌। 
कारश्थण्मे निदिता व्रतु सहाप द्ादृपय्‌ ५९ 


मानव सम्यताका गारम्म ] {[ १२९१ 


ततः संस्थापयामास मेटानि च पुराणि च। 

ग्रामाश्वंव यथाभागं तथेवान्तः पुरापि च 11 वेद्‌ 
तासमाएयामविष्कम्भानु सन्रि्न्तयाणि च 1 
चक्‌स्तदा यथाभ्ाज्ञ' प्रदेशः सजितस्तु तं: ॥1 


मंग्टस्व प्रदेशिन्या न्यासः प्रादेश उच्यते 1 

तालः स्मृतो मध्य्रया गोकणंश्चाप्यनामया 11द= 

कनिष्ठय। वितस्तिस्त्‌ द्ादशागल उच्यते । 

रस्निरंगूलपर्वाणि सघ्यया त्वकविशतिः ॥ ६६ 

उस समय सन्व्या-कातकेवारणसे जोकि तन्व्या का थोडा-माभाग 
हौ तेषरह्‌गपाया उन प्रजाभोमे ददो को उत्पत्ति हुई भर्थावु "सुखदुः 
भादि के जोडे उत्पन्न हो गये ।1६१॥ तवत्त वे अति तोत्र शीत, वात, भातपके 
हृनदोत्ते बहुन उ्पीडित हए ओरवे परम पीडा मान होकर उन द्धन 
वचाव करने के जये धपने आात्ररण करने लो । €२॥ पुवदुः्वादि दृष्टौ का 
प्रतोकार करके वे सव धरो मे निवाम करने लगे जिसे क्गीततता, उप्णतादि से 
पू चचावहो जावि । मकरे धूववे सभी स्वेच्याचारीये भौरर््रिसौीभीषर 
का भाश्चय लेकर नदी रहने ये ॥&३।! योग्यता मौर प्रीति के अनुभार फिर घय 
मे निवासत करते हृ रहने लगे ! मरषन्वाजो मे, नीचे स्वानो मे, पवतो मे भीर्‌ 
नदियौ मे जह करि निर^तर जल विद्यमान रहता हवे रेते दुर्गो को अरा पूणं 
मुरक्षित स्यानोंका बाश्रयलेतेये॥ षे जस्ामी योगहो जौरजैसी मी 
ष्च्छाहौ उसो के अनुमार सनतल भौर विपमदल में उन्दने शीत सौर उप्णतद 
काकारणकरतेकेलिपरे अपने धू्यौँकानिमणिकरना नारम्भक्रद्ियाथा 
1६५॥ इसके पष्वात्‌ वेदो तभा पसे स्वाप्ना को स्थापनाकी चौ मौर भाग ङे यनुत्रार 
ग्रामो कौ जौर अन्तवुरो की स्याप्ना कौ गर यो १६६॥ उनके मायाम भौर 
्रिष्कम्भो को तयां अन्दर कै सन्निवेशो का बुद्धि के अनुत्तार निर्माण जिया बौर 
उम समय उष्टक द्वारा श्रवेण! यह संज्ञारी गदंयथो ॥६७॥ (प्रदेखिनी 1 
सगुण ङा व्याय श्रादेश' कटा जता है! मघ्यमामे वाल" नौर अनान्किसे 
“मोक्णः कहा ग्या \ ६८ ॥ कनिष्ठिका से "वित्तस्ति' जोकि द्वादष्मगुल कटा 


१२२ | [ कायु शुराष 


जाता दै} वगृतियो ॐ षवं जौ सस्या मे दकम होने है (लिकः 
दै ॥६६॥ 


चत्विएतिभिश्चव हस्त स्यादगुलानि तु 1 

किष्नर स्मृतो द्विरतिनस्तु द्विचप्वारिथदमुलम्‌ १०० 
चतुरंस्त धनुरदण्डो नाचिकायुगमेव च 1 

धनु सहं दे तन गव्मूतिस्ते विभाव्यते 1१०१ 
अष्टौ धनु सद्स्राणि योजन तेनिरुच्यत । 

एतेन योजनेनैव सन्निवेज्स्तत कृत ॥१०२ 
चतुणमिव दुर्गाणा स्वसमुत्यानि तीयितु । 

चतुर्थं टतिम दुर्गं तस्य वक्ष्याम्यहं विधिम्‌ ॥१०३ 
सौधोच्चवप्रप्राकार सवतश्चातकवृतम्‌ 1 

तदेव स्वस्तिक्टार कुमएरीपुरमेव च॒ (१०४ 
श्रोतक्षीसह्‌ तदुद्रार निखात पुनरेव च । 

हस्ताष्टौ च देश घ्रे्ठा नवाष्टौ वाऽ्परे गता ॥१०५ 
गटाना नगराणाच ग्रामाणाचैव सवेश । 
त्रिविघानाच दुर्णाणा पवंतोदकवन्यनम्‌ ॥१०६ 


चौबीराअगुलका दस्त होतादै दो रत्नियोका नकु हठा 
जोकरि वयावो अ पुल का होना है ॥१००॥ चार हस्त का धनु होता है बीर 
दो नालिवा दण्ड होता है। दो खहतर घनुभ कना गब्ुति होता है ॥१०१॥ शट 
टय धतुर्भो षा एक योजन कहा जानाहै 1 इन योजन से ही सतिवेश या 
णयाय 1१०३ यार युगाय तोनतो बपने घे उत्यते ये ओर पौयादु 
कृतिम याजिचत्री विपि षौ बह्वा हं ॥१०३५ सब बोर से वातौ मे 
आशू ऊच प्रा्प्काता सोधहोता है) उमे एक स्वनति इार हत्त 
है मौर दमाय पुर होता है 1१०४५ श्रोतमी के साय वह्‌ द्वार नितात (पुय 
ह्या} ह्येता दै ८ वह्‌ अठ दाय, दरधय यक्वा नी हाषवा ्रषरे माकोहै 
॥ १०८ तेरोदे, नपय वे भौरप्रा्मादै त्दभोरगे भोरततोन प्रापक 

इणो के प्नोरव वपव दता द ११०६५ 


मानव स्म्यताका वारम्भ | [ १२३ 


त्रिविवानाचदुर्गाणा विप्कम्मायाममेव च 1 
योजनाना विप्फम्भपष्टमागाद्धंमायतम्‌ ९०७ 
परमाद्धद्धिमायाम प्रागुदक्‌प्रवर पुरम्‌ + 

छिन्नकर्णं विकरणन्तु व्यञ्चन इ शसस्थितम्‌ १०८ 
वृत्त होन दीर्घश्च नगर ने प्रशस्यते । 
चतुरसूर्ेव दिक्स्य प्रशस्त वे पुर प्रम. ॥१०६ 
चतुविश्तिराद्यन्तु हस्तानष्ट शत परम 1 

मन मध्य प्रशर्मा त स्वो ष्टविवजित्तम्‌ ॥११० 
अय किष्करुशतान्यप्टो प्राहु स्यनिवेशनम्‌ । 
मगर!दधविप्कम्भे वेट ग्राम तत्तो वहि ।११९॥ 
नगराद्योजन ब्रेट चेरादुग्रामोऽदधं योजनम्‌ । 
दवि्छोश परमा सीमा शषोनसीमा चतुदधेनु (११२ 


तीनो प्र्रारके दुगं का दिष्दम्म त्रि्तना भायाम होता है । योञ्नो 
के अष्ट माम ओर मर्धं माग चाग्त विष्कम्भ टता दै ।११०७॥ दरमा्ं के जघ 
मायाम वाला रिते उदक ते प्रवर पुर, दित कणं, विकर्ण, व्यजन, इश. 
सस्थित, वृन्त, हीन मौर दयं नगर प्रशस्त महीं कडा जता दहै । चारोभोरसे 
सिधाई वाला दि्ानोमे स्थित र परम प्रशस्त होता है ॥१०८-१०६॥ 
जिनका आद्य चो्रीस टय ओर प्र अठ्सौतया स्र मौर उट पते रहित 
मध्यमाग हो उपरी प्रशमा कस्ते है ॥११०॥१ इसके गनन्तर गाटसौ क्रतु 
कामय निवेशन कदा गयाहै । नगर षे वाघा चिष्करम्मसेट होवाहैयौर 
उसि वाहिर प्राम होना है ।१११॥ नमरसते एकः मोजननेट गौरखेटप्ति भाषा 
योजने प्राम होक्ताहै। दो कश परम नमा दात मौर चाग धनुपप्षेन कपे 
सीमा होनी है ।११२॥ 

विशद्धन्ुपि विम्नीर्णो दिशा मार्गस्तु तैत 1 

विशदधनुग्रममागं सीमामार्गो दञचैव तु ॥११३ 

धनर पि दश विस्तीर्णं श्रीमान राजपथः स्मृत । 

नृवाजिस्यनानानोमसम्वाघ्च मुंसचर भप 


{र ] { याषुपृगन 


घनूपि चैव चत्वारि शाग्रार््यात्तुरतदरताः। 
गृहरथ्योपरय्याश्च द्िकाण्चाप्युपरथ्यकाः 11११५ 
चण्टापयप्चतुप्पादश्चिपदस्च गृदान्तरम्‌ 1 
कृत्तिमारगास्तवद्धं पद प्राम्बश पदिक स्पत ।११६ 
अवस्कर परीवाह पदमा समन्ततः 1 

कृतेषु तेपु स्यानेपु पुनग्चक्ुं दाणि गै ११७ 
यया ते पूरवेमासन्दै वृक्षास्तु गृहसस्यिताः । 

तथा कतु" समारद्धार्चिन्तपित्वा पुनः पून. ॥११८ 
बक्षाश्चैव गता. शाखा न ताश्चैव परागताः । 

मेत उदंगताप्चान्या एव तिर्यगाः पुरा 1वेषृय 


घीस धनुष विस्तार वाला उन्दने दिशाओ क्रा मामं वनापा, सीस धनप 
बा विष्तेणं ग्राम कामागं ओौर दश घनुप प्रस्तार बाला मीमा कामां 
वेलापाथा॥११ ॥ ददा धनुप विस्तार वाला शोमागुक्त राजपयक्हा ग्या है 
जओकरि मनुष्य, अश्व, रथ, दैस्नी आदि का वाधा-रहित सचार वाला होता ह 
1१ १४॥ चार घनुप के विस्तार वाली हौ शाला रथ्या { गलौ ) उन्होने बनाई 
इमी प्रश्यार से गरृहरथ्या, उेरथ्या, दिका ओर उषरय्यङ्ना, पण्टाप्रथ, चतुणादः, 
त्रिपद, गृहान्तर, वृत्तिम, भद पद, प्राश ओर पदिक कहा गथा है ११५ 
११६॥ यद मत्र चारों मोर अवक्कर परीवाह उन स्यानोषर करने परिरं 
घर श्ियि 11११७॥ जित तरह ये पिले गृहे सस्थित वृक्ष ये पुन -पूनः चिन्तन 
करवैसा ही करना आरम्भ कर दिषा ५1११ श्ालारे भौर वृक्ष गये वषे 
परागत नही हुए 1 सलिये ऊपर की भोर गये हए द्रे थे इती प्रकारे 
पदितने तिस्ये जानि वालेये 11१६ 

वुद्धाऽन्विप्यस्तया न्यायो वृक्षशाखा यथा मताः । 

तथा इ तास्तु तै शाखास्तस्माच्छालास्तु ता. स्मृताः १९० 

एव श्रसिद्धा शाखाभ्यः शालाश्चव गृहाणि च! 

तस्मात्ता वै स्मृताः शालाः शालात्वं चन तासु तत्‌ ।॥१२१ 

प्रसीदति सनस्तामु मन प्रसादयन्ति ताः 1 


मानव-षम्यता का आरम्भ |] [ १२५ 


तत्मादुग्रृहाणि शालाश्च प्रा्तादाश्च॑व सं्निताः ॥१२२ 

कुत्वा इन्द्रोपघातास्ताम वार्तोषायमचिन्तयनु । 

नष्टेषु युना सार्धं कल्पदरक्ेपु वे तदा 1 

विपादन्याकुलास्ता वै प्रजास्तृष्णाघुधात्मिकाः ॥१२३ 

ततः प्रादुवेमो तासां सिस्र तायुगे पुनः; 

वात्तयित्ताधिकाप्यन्या वृत्तिस्तासा हि कमतः \\१२४ 

तानां दृरस्युदकानीद यानि निम्नैर्गेतानि वु 1 

वृष्ट्या तदभवत्म्रोत खातानि निम्नगाः स्मृताः ॥१२५ 

एव नयः प्रवृत्तास्तु हितीये वृष्टिसर्जने । 

ये परस्तादपां स्तोका आपन्नाः ृथिवीतते ॥१२६ 

अपाम्भूमेष्च स्योगादोपध्यस्तायु चामवन्‌ । 

पुष्पमूलफलिन्यस्तु मोपध्यस्ता" प्रजश्निरे १२७ 

अफालकृटाश्चानुता ग्राम्याऽरण्याण्चतुर्दश । 

ऋतुपुप्पफटाश्चेव वृक्षा गुल्माश्च जज्ञिरे ॥ २६ 

भूद समक्ष कर खोजन क्रते दृएशावंभाही न्याय जमाज्रि वृक्नमे 
रहने वालो पातारः होतोर्है। उनकेदहागयाको हृईः णाघाए्‌ $ दषे वे ताले 
कहलाई गई" है ॥१२०॥ हत प्ररारसे शावाओतते ्ाताप्ः मौर ग्रह प्रिद 
हए । षमोतेवे शात्‌ दलाई भोर उने वह्‌ शाल्व पा ॥१२१॥ उनमे 
भन प्रसन्न होता मौरयेमन क प्रसादयृक्त क्रो मह) पसीद गृ 
भौर णालाते' प्रमादे मन्ञासे युक्त टह ॥1१२२॥। उनद्र्धोवे उग्षार्तोषो 
करके मर्यान्‌ सुपदुखादि स्वन्पजो वहूनमे सकषारमे इन्द (जोष) है उदा 
निवारण बरङ्गे अर्यात्‌ गृहादि भ) निर्माण करदे यवाय केरे भव जीविवाके 
उपाय के विषयमे चिन्तन व्रि म्यान्‌ रोजी मे चते, यद धिचार त्रिया । 
उत षमय मघुद साथ क्स्पदृशोक नटो जननि पर न्रूसी-व्यासी ध्रजा विषाद्‌ 
भेभ्यादरलटो उदी ॥१२३॥ इग अनन्तर उन प्रजाडनोषो दिरिपरेता युम 
मे वृत्तिष्िरिका प्रादुरभावि हुमा । उनो च््टाते जीविका ओौरमर्पङे 
माघन्‌ रने बाती घ्न्य वृत्तिभी प्राहुभूत हुई ५॥१२४॥ तववृष्टिकाजो 
जनयायोहिपठोरर निम्नस्यनोम चला मपाया, वृष्टचयरपोवदहो 


१९६ 1 {[ कादु-दुतण 


गयाबौर्जौ चत अर्यान्‌ गहराई वते मुदे हुएये वे नदियां कलाई ॥ 
1१२५॥। इन तरह द्वितीय वृ के नर्जन मे नदियां प्रवृत्त हुई । जोज्लोके 
परेष्छोटौ थौ मौर पृथ्वो तनमे प्र्तहृई घौ 1१२६ भूमि मौर जलके 
सयोग रे उनम यौपपियी सम्नन्न हई वे मोपा फुल-ूुन ओर फलो वासी 
उल्पत्त हृद थो ॥१२०॥ जे हनष नही ऊति येषु ओरवोपेग्येहै एमे 
परामके चौदह थरण्यये जोकि हनु के पुष्य भौर फनेते युक्त दक्षो को भौर 
गुल्मः को उत्यत्त करते थ ॥१२८) 

प्रादुभविश्च त्रेताया वार्तापामौपधस्य तरु 1 

तेनौपधेन वर्तन्ते प्रजास्तायुगे तदा १२५ 

तत" पुनरभूचासा रागो लोभश्च सर्वश । 

अवश्यम्भाविनार्थेन ते तायुगवशेन तु ॥१३० 

ततस्त] पर्यगृह्णन्त नदीक्षेत्राणि पर्वेतान्‌ 1 

वृक्षाद्‌ मुमौपवीश्चेव प्रसद्यम्तु यथावल्‌ १३१ 

सिद्धात्मानेस्तु ये पूरव व्याख्याता प्रास्ते मया। 

ब्रहणा मानवास्ते वे उवन्ना याअनादिह्‌ ॥१३२्‌ 

शान्ताश्च शुप्मिणश्चंव क्मिगो दुखिनस्तदा 1 

तते प्रवर्तेमानास्ते त्र ताया जज्ञिरे पुनः 11३३ 

प्रेता युगम जीविकावे कायं में मौपधका प्रादुरभावि हया । उस समप 
परेता युगमेप्रना उम मौपधतेख्र भी रोजी चलानी थी ॥१२६॥ मेतायुष 
मेदोनि वान्ते भवश्यम्मावो अर्थंस्षे फिरने प्रजा-जनोमे सनीमोरसे राप 
भौीरप्नोमपुन हो ग्रयाया॥१२०) मके गनन्तर उष्ोन नदीकेषर्तोँषौ 
मोद पर्वतो का परिग्रहण शिया बौर दल के अनुसार वृजी ओर गुत्मौपधिों 
ष प्रसहनं तिया । प्रडीदेस्पमे रहन याली भौपयि गुत्मौवपि शटी नती 
है ॥१३९॥ जामिद्ध धाश्पावतेम वेयेवर्वेने पिनि प्रह्वे षतादिषै 
अर्थान उनको भनौ-मतिय्वारया बरदीयो । यहाँपर पोजनोब्र्माये 
द्रायजो उन्धश्रहूए्‌ ये मानवे ५॥१३२॥ उम समय शान्त-ुप्मी ष्म वरन 
यात्ेभौर्दुपमे युतः दमे पश्यात्‌ पुन श्रव्तमान होने दए चेता युपर 
उन द\॥१३३॥ 


मानव-एन्यता का यारम्म ] { १२७ 


ब्रह्मणाः क्षत्रिया वरया चुद्रा द्रोहिजनास्तवा 1 

भाविताः पूर्वजानीप्‌, कर्मभिदच युभायुमैः ॥१३४ 

इतस्तेम्यो वलाये तु सत्यशोला द्यहिसकाः 1 

चीतलोभा जितास्मानो निवसन्ति स्म तेय्‌, वं ॥१३५ 

प्रतिगृह॒ णन्ति बुरवन्ति तेम्यश्चान्येऽल्पतेजक्च । 

एव विप्रतिपन्न प्‌. प्रपन्ने श्‌ परस्परम्‌ ॥१३६ 

तेन दोपेण तेपा ता ओपध्यो मिषता तदा । 

श्रणष्टा यमाणा वै मुष्टिम्या स्तिकता यथा ॥१२५७ 

यग्रसद्भूगुगवलादुप्राम्यारण्यादचतुदष 1 

पालं गृह्ुन्ति पुष्ैष्च पष्प पनं श्च या" पुनः ॥1१३८ 

ततस्तासु प्रणष्टासु विश्रान्तास्ताः प्रजास्तदा । 

स्वयम्मूच प्रभु जग्मु क्षुधाविष्टाः प्रजापतिम्‌ ॥ ३ 

वृत््यर्थममि तित्नन्त अष्दौ ब्रतायुगस्यतु 1 

ब्रह्य स्वयम्भूर्भगवान्‌ ज्ञात्वा ताया मनी पिनम्‌ ॥१४० 

प्राह्मण-क्षत्रिय-वेष्य-ूद्र भौर द्रोद करने वाति मनुष्य शुभ वीर अुभ 
कम्मे पूरवे जात्यो मे गावत हेतेटृए उन्न हए ॥१३४५॥ प्हासे जो 
उनसे वलवान्‌ च-रप्यके स्वमाव वाततेये-ट्माषा वमेनक्रने वतिय 
श्चपनी आमा जीत्त लेने वातत भौर वीत्तेलोम भर्या खोभसे रह्तिये, वे उनम 
निकाम कर्ते ये ।1१३५।॥ उनसे मन्य अत्पतेन बाते प्रतिग्रहण न्सतेदु। म 
प्रकार से मापममे विप्रत्तिपग्र ओर प्रपश्चो मे रटेते # ,१३६॥ उन सदङेउम 
दोपे वे मव जौषयि्णां उम समय मृष्टिोमे निक्ताकी माति ह्धिपमाण मोर 
प्रनष्टो यई 14250 नरूमिन सवका दाकर ल्द! यूय व्लसे चौद्ट 
ओोप्राम्ययस्प्ययेवेपुर्पोरेक्लबोमौरप्रोनेपुष्यकौ प्रहणम्र्तेद॥ 
॥१३८॥ यङ पश्चादु उन समीङेप्रन्टहो जान पर डम प्य सवे प्रजा- 
श्नन विश्रान्त होत दए, गूम से याविष्ट होति हए प्रजापति भ्रु स्ववम्मू कै पान 
भाय ॥१६६॥ प्रेता यृगङ्ेयादिय जोविङाके सिव द्या क्रते ट्ष्‌ उनक्ै 
देवर स्वयम्भू मध्यान्‌ ब्रह्या ने उने वुद्धि स्थिव व्िचारषो जान लिया 
धा ११४० 


१२८ ] [ वायुपुराण 


युक्त प्रतयक्षटृष्टेन दशंनेन विचायं च 1 

ग्रस्ता पृथिन्परा मौपध्यो जवि प्रस्यदुहःपुन. 1१४१ 
कृतवा वस्स सूमेर तु दुदोह पृथिवौनिमाम्‌ । 

दुम्धेय गौस्तदा तेन बौजानि पृथिवोतले ॥१४२ 
जज्ञिरे तानि वीजानि प्राम्धारण्यास्तु ता पून 1 
ओपषटय फलपाकान्ता सक्ततक्तदशास्तु ताः १1१४३ 
व्रीहयश्च यवाश्चैव गोधुमा अणवस्तित। 1 
प्रियद्धवो ह्य.दाराष्च कारूपाश्च सतीनका ॥१४४ 
मापा मुग्दा मसूराश्च निष्पावा सकूुलघ्थका 1 
आदक्यश्चणकाश्चेव सप्तसप्तदशा स्मृता ११४५ 
इत्येता भओपधीना तु प्राम्पाणा जातय स्मृता- 1 
भोपध्यो यज्ञियाश्चैव प्राम्यारण्याष्चतुह श ११४६ 


प्रत्यक्ष दृष्ट दर्शन से युक्त वात का विचार करब्रद्याजी ने यह्‌ जन 
लिया कि पृथिवी ने समस्त भौपधियो कौ ग्रस लिषाहै भौर उनहोनि पन भरति 
दोहन किया ।1{४१॥ ब्रह्याजी ते सुमे प्रवतत को वद्लडा वनाङ़र इष पूथ्वौ का 
दोहन किया था । इससे उस समय दोहन की हई यह गौ ने पूथ्वी तल मे बीरों 
को उत्पन्न किमा भौर उन वीजोने पुन वे प्राम्यारष्य उत्पन्न क्रिय ओर सात 
सात दशा वली ओपधियां जिनमे फनो का अन्त तक पाक होता था उपपत्र 
हृद । ब्रीहि-यव-गोघरूम-अणु-तिल-उदार भ्रियद्ध.--कास्प-सतीनक--माप 
( उदं }~मुष्ट ( मूंग }-मद्ुर भौर दुलत्य के सहित निप्माव-अादका-चणक 
ये सात सात दका वालिकहगयेर्है य॑ सब उत्पन हए ॥१४९।१४२॥ १४ 
(१४५ ये सव प्राभ्य गौपविपो की नातिफौ क्वलाईं गरईदै) बौर भो 
याक्लिप मौपयिा हके प्राम्यारण्य चौदह ह 1 ४६॥ 


प्रीहय. सयवा मापां गोधूमा अणवत्तिला । 
प्रियगुतप्तमा ह्यते अष्टमी तु कुलत्थिका (१४७ 
श्यामावास्त्वय नीवारा जत्तिला सगवेधुकाः 1 
यु स्विन्दा बेखुयवास्तथा मकंटकाश्च ये ॥॥१४८ 


मनव मम्यता का करम्भ } [ १२६ 


ग्राम्यारण्या. स्मूवा द्यं ता ओपय्मस्तु चनु घ । 

उत्पन्नाः प्रथमा हय ता मष्दौ त तायुगम्य तु १1१७६ 

अफानक्कृष्टा जोपन्यौ व्राम्यारण्नास्तु सर्वेशः । 

वृक्षा गुल्मलतावत्नीवीद्घस्तृणजातयः {1१५० 

मेः फलैश्च रोटिण्यो ग्रहन पृ्पश्व जायते । 

प्व दुग्धा तु बोजानि यानि पूर्व स्वयम्युवा (14५ 

चछनुपुप्पफलास्ता व योपध्यो जननिरे वह्‌ 1 

यदा प्रमृष्ट भोपत न प्ररोहन्ति ना. पुन १५२ 

नतः घ तासा वृत्ययं वात्तोपाय चकारह! 

ब्रह्मा स्वयभर्भगवान्‌ दृष्ट सिद्धि तु केमजाम्‌ ॥ १५३ 

ततः प्रभृत्ययौपध्यः दृष्टपच्या स्तु जन्निरे 1 

सतिद्धायान्तु वात्तयिन्ततस्नामा स्वयमूवः। 

मदि. स्पापणमास पयारच्छाः परसप्मु +1 

प्रहि, यव, माप, गोधूम, वपु, तिच, सातवीं प्रियद्ध. मीर वाटी 
वुलत्यिा~पयामाक, गोवर, जतिता, समवेधुङ्ा, बूरेविष्द, वेषुपव योर्‌ मर 
ये श्रीद मोपधियी प्राम्यारण्य नायसे कहो गदं ॥ प्रेतायुगबे गदि 
पिनिये दी उन्न दई थो (१८५।११.८८॥१८६५ हय कौ कालदेिजोभ्रूि 
नष्टौ जुती दई दै, उमे दतै वाली ये मोवधि्ां है शौर म्ब बोर प्राम्पारष्य 
ह जिनमे वृत, गुम, सना, वत्नी, व्रिद्ध थोर वृणङी जादि वाती भौवधिं 
होती ह ॥१४अ स्वयम्नरूदे दाग दृहीहूंपृष्यौने जो वीजद्िखन पं 
भद्र वदन्न दए मोर मूतस्ठ भौर पृणोयेवुक्त दए उदत्र दत टँ ॥१५१॥ 
अदनीच्छनुमे स्न मोर पृष प्रदान्‌ चरने वानो भोपप पटी उप्र दृ । 
जव बौपपियोप्रमृष्टदोग्दे तो रिरिनदौ रमतो दै 14६२४ एमे यनन्तरे 
चन्टने ठन प्रदाजरनोक्चे वृदे विवि उयाव श्वि वोर भगवानु म्वयम्मू ब्रह्मा 
नि उनद्िकर्मोः ते उत्तर टौत्रे याप्रीश्द्िको देवा 1१५८३) तवमे सेद्‌ 
शष्ट पच्या अीययियां पन्न हरं । इनके अनन्वेदत्न पराके अनी मी 
जोधा कै मली-मातति किदो जाने उट भगवानु स्ठवन्दु कं द्रासि परप्रमे 
जेषे मारम्मदौगदेो दद्‌ मर्यादा स्याति दर्म) 


१३० 1 { पयु 


ये वै परिगृहीठारस्तार्यमा सन्विवाटमरय 1 
पतरेपा एतत्राणा स्यापयामाम प्षत्रियानु (१५१५ 
उपतिष्ठन्ति ये तान्व यावन्तो निर्भयास्ठ्या। 
सत्य ब्रह्य पया भूत ्र.वन्तो ब्राद्धणाद्च ते 1१५६ 
ये चा्येप्यवलास्तेषा टौग्यस ्मसस्थिता । 
कीनाशा नएयन्ति स्म पृथिव्या प्रागतन्दिता । 
वैश्यानेव त्‌ ताना कौनाशान्‌ वृ्तिमाधवान्‌ 1१५७ 
शोचन्तश्च द्रवन्तए्च परिचर्या ये रठा 1 
निस्तेजसतोऽ्पवीर्याश्च बूद्रस्तानश्रवीत्‌, स. ॥॥१५८ 
तेषा कर्माणि धर्माश्च ब्रह्मा तु व्यदधात्‌ प्रमु. । 
सस्थितो प्रकृताया तु चातुर्वणेस्य सर्वेश. ॥१५६ 
पुन प्रस्तु ता मोहात्‌ तानं घ्मस्तिरफालयन्‌ 1 
वर्ण धर्मेरजीकन्त्यो व्यहयन्त परस्परम्‌ ।॥१६० 
शर्या तमर्थ बुद्धा तु यायातय्येन वे प्रमु ॥ 
क्षपियाणा बल दण्ड युढमाजौवमादिशत्‌ (१६१्‌ 
याजनाध्यापन चैव तृतीय च परिग्र 


बरा्रणाना विधृस्तेपा कपरभ्वितान्यथादिशन्‌ 1१६२ 
उनके परिगृहीता विधात्मक पे । दुसरो क प्राण क्रे वत क्षतिरय की 


स्थापना की । उनक्रा ओ उपस्वान करते है वे पाप्रून र्य ब्रहम को चती 
वाति ग्रह्णयेजो कि निभपर रहा फते ये अर्वाच्‌ सन्म के सरक्षण द 
किशीभीवाया भादिकामयनहा रहना था ॥१५६॥ उको भी ब्य 
बन रहिये बौर वैश्य कमो मे सम्वितिये कहल पृय्वोमे अगाद 
नाथकरदेतेणे( उन वृत्तिकसाषवंष्यो को कीना दही कहते ह ॥११५ 
णोत करते हुए-दव दते हए जो पप्विर्याभो भे निस्त गह ह गोर नोते 

हीर भौर त्रस्य वीयं वाने ह उदे वह 'ुदः इम नामे वोलता घा १५५ 
प्रमु प्रहमायो ते प्रात सस्विति मे ठव भोर चे चतु ॐ अनुार उनके भमो 
की भोरधर्मोकौ व्यदस्वाक्ररदी धौ (५१५६ फिर न प्रजाके उता" 
मोहद उन धमो का पालन ऊर दृद वणो के, वर्मा के दाया जी 


मानव सभ्यता क्रा जारम्न [ ६.१ 


चरतीति हृए परस्पर म विरोध केरे वानि दहो गय ॥१६०॥ प्रु ब्रह्माजोते उष 
अर्थे को मलौ मांतति टीकर ठीक नमन करक्षत्रियोका जीविका वल दण्डडौर 
युदरकरना वतलाया घा 1१९१ यङ्धादिका य्न इराना वद ओर शर्म 
शा पढानाच्यानन प्रण क्रनाय तीन वमं उनब्रह्णो बे विभृ श्रौ ब्रह्म 
जीते दद्राय ये ॥१६२॥ 


णजुपाल्य च वाणिज्य कृपि चैव विरा ददी । 
चित्ाजीव भृतिञ्चव दृद्राणा व्यदयान्‌ प्रम्‌ १६३ 
सपमान्यानि त कर्माणि ब्रहुक्षतरवि्ा पुन । 
यजनाध्यवन दान सामान्यानि तु तेष्‌. च ।(१६४ 
कर्माजीव ततो दत्वा तेभ्यस्चव परस्परम्‌ । 
सोकान्तरेप्‌, स्थानानि तेपा सिदयाऽवदव्‌ प्रभु ॥११९५ 
प्राजापत्य ब्राह्मणाना स्मृत स्यान कियावताम्‌ । 
स्थानर्मन््रक्षत्रियाणा सुग्रमेष्वपलाधिनाम्‌ १६६ 
वैश्याना मारत स्यान स्वघर्ममूपजोविनाभ्‌ 1 

गन्धदं शूद्रजातीना प्रतिचारेण तिष्ठनाम्‌ १९८७ 
स्थानान्येतानि वर्णाना व्यत्याचारवता स्वयम्‌ । 

ठत स्थितेषु, व्णेष्‌. स्वापयामास चाधमान्‌ ॥१६द 
गृहस्य ब्रह्मचारित्व वानप्रस्य सभिन्षुकम्‌ 1 
जाश्वमाश्चतुरो ह्ये तान्‌ पू्वेमारयापयन्‌ प्रभ 1१५२ 


पेशुश्रो का दालन करना व्सापार करना नौर ङ्वका काम क्ग्नाये 
नकम के कलन गा व्यवन्याब्रदाजोन वेशा लिये ञो ओर यही गाद 
दयप { भ्रमु न दत्तकार्क् द्वारा राजी कमान नौक्तोक्टना यक्मंगृ्रोके 
स्न किए वठाय च ॥१६३॥ ब्राह्यण, क्षत्रिय ओर वेश्योके साम-यक्म 
बय यञजन डरना, स्वय अध्ययन करना बौरस्वयदान देनाधा प तीनो 
मंउनदीनोमे ममानस्पच द्मे ये ५१६४५ इम प्रद्र इन पघ्वङेक्म 
गर माजीविज्ञा की व्य्दत्या क्र मौर उह परक्परमे यह दैररस्रिभ्रमु 
हषे सोक्म दिडिखे उक स्वानोक्ते भो दिया क १६९९५ के प्रन 


१३२ 1] { कपू 


क्रियावान्‌ ब्राह्मण ये उनकै लिप प्राजापत्य कटा गथाहै।" जो मग्रापो मे 
कभ पौठ दिपाकरण्धुके समक्षसे मयोद्िप्र टकर पतान नदी शकि 
परते घे, उन दत्रियोको दृद्रसम्वन्धीस्वन ददा गया वा ॥१६६॥ कफ 
धर्मं वे जनुसार्‌ उपजीवन क्रमे वाते वंभ्योके तिएु द्मे लोकः वायुका 
स्यनद्ियाया) दुदर प्रतिचिर मरे मेवावृ्ति क्रते टृए षां सेक्रम रहतेषे 
उन शूद्रो कौ जाति ब्रात पृष्पोके लिए द्ुमरे लोक म भन्वर्वो का स्यान ष्टि 
या ॥१६७॥ विक्षेप ल्प तते त्यन्त अचार के पालन वरन बलि उन वर्यो कं 
तिपि म्बयये स्यान देकर फिर उन वर्णो के त्वित लोपे मे चार भर्गो 
स्थापना की थो ॥ १६२ भमर ब्रह्माज मै मार्ह, प्रहचपं, वानत्रस्य मौर 
सन्यास इन चार जाधमाो दी प्रह्ति ही स्थापना की यी ।*१६६॥ 


वर्णकर्माणि ये केचिततेपामिह्‌ न कुवते 1 

कुत कर्मा क्ति प्राहुराश्रमस्थानवास्षिनः ।१७० 

ब्रह्मा तान स्थापयामास आश्रमान्नामनामतः ॥ 

नि्हशार्थं ततस्तेषा व्रह्मा घम प्रभापत । 

प्रस्थानानि चतेपा व यमराश्च नियमादच ह्‌ १५१ 

चातुरव्णातमिक. पूर्वं गृस्यश्चाधमः स्मृत । 

त्रपाणामाधमापाल्च प्रतिष्ठायोनिरेव च 1 

यथाक्रमं प्रवक्ष्यामि यमैदच नियमश्च ते ॥१७२ 

दाराऽगनयोऽयतिथिय इज्याधराद्क्रियाः परजाः 1 

इष्येप वं गृहस्थस्य समाद्राद्धमम प्रहु ।1 १७३ 

दण्डी च मेखली वेव ह्यध.शायी चथा जटी 1 

गुहयुधूपण भल्ल विद्याद्र ब्रह्मचारिण ॥*७४ 

चीरपत्राजिनानि स्युद्धान्यमूलफलौपधम्‌ 1 

उभे सन्ध्येऽवाहष्च होपग्चारण्य वासिनाम्‌ ॥१७६ 

जोभी कोद दस सत्तारमे वर्णोकेवर्मोकोनही कखादैञ्ेगा 
स्यान के निवास करने वाते "वर्माह्वितति' क्यो कहते हं ॥ १५० १ दरी 
उन आमो काः तामसे स्थापन क्रियाया} इसङे पश्काद्‌ उनके निर्दे 


मानव सम्यता कांडारम्भ ] { ११३ 


लिये ब्रह्माजी ने स्वय उन धर्मोङ्गा वतलाया वा, नौर प्रस्थान तथा उनके 
नियम मौर यममभी ब्रह्माजी ने वनायेये ॥ १७१॥ यह्‌ एक टह ग्रटस्यका 
उश्मर्स जो चासो वर्णो के स्वल्प वाला पिले का गयादहै) यह गृह- 
स्थाथ्रन अभ्य तीनो जाश्रमो कौ प्रतिष्ठा का उद्भव स्यानही होगाहै। मव 
हाँ क्रम के अनुत्ार हौ उनका यम तथा नियमो के साय वर्णेन कराह 

॥ १७२ ॥ पघ्नौ का वंदिकर विधिसे ग्रेण करना अग्नयो को हित रना, 
घरमे समागत अतियियो के लिये श्रद्धाभाव से अत्तिवि-सत्कार करना, यजग 
केरना, घाद्धादि की क्रिया काकरना भौर प्रजा को जन्म देना अर्थात पन्तान 
उरन्न करना, ये ही सक्षेपसे गृहस्थो के धर्मोका सप्रह्‌क्रिया है ॥ १७;॥ 
अद्र ब्रह्मचपं भार का घर्मं वत्तलाया जाता है दण्ड काधारण करना, मोन्मी 
मेलला का प्रहिनिना, भ्रूमि मे शयन करना, शिर पर जटा धारण करना, गुर 
कीस्ेया करना भौर भिक्त करना, ये सव्रब्रह्मवारीके वमे हते ह ॥ १७४ ॥ 
अरण्यमे निवास करते यलो ॐ नरपत भौर अजिन अर्थाद्‌ मूगचर्मं वस्त्र होते 
है। घान्य, मूलत, फन भीर आौपध, आहार दोनों प्रमथ सनध्योपाषठनां करना गौर 
स्नान करना घादि बमं होते है ॥ १७५ ॥ 

आासन्नमुसते भंक्षमस्तेय शौचमेव च। 

अध्रमादाडन्यवायश्च दया भूतेषु च क्षणा ॥१८६ 

अक्रोधो _गुखयुश्र.णा स्यच दशम स्मृतम्‌ । 

दशलक्षणिको ह्यं प धमे. प्रोक्तः स्वयम्भुवा ॥१७७ 

भिक्षोत्रं तानि पच्ात्र पं वोपव्रहानि च। 

आचारयुदधिनियम शौचन्च प्रततिकमे च ॥ 

सम्यग्दशनमिव्येवं पच्वं वोयत्रतान्यपि ॥१७८ 

घ्यान समाधिमेनसेन्धियाणा ससागरंरमेक्षमथोपगम्य । 

मौनं पवितोपचितर्धिमुक्तिः परित्रजो घर्ममिम वदन्ति ॥१७८ 

सर्वेते गश्रयसे प्रोक्तो आश्रमा ब्रह्मणा स्वयम्‌ 1 

सत्याज्नेवन्तपः क्षान्तियेगिज्या दमपूविका ।॥१-० 

वेदाः साद्धाश्च यज्ञश्च व्रतानि नियमास्न ये! 

न सिद्धयन्ति दुष्टस्य माक्दोप उपागते 1१८१ 


१२४ } { वाय पृगग 


वहिः दर्पापि सर्वापि प्रसिद्ध यन्दिक्दयाचन। 

नन्तमरविप्रदुष्टरय दुवतोऽपि पराकात्‌ ॥१६२ 

भक्षमुशल म भिधा करना, चोती ने कना, युद्धि रसना, प्रमादेन 
करता तथा स्परो-रण्ठनेक्रता प्राणियो मे दया करना तथा छमा सपना 
क्रोधन करना, गुरदौहेवाक्टनामौरस्त्पये दश नियम एव्म हैर 1 
रवयम्भू मवान्‌ ने यह्‌ दग तक्षन दाहा धम वताया टै ॥ १७६१५०१ 
मिषु अण्‌ मन्यामौ के पाचि तो य्हांद्रनहोतेट मौरर्वाविदी उपह टै 
ई + खचागो कौ शुद्धि नियमहै मौर छौचका हना प्रतिमं होता मौर 
सम्पक्‌ दशन इमप्रवारसे पाच होउप्रत भौ हेततहं ॥ १८१ मनप 
इन्द्रियो का ध्यान समाधि, सागरे के वहित भिक्षा भाष दरक मौन, पथिष्र उष्‌- 
चितोमे विक्त प्राप करना यही पान्व्र घं कट्तै ह । १७६ ॥ येषद 
आश्रमब्रह्माजी नेस्ययही कल्पणके लिये पह ह । सप्‌, भार्जव,नय, क्वि, 
पाण इम्म्‌) ओप्दम अह्नो के सहित वेद, यने व्रत ओर नियम पेसत्र भाष 
दोयके उपागत हाने पर प्रदृश के कभी सिद्ध नही हते है ॥ १८१ ॥ त्रिका 
अन्तर्भाव कृप दोप से युक्त होता है उपक पराक करते हवे भी वाहिद ठ 
ममस्त कप कभी प्रसिद्ध मही होते ह अर्या केवल दिषावि के कमो सको 
अभीष्टं सिद्धि नही देता दै 11 १८२॥ 

सर्वस्वमपि यो दयात्‌ कलुवेणान्तरास्मना । 

यतेन धर्मभाक्‌ च स्याद्भावि एवान कारणमू ॥१३ 

एवे देवां सपिहर ऋषयो मनवस्तथा 1 

तैपा स्यानमपरष्पिस्तु सस्थित्ताता प्रचक्षते ॥१८४ 

अष्टाणीतिसहचापि ऋषीणाम रेतसाम्‌ 1 

स्यूत तु तेपा वर्स्थान तदेव गुल्वासिन्‌ ५१८५ 

सर्पीणान्यु यद्स्यान स्मृतन्तदटं दिवोकसाम्‌ । 

प्राजापत्य मृटूस्याना न्यासिना व्रहण क्षय. 1 

योमिनाममृत स्थान कानःघीना न विचते ।!१-६ 

स्पादान्याश्परिणा तानि ये स्वधमे व्यवस्यित्राः। 

चत्वार एते प्रन्यानो देवयाना विनिपिा- 1९८७ 


माने मभ्यनाकामारम्म 1 [ १३५ 


नर्मणा लोकतन्धेण आये मन्वन्तरे भृवि। 

पन्यानौ देवयानाय तेषा द्र रवि स्मन ॥१८८ 

तथेव वितरयाणाना चन्रमा द्वारमुच्यते । 

एव वर्गधरमाणा व प्रविभाभे छते तदा! 

यदास्य न न्यवत्तन्त प्रजा वर्णाश्चमात्मिका ॥१८९ 

चाट कई मपनी ज्लुपित वात्मा म अपरनासर्वस्व भौक्योन दे देष, 
चमद्विये दानसेवहक्मीमीषमेका नागीनही हो सक्ता टै वणेिद्मदन 
मादिकेक्मंमें भाव ही पुव्य करण हाता दै ॥ १८३ ॥ इन प्रकारसे पित्तर- 
पिगण यौर मनृदृन्द इम नौकमे मस्यिन टोन वाते उनन स्थान बतलाया 
जाताहे ॥ १८४॥ ऊद्ररेतत् ऋषयो कौ सन्या गट.ामी हजार है उना 
वेदस्वान दै, वटी गुष्वामी सतपियो का स्यान दै गोर वही दिवौकस मयि 
देवनामो का स्यान कहा गयादै। ग्रहन्यो क्रा प्राजावत्य ग्यासिक्रने वालोक्रा 
व्रद्माकवाक्षप ओर्योपो का अरव स्यान है भौर जो नाना घो वाके ह 
जनका कोई नटी टै ॥ १८५-१८६॥ जौ अपने-अपने घममे व्यवयिन्‌ रहने 
हउ तातमोम रहने वालोकेस्यान होतेह! ये चार मां देवयान दनाय 
येह ॥ १८७ ॥ भूमण्डल परर अय मन्वन्तरमे लान ब्रह्माजी केदारा 
देवयान के लिये मार्ग बनाये मये दओ" उनकादार रथि कहा गया है ।॥१८८॥ 
उमी प्रक्रमे पितूयान वातो का द्वार्‌ चन्माक्डा जातादहै। इम प्रकार 
गे उससमयमे वर्णों ओर याध्रमों का प्रविभाग करने प्रज इपकी प्रजा 
वणश्रिम $ स्वष्प वानी व्यवहूयर नही करती है ॥ १८६ ॥। 

ˆ ततोज्या मानमौः सोऽय तेतामध्ये ऽ्ृनद्‌ परजा । 

आत्मन, स्वशरीराच्च तुल्याश्चैवात्मना तु वे ॥१८० 

तस्मि तयुगे त्वाचे मघ्य प्राप्ते क्रमेण तु! 

ततोऽन्या मानसीस्तव प्रजा चम्टु प्रचक्रमे ॥१द१्‌ 

तत सत्वरजोद्रिक्ता प्रजा सोऽयासुजनु भुः 

यमिकाममोक्षाणा वात्तायाश्चैव साधिका ॥ १८६२ 

देवाश्च पितरश्चैव पयो मनवस्तथा । 

युगानुरूपा धर्मेण यैरिमा ब्रिचिता प्रजा 1१८३ 


१३६ } [ काश्रुुरण 


उपस्थिने तदा तस्मिन्‌ प्रजाधर्मे स्वयममुबः ! 

ओ दध्यौ अरजा. सर्वा नानारूपास्तु मानसौः ५१६४ 
पक्ता या मया वष्यञ्जनलोक समाधिता । 
कस्प्ऽ्नीतै तु ते ह्याघन्‌ देवाचास्तु प्रजा इहे ॥१२५ 
ध्यायतस्तस्व ता सर्वा सम्भरूतयथमुपस्यिता । 
मन्वन्तरक्मेएोद्‌ कनिष्ठे प्रथमे मता ॥२द्‌ 
स्यात्यानुवन्धेऽतस्तस्तु सर्वाहि भाविता । 
कुषलावुषलप्रायै करमेनिस्तं मदा प्रजाः । 
तत्कर्मफलभेपेण उपष्टच्धा प्रजसिरे 11१६७ 
देवापुरपिदृ्वैए्च पुपक्षितरोष्ुपै । 
दृक्षनारकिकीटस्मे स्तीस्तरभागेर्पस्थिताः 
आधीना्यं प्रजाताश्च जात्मनो ले विनिर्ममे पद 


दमक अनन्तर उन्होने तरेता के मध्य मे अन्य मानसी प्रजा मृष्टिषी 
धो । भो अपेते, सने शरीर से मौर अपनो भात्मा रे वल्य हौ पे ॥१६०॥ 
उस अष्य येका युपमे क्रमे मथ्यको प्रत होने पर इङ सन्दर अप्य वह 
पर मानसौ भ्रगाके मून वा उपक्रम कियाथा 1 {९१॥ इसके पश्चत्‌ उस 
भमुनेस्वर भोर रजागुण के उपरेक वाली अजाका सुने क्रियाणनो कपतं 
सथ, कापर मौरपरोक्षा कीतदा बाजीविकाको साधिका धी 1 १६२॥ देव 
गण, पितृ, ऋषि ह्मुदाय ओर मनुष्य दे सद धमंसे युय के अनुस्प ही 
ये निन्होने इस सम्पू श्रना को विचित किथारै ॥ १६६३ ॥ उण सम्य भर 
स्वयमु के उम प्रा वम मे उपम्यित हाने पर वहु नाना ख्य वातो मनी 
समन परजा ने सभिध्पान विधा ॥ {६८ ॥ कने पिते तमसे जो जनलोक मे 
प्राभि रहने षती वताई्थी काते व्यत्तीतहो जाने प्र वह्‌ देवाद्ाप्र्र गह 
यो 1 १६५ ॥ सममू क निवे उपश्ित उच समत प्रजा का ध्यान कर 
हये उपे य नन्बन्तरके कमते प्रप वनिन मने च्वे ॥ १६६९१ गाति 
से भौर सवे गर्यो दाते उन-उन यनुरन्धो से भपित प्रजा स्वश उन ल 
सोरधषटुवकर्मो हे दया उनवूर्मो बे पेष प् ष्ठे उपलम्य हती हृदं उल 


देव खषटि वणन ] [ १३७ 


^ हई ॥ १६७ ॥ देव, जसुर, पितरन्व, पु, पकी, उदोसूप, वृ, नारक्िकौरतं 
भद्रि मोक द्वारा उपल्यित जपने माधीनताके लिये भ्रजाओ का निर्माण 
क्रिया ॥ १६८ ॥ 
11 देव-सूर्डि वर्णन ॥ 
ततोऽभिध्यायतस्तस्थ जज्निरे मानसीप्रजाः ॥# 
तच्छरीरममुत्न्नं कार्यस्तं. कारणै. सह्‌ । 
क्षेत्रजा. समवतंन्त गात्रेभ्य स्तस्य धीमत्तः 114 
ततो देवापुरपितरन्‌ मानवश्च चतुष्टयम्‌ । 
सिमृधुरम्मास्येताश्च स्वात्मना समयूयुजत्‌ ॥२ 
युक्त।त्मनस्ततस्तस्य ततो माघ्रा स्वयम्भुव 1 
समिमघ्यायत. सर्गं प्रयत्नोऽश्रुन्‌ प्रजापतेः ॥३ 
ततोऽस्य जघनात्‌ पूवंममुरा ज्निरे सुताः! 
अनुः प्राण. स्मृतो विप्रास्तज्जन्मान स्ततोऽमुख. ॥४ 
यथा सृष्टा मुरान्तन्वा ता तनु स व्यपोटत 1 
सापविद्धा तनुस्तेन सद्यो खर्िरजायत ॥५ 
सा तमोधहुला यस्मात्ततो सानि यामिका ॥ 
बानुतास्तमसरा राग्रौ प्रजास्तस्मात स्वयम्भुवः ॥६ 
टरा घुरास्तु देवेश्स्तनुमन्यामपद्यत 
अव्यक्ता सप्ववहुला ततस्ता सोऽभ्यय्‌ युजत 1 
ततस्ता गृन्जतस्यस्य प्रियमासीत. प्रभो. क्रिल 1७ 
श्रीसूत जी ने कहा-- इसके अनन्तर अभिध्यान करने वाते उनङे उन 
कारणो के साय उनके रीर ते समून्पन्न कार्य्यो चे मानघीप्रजाको जन्माया। 
। उम ्ीमानवै गार्तोसेक्षेश्च ह्ये 1 १६ इस पश्चातु देव, धसर, पितर 
रोर चौथा मान की सृष्टि क्न की इच्छा वालिने अप्रनी तमास इनङो बौर 
। जलो को सयोनित कटिया था{1२॥ इसके बाद स्वयम्मूके अन्मदाता 
‡ युक्ताप्मा उमके उष घं का समिध्यान करते हये प्रजापति का प्रलन हजआा ॥३॥ 
इसके अनम्वर उषती घस पटिनि अमुर पृत्र उतत ह्ये । अबु--यह प्राग 


१३८ ] [ कायु पुराण 


कहा गाया ३। उमके जन्म देने वाते विप्र ह । दसस अमुर हये ॥ ४॥ जितत 
शरीरसे पुरो का सुजन क्रिया था बहे तनू उत्ते व्यपोहत षर दिया । उरि वह्‌ 
तनु अर्यात्‌ शरीर भपविद्ध हो गणा इषते तुरन्त ही रात्रि उलन्न हुई ॥ ५ ॥ बह 
विशेष तम वादौ थी दषस वह्‌ तीन याम वाली राप्नि दई 1 इसरे स्वयम्भू दौ 
समस्त प्रजा रात्रि मे न्वक्ार से एकदम भाचरत्त हो गड थौ 1 ६॥ देवेशते 
सरो को देखकर अन्य तन्‌ को प्रात किया जो क्रि अव्यक्तं मौर सत्व कौ प्रचुरता 
वालो थी 1 इसके पश्चान्‌ उने उसको योजित कर दिया था । उस्तको योजित 
करने वले प्रगुकावदेवदरतदहोत्रिययथा॥७॥ 


ततो मवे समूत्पन्ना दीव्यतस्तस्य देवता । 

यतोऽस्य दीग्यत्तो जातास्तेन देवाः प्रकीत्तिता. ॥८ 

धातु्िवीति य. प्रोक्त क्रीडाया स विभाव्यते 1 

तस्यान्तन्वान्तु दिव्याया जज्ञिरे तेन देवताः ५ 

देचान्‌ सुष्ाय देवेशस्तनुमन्था मपद्यत ॥ 

सत्वमाव्राप्मिका देवस्ततोऽन्या सोऽभ्यपद्यत ॥१० 

पितृव्मन्यभानस्तार्‌ पृनान प्राध्यायत प्रभुः 1 

पितरो ह्य पपक्षाभ्या रात्यह्वोरन्तरासृजतं, 1 

तस्मात्ते पितरो देवा. पुत्रत्वन्तन तेषु तत. 11१ 

यया सृष्टास्तु पि1रस्तान्तनु स व्यपोहत 1 

सापविद्धा तनुस्तेन सयः सन्ध्या प्रजायत ॥॥१२ 

वस्मादहुस्तु देवाना रात्रिर्या साऽमुरी स्मृता । 

तयोमंध्ये तुवं पैनी या तनुः सा यरीयसी ॥१३ 

तस्माद बासु ख. सर्वे ऋपयो मनवस्तथा ॥ 

ते गुक्ताम्तामुपाबन्ते ब्रह्मणो मघ्यमान्तनुम्‌ \)१४ 

दीष्यमान उमक्गे मुद घे प्रिर देवमय उदयघ्च हये क्योकि ये दीव्यमानं 
होति द्ये स उन्न दये ये दपोसिये ये देवता षरे गयेये 1 ८॥ “दिवु 
धानुजोक्दा ष्याहैवदे क्री सर्यने हना है! उत दीम्यमान तनु ये 
श्यता उसघ्नदहूयेये 1६1) किरदेवेशनेदेदो का पूजन षरे उसके पश्वष्‌ 


देव पृष्ि वर्णन ] { १३६ 


पमने जप शरीर धारण क्रिया । उमदैवनस्त्वमाध कै स्वल्प वाति घय 
ग्रीरदोप्रा्तज्वाया॥ १०॥ उत्तरम ने उन पुक्ोको दिनाक माति 
गनत हये पडाया । व उप्पक्लोसतेषविरिये किरप्रभुने सत्रिमौर दिने 
प्रतर भाग कादेननव्रिया या। प्मोनेदेदेव पितरट हमै बयाङ्गि उनमें 
उनका पूप्रत्व भावया +। ११॥ जिम तनू से पिठत को दृष्टिकरो धी उल 
शरीरं का उशते स्यागक्रर दिया । पहु सरीर उसन्ते जपविद्ध टौगया षाकिर्‌ 
उपप तुरत ही सन्न्या उस्वह्नहो गर्ईयी ॥ २ ॥ उपग देवोक्ा दिन हया 
जोकि अमुरो कौ सतरिक्हो गहै 1 उनदोगा वे मन्यमनजोपेत्ोतनुषावद्‌ 
हूत ही शौरव से पू या ।! १३ ॥ नसे प्तव्र देव, ममुर पि मीर मनु युक्त 
हते हए ग्र्या के उस मध्यम णरोर कौ उपासना क्रते ह ॥ १४॥ 

ततोऽन्या स पुनब्र्या रनु वे प्रत्यपद्यत । 

रजोमाव्राततिकायन्तु मनसा सोऽमृजन्‌ प्रयु ॥ १ 

स्ज प्रायात्‌ तत माञ्य मानक्तानसुजत्‌ सुतानु + 

मनसस्तु ततस्तस्य मानश्षा जज्ञिरे प्रजा १६ 

दृष्ट पूत प्रनाश्रापि स्वानचुन्ता मपोटत 1 

सापविद्धा तनुम्तन ज्योत्स्ना सद्यस्त्वजायत ।।१७ 

तम्मादूभषन्ति सहृष्टा ज्यात्स्नाया उदुमव प्रजा 1 

इत्येतास्तनवस्तेन व्यपविद्धा महात्मना ॥१¶८ 

सयो रात्यहन चैवे सन्ध्या प्योत्स्ना च जच्निरे ॥ 

ज्योस्स्ना सध्या ठथाहश्च सत्त्वम नात्म स्वयम्‌ 1 

त्मोमानाप्मिका रात्रि सा वै तस्मात्रियामिका 114 

तस्माद्र वा दिव्यतत््वा ह्य सृष्टा मुखात्तु वे । 

संस्मात्तपा दिवा जन्म वचिनस्तन त दिवा १२० 

तन्वा यदमुराचू रानी जयघनादयुजन्‌ प्रभु । 

प्राएोभ्यो रात्रिजन्मानो ह्यस्या निशि तन ते ॥२्‌१ 


मरे अनत्तर उसद्रह्ाने किर एक अय क्षरीर भ्रात िमाया। वह 
र. गोसु, के म्बूप, चरत च, छर. ख, उ पयः नै, मन, पै सूजन लिम्पः 


१४० ” [ वायु पुय 


या १११५१ इसके यनन्दर उ रजीगुण की वदूतवा वाति उघ्ठ शरीर मे मानष 
पयो का मूजन किया था} फिर उदके मन ते मानक प्रजा उटण्न हुई $) १६॥ 
उतत अपनी मानस प्रजा देकर उसने भपने शरोर का त्थाय कर दिया व्यो 
वह्‌ तनू उसे अपविद्ध होगया था फिद उदे तुरन्द ही ण्योत्ला उत्त टो # 
थी ॥१०॥ उषे जयोद्सना ॐ अन्ध्र होने प्र समस्त प्रजा अत्यन्त ही शष 
हुई । उस महापुरुष मे इष तरह तमे ये रीर दिशेप सप से भपयिदध 
ये ॥१८॥८ फिर बुर्व हौ रात्रि, दिन, सन्व्था ज्योरत्ना ( चांदनी ) उस्र 
हए 1 ज्पोरस्ना, घव्या भौर दिन सत्व मात्र स्वश्य वाले स्वयं ही ये। 
राभि तमो मात्र स्वल्प वाली यी ओर वहे तीन याम (प्रहर) के स्वल्प चली 
धी ॥ १९ ॥ इते दिव्य त्त्व वाने देव परम हृष्ट मौर गुखते मृष्टहृए भे॥ 
क्योकि उनका दिवा मे जन्म हमा इसलिये वे दिवा के ही बलिरहम कए 
वन्ति ह ॥२०॥ जो धुर रात्रिम शरीरकी जांवसे प्रमु ने उत्पन्न श्ििषे 
वेप्रागोप्ति रात्रि के जन्म ग्रहुमकरे वलेदँहइशीसे वै रात्रि मे गमह्य 4, 
दै ॥२१॥ 

एतान्येव भविप्वाणां देवानामसुरंः सह्‌ 1 

भ्व्िणा मानवानाञ्व अतीतानागतेषु वै । 

मन्वन्तरेषु सवंपा निमित्तानि भवन्ति हि ॥२२ 

ज्योत्स्ना रात्र्यहनी सन्ध्या चत्वार्याभिासितानि वै । 

भान्ति यस्मात्ततो भासि भाशब्दोऽय मनी पिभिः 

व्यात्निदीप्ट्या निगदितः पुनश्चाह प्रजापतिः ॥२३ 

सोऽम्भास्येतानि दृष्टा तु देवदानवमानवान्‌ । 

पितर च वामृजत्सोऽन्यानात्मनो विनुधानु पुनः ॥1२४ 

तामृर्छत्य तनु इर्स्नान्ततोऽन्यामसुजत्‌ प्रभुः । 

मूर्सि रजस्तमः प्राया पुनरेवाम्युयुजतु ॥२५ 

अन्धवारे ध्षुधाविष्ट सतततोऽन्या सृजते पुनः । 

तेन सुषा: क्षुषात्मानस्तेऽम्मास्यादानुमुचताः ॥१२६ 

भम्भास्येतानि राम उक्तवन्तश्च तेपु च । 


देवबृष्टे दर्णव ] “[ १५४१ 


राक्षमास्ते स्मृता लोके क्रोवात्मानो निशाचरा. 1२७ 

येऽब्र.वन्‌ क्षिणुमोऽम्मासि तेपा हृष्टाः परस्परम्‌ । 

तेनते कर्मणा यक्षा गुह्यका. ऋ.रकमिणः ॥२८ 

येदीमव्रिप्यमें हने वत्ति देवोके गमुरोके साथ, पितरेक गौर 
सतीत चथा अनागत मानवो के सववो के मन्वन्तये मे निमित्त होते है॥ २२॥ 
ज्योत्स्ना, रात्रि, दिन बौर सन््याये चार जाभासिनद। जिम कारणद्ेयेमा- 
युक्त दते है दयो से इनसा “भा यह शाब्द मनीपिणो ने व्यास्ति मौर दीप्तिदन 
दोनोके कारणस कठा टै भौर किर प्रजापतिने मी कटा दै ।॥२३॥ उस्ने इन 
णलो को देखकर तथा देव, दानव, मनद गौर पितरों को देखकर उखे 
खात्मास्े फिरबन्यदेवोक्तो मृजितक्रिरा॥ २४॥ व्रनुने उम अपने सभूर्णं 
छरीर को उलछृत्र करके फिर मन्य शरीरका सजन द्विया लौर फिर रजोगण 
घौर तमोगुण कौ वदहूलना वलति शरीर को बभियोतित क्रियाया ॥ २५॥ उतर 
अन्यक्ारमेक्षषासेभापव्रिशट होने हर्‌ उमने फिर अन्यतेनू कानून क्रिपा। 
उसे मूृनित हए क्ष.घात्मा के अम्मो क्रोलेते के लिये उचत हो गये ये॥२६॥ 
हम न जलो की रक्षा करते हैँ इष प्ररारसे कटे गये वे उनमे राक्षस कहनाये 
थे जोकि लोक्रमे क्रौवार्मा निदयाचर ये ॥२७। जिन्दने उनमें परस्मरमे परम 
भ्रस्त होते हृए यह क्हार्िहमइन जनोको क्षीणकरतेट1 इषक््मसे यक्ष 
भोरक्रर कमं करने वाले गृद्ध हुए ॥ २८॥ 

रक्षणो पालने चापि धातुरेष विभाव्यते । 

य एप क्षितिघानुर्वे क्षयो सच्धिस्च्यते ॥२य 

तङ्न्् ह्यप्रियेणास्य केशाः शीर्यत धीमतः । 

षीतोप्णद्धोच्दिना छ्य. द तदारोहन्त त प्रभुम्‌ ॥३० 

हीना मच्छिरमो व्याला यस्माच्च वापसपिनाः 1 

व्यालात्मानः स्मृता व्याचाद्धीनत्वादहयः स्मृता. ।1३१ 

पन्नत्वात्यन्नमाश्चं व सपश्चिं वापसपिष. । 

तेषः पृथिव्या निलया सूर्याचन्द्रममोरधः 11३२ 

तस्य क्रोधोदूभवो योऽपायग्निगर्भस्मुदाष्ण. 1 


श्र 1 [ व्ुपूरण 


सतु सपंसटोलनानाविवेश विषात्मिवान्‌ 1३३ 

सपान ष्टा तनः कोधानू कोधत्मानो विनिर्ममे 1 

वर्णेन कपिणेनोग्रान्ते गनाः पिशिताशना ॥.४ 

भ्रूनत्वात्ते स्मूता भूता पिशाचाः पिशिताशनान्‌ 1 

ययनो गाह्ननस्तस्य गन्धर्वा जज्निरे तदा ॥३५ 

ध्यायतीस्येप धातुरवे यात्रा परिपठ्यते । 

पिवतो जगिरे गास्तु गधवस्तिन ते स्पृता ॥३६ 

यह्‌ धातु-रक्षण भौर पालनकेवयवमे विभावित दता दै। जौ 
क्षिति घातु है वह्‌ कषयणमे कहौ जानी है ।॥२६॥ श्रिय उपने उनको देषा 
धीमा उसके केश विशीणं हो गयेयेप्रौर भीत ओर उष्णतासेज्दं शौ" 
उच्द्रिन होते हुए उस प्रमुकायारोहण क्या ॥ ३० 1 मेरे धिरचेदहीनर 
अपसपित हो गये दमे व्याल कहै गये यौरन्यालसे हीनताहोनेिकै कर 
लहि कहूलाये गय है ।॥३१॥ परनत्वहोनेसे ये पतग वटे गये भौर त्रप 
करने वाते होने के कारण मपं कृट्तरये गये है । उनक्रा सूर्यं भौर चन्दमा 
अधोभागमे पृथिवो मे निलय ई ।६२॥ उसके क्रोघ से उत्मन होने वाना 
यह अमति गभेंहै वह बहुत ही सुदाश्य दै मौर वह सपो के साथ उः 
विपात्मको मेँ मावि्ट हो गया १३३।। इसके अनन्तर सपो को देखकर कोष 
क्रोमाप्मानरौ कानिर्मागक्रियावे अपिश वणंसे उप्र मासि को पनिद 
भरूनं ए ॥२४॥ भूत होने से वे भूत कटे गये मौर पिद्ित (मासि) 
शन ( मोजा ) करने से पिद्याच कहलाये गये! व्‌ सेमा बौर 
पश्चात्‌ उस समथ उसके गनयवं उत्पन्न हुये ॥३५॥ “ध्यायति” यहु घाव य 
के अमे परिपल्तिको जातीदै। पीते हृएमाके उववहृए्‌ ये इषतपि 
ग्वे वहे यये हे ॥३६॥ ह 

अष्टास्वेतामु सृष्टासु देवयोनिपु स प्रभू 1 

तत स्वच्छन्दतोऽन्यानि वासि वव सोऽदूजत्‌ 1३७ 

छा्यतस्तानि छन्दानि वयस्तोऽदि वथात्यि ! 

शू्यात्र दृष्ट चू.देयो वेऽमूचसक्षिगणानपि ॥३८ 


देव-गृष्टि वर्णन } [ १३ 


मुखतोऽजान्‌ ससर्ज्जाय वज्मश्च वयोज्चृजत्‌ 1 

ग्चेवायोद राद्त्रह्या पार््धाम्यास्च विनिर्ममे । ३8 

पदुमचास्चाग्वान्‌ समातद्धान्‌ शरमानू गवयान्‌ मृगान 1 

उष्टूानश्तराए्चैव ताश्चन्याश्चैव जातयः (४० 

सौपव्यः फलमूलानि रोमत्तस्तस्य जनिरे ! 

एवं पश्वोपवी. सृष्टा न्ययुञ्चतनोऽ्यवरे ध्रनः ॥४१ 

तस्मादादौ तु कल्पस्य चरेनायुगमूवे तदा । 

गौरजः पुष्पो मेपो द्यश्चोऽश्रतरगर्ह मौ 1 

एनान्‌ ग्राम्यान्‌ पश्रूनाहुरारण्यारतर निबोधत ।४२्‌ 

श्वापदा दिखुरोहृस्ती वानरः पक्षिपश्माः 1 

उन्दक्राः पशव मृटाः सतमास्तु सरीयूपा- 1४३ 

इने गाठ देव-योनिषो की गृष्टि करचेने प्रर उ्तप्रमुने इसके यनन्तद 
स्वेच्यन्दता ते वयमे जन्य पणु-पक्षि्यो का सुन विया ॥३७॥। छाद्यते उन 
छन्दोकौ वयसेभीवयोकोमूजातयादेवने शून्योंको देवकर पक्षियोवे 
समुद्रायकाभी मूतनक्रिया था ॥३९॥ मुखसेननौ का उतन्न व्या, वदा, 
स्यनसेवयकामृजन कियात्या ब्र्यागीने उव्र्से मौरपार्खोतिमाव 
मूत किया धा ॥३६॥ पैरोये घोड़ों को, मातद्धों को. शरभो को, मव्रयो को 
मृगो को, उष को मौर अश्वतसो को तथा इनकी जन्य जात्ति वार्त क्रा निमि 
क्रिया ॥४०॥। भोपधिर्या, फन ओर मूत उत्करे रोम से उत्पन्न हुए । दम तरद 
से पदु-मीथियोंक्ा सूनन करदे उण प्रमुने वष्वरर्भे निथोनत क्रियाया 
॥४१।॥ हममे मादिमे कन्यके भतापरुगमे मृ गौ, अज, पदप, मेष, थव, 
यश्वतर मौर गदम--दनयो ब्रस्यप्रयु कहते है यव याये अरष्य पु्ोकये 
मक्ष सो ॥८२॥ श्वापः, द्विखुर, हावो, बन्दर, परो पचम, उन्दः, पशु भौर 
प्रम तदीपृो मुढन विया ॥५८३॥। 


गायत्रं वस्ण्वेवं त्रिव्रृत्नौम्यं स्यन्नरम्‌ 1 
अग्निटोमे च यनयनां निमे प्रयमान्मुखत्‌ ॥[४४ 
छन्दानि त्रष्ट्मद्भमं स्तोमं प्वदशन्तया 1 


१४४ 


1 [ वादु-दुदाय 


वृह्माममथोर्यच्च दक्षिणात्तोऽनूजन्मुखात्‌ 11४५ 
सामानि जगरीच्छन्दस्तोम पर्वदशन्तथा 1 
वेरूप्यमतिरानर्च पश्चिमादमूजन्मुखात्‌ ॥४६ 
एक्विशमयर्वाणमाप्तोर्यामिःणमेव च । 

अनुष्टुभ सवैराजमूकत्तरादसु जन्मुखात्‌ 1४७ 
विधुतोऽशनिमेवाश्च रोहितेन्रधत्रपि च । 

वयासि च ससरज्जाद कल्पस्य भगवानु प्रमु ल 
उच्चवचाति भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे ! 
ब्रह्मणस्तु प्रजासर्ग सृजतो हि प्रजापते 1 

मृष्टा चतुष्टय पूर्वं देवासुरणिदरन्‌ प्रजा 1 

तत सृजति शतानि स्थावराणि चराणि च ॥५० 
गायत्र, वरूण, त्विव सौम्य, रथतर भौर अभेनटोम यज्ञोको प्रथम मूख 


से निर्माण्रिया यापब्रह्याजीके चार मुखो मेगो प्रवम था उनते उक्त 
श्राणियो की उत्पत्ति की थौ ॥ ४४ ॥) तरंध्टुम, कमं, स्तोम, पञ्चदण, बृहत्साम 
उक्ययत्दी को दक्षिण मुव ते मृजन क्रिया या ॥४९॥ साम, जगती छनदोस्तोम, 
पञ्चदश, वैरूप्य अतिरात्र को पभ्चिम मुल ज्ञे सृजाया1॥ ४६॥ एकि, 
मयर्वाण, अ्ोर्यामाण, अनुष्टुभ भौर सर्व॑राज को ब्रह्माजी ने अपने उत्तरे 
मुखस गृष्टक्याथा)) ४७) विद्यत, अश्न { व), मेष, रोहि द्द 
चनप मौर कल्प की मवस्या को भगवानु प्रभुने ्षादि मेवूजायथा॥*४८॥ 
उच्चावच भुत उमङे गात्रो यर्याद्‌ कशषरीराद्धो से उस्यन्न हृषु जदक्कि प्रजापति 
ह्याजौ भ्रजाके सं का सूजन कायं कर रदै यथे ॥ ४६॥ इसङे अनन्तर पिते 
देव, अमुर, पितर आदिं चार प्रहारकौ प्रजाकी सृष्टि करफे दके पश्चत्‌ भूत, 
स्थावर भौरचरोवा भजन क्रते ह ॥५०॥ 


याच पिशाचान्‌ गन्धर्वा तवेव.व्सरसाद्धणान्‌ । 
नरक्रिनररक्षालि वय. पशुमृगोरगान्‌ ॥५१ 
अव्ययस्य व्यय चैव यदिद स्थाणु जङ्गमम्‌! 
तेपा ये पानि करपाणि प्रावमृष्टवा प्रतिपेदिरे { 


देद-मृषटि वर्णन ] [ १५५ 


तान्येव प्रतिपयन्ते सूज्यमाना पुन पुन ॥५२ 

हिलाहिल मृदुर घर्मावर्माडतानृते । 

तदूभाविता. प्रपयन्ते चर्मात्तत्तत्य रोचते ५३ 

महाभूतेषु नानात्व मिद्धिया्ेवु मूत्तिपु 1 

विनियोगस्च भूताना धातेव व्यदयात्‌ स्वयम्‌ 11४ 

केचित्‌ पुरस्पकरारन्तु प्राह कर्म च मानवा: । 

दैवमित्यपरे विप्रा स्वभाव देवचिन्तता ॥५५ 

पौस्पर क्म दैवन्व फनवृत्तिस्वभावतः 1 

नचेङन पृयग्मावमधिक न तोव्रिदु.। 

एतदेवय्च नैग्स्वन चोभे न च वाप्युभे ॥५६ 

कर्म्यानु विपपानू ब्र. यु" सत््वस्या समदथिन ॥ 

नामरूपच्च भूनाना कृतानाच्च प्रपचनम्‌ ॥ 

वेदण्ब्देभ्य एवादौ निर्ममे स मटेश्र ॥५७ 

यक्ष, पिप्नाच, गन्धठं, यप्पयाओ का समुदाय, नर, भिप्रर, राशय, षणु, 
मृग, उरग, अन्यय व्यय स्वाणु गौर जद्वमका सृजन तिमा । इनमे निन्हाने 
जो बमं परिव मृषटिमेप्रापत्ियियेवे पन पुन सृन्यमान होते हए भी उन्दी 
यो प्रा्त होति दै ॥५१-५२।' दिषा कौ वृत्ति षाले कथा अदिस, कोमल स्वमत 
वाये तया क्टोर, धमं मोर मधम, चदन ओर अनु सादि तत्तत्‌ भावनाभ्रोठे 
मात्रित होर यदा जम ग्रहण करते ह मौर इमीनिये वही उनको मच्याभी 
लगना है ५३ मदामो में यनेक प्रकारता मौर द्दर्ो वे अर्थोक यत्या 
मेभ का विनियोग स्ना विघाठानेहोष्य श्रिया था॥५४। दु मनुष्य 
सोपुष्पार्थषो होक्मंक्टोर्है बौर द॑व [मण्ययाप्रारन्य)} का वित 
करे वाते र्यात्‌ माग्पवणदी दरमरेद्राद्यणदंव हौकोक्हा करते ई॥ ५५५ 
पोस्यक्मं मोग दंव हने फतक्ो वृत्ति स्वप्रावसहो हूमाक्रतीदहै। नतो 
मेद्ोनोणहीरहुनयेदोनोपृृयङ्‌ हीहेतेर्हैमौरन उनदोनोमे कोई अयित 
दयौष) इमश्रार्सेय्हदोनोनरएर्टीरहैभौर नदो अउगञअतणदडी देते 
६ ।८५६॥ यत्त गण म प्यिंड रटने वति समान भाव्रखेदेखो वति समदा 


१४६ } [ वाषण 


पुष्प कर्मा म सम्यत रहे वति त्रिपया को योना इर्ते ह 1 महर उत मगव्रावु 
मे आदिमे परिनिनितमभूनावे नाम जोर द्पका समन्ते प्रपञ्च दन्द ही 
सृष्टि है ॥५७॥ 


शछषीणा न'मधेयानि यादच देवेषु द्य । 
शवेते प्रसूताना तान्ये वास्य दधाति सः ॥५८ 
मर्ता ृवुलिङद्धनि नानारूगरणि पयये 1 

दृश्यन्ते तानि तान्ये तथा भावा युगादिपु 11५2 
एत्रत्रिवामु सुष्टामु ब्रह्मणाऽ पक्तन^मना । 
शर्वयन्ते प्रहश्यन्ते सिद्धिमाच्िप्य मानसीम्‌ 11६० 
एव भूतानि सृष्टानि चरापि स्यावराणि च। 
यदास्यता प्रजा सृष्टान व्यववन्त धामत (६१ 
अथान्या-मानसान पुनन्‌ सहटरानाप्मनोऽसू जत्‌ 1 
भृगु पुलस्प्य पुलदे कनुमाद्भिरसन्तथा ।९२ 
मरीचि दक्षमत्रिच वसिष्ठ चैवे मानसम्‌) 

नव ब्रह्माण इत्येते पुराणो निश्चय गत्ता । 

तेपा ब्रह्माटकाना गै सेः ब्रह्मवादिनाम्‌ 11६३ 


च्छपियो के नामधेय मर्याव्‌ नाम भौरदेवो मेजोद्टियां हवेषव 
साथिवैअत्तमे प्रभूत हामि वालो के वहौ उन करता दै ॥६ा चभो के 
अनुसार जो ऋवुमो के चिह्न रेते है मौर अनेक प्रहार के स्वरूप दते ज्म 
उनका परिवत्तन हृआआक्रनादैये स्रव युगाद्विकों मे उस तरह भावं वेवी 
दिम।ई पा करते है ॥५६॥ इव प्रकारसे अध्यक्तसनम ग्रहण कले वति 
श्रह्याकेद्वारा इम रोतिसेकोदहृईमृष्टियो मे रत्रिके अन्त मे मानतो धिदि 
क्षा बाध्य वरवे दिपलाई दिया करते है ।॥ ६० १ इपतरदरे ब्रह्माजी षद 
सौर स्यावरभूनोकोनूष्टिकौ कितु धनद वट मृगन की टूट मस्त परना 
व दृष्धि परवतो दहनी हृदो घोमाद्‌ ब्रह्मने पनी दो भप्त 
ग्य चन्य मानम पुरा कामन स्िपाया जिकर ताम भनु पुन्य, पुन 
छन्‌, यद्धिर्ण, मरीच, दश, घत्रि ओर वच्य टेतेह।येरमी रवय 


देव-गृष्टि वर्णन |] [ १५७ 


मौर ब्रह्मा मक यानि ब्रह्मा स्वल्प वत्ति टी ये जिनसे कि पुराण मे निश्चित 
स्पते “नव्या दादी कटा गया है ॥९१-६२-६३॥ 

तततोऽसृजतुनगरं छा सद्र रोपात्मसमवम्‌ | 

सककत्प चत्र धमं च पुपामपि पूर्वज ॥६४ 

भग्र समज्ञं दी ब्र्या मानसानात्मन समान्‌ 1 

सनन्दन समनक विद्रास च सनातनम्‌ ॥६५ 

सनन्करुमारच विमु सनक च सनन्दनम्‌ | 

मते लोक्तयु सज्जन्ते निरेकनाः सनातना ॥,६६ 

सर्गे ते ह्यागनन्नाना वीतरागा विमत्सरा । 

तेप्येव निरे्येषु लोकदृत्तानुकारणान्‌ 11६७ 

दिरण्यगभों भगवान्‌ परमेष्ठी द्यचि(तयत्‌ 1 

तस्य रोपाप्ममुप्पन्न पुदपोऽक्केममययुति । 

अर्धनारीनरवषुस्तेजक्षाज्वलनोपमं ६5 

सं तेजोमय जातमादित्यममतेजसमर 1 

विभजात्मानमिः्युकतवा तरैवान्तरधीयत ६5 

एवमुक्वा द्विधाभ्रूत पृथक्‌ शची पुटप धृयद्‌ 1 

स रोकादशधा जज्ञे जदधंमात्मानमीश्वरः ॥७० 

मकरे उपरान्त पूवत होनिवानोमे भो सवसरे पटिति जन्म ग्रहण ब्रते 
वातत ब्रह्मा नै रोपात्म सम्मवस्द्र कापृचन स्यि नौर सवर्प तथाधमं का 
सूजन क्रिया था (1६४) पिले ब्रद्याजी ते जपने दी तुन्य मानस भनक के घटित 
सनन्दन परम विद्वानु सनाठन मौर विमु सनप्ुमारकामुजन स्यिथा्रिन्तु 
वे लो्वोके खजनक्मं ने निरपेक्न होनिके कारण प्रवृत्तही नरी हृएये॥ ६्५~ 
६६ ॥ वे सवके सव जानोदय दहो जाने वक्ति, वीतराग अर्थात्‌ परम वैराग्यमे 
पर्णं रहने वाते मौर मत्सरा ये रहिविये } इम प्रहर से तोक वृत्तके 
अनुकरण मे चिल्ल ही भयेक्ला न रखने वाते उने होने पर ब्रद्याजी निन्वित 
हुए ॥ ६७ ॥! उस्र समय "नोत सजन एव वरादर उतरे वर्धन के यपे ज्यं मे 
अयष्ठन्‌ र्द्ते द्‌ दिरू्यणमं परमेष्ठ भण्वदन्‌ ने मन्‌ मेब्हूवदी विन्दाक्ी 


श्थ्व ] { वपुुगम 


थी। उष विन्तनकालवे उनङरे रोप से समुर मूर के समान दति वादा, 
भवनासोदवर पु सामने दुभा जो इतना तेज युकः था जद कि सात्‌ मि 
ही हो ॥६८॥ वह्‌ आदरिप्य मे समान तेज वाला समस्त ठन से पूर्णं उतवा 
भौर अपने आापङ्गा विभाजन क्रो यह कहकर वहा प्रदी भत्ति हागया 
॥1 ६॥ दस प्रकार हरर पुष्प ओद स्यो परय प्रयम्‌ होकररदोस्पोर्मे ईष्वर 
ने अपने मापके जध मागक्यौ एकादश प्रकार सेजम दिया वर्था उप 
कपा था {७० 


तेनोक्तास्ते महाटमान सर्वं एर महात्मना । 

जगतो वहुलीभावमधिषृत्य दितेपिण ॥७१ 

लोकवृत्ताननहेतोटि प्रयतध्वमतन्द्रिता 1 

विश्च विश्वस्य लोकस्य स्थापनाय हिताय च ॥ऽ२ 

एवमुन्तास्तु रुरुदु द्रुवुक्व समन्तत ॥ 

रोदनादुद्रावणद्धव रद्रा नाम्नेतिविधर्‌ता ॥७३ 

यटि व्याप्तभिद सर्वं तंलोक्य सचराचरम्‌ 1 

तेपामनुचरा लोके सर्वलोक्परायणा ॥७४ 

नैकनागा युनवना विक्रन्तश्च गणेश्वरा 1 

ततयासा महाभागा शक्ररस्याद्धेकायिनी 1७५ 

प्रागुक्तातु मया तुभ्यद्ीस्वयमोमुंवोदुगना । 

कायाद्ध' दा ।णन्वस्था शुक्ल वाम तथाऽसितम्‌ ५.६ 

आत्मान विभजघ्वेति मोक्ता देवी स्वयभुवा । 

सातु प्रोक्ताद्विजभ्रुताशुक्नाक्ृप्णाचेवेद्िजा । 

तस्या नामानि वक्ष्यामि श्मुध्व सुस्तमाहिना ॥७३ 

उत महानु आत्मा केदारा इस प्रकारते केग्ये वे सभी मदालसा 
जोकि हित के चाहने वारे ये जयन्‌ कौ व्हुनता को करे की भावना मे भविः 
कार वाते हृए्‌ ॥ ७१ ॥ याप स गननदिनि होति हृए्‌ लाक के वृत्तान्तके क्लि 
पूरण प्रय करो अर्धात्‌ विश्व कौ रचना करने मे मालस्य का प्याग कर प्रय पूर्य 
यलक्या) तोकं दौ स्यापना मौर श्रा दितिक्रना ही वुम्दाख धूण 


देव मृष्ट वर्णन ] [ १५६ 


कर्तच्यहै॥ ७२॥ जव ब्रह्याजीने लोक की रचना एव स्यापना तथा विन्धके 
तके कार्यो कौ निमित्ति कै लिये उन्ेकहा तौ वे सव भौरते ददन करने 
ल्ग मौर एकदम द्रवीभ्रूत हय गये । अतएव रोदन करने हित्था उनके द्रावणं 
होते पे उनका नाम ममार ' द" प्रषिद्हयो गया था 1७2) जिनके 
द्वारा यहं समस्त चर घोर अवर स्वल्प वालात्रलो्य व्याप्तहो ग्याथावे 
भपवानुस्द्रये 1 उनके अनुचर लौकर्मे समस्न लोक कार्योमे पराय हृषु 
॥ ७४॥ व गणेश्वर अनेक नागो के बल के तुन्य वन वति गौर प्रम पिक्रम 
से युक्तय । आओौर वहा प्र मपवावु णद्धुर्‌ कै भर्व शरीर वाली जो वह परम 
महाव भाग वाली धौ 13६1 पिति मैते तुभरो स्वयम्भू क मुख से उत्पन हर 
स्वीक नरिपयमे वन्या था! उका दक्षि काय। का अं माग सुक्वतथा 
साम मय माग थितया॥ ७ ॥ ह दविज वरद । भावमा का विभाजन करो 
हम प्रकार से भगवान स्वयम्मू के द्वारा क्दी गई बद शुस्ल मौर कृष्ण दो प्रकार 
कोहो मर्यो) अव उनके नाम वत्रलाता है उन्द्‌ दुमे साम साचचान टकर 
श्रवेण करो ॥७७॥ 

स्वाहा स्वधा महाविद्या मेधा लक्ष्मी सरस्वती । 

पर्णा चक्पर्णा च तथा स्यादेव पाटला 1८ 

उमा हैमवती पष्ठी स्तल्याणी चैव नामन । 

ख्याति प्रना मटामागा लोक्रे गौरीति विश्रुता (जये 

विद्वरूपमयार्यापा पृयम्देहविभावनत्‌ ॥ 

श्रगु स्नेपनस्तस्यर यथावदननुपूर्वग (८० 

प्रकृतिर्मियता रौद्रौ दुगा भद्रा प्रमायिनौ। 

कालरात्रिर्महामाया रेवती भूतनायिका ॥८१्‌ 


दरापरान्तविकारेप्‌. देव्या नामानिमेग्यृयु) 
गौोनमी कलौशिक्री आयां चण्डो कात्यायनी सती ॥5२ 
कुमारी यादवौ देवौ वरदा कृष्णपिद्ला । 
वर्दिघ्वंजा धूलधरा परमन्रहाचारिणी ।८३े 
माद्री चेन्दमथिनी वृपकल्येक्वामप्ती । 


१५० 1 { वाव्ृजुरन 


अपरायिता यद्ुभूजः प्रगल्भा मिदयादिनी ॥८४ 
एकानसा दैत्यटनी माया मद््िपमह्नी । 

अमोधा विन्ध्यनिलया विकास गणनायिका ॥८५ 
दैवौनामविकायणि इव्येवानि ययाक्मम्‌ 1 
भद्रक्ात्यास्वयोक्तानि देव्या नामानि त्तत्वत्तः ८६ 


उनके नाम--स्वाहा, स्वधा, मदादिदचा, मेषा, लदमी, एरस्वती, वर्प्णा 
एकपर्णा, पाटा, उमा, टेमदकती, वस्पषणे, ददाति, श्रता, मह्यमानर है श्रौलेक 
मे गौरी-दस नायसे विश्रुत हुईं है ॥७८-अ६॥ सव श्म आर्याणा भो विश्र 
स्पटै जिसका प्रथक्‌ देही विभावना प्राकट्य हग दहै, उवः प्रूयाहति 

दौ मानृूर्वो के भनु्ार सप्तेप मे श्रवण करो {+° श्रत, नियता, रोपर 

दुरम, मद्र, प्रमायिनौ, षाक्तरात्रि, महामाया, रेवती भरूतनापिङ्ाये उसके नाम 
होति ह ॥८१॥ शब द्वापर के अन्त तक विकारोमे जो उसके नाम हउन्रा 
धवेण करो गौतमी, कोशिका, भार्या, चण्डी, कात्यायनो, सतौ, कुमाय, 
यादवी, दे, बरदा, प्य पिद्घ ना, वरिर्वेजा, सूतवरा, परम व्रह््चारिणो, 
मह्धी, इनद्रमगिवी, वृपङन्या, एक वा्षठी, अपरातरिता, दहुभुना, प्रस्ना, 
तिहवाहिनी, एक्ानसा, दव्यहनी, माया, महिपमर्दनी, धमोधा, कर्ध्य ति्तया, 
विफ़ान्ता, गण नापिकाये देवियोके द्रम के ढनुमार विङ्गार रहित नामदह। 
तुमको भद्रकालीकेनामोको त्त्वेस्पसे बतला दिया गया दै 1२८२-० 
८४-८५-८६ 

ये पठन्ति नरास्मेपा विद्यते न पराभव. । 

अरण्ये प्रान्तरे वापि पुरे वाच गृद्ऽपि वा (७ 

रक्षामेता पथुञ्चीन जले वापि स्थलेऽपि वा) 

व्याघ्रकम्भीस्वौरेभ्यो भूतस्थाने विश्चेपवः। 

आधिष्वपि च सर्वासु देव्या नामानि कौत्तंयेत्‌ ।+>ण 

भर्मकग्रहभूतंश्च पूतनासातृमि सदा । 

सभ्यदिनाना चालाना रक्नागेता प्रयोजयन्‌ = 

महादेव कने ढं नु प्रज्ञा शरीग्च प्रकीर्त्यते । 


दैव-गृष्टि वर्णन |] [ १५१ 


लाभ्या देनोसदस्राणि यव्यप्निमखिलं जगत्‌ ॥द० 
साऽनुजदुं व्यवसायन्तुं धर्मं मृतसुदावहम्‌ ! 
स द्धुल्प््चवे कत्पादा जनिरेऽव्यक्तयोनितत ॥६१ 

जो पुरुप उन नामोका ष्ठ क्रते हँ उनका मरभ्यमे, प्रान्तरे, पुर 
भेत्तथाघरमेंमोक्हुं मी कमी कोई पराभव नह होता है ॥८७)) यह्‌ सवव 
रेक्लाकारक दै भौर वमे बयवा स्यचमेमी इने रछ्ाहोषठीहै। व्याघ्र, 
धरम्भीर गौर चोरोसते विेप स्यसे भूतस्यान मे तथा समन्त आधिर्योमे देवी 
कैशुभनामोका कीर्तन करना चाहिए ॥८॥ यभक् प्रह मौरमूतोसेतया 
स्वेदा पूतना मातृका ते जो बालक वम्यदित होते मर्या साये हृए हते 
है, उनकी इम दौ को नामावलौमे रक्ला करनी चाहिएु ॥८६॥ महादेवी के 
पूवर्मे प्रतार श्रय दोनो प्रकोतितदोठो ह। इनदोनोदे ददी ङे सट 
नाम देते हं जिनघ्च यट समस्त जगवु व्या्ठहो रहाट ६० उ देवीने 
ध्यवपायक्ा सूजन शिया तया सवेको सुख प्रदान करनं बाले धमं भोर एद्धुन्य 
क्नोक्ल्प के भादि मे गव्यक्त योनि से उतयन्न क्रिपा ॥६१॥1 

मानसश्र रचिर्त्रामि विज्ञेयो ब्रह्मण सुन । 

भ्राणात्‌ स्वादसुजदृक-वदुर्म्याचि मरीचिकरम्‌ 1१६२ 

शरगुस्तु हदयाज्जनं पि सलिलजन्मन । 

शिरपरोऽद्जि र्स्चैव श्रोनादत्रिन्तयं३ च ॥६३ 

कुतस्त्य तथोदानान्यानाच्च पुलह पून 1 

सेमानजे वसिष्ठन्तु जपा नन्िर्मने करनुम्‌ ॥६४ 

अभिमानात्मकं भद्र निमे नीललोहितम्‌ । 

इत्येते ब्रह्मण पुना प्रागजा द्वदश स्पृता. 1 

इष्येते मनसा पुना विज्ञेयः ब्रह्मण सूत्रा 1 

भग्वादयस्तुये सुष्टान चते ब्रह्मवादिने ॥1६६ 

गृहुमेधिन पुराणास्ते धर्मस्ते. प्राक्‌ भवतति. 1 

दादश्ैते प्रवर्तन्ते सह प्प्रेण ने प्रजा ॥९७ 

भु नत्व मारस्तु इरतरिताव्‌ दं रेतमौ । 

पूर्वेदन्नौ पुय ते-यः ख्वेपाभपि पूर्वन 1६< 


१५२ 1 { कायु-दुखण 


ब्रह्मा का मानस पृत्र रच-इस नाम वाला जानना चाहिए । पने प्राण 
पिब्रह्मानेदक्ष कौ उत्पन्न सरिया मौर चश्रुभओसे मरीचिको जन्म दविपाया। 
1 ९२॥ श्रमं हृदय से उत्पश्न हूए अर्थात्‌ सलिल से जन्म ग्रहण करने वाले ब्रह्मा 
कै हृदमे भगु ऋषि कौ उष्त्ति हई थो । शिरसे मद्धिरक्तकी पत्थाश्रो्रते 
भलि ऋषि का जन्म हुभा चा ।\६३॥ उदान पे पुलस्त्य को, ध्यान से पृलह को, 
समानस वसिष्रको भपानसे क्रतु कोमोौर ्भिमानवै स्वल्प वाले नीत 
सौहित भद्रको निर्ि्त क्थाथा। ये वारहप्राणसे जन्मतेने घालिब्रह्याके 
पुर्व कहनाये ये ॥६५॥ ये ब्रह्मा के पुत्र मान्त जानने चादिएभौर नोभयं 
धादिका सृजन क्या वेव्रह्यवरादौ नही ये |1६६॥ वे षव पुराण गरहमेवी 
र्यात्‌ पुने गृहस्य ये जिन्ोने प्रयम धमं कोप्रवृत्त कषाया येबार्हख 
कै सायश्रजाके सूननमे प्रवृत्त होते ह ॥६७।। रभु गौर सनत्कुपारये दोनो 
उड.वंरेता ये । ये उनतत प्रहिते प्राचीन समम मे उन्न हृए्ये मौर्ये दोनो 
सभीके पूर्वन ये ॥६८॥ 


व्यतीते प्रथमे कल्पे पुराणे लोकसाधक्रौ । 

टौराजे 7वुमौ लोके तेज सक्षिप्य चास्थितो ।६् 
तावुमी योगधर्माण^्वारो प्यात्मानमालनि । 
प्रजाघर्मज्व मञ्च वर्तिता महौजसा ॥ १००५ 


यथोत्यन्नस्नथैवेह दुमार इति चोच्यते । 
तस्मात्छनल्वु मारोयमिति नामास्य कीतितम्‌ ॥१०१्‌ 
तेषा ददशते वशा दिव्या देवगुणान्विता । 
क्रियावन्त प्रजावन्तो महुपिभिरलृता. ॥१०२ 
त्येष करणोदुमूनो लोकाच खष्ट्‌ स्वयभुव । 
मह्दादिविशेपान्तो विकारः प्रहृते स्वयम्‌ १०३ 
चन्द्रगूयद्रनालोरो प्रहुनक्षव्रमण्डितः। 

भदीभिश्च समुद्रश्च पर्वतैश्च समारत ॥१०४ 

पुरश विविधाङारं प्रीतज्जनपदैसतथा ॥ 

तस्मिन्‌ ब्रह्य्रनेऽ्यक्ते ब्रा चरति णरंरोम्‌ ॥१०५ 


देव पुष्टि वर्णेन] {[ १५३ 


वैराज नामक प्रथम कल्प के व्यतीत होने पर लोकोके साषक वै दोनों 
मीक मे तेज का सक्ष करके आस्वित रहैये 11 ६६ ॥ योग के धमं वत्तेवे 
गनो भष्मा मे म्मा को जायेप करे महानु ओजसे प्रजा घमं मौरक्राम 
गरे बरततेये॥ १००॥ ज्यो टी यदा उपघ्न हुये वैसेही कुमार यह कहे जाते 
{॥ दी कारण से यह्‌ सनक्ुमार ह--इम प्रकार से इनका नाम कीत्तित हज 
{॥ १०१॥ उनङेवे देव गुणोसे युक्त दिव्य द्वादश वंश हर जो महपियोसे 
पृलद्कुत क्रिया वि मौर प्रजा वाले ये ॥ १०२॥ यहु करण से उद्भूत 
स्वयम्भू कै लोकोकामूतन करने के स्ये महत्‌ से म।दि लेकर विशेष के भन्त 
पक स्वय प्रहति का विक्रार है ॥ १०३॥ चन्द्रमा भौर सूर्यकी प्रभाके अलोक 
(प्रकाश) वाला, ग्रहो गौर नक्षब्नो से विभरपित तथा नदियो, समुद्रो ओर पर्व॑तो 
रे समावृत ~ अनेक प्रक्रार के आाङार वलि, पुरोते एव प्रतियुक्त जनपदोते 
आवन दते उस अव्यक्त ब्रह्म-वन मे ब्रह्मा श्वंरी (राप्नि) को त्रित ई ॥१०४- 
१०५॥ 

अञ्यक्त्रीजप्रमवत्तस्यैवानुग्रदोत्यितः1 

चुद्धिस्कन्वमयश्रौ व इन्दियाद्धः रकोट रः 114०६ 

महाभूतप्रशाखश्च विशेषैः पत्रवास्तथा । 

धमधिमेमुपुप्पस्तु सुखदु खफोदयः ॥१०७ 

आजीवः सैमूतानामय वृक्षः सनातनः । 

एतदुत्रह्मवल चैव ब्रह्मवृक्षस्य तस्य ह्‌ १० 

मग्यक्तं कारणं यत्तन्नित्यं सदसदात्मफम्‌ । 

इत्येपोऽनुप्रद. सर्गो ब्रह्मणः प्राकृतस्तु य ॥१०६ 

मुख्यादयस्तु पट्‌ सर्गा वैकृता बुदधिपूंकाः । 

श्रंकाले समवतेन्त ॒ब्रह्मणस्तेऽभिमानिन. 1११९ 

सर्गाः परस्परस्याय कारणं ते वुः स्मृताः । 

दिव्यौ सुपर्णो सयुजौ सश्राखौ पटविद्रमौ । 

एकस्तु यो द्रुम वेचिनान्यः सर्वात्मनस्ततः ॥१११ 


१५४ ] [ बापु एष 


दोप धानि यस्य विप्र स्तुवन्ति घ्रा वै चन््सुयौ चनेत्रे। 
दिश श्रोत्रे चरणौ वास्य भूमि, 
सोऽचिन्त्यत्मा सरव॑मूत प्रसूति ॥११२ 
वक्रावस्य ब्राह्यणा सप्रहूता यद्रकषस्त क्षत्रिया, पूवेभागि 1 
वेष्याघ्नोरोवंस्य पद्या च शद्रा, 
सरवे वर्णां भातत सप्रसूताः ।११३ 

महेश्वर परोऽव्यक्तादण्डमनभ्यक्तसभवम्‌ । 

अण्डाज्जज्ञे पुनत्रह्या येन लोका छृतास्स्विमे ।११४ 

उती के अनुग्रह से उत्वित हभा- बब्यक्त वोज से प्रभव (भतम) 
वाला, वृद्धि के स्क" से परिदुणं, इन्द्रियो के अङगर कोरर वाला, मदेभूती 1 
शरणातायो वाला, विदेपो के ते पधो बाता, र तथा अधमं हपी पुष्प 
ते वभ्वित, मुख ओर दुख स्पी फनौके उदय वाला बीर समस्त श्रागिों शै 
यामोविक्ा वाना पह सनातन वृक्षै! उपनब्रह्म वृक्ष वा यह ब्रह्मही बत 
होता है ॥ १०६--१०७--१०८॥) जो अपक्त कारण है वहु नित्य बौर एव्‌ 
तथा बसव र्वष्प वाला होता है! गो प्राह्तिक रागं है वहत्रह्या का भनुग्रह 
है॥ १०५ ॥ मृष्य मादि छँ सर्ग वृहृत ओर बुद्धिपूर्व होते ह । ये मिमान 
वाति ग्रह्याकेप्रकाततरेहोतेये ॥ ११०॥ विद्रानोनेउनसगो कोठी ष्ट 
स्परदकेषारणक्दाहै। षुदर पयं वाति, सपु मौर शासे युक्त दिष्य 
पद विद्रमरहै) जोएुकद्रूमका तान रखता वह स्वासा से मन्य नही 
ह ॥ १११1 जिसको रमा सूरघाष्ा प्राह्ण स्तवन क्रिया कते ह, माका 
भिनको नामि है भौर चद्रमा ठयामूरयं दोन है, दिथा श्रो है भौरमृमि 
उपै वरण ह, षह समस्त प्रागियो कौ उत्पत्ति कले वाल्ला बचि्य भाला 
दै ॥ ११२॥ जिषे युपदे वाद्यम उत्यत्र हए, वक स्यल तै ध्ल्ि, उम 
पपू भागवते देश्य गोर न्फ पैरो यू उपप ह+ दम प्राप सधी 
दण ठग णयोर ही उदुभून ह्‌ ॥ १६३ ॥ जब्त ते ष्र महर है 
मौर अन्पनः स उप्त बण्टट, यञ्डमे पिरब्रमाने धनग्रहण पिया 
श्रह्यातरेयसतीमात्वनापटे ॥ }{४॥ 


मन्वन्तरादि दर्णन | [ २४५ 


1\ मन्वन्तरादि वर्मन \1 

एवमूतेषु लेषु ब्रह्मना तोक्क्रंणा। 

यदातानग्ररत्तंन्ते प्रजा केनापि हेतुना ॥१ 

त्तमोमाब्रदरनो ब्रह्मा तदाप्रगृति ट्‌ यित । 

ततन. म विद्रे वुद्धिमर्यैनिश्रयगामिनोम्‌ ॥२ 

भयात्मनि समन्नालीत्तमोमाना नियामिग्म्‌ । 

राजसत्वे पराजित्य वर्तमानं स घेन ।३ 

तप्यते तेन ट चेन शोक्खक्रे जगदति-1 

तमश्च व्यनुदत्तम्माद्रजम्नमसमावरणोन्‌ 1४ 

तत्तम प्रतिगृच्च वं मिथुन म व्यजायत । 

अधमचिरण।ज्जनने दिखा गोक्ादजायत ॥५ 

तत्स्नम्मिन्‌ ममृदूमूने मियुने चर्मारमनि 1 

ततश्च भगवानात्तीत्‌ प्रीतिग्रं वमजिन्नियत्‌ 1६ 

स्वातनु न तनो ब्रह्य तायपोटदमास्वरामु 1 

द्विपाक्ररोत्म त देटमद्धन पुरपोऽमवन्‌ 19 

जद्धंन नारी ना न्य घतस्पा व्यजायत्त । 

भरार्ता भूतवव्री त्ता लामान्वं नृष्वादू विन ॥न 

ध्री मूनजीने क्टा-द्मप्रारवे दोन वत्ति लोम ज्र वाङ्ञोकी 
स्घनात्ररने बलेत्रद्याके इाराश्िसी मीदैनुस्र वप्रा प्द्रत्तन दतर 
तमोपात्रत्रे यवृनब्रह्मा जौ तमी श्रे लक्रर शयन्ठ ट नित्त हये । दयक यनन्वग 
उटोनियर्वेकै निश्चय क्ररन वाती वुद्धि दनां ॥ !---२॥ टम जननर 
उन्न धमु तरे वतमान राङश्नव कौ पराजित करत तमामातरा ङौ नियामन्र वुद्धि 
कामाम्राम्‌ उजनत्रिवायथा ॥३॥ दउमदुखनवट्‌ तथ्यमानदट्तरे टं वोर 
जगततत्तिनै वडा धोक ङ्पाया॥ चय॒तमक्य विनादन दिया नीर रजोगुण 
ने तमोगुण यादृ कर लिया या (॥८॥ प्रनिनृन दए ग्छ तमन भियुनकी 
उत्पत्ति दृढं! यवमंकं चरणचेषखा णोर ठे ट्व ट्ट ४५१ इथे 
पश्वात्‌ चरणामा मिनन के खमुल्यप्न हने पर इमे मनन्ठर भगवान्‌ प्रषद्नद्ृए 


१५४ 1 { कापु पृष 


योम डान यस्य विप्र.स्तुवन्ति यनि व चद्धमू्ौ च नेतरे! 
दिशः शरोपरे चरणौ चास्य भूमिः, 
सोऽचिन्त्यात्मा सनं गरुत प्रपूतिः ॥११२ 
वत्रादस्य ब्राह्मणाः सम्रसूताः यदक्षस्तः क्षत्रियाः पूर्वभागे । 
वैष्थाश्चोरोयंस्य पद्या च श्रा, 
सर्वे वर्णा गात्रतः सप्रसूताः ॥११३ 

महैश्वर परोऽव्यक्तादण्डमन्यक्तसभवम्‌ । 

अण्डाज्जज्ञे पुन्न ह्या येन लोकाः दृतास्त्विमे ॥११९४ 

उसी के अनुग्रह से उत्यित हा - अव्यक्त वीज से प्रभव {जन ) 
बाता, बुद्धि के कन्थ ते परिपणे, इन्द्रियो के अर कोटर वाला, महभूवो की 
्रशादवाओं वाला, वि्चिपो के ते प्ररो बाला, धमे तथा बधं रूपौ णो 
मे मन्वित, मुष ओरदु त लूपी फलो के उदय वाला भौर समस्त ्रागिगों ॥॥ 
माजीविक्ा वाला यह सनाठन वृ्लहै। उपब्रह्म वृक्षकायह ब्ह्यषठीकेल 
होता दै ॥ १०६--१०७-- १०८ ॥ घो उन्यक्त कारण है वह नित्य भीर एव 
तथा भसत सवस्य वासा होता है । जो प्राङृतिक सगं है वहव्रह्मा भाक्् 
दै 11 १०६ ॥ मुख्य मादि चे मनं वृत ओर बुद्धिरवंक होते ह । मे भभिपरान 
वाति ब्र्माकेव्रैशलमे हयोतेये ॥ ११०५ विद्नोतेउनसर्णे कोही पर 
स्रकेद्यारणक्हाहै; सुन्दर पणं वानि, सुन मौर शालाश्रो से युक्त दिष्य 
प्रदबिद्रम्है) जोएकद्रमका नान रपतताहै वह्‌ सर्वात्मा घे मन्य नही 
द) १११॥ निस्ेचो स्प मूधो का व्राह्ठण स्तवन किया करते हु, माकर 
जिमकोनामिदहै मौर चन्रमा तयामूर्य दोतेत्रहै, दिथा श्रोत्र है भौर भूष 
ठग चरण है, दह्‌ समस्त भराणियो कौ उत्पत्ति करने वासा अचिन्स्य भतम 
५ ११२॥ निशक मुखस चराद्यग उयप्र हए, वक्षस्य से क्षस्य, उष्भौ 
के धूं भागते वश्य मौर जिसके पैरों चे णृद्र उदक्च हृष्‌ दस अकार सभी 
वं उमे शरोर दौ उद्भूत टएह ॥ ११३॥ मव्धक्त सेपर मदर्‌ ् 
भोर वन्यत त रत्पक् बण्डदै, वण्डसेफिरग्रद्याने न्म प्रहेग त्रिणा त्रिष 
श्ह्यानेयेखमो सोद वनायेरहैं ॥ ११४॥ 


१५६ 1 { यापु पृण 


घीर्‌ षस प्रक्ारसे सदन श्रिया 1६॥ इरे पण्वात्‌ ब्रह्मामे अपने उस 
अभार्वर शरीर का मपौहु कर दिषा भौर उसने उस देहके दौ भागकर दिए। 
याधे भागे वेदे पुरुप हृ कौर गरे ण्टीरके मराग्रसे उको नारी एतषा 
उसपन्न हुई । वरिभुने भूतो की पाहत धारी उवौ प्राप्तकर कामनाओं को 
सृषटिकौ यी ७--८॥ 

सा दिव पृथिवीचंव महिम्ना व्याप्य धिष्ठिता । 

ब्रह्मण सा तनु पूर्वा दिवमावृत्य तिष्ठति ।\ 

या व्वद्धात्‌ सृजते नारी शतरूपा व्यजायत । 

सा देवी नियुतन्तप्त्वा तपः परमदुश्चरम्‌ ११० 

भर्तारन्दीक्तयशस पुरुष प्रत्यपद्यत । 

स वे स्वायम्भूव पूर्व पुरुषो मनुरुच्यते ॥११ 

तस्यै कसक्तियुग मन्वत रमिहोच्यते । 

लम्धा तु पुरुप परली शतरूपामयोनिजाम्‌ ५१२ 

तेया सर रमन्ते साध तस्मात्सा रतिरुच्यते । 

प्रथम सप्रयोग स कल्पादौ समवत्त॑त ।१३ 

विराजममजत ब्रह्मा सोऽभवत्‌ पुष्पो विराट्‌ । 

सम्राप्मानसरूपाततु वै राजस्तु मनु स्मृत ॥१४ 

चद्‌ मपनी महिमा से दिव ौर पृथिवी मे न्यात्त होकर अधिष्ठित हर + 
प्रहा षा वह्‌ पूव ततरु दिव को भावृत करके अधित होता है॥६॥ निष 
मरीरमे धपने अभाग से नारौ का सूजन करिया गौर धतेह्पा समुलनन ह६। 
उष्देवौने दश हार वपं पर्यन्त परम दुश्चर तप किया धा॥ १०॥ देष 
ग्र तप्रया करके उसने दीप्त यश ताते भपना स्वामी पु्प प्राप्त ्रिपाषो 
सौर वहे पुष्प प्रयम्‌ स्वायम्भुव मनु इसनामसेङ्हा जति है॥ ११॥ यहा 
पर उसा एष सप्तति मर्य इक्र युमपर्यनत मन्व तर कहा जाता है । एय 
तरे अयानिता अर्त ोनि उ्पक्नन दोन वाली शतह्पा को परलीकेरूप भे 
प्रप्त रिफा॥ १२॥ वह्‌ उपक साय रमणदरते ह ्सीतिये वहु रति ही 
जतो है 1 कल्ये मादिम वह्‌ प्रयम साग्प्योग टमा ॥ १३१) ब्रह्माभमी मे 


मन्वेन्तरादि वणन ] [ १४७ 


विराट्‌ का सुजन किया सौ वह पुष्प विराट हो ग्या या। मान्तस्प दहे 
सन्ना, वैराज मनु कहा गाद ॥ ६४1 

स॒ वैराज. प्रजासर्गः स सर्गे पुरपो मनुः 1 

वे राजाद्ुरपग्रीराच्छतरूषा व्यजायत (१५ 

त्रियत्रतोत्तानपादौ पुत्रौ पूत्रवतां वरी । 

कन्ये द्र च महाभागे याभ्यां जाताः प्रजास्त्विमाः ॥१६ 

देवी नाम्ना तथाद्कुतिः प्रसूतिश्च ते सुभे 1 

स्वायम्भुवः प्रमूतिन्तु दक्षाय व्य नत्‌ प्रभुः ।१७ 

प्राणो दक्षस्तु विज्ञेयः सद्धल्पो मनुरुच्यते । 

सचे: प्रजापतेश्च ब आदति प्रत्यपादयत्‌ १८ 

आद्त्य मिथुनं यज्ञे मानसस्य रुषेः युभम्‌ । 

यज्ञश्च दक्षिणा चैव यमकौ सम्बभूवतु ॥ १४ 

यज्ञस्य दक्षिणायाश्च पुवा दादश जज्ञिरे । 

यामा इति समाख्याता देवाः स्वायम्भुवेऽन्तरे ॥२० 

यमस्य पुत्रा यज्ञष्य तस्मायामास्तु ते स्मृता. । 

अनजिताश्चंव शृकाश्च गणो दवौ ब्रह्मणः स्मृतौ ॥२१ 

वह्‌ वैराज प्रजासे है मौर वह सरगेत्रेपरूपमनुहै। वोर वैराज पृष 
से शतरूपा उत्पतन दुई ॥ १५॥ वुजवानो मे परम धेषठ ्रियत्रत भौर उत्तान 
पाददोपृत्र ओरदो महावर भाग्यशालिनी कन्ये हद जिन दोनो ते ये समस्त 
प्रजा उत्पन्न हुई ॥ १६॥ नामसेवे देवी आकूति भौर प्रसूतिथी जोङ्कि 
अत्य शुमयथो। स्वायम्भूवरप्रभुनेप्रसूत्तिको दक्ष के लिपे दानं करके दिया 
धा ॥ १७॥ प्राण को दक्ष समज्ञ तेना चाहिये भौर सद्धुल्प मनु कहा जाता 
दै। प्रजापति व्चिके लिए आकूषततकोदे दिया ॥ १८1 दूति मे मानस 
केयज्ञमे शुभ मिथुन हुम्रा। यज्ञ मौर दक्षिणा यह्‌ यमल { नोडली सन्तति) 
पदा टमा ॥ १६ ॥ यत्त के दक्षिपा मे वारह पुत्र उत्तर हृए्‌ 1 वे स्वायम्मूव 
कै अन्तर्मे "यामा" हम नामस जास्यात हृएये॥ २०॥ यमकेपुत्रये ष्रारे 
यत्नके यापक गये ई! अजित ओौर णूरूये दौ गण ब्राह्छण कदे गये ई २१५ 


१५ ] { वापुपराण 


यामा पू परिक्रान्ता यत सन्ना दिवौकस । 

स्वायम्भुवमुतायान्तु प्रसूत्या लोकमातरः 1२२ 

तस्या कन्याश्चतूविशदक्षस्त्व जनयत्‌ प्रभु । 

सर्वास्ताश्च महाभागा सर्वा कमललोचना ॥२३ 

योगपत्न्यश्च ता सर्वा. सर्वास्ता योगमातर । 

शरद्धा लक्ष्मी षृतिस्तुषटि पृष्ठिमं धा क्रिया तथा । 

बुदिल्लंज्जा वपु शान्ति सिद्धि. कीत्तिखयोदशी ॥र४ 

पत्यर्थं प्रतिजग्राह धर्मो दाक्षायणी प्रभ । 

दाराण्येतानि चैवास्य विहितानि स्वयम्भुवा ॥२५ 

तास्थ शिष्टा यवीयस्य एकादश सुलोचना. । 

ख्याति सत्पय सभूति. स्मृति प्रीति. क्षमा तया ॥१६ 

सत्ततिश्चानमूया च ऊर्जा स्वाहा स्वधा तथा । 

तास्तत प्रत्यपयन्त पुनरम्ये मह्प॑य ॥२७ 

रद्रो भगम रीचिश्च अङ्धि पुलह करतु 1 

पूवेस्त्मोऽविर्ेचिष्ठण्व पिततसोऽगिनिस्तथेव च ॥रम 

याम पदे परिक्रान्त हृए इषलिए दिवोकष सन्ना हई। स्वायम्युव 
सुता प्रप्रतिमेदशने सो्मातद चौवीत्त कन्याभो को उपपन्न त्रिया था। 
ये छम महान्‌ माग वानो भोर एमी कमल वे घमा चुन्टर मेधो यासी पर 
गुग्दशी घौ ॥ २२-२३॥ वै सभो योग पलियां थी भौर्‌ सव योगमाता 
घी 1 यद, सदी पृति, तुष्ट, धृष्ट, गधा, द्विया, वृदि, सर्जा षु गानि, 
निटि, ौत्ति एल तेरह कौ दाक्षायणो प्रभु ध्मंने पलीषे स्पमेप्रटन 
भरलियाया। मेये दार स्वयम्भू ने पिए ये 1 २४--२५॥ उने रेष 
यवोदान बौ एरादय गुनोषनद्‌ धी मिते नाम ये हु--प्यति, प्रती, 
स्मृति, स्मृति, प्रोत, शमा, स्रत, अनमूया, उर्जा, स्वाहा भोर पणा प 
ग्याद्ट्‌ ट! उन्न पिरि भन्द मदवियोने ग्रहण दवियाया। उ महिषो शे 
गामदेह-द्द यु मथेवि, अद्रा, पृ, प्रतु, पुरटय, भम्र, प, 
परिहर्योर अरणि यमर्हूिपो के माम पं ॥ २६-२०-२८॥ 


१६० | [{ वायु. 


के विनय नामक पूर प्रमूत हमा त्रथा व्यवसाय दाम वाला धृव वधूकाद्र 
धा ॥ ३५॥ 
केमः शाम्तिमुनश्चापि सुखं निदुधव्जायत । 
यश. कीर्तः सुतण्चापि द्येते धर्ममूनवः ॥२६ 
कामस्य हर्षः पुत्रो वै देव्या रत्या व्यजायत । 
इत्येप वै सुखोढकंः सर्गो धर्मस्य कीत्तित ॥३७ 
जन्त हिसाच्वधर्मद्रिं निठतिस्चानृतावृभौ 1 
निह्ृत्यनृतयोर्जज्ने भय नरक एव च ॥ण 
माया च वेदयाना चापि मिथुनद्रयमेतयोः। 
भयाज्जज्ञेऽव सा माया म्‌.लयु' मूतापहारिणम्‌ ॥३६ 
यैदनायास्ततश्चापि दु.ख जलेऽथ रौरवात्‌ । 
मु,त्योर्व्याधिज्वरा शोकाः कोधोऽमूया च जन्निरे । 
दःखान्तरा स्मता ह्येते स्वे चाघर्मलक्षणाः ॥४० 
तेपा भार्यास्ति पुनो वाते सवे निधना; स्मता । 
शत्येव तामसः सर्गो जज्ञे धर्मनियामकः ॥४९ 
प्रजाः सृजेति व्यादिष्टो ब्रह्मणा नीललोहितः । 
सोऽभिध्याय सती भार्याच्नि्ममे हयात्सम्भवाम्‌ ॥४२ 


शान्विकेक्षेम भौर तिद्धिक्रा मुख पुत्र हथा। कीति का यम हब 
दतो वे मे पुव हष्‌ ये ।। ३६॥ कामका ह नामक पुत्र देवौ रति वे उन 
भा । यह्‌ धमं का युलोदक्तं अयत्‌ धुलश्रदान करने वाना सर्गे हमा जोरि 
ताया गया है 1 ३७॥ हिने मधम से निति मौर अनृत ये ो षर 
खत्यन्न विपे धे । निति मौर मवृ के भय तथा नरक समुत्पन्न दए ॥१५ 
शन दोनों के मापा भोर वेदना इनका जोडा दा हमा जो भसे नमग 
क्षिया) उम्‌ माया ने समस्व मूती के अप्द्रण करने वाली मू को चर 
दियाधा॥ ३६ ॥ वेदनाने रौरवसेदुखकोजन्मदियाथा। ग्रु नै स्यावि 
उपर, शोक लौर असूया ने द्रोधक्यो उन्न ्रियाये सवरदुखान्तर अवम! 
व्ण वाते दए ह ॥ ४० ॥ उनभ म्पा सयवा पूत वे भी तरिवन वदे १ 


मन्वन्तरादि वर्णन | [ १६१ 


ह । यह इतना तामस स्गेवाजो चमं दा नियामङ््‌ हूना दै ॥ ५१ ॥ प्रजा 
कासूजन करो--दसप्रकारसे ब्रद्याके द्वारा नीललोदित जत्र भादेण प्रा 
फरने वाला हमा तो उने सास्मा स सम्मूत होने वाली सती वा यनिष्यान 
करके उदे मपी भार्या बनायाया ॥ ४२); 


नाधिकान्न च हीनास्तानमानसानात्मनः समानु । 

सहत्र' हि सद्राणामसृजत्‌ कृमिवासता । 

तुल्याश्चं वामन. सार्वे रूपतेजोवलश्रुते. ।1४३ 

पिद्धलान्‌ स्निपद्धाश्च सकपर्दाच्‌ विलोहितानु 

विवासान्‌ हूरि केशाश्च दृष्टिघ्ना कपालिन. ।।४४ 

वहुष्पानू विह्पाश्च विश्ल्पाश्च स्पिणः । 

रथिनो व्मिणश्चंव धर्मिणश्च वरूथिनः ॥२५ 

महस्रणत वाहुण्च दिव्याद्‌ भोमान्तरिक्षगायर्‌ । 

स्यूलशीपानषटदप्टानुद्धिनिदह्वासितोचनानर 9६ 

अन्नादान्‌ पिशितादाश्च आज्यपान्‌ सोमपास्तथा । 

मेदपाए्चातिकायार्च शितिकण्ठोग्रमन्यव ॥।४७ 

सोपासद्धतलपरारच धन्विनो ह्य पव्निणः। 

मासीनानू धावतश्चैव जुम्मिनश्चं व धिष्ठितान्‌ ॥४्त 

अध्या पिनोऽय जपतो युरजतोऽध्यायतस्नया । 

ज्वलतो बपंतस्चं व योतमानान प्रधूपितानू 11४६ 

तत्र कृमरिवासा नैन उपादा अविङ मौरनज्यादा होनदेमे अषनेदही 
समान मानसर पुत्रजोसह्मो वै सदस्य उग्र प्पिजो जिसपर, तेन थद्‌ 
रलसे सव शधपनो भास्माकेही दित्डुन दुन्यये ॥४३॥ भव यहां उनके 
हौ ष्प, गुणतया मङ्गारादिका वर्णनया जाता दैन्ये शसि राके 
ये-पिङ्घन, सद्निपद्भ, स्प, वितोहिति, नित्रा, हरिकेश, दृशि भीर्‌ 
कपालीये ॥४४॥। फिरवेविष्प, यदुप, व्िखष्य, स्प, रथौ, वरम, 
धर्मी यौर यस्व याति ये जिररो ङि उप्र तिया वा २५, ्टयदन 
कटु केर दिस्य, मूध कर अन्तरि ने ग्न त्रे क्त, स्थुः सीद कने 


१६२ } [ वायुुराष 


घाठ दाद वान, दो निह्वाओ वले मौर ठीन नेत्रो वले थे ॥४६॥ बप्राद 
मर्याद यन रो भक्षण करने वाते, पि्तिताद अर्थात्‌ माकी, धृत पीने वनि, 
सौमफापाने करने वाले, मदय, मत्तिक्राया वाते, शिति कण्ठ जौर्‌ अल्यन्त उग्र 
करोथ वलो का सृजन श्रिया ॥ ४७ ॥ सोपासद्ध तललो को, धन्वियो को, 
उपवमियो को, सोनो को, दीडते हुभो को, जमाई तेने बालो को भौर अपि 
टितो को उत्पन्न क्था था 1४८ ॥ अध्यापन करने वाते, वपते हुए, योप 
करते दए, अध्ययन क॑रते हए, ज्यत इ ते हुए, वर्ते दए, च्योतमान तया प्रूः 
पितोकामृजन विया ॥४६॥ 

बुद्धान्‌ वुद्धतमाश्चं व ब्रहि शुभदशषेनानू 1 

नीतग्रीवानू सहसृक्षानू सवश्चिाथ क्षपाचरा ॥५० 

अषक्यानू सर्वभूताना महायोगान महौजस 1 

सुदरतो द्रवतश्चं वे एवकुक्तान्‌ सटसुश. 

अपातयामान सृजन्‌ द्द्रन्पानू मुरोत्तमानर 1५१ 

ब्रहम दृषटरऽ्पवीदेनान्मामृाक्षीरीदयी प्रजा. } 

सृष्ट्या नत्मनस्तुत्या प्रजा नँवाधिव्रास्त्वया । 

अन्याः मृज त्व भद्रन्ते स्थितोहन्त्व सुज प्रजाः भर्‌ 

एतेये य मया सृष्टा पिपा नीललोहिता । 

सट्माणा सहमुन्तु आत्मनोपपनिरिचिता ॥५३ 

एते देवा भविष्यन्ति स्द्रानाम महावलाः। 

पृथिन्यरमन्तरिक्ने च रद्रनाम्ना प्रतिश्रुताः ॥५४ 

शनस्द्रनमम्नाता भविष्यन्तोद्‌ य्नियाः। 

यक्तभाजो भविष्यन्ति गवे देवयुगै गहं ॥५५ 

मन्रननरेधु ये देषा भविष्यन्नीह्‌ च्छन्दजा" 1 

ते. माद मौज्यमानास्ते म्वास्यन्तीह युग्रसयात्‌ ॥५६ 

गुटका, वुदनोंका ब्रहि काभौर्युम दर्थन वर्तो, नीषी 
प्रीवा दातार, सहेयनपो दसोवा, समत निशाचेसो बा सुजन पि 
१६०५ जो एिष्ोगो हस्या नही टेरे ये देने यश्य, महद्‌ पौव वानि, पत्‌ 


म्वन्तरादि वर्णन ]} [ १६३ 


बोन वाते, ष्ठन क्रते दृट्‌ तया द्रवि दते दए, यारातयाम, दद्र दे म्पवति 
भौर सुरोत्तम इग प्रतार के युक्त खटगमो कासन क्रि ॥ ४१ ६द्रत्म्ज 
ने जवद्मतरद्‌कौ प्रजादौ मृष्टिबोदेवातो क्टा दमौ प्रजा का सुन मत 
भररो। तुमको जपन प्रजा यपने ही षमा मृतज्रित करनी चाधि, न अधिक्‌ 
होमौरनतुमये हीन हप । अयतुमञ्जयप्रत्ाका पूजन वरो, वृर्दाष 
पत्याण होगा, पं यदौ पर स्पत हू, तुम रजा का वूजन करो ॥भ२॥ य तव 
जोन उत्पनभरियेहिजोङ्रि विन्प यौर नीललोहित ह नीर षटं वै सदम्‌ 
हये मपनो मानमा समान ही निधित स्मेह ॥५३॥ ये म्र महान्‌ 
मयने ष्ट देवता हुते जो मि पृथिवी मे मौर बन्ति मेष केनाम न 
प्रिद्ध हणे ॥ ५४॥ धत दद्रक्टेगयेहजो यदा यिम टोय॥ वे मयेव 
हाभोमे साय यज्ञोकै मागो को ग्रहण करने वाति दोग ॥ ५५॥ मन्व नगम 
जो एन्दिन देता यह] गि उने साय ईउ्यमान वे यद युगबे शयटान ठ 
स्वत रट ॥ ५६॥ 


एवमुक्तस्तदा व्रह्मा महादेवेन घौमना । 

्रयुपाच तदा मोम ट्‌प्यमाण" प्रजाप. 11५9 

एव भयतु भद्र ते ययाते व्याहत प्रभो 1 

बरह्मणा समनुज्ञाते सदा मर्तरमभरूतु किलि ८८ 

त प्रभृति देवेषो न प्रागूयन वै प्रजा 1 

उद्धरता स्थिताः स्यायुर्यावदाभरूननप्वनृम्‌ । 

यम्माचोक्तं न्वितोऽसमीनि तन स्यापुरिनि स्नून ॥द 

शान वं रापमोन्बयं तप मत्य क्षनार्णा" 1 

रुष्ट वमात्मनम्योघम्न्यधिष्टाद्रलपनेव च 1 

अय यानि दनैतनि नित्यन्तिन्ति णर 1९० 

म्यान्‌ देवान्‌ श्टपोश्वं व समेताननगुर- रद्‌ । 
येनितेजमा देवो मदृपरेवस्ततः स्पत. 1६१ 

वन्येनि देयानो श्र्यादूयनेन च मदानुगनू 1 

श्ानेन च भूनीन्‌ मर्गन्‌ योनादूमू वानि भवन १६२ 





१६४ { वागु पराण 


योग तपश्च सत्यच्च धर्म्चापि महामूने । 

माहिश्वरस्य ज्ञानस्य साधनच्च प्रचक्ष्व नः 11६३ 

येन येन च धमेण गति प्राप्स्यन्ति वँ द्विजाः। 

तत्सर््र श्रोतुमिच्छामि योग माहेश्वर प्रभो ६४ 

उस समय प्र घीमान महादेवके द्वारा दस प्रकारसे कहे गये ब्रह्माजी 
ने उत्तर दिप गौर प्रजापति हवित होते हुए भौमसे बोले ष्म प्रकार | 
ब्माप्ना बल्पण होरे प्रमो । जैषाभी आपनेक्हाहै। ब्रह्माके द्वार बमत 
ज्ञान होने प्र सदा सव ठीक हप्र ॥ ५ -५८॥ तवसेतेक्ररफिर देवोके 
स्वमौमे आगे प्रजाका सनन नही करियाथा। जब्रतक भ्रूत सप्लव वर्ष्‌ 
महाप्रलय नगरी हुमा तव तक उद्धं वरता होकर स्थाणु बे स्पमे स्थित हो गये 
म स्थित हं यह्‌ कहूनेके कारणसेदौ स्पाणु हन नामसे प्रसिद हर है ॥५६॥ 
शान, वैराग्य, देशम, तप, सव्य, क्षमा, पुति, सष्त्व, मात सभ्योष, अधिष्ट- 
तत्व ये द शद्धुर मे निस्य हौ विद्यमान रहा करते ह ॥। ६० ॥ समम्त देवा 
शऋ्पिषरष्द भौर उनके अनुचर इन सथको अपने तेजसे ये अतिक्रान्त कर दतै ह 
घतएव मरह महादेव वहसये गये ह ॥ ६१॥ रेश्र्मसेदेवो कता ब्त षे 
महान्‌ मुरो फा क्वान से समस्त मुनिगण का एव योगस स्वं + ॥॥ 
सश्र ओप्य सतिद्रमण महादेव शम्मु कर द्विया वरते टै । ९२॥ ऋषि ने 
कदा-देष्ट्'मु) 1 मदेश्वर मगवान वा योग, तप सस्य, धमं तया जान ॥॥। 
साधन हमारे गामे वर्णेन कौजे, हम उपे धवण करना घाते ह ॥ ९३॥ 
प्रभो! जिषजिग पमस द्रिन गतिको प्राप्त त्रिया क्से द बह एमी मद्धि 
योगको दुनना पाहनैह॥६४। 

पन्च धर्माः पुराणेतुख्रंण समुदण्हताः। 

माहिश्वयं यथा प्रोक्त स्द्रौरविनष्टममं भिः ॥९५ 

अआदित्यैयं ममि. साष्यरश्िभ्याश्चव सवंशः। 

सरदि मुभिश्चौव ये चाये विवुधालयाः 11६६ 
रुरोगेदन पिदृ जान्तवंस्तथा 1 
स्व वटृभिम्ते घर्मा पयुपातनिताः ॥६७ 





मन्वन्तरादि वर्णेन 1] [ १६५ 

तेवं प्रक्षौणकर्माणः शारदाम्बरनि्मलाः। 

उपासते मुनिगणाः सन्वायात्मानमात्मनि ॥६८ 

गुरुप्रियहिते युक्ता गुरूणां वं प्रिवेप्सवः । 

विमुच्य मानुप जन्म विहरन्ति च देववन्‌ १६४ 

महेश्वरेण ये प्रोक्ताः पच धर्मा सनातनाः 

तानू सर्वान क्रमयोगेन उच्यमानानि बोधन ।:७० 

वायुदरेव ने क्हा-पुराणमे दद्र ने कच धमं बतलाये है। भगिष्ट 
कमं करने वाते ष्प्रोने जिस ्रकारसे मदेश्वर्म ञान को दतेलाय। है उन समस्त 
घमोँकी जिन्हे उपाषना कौ दै वह्‌ वतलाता ह ॥ ९५॥ ादित्प, वसु, 
साध्य, भश्चिनीकुभार, मण्दुगण भृगु भौर जो अन्य देवगण हँ उन्होने तया यम, 
शुक जिनके पुरोगामी हृ उनङे द्वारा तया पितरु काान्तक इन स्के दारा णवं 
छम्य वहतो केद्राप वे समस्न धमं उपातिति क्रि गये है ।। ९६६७ ॥ प्रक्षीण 
फं वलि ओरं शरत्काल के अम्बर के सदशनिम॑ल चित्तवाते षे मुनियोके 
समूह्‌ सन्ध्या मे मात्मा मेँ जत्मा कौ उपरा्तना करते हँ 1 ६<॥, भपने गुड 
कै प्रिय भौरिके वार्यामे सदा युक्त रहने वाले ओर गुरके प्रियकी इच्छा 
रखने बलि मनुष्य का जन्म त्पाग कर देवतार्थोकीतर्ह विहार क्रिया करते 
है ॥ ६६॥ भगवान पहश्वरने जो सनातन पाँच धमं वतलाये ह उन शवो 
ष्रमकेयोगसेर्म कृतां मेरे दाराकहै जाने वाञे उनकप्षवको बाप णशोग 
भली-मांति समन्ततो ॥ ७० ॥ 

प्राणायामस्तया ध्यानं प्रव्याहारोभ्य धारणा । 

स्गरणशचं व योगेऽस्मिन्‌ पच धर्माः प्रगोतिताः ॥ ७१ 

तेपां क्रप्विशेपेण लक्षण कारणं तथा 1 

प्रवष््यामि तया तत्व यथया रद्रोण भापितम्‌ 1२ 

प्राणायामगतिदचापि प्राणस्यायाम उच्यते । 

सचापिस्िविवः प्रोक्ता मन्दो मघ्थोत्चतमस्तया ७३ 

प्राणानाच निरोधस्तु स प्राणायामसक्नितः! 

भ्राणायामप्रमाणन्तु मात्रा वं द्वदश स्मूता" ॥५५४ 


१६६ ] [{ गाध 


मन्दो द्वादशमानस्तु उदुषाता दादश स्मता । 

मध्यमए्व द्विरदूधातश्चतुविशतिमात्रिक ॥७५ 

उत्चमस्तनिर्दुधातो माना पदटूत्रिशदुच्यते । 

स्वेदकम्पविपादाना जननो ह्य ततम स्मत । ७६ 

इत्येतत्‌ त्रिविव प्रोक्त प्राणायामस्य लक्षणम्‌ । 

श्रमाणश्च समासेन लक्षणस्च निवोधत ॥७० 

भ्राणायाम ध्यान, प्रव्याहर, धारणा मौरस्मरय ये पाच विश्न 
धोगमेघमकेनामसेक्टी गयी है ॥ ७१॥ उनरपवो वाकम व्करिष ५1 
लक्षण, कारण तथा तत्व जमा भगवान ददरनेकहा हैउते मे वताता 
॥७२॥ प्राणायामी गति भी प्राण का भायाम वहा जाता है मौर बहम 
सोन प्रकारकाहोताटै। एक मन्द होताहै, दूसरा मध्यम भौर्‌ ततीय उततम 
होनादै)७३॥ प्राणोकानियेध जोस्ियाजाता है वही प्राणायाम ईइ 
सन्ञावालाहोत्ताहै। प्राणायाम का प्रमाण द्वादश मात्रा बताई गई है ॥७४॥ 
म्द सजक प्राणायाम ददश मात्रा वालाही दाता है) इसम द्वादश उद 
मारा बताई गहै; प्राणायामका दुरा मध्यम नाम वालाजोमेद दै ५ 
दो वार उदाना दोताहै मौर चौद मात्राद्‌ हो जती है । तीसरे उततम 
नामक मदमे ठीन वार उद्धात होकर दछत्तीस मारि होती ह। स्वेदणक्ण 
सौर विषाद का जनन करने वाला उत्तम कहा गया है 1 ७१--७६॥ये रीन 
प्रकार वाला प्राणायाम का लक्षण बनाया गया है । सक्ञेप मे इसका प्रमाण भी 
लक्षण सप्रक्षला॥ ७३1 

दिवा कुञ्चरो वापि तथाञन्यो वाम.गो वने। 

गृहीत सेव्यमानस्तु म.दु समुपजायते {1७८ 

तथा प्राणो दुराधपं सर्वेपामकृनात्मनाम्‌ ॥ 

योगत सेव्यमानस्तु स एवाम्यासतो त्रजेन्‌ ॥७६ 

सचैव हि यया सिह कुस्जरो वापि दुरवेल 1 

कालान्तरवशाचोगादुम्यते परिम्‌ नात्‌ ॥=० 

परिधाम मनो मन्द वश्यस्व चाधिगच्छति 1 

परिधाय मनोद्रैव तथा ज्यवति माल. ।८१ 


न्कतरादि वर्णन ] { १६७ 


वश्यत्व' हि तथा वायुरच्छने योगमास्थित 1 
तदा स्वच्छन्दत प्राण नयते यव चेच्छति ॥८२्‌ 
यथा सिंहौ मजो वापि वदयत्वादवतिष्ठते । 
अभयाय मनप्याणा मु.येम्य सप्रवर्तते ।1८३ 
यथा परिचितङ्चाय वायुरवे वि्ठनो मुख । 
परिध्यायमान सरदध शरीरे किच्विपं दहत्‌ ॥८४ 


विह हो अयता हाधौ हो तया वन मे अन्य को मृगो, उपे ग्रहण कर 
लिया जावे ओर ेव्यमान वनाया जावे तो वह मृदहो जाता है अर्थात्‌ उष हिम्‌ 
पशुकौनैनपिक्र क्र्‌रता का हास होकर उसमे कोमल भाव आ जाता है ॥अर॥' 
दसी भांति भछृताल्मा समस्त मानवो का प्राण बहून ही दराधपं होता है अर्षत 
नात्म वलसे हीन मनुप्योकाप्राण वर्पणङके जयोग्यहोताहै। यदि योगके 
भम्यास षे वही प्राण सेव्यमान होकर वही जाता है ॥ ७६ 1 जिस प्रकर कोद 
दरबल रया हायी कालान्तरमे योगकै वेग से प्रिमर्दनहोनेसे गम्यहोतादै 
उमौभांतिप्राणभीहोताहै 1८० ॥ मन मन्दका परिधान करक वप्यत्व 
षो प्राप्त होता है। मारत मनोदेव का परिधान करके जीवित रहता है ॥८१॥ 
मोग्रं आसित होना हृञा वापु जिष प्रकार से वश्यत्व को प्राप्त होता उसी 
तेरह उस समय वह्‌ जहां भी चाहता है वही स्वनच्छन्दताके साय प्राणवोते 
जातादहै\ २ ॥ जित प्रकरारसे तिह थवा हायी वश्यत्वं होजाने से यत्र 
स्थित्तहो जात्ता है मौर मनुष्यो को पशुओं से भय रहित करदैता है ॥५८३॥ 
उसी तरह यह विश्वतोमुख वायु बर्थ सभी मोर सर्वव गमनशील वायु प्ररि 
चित होता हुमा प्रिष्यरायमान होकर ज्र सष्ड होतादहैतो बह श्षरीरमेजौ 
श्स्विप होता है उपक दाह्‌ कर दिया करता है ॥ ८४८ ॥ 


प्राणायामिन युक्तस्य विप्रस्य नियदात्मन । 

सर्वे दोषा प्रथयन्ति सघ्वस्थण्चँ व जायते 11८५ 
तपास्सि यानि तप्यन्ते व्रतानि नियमास्चये ! 
सवं यज्ञफलष्व च प्राणायामण्च तस्म [८६ 


१६८ |] [ भाय पुराण 


अचिन्दु म बुशाग्रेण मासि मासि स्मदलूते 1 

सवत्सरशत साग्र प्राणायामञ्च तत्समम्‌ ।,८७ 

प्रणायाममैदरैदोवान्‌ धारामिश्च मिल्विषम्‌ । 

प्रत्याहारेण विपयान्‌ ध्यानेननोश्च यनू गुणान ॥<९ 

तस्मायुक्तः सदा योगी प्राणायामपरो भवेद्‌ । 

सवं पापविशुदुधात्मा पर्‌ ब्रह्माधिगच्छति ।\८६ 

प्राणायाम त युक्त नियत्त भामा वाले विप्र के रामस्ते दोपनष्टहो जाया“ 
क्ते द ओर एर वेह केरल स्त्वगुणमे हौस्थिनिर्हाक्रताहि ॥ ८५॥ जो 
भो तप्याय तपो जातौ हैः ब्रत लिपे जाते ह भौर नियम ग्रहण क्रि जाति 
तथा समस्त यल्लोके करने काजोभी कुव फन होता है वहं सव प्राणाप के, 
समानहोतादै॥ ८६॥ जौ कोई मास-मापमे वुशाके मग्रमाग से जलके 
चिन्दुकफो ग्रहृण करता है बौर सौ दपं तक करता रहता टै यह सक प्राणायाम 
केतुत्यही होता ८७॥ प्राणायाम कं द्वारा मनुष्य अपने समस्त दपाकौ 
दग्ध करदिधाकरताहै धारणाओंके द्वारा कित्विप काना करदेताटै, 
प्रत्याहार से व्रिपयों का संहार कर देत। है भौर ध्यानके हाया अनश्वर गणो 
काक्षयकरदाहै)। ऽप ॥ इसलिये योगौ कौ सव॑दा युक्त होकर प्राणायाम मे 
परापण होना चाहिये । वह्‌ फिर समस्त पापो से विशुद्धे आत्मा वाता होकर 
परब्रह्म को प्राप्त कर लिधा करता है ॥ ८६॥ 

11 पाञ्ुपत-योग ॥ 

एकं महान्तं दिवसमहोरात्रमथापि वा॥ 

मदं मास तया मास्तमयनान्दयुनानि च ॥१ 

महायुगसदसराणि शपयस्तपसि स्थिताः 1 

उपासते महात्मान प्राण दिव्येन चक्षुपा ॥२ 

अतङ्दं प्रवक्ष्यामि प्रणायामप्रयोजनम्‌ ॥ 

फश्च व विशेषेण ययाह्‌ भगवाद्‌ प्रभुः ॥३ 

प्रयोजनानि चत्वारि प्राणाफामस्य विद्धि वे। 

्ान्तिः प्रशान्तिर्दीक्निए्च प्रसादश्च चतुष्टयम्‌ ४४ 


पालुप्रति-योय |] { ६६६ 


धोौराकारशिवानान्तु कर्मणां फनसम्भवम्‌ 1 
स्वयंछ्ृतानि कालेन इहामूत्र च देहिनाम्‌ ५ 
पिन्रूमातर पदानां ज्ञातिसम्बन्विसङ्करेः ? 
क्षपणं हि कषायाणां पापानां शान्तिरुच्यते 11९ 
लोममानात्मकानां हि पापानामपि सेयमः। 
हामूत्र हिता्थाव भ्रणान्तिस्तप उच्यते ।!७ 
श्री वागु ने कहा---एक महाव दिनं मयवा एक यहौरात्र अर्थात्‌ पररा 
दिनं भौर पूरौ रात्रि, भरघनाख अर्या पन्द्रह दिन, मारा, अयन, दन्द मयि 
, वर्पे, यग भौर सहो मदायुग तक महानु मात्मा वाते ऋपिगण वपृ्चर्यामे 
स्थित हौतते हये दिव्य चशु के द्रा प्राणायाम कौ उपाष्ठना रिया करते ह ॥ १- 
२॥ इते अगे प्राणायाम का प्रयोजन बतलाया जातादै नौर जसा क्रि भग- 
चानप्रभुने बहा है उष्ठका विशेष स्पे रुव नी वठलाने द ॥३॥ प्राणायाम 
के चार प्रयोजन जान लो--शखान्ति, प्रशान्वि, दीप्ति गौर घौया प्रणदरयेप्रयो- 
जन-चतृषटय होना है ॥ ४॥ देहुपारियोके घोर माक्रार वाते तथा शिव कमो 
की फल की उत्सत्ति स्वयहृत इष लोक मे मवा परलोक मे वृद कानमे होती 
है ॥५॥ पित्तामात्ताके दारा श्हृष्टरूपते दुष्ट एवं जनाति सम्बन्वी सडुरोसे 
दोपपूक्त कषाय पार्पोका क्षपण णान्तिक्हौ जाठीटै॥ ६4 लोम ओर मान 
स्वल्प वाले पापो का सयम इस घोकमे ओरपरलोकमेद्ितिके त्यिजोतप 
होता दै “प्रसान्ति" कहो जातो दै! ७॥ 


सूये न्दुग्रहताराणां तुल्यस्तु विपयो भवेत्‌ । 
ऋपीणान्च प्रसिद्धाना ज्ञानविन्नानसम्पद्‌ ॥< 
अतीतानागततानान्च दशनं साम्प्रतस्य च 1 
बुदुघस्य समता यान्ति दीप स्यात्तप उच्यते भरद 
इन्द्रियाणीन्दिता्थिचि मनः पंच च मारुतान्‌ । 
प्रसादयति येनासौ प्रमाद इति सन्नितः ॥१० 
इत्येष धर्मः प्रथमः प्राणायामद्चतुषिघः ॥ 
सान्नद्धष्टकनो ज्ञेयः सद्यःकाल प्रद्ादज १११ 


० ] [ वापय 


अत उदू प्रवश्यामि प्राणायायस्य लक्षणम्‌ । 

आसन चे यथातत्व युञ्जतो योगमेव च ॥१२ 

ओङ्धारं प्रथम कृत्वा चन्दरसूयौ प्रणम्य च । 

आन स्वत्तिक कृत्वा पदमरददा्िनन्तथा ॥1¶२ 

समजानुरेकजानुल्तान. मुस्यितोऽपि च 1 

समो दृढासनो भूत्वा सदत्य चरणावृमौ ॥१४ 

र्म, चन्र, ग्रहे भौर तारा के दन्य व्रिप्य होता है) नगौ 
विज्ञान कौ सम्पत्ति स्वरूप प्रसिद्ध ऋषियो के तवा जो पहिति हो चुके ह ठ 
एव भविष्य मे होने वालो के मौर बोघ से पृक्त इछ समयमे होने वाते कै द 
समानता को प्राप्त हेति मौर वहे दीप्ठिह्ोती है, यह तपक्हा जाग 
प ८-६।) इयां मौर दनदरपो के अर्थ अर्थान्‌ विपय, मन ओर पाच माषा 
को निषते प्रशद होता है द्रलिये यह प्रसाद इस सन्ासे युक्त हआ दै ॥१५ 
यहे प्रथम घर्मै सौरः प्राणायाम चार प्रकारका होताहै। षय काणे प्रषः 
से उव्वन्वं होने वाला सन्नङृ2 फल वाला आनना चाहिए ॥ ११॥ इतके गि 
प्राणायाम का लक्षण बताते है मौरयोगकोही करे वाले के यथातिष्य मल 
को भी वाया जाता है ॥ १२ ६ सवं प्रथम बोद्धार का उच्वारण करे कि 
न्द्र भीर सूर्म देव को प्रणाम करे इसके पश्चात्‌ स्वत्विक भापन करे तथा पय 
या अर्घागन करे ॥ १२॥ समानं जानुभो वाला, एक जानु, उत्तान मौ 
सुस्थित, सम भौर हृदं सासन वाला होकर दोनो चरणो को सहत करे ।॥११॥ 

सवृतास्योऽववद्वाक्ष उये विष्टम्य चाग्रत. । 

पाल्णिभ्या कृपणे छाच तथा प्रजनन तत ॥१५ 

किचिदुक्नामितशिराः शिरो प्रीवा तथैव च । 

सम्द्रह्य नासिकाग्र स्व दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥१६ 

तमः प्रच्छाद्य रजसा रज सत्वेन च्छादयेद्‌ 1 

तत. सत््वत्ितो भूत्वा योग युञ्चन समादितः।(१७ 

दुद्दरियाणीन्दरियार्याश्च मन. पच्च स माप्तान्‌ । 

विगृह्य समयायेन प्रव्याहारमुपक्रमेत्‌ ॥¶८ 


, शरशुति-योग | { १७१ 


यस्तु प्रत्याहरेत्‌ कामान्‌ कूर्मोऽद्धानीव स्वेतः । 
तथालसरत्तिरेकस्थः पश्यत्यात्मानमात्मनि ।१६ 
पूरिन्वा शरीरन्तु त बाद्याभ्यन्तर शुचिः । 
आकण्डनाभियोमेन प्रत्याहा रमुपक्रमेच्‌ ॥२० 
कलामावस्तु विज्ञेयो निभरेषोन्मेष एव्र च । 
तथा दादशमानस्नु प्राणायामो विधीयते ॥२९ 
भपने मुख को बन्द करदे--र्मांखो को बन्द करके भौर उरप्यकको 
प्राने फी मोर निकालत्रर--पारस्णियो से वृपणो को तया जननेद्धिय को छादित 
करे ॥१५॥ दुय ऊंचा तिर करने बालु सिर भौर ग्रीवा (गरदन) कोस्चकी 
ओर करे मौर अपनी ना्सिकाफेयम्र भाग को देवे तथा इवर्‌-उवर किसी भी 
ओर्‌ दिगा मे नही देशे ॥ १६ रनागुण से तमोगुण का प्रच्छादन करे भो 
फिर स्वके द्वारा रजोगण का छादनं करना चाहिए । इसके भनन्तर सत्वगुण 
मरै स्थित होकर बहुन समारत भाव सै योग का भ्यास करे ॥१७॥ इन्द्रियो 
को भौर समस्त इन्द्रियो के अरयो को--मनको तथा पाच मार्तो को समवाय 
से विगृहीत करके प्रत्याहार करने का उपक्रम करना चादिए्‌ ॥१०८।। जौ वृर्मके 
दवारा भप्ने शद्नोकी मात्ति सभौ भोरसे अपनी कामनामो का प्रस्ाहरण 
करता है मौर आादमरति वाखा होता हा एकस्य अर्थात्‌ एकाग्र होकर जपने 
ही भापमा को देखता दै 1१६ बाहर मोर भीतरसे धुचिहोकरणरीरको 
पूरित करे ओर आक्ष्ठ नाभि के योगसे प्रत्याहार का उपक्रम करना चाहिए 
॥२०॥ एक कला मातर निमेष भौर उन्मेप जानना चाहिए फिर द्वादश मात्रा 
चालाप्राणायाप क्रिया जाताहै ¶रटा 
धारणा दवादलायामो योगो वै घारणाद्रयम्‌ । 
तथा वै योगयुक्तश्च रेश्र्य प्रतिपद्यते । 
योक्षते ०रमात्मान दीप्यमान स्वतेजसा ॥२२ 
प्राणायामेन युक्तस्य विग्रस्य नियतात्मन. 1 
स्वं दोपा प्रणश्यन्ति सत्वस्यश्चं व जायते २३ 
एव वै नियताहारः प्राणायामपरायणः 1 


१७२ } [ वायु पुगप 


जित्वा जित्वा सदा भ्रूमिमारोदैततु सदा मुनिः 11२४ 

अजिता हि सहाभूमिर्दोपानुत्पादयेदुवहूनु 1 

विवद्धेयति सम्मोहन रोहेदजितां ततः ।२५ 

नलिन तु यथा तोयं यन्त्रेणेव बलान्वितः । 

अपवत प्रयतेन तथा वायुल्खित्तथ्मः 1२६ 

नाभ्या च हृदये चव कण्डे उरसि चानन । 

नासाग्रे तु तथानेत्रेघ्र्‌वोरमव्येऽथ मृद्धनि ॥२७ 

किञ्िदूद्ध परर्स्मिश्च धारणा प्ररमा स्पृता । 

प्राणापानसमारोधात्‌ प्राणायामः सर कथ्यते ॥२८ 

द्वादशायाम घारणा होती है मौर दो धारणाओकायोग हौताहै भ॑ 
उस प्रकारसे योगसे युक्त होकर देश्यं को प्राप्त हो जाता है फिर मने 
से दीप्यमान परमात्मा को दे नेता है ॥२२॥ प्रापाणम्‌ चे यृक्त नियते भात 
वालि विध्र के समत्वे दोवमश्डो जपति है घोरे फिर वह्‌ केवल सत्वे 
स्थित रहने वाला होत्ता है ॥२३॥ इष प्रकार से नियत गाहार वाला मौ 
सर्वदा प्राणायाम करने तत्पर रहने वाला सदा मुनि जीत-जीत कर भूमि १ 
मारोह करे ।॥२५॥ न जीती हुई भह।भूमि बहृत-से दोपो को उत्पन्न कर दैः 
है मौर सम्मोह को वडा देतौ है लिये मजिता का कभौ आरोहण नही कल 
चाहिए १२५) गाल यन्मे बल से यात्विते होता हमा जि प्रकार प जः 
को पीतादहै उतो श्रकारसे भ्रयलषे वायु कोश्रम से जीति ५२६ नाभि 
हृदय मे, कण्ठ मे, उरस्यल मे, मुखर्मे, नासा के अग्रमागमे, नेत्रमे, भरमौष 
मध्यमे बौरमूर्पामे दुख उष्वैमे लौर परमे चारणा परम कहो गई है} भ्र 
आर अपान के समायोधक्रनेमे वह्‌ प्राणायाम कठः जाता है ॥२७-२प८ 


मनसो धारणा चैव धारणेति प्रकीर्तिता 1 
निवृत्ति विपयाणान्तु प्रत्याहारस्तु सज्जितः 1२६ 
सुवेषा समवाये तु सिद्धि. स्याद्योगलक्षणा । 
तयोत्पस्नस्य योगस्य घ्यानं वै स्िद्धितक्षणम्‌ । 
ध्यानयुक्तः सदा पश्येदात्माने सूर्यचन्रवत्‌ ५३ 


पा्ुत-यौग 1 { ७३ 


सत्तवस्यानुपपत्तौ तु दशन्तु न विदयते 1 

अदेशकालयोमस्य दर्शनन्तु न विद्ते ॥३१ 

अम्न्यभ्याशरे वने वापि शुप्क्पणेचये तथा 1 

जन्तुव्याप्ते ए्मणाने वा जीर्णेगोष्ठ चतुप्पये ॥३२ 

सशब्दे सभये वापि चैत्यवल्मी कसचये 1 

उदपाने तथा नचान्न वाघातः कदाचन ॥॥३३ 

शरुघायिष्टस््रथाऽप्रीतो न च व्याकुलचेतनः | 

युन्जीत परम ध्यानं योगी ध्यानपरः सदा 11३ 

एतान्‌ दोपानू विनिश्चित्य भ्रमादायो युनक्ति वै । 

तस्य दोषा, प्रकुप्यन्ति शरीरे विघ्नकारकाः 1३१ 

मनकी घारणाही धारणा इष नाम से कीत्तति हुई है । विपर्यो वौ 
रत्ति प्रत्याहार इम सन्ना छे युक्त हा है १२६॥ प्राप्रायामादि समस्तो के 
ममवायमेहौ योग के लक्षण वाली सिद्धि होती है। उपति उत्प्नयोगका 
„ध्यान सिदि का लक्षणहि । घ्यानसै युक्त स॒दामात्मानोमूर्यचन्दकी भाति 
,देखता है ३०) स॒र्व कौ उपपत्ति न होने पर दर्शन नदीं होनादै। देया भौ 
कालके योयये रहित कौ द्तन नदी होता है ॥३१॥ अनि के समीपम 
वन मै शुच्क पत्तो कै ठेर मे--जन्तुमो ने व्याप्त स्थाने मे--रमतान मे-- 
पुराने दृटे-क्टे गो में--चतुष्पय मे--गव्दो से श्यद्‌ कोलाहल पूण स्यान मे 
भय से णं प्रदेश मे-- त्य भौर बरमीको के सचय वानी स्यान मैँ--उदपान 
भे--अनादि वाघा से यृक्त--द्युया से भाविष्ट- बम्रमन्न भौर व्याद्रुल चित्त 
शाला पुद्य रादा ध्यान नें परायण योयो पररय घ्यान कनीने क्रे । वत्वं यद 
दै कि एमी प्रिस्थितिमे घ्यानादि को नदीं करना चादिए ३२-३३-३४ ईन 
स्त दोपों का विप खूप निश्चय करञे परमादसे नो योगदा मम्यान 
करता दै उसके दोप श्रपिते हौ जति मौर अररीरमे विध्नोंके क्रे वाते 
द्रो जाति है ॥३५॥ 


जड"च वधिर्त्व च मूकत्वं चाधिगच्छति । 
अन्यत्व स्मृतिलोपश्च जरा रोगस्तर्यव च [दद्‌ 


१७४ 1 { वायु पुरा 


तस्य दोपा प्रकुप्यन्ति अज्ञाना युनक्ति व॑ । 
तस्माज्तानेन शुद्धेन योगी युर्जेत्समाहिनि. ॥३७ 
अप्रमत्त. सदा चैंव न दोषान्‌ प्राप्नुयात्‌ कचित्‌ 1 
तेपा चिकित्सा वक्ष्यामि दोपाणा च वथाकर्मम्‌ 1 
यथा गच्छन्ति ते दोपा प्राणायामसमुत्थिता. ॥९५ 
स्निग्धा यवामूमच्युप्णा भुक्त्वा ततव्रावधारयेतु 
एतेन क्रमयोगेन वातगुत्म प्रशाम्यति ॥८& 
गुदावर्तप्रतीकारमिद दुय्यचिकित्सितम्‌ । 

भूक्त्वा दधियवामूर्वा वायुख्ड ततो ब्रजेत्‌ 119 
वायुग्रथि तनो भित्त्वा वायुदैदो प्रयोजयेत्‌ । 
तथापि न विशेषः स्याद्धारणा मूध्नि धारयेन्‌ ॥४१ 
युर्जानस्य तनु तस्य सच्वस्वस्यंव देहिन. ¦ 
गुदावतेप्रतोधति एतत्‌ कुय्योचोकत्सतम्‌ ॥४२ 


सप्य-स्विति-देण मादि की वुद्धौ प्राह न करे जो दोगा 
भन्पास्र विया करते ह उनो जडता-गटरापन-मूस्ताहो जति ॥ ॥ अर्षापन~ 
समृति का सुप्र हो जाना-वृद्ापा भौर रोग नादि दही जति ह।॥३ न 
व्यि के दोप परदुपित हो जाया क्रते ह जो मजञान चे योग मा अम्य वा 
करते इमलिये युदन्नानसे योगी को परणता समदि हषर ही योगा 
भ्याम करना चाहिए ॥.७ जो अप्रमत्त अर्थाव्‌ प्रमादम्‌ रहित होना दैवा 
स्वंहाहीदोरपोशो प्राप्त नही कििक्ग्ताहै । उनदोधी नी कमे 89 
चिस दतताते ह जिम्‌ ति प्राणायाम ते उलन्न इ दोष चते जाणा . 
टै ॥३९॥ स्नग्व वर्षात्‌ घृत के स्नेह वादो अत्यन्त अश्म यवाभू षो 
ष्टा अदषारण करना वाह्‌) हमप्रम हे योगमनेवाने गुन्न रः ॥ 
जाता ह ।,३६॥ गुदाक्त वा प्रतोकरार विपित्माकौ ईरते ए ण्ट भर | 
दही दवा द्यान्‌ खाङ्रर्टे दमने वाद्‌ ऊष्वंको ववो खाती दै ४ ।४०॥ ९ 
षो षए्त्विङ़ापम्ेदयक्रयउते वादु बे देनमे प्रधन शरा षाद 1 तो 
प्िविनदोषठो पार्णागो पपाद पाण्य वरे ॥४१।॥ भो पुलनष्यि 


ह फाभुत-पोम | [ १७४ 


उसभ्पै स्विति सस्व मे होती है उदेटी के गुराकत्तं के प्रतिवाठमे यह्‌ 
बिक्कित्सा करनो द।दिए्‌ ॥1४२॥ 


स्वेगानप्रकस्पेन समारच्छस्य योगिन । 

इमः चिकित्छा कुर्व्वीत तया सप्ते सुखी 11४३ 

मनसा यदुत्रत किच्चिद्िटम्भीष्व्य धारयेत्‌ । 

उसेद्धाते उर स्थान कण्ठदेशे च धारयेत्‌ 1४४ 

स्वचोऽघाति ता वाचि वाधियें श्रोत योस्तथा । 

जिह्वास्याने दरप्तं स्तु मग्र स्नेटाद्च तन्तुभिः { 

फल वं चिन्तयेद्योमी तन सपद्यते सुखी ।1४५ 

क्षये कुठे सकीलासे धारयेत्सवंसात्विकौम्‌ । 

यस्मिनू यस्मिनु रजोदेशे तस्मिन युक्तो विर्निदिशेव्‌ ॥५८६ 

योगोद्पन्नस्य विप्रस्य इद वुर्याद्धि कित्पितम्‌ 1 

चशक्रीवेन मूदढनि धास्याणस्य ताडयेद्‌ । 

मूध्नि कीत प्रतिष्ठाप्य काष्ठः काष्ठेन ताडयेत्‌ ।।४७ 

भपभीयस्य सा सत्ता तततः प्रत्यागमिष्यति । 

अथ वा सृप्तसं्तस्य दस्ताम्या तत्र धाययेत्‌ 1४८ 

प्रत्तिलम्य ततत सदा धारणा मूच्नि धारयेद्‌ ! 

स्निग्धमरेप च भुञ्जीत तत सप्ते सुखी ।४६ 

शरीर के समप्तश्ङ्धौ के प्रकम्प होनेसे समारव्धयोगोकी इष 
विक्प्पाकोक्रे उमसे वहं सुब्ीहोजताहै 1४३ जोकोईमीद्रतदहो 
उघे मनसे विष्टम्भी हृत बनाकर धारण वरना चाहिए मर्थानू मनमे पूर्णं हेता 
करकेही धारण क्रे । उरक उद्धातदहोने परर उरस्वानको कण्ठदेदामे 
धारण करना चाहिए ॥४्ा स्वक का अदधात हो जात्रे पर उसको वाणीरमे 
धारण फरे, श्रोत्रो के वधिरत्व मे उसी प्रक्रार करे) वृषा ते अत्तं को जिह्वा 
के स्यानमे भागे तन्तुभोसे स्नेहोको घाग्ण करे ॥योमीको फलका चिन्तन 
करना चादिए्‌ इससे वह सूख यण्ला होता है ॥ न्भ क्यने-दुन मौर 
सेकोलाम भे मच मान्विकीको चारण क्रे । निमग्जिम मे -जेदेणमे यक्त 


१५६ |] [ वाथ पयव 


होते हए उका विनिदेश करना चाहिए ॥४६॥ योगीन्र विश्र कीयहं 
चिकित्सा क्रे मासिकी कीलको मूर्घामे पारय करते हृषु ताडित कसना 
चाहिए । मूर्वामे कौल प्रतिष्टित करके काष्ट को दासे ताडन करे ॥*५॥ 
मयभीवष़ी तेव वह्‌ यक्ा मा जामयो + अका नुत सजा वति क़ हाप ठे 
वहाँ धारण करे १४८)! फिर सज्ञा को प्राप्त क्रघारणाकोमूर्घाम धाव 
करे 1 थोडा स्निग्व पदायं खाना चाहिए तब वह्‌ सुखी हो जाता है ॥४९॥ 


अमानुचेण सत्वेन यदा वृष्यति योगवित्‌ } 

दिव च पृयिवीन्वैव वायूमग्नि च घारयेत्‌ 11५० 

प्राणायामेन तत्सर्व दद्यमान वशीभवेत्‌ । 

अथापि प्रविशेद्‌ ह्‌ ततस्त प्रतिपेषयेव्‌ ॥५१९ 

तत सस्तम्य योगेन घारयानस्य मूदढंनि । 

प्राणायामाभ्निना दग्ध तत्सर्व विलय व्रजेत्‌ र्‌ 

ृ्णसर्पापराध तु धारयेद्ध.दयोदरे । 

महर्जेनस्तप सत्य हृदि कृत्वा तु धारयेत्‌ ॥५३ 

विपस्य तु फल पीत्वा विशल्या धारयेत्ततः । 

सर्वंत्त सनगा पृथ्वी ढरत्वा मनसि धारयेन्‌ १४ 

हृदि कृष्वा समुद्राश्च तथा सर्वाश्च देवताः । 

मटघेण घटानास्च युक्तं स्नायीत योगविद्‌ ॥५५ 

जिष्ठ समय मोग का वेत्ता अमानृप सत्व ते जागृत हौ जातत दै मौर 
दिव तथा पृथिवी कौ-वायुकोभोरधथग्नि को चारण करे ॥५०॥ प्राणायाम 
मे यह्‌ सव दह्यमान होकर वशीभूत हौ जानि दै ओर भी देहमेप्रवेण करेषौ 
उसका प्रतिपेध कर देना चाहिए ॥५१। इसके यन-तर योग से स्तम्मिठ कर 
भूर्थामे धारण करने वते वे प्राणायाम की मग्निसे दग्ध हुआ वह सव विलीन 
हो जता दै 1\५२॥ इष्ण सपं के अपराघको ष्ट्दय कै उदरमे रण क्रे गीर 
मह---जन--तप मौर सर्य को हृदय मे धर धारण करना वां ॥५३॥ 
विवदेपतको पीकर पिर विस्या षो धारण पदे} चव यरतेपृष्ीषी 
गों ते युक्त फे मनमे धारणक्े । दद्य मे समस्त स्ृदो बो तथा गरूण 


पाशुपत योय ] [ १३०७ 


्वोक्ौ क्रफैयोगके ज्ञाना पुष्पकौ एक सद्र घर्टोसे स्नान वरना चदि 
॥५४-५५८॥ 


उदये क्ण्ठमात्रे तु धारणा मूध्नि धारयेत्‌ । 

श्रतिद्लोतोविपाविष्टो धारयेत्‌ सवंगातिकीम्‌ 11५६ 

शीर्मोऽकपपुटर पिवेद्रल्मोकमृत्तिकाम्‌ । 

चिक्रित्सितविधिद्यय विभ्र्‌~ो योगनिपित् 1५३ 

य्याख्याततस्तु समामेन योगदृष्टं न देतुना । 

ब्रूवता लक्षण विद्धि विप्रस्य क्ययेत्‌ कवचिन्‌ ॥भ 

लयापि कथयेन्मोटात्तद्विज्ञान प्र तीयते । 

तम्मात्‌ प्रवृत्ति्य्योगम्य न वक्तव्या कथच्चन भ्य 

सर्व तथारोग्मलोलुपत्व वरणं प्रभा सुस्वरसौम्यता च 1 

गन्वः शमो मूतपुरीपमल्प ये गप्रदृत्ति प्रथमा शरीरे ॥६० 

आत्मान प्रथिवोरतरैव उलन्नी यदि पण्यत्ति । 

स्प्वान्य विशते चैव विद्यात्‌ सिद्धिमुपस्यिताम्‌ एष्‌ 

कष्ठ मावर जलमेघारणाकोपूर्बामे धारण क्रे । प्रतिस्नोतके त्रिप 
मे ्ाविष्ट होता हुमा सर्वेगाचरिक्रीको वारण करना वाटि ॥५६। शीर्णं हठा 
हआ भाक कै प्तौ के दोनो मे वल्मीक वी धृत्तितराको पीना चादिए्‌ यहयो 
मे निरत चिवित्सा कौ चिवि बतत गड है ॥५७। योग मे दषटरेषु से दकौ 
सक्षपमें व्यास्याभीकरदी गद! बोलने वलि मे इपङ्ा सल्षण जानलो। 
कसी भीयोग्यवित्र कोड क्ट देना चादिए ॥५८॥ भौरभी मोहकै कारण 
यदि कदैमातो वह विज्ञान प्रलीन टौ जायगा । अतएव योगकी प्रवृत्ति को 
किमी भी भ्रक्रार से कटना नदीं चाहिए ॥१५६॥ यदह शरौरमेप्रवमयोगनश 
प्रपत्ति दै । इसमे सत्वगुण कौ पूणं वृद्धि हतौ दै--आरोग्य, यतौ तुपता, वर्ण 
यौ कान्ति, युन्दर स्वर गौर सौम्यञा, गच्डा गत बौर बल्प मूत्र तथा मलये 
सव द्मे हो जठे ह ॥६०॥। यदि सपने प्रवो भोर जलती हई पृथिवी कौ 
देतो यन्यको करके प्रव करे मौर शिदधि कौ उरस्य होने बाती पमज्ञ 
लिना वाट्‌ दशा 


१७५ |] { वु पराण 


॥। योगमामं के दिघ्न ॥ 


अत ऊध प्रवक्ष्यामि उपसर्गा यथा तया । 

प्रादुर्भवन्ति ये दोपा दृष्टतत्वस्य देहिनः 114 

मनुष्यान्‌ विविधान्‌ कामानू कामयेत ऋत्‌ खियः। 

बिद्याद्ानफलन्वेव उपसृष्टस्तु योगवित्‌ ॥२ 

अग्निटोत्र हुविरयज्ञमेतत प्रायतन त्था । 

मायाकर्मं घन स्वर ूपमूष्सतु काक्षति ॥३ 

एष कर्मसु युक्तस्त्‌ सोऽविद्यावशमागत । 

उपमृण्तु जानीयाद्ुदधया चैव विसर्जयेत्‌ । 

नित्य ब्रह्मपरो युक्तं उपसगति प्रमुच्यते ॥1४ 

जितप्रतयुसर्गस्य जितभ्वासस्य देहिनः । 

उभसर्गाः प्रवत्तं न्ते सात्व राजसतामसाः ॥१५ 

प्रतिभाश्रथहो चप देवानाधथ्यचव दशनम्‌ । 

श्रमावर्तश्च इत्येते सिद्धिलक्षणसनज्ञिताः। ६ 

विद्या वाच्यं तथा शिल्प सर्वं वाचावृत्तानि तु । 

विचार्थाश्चोपतिषठन्ति प्रभावध्येव लक्षणम्‌ ॥७ 

धी मूनजी ने कहा-- यद पके आगे जँमे-तंमे उपसगो शो कतरातै 
1 तस्व देष तेने वाति देह्धारी षौ लो दोपप्रादुभूंत हो जति ६ ॥१॥ 
मनुप्य ते सम्बन्ध गणने वत्ते अनेकरप्रशारदैकामोषौमोरस्वीकीच्छतु षौ 
कामना करनी दाहिर्‌ भौर उपगृ्ट भौर योगका येत्तापृ्प पिदा दन के 
पठ द्या दरे ॥र। जो उष्य ग्ु उपरगे वे युक्त होता वह पुष्य 
धनन हेव, यत्न ्यायह प्रयह्न, मायाष्ं पमं भरस्व को ण्ट 
दगा ४ पमामे पूत प्ट कथि वे व्यते यायाहभाटठिषर्िपि 
श्रता उने उमृ अर्यात्‌ उप्तं ने वृक टौ जानतेना बाद भौर गुटि 
मेन शद राव्यायदर देना वारिप } वा पिण्व ही रदा परायण पृक्त हा 
है ददु उक्त वयुन हो जना ६ ॥४, प्रतु को ओते वति भो 
दाद) नतिमन्ते ष्टी कौ उमम प्रकृतत दूणा कण्ते है धीरम ध्य ॥ 


१८० |] { वापुुाण 


णोर जो वर्तन से आक्राम्त वृद्धि ब्रवा होता दै उपा समन्तज्ञानष्पृटस्प 
सेनष्टहो जाता है ॥१२॥ उठ स्वि्तमे मनसे भुक्ल वस्य यावम्वरलते मावर 
होकर इसके अनन्तर शीघ्र ही द्रह्य का जनुचि^तन करना चादिए ॥१३॥ उ 
सही माप्माके दोपोको तया उत्तरकार दे उपस्यिन उयो को मेषा वति 
पुष कौ परिप्याग कर देना चादिएु यदि वह्‌ अपनो आस्मा की सिद्धि की च्या 
करता है।तोयोगले भिद्धि ङ लिये देसे व्याग कलने ॐ परमावरमक होती 
है 1१४॥ 


ऋषपयो देवगन्धर्वा यक्षोरगमहासुरा 1 

उपततगेषु समक्ता आवर्तन्ते पुन पुन ॥१५ 
तस्माथुक्त सदा योगी लघ्वाहारी जितेन्द्रिय. । 
तथा मुप्र सुमू्मेपु धारणा परधन घारयेत्‌ ॥१६ 
तत्तु योगयुक्तस्य जितनिद्रस्य योगिन । 
उपसर्गा पुनश्चान्ते जायते प्राणस्न्नका ॥१७ 
पृथिवी धारयेसर्वा तमश्चापो ह्यनन्तरम्‌ । 
ततौऽग्निचं ब सर्वेपामाकाश मन एव च ॥१८ 
तत पग पुनवुंद्धि धारयेदयत्ततो यती 1 
सिद्वीनाज्चव लिद्धानि दृष्ट्रा परित्यजेन्‌ ॥१६ 
पृथ्वी धारयमाणस्य मही सूक्ष्मा प्रवते 1 

अपो धारयमाणस्य आप. सूक्ष्मा भव्न्ति हि। 
शीता रसा प्रवतेन्ते सुधमा ह्यमृतसन्निभा ॥२० 
तेजो धारयमाणस्य तेज सूकषम प्रवर्तति । 
माप्मान मन्यते तेजस्तदुभावमनुपश्यति (२१ 


चऋपिभण, देवता, गन्धव, यक्ष, उरग भौर महाव अमुर गण ये सव उप 

सर्गे सयुक्त होवर वार्‌ बार गावतिति हमा करते हं ॥१५॥ दषलिये भो 
युषत पोगी होता है उते सदेदरा अस्प भौर हल्का आहार करने बाता, इनदरो 
कमै घो तेने वाता होना चादिषु तया मृमूदमो भें सुत्त रहने वाला ५ 
7 रणा बो पारण करना वादिए्‌ ॥१६॥ इष प्रहार प्ररहने बाति द्रि 


यौयमार्ने कै विघ्न | [ १८१ 


फा जौतन्तेते वाले योप से युक्न योगो वो अन्तम फिर वै उमसर्गं प्राणनज्ञा 
वनिदहो जाया करत द्र 1१७॥ समस्त पृथिवी को धारण करे इसके घनन्तर 
जलोको, फिर अग्निदो भौर सवके वादे आकाश इो धारण करे ।1१८॥ मके 
अनन्तर यनी को मनते भी परा बुद्धि को यत्न पूवक वारण करनी चा्हिए्‌1 
मोर इत वीचमेजोभी लिद्धियो के चिह्व उपस्थित हो उन्हे देखःदेव कर त्याग 
देना चाहिए ॥ १६1 पृष्वो कौ धारण करने वालि के लिये बहु मही अति सूदम 
्रतरूरा होती है। जलो को धारण करने वाते के लिये जल मूक््मटहोजतिरमौर 
समस्त रस शौत तथा अमृते तुन्थ प्रवर्तमानं हुमा करते है ॥२०॥ जव तेज 
फो धारण करिया जातादहैतो वहतेजमभी सूक्ष्मो जतादहै मौर भात्माको 
तेज मानता है योर ठेव तदभाव का हो अनुद्थन क्रिया करता है ५२१॥ 


आत्मान मन्यते वायु" बायुवन्मण्डल धरभो 1 

आकाश घारयाणस्य व्योम स्म प्रवर्तते । रर 

पश्यते मण्डले सूक्ष्म घोपश्चास्य प्रवर्तति 1 

आत्मान मन्यते नित्य वायुः सूक्ष्म. प्रवर्तति ॥२३ 

तथा मनो घारयतौ मन सूक्ष्म प्रवत्तंते1 

मनसा सवं ्रूताना मनस्तु विशते हिस । 

बुद्धवा बुद्धि यदा युञ्ध चद विज्ञाय वुद्धूयते 1२४।। 

एतानि सप्त सूषमाणि विदित्वा यस्तु योगवित्‌ । 

परित्यजति मेघावो स वृद्धया परम ब्रजेत्‌ ॥२५॥ 

यस्मिन यस्मिश्च सयुकेतो भूत एेग्ध्यलक्षएो 1 

तत्रं व सद्ग भजते तेनैव अविनरयति ।,२६॥ 

तस्माद्टिदित्वा सुदमणि ससक्नानि परस्परम्‌ । 

परिस्यजति यो बुद्धया स परः प्राप्नुयादुद्रिजः ॥२७ 

दृस्यन्ते हि महात्मान छपयो दिव्यचक्षुप- । 

सक्ता. सूदमभावेपु ते दोास्तेयु सिता. २ 

हि भ्ये 1 मत्यरक्तै वायु मत्या है बौर ठमस्व मण्डनक्येवायुकौ 
मौतिदेपता ह्‌ 1 धात्रा कै घारयमाण्र का व्योम सुध्मदहो जाना १२२॥ 


षव्र | [ वागुर 


वेह मण्डन को मूम्य देयता अौर मसा पोप ्रवृत्तहानाहै। जो माला को 
यायु मानता द उमङ्गा वायु सूम होकर प्रवप्पमान हभ करता दै ॥२३॥ \॥ 
प्रकारके मनो धारण बरन गेकामन सूम होता टमा प्रवरमान हेत 
है) मनसे समस्त प्राणियो वे मनमे वह प्रव क्र जाता है 1 जब वु 
युद्धि को युत्त करता है तथ ज्ञान प्राप्त कफे समां जाया करता हं ॥२४॥ ॥ 
सात सृष्महाति ह इनको जान करजो योग का ज्ञाता परित्याग करटा दै बह 
मेघावी वुद्धि परमको प्राप्त होता ह ॥२५॥ यह प्राणी जिषरम सुत्त 
होता हुमा उष देष्वय के लक्षण वाने परे उपे सद्ध का सेवन कता है उप म 
उसका नाण हो जाता है ।॥२६॥ इसलिये इन समम्त सूम को जोकि एक दपर 
मे भपषठमे सपक्तष्टोरहे है भली भाति जानदर्जो बदधिसे व्यागकद हता 
है वही द्विज परम को प्राति श्रिया करता है ॥२७॥ प्रम महान्‌ बाला बति 
दिव्ये चक्ष्‌, वाते ऋषि लोग मूक्षमभावो मे सवन होते हृ९ दिलाई दिया कष 
हैवे उनमेदोपोंकीसन्ञावलेदही श्ट जाते है ॥२८॥ 


तस्मान्न निश्चय कार्यं सूष्षमेष्व्रह्‌ कदाचन । 
देश्व्याज्जायते रागो विराग ब्रह्म चोच्यते ॥ र॑ 
विदिष्वा सप्त सूक्ष्मणि पडङ्कुन्च मटैश्वरश्‌ । 

प्रान विनियोगज्ञ पर ब्रह्माधिगच्छति ॥३० 
सर्वता वृप्तिरनादिवोध स्वतन्त्रता नित्यमनुप्नशक्ति । 
अनन्तशव्तिष्च विभोविधिज्ञा पडाहुर ज्ञानि महेश्वरस्य २१ 
नित्य ब्रह्मधनो युक्त उपसर्गे प्रमुच्यते । 

जितश्वासोप सर्गस्य जितरागस्य योगिन 1 

एमा बहि शरीरेऽस्मिन्‌ धारणा सर्वंकामिकी ॥३२ 
ववक्ञेयदा द्विजो युक्तो यन यनाप्प॑येन्मनं । 
भूतान्याविशते वपि नं लोक्यस्चापि कम्पयेत्‌ ॥३३ 
एतया ्रवि्नट्‌ ह्‌ हिप्या देह पनस्त्विह्‌ । 

मनाद्वार हि यागानामादित्यन्च विनिद्ितेत्‌ ॥३४ 


योगमार्गङेच्रिघ्न ] [ ८३ 


आदानादिक्रियाणान्तु दित्य इति चोच्यते 1 
एतेन विविना योगौ विरक्त सक्ष्मवज्जित्तः 1 
प्रहृत्ति समतिकृम्य रद्रलोके महीयते 14५ 
श्मलिये यहाँ पर इन मूद्मो का कभी मी विश्वास नही करना चाहिए + 
गृश्बये से ही राम की उत्स्ति हूम्राक्र्तोहै भौर विरायदहोब्रह्मकहाजाता 
1२६५१ सान प्रजारके इन नूषमो कामली माति त्तानि ध्रा करके बौर 
अद्धोयै मदेश्वरकौ जानकर जोकि प्रवान दै । इनके अनन्तर विनिधोगक्ा 
भराट्मा पस्य प्र ब्रह्यवो प्रा पियवा करता दै ॥३०॥ सर्वता का होना, पूण 
तया मानसिक वृहति वाहौ जना, मनादि बोधपूणे स्वाधोनता, निप्य शिति ने 
लोपका मभाव, अनन्तशतरिति का होना भौर विभूरी विवि वा ज्ञान रवनाये 
भहेण्वरवेष्ठं गन्ध हते ॥३१॥ नित्यही जाब्रह्यस्पीधनसे धनराज 
होतादै। खासके उपनर्ग को जतै रेने वानर तया राको जीततेने वने 
मोगी को हन शरोर मे वाहिर एकु हो सवंकामिनी चारणा होनी 
चादि ॥३२॥ जिव समय मे पुन दिनि जदा, जदा कर मन को 
अवित फरे तवा भूतोमे माविष्ट होवेतो वह दघ्रंलो्रय को केपदेता दै ॥३३॥ 
यते यदा परदेद का व्याहर फिरदेदमे प्रवेश बरे ओर आदित्य शीतया 
मोगोवे मनेोष्ारकी विनिटि्ट करना चाहिए ॥३४।। आदानादि क्रिथाथो कौ 
मादित्य यद कहा जताहै! इम विषिसे मुष्ष्मते वितर विरवत योगी श्रहृति 
मा मतो भाति करमये करके लूदरवोक्मे प्राि्िन जा कदठा है ॥३५॥ 
देन्य गुणसम्परापत ब्रह्भूतन्तु त अमुम्‌ । 
देवस्थानेषु रे पु सर्वतरतु निवत्तं ते ३६ 
पैशानेन पिशाचाश्च राक्षन च राक्षमाद्‌। 
गान्धर्वेण च गन्धर्वान्‌ वौयेरेण वुचेरजानर (१७ 
इन्द्रनन्र ण स्थानेन सौम्यं सौभ्येन चैव हि। 
प्रजापति तथा चवे प्राजापत्येन साधयेत्‌ 11३८ 
ग्राह्यः ब्राह्म येन चाप्येवमूपामन्य्रयते प्रमुम्‌ ¶ 
तच सक्तम्तु उन्मत्तस्तस्मात्छवं ध्रवत्त ते 11३ 


१८४ |] { वषु पुर्‌ 


नित्य ब्रह्मपरो युक्तः स्थानान्येतानि वै त्यजेद्‌ 1 

असज्यमान स्थानु द्विज. सवं गतो भवेत्‌ ॥४० 

हिश्वयं के गुण से सम्प्रा ब्रह्मसूत उष भरमुको सवं भोर समत दे 
स्थानोमे त्िशेपदष्मसे वरतता दहै ॥३६॥ पिशाचो को पिशाचे, रक्ष 
को राक्षन से, गन्धर्वो को गन्धं से तथा कुविरजो को कौवेरसे बर्थात वर 
स्थान से साधने करना चाहिये ॥ ३७ ॥ इन्द को रन्ध स्थान सै, सोष्य 
सौम्य स्थान से तथा प्रजापति को प्राजाप्य स्थानस्े सावत करना बा 
1 ३८॥ इसी प्रक्ररे ब्राह्यसे ब्राह्यप्रमु का उपामिश्रण करना है। ष 
पर सक्त होने वाला उन्मत्त हो जाता है । उसो से सव प्रवृत्त होता दै ॥ ३६ 
प्व्यही ब्रह्य मे परायण रहने वालि पृक्त पुरुष को ये स्यान त्याग देन चि 
स्थानो मे मासज्यमान द्विज स्वगत हो जाता दहै ॥ ४०॥ 

॥\ योग-पागं के श्वर्यं ॥ 

अत ऊर्धं प्रवक्ष्यामि रेशच्ेगुण विस्तरम्‌ । 

येन योग विरेपेण सर्वंलोकानतिक्रमेत्‌ ।१ 

तवरष्टगुणमैश्वयं योगिना समुदाहुतेम्‌ । 

तत्सर्व क्रमयोगेन उच्यमान निबोधत ॥२ 

अणिमा सधिमा चैव महिमा प्राप्तरेव च। 

प्राकाम्यञ्चैव सरवन ईशित्वञ्चेव सर्वत. ॥३ 

वशिस्वमयथ सर्वत्र यत्र कामावसायिता । 

तच्चापि विविध शेयमैश्वयं सवंकामिकम्‌ 1४ 

सावद्य निरवद्य च सूकष्मज्चैव प्रवर्तते । 

सावद्य नाम तत्तप्व पर चमूतात्मक स्मृतम्‌ ॥1* 

निरवद्य तथा नाम प चभूतात्मक स्पृतम्‌} 

इन्दियाणि मन्नं व भह दभारए्च वं स्मृतम्‌ ॥६ 

तत्र सूदमप्रकृत्तन्तु पचमभूतात्मक्‌ पुन । 

दद्दरियाणि मनश्चेव वुद्.यहद्ुएर सज्ितम्‌ ७ ् 

शरी यागुदेवने बहा--यत भागे देव्वयंगृणौं का दिष्तार तेण 


त्षोगनमप्पं क रेष्वयं | { १८९ 


त्या जाता है जिच योग विदतेपके हारा सपर्वत सोक का मततिक्रमण श्रिया 
स्ताहै॥ १। वर्हाषर्‌ भढ गुणो बाला योनि्यो काेश्वमं कहा गाद । 
हसवद्मके योयसेकदा नाने दालाहै ठे माए लोक भतौ-माति चमज्ञ 
विं॥२॥ अणिमा, सिमा, मदहमा, प्रात्ति, स्व ध्राङाम्य भौर सवबोद 
ण्व तवा सर्व॑ बशित्व जह करि कामावसायिक्ठा दवै । वह भी सर्वकानिक 
,श्वपं अनेकः प्रकार वाला जानना चाहिय ॥ ३--४।' वद रेर्वयं पाव्य, 
वरव गौर मूषम परवर्तभरान इरा करत) है द्मप्रे जोस्तावद्च होताहै वह 
्विहोनादै जो कि पचवभूतास्यक होता ॥५॥ निरवच् यहनम भी पच्छ 
| हतालसक्त कहा गमा है। इन्दिपो का सरुद, मन मोर अ्हदधीर कहा गयादै 
८ ६॥ वरहा पर वुन. भूद प्रवृत्त पञ्चगरूाटमक इन्दिया, भन, वुद्धि भीर अद 
पार संता बाता होताहि ॥७॥ 

सथ सदेणप चं च जार्मस्या प्यात्तिरिव च \ 

संयोग एवं त्रिविध. सूढमेप्वेव प्रवर्तते ॥त 

पुनर््टगुणस्मापि तेष्वरेवाय प्रवत्त॑ते । 

तस्य खूप प्रव्ष्यामि यथाह भगवान्‌ प्रमुः ॥४ 

चरौ लोक्ये सर्वभूतेषु जीवस्यानियत. स्मृत. 1 

अणिमा च यथाव्यक्त' स्व तत्र प्रतिष्ठितम्‌ ॥१० 

भ्रं लोक्ये सवं भूताना दुष्म्राप्य समुदाहृतम्‌ ! 

तच्चापि मवति प्राप्य प्रथम योगिना वलात्‌ ॥११ 

लम्बनं घ्लवन योगे रूपमस्य सदा भवेन्‌ । 

शीघ्रग सवंमूतेयु दितीयं तत्पद स्मृतम्‌ ॥॥१२ 

त्रंलोक्ये सवं भूताना प्राप्तिः प्राकाम्यमेव च 1 

महिमा चापि यो यर्िमस्तृतीयो योग उच्यते ॥१३ 

प्रलोक्ये सवं सूतेषु त्रं लोक्यमगमं स्मृतम्‌ । 

सक्यमानू्‌ विपयान्‌ भुक्तं नच प्रचित. कवित्‌ 1 

ध्रंलोमये सवंभूताना मूप-दु खः प्रवत्तंते ॥१४ 

दसी प्रङारपे प्वेमय मोर मात्मामे र्मे बालौ स्यातिदौी होन प्रशा 


~ 


५ 


१८६ } [ वु 


का सयोग सूदमौ मे ह प्रवृत्त हा है ॥ न पून अठ पूर्णो कतिर 
उनम जो प्रवृत्ति हाती है उसके सूपका बतनति हलो कि भगवान ४ 
बताया ॥६॥ ल्लोक्ण म समस्त भरतो मे जीव वी भनियतता कही 
है 1 मणिमा निन प्रकारे यक्त है उमे सभी दुय प्रतिष्ठता ६ ॥* 
तीनो लोको भे जो परम दुषयाप्य बताया गया है वह मी योगिवो को पहि दं 
पूवक प्रान होता ई ॥ ११॥ योगम इका स्प सर्वदा लम्दन एव ® 
होता है। शीघ्र गमन करने वाता समस्त सूनो मे उका द्वितीय पद बहा 
हि ॥ १२॥ वैलोक्य मे समस्त भूतोकी प्राप्ति ओर प्राकाम्य तथा जो 
महभि हाती है वह भी सूनीय योग कहा जाता है!) १२॥ भलोषय भतम 
भूतो मे चं सोक्य गणम कहा गया है । वह विपयोको शर कामना केष 
सारभोगकरताहै भौर कोई कही भी प्रतिहनि करने बाला नही हेग 
शलोरय म सवभरुनो काबुल गौर दुख प्रवृत्त होताहै ॥ १४॥ 

दष शट्‌ स्प इ परतप य्त्‌ \ 

वश्यानि चंव भरूतानि व्रंलोक्ये सचराचरे । 

भवन्ति सवं काये पु इच्छतो न भवन्ति च ।१५ 

यत्र कामावसाशयत्व त्रं सोक्ये सचराचरे । 

इच्छया चेद्धियाणि स्युरभवन्ति न भवन्ति च ॥१६ 

शव्द स्पर्शो रसो गन्धो रूप चव मनस्त्था। 

प्रवर्तन्तेऽस्य चेच्छातो न भवन्ति तथेच्छया ॥१७ 

न जायते ने ्रियते निरते न च छियते। 

न दद्यते न मुह्यते हीयते न च दिप्यते ।॥¶य 

नक्षीयतेन क्षरति न चिद्यति वदाचन। 

त्रियते चव सवत्र तथा विक्रयतेन चाष्ट 

अगन्धरसरूपस्तु रपर्णशन्दविवज्ित 1 

अवर्णो छ्यवरश्चं व तथा वरणंस्य किचित्‌ ॥२० 

भुत्तोऽ्य विपयाप्चव विपन्नं न यृञ्यतते। 

शास्वा त्रु परम सृदष्म सृ्मत्वाच्चापयगय ॥२१ 


पाथृषति योम का स्यव्य | [ १८५ 


व्यापकस्स्वपवर्गाचि व्यापिप्वाद्ु्प स्मृत. + 

पुरुप. सृकष्ममावात्त पेश्वयें परत स्थित्त ॥रर 

गुणान्तरन्तु रेश्वये सवंत सूक्ष्म उच्यते 

एेश्वय्यं मभ्रतीघाति प्राप्य योगमनुत्तमम्‌ 1 

अपवन ततो गच्छेत्‌ सुसू प्ररम पदमु ॥२३ 

योगके नान को रखने गल्ला प्रविभाग सेवेत श होताहै। दपर 
चराचरात्मक नरौलोक्यमे समस्त भ्रून कश्य होते है। समस्त कर्यमे इन्या 
करते हुधे नही होते है ॥ १८॥ इभ चराचर च्रंलोक्य मै जहाँ परर कामाव- 
साभ्ल होता दै वर्ह इच्यासे इन्द्रियाहोती ओर नही होती ॥ १६॥ 
एब्द, स्प रस, गन्ध, ह्पतया मा इरवौ इच्छा ते प्रवृत्त होति है तथा इचा 
संनही होतेह ।। १७॥ यह्‌ न उप्पन्नहोताहै,नमरतादै, न भिन्न होतारहै, 
नधेदन कियाजताहै, नजला जाताहै, नमोहवौ प्राप्त होतादै म॑ 
दीयमान होतादै, नलिन ही होताहै, न यहुक्षीणरहोतादहै, नक्षर दोन वाता 
होताहैभमौरन कभी खिन्नहोतारै। यह स्वेत्र क्था जता दै भौर विकार 
मुक्त नही हौतादहै (0 न - १6 ^ विना गन्य, रस मौर रूप वाला तवा स्पशं 
भोर शम्द से विवजितठ, पिना वणं बाता तया वणं का अवेर, स्वरूप याला यह्‌ 
होताहे +! २०॥ भौर विषयो फा मोगकररता दैतथा विषयो घे गृक्तनही 
होनादै! परम सूक्ष्म काक्तान प्राप्न करके मूकष्मत्व होने से मपद्ं से ण्यापक 
६ भौर व्यापि होने से पृष्पकहा गयाहै। सृक्ष्ममाव से यह्‌ पुष्प देश्वयं 
मे परे स्थित होता दै ॥ २२५ एवे मेद्य गुण सबमोर सृद्म कदा 
जाता दहै । रेश्वयं का मप्रिषातो परमध्रे्ठ योगको प्राप्त वारे भति मृ्म 
परम पद अपवग कौ जाताहै ॥ २३1 


\॥ पाशुपत योप का स्वरूप ॥। 
ने चंवमागतो ज्ञानाद्रागात्‌ कम्मं समाचरेत्‌ । 
राजस तामस वापि मुक्त्वा तयं व युज्यते ।¶ 
त्था सुङ्तवर्म्मातुष्त स्वगे समनु । 
तस्मात्‌ स्थानात्‌ पुनश मानुप्यमनुषदयते ॥र 


17; } [ वायु परत 


तस्पादुब्रह्य परं सृष्मं बरद्य शाष्वदगुच्यते 1 

ब्रह्म एव हि सेवेत ब्र्म॑व परम सुखम्‌ ।३ 

परिश्रमस्तु यज्ञाना सहते न वत्तते । 

भूयो मत्यूवश वाति तस्मान्मोक्षः पर सुखम्‌ ॥ 

अथ वै व्यानसुक्तो ब्रह्मयत्नारायणः । 

नसस्याद्‌ व्यापितु शक्यो भन्वन्तरशतरपि ॥५ 

टरा तु पुहप दिव्य विश्वाख्य विश्वरूपिणम्‌ । 

विश्वपादशिरोग्रीव विश्वंशं विश्वभावनम्‌ । 

विषवगन्ध विश्वमाल्य विश्वाम्बरधर प्रभुम्‌ ।॥६ 

गोभिर्मही सथतते पतत्रिण भटास्मनं परममृति वरेण्यम्‌ । 

कवि पुराणमनुशासितार सूक्ष्माच्च सृकषम महतो महान्तम्‌ । 

योगेन पष्यन्ति न चक्षुपा त निरिद्धियं पुरुप स्कमवर्णंम्‌ ॥७ 

श्री वाधु देवने कदा--ईष शार से भया हुमा शान से भवा 
शे कमं का आचरण न करे । राजत हो भयवा तामस हो उसका भोगकर 
वहा परही यृक्तदोताहै।॥ १॥ यदि कोई सुत कमो के करने वाता टले 
वट्‌ अपने सुत कमो के प्रभाव से उनक्रा फल स्वये भे भोगता है। जव पुष्यः 
परमो केफलकाभोगं समाप्तो जाताहै तो उस स्यान प्रष्टं होकर पनः 
मनुष्य लो$कौ प्राप्त हो जाता ॥ २॥ दसत ब्रह्य परम सूक्ष्म है ओर ब्रह 
शाश्वत कदा गया है भर्थावु ब्रह्य सर्वंदा रहने वाला कहा आता है । ब्रह्मका वी 
सेवन षरना चाहिये क्योकि श्रह्यही परम सुव होताहै॥३॥ यक्ोकै के 
मे महान्‌ परिप करना पडता है ओर वह भी बहत भधिक धने सम्प 
रिया जाता है! यज्ञादिके करने वालाभी फिर मृतके वशमे हो जता ई। 
सलिपे मोक्षा प्राप्त कभ्नाही प्रम सुद्रहोतादहै ॥४॥ ध्यान ते सयुर 
होता हुमा जो ब्रह्य यत्त मे प्रायण होता है वह्‌ घौ मन्वन्तरो प्रं भीमारा नही 
जासन्हादै ॥ ॥ विश्व माम वाते, विश्वङ़े हप वति, विश्वके पाद, शिद 
धोर्‌ ग्रीवा वाते, विर केस्वामा, विष्व कः पारनं करने वत्ति, दिव्य पुष्य, 
विव कौ गन्ध ववि, विश्व कौ माल्य, विष्वके अम्बरो धारण भरने वति 


पाशुपत योग क्रा स्वस्प | [ १६ 


प्रभूषायोगत्ते दश्तेनकरतेहै)१ ६1 मदी दइन्दरगोते पतत्रि, महावर भात्म 
धाते, परम मति, बरण्य, कत्रि, पुराण, अनुशासन करने वलि, सूषमसे मी 
सूक्ष्म, महाद्‌ के मी महष्द्‌ को सयत क्रती दै उस द्ष्टरियो से रदित दुव 
के समाने धणं व्तिपुप्पक्रो योगसे देखते है, चक्षुते नही देषते ईह ॥७॥ 

मलिद्िन पुर्प स्वमवर्णं सलिद्धिन निगुण चेतन च। 

निप्य सदा सर्वंगतन्तु शौच पश्यन्ति युवत्या ह्यचल प्रकाशम्‌ ॥5 

तःद्धावितस्तेजसा दीप्यमान अपाणि षादोदसरपाश्वंजिह्व । 

अतीन्दियोऽद्यापि सुूदम एक पश्यत्यवक्ु स शणोत्यकर्णं य॑ 

नास्यास्त्यवृद्ध न च बुदधिरस्ि स वेद सव न च वेदवेद्य 1 

समाहुरग्य पुर्प महान्त सचेतन सर्वगत सुसूक्ष्म ॥11° 

तामाट्मुं नय सर्वे लोके प्रसवधर्मिणीम्‌ । 

भ्रति रावभूताना युक्ता पश्यन्ति चेतसा ॥1११ 

सरवेत पाणिपादान्त सर्वतो ऽक्षिशिसेमुपम्‌ 1 

सर्वेत श्रति (म) मातकोक्रे सर्वमाब्रष्य तिष्ठति ॥१२ 

युक्ता योगन वेशान सर्वतश्च सनातनम्‌ । 

पुरुप सवभूताना तस्माद्धघात। न मुह्यते (१३ 

भरुतात्मान महात्मान परमात्मानमन्ययम्‌ । 

सर्वातनान पर ब्रह्य तद्रं घ्याघ्वा न मुद्यवि ॥१४ 

भ्िनातिद्ध ( चिह्ल } वाले, टेम बे सहल वर्णं से युक्त, सिद्धी, 
त्रिगुण, चनन, नित्य, सदाव म रहने वाले, शौच, मचल भौर प्रकाश 
स्वल्प पृष्प कौ युक्तिकेदेपतेदं ॥<। उमक्रौ भावना चेपृक्ततेज चे 
क्ोप्यमान पाणि, षाद, उदर, पाश्वं ओर जिवि से रदित, हादरयोषी 
पुव पते प्रे, विना नेत्रो वाला घमौर विना कानो वाला मवमभी सूनूध्म एवह 
देखता है मौर सुनता भौ है ॥६॥ हरो शृ मी ब्धृढ नदो है दस्डे वृडि 
भीन है, वह सक मौ जानक्ता है मौर वहुवेर्दोके द्रा म्‌) जानने ङे योग्य 
नहीदं मर्थान देदभी उवद यथायं स्वल्रको नटी वताख्क्ते ह) उसे 
न्द्रे, दरषष्ट चुरु पदन, स्पेन ग्द्दणल नीर ग्पसप इन्नु कै १८११ स्यो 


१६० ] [ बापु पुराण 


मे ए मुनिगण उस को ममम्त प्रागियौ वै प्रसव वे धर्मं वालो रषृठिक्हे 
ह।जेयोगसतेयुक्तहोतेरै वे ध्यान मे चित्तमे उषे देपते ह । ११॥ अब 
चमक स्वल्प का वणेन करते है ङि वह मभी भर पाण तथा षादो वाता हैम 
लोरमेत्र शिर बौर मुल बालाहै, सब तर्फ श्रुतिमाह मोर्‌ सोमे व 
को भवत बरे स्थित रहता है ॥१२॥ जो युक्त होते दैवे योगसे उम णान 
आर सर्वत्र स्थित सनातन को एवं समस्त भूनो के पुरुप क देखते दै 1 इमतिग 
जो ध्याता बर्थाच्‌ ध्यान-योगीह वे कमी मोह शो प्र नही होते ह।।१२॥ 
समस्त भ्रूतो की भाला, महाचू गात्मा वाते, भव्यय, स की मात्मा परह्य 
परमात्मा का ध्यान करके मोहित नही होते ई ॥१४॥ 


पवनो हि यथा ग्राह्यो विचरन सवमूतिपु । 
पुरि शेते तयाभ्र च तस्मात्‌ पुरुप उच्यते । 
मथ चेत्लुपघम्मात्ति, सविहेपेश्च कम्मंभि. ॥१५ 
ततस्तु ब्रह्मयोन्या वे गुक्रशोणितसयुतम्‌ । 
खपुमासप्रयोगेण जायते हि पुनः पुन" ।१९६ 
ततस्तु गर्भेकाते तु कलन नाम जायते 1 
कालेन केलनच्ापि वुदूवुद श्च प्रजायते ॥।१७ 
भृततिण्डस्तु यथा चक्रे चक्रवातेन पीडितः। 
हस्ताभ्या क्रियमाणस्तु विश्वत्वमुपगच्छति ॥१८ 
एवमात्मास्थिसयुक्तो वायुना समुदौ रित. 1 
जापते मानुपस्तन्न यथा रूप तथा मन. ॥।¶ 
वायु सम्भवते तेपा वातात्‌ सन्जायते जलम्‌ । 
जलात्सभवःत प्राण. प्राणाच्ख्कर विवद्धंते॥२० 
रक्तभागाखधल्लिरच्छेक्रमागाश्चतुद ण । 
भागतोऽर्पलं बृत्वा ततो गभे निषेवते ॥२१ 


जिम तरह पवन समश्त प्रयो मे विचरता हमा ग्राह्य दूजा वर 


उनो भाति कद पर मे च्यनक्रतादै तवाधरे भीस्थित गहा 
धी स्पे पुय" -यद कहा जावादै । दम अनन्व रविदनेप वर्मोेमुः 


पारूपत योगकास्यल्प ] [ १६१ 


मं वाना होता दै ॥११५॥] इनके पश्चात्‌ वहं ब्रह्म शुक्र भौर णोत ते सयत 
पकर योनिर्मेस्फी भौर पमान्‌ के प्रयोगसे बार-बार उन्न होता है ॥१६॥ 
वेप्रथम योनि मेवुप्य के शुक्र ओर स्वरौके लोणितिके संयोगे यभंकी 
ध्यति होती दै तो वह्‌ उस र्भके स्मये पिनि कलन नाम वाला होता है! 
{छ समयमे वही कलन वुदपष्हो नाता है ।१७।१ जित तरह मिट्टी का एक 
पण्ड घक्तवाते के द्वारा पीडित क्या जातारै भौर हायोसे बनाषा हमा 
वेषत्वकोप्राप्हो जाता दै ।।१८॥) दमी प्रकारस्ेवाप्‌ केद्रार समृदीस्ति 
ह आमा भीर अशथ ते सक्त मनुप्य उतपन्न होता दै । उसमे फिर जेसास्प 
टता है वेत्ता मन हता है ॥१६॥ वायु उद्यप्न हेता, उप्त वात से जल 
रोतादै, जल ते प्राण उलन्न होता है मोरप्राण से शूक की द्रि दटोतीदै 
1२०॥ तेतीष रक्तके भा दहोनेहै भौर गुक्ूके चौदह मभागहोतेद। भावे 
[धा परल कर्के फिर गमे मे निवेविने होता है )॥२१ 


ततस्तु गमसयुक्त. प्च्वभि्वभुभिवृं तः । 

पितु. शरीरात्‌ प्रव्यद्धस्पमस्योपजायते ॥२२ 
तनोऽस्य मातुराहारानु पीत वीढग्रवेशितम्‌ । 

नाभिः सोत प्रवेशेन प्राणाधारो हि देहिनाम्‌ ॥२३ 
नवमासानू परिविलटः सवेष्टिशिरोधरः । 

वेष्टितः सर्वगात्रं श्च अररयीयक्रमागतः 1 
सवमासौपितथ्वंब पोनिच्छ्दरादवाट. मूख ॥२४ 
तनस्तु फम्मंभि- पा्त्निरय प्रतिपयने 1 
अस्िपश्रयनचखं व शाल्मलोच्छरभेदयोः ॥२५ 

तय निर्मत्सनश्वंव तया शोवितभोजनम्‌ । 

एतास्तु यानन घोराः वुम्भोपावमुदूमहाः ॥२६ 
यथा द्यपस्तु चिच्छिना, स्वन्परधुष्यानिि वै । 
तस्माच्छितिदव भित्तङ्वं यातनःस्यानमागनः (२३ 
एव जोवस्तु तैः पापस्तप्यमानः स्वय एते 1 
पस्नुयातृ उम्मेजिदुं ग्रनेप वा पादि चेतरम्‌ (डः 


१९२ 1 [ वागु पूरण 


इस पश्चात्‌ पाच वायु से वृत थोर गर्म से सयुक्त इ पड 
छरीरे प्रदेक्र अङ्ग कारू उपपन्न हाता है ॥२२॥ दभ यतन्वरमादापौ 
कछ भी लापरा करती है उप्त उफ गाह्यरसे षोया हया, चाट हज बदर 
भरेत होता है वहनाभिकेसरोत्त के दवारा गर्भं छक प्रवेष करता है रणे 
देह धारियोके प्राणो का बावार होवा है ॥२३॥ दस तरह नौ मास पन्त 
सवेषटित शिरोधर, परितेश से युक्त होता आ, समस्त गात्रं से वष्टि हेत 
मपर्याय क्रमसे माया हज ग््ताहै । नौमाव तक वह गर्भ मे रहकर 
योनिके दद्र से भवाडमुणव होवा हआ ज्म प्रद्य क्रिया करदा ।॥२५॥ 
फिर यहा पर आकर अनेक पापकमंकता है भौर उन दुष्करमो के कारण 
नरक को प्राप्त किया करता है । यसिपत्र वन, श्रात्मल) चेद भेदो फ ताम्‌ वात 
नरक होते है उनमे पाप कमो से यातना भोगता है ॥२५।! वहां नरक स्यागौ 
मे बहत बुर तरह फटकार खाता है तया शाधित जा भोजन करना पदा 
दै ये समस्त म यन्त घोर यानाद्‌ है भौर दुम्भीषाक नर कोष्ट 
भसय यातना होती ई ॥२९॥ जिप्र तरह चिन्न पयि हए जल मग्ने सघ 
को प्राप्त कर तेते उक्ती प्रकार छिन भौरभिन्न हए यातना के स्यान र 
भाते ६ ॥२७॥ इस तरह जीवात्मा यपने ही क्रि हए पाप वेमो से हण 
मान हता हमा कमो के वारा दुख प्राप्त किया करता दै । भादिष्रागो 
भौ शेप अन्य होता है! षठ मौ भोगता है ॥२९॥ 


एवेनैव तु गन्तव्य सरवेमृप्युनिवेशनम्‌ । 

एवनैव च भोक्त.य तस्माद्‌ सुकृतमाचरे्‌ ॥२य 

नह्योन प्रस्थित कष्िदुगच्छन्तमनुगच्छति । 

यदनेन कुत कम्मं तदेनमनुगच्छति ॥३० 
ते नित्य यमविपये वरिमिघ्रदेदा कोशन्तः सततमनिषटसप्रयोगं 1 
शुष्यन्ते परिगतवेदनाशरीरा वह्लीमिः सुभृशमधर्म्मयातनाभि ॥ 1 

कर्म॑णा मनसा वाचा यदभीष्टं निपेन्यते । 

तव्‌ प्रत्य हरेद्‌ पाप तत्मात्‌ मुक्‌नमाचरेत्‌ ॥३२ 

याटग जातानि पापानि पूरं वर्म्माणि देहिन । 


पाणुषततं योग का स्वह्पर } [| १६३ 


संसारं तामस तादक्‌ पड्विधं प्रतिपदते ।*३३ 

मनुष्य पल्ुभावन्च पशुभावान्मरृयो भवेत्‌ ! 

मृगत्वात्‌ पक्षिभावन्वु तस्माच्चैव सरोषृपः 11३४ 

सरोप्रुपत्वादुगच्छोद्धि ) स्थावरत्वन्न प्शयः। 

स्थावरट्व पुनः प्रष्ठी यावदुन्मिपते नरः 1 

कुलालचकवदु्रान्तस्तत्रौ वपरिकौितः ॥॥३५ 

समन्त प्राण्य के मृत्यु के स्थान भे एकही षौ यकरेले जाना 
पहता मे अवतु अन्य वहू कोटमभी षटायक्र नदी हो स्ता दहै 1 भौर स्वयं 
एकी को वहां नरक स्थानमे कर्मों क्रा फलत भोगना पडता दै इमतिये सर्वदा 
रृषृतदही करप चाहिर्‌ ॥२८॥ जव अन्त समय उपस्थित होता दै तो मृ 
के भु मे प्रस्थान करने वते इको कोई भी प्तावी नदी निन्तादै मौरन 
जातिद्ुएकेषीत्रे ही बोई जाया कग्ता टै । मने यट लोकमे नोभौ 
मला-वुरा कर्म त्रिया द वही इम्रे पद्ध सायजाण करता है ॥३०॥ वै वहां 
यमरात्रफे स्थान मे विभिन्न देह वलि नित्य दही ववर बुरे-वूरे सम्प्रयोगो 
से स्दन करते टृए्‌ शूुप्क हो जति ह भीर हृत-मो भधमं यतिनामो ते 
गोकि भव्यन्तह्ी धोर्‌ सूपर्मे प्रा्हो्ती ह रार तरह वेदना ने पर्णं शरोर 
वाति होते है ॥३१) वप्रं घै मन मे भौर वाणो ते जो गभौषट म्रा दैवन 
श्ियाजता दै उत्त पराको वलपूरवेष दुर श्र देना चाहिए । दमम सुब्रत 
ष्म का हू भाचरण करना चािए्‌ ॥३:॥ इम देदुधारी पु्के जेष भी 
दिते कमं तथा पराप इष्‌ ह उनो यह्‌ तामस समार वंमा हीद्धै प्रकार वाला 
प्रा हभ कप्तादै ॥.३॥ मानूष्यसे प्नुभाव, पलूमावस्ते मृगहोत्तादै। 
मुगत्वे से प्षिभावको प्रात होता बौर रर्‌ उषे सरीमूष होवा है ॥३४॥ 
परीत मे स्पावस्ता क प्राप्त दिया मरता दै) द्यम ठनिक भीसष्देदनदीदै। 
जव तङ नर के उन्मेष को प्रात नह होत्रा है वगर पुनः स्याबरह्वको 
प्रा निया करता । ुम्दार के चङ को भाति भ्रमण मरता दभावदादी 
पर र्हा करता है १३५५ 


दले © -ष्ङपद्ि तसे स्वपसप्तते = 


१९४ |] [ वाुपृन 


विज्ञेयस्तामसो नाम तत्रैव परिवर्ते ।॥३६ 

सातिविकृश्चापि सतारो ब्रह्मादि परिकीतितः। 

पिशाचान्त स विज्ञेय" स्वर्गस्थानेषु देहिनाम्‌ ॥३७ 

ब्राह्यं तु केवल सत्त्व स्थावर कवल तम 1 

चनु शाना स्थानाना मध्ये विष्टम्मकं रज. । 

ममु च्छिचिमानेषु वेदनार्तस्य देहिन ॥द८ 

ततस्तु परम ब्रह्म कथ विप्र स्मरिप्यति । 

सस्मारान्‌ पूवधमस्य भावनाया प्रणोदित । 

मानुप्य भजने नित्य तस्मान्नित्य समादधेत्‌ ॥ 

इम ्रषार से ससार म मनुष्यसे भादि लेक्र स्थावर के अन्तत 
तामम पाव जननाबाहए । यह वहां ही परिवत्तित हिता रहार्ए्त दै 
॥३६॥ स्ास्वत् भो सतार बरह्यमे आदि सवर दहा गयाहै जोरि पिशाच ; 
धन्त तुक ध्वगं स्थानो म देदट्धाग्यो का जानन्‌ वाहिष्‌ ॥३७॥ ब्राह्म मशो 
ैवल मत्वही होता है भौर स्थावर पे यैवततमोगुणटहीहोताहै। मोह 
स्थानोके मप्यम रजोगुण विषटम्मक हाता हैजोश्रि ममं स्थानो के दिम 
होने परवेदना स नार्तं देहपारो कौ हुमा करता है ॥३९॥ षडे प्वाद्‌ 
विप्र परमप्रद्यवा मेत स्प््णक्रेण ? धवं परमके सत्कार (५ ५ | 
प्रेस होना हमा मानुध्य षा गेवन यावर है । इयलिये नित्य ही माठ 
होना वाद्‌ ५३६५ 

11 पाशुपत योग-महिमा ॥ 

पतुरटगविध द्य तद्वृद्धा मगारगण्डतम्‌। 

प्रपा समारभेत्‌ वम्म सनारभयपोहितः॥१ 

तन्‌ म्प्रति समारवक्रण वर्स्विनित 1 

स्मात्‌, सततत युत्तो ध्याननस्वरयुश्रङ्‌ 1 

छया ममा भेयाय पयाप्ान स वर्यति ॥२ 

पवद. पर उ्यारेपसेनुरनुद्यम ॥ 

वििरोष्धवभूदतान सम्नदग्व पादय ॥३ 


पाशधन पोग महिमा |] [ १६५ 


तदेन ेतुमात्मान अर्नवे वरिश्वनोमुखम्‌ 1 
हृदिस्थ सरव ूतानामुवारीत विधानवित्‌ ।1४ 
इवष्टावाुनौ सम्यक्‌ शुचिस्तदुगत मनस" । 
वश्वानर हदि थन्तु यथावदनुपूरवेश + 

यवः पूर्वं सकृत्‌ प्रादय तुप्णी भूत्वा उपासते । ५ 
प्राणायेति तत्तस्य प्रथमा द्याहृति स्मृना । 
अपानाय द्वितीया तु समानध्येति चापया ॥द६ 
उदानाय चतुर्थीति ठ्यानायेति च पचमी । 
स्वादकारे. पर हृत्वा शेप भुन्जीत कामत । 

सप पुन सत्‌ प्रद व्याचम्य हदय स्पृशेत्‌ ।७ 


श्रोवायुदेवने कदा--इम प्रक्र से नदह प्रर वले इम सनार के 
गण्डत को समश्च कर्‌ ममार बै भय ने पडत दषते ह यमे मर्मावे करने 
हा आरम्य करना बादिर्‌ ॥१॥ इम समार के चक्र से परिवत्तित हते रटने 
वाता किर स्मरण रिपा करता 1 इम^लये निरन्तर योगमे युक्त हीकर ध्यान 
मे परायण युञ्जान होवे ओर इम तन्हं से सोमका आरम्भ करना वाद्‌ क्रि 
फिर आत्मा का दर्शन्‌ प्रप्त वर लेवे ॥२॥ यहो भाद्य पगम उयोत्ति रै, यदी 
स्वोत्तिमि सेनु दै, यह्‌ प्राणि्योका धिननेप सूप से विन टोता है भौर मम्भेद 
भान्वित नही है ३ ॥ इसलिये अष्मा स्वस्य सेनु नो, विश्वतोमुचच मग्न 
बोजे हि रामस्तध्राग्यो के ध्य मे सिवतसत। है. विधान बे रतावा 
उमरी उगसना करनो चाहिए ॥14॥1 पवित्र ट्र उमोमे सनै मन रे1 
सिति करने वानि वे मली-माि आठ ब्टूनियो म ह्न करना चार्दिषए्‌॥ 
बे वश्वानर हदय मे त्वित है उसो के लवि यथावत्‌ वन से जाहूनिी देनी 
चाहिए । पू्रैत्र पूदवार जन कृ पान कर किर मौनदिहर उग्रता क्रे 
१५।॥ प्रयन मादृप्ति श्राणा स्वाहा दमने बताई ग्है। दूमरो नाहल 
भमपानाय स्वाह" दमि देवे मोर तोमरो मटूति "नमान स्वादते 
देषो चाप्‌ ५६।५ उदानाय म्बष्टा--प्ये नोयी य्यानाव स्यादाने 
पासतो भूति देवे ! स्वाराङ्ासों चे परबौ दवन सर्येषङाद्न्टा पूर्व 


१५६ |] [ याषु पूरण 


भोजन करे । फिरएवरवारजवका पान भर हीन वार भाचमन करे 
प्यकास्पयं वरना बाहिए्‌ ॥७। 


ङप्राणाना ग्रन्थि रस्यात्मा सदर ह्यात्मा विशान्तक । 

स टरौ ह्यात्मन प्राणा एवभाप्याययेत्‌ स्वयम्‌ ८ 

प्व देवानामपि ज्येष्ठ उग्रसत्व चतुरा वृषा । 

मत्युननोऽतति त्वमस्मम्य भद्रमेतदत हवि ॥वं 

एव हृदयमालभ्य पादागुष्ठे तु दक्षिरो । 

विश्राव्य दक्षिण पाणि नामि वे पाणिना सृशेव्‌ । 

तेत पुनहषस्मृष्स्य चात्मानमभिसप्पृशेत्‌ ॥१० 

अक्षिणी नासिका श्वाने हृदय शिर एव च । 

द वाप्मानावुमवेतौ प्राणापानावृदाहूतौ ॥९१ 

तथो प्राणोऽतराप्मास्थ वाह्योऽपानोऽन उच्यते । 

भन्न प्राणस्नयापान मृ युर्जीवितमेव च ॥१२ 

अन्न ब्रह्मच विज्ञेय प्रजानां प्रसवस्नथा। 

अन्नाद्भूतानि जायन्ते स्थितिरन्नेन चेप्यते । 

बद नते तेन भूतानि तस्मादघनन्तदुज्यते १३ 

तदेवाग्नौ इत ह्यन्न भुञ्जते देवदानवा. । 

गन्धरवयक्षरक्षासि पिशाचाश्चान्नमेव टि ।१४ 

मके भनन्तर ओ प्राणान प्रियरस्यात्मा स्रो ह्यात्मा बिा्तक । 
स द्रो द्याप्मन प्राणा एवमाप्याे स्वयम्‌ -मर्याद्‌ प्राणो कौजोग्रम्बदै 
दसकी भाप्मा विशान्तक द््रहै । वही ष्टरञाप्माकेप्राणहै। दस प्रहारे 
स्वय आशप्यापित्त होना चाहिए ॥८॥ आप देवो मे भी सवते बडे, भाप 
दै, भाप चतुर वृष । बाप हमारी मृपयु ङे नायक ह। यह्‌ हृत हवि हमि 
लिय कर्प्राणप्रद हवे 116॥ दृ प्रकार हदय का आलमन कर दक्षिण षाद के 
सपू म विध्राहिति कर फिर दक्षिय पाणि अर नामिका पणिते स्पशं कला 
चादिषु । दनर पश्यत्‌ पून माचमन कर अग्न आपके स्पे करे ॥ १०। तथा 
दोनो न्यो का नादि, दोन वानोषो ददप को मौर धिर को सपं करे । 


पौचाचार लक्षण ] [ १६७ 
॥ 


प्राण मौर थपानये दोनों दौ यात्मा कही यई 1११ उनदोनो का बन्न 
राघ्मा प्राण होता है । इमका वाह्य म्मा अयान दै यहक्डाजानादहै1 भन 
भ्राम तवा मपानहै, ग्घ्य मौर जीवन दहै १५१२५ अन क्य ब्रह्य जनना चाहिए 
तथा सन्न क प्रजाओ का प्रसव खमन्तना चाटिए्‌ 1 अनसेप्राणी होतेह मोर 
उनकी स्विति भी मन्नस्ेक्दी जती है तथामूतोकौवृद्धिभौच्न्रते ही 
हीती है, इसी लिये वघ्नको रसा कहा जाता है ११३॥ वही यन्न जब मनिनिमे 
हन होता है तोम यन्न कोदेवयौर दानव खाते है । गन्घवं, यक्ष मौर राक्ष 
तथा पिगाचनीभन्रकाही भोगक्रतेह 1१41 
1 शौचाचार लक्षण ।1 

अत ऊद प्रवदामि शौच्चारश्य लक्षणम्‌ । 

यदनृष्ठाय बुद्धाता प्रेत्य स्वगं हि चाप्नूयात्‌ ॥¶ 

उदकार्थी तु शौचाना मुनीनामूकत्तम पदम्‌ । 

यस्तु तेष्वप्रमत्तः स्यात्‌ स मुनिर््नवसोदति ॥२ 

मानावमानौ द्वोवेनौ तावेव्राहुविपामूते । 

अवमान विप तन मानन्त्वमूृतमुच्यते ।1३ 

यस्तु तेप्वप्रम्तः स्यात्‌ स मुनन्नव्रिसोदति 1 

गुरो. प्रियहिते युक्तः स तु सवत्सर वसेत्‌ ॥4 

नियमेष्वप्रमत्तस्तु यमेषु च सदा भवेत्‌ । 

म्राप्यानुज्ान्ततश्चैव ज्ञानागमनमूत्तमम्‌ 1 

मविरोधेन धर्मस्य विचरेत्‌ पृथिवीमिमाम्‌ ॥५ 

चु पूत ब्रजेन्मामं व्रत जल पिवेत्‌ 1 

सत्यपूतां वदेद्राणीमित्ति घर्मानृलामनम्‌ ६ 

आतिय्यं ्च।दपञनेपु न गच्येयोगवित्‌ क्वचित्‌ 1 

एवं ह्यहिमको योगौ भवेदिति विचारणा 11७ 

श्वीवापृदेव कटे --दइपके साने सोचायःरका ल्ाण बतनाया जाना 
है जिषयो बनुष्रित करने प्र शुद बारा वाका टोक्रमृन्यु दै ¶श्वाद्‌ स्वगसोक 
मी प्राति एणा श्रता रै ११८ न्द दो व्यादूते वालपशुद्‌ गुनि क उत्तम 


१ॐ- ] ॥ वायु 1. 


पदता) जो उनम प्रमद स रहित रोना है वहरमति शमी गीर 
नही हना है ५२॥ मान ओर यवमातये दोनो हमीर ददीदानोक भू 
तथा विप कृते ह 1 उनने भो थवमानहै वही विपहत है रमन 
अमृत केहा जाता है ॥६॥ जा उनमे अप्रमत्त होना दै वह मृनि द हित नः 
ह्ताहै।जोरुरुके श्रिय काय शौर हितप्रद क्मंमे युक्त टोना है वए 
पप्वत्तर तक वाप करता है 71 जो नियम निर्धारित है उनम अरम ह 
हमरा सर्वदा मोका पूण पालक होना वारिएु । भनुना को प्रा करके 
अनन्तर ज्ञान का आगमन उत्तम हताहै । सदाधर्मेकाविरोधन वरं 
हो दसं भूमण्डल पर्‌ विचरण करना चादिए्‌ ॥५॥ नेतरो मे पत्व्कद पा 
शालते मच्छी तरह देखप्रालके मागे म अगि चना चाहिए तयाव ५ 
पदि करके अर्थाद्‌ सवेदा कपडे घे छानकर ही जत पीना च!टिए। स! 
पूत करके अर्थाम्‌ सवाई स एविव्र को हह वापी वो बोलना वाटिए, प्ट 
शस्मन काभनुगास्तन अर्थात्‌ जरे है ॥६।। योग का वेत्ता पु्प श्रा, यो 

कही भी आतिथ्य ग्रहण न करे । इस प्रक्नारसे योगी नहिविक होवा 
दिवारणा है॥७। 


वह्लञौ विष्रुे व्यद्धरे सवस्मिन्‌ भुक्तवज्जने । 
विचरेन्मतिमानरू योगी न तु तेप्वेव नित्यश ॥८ 
यथंवमवमन्यन्ते यथा परिभवन्ति च । 
युक्तस्तया चरेदुभेक्ष सता धर्ममदूषयन्‌ ॥ 
भक्ष चरेदगृहस्थेषु यथाचारगृहेषु च । 

श्र्ठातु परमां चेय वृत्तिरस्योपदिश्यते ॥१० 
अन ऊउद्ध' गृहस्थेषु शालोनेषु चरेदुद्धिन । 
श्रदघानेषु दान्तेषु ्नोतियेषु महात्मसु ॥११ 
यत उद्धः पुनद्बापि अदुश्पतितेपु च । 
भक्षचर्या विवेष जघन्या वृत्तिस्च्यते ॥१२ 
भैक्ष यताम तन्वा षयो यायकमेवच। 
पतमूल वियक्य वा पिष्याक शक्तितोवि वा ।१३ 


शौचाचार लक्ष | [ १६६ 


इत्येते वै भया प्रोक्ता योभिना सिद्धिवर्दना. 1 
महारंस्तेष्‌ सिद्धेषु धं भैक्षमिति स्पृतम्‌ (1१४ 


वद्धिके धूम्र रहति त्तया व्यद्धमर होने पर तयाम जनो के गक्तदान्‌ 
होने पर मतिमानु योगौ कौ विचरण क्रा चाए सन्तु उन्ही षरोमे नित्य 
महीं वरे ॥८॥ जि प्रकार मे एव सवमन्यमाने होते ह नोर गिम तग्ह॒र्परि- 
भूत होते है यृक्तको उम प्रकार से सतपुख्पोके धर्मे कौ दुपित्तिन भरे हए 
प्रक्षा करनी चाहिए ॥1६॥ योगी पृस्पको बृन्यो मे तथायधाचारग्ऱ़ोमे 
भिक्षा चरण करना चादि + दमक विये यदी वृत्ति परम श्रे णास्त्रमे उप 
दिष्टकौजतीदै ।१०/ इनके अगेद्धिजियो जो शातन गृरेस्य हो उने, 
श्रहुषानोमे दाम्नो मे; प्नोत्रियो मे भौर महान्‌ मात्मामौ म निन्नाचरण करना 
चाष्ट 11१६1 दमक बादमे आने फिर जौ दण तथः प्तितिन हौ उनमे एव 
विकणे मैक्ववर्था करे वन्तु यड्‌ जन्य दृत्ति कदी जाती टै ॥६२॥॥ भिक्षाम्‌ 
यवा, तेकर, पय, स्वक एत मूल सधवा विपक्वं न्णप्पाक जयवायोभी 
पाक्तिपूवेन द्वियागणाहौी ग्रहण करे 11१३) ध्वने जो रै बताये वेसव 
योनिषोकौ सिद्धिकै वने वि आहार होते है । उनके सिद्धौ जानेषर्‌ 
परमध्ेमे्षक्हा गपा ॥१४॥ 

विन्दु यः वुशाग्रोण मात्ति मासे ममश्नूते। 

न्यायतो यस्तु भिद्ेत्त म पूरवोताद्विणिप्यते ।॥१५ 

योगिना चेव स्केपा प्रे चान्द्रायण स्पृतम्‌ । 

एक द्रं ्रीणि चल्वारि शक्तिनो वा समाचरेत्‌ ।१६ 

स्तेय ब्रह्मच अलोभस्त्याग एव च ॥ 

ग्रनानि चैव भिक्षूणामहिसा १रमाविता 11१७ 

सक्रोषो गृस्युभूपः शौचमाहारलाघमम्‌ । 

नित्य स्वाध्याय इप्येने नियमा परिकीरिना पम 

यौजयोनिगूुं णवपुरवद- पमंभिरेव च 1 

यथा द्विष द्यरण्ये मनुष्याणा विधीयते (दे 

प्राप्यते वाचिरा देत्रादुशनेव निवारित. 1 


२०० ] 1 षषृषृ 


एव जानेन स॒द्धेन दग्धबीजो ह्यल्मप, 1 
विमृक्तवन्ध. शान्तोऽसौ मुक्त इर्याभधीयते ॥२० 
वेदैस्तुत्या सवंयज्ञक्रियास्तु यज्ञे जप्य जनानिनामाहूरग्रयम्‌ 1 
ज्ञानाद्धयान सङ्घ रागव्यपेत तस्मिन्‌ प्रापने शाप्वतस्योपलन्धिः 1२1 

दम शम सत्यमकटमपत्व मोन च भूतेप्वखिलेप्वथाज्जंवम्‌ । 

अतीन्दियज्ञानमिद तथाज्ज॑व प्राहुस्तथा ज्ञानविशुढच्वा ॥९ 

समाहितो ब्रह्मपरोऽप्रमादी शुचिस्नथैवात्मरतिजिरते्रिय'। 

समापूयुर्योगमिम महाधियो महर्पेयश्चेवमनिन्दितामता- 1२ 

जो वुधा के अप्रभाग स मा्तमास मे जल की ददो का अशन ॥॥ 
वरता भौरभोन्यायसे भिक्षा क्या कर्ता है दह्‌ पन्ति कटे हे 
विशेषता से युक्त दोता है ॥१५।। गौर योगियो के लिपे चान्द्रायण सवे ध 
कहा गाह । एकदो तीन मौर चार चान्द्रायण व्रतो को शत्तिपूरवक भाचवरण 
करना चादिए्‌ ॥ १६॥ चोरी न करना, ब्रह्मचयं का पूरणं रूप से पालन वन्ता 
सोभन करना, प्याग अहता भौर परमाधिता ये द्रत भिश्ुभरो के तिथ सरमः 
होते है ॥१.॥ फछोष न करना, गुरुक सेवा, शौच, महारवा हलक 
तिल्य षेद का अघ्ययन ये निपमर के गये ॥१८।। वीज योनि वातात 
गुणौदे शरोर बालाक्मोसे बेधा हुजाहै! अरण्य हाथोकीतर्ह मनुष्यो १ 
लिथे विधान किय) जाता है ॥१६॥ मुकु से जते निनारित होकर पीपर 
भरातश्रियाभाता दहै दसी प्रकारते शृद्धज्ञानरे दवारा दग्ध बीज वाला, क्ल 
हीन, विमुक्त बम्ब वाला दान्त यह रुक्त कहा जाता है ॥२०॥) वेद र 
स्तुति से, समस्त यज्ञो की क्रिया, यज्ञम जप क्षानियो कौ सवं वहागय 
दै 1 ्ानसे सङ्ग भौर राग से विरहित ध्यान वहा गथा है । उसके प 
परे शा्वत पुरपक्ी प्राप्ति हो जाती है ॥२११) दम, णम, सद्य, अवत्मपत। 
मौन, समस्त प्राणियो तें सौधापन तथा आजव सक्रौ क्ञान से विगरद्ध सत्व वारं 
सोग रतीन्दिय श्षान हते है ॥२२॥ समाहित अर्थाद्‌ पूणं षावधाम्र, हय 
हस्र हने याते अप्रमादी, पवित्र, भाता मे सति रखते वाति मौ इन्दि 
षो जीततेते वात, महानु बुद्ध यति, अनिपदत एव अमल मदूपिण इव मोः 

„ भो पथापन बर ॥ ९३१ 


प्रमाश्रय प्रात्ति |] { २०१ 


1 परमाश्रय प्रापि ध 


वाश्रमनयमुल्सृज्य प्रष्ठस्तु परमाश्रमम्‌ । 

भन्तः सवरसरस्यान्ते प्राप्य त्ानमनुत्तमम्‌ ॥९ 

अनुज्ञाप्य गुरू चैव विचरेत्‌ पृथिवीमिमाम्‌ । 

सारभूतमूपासीत ज्ञान यञ्जेयसाधकम्‌ ॥२ 

इद ज्ञानमिद जेयमिति यस्तुपितश्चरेत्‌ । 

अपि कत्पसट्लरायुन्नेव ज्ञेयमवाप्नुयान्‌ 113 

त्यक्तसद्घौ जितक्रोधो लघ्वाहासे जितेद्धिय । 

पिधाय वद्धा द्वाराणि ध्याने ह्यं व मनो दधत्‌ 18 

शूः्येप्वेवावकाशेपु गुहासु च वने तया । 

नदौना पुलिने चैव निस्य युक्त सदा भवेत्‌ ॥५ 

वाग्दण्ड कर्म॑दण्डश्च मनोदण्डश्चते तय । 

यस्य॑ते नियता दण्डा स त्रिदण्डी व्यवस्यि्तं ॥६ 

अवस्थितो घ्यानरतिजितिन्दरिय शृ माशुभे हित्य च कर्मणी उभे 1 

इद शरीर भ्रविभुच्य शाश्ननो न जायते भ्रियते बा कदाचिन्‌ ।॥9 

श्रोवापद्रेषने वहा तीन माश्रमों का त्यायभर्‌ परमाश्रम बे प्राप्त 
करे गौर एक सम्बप्मर येः अन्त मे सवत्तिम ज्ञाती प्राप्ति षरस्वे॥१॥ 
श्री गषुषरण षौ नको प्राहठक्रके हम भूमण्डलपरे विचरणकररे भौरनो 
मनने के योग्य एव साधक शान हो उपौज्ञान कौ उप्ास्नना करनी चारि 
ययोकङ्गि दस समय परमसार स्वरूप ज्ञान ही मत्यावश्यक होता दै॥२॥ हु 
भान है भौर यही जानने के योग्य है दस प्रक्गारसे तुष्ट होकर विचरणकरना 
ष्रादिए । सह्य कल्पो कीभापुं वाला होकर भीजोजाननेकेयोग्योतारै 
उत श्रप्त नही ज्रिपा करता है॥३। सवप्रकरार कैसद्धौगोत्याग देन याता, 
दवोध षो जोतरेनेव।ला, हलश्च तथा स्वल्प 1 आहार करने वाला, अपनी.इन्दिपा 
कीवाघ्रुमे रपरे वारा बुद्धिरेद्रारेकौो दक्किर दसप्रगारसेमतदोष्यान 
भे समवि प जो जिल्कुल धून्य स्यान टो उनम बवज्ाय्ोम, धूषारमोमे 
छथावनमे एव नद्विपेषे पृलिन म नित्य युक्त रोते हृए सदा रहना बादिए 


२०२ } [ वाघु-पुराण 


| वाणी का दण्ड, कर्मेका दण्ड गौरे मनरूपी दण्ड ये तीन प्रकारके दण 
कटेमये ह) जिनके प्राठये तीन दण्ड होते हं वही त्रिदण्डी व्यव्ितत होता | 
॥६॥ ध्यान मे रति रखने वाल? मव्थित होकर तथा अनौ मस्त ईव 
को जीत कर, भभ एव अशुभ दोनो भरकारके कमोंको त्याग कर ईइ शरीः 
कोजोस्याग देता है वह्‌ शास्य की पदति से चलने वाला फिर न उन्न होता 
हैगौरन कभीमृत्युकोही प्रप्त होता है बर्यादु आावागमनते मुक्त दोक 
वह्‌ मोष ष्दकोप्रा्ठ कर चेता है ॥७॥ 
१ ब्रायरिचत विधि ॥ 


अत ङ्ध प्रवदामि यतोनामिहु निश्चयम्‌ । 

प्रायश्चित्तानि तत्त्वेन यान्यकामङृतानि तु 1 

अथं कामङृतेष्याहुः सूक्ष्मधर्म बिदोजनाः ॥1१ 

पापच्च त्रिविध प्रोक्त वाड.मनःकायसम्भवम्‌ । 

सततत हि दिवा रावौ येनेद वध्यते जगत्‌ ॥२ 

न कर्माणि न चाप्येष तिषतीतिपरा श्रुति. । 

क्षणमेव प्रयोज्यन्तु जाृपस्तु विधारणात्‌ ॥३ 

भवेद रोऽ्रमत्तस्तु योगो हि परमं वलम्‌] 

नहि योगास्रं किविप्तराणामिह्‌ हश्यते } 

तस्मा्योग प्रशसन्ति धर्मयुक्ता मनीविण (9 

अधिया विया तीर्त्वा प्राप्येए्वयंमनुमम्‌ । 

दृष्टा परापर धौरा. पर गच्छन्ति तत्पदम्‌ ॥५ 

द्रनानि यानि भिक्षुणा तयैवोपवब्रत्तानि च। 

एम कोपकमे तेषा प्रापग्रिचत्त विधौयते 11६ 

उपेत्य स्िपं कामात्‌ प्रायश्चित' वितनिदिेत्‌ । 

„ प्राणायामसमरायुक्त युर्य्सान्तपन तथा 11७ 

थो दणयदेवनेकदा~-षद दसत भाथे यतियो दै मिश्पय बौ दतताते ट 
शौर प्रायश्चितो को बतताया जाहादहैमोदि त्राह्दिक रपतेरिनाष्न्धा क 
अ~ ~ ॐ । च्चे अ---र सश्प्रप्मक्ेग श्र अ नोक भीक 


भरायस्ितत विधि | [ २०३ 


है।। १५ एस लोकम पाप सीन प्रकारका वत्तलाया गयाहैजोकि षाभी, 
मन मौर ¶रीर से उत्पतन होताटहै । सवदा रात दिन निष पापै यहु समस्त 
ससार बाधित होता रहता है ॥२॥ न तो यहां जमचुमेयहभौरन कम 
ही कोई भी नही रहता है, यह पर-श्मतिटै। भायुके विशेपसर्पसधारण 
फंरते से एकक्षणमाप्र ही का प्रयोग करं ॥३॥ धीर एव प्रमत्त हौना 
नादिए्‌ । योग सवने प्रबल बल होता दहै । इष सप्नारमे योगसे मधिक मनुधयों 
का हित सावक भय दुं भी दिनाद्‌ नही देता है । इती लिये घमके 
तेप्वंके जानन मनीपीगण यागकी ही मत्यधिक्‌ प्रणस किया करतेद।॥४॥ 
विद्यास मर्थात्‌ चान से अविद्या के अघकरार कौ पार करके तथा सर्वोत्तम 
रस्यं को प्रात करके धोर प्प परापर को दखक्षर उत प्रम प्रदङ्गो जाया 
कस्ते है॥५॥ जौ पतियोके लिय ब्रत तथा उपव्रत बताये गय दँ उनमे 
एश एक कै अपक्रम करने मे प्रायि का विधान होताटै ॥६॥ 
स्वेच्छया स्प्री का उप्गमन कर लो श्रायपिचत्त करना चाहिए । प्राणायामस 
पमापूक्त होति हृए सा तपन ब्रत करना बाहिए्‌ ॥ ७॥ 


ततश्चरति निदूश छच्ृस्यान्ते समाहित । 
पुनराश्रममागम्य चरेदुभिुरतन्द्रिति । 

न ममयुक्त वचन हिनस्तीति मनीपिण ॥त 
तथापि चम कत्तंव्य प्रसद्धोह्यपदाख्ण । 
अटोरानाधिक कश्चिनास्स्यधम इति भ्रति (दै 
हिसा द्या परा सृष्टा दैवतेमु निरभिस्तया । 
मदेनदुद्रविण नाम प्राणायते वर्िश्वरा । 
सत्तस्य हरति प्राणाच्रु यो यन्य हरते धनम्‌ ॥१० 
एव कृत्वा स दुष्टात्मा भि तवृद्चौ ब्रताच्च्युत । 
भूयो निर्वेदमापनश्चरेच्चान्द्रायण व्रतम्‌ \॥११॥ 
विधिना शाहृष्टे न सवत्सरमिति श्रुति । 

तत सवत्र स्यान्ते भूय प्रक्षीणकल्मय 1 

भूयो निर्वेदमापनश्चरेदु्भिशुर्ताद्रत १२ 


२५४ } [ वायुपुराण 


अहिसा सवेमूताना वर्मणा मनसा गिरा १ 

अक्रामादपि हसेत यदि भिक्लु पशून मृगात्‌! 

कृच्छातिङृच्छ कुर्वति चान्द्रायणमथाति वा १२ 

स्वन्देदिन्दियदौवंत्याद्‌ किय दृष्टा पतियंदि। 

तेन धारवितव्या वै प्राणायामास्तु योडश ॥१४ 

इसे सनन्वर इच्छ. के सन्ते दिद मे चरण करना चाहिए भीर 
पृण समाहित होकर रहना चाहिए । भिक्ष, कौ भून नयते आश्रम मे वारर भत 
न्त होमे हए रहना चषि ! मनोपौ लोग कते है कि कमो मर्ेयुक्त ववत 
वेद्रास हिता ने करे {< तोभौ यह दारुण प्रसद् कभी गेही करना बाहिर । 
सहो-यय ते अधिक कोई अधर्म नही है-देसो शमि है 1 ६॥ देवतताभोने त॑था 
मुनियोने यद्‌ सव परा-हिमा बतारईदै। ओ यह द्रविण है वहेभीप्रण केह 
सयान है व्योमि प्राण वहिष्दर हो जाया कते) वह्‌ उष प्रभोका हे 
हरण किया करता है जोकि उपदा घन हरण करता है म्याद्‌ यहा शय मीर 
तमे वृधमी वन्तर नहीं होता ११० जौ कौट भो दषा क्ता षट 
प्रम दु होता है मावग्ण ये धर तथा द्रत ते च्युत हो जाया करता ६ ॥ 
पिर निर्वः प्रात्त परते हृष चाद्धायण ग्रत शरा घाटिए्‌ ११ श्वम राई 
हृदः विधिने दक वरद पवन्त रेषा यरे रेत धति है । पिर रवर्णे थ 
पर प्रभोष कग वानाहेता दै) दषते याद मे फिर निवे को प्रह 
भिन्ने ककशन हते दए चरण कग्ना चाहिए ५१२ एमप्त प्रिर 
हत न प्ररे लोप्वहे षम, भनया वाणी र्गी केभोद्रापमङर शी 
यण्टिप्‌ 4 यदित इच्टावेमी भिक्ष, वयु तषा पप्र शौ दपा णे 
परे उगकाषकरो नित्तिके लिपि प्रपिरिचिततक्टनाही पाह्ूषु भोरवद + 
ष्य, तषा सादात प्रव दै 11130 यदि के प्रति पिमो स्वो षौ देन 
सपो दवता मे गासन सन्ध रेतो उवे उव पाह कष 
ढे निप गीत्‌ ऽाणापाम धवश्पही कटने वाटि १५८ 

दिवा रदन्तम्प वित्य प्रायधिद्च विधोयते! 

प्निरत्रमुपवानद्य श्रानायामशत तया ।1१५ 


जन्या वदन्न | { २०४ 


रात्रौ स्कन्नः शुचि स्नतकशेव तु धारणा 1 

प्राणायामेन चुद्धाप्मा विरजा जायते द्विज 1१६ 

एकान्न मघु मास चा द्यामधाद' तथेव च 1 

अभोज्यानि यत्तीनाच्र प्रत्यक्षलवणानि च ।१७ 

रवौकातिकंमे तेषा प्रायर्चित्त विधीयते । 

प्राजापल्येन छ्य ण तततः पापात्‌ प्रमुच्यते 1(¶८ 

व्यतिक्रमाच्च ये केचिद्राइमन कायसम्भवम्‌ । 

सदुभि सह विनिरिचट्थ यद्र युस्तत्समाचरेदू ॥१२ 

विथुद्ुद्धि रामनोष्टकाञ्चन. समस श्रुतेषु चरन स मादितः। 

स्यान घ्रुवं शाश्वतमव्यय सता परस गप्वा न पुनहि जायते २० 

दिनमे जौतिगत्र मकनन होता टह उरक भ्रायचित्त का विधानकिया 
घातादैश्रि उमे तीनरत्रि तक्र उपवास करना चादि ॥१५॥ जोर्रिने 
स्कर दो अर्थान स्वतिनेहो तो उवे शुद्धि स्नान करके केवल बारह्‌ ही प्राणा- 
पामकरलेन चारिषु ) इन द्वादस प्राणामामोे वह्‌ दविज निपपापहो जता 
है ॥१६ा एक ही भन्न, मधु मास, वामप्राद, ्रप्यक्ष चवण ये पत्तियोके 
भभोज्य वतताय मयेह इनमे किमी भी एक वा मतिक्रमण वरते मे प्रायश्िव्त 
भे] विधान होता दै) प्राजापि्य बृच्छद्रत कलेते दस पायते प्रमुक्त होता 
है ।१७-ष८॥ जौ कौट चाण, मन ओौर शरीरमे उप्पष्न होते वेने पापका 
भ्यतिक्रम रे तो सत्पुदपों के साय विलेप स्पस्े निश्वम षरने उसका प्रायधित्त 
जैसा भी वे बावे करना चाहिए ॥१६॥ यति को सर्वदा विणुद् वुद्धि वाला 
भोर षुण तवा म्र ठलेको एक मान दृष मे देषवते हृष्‌ परम समाहित 
होकर समस्त प्राणियो मे विचरण करना चाहिए । एेमा यत्ति शात प्रव घौर 
भव्यवय मौर रष्पूस्पो कापरम स्यानप्राहठक्रताहै मौर फिर इम नभतम 
जनम ग्रहण नही करता है ॥२०॥ 

1 अरिष्ट वर्णन 11 
अत ऊध प्रवश्यामि अरिष्टानि निबोधत 1 
येन जञान्रिगेयेण मृच्यु प्यति चात्मन ॥१ 


२०६ | [ ध्यु पुराष्र 


अन्तो ध्र.वर्॑व सोम च्छाया महापथम्‌ । 

योन पश्येत्स नो जीवेन्नरः सवत्सरात्परम्‌ ॥२ 

अरषििवन्तमादित्य रश्िमयेन्तच् पाव्रमू : 

यू. पर्येत्न चे जीवेत मापतादेकादश्नात्रम्‌ 11३1 

वमेरमूत्र' करीप वा सवरणं रजत तथा । 

प्रतयक्षण्थ वा स्वप्ने दशमासान्‌ स जीवति ॥४ 

अग्रत पृष्ठतो वापि खण्ड" यस्य पदम्भवेन्‌ 1 

पामूलि कमे वापि मप्तमासान्र स जीवति) 

काकः कपोतो गृध्चो वा निलीयेद्यस्य मू नि। 

कफष्यादो वा खग केश्रिचत्‌ पण्मापा्रातिवर्त ।\६ 

वध्ये दवायसपड क्तीभिः पायुवरपेण वा पून. । 

छाया वा विकृता पर्येबेतुः पञ्च स जीवति 11७ 

धरोवापुरैव ते वहा--अव मो बरिष्टो को वाति है, उमदे शनसो नि 
शान वितर से भनी मूलय क देखे है।।१५ भो अर्‌ घती, भव, सोमी 
छा बौर महापथ वौ नही देषता है व मनुष्य एक वपं ते मधित नीवि 
नेट र्हा फरता है ॥1२॥ जो मनुष्य दिना रश्मियो पाले सूपे कोतेषा पिमो 
मै युक्त पावक वो देशतां है वह ग्यारह मात से सधिष जीवित नीरा कता 
दै \1३॥ जो मनुप्ये भूत करीष, सुकण भवा रजत कामन प्रद्यक्षया ५ 
मेक्वादै वहे दश माम तक जीवित ग्हूला है ॥४)) रेते स्थान मे भवा वी 
मे ागैया पीने जषदे षद सष्ड दौ सात मास वंत जीदन्‌ धाषम 
भरिया परा है ।14॥ काव, वपो भयव प्र जिसे मस्तक पर नितीन = 
जवि सववा द्रप पापक्तौ बंटजद्रि वटं मनुष्य छ मासे भविक जीवि 
न्दता टै 1४६4 कमो की पत्तियोते सयवापाणुगौ वर्प व्पयद जव 
अथवा विदत छयाको हेये दह्‌ पनृष्यवाटयापाव मानक जनि, 
र्णा है ॥1७॥ 

अनभ्रे विच्युत पश्येदक्षिणा दिशमाधिताम्‌ । 

सरम कणे द्री काय जीवति कन 


भरिषट वर्णन |] { २५७ 


प्म वा यदि वाऽऽदर्णे माप्मानं यो न पृश्यनि । 
अशिरस्कं तयात्मान मामादूद्ध न जीवति 1 
शवमन्धि भवेदुगात्र वसरागन्धि ह्यथापि वा1 
मृत्युद्य.- पस्यितस्तस्य अद्ध मासं स जौवित ॥१० 
सम्मिन्नो मारणो यस्य गर्मस्यानानि कृन्तति । 
अदुर्भिः स्पृष्टो न हृप्येचच तस्य मृष्युष्पस्थितः ॥\९१ 
च्रक्षवानरयुक्तन रथेनाशान्तु दक्षिणाम्‌ । 
गायन्नय व्रजेत्‌ स्वप्ने वियान्मृ्युरप्थितः ॥१२ 
कृप्णाम्बरघग श्यामा गायन्ती वाय चाद्धना । 
यन्नवेदक्षिणामाशा स्वप्ने सोऽपि न जीवति ॥१३ 
छिद्र वा्दच कृप्णच स्वप्ने यो विवृयान्नर । 
परमून उ श्रत्णं दरा वि्नयुपस्वितत ५११२ 


मेष!ढम्बरके व्िनाही जो दक्षिण दिशाःमे भाधितत विजली कौदेषता 
अपव उदकमे इन्द्रधनुष को देवाकरताहैवहतोनयादो माततकटी 
जीवित रहा करता है 11511 जलने यवा दर्पण मेँ जो अपन जपप्ते नही दत्ता 
है यव) व्रिना हिर वाना अपने यापितो देषवना है वद मनुप्य एकमाम से भधिक 
जीविन नदी रहता दै ।।६॥ जिसका शरीर शव कौ गन्धं के समान मन्धव्राला 
टो जावे मथवा वता ( चर्वी) कौ गन्ध वाला हो जरे उ बौ मौत उपन्थित 
ही समल तेना चारिए। वह केवल १५ दिन तक दही जीवितरटाक्रतादहै 
॥१०॥ सम्भिन्न वायु जिसके गर्भष्यानो ऋ हन्ति त्रिया करता दै मौर जलत 
स्पशेहो जाने पर्‌ प्रशष्नता का अनुमव नदीं करता है उस मनुघ्य की मृत्यु उप 
शथे ही सन्न लेना चादि 1११॥ जो रीद्धया गन्दरोि युक्त ग्थमे मान 
करता हुमा दक्षिण दिशा स्वप्ने जत्र उवह मौन उपस्थित ही जाननेनी 
श्वादिष्‌ । १२ ह्म वणं केवष््ोको षारण कले वाली श्यामा मववाजातौ 
हई भङ्गा स्वप्न मेजो दक्षिण दश्वा कोले जतेतो वह जीदित नही रहता 
है ॥१३। जोस्वप्नमे दध्र बोर इष्य वस्वरको घारणक्षखा है मयवा मग्न 
शबरणकौ देने उमरी मृ-यु उपत्वित ही जान नेनी बाहिए ष्मा 


स { ण्य 


मामम्तक्तवाचम्तु निमेस द्रुसागरे 1 

रातु ताया स्वप्न सच एव न जीवति ॥१५ 

भस्मा ्ाराशच वै श्चि नदी युष्या भुजज्धमान्‌ । 

पदयेयो दशराश्रन्तु नस जीवेते तादृश. 11१६ 

प्ण एच विकटैश्चैव पुरवैस्दूयतागुं ॥ 

पापाणैस्ताड्यते स्वप्ने य सदयो न सजीव ति ॥१७ 

सूर्योदये परव्युपसि प्रसयक्ष यस्थ वै शिवा! 

करौशन्ती सम्मखाम्योति स गतायुेवेन्नर न 

यस्य वै स्नातमात्रस्य हदय पीडशते भृशम्‌ } 

जायते द^तद्पंष्व त गतायुपमादिदोत ॥\१५ 

भूयो भूय श्वतेदूयलु रान्नीवा यदिवा) 

दीपगन्धच्च नौ वेति विदवाम्मलुमुपस्थितम्‌ २० 

रान चेन््रायूध पण्येदि्वा सक्षवमण्डनम्‌ 1 

परनेत्रेषु चाप्मानन पचेन स जीवति ॥२१ 

जो नीचे मस्तक पर्यन्त पद्ध सामरः च्रलिमगन हो जवि भयव ष्म 
भ्रवार बा स्वपन देवे बद तुरन्त ही पेष जीवन वाता हो जाना $ ५१९॥ ॥ि 
मोष मस्म यङ्गार के नदी जो सूद दहो, भोर सपाकोदणरत्रित 
स्वप्न म बादर देसा कन्ता है देवा आदमी जीवित नही र्हा कर्ता है 1६ 
प्ण वणं वाले मर विकट साकार वाते तथा उत ट्धियारे वति पृषे 
दवसो स्व्नमे पापाणो चे ताडित किया जादा हो वह मृष दत ह 
भुम दो जाता है भीर जीविन नह हा करता ॥ ७ प्रात म 
सू के उदप समय भे गदड कौ मादा सती ह मुव बे सानन १ बाती दै 
मनुष्य गु होता है ॥१-॥ जिस पद्य रे केवन स्नान कते हीरे द्ध्य ॥ 
वटू {ही अविक पीडा होनीदैगौरद तदप होचा है वद अनुष माधु हना । 
मरपात्‌ मह सममं तेना चादि दि भव चमे मायु समास हे ची ६।१५॥ 
जो यास्वार दिवम अथवा सानन चे श्वान लियाकत दै ओरकषपग 

५. कौ मलय उपस्यित री समदा तेरी चद ।॥२५॥ मो मद 


अरिष्ट वर्णन |] [ २०६ 


गव्रिमतोदेमग दो ञी दविनयेंनक्षव्र मण्डनकौदक्तारोमौरदूमरेके 
नेघ्रोमे मपनेधापरवो नटी देखत्ताटं वट्‌ जौविन नहीं रदा करवा हं ॥२१॥ 


नेत्रमेकः स्वेदस्य कणो स्वानाच्च श्रद्यतः 1 
“ नामा च वक्रा भवतिस नेयो गतजीवितः ॥२२ 

यश्य कृप्णा छरा जिह्वा पद्धुभानच व मुखम्‌ 1 

गण्डे चिपिट रक्तं तस्य म्‌.त्युर्पभ्यितः ॥२३ 

मृक्तेशो दमश्च व गायन्‌ नून्यश्च थो नरः । 

याम्याश्चाभिगुखो गच्छेत्तदन्त तस्य जीवितम्‌ ॥९४ 

यस्य स्वदममद्‌नूताः श्वेतसपंपसन्निमाः । 

स्वेदा भवन्ति द्यसट्तस्य म ्वुपध्वितः ॥२५ 

उष्टा वा राममा वापि युक्ता स्वप्ने रे्युमाः। 

धम्य सोपि न जीवेत दलिणानिमृणो गनः १1२६ 

द्वं चातर परमेऽरिष्टे एनद्रूप प्र भवेत्‌ । 

पोपनम्धृणुयान्‌ कणे ज्योत्तिन्नेतरे न पश्यति २७ 

पवभन यो निपतेत्‌ स्वप्ने हारच्ास्यने वियते । 

न चोत्तिष्ठति य श्वभ्रात्तरन्तं तम्य जीविनम्‌ ॥रत 

जिमग्रे एक नेघ्रमे स्नावदोताहो ओर कान दोनो अपने स्यानेमे श्रष्ट 
होगयेहोतपानाक्टेदीहो ग्द हौ उम मनुप्य को यनबीवित भमसर तेना 
जाहये ॥ >२॥ जिसको जिह्वा काली मोर गग्करोहो गईटो तया मुपपद्धु 
षौ काति के समान कालि वाताहो गया हो एव गण्ड वित्रिटक भीर्‌ रक्तदा 
गवे उन मनुष्य को उपस्ति नटी सभन्न लेनी चादिवे ॥२३॥ पुत्र्यै 
केणों वाना, देना हा, गाना हूत्रा मौर नाचना टूमा जो मनुष्य दक्षिण दिवा 
के मोर मुमि हये जततादै उपक जपन का मन्रटी ममञ्न तेना चादि 
॥ २४॥ दिम मनुध्यके पमीने यें उलघ्न टोने वानीष्येन सर्मो वै सदस 
श्वेव क्णवारवार हेते ई उषो मृयू उप्रस्यित दही जान तनी षारिि ॥ र्भा 
जिम मनृप्यके न्यर्मे ऊट अयया ग्य नुडेद्रेद्यक्रौरस्वष्न में दिय मी 
भोर मुप शय द्रे उत्ादौ वट्‌ गनुष्यनो डीश्रितरनरीर्हाक्रता टै ॥२६॥ 


२१० ] { यावृ वृर 


यहाषरयेदो परम बरष्टहोत्रे हमीर यहस्यप्रीपर होनादै। कारन 
ध्वनि न सुनाई देती हो ओर नेत्र मे ज्योति नही देसक्ता ह ॥ २५॥ सन 
जोग्यघ्र मे निपतित हवि मौर इमा ह्वार न हेते मरणो खभरतेनदी 
उढता दै उसके जीवन का बितकुल चन्तं समक्न लेना चाहिये ॥ २६ ॥ 

उदधौ च दृटिं च सम्धतिष्ठा रक्ता पुनः मम्पदिवर्समाना 1 

मुखस्य चोप्मा सुपिरा च नाभिरत्र विषमस्य एव ॥९ 

द्विवावायदिय्‌। रात्रौ प्रत्यक्ष योऽभिहन्यते। 

त पश्येदथ दन्वार स हतस्तु न जोवति ॥३९ 

अग्नि्रवेश कुरुते स्वप्नान्ते यस्तु मानवः 1 

स्मृति नोपलभेन्चापि तदन्त तस्य जीवितम्‌ "1३१ 

यस्तु प्रावरण शुक्ल स्वक पर्थति मानव । 

रतत कृष्णमपि स्वप्ने तस्य मृपयुरूपस्थित 1२२ 

अर्चिते देहे तस्मिन्‌ काल उपागते । 

त्वक्त्वा भरावपाद-च उदुगच्छेदुदरदधिभान्नर. 1३३ 

प्राची वा यदि वोदीची दिश निष्कम्य वै शुचिः। 

समेऽतिस्थावरे देने विविक्ते जनवज्जिते ॥३४ 

उदड परख प्रा मखो वा स्वस्य. स्वाचस्त एव च । 

स्वप्तिकोपनिविष्टश्च नमस्कृत्य महेश्वरम्‌ 1 

समक्रायशिरोम्रोव धार्येद्नावलोक्येत्‌ 11३५ + 

ति शष्ट ऊध्वं हो वथः साम्पतिित रक्त एव फिर पम्पिवरतत मा 
मद्धो, गुषकौ ञ्प्पा ( य्ीं } तया नाभि सुषिराहो एवमत्र अत्यधिक उर 
षो टमा व्यक दिप्म स्थिति मेह रह्म दाला ह्येता है) २६॥ 1 ध 
अथवा रापिमे जो प्रप्य स्पते हृ"यमान होत्ताह उत्त मारन वलिदी दः 
मोष हुशा है वद जषित कहौ रट्वाहै ५३०) जो भनष्य स्वन केः 
मे अग्निम प्रवेश दिया करता है ओर्‌ स्पृति कौ उपनम्ध नही किया कणत 
उय मनुष्य वे जौवन काअन्तदहौ समच लेना चष्टे ॥३१॥ गो मनु 
सपा प्रावर्ण अयच्‌ आच्छादन युन देवता है तया स्वप्न प्क मद्य 


भरिश्वर्णेव |] [ २११ 


दैषता है उमरी मःय उपस्थित ही जाननी चाहिये ॥ ३२ ॥ अरिष्ट तै भूचित 
देह मे उम कराल ङे उपस्थित होने पर भय भौर विषाद काव्याग करके वृद्धि 

मान मनुष्य को उदुगमरन करना चाहिये ।॥ ३३ ॥) पूर्वं या उत्तर दिणा पे बाहिर 
निकरलङ्गर पविध्रहो जाते मौर म यन्त स्यावर समतन देशमेजौ कि एकान्त 
एव जनो से विर्वाजित हो, वह प्र उत्तरयःपूव कीबौर मुषवाला होकर 
स्वक्यतासे वंठ जये तथा आचमन करे । स्वस्निक परर उपनिष्ट होने हुये महे. 
ण्वर्‌ दो प्रणाम करे । मपने पूरे एरीर को, ग्रीवा को तया मत्तक कौ पमप्यित्ति 
मे खये । इधर उधर त्रिसी भी मर नही देना चाहिये ॥ ३४३५ ॥ 

यथा दीपो निवात्तम्यो नेद्घते सोपमा स्मृता । 

ग्रागदक प्रवणे देशे तस्माच जौ त योगवित्‌ ॥:६ 

प्राणे च रमते नित्य चक्षुषो स्पशंने तया । 

श्रोत्रे मनसि वुद्धौ च तवा वक्षसि घारयेत्‌ 1२७ 

फालधर्मर्च विज्ञाय समूटस्चैव सवेश । 

ददशाच्यास्ममित्येव योगधारणमुच्यते ॥.८ 

शतमष्ट एत वापि धारणा मूर्ति धारयेत । 

नतेस्प धारणायागोद्धायु सवं प्रवत्तंते ॥ दष 

ततस्त्वाधूरयेद्‌ हुम द्धारेण समाहित 1 

अयोद्धुारमयो योगी न क्षरेत्वक्षरी भवेन्‌ ॥४० 

जिम प्रकार निर्वात स्यानमे रववा मादा श््किक भी उसकी 
उषोहि नै हितनी है क्ट उवा पटा पर दता गई है} प्राव, उदन्‌, प्रवण 
देणमेयोगवै ज्ञाता य्यक्तिको अन्पाप्त करना चाल्य ॥३६॥ रमण करने 
यत्ति प्राणमे, नेवोमे, स्वर्णेन अर्यात्‌ स्वर्बि्रियिमे.घ्रोव्रमे, मनम, बुद्धिम 
ग्या वक्षम्थलमेधारणकरे ॥ ३५॥ बात कें को मीरमव भोरे 
पसूहु को जानवर दरादतत अध्यात्म यदौ योय काघारण वरना कहाजाता 
१३८॥ सौ मयदाबाठसौ चारणा कनौ मस्तक मे धारण कमग्ना वाहि्पि। 
उपरी घारणायागोद्रयु सव प्रवृत नदीं होनी है ॥ ३६ ॥४ इगङे अनन्तर समा~ 
दिनहोर्र मोद्ररमेदेदन्चे गदर कणा वाह्य । इरे अनन्तर मोर 
प्व योगीति तदोनेहूय अक्षरीहो जतादै । ४०॥ 


२१२ ] 


1 ओङ्खार प्रापि सक्षण ॥) 

अत उद प्रवकष्यामि योद्धार प्राप्ति लक्षणम्‌ । 

एप त्रिमायो विज्ञो व्य जनाति सस्वरम्‌ ॥१ 

प्रयमा वैद्युनो मारा हितीयः तामनी स्मूता 1 

तृतीया निग णी विद्यन्मातरामक्षरगामिनीम्‌ ॥२्‌ 

गन्धर्वति च विज्ञेया गान्धारस्वरसम्मवा 1 

पिपीलिङ्समप्पर्णा प्रयुक्ता मूध्नि लक्षयते 11३ 

तथा प्रृक्तमोद्र प्रतिनिर्वाति मुददंनि। 

तयोद्धारमयो योगी द्यक्षरे त्वक्षरी भवेत्‌ ॥४ 

प्रणवो धनु शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । 

अप्रपत्तन चेदध्य शरवत्तन्मयो भवेन्‌ ॥५ 

आओमिव्येकाक्ष ब्रह्य गुहाया निहित पदप । 

ओमित्येतत्रयो वेदाखयो लोकालयोऽग्नय. । 

विष्गुक्माछयस्त्वेते ऋक्‌मामानि यज्ुपि च ॥६ 

मा्राश्रात्र चतस्रस्तु विज्ञेया परमार्थत 1 

तत्र युक्तश्च यो योगी तस्य सालोक्यता व्रजेन्‌ ॥७ 

श्रो वायुदेव ने वहा-इमञ़े भगे ओद्धुारे कौ प्राति कालक्षग पदति 
है। यह ओद्धषर तीन मात्रा वाला समक्ष तेना चाहिये इसमे व्यर्वन जोह 
षह गृक्त होता है॥१॥ प्रथमा मातरा वंधूनी होती दै, द्विगिया ४। 
तामसो वदी गईटै भौर तृतीया मात्रानिगुंभो होती दहै । ईस प्रकार र्त 
मे गृमनक्रे वाली मात्राको जाननी चाहये ॥ २॥ गन्धार नामस ल 
समुखघ्र जो माप्रा है वठ्‌ यन्र्वी इयनामते कटी जाती है। परिपीतित 
समान स्यं करने चातो मूरा ने प्रयुक्तं की हुई दिला देती टै ॥६॥ र 
रवारप ्रपोगपे लाया हुमा ओदर मूर मे प्रतिनिर्वात होता है । € ४४ 
यह प्रदर से पर्प्थं पोमी गक्षर मे अन्नो हो जाता हि ॥४॥ परग 1 
ट ब्म घर दै मौर उ्यह्न वक्ष्य स्थान ब्रद्य टोकादै। यदि बम षै 


हयेवष्यहोतोदर मौ मातियट्‌ कयो जाह ॥ १४ षु म्‌ 


श्रोद्धार प्रत्नि लक्षण 1] [ २१३ 


परक्षर्‌ बात ब्रह्म पद गुहा मे निहित है । "गोमू" यह तीन वेद है--तौीन 
कहै बौर तीन भग्निह 1 ये तीनो ऋक्‌ षाम भौर यजु विप्णु केः क्रम 
॥ ६) यहांवारमाधाद हजो कि परमां ख्पस्ने समद्च सनी चाद्ये । 
पमे युक्त जो योगी है वह स।लोक्यता को जाताहै ॥७॥ 


अकारस्त्वक्षरो ज्ञेय उकारः स्वरित स्मृत । 

मकारस्तु प्लुतो ज्ञेयखिमा इति समित ॥ 

अकारस्त्वथ भूर्लोक उकारो भुवरूच्यते । 

सव्य जनो मकारश्च स्वल्लेकि श्च विधीयते 115 

मोद्धुारस्तु तयो सोका शिरस्तस्य विविष्टपम्‌ । 

भूवनान्त- सत्सर्वं ब्राह्म तत्पदमुच्यते ॥१० 

माप्रापद शद्रलोको ह्यमात्रस्तु शिव पदम्‌ 1 

एवन्ध्यान विशेषेण तत्पद मुपासते ११ 

तस्माद्धयानरतिनित्यमभात्र हि तदक्षरम्‌ । 

उपास्य टि प्रयत्नेन शाश्चत्त पदमिच्छता १२ 

ह्रस्वा तु प्रथमा मातरा तनो दीर्घा त्वनन्तरम्‌ । 

तत. प्लुतवती चेय प्रतीपा उपदिष्यते ॥१३ 

एतास्तु मात्रा विज्ञेया यथावदनुपूवंण । 

यावच्च व तु धाकयन्ते धायन्ते तावदेव दि ॥१४ 

ष्ममे भकार को यशर मह्ना चःटिय ओर उपार स्वरित वदा गया 

॥ मकार प्लुत जानना बाह्य । दय प्रकारसे यह तीन मात्रा वाना सदिप्त 
॥वादहै 1 ८॥ ममे जो मकार है यद भूलोक टै ओर उर।र भुवर्नो्ि कदा 
पनाह । य्यञ्जनङे साय मकारजौ दै वह्‌ स्वर्लोक होतादै 1 € ॥ भोषटरार 
दै यदलीन तोर १ उभका सिर निविषटप टोता है । वह मव मुयनान्तदोता 
१ प्रात्र उधरापदन्हाजाताहै॥1 १०॥ मावापदेद्दरतोङहै मौरभौ 

मात्र है वड्‌ रिवयद होाहै। हमप्ररारसेष्यानकी पितेपता श उश 
पदको प्मुपासनाबरते दहै 11 ११॥ दमवेष्यान मेरति रखती वाना 
श्रीर्‌ निग्य माकारदिद उच मदर कौ छायदत एड पौ श्चा रतने यनेदेदषय 


२१४ + [ बापु पुसा 


भ्रयलके साप उपरामुना करणी चाद्ये । १२॥ प्रयप्ामजो मात्रा वह्‌ प्व 
होती है इमके पश्रात्‌ दीर्घा माप्राहोती है मौर उके आगे फिर तृनीयाभो 
माच्राहोती है वह प्लुता होती है अर्थाव्‌ प्वुत वाली होती है ॥ १३॥ यै या 
विधि बनी केक्रपि श्रात्रारे जान लेनी चाहिये) जितनी हौहो शकं 
उनमीही धारणको जातोहं ) १४॥ 

इन्द्रियाणि मनो वुद्धि ध्यायन्नात्मनि यः सदा । 

अत्रा्टमात्रममि चेच्छुणुयात्फलमाप्नुयात्‌ १५ 

मासे माक्नेऽ्वमेधेन यो यजेत श्तं समा । 

न सततत प्राप्नुयात्‌ पुण्य मातया यदवान्नुयात्‌ ९६ 

अबिन्दु य बुशाग्रण माले माते पिवेन्नरः। 

सवत्सरशत पूणं माच्या तदवाप्नुयात्‌ (1१७ 

दष्टापर्तष्य यज्ञस्य सत्यवाक्ये च यत्‌ फलम्‌ 1 

समक्षे च पापस्य मात्रया तदनाप्तुपात्‌ 11५ 

स्वाम्ये युध्पमानान। शर राणामनिवरत्तिनाम्‌ ! 

यदुमत्रे्ततत फने ष्ट मारया तदवाप्नुयात्‌ ।१९ 

मतया तपसोप्रंणन य्तंभूरिदक्षिणैः1 

यत्‌ फल प्राप्नुयातु सम्यग्‌ मात्रया तदवान्नुयान, ॥२० 

त्र वै यौञ्डमावौ सः प्नृतो नामोपदिष्मते ( 

एषा एव भवेत्‌ वायां गृहुस्यानान्तु योगिनाम्‌ ॥२१ 

एषा नेव विशेषेण रेष्वयं समसक्षणा । 

योगिनान्तु विशेवेण एष्वये ह्य्टदाणे । 

मनिमायेनि विङ्गं या तस्माच. जीत ता द्विज ।२२ 

गोगा सालाना मनशोभोरपृदिशोप्यान गसेद् 
पिय परथाट पात्रादि ङ्ाभीश्रदणरङ्रे तोरम प्रतिति का 
ह ॥ १५] मादनमापते घवतिप्रष्पद् मामे जोपौषदं ता कष्कषोषा 
शृत व्ियाष्रहाहिवह्मी उण पृष्दषोप्रतिनहा बृलाहैमो माष ॥ 
द्म दुद्रा हना है १६॥ जोदुला दे वद्रमाण देजमकी 1 


ओदर प्रालि क्षम 1 [ २१५ 


को माक्-मामें पीता है अद वरावरसौ वर्प तक पीता रदतादहै उपकरानो 
पुण्य होता है कह पष्य मात्राके द्वारा प्राप्त किया करता है \॥ १७॥ इष्टपूर्त 
यञ्च का प्त्यवत्पमेजो फलहोनाहै तथा नामकेन खनेम जौ पृण्य होता 
है वपुण्यमानाकेद्वाराहो जता हं ॥ १८ ॥ अतेस्वामौ के लिथे युद्ध 
करते हुए शूरवीरो का जो रि पुन जमत्‌ मे अनिवर्ती होते ह उनका जौ पृष्य- 
फन होता ह वही मात्रासे प्राप्त करिया जातां ॥1 १६॥ अल्यन्तस्ग्र पके 
द्वारा मौर भूरि दक्षिणा वले यज्ञोकेद्टारा नोफन प्राप्तहोता है वही फन 
भली माति मात्राकेद्वारा प्राप्त श्रिया करते हँ ॥ २०॥ वहां परजौ बाघी 
मात्रा वालाप्लुन इनामसे कदाजानाहुं यही गृहम्य योगियो को करनी 
चाहिये ॥ २१॥ यही मात्रा विशेष द्प स एेश्वरय के समान लक्षण वालो होती 
ह मौर आठ लक्षण वाते देवस मे योनियो को विशेष न्प होती ह । अगि- 
मादिये जाननी चाहिय । इसे द्विज को उसका युञ्जन करना चाहिये ॥२२॥ 

एव हि योगौ सगुक्त शुचिर्दान्तो जितेन्द्रियः 1 

आत्मान विन्दते यस्तु स॒ सर्वं विन्दते द्विज ॥२३ 

चछचो यज पि सामानि वेदोपनिपदस्तया । 

योगक्ञानादवाप्नोति ब्राह्मणो ध्यानचिन्तक ॥।२४ 

सर्वभूतलयो भूत्वा अमूत स तु जायते। 

योगी सड क्रमण कृत्वा याति वे शाश्वत पदम्‌ ॥२५ 

अपि चान चतुहैस्ता घ्यायमानश्चतुमुं खम्‌ । 

प्रकृति निश्वल्पाष्या दृष्टा दिन्येन चधुपा ।\२९ 


अजामेता वौदितयुक्लङ्ृप्णां बह्वी प्रजा सृजमाना स्वस्पामू । 
भजो द्यो को जुपमाणोऽनृशेते जहात्येना मुक्तमोगामजोऽन्य 1 
अष्टाक्षरा पोडशपाणिपादा चतुमुं खौ व्रिशिखामेक्ृद्धाम्‌ ! 
आ्यामजा विश्वसृजा स्वरूपा ज्ञात्वा बुधास्त्वमृतत्व ब्रजन्ति । 
ये ब्राह्मणा. प्रणव वेदयन्ति न ते पुन सतरन्तीह्‌ भूय ॥२७ 
इव्येतदक्षर ब्रह्म परमो द्धारसञ्ञितम्‌ । 

यस्तु वेदयते सम्यक. तथा ध्यायति वा पुन ॥र5 


२१० 1 [ बाप पृय 


ओद्धार सर्व॑ काले स्वं प्रहितवान्‌ प्रमुः 1 

तेन तेन नु विप्णुत्व नमस्कार महायशा. ॥३३ 

नमस्कारस्तथा चैव प्रणवस्तुवते प्रभुम्‌ । 

प्रणवे स्तुवते यज्ञो यज्ञ सस्तुवते नमः। 

नमस्तुवतिव स्द्रस्तस्याद््‌ द्रपद शिवम्‌ ।*२४ 

इत्येतानि रहस्यानि यतीना वं ययाक्रमम्‌ 1 

यस्तु वेदयते ध्यान स पर प्राप्तुयासदम्‌ ॥३५ 

जि तरह शरदेव के लिये किया हुमा नमस्कार समस्त घर्मो कपत 
वाला होतादै मौर ध्रव होता वे जन्यदेवेके लिये क्रिया हमा ममार 
यह फल प्राप्त नहो करता है ।। ३१॥ इसलिये योगी का क्तंश्य हैक वह 
तीनो कालो मे महैश्वर कौ उपासना करे 1 ब्रह्य दश विश्तारक होता है भौर 
वहे ब्रह्म विस्तार ह + ३२॥ प्रभुने सवं काल मे स्वको ओओोद्धार बनायाथा। 
उस-उस खे विष्णुय होता ह । नमस्कार महान्‌ यश वाला हं ।। ३२ ॥ नमस्कार 
भ्रणव के तिये ह, प्रणव प्रमु का स्तवन करता हं । यज्ञ प्रणवे का स्तवन करता 
है उष सश्तवन करने बाते के लिये नमस्कार रं । नमः--यह्‌ रुद का स्तवन 
कर्ता है दसतिये श्र पद ही धिव ह ॥ ३४ ॥ यतियो के ये रहस्य हँ । तकी 
जो यथाक्रम जानता हं भौर ध्यान करता हं वह परम पद की प्राप्त किया क्ट 
हे ॥ ३५॥ 

1 कत्प-निरूपण 

ऋपीणामग्निकल्पाना नैमिपारप्यवासिनाम्‌ । 

ऋपि. श्रुतिधर प्राज्ञः सावगिर््ामि नामतः॥\१ 

तेपा सोप्यग्रतो भूत्वा वायु वाक्यविशारदः! 

सातत्य त्तर कुवंन्त प्रियार्थे सत्रयाजिनाम्‌ 1 

विनयेनोपत्रमम्य पप्रच्छ स महादुतिम्‌ ॥२ 

विभो पुराणसवद्धा कथा वै वेदस्षमिताम्‌ । 

श्रोतुमिच्छामहे सम्यक. प्रसादास्सर्गदशिन ॥१३ 


क्न्य निरूपण ] { २१६ 


हिरण्यगर्भ ममवान्र्‌ ललाटात्नीलनोदहितम्‌ ! 

फथ तत्तेजस देव लब्धवान्‌ पु्लमात्मन ॥४ 

क्थ च भगवान्‌ जज्ञ ब्रह्या कमलसभव । 

सद्रत्व चव शर्नस्यि स्वात्मजप्य कथ पुन ॥* 

कथ च विष्णौ द्रेण साद्धं प्रीतिरनुत्तमा । 

स्वे विष्णुमया देवा सर्वे विप्णमया गणा १५६ 

न च विष्णुसमा काचिदूगतिरन्मा विधोयते । 

इत्येव सतत देवा गायन्ते नात सशय । 

भवस्य स क्य नित्य प्रणाम दुम्ते हरि ॥७ 

श्रीसूतनजोने क्टा--नमिपारष्य में नियास करन यत्ति मननिके ममान 
शरट्पियोमेसेश्रतिको धारण करन षाला परम पण्डित सावि नाम वात 
च््पिथ्‌ ५१ गचन बोलने में भद्ष्पण्डित उन सदमे भग्रणी दोषर सवका 
यजन करने वार्लो के प्रिय ढे लिये सवदा बही रहने वाले वायु कै सपरीप विनय 
पूर्वव उपस्थित होकर उस मटान युति वते वायु से पूछा ॥२॥ सविभिने 
बहा--दे विमो! रागो पे सम्बद्ध तथा वेदो दै समित कपा को सवदा भाप 
सेसुमनेकोहम इच्छा बरते दै भाक प्रसाद से उते भली मादि घवण वरेगे 
॥ ३ ॥ दिरण्यगमे भगवानु ने ललाट से नीललोहित भपने पत्र उस तेनस्वरूप 
देवको कवे प्राप्त कियावा 21४ ॥ कम ठे जनमे प्रदे करने दाते सगवानु 
श्र्याजौ ने अपने भात्मज णवं का फिर सद्र षते उलन्नङ्रियापा? ॥५॥ 
सौर भगवाद्‌ विष्णु कौख्द्र कै साय व्रि तरह सर्वोत्तम भीति उत्सन्न हुई ? 
समस्त विष्णमयर देव हैँ मौर समदं गृण द्रिणूमय हँ ॥ ६१ विष्णू शै समान 


कोर भौ गतिनदी होती दै! दम प्र्ार से समस्त देवता गान विया वरते दै, 
षम वृदछमी तशयनदीरै। वहदहरिनिस्य हौ भवको भयो प्रणाम रिया 
करते ६ ॥ ७॥ 


एवमुक्ते तु भगवान वायु सावयिमन्रवीत्‌ 1 
अदौ साधु त्वया साधो वृष्ट प्रद्नो द्यनुतमः 1"= 
भवस्य पु्रमन्मद्व ब्रमण सोऽमवयया 1 

प्रह्यणर पयमोनिित्व र्द्रत्य शक्रस्य च #द 


२२० 1 [ वाकुुरण 


द्वाभ्यामपि च सम्प्रीततिविष्णोश्चैव भवस्य च॑ । 

यच्चापि कुरुते नित्य प्रणाम शंकरस्य च । 

विस्तरेणानुपुव्यचि णुत ब्र.वतो मम ॥।१० 

मन्वन्तरस्य सहारे पश्चिमस्य महात्मनः । 

आसीत्तु सप्तमः कल्प. पद्मो ताम द्विजोत्तम 1 

वाराहः साम्प्रतस्तेषा तस्ये वक्ष्यामि विस्तरम्‌ ।११ 

कियता चव कातेन कल्प. सम्भवते कथम्‌ 1 

किच प्रमाण कल्पस्य तत्र अत्रहि पृच्छताम्‌ ९२ 

मन्वन्तरणा स्वाना कालसस्या यथाक्रमम्‌ । 

प्रवक्षामि समासेन ब्रू वतो मे निबोधत ।१३ 

कोटीना द्रं सहस्रं वं अशौ कोटिशतानि च्‌ 1 

द्विपष्टिश्च तथा कोटचो नियुतानि च सप्तिः 1 

कल्पांस्य तु संख्यायामेतत्‌ सर्वमुदाहृतश्‌ १४ 

श्री सूतज ने कहा -मावयि पिके दस प्रकार से कह्ने षर भगव 
वागुदेव ने फएदा--हे साधो 1 मापने यद्‌ बहुत ही च्या अयुतम प्रण क्िा 
है॥ = ॥ जिस तरह महादेव का ब्रह्यासे पू का जरम लेना हुम भौर बरदा 
था पद्य मोनित्व जैसे हुभा तथा एकर का रदरव जिस प्रकार मे हुभा॥९॥ 
विष्णु यौरशिवि षन दोनो की पारस्परिकं प्रोति जिस तरह से हई पौ भोः 
श्रो निप्य हौ विष्णु शकर को प्रणाम क्रिफाकरते ह इन छव बातो को मेषु 
विस्तार के साच वत्ता हूं गौर यानुपूरवी के सहित वताता है साप पोग गु 
सव श्रवण वरं । १०॥ हे द्विजोत्तम ! महाप्मा परस्विम मम्व्तर फे सहार 
हो जाने प्रप्य नाम वाला सप्तमक्ल्प था । उने द समय वाराहे कल है 
उसमे विस्तार कौ वतात्ाह)। ११॥। सावणिं ने कहा--कत्प दिठने समप ॥ 
छता मौर वह्‌ कसे होता है? षल्य का क्या प्रमाण होता है, यह पृ्ने बाति 
हम कौ बताये ॥ १२॥ वापु ने कहा सात मन्वन्तरो की कालक पर्या 
प्रम वै यनुलार तलाञ्ना। सशेष मे दतसति हए मुशे राव जान सो ॥११॥ 


दो महम वाट सो करोह तपा सत्तर मिषूते वातठ करोड वत्प पै बाधे भाण 
कौ पहसन्यार्ट्दीमरदृदै 1१४४ 


ये पतिर्पण [ २२१ 


पूर्वोक्तौ च गृणच्छेदौ बपग्रि' चच्मादिशेत्‌ 1 

शत चैव तु कोटीना कोटीनामष्टसप्ततिः । 

ह्व च शतमख तु गवतिनिवृत्तानि च ॥१५ 

मानुपेण प्रमान यावद्धं वस्वतान्तरम्‌ 1 

एप क्त्पम्तु विनय कत्पाद्ं द्विगूणीकृत ॥1१६ 

अनागताना सप्रानामेततदेव यथाक्रमम्‌ । 

प्रमाणं कालसंद्याया विनेय मत्तमैश्वरम्‌ 114७ 

नियुनान्यष्टनस्चाणत्तयाऽशीतिशवानि च । 

चतुरशोतिश्चान्यानि प्रयुनानि प्रमाणत. ॥¶्‌न 

सक्र्पयो मनुश्चैव देवाश्चन््पुरोगमाः । 

एतत्‌ कालस्य विन्नोय वर्पागरन्तु प्रमाणतः ॥१६ 

एव मन्वन्तर तेपा मानूपान्तः प्रकीत्तित 1 

भरणयान्ताश्च ये देवा; साध्या देवगणाश्च ये 1 

विश्वे देवाश्च ये नित्या. कल्प जीवन्ति ते गणाः ।1२० 

अय यो वर्तते कल्पो वाराः स तु कीर्त्यते । 

यस्मिन्‌ स्वायम्मुवाद्याश्व मनवश्च चतुद श ॥२१ 

पूर्वे मे उक्त गुणच्छेद लव्ध वधं का श्र बताता चि । एक सौ बट 
सतर करोड दो सौ हगार नम्रे निरृत होता दै! १५५१ मानुप व्रमापमे 
जिनेना पेवष्वतान्वर है क्ल्यके वधं माग को दुभूना कटे प्रवह्‌ कल्पान 
रेनप्ठिटि्‌ (4१६११ अनत सातो के कालत कोखन्यामे प्रमाण भी यथाक्रम 
यही होत है, यं दश्र मव है # १७ ॥ वटूडावने तरियूतत ठया वसो खौ बौर 
चौरो यन्य प्रयुव प्रण से टोदे ह 11 १८ ॥ षषटपिगरय--मनु मोर इन्दादि 
देवण यहूक्यलका व्यग्र प्रमाण जन टेन चाहिए 1 १६॥ इद प्रकार 
से उना मन्वन्तर मानुपान्त कहा मथा है । भणकवान्त ओ देवव दै, च्य बोर 
जो देवगण हु भौर नित्य विश्वेदेडा हवे छव गण एक कत्य पर्यन्ठ जीवि 
स्हाक्पतेहे। यह जो कल्म वर दहा है वह वाराटं दय नामसे कदा जाता 
दै! शिवे स्वापम्युदयदि चौदह परह दै + २०-२१ ॥ 


१२२ } { वायुष्‌ 


वस्मष्टासह्वत्पोऽयं नात परिकीर्तितः ? 
कस्माच्च कारणाद्‌ वो वराह्‌ इति कीयते २२ 
कोवा वराहो भगवान्‌ कस्य योनिः किमाप्मकः। 
वराह कथमृत्पद्च एतदिच्छाम वेदितुम्‌ ॥२३ 
वराहस्तु यथोतन्नो यस्मिन्नर्थे च कलितः } 
याराट्श्च यथा कल्प कल्पत्व कल्पना च या ४9 
कृत्पयोरन्तर यच्च तस्य चास्य च कतिपितिर्‌ 
तत्सर्वे सम्प्रवक्ष्यामि ययादृष्ट ययाश्र.तम्‌ १२५ 
भवस्तु प्रथम. कल्पो लोकादौ प्रथितः पुरा) 
ज्ातव्यो भगवानन ह्यानन्द साम्प्रत' स्वयम्‌ 11२६ 
ब्रह्मस्थानेमिद दिव्य प्राप्न वा दिग्यस्रम्भवम्‌ । 
दवितीयध्तु भद कल्पस्ृतीयस्तप उच्यते २७ 
भवश्चनुर्यो विज्ञेय पचमो रम्भ एवच 1 
छतुवत्पस्तया पष्ठ सप्तमस्तु क्नु स्मृत ।२८ 


शिषो ने कहा-य्ह नाम ते वाराह कप वो दृहा गया है गौर 
शिम बारणद्वैव वाराह म नामने पुकारे जाति है) 2२ ॥ भगत्राू वागा 
षन ये ? तरिसम उतपद्न दए मौर वया उनका सवष्प या ? वाराह उलप्च क 
हए, यह मभौ हम जानने कौ इच्दा रखते द ॥ २३॥ श्री यापुदेव नैका 
वेरा जिन तर्ह्‌ से उत्पन्न दृष्‌ मौर जिस मधंमे कल्पित हृ तया जि 
भ्रकारमे यह्‌ वाराहक्ल्प हृमाओीर जो कत्पत्व मोर्‌ वल्यना है ॥२४॥ 
दोक्पोमे जो मन्तर द उमक्ा मौर दयका जो धरिन्त द वह्‌ समीजैषाहम 
नेदेषाहैमौरमुना है कटम 11 २५॥ पिते सोक वै मादि मे धव 
यम कल्य प्रति दूजा वा । यद्‌} मणवान्‌ स्वय साग््रत आनन्द जानते पा 
1 २६५ यह्‌ दिष्य ब्रह्य स्थान रे शयवा दिवय-पप्मय ह! दूषय भुव श्ल 
टै, तीमरा लप बन्दा जाताषरं । २७ ॥ चतुर भवनय जानता वा्हिए 


भोर पचन रम्मजल्व होना ।च्टाचऋनु वपहोगादहै मोर सत्त्व त 
तेषा गै डप क्मा प्रद्रा 3 ॥ उ. 





कन्प-निष्प | { 4२३ 


अष्टमस्तु भवेदल्धिनवमो हज्यवहन । 

साविनो दशम कल्पौ मुवस्त्वेकादश स्मृत र्द 

उशिको ढादशस्व कुशिकस्तु तयोदश । 

चतुद णस्तु गन्घर्यो गान्धर्वो यनव स्वर 1 

उत्पनस्तु यथा नादो गन्धर्वा यत चोत्थिता ॥३० 

ऋषभस्तु तत वत्पो ज्ञेय पचदश द्विजा । 

ऋषयो यत्र सम्भूता स्वरो लोकमनोहर ॥३१ 

चडजस्तु पोडश कत्य पड़ जना यच्च च्पय । 

शिशिरश्च वसन्तश्च निदाघो वपं एव च ॥२२ 

शरद्धेमनन इत्येते मनसा ब्रह्मण सूता । 

उत्ता पडज सिद्धा पृत्ता कल्पे तु पोडशे ।1३३ 

यस्माज्जातेश्च तं पड्मि सद्यो जातो महेन्धर । 

तन्मातु समुत्थित पड्ज स्वरस्तूदधिततिम ॥३४ 

तत्त सप्ठदश कल्पो मार्जालीय इति स्मृत । 

मार्जालीय तु तव्‌ करम यस्मादुत्राह्यमकंत्पयद्‌ ५३५ 

भठवा वहि नाम वातो क्त्प होता मौर नवम क्त्प हृव्य वाहन 
नाम वाला होता है! सावित्र इस नाम वाला दशम क्स्पहौताहि मीर नृव 
दमनाम से पुकरादध कल्प प्रसिद्ध होता है| २६॥ उश्विक्‌ वारह्वां गौर 
कुशिक तेरदरवां कस्य होता दै । चोदहववां क्त्प भग्धवे होता है जहां गा-धवं 
स्वर उत्पन्न हरा जिसके नादसे महां गव उत्पत दृष्‌ ये। इमके पश्चात्‌ 
पन्द्रह क्त्प पम नाम वाला हुमा ! जहां द्विज ऋपिवग उत्पन्न हए मौर 
गोर मनोहर स्वर उत्पन्न हुमा चा ॥ ६०-३१ । पडज सालहर्वां कल्य ह जर्हा 
खै जन चऋछपि ह । पिणिर यौर वसन्त, निदाघ ्रौर वर्षा, णरद मौर हुमन्त 
य ब्रह्माजौ के मानष वृत्र उतन्न हए गौर लवे कल्य मँ पट्‌ज से सिद्ध 
हए भे ॥ ३२.११ ॥ जिचसे उत्थन्न उन दे तुरन्त दी महेश्वर उत्पन्न हृष्‌ 
उपरे उदधि फ तुर्य पदन स्वर ठठ खडा हज ।1 ३४ ॥१ दके प्चाद्‌ सत्रहवं 


कल्प मार्जालीव इपर नामस क्हामयादहै1 मार्जालीय वहं कमं है िषसे ब्राह्म 
कौ बल्मनादी गदर ॥ २५॥ 


१२४ [ वपु पृण 


ततस्तु मध्यमो नाम कल्पोऽ्टारश उच्यते 1 
यर्सिमस्तु मध्यमो नाम स्वरो धैवतपुजितः। 
उत्पन्नः सर्वभूतेषु मध्यमो वं स्वयमुवः ॥३६ 
ततस्त्वेकोनविशम्तु कल्पो वैराजकः स्मृतः । 
वैराजो यत्र भगकवाद्‌ मतुरवे ब्रह्मणः सुतः ॥३७ 
तस्य पुरस्तु धममारमा दधोचिर्नाम धार्मिकः \ 
प्रजापतिर्मेहातेजा वभूव त्रिदशेश्वरः ॥२न 
अकामयत गायत्री यजमान प्रजापतिम्‌ । 
तस्माज्जज्ञे स्वरः स्निग्धः पुत्रस्तस्य दधीचिनः 11६ 
तततो विशतिम- कस्पो निषादः परिकीत्तितः। 
रजापतिन्तु त दष्टा स्वयम्भूप्रमव तदा ॥ 

विरराम प्रजाः सनष्टु' निषादस्तु तपोऽनपद्‌ 1४० 
दिव्यं वपंसहखन्तु निराहारो जितेन्द्रियः 1 
तमुवाच महातेजा ब्रह्मा लोप पितामहः 1४१ 
उद्धवाहु तपौग्लान दुं पित क्षुत्पिपासितम्‌ । 
निपौदेतयव्रवीदेन पुर शान्त पितामहः । 
तस्मरात्निपाद सम्भूत स्वरस्य स निपादवार्‌ 1४२ 


द्मे पश्चान मध्यम इसं नाम वाला अटारहव कर्प ब्रा जता द! 
जिने धैथव पूजित मध्यभ इस नाम वाला स्वर उत्पन्न टज । समस्त प्राणो 
म मध्यम स्वयम्नुव टै ३६) इमे अनन्तर उतीसवां वत्य वैराजकश्हा 
मया षै । जदौ भगवानु वैराज श्रह्ण के पुत्र मनु एह ॥ ३७ ॥ उन पृ 
महमा देधोचि परम चाभि टृए । त्रिददचरवर महानु तेज वाते प्रजापति हूए 
चे॥ ६८॥ गायत्रो ने दञमान प्रगापति ष्टो कामनाक घी । उकत्तेउन 
दषोलि षा पूत तिनि स्वर उर हमा ॥ ३६ ॥ दद्ध अनन्तर दीवा क 
निषाद श्न माम चे पहिरो्तिति हुमा टै 1 उत छमप अरजपततिते पवय? 
सतप देनदर प्रमा दे मृगेन पे के गे विरात सिया वा 1 एड 
नेत्र्‌ निपाद ने ठण्वया याण्म्म दृद ॥ ४० ॥ तिषादने एष ष 


क्प निरूपण ] [ २२५ 


टिपर वपो ठक निराहार शौर निकिम्दियद्ोकर ठपण्वर्याकी पी, तेत्र नोकके 
पितामह महा तेज वाते ब्रह्माजी ने उससे कहा ॥८१॥ यहे निषाद उत समय 
मे उध्वं वाहुभो वालला-वप स अत्यन्त स्वान~प्ररम दु दितं गौर मूष-ग्याघ से 
गृक्त हाकररतपकररदाथा। तव पिताप्रहने इम छान्त अपने पुष से कडा-- 
'निर्घौद" अर्थात्‌ वंठ जञा। इसि निपाद वाना वह्‌ निपा स्वर्‌ उच्मन्न 
हभ चा (५२॥ 

एकविशतिम कल्पो विज्ञेय पनच्चमो द्विजाः । 

प्राणोऽपान समानश्च उदानो व्यान एव च 1४३ 

बरह्मणो मानमा पुत्रा पचवते व्रहयाग समा। 

तेम्घ्वर्यवादिभियुक्त वाग्मिरिषटो महेश्वर ५४ 

यस्मात्परिगरततर्गीतः पन्चरमिन्तंमदाप्पभि. । 

स्वरस्तु प-वम स्निग्ध तम्मात्कन्यस्ु पचम. 1६१६ 

दरविशस्तु तथा कल्पौ विजेयो मेषव्राहनः । 

यत्र विष्णुरमहा उहुमेचा भूत्वा महेश्वरम्‌ 1 

दिव्य वपमदखषन्तु अव्रह्र्‌ दृत्तिवासनम्‌ 1४६ 

तस्य ति खछसमानस्य भारान्लन्तस्य वं मुखात्‌ । 

निर्जगाम महाकाय कालो लोकप्रपाशन 1 

यम्त्वय पश्यते विग्रं त्िष्णुर्के कश्यपात्मज 11४७ 

तयोविशतिम केत्पो विज्ञे यरिचन्तकस्तथा । 

प्रजापतितुत श्रोमाचु चित्तिश्च मिथुनच्च तौ 11४ 

ध्यायतो ब्रह्मणश्च व यस्माच्चिन्ता स्रमत्यिता 1 

तस्मात्तु चिन्तक सो वं कल्प. प्रोक्त स्वगरम्मुवा 1195 

ह द्विजगर्णो 1 इककीसवां कत्य प्म जानना चाहिए । प्राण-अपान- 
उडान-समान भौर व्यान वे ब्रह्माजी के मानम रच पूवर गोक्रिब्रह्याकेटी 
छस्य थे उदन्त हए 1 उनङक द्वाय युक्त ययंबादियो ने वाणियोके दवारा महैश्वर 
को उपाहना क यौ 11४३1 ४४।। जितत कारण से महानु आत्मा वाले उन परि- 
ग पांच गीर्तोसे मध्ये मये पन्च्मस्वर वहरतदौच्निम्ब हृद्‌ इमी करणस 


२२६ 1 [ कादुुरण 


पञ्चम कत्य हा ॥(४५॥ बाईसवां कल्प तो मेधवाहन इस साम॒ वाला जानना 
चाहिए, जहा पर महाबहुः विष्णु भगवान्‌ ने मेध होकर इत्ति वस्त्र षान मदे 
श्वर को एक सहस दिव्य वधं पर्य^्ठ वहन क्रिया था ॥*४६॥ भार घे गकर 
निण्वाम तेति दए उत्क मुख से महार काया वाला लोक को प्रकाश दने वाली 
काल निक्लाधाजो कियह्‌ दिषु ब्राह्मणो के दारा कश्यप कपूर पृदा जाना 
दै \1४७॥ तेईतवां कल्प चिन्तक जानना चाहिए । प्रजापति का पुत्र श्रीमा 
भिति नौरवे दोनो क) जाड है । ४८॥ ब्रह्म का ध्यान करते हए ही विन्त 
सपलप्र हो गर्यो, यही कारण दै जिसे स्वयम्भू के दवारा वह विन्द र 
महा गया ।४६॥ 

चनुरधिशतिमश्चापि हयावूति कल्प उच्यते । 

आदृतिश्च तथा देवी मियुन सम्बभूव ह्‌ ॥५० 

प्रजा ष्टु तथाकूति यस्मादाह्‌ प्रजापति । 

तस्मात स पृद्योज्ञ य आकूति कल्पसक्ञिन ॥५1 

पचविशतिम कल्पो विन्नाति परिकीतितं । 

विजातिर्च तया देवी मिथुन सम्प्रसूयते ॥*२ 

घ्यायत पुत्रकामस्य मनस्यध्यातमसश्ञितम्‌ । 

विज्ञात वै समासेन विज्ञातिस्तु तत स्मृत ॥१२ 

पट विरस्तु तत कल्पौ मनं इत्यभिधीयते । 

दवी व शाद्भरौ नाम मिथुन सम्प्रसूयते ४४ 

प्रजा वै चिन्तमानस्य खष्टुकामस्य वै तदा । 

यम्माव्‌ प्रजासम्मवनादु्वनस्तु स्वयम्युवा । 

तस्मान्‌ प्रजासम्मवनाद्वावनासम्मव स्मृत (५५ 

सप्तविशतिप यतमो भावा ये वत्पक्षजित । 

पौणंमासौ तथा देवौ मिथुन समपद्यत ॥५६ 

चोदरं वत्य भाद्ति प्रम कहा नानाह! श्रुति मोरे 


दोनो का मिथुन टमा चा ।1५०॥ वयोदि प्रमपति नं भदरुिसेप्रजावे भूर 
शमे तियदहाया, दमीस वहे पृन्प आति बहा गया मौर उपे न) 


£ वेन्प-निष्पण | { २९७ 


हसे कर जानना चाहिए १५२१ पच्चीम् क्ल्य विज्नाति नामत कदा गफहै) 
"“ भ्रि्ातति मोर देदी का मिथुन सम्भूत होता है 1५२) मनरमे अघ्यासपना 
वं्िकाध्यान क्रते ह्‌ पूर कौ कामनाके होने ते मकरेप जाना गेया अतएव 
व््ञात होने चे दद्‌ वि्नाति कटः गया ह 114३0 दब्दीवां क्त्य मन दसनाम 
भका जातः है कोर शणद्री देवौ चे यह मिथुन सम्बगूत क्रिया जता है 1५४५ 
" उपक्चमयमनाकी चिन्ताक्से हए प्रजाङी प्रूटि कौ कामना वालेकेश्रजाके 
सम्मवन होने स्व्यम्धरू के द्वारा उत्पत इमल्यि प्रजा के प्तम्मवन से भावना 
४ सम्मवक्डागया है ५५५) सत्ताङसवा क्ल्यकानाम भावक्ल्प्हूप्राहै त्रया 
पौ्मापी देवी से यह्‌ मिथुन वतनन टमा १५९) 
प्रजा व चरट्.कामस्थ ब्रह्मणः परमेन 1 
ध्यायतस्तु पर व्यान पररत्मानमोश्वरम्‌ ॥॥५७ 
सगिनस्नु मण्डलौभूलवा रश्मिजालममादृतः । 
भवन्दिव्च विष्टम्प दीप्यते म महावपु 1४ 
ततो वयंस्दल्रन्ते सम्ूर्णे ज्योतिमण्ड्ले । 
बाविष्टपा सटोत्पन्नमपश्यन्‌ सूरयमगडलम्‌ ॥॥५द 
यस्माददश्यो भृत्ताना ब्रह्मणा परमेष्ठिना । 
दृटम्तु भगवान्‌ देव सूयं सम्मूर्णमण्डरः 1६० 
स्वे योगाएव मन्त्राश्च मण्डलेन प्रहोत्यिनाः 1 
यस्मान्‌ कर्मो ह्यय इष्टम्तस्मात्त दर्शमुच्यते ॥६१ 
यस्मान्मनति सम्यर्णो ब्रह्न परमेष्ठिन 1 
पुरा वै भरसवानु सोप. पौर्णमासी ततः स्मृता ।*६२्‌ 
तत्मात्‌ पर्वदर्शे वै पौयमा योगिनि 1 
उनयो पक्षयोर्जये्टमारमनो हित ्ाम्ययः ॥1६३ 
प्रजाके सूञन कौ कामना रखने वाते परम्र ब्रह्मा दाय परमासा ईश्वर 
काध्यान क्रते हूए रश्मि जाल से समृत मभ्नि मण्डलीनूत हौक्रबु भीर 
दिव दोनो कौ विष्टन्य करके महद्‌ दधु काचा वह दीप्यमान हौता है ॥1५७-बस् 
ब्ङ्े पश्चान एक सहस्र कथं ठे अन्तमं न्दु ज्योखि मण्डकये सादि दोन 


२२५ 1 [ वायुुराण 


वालीके साय उप्प्रहोने वसति भूयं मण्डलको देवा ॥५६॥ परमेग्रीव्रह्या३ 
द्वारा अहश्य वह फिर भतोको भगवानु सम्पूणं मण्डल याते मू्देव ह ट 
अर्थात्‌ पूर्णं रूप ते दिखाई देने लगे ॥६०॥। समस्तं योग भौर मन्त उम मष्ट 
केप्ताधही उच्ितहो गये ये । क्योकि यह वल्म देखा गाह, इसौते दम 
नाम दक्शमू-यह्‌ कदा जाता है \\६१।॥ वयोकि पटिते परमेष्री ब्रह्यके मन: 
भगवान्‌ सोम ये, इङ पश्चात्‌ रौणंमाती कटी गरं है ॥६२॥ शते पदं मर 
योमियोके द्वारा अपने हितकर कामना से दोनो पक्लोमे पौर्णमास ज्यष्हेता 
ह ॥६३॥ 

दशेन्च पौणणंमामच ये यजन्ति द्विजातयः। 

न तेषा पुनरावृत्तत्रंह्यलोकात्‌ कदाचन ॥६४ 

योऽना हितान्न. प्रयतो वीराध्वरान गतोपि वा । 

समाधाय मनस्तीब्र' मन्तरमुच्चारयेच्छने ॥६५ 

त्वमग्ने द्रो असुरो मही दिवस्त्व शर्वो मारत पृष्ट ईशिपे । 

त्व पाशगन्धरवशिष पूषा विधत्तपासिना । 

इत्येव मन्त्र मनसा सम्यगुच्चा रयेदुद्धिज. 1 

रिति प्रविशते यस्तु लोक स गच्छति ॥६६ 

सोमश्चाग्निस्तु भगवान्‌ कालो श्र इति भर. त्िः। 

तस्माद्य प्रविशेदग्ति स रुद्रान्न निवर्तते ॥६५ 

अष्टा विशतिमः कल्यौ बृहदित्वमिसन्ञित 1 

ब्रह्मणः पृनकामस्य सष्टुकामस्य व प्रजाः! 

ध्यायमानस्य मनस्ना बृहत्साम रथन्नरम्‌ 1६८ 

यस्मात्तव समुत्पन्नो बृहतः सरवेतोमुखः । 

तस्मात्तु वृतः कल्पो विज्ञ यस्तत्त्वचिन्तफैः ॥६य 

जअष्टाशीतिषदस्राणा योजनाना प्रमाणतः । 

रथन्तरन्तु विज्ञय परम सूय्यं मण्डलम्‌ 1 

तस्मादण्डन्तु विज्ञेयमभेयं सूर्यमण्डलम्‌ ॥७० 

यत्म््यंमण्डलशचापि बृहत्साम तु भिद्यते । 


षल्प निरूपण ] { २२६९ 


भित्वा चने द्िजायान्ति योगात्मानो दृटव्रताः 
सद्लातमुपनीतार्च अन्ये कल्पा रथन्तरे 1७१ 
इत्येतत्त्‌ मया प्रोक्तं चिच्रमघ्यषत्मदर्णनम्‌ 1 

संतः पर प्रवक्ष्यामि कल्पाना विस्तर दरुमम 11७२ 


जो द्विजाति गण दर्शं लौर पौर्णमास्त का यजन व्यि करते है, उभकौ 
फिर ब्रह्मलोक से पुनरादृत्ति कदाचन ही होती है ।\६8॥ जो व्याहित भन्न 
कासनी वह वीराध्वाक्यो गण हुमा भौ मन कनो समानि करके शनैः मन्व 
का उच्चारण कर्ते ॥16५,। यन्त्र यह्‌ दहै-दे नग्ने} बापस्द्र ह, सुर, 
महीर, दिव है, णवं मौर मास्त 1 अप धृद्धे हए है, समर्थं है, बाप पाश 
गव्ये शिन ई नौर विधत्त पागौ के द्वारा पूपा है-- हम इतने मन्त्र कोमनसे 
द्विन भर्ली-मांति घोरे से उच्चारण करे) जो ममनि फो अर्चना करता वहेष्द्र 
कै लोक को चला जाता है ॥६४।६६॥ सौम घौर अग्नि मग्वानु कालस्द्रह, 
यह शरूति ह । धसलिये जो अन्न अचना कर्ताहं वस्र से निवर्तमान नहीं 
दो हे १६५॥। यद्ाई्यवं क्त्प 'ृदेदु-इस सज्ञा वाता होता टै) पृत्रकी 
शुच्छा वाते मौर प्रजा कौ सूजन-कामना वातेब्रह्माकेमनमे ध्यनकरते दए 
कृहचेमाम रथन्तर हमा ॥ ८॥ वयोर दहा सर्व॑तोमुख वहतु उत्पन्न टमा चा, 

. .इरीलियि त्वो के चिन्तक्ोके द्वारा यह वृत. कल्प जानने के योग्य हज है 1 
॥६६१) मटूढासौ हजार पोजनो के प्रमाण से परम रथन्तर मूर्य-मण्डले जानना 
चादिए । इखलिये यह्‌ अण्ड न भेदन करने के योग्य मूं मण्डन जानना चाहिए । 
11७०४ जौ वृहत साम सूरयेमण्डल मो निद्यमन होता है १ टदे ब्रत्र वाते योगात्मा 
द्विज सका भेदन करके जाया करते है 1 सद्धात को उपनीत्त अन्य वल्प- रथ~ 
न्तरमेंहोतेर्दै। मैने यह्‌ अध्यास दशन चित्र॒ ग्तला दियादहै। इषे नगे 
क्त्पो का शुम विस्तार वकाऊगा ॥1७१।७२ा 
1 कल्प-संह्पानिरूपण ॥ 

अत्यदुभृतमिदं सर्वं कलत्यानान्ते महामुने 1 

रहस्य वं समाघ्यात मन्व्राणाच्च भ्रकल्पनमर्‌ ।४१्‌ 

नं तवाविदित किलिचत्‌ तिषु लोकेषु विद्यते 


४ [ वपुर 


तस्माद्विस्तरत. सर्वा कत्पसष्या त्रवीहिं न. ॥२ 

अत्र वः कथयिष्यामि कत्पसघ्या यथा तथा । 

युगाग्र च वर्पाप्रनतु ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ॥३ 

एक कल्पसहखन्तु ब्रह्मणोऽन्द. धरकीत्तितः । 

एतदष्ट्टसरन्तु ब्रह्मणस्तयुगं स्मृतम्‌ ॥५४ 

एकं युगसहख^तु सवन तत्‌ प्रजापते. । 

सवनाना सहृखन्तु द्विगुण त्रिव्रेत तथा ५ 

ब्रह्मण. स्वितिकालस्य चैतत्‌ स्वं प्ररोर्तित्तम्‌ । 

तस्य सत्या प्रवद्यामि पुरस्ताद यथाक्रमम्‌ ॥६ 

अष्टाविशपिर्ये कल्पा नामतः परिकोतिता । 

तेपा पुरस्ताद्रक्ष्यामि कल्पसज्ञा यथाक्रमम्‌ ॥७ 

ऋषियो ने कहा--हे महामुने 1 भाने यह मध्यन्त हो बदुमुत कलौ 
का समपर्णं रहस्य भोर मन्यो का प्रक्ल्यन वताया ह ॥ १५ ठीनो लोको मेदसी 
च भी वतु नहो हं जो अपकरो अविदित हो अर्थात्‌ जिचे भापनहीं जानते 
हो-रालयं यही हं कि माप सभी कु जानते ह । इसक्तिये माप हमारे सामने 
समस्त वत्पो क्र सद्या विस्तारपूर्वक वर्णन दीजिए ॥२॥ वायुदेव ने क्हा-- 
यही र भापके आगे याच्य वत्पो की द्या-युय का मप्रनाग भोर परी 
्रह्याजी के वर्पोके अग्रभाग को बतलाता हं ।॥३॥ एक सहल कत्पौ का प्रहा 
का एक वपं होता ह । इनका आठ सहत ब्रह्मा का युग कहा ग्या हँ ॥४ा ए 
युग रदटृखर प्रजापति का सवन होता हुं । इष तरह सवनो का सदस तया द्विमु 
एव विवृत यह्‌ सव व्रह्मा कौ स्थिति का काल बताया गया ह । उ्तकी सस्या 
यथाक्रम पिते वत।ऊॐगा ॥५।६॥ क्त्यों को बट्‌ढाद्स सख्या नाम ते वता 
दी गहूं । उनकी पहने कल्प सज्ञा को यथाक्रम कहुगा ॥७॥। 

रथन्तरस्य साम्नस्तु उपरिष्टान्निवोधत । 

कल्पान्ते नयम धेयानि मन्प्रोत्पत्तिर्च यस्य या 15 

एवो्न{विशक कल्पो विज्ञेय. श्वेतलोहितः । 

यरिमम्तत्‌ परमध्यान ध्यायतो ब्रह्मणस्तथा ॥ट 


केत्प-सच्यानिन्पण ] [ २३१ 


वेतोप्णीप श्वेतमाल्यः ष्वेताम्बरधरः क्षिखी । 

उत्पन्नस्तु महातेजाः कुमारः पावक्रोप्म 1१० 

भोम सुख महारोद्र सुघोरं श्वेवलोटित्तम्‌ 1 

दीक्च दोप्रेन वपुषा मास्य ग्वेतवच्चम्‌ १९१ 

ते षट पुष क्षमान्‌ व्रह्या वं विश्वतामूख- । 

कुमार दोकधातारं विश्वर्प महेश्वरप्र १२ 

पुरोणपुरुप देव विश्वात्मा योगिना चिरम्‌ 1 

ववन्दे देवदेवे ब्रह्मा लोकपितामह ॥९३ 

हदि कृत्वा महादेवे परमात्मानमीभ्वरम्‌ 1 

सदयीजात ततो ब्रह्य ब्रहम वै समचिन्तयत्‌ 1 

ज्ञात्वा मुमोच देवेशो हट दात्त जगत्पतिः 14४ 

रथन्तर कासामका उपर से षमन्च लो, जिषक्ी जो मन्-ोतत्ति हमीर 
खो नामयेष हैं ८) उप्नीमत्रं कल्य श्वेत लोहति जानना चादि जिस्म 
ध्यान करने वालि ब्रह्माजी का परम ध्यान हं 1६0 ध्वे उष्णीष ( पगढी } 
वाला-प्रेते माला धारण करने वला-श्वेत वस्त्र घारी-महाव तेज से युक्त 
पक्के कै समान दीप्ति बाला जिषी कुमार उत्पन हज ॥१०॥ जिसका मृष 
भीम~महानु रौद्र-सुषोर मोर श्वेत लोष्ित हं । दीष यपुसे दोप्यमान~महा्‌ 
मुख वाले भौर वेत वचं ख उसको देखकर विश्वतोमुख श्रीमान बृख्य ब्रद्यानौ ने 
लोकों के चाता-विश्वरूप-महेश्वर--कुमार बौर पुराण पुस्ष देवदेवं कौ 
बिष्वार्मा लोक पितामह की वन्दनाकी ५ १११२१३५५ परमात्मा 
श्वर महदिव को हू्यने स्थित करके ब्रह्य तुरन्त उत्पन हभ इं देखा ब्रह्माजी 
नै चिन्तन किया यौरक्ञान प्रात करके परम भ्रयन्न देदेय जयत्पतिने द्षस्य 
क्रिपा ॥ १४॥ 

ततोऽस्य पाश्च तः खं ता पयो ब्रह्यवर्च्वस 1 

प्रादभ ता महात्मानः ण्वेतमाल्यानुलेपना- 114१ 

सदन्दो नन्दकेश्चं व विदवनन्दोऽय नन्दनः 1 

शिष्यास्ते व महात्मानो यस्तु ब्रह्य ततो दूतम्‌ 1१६ 


धि { वाग एप 
तस्याग्रे श्वेत वर्णाम उवेतनामा महामुनि । 
विजज्ञेऽथ पहातिजा यस्माज्जज्ञे नेरस्त्वसौ 11१७ 


तत्र तै ऋषय सर्वँ सयाजात महेश्वरम्‌ । 
तस्माद्िस्वेर्वर देव ये प्रपश्यन्ति वे द्विजा । 
श्राणायामपरा यक्ता ब्रह्मणि -यवसायिन ॥१८ 


ते सवे पापिनिम्पक्ता विमला ब्रह्मव्ंस 1 
ब्रह्मलोकमतिकरम् ब्रह्मलोक व्रजन्ति च ॥प्यै 
तर्ताह्नशत्तम कत्पो रक्तो नाम प्र रीतित्त । 
रको यत्र महातेजा रक्तवर्णं मघारयत्‌ ॥२० 


ध्यायत पुत्रकामस्य ब्रह्मण परमेष्ठिन 1 
प्रा्रुमूतो महातेजा कुमारो रक्तविग्रह्‌ । 
रक्तमाल्याम्बर धरो रक्तनेन प्रतापवान 1२१ 


सके मन्तिर इतरे पाश्व में ब्रह्यवच्त श्वेत ऋषिग्ण प्रत हए 
भो महावर भात्मा वाल भौर शवेतमाल्य तथा अनुतेपन बाले ये ॥ १५॥। सुने 
नन्दक, विष्वनन्द भौर न दने ये महान्‌ मात्मा वक्ते लिष्यये भिनति वह्‌ श्रा 
आदर था ॥ १६॥ उसे बागे श्वेनवण षौ मामा वाले श्वेत नाप याति 
महामुनि उ ग्न हए जिससं महान्‌ तेज वाला यह्‌ नर उत्पन्न हुमा यो ॥ १४॥ 
वहां वे सश ऋपिपण सथ उदप्च हुए्‌ विश्वेण्वर महैश्वर देव गो देखते द भौर 
जो ब्राह्मणं उदव दशन करते है वे प्राणायाम मे परायग तया ग्रह्यमे ध्यक्ताय 
तेयुक्तये। १८॥ वेसो निमुक्त हए दिना मल वतर ब्रहषवत 
श्रह्मरोक का अतिक्मण वरदे ब्रहमरोश्कवो षत जति ह ॥ १६ 0 शरे पत्‌ 
शी षापुन्वने कृटा--मङे घन तर तीएदा ओ दत्परथा वह्‌ रक्त-ष्य नाम ते 
कामया! जहे मदर्‌ वे गे युक्त रक्त था उतने र्थन को चरण हिया 
या॥२०॥ पुज ही षामा वात परमेन दह्याढे ध्या करते हण महान्‌ तेव 
वाला रक्त दिद्रहते युत्त कुमार उदाद्र हुत्राथा मो रक्तमास्य भरर ष्व 
ष पारलङ्ष्ने वादा सनन्तो वाता तया यहाप वापाचा ॥९१॥ 


मन्वन्तरादि वर्णन |] { २३३ 


सततं दृष्टा महादेवं कुमारं रक्तवासखम्‌ 1 

ध्यानयोगं परद्वत्वा बुधे विश्वमीश्वरम्‌ ॥२२ 

सतं प्रणम्य भगवानु ब्रह्मा परमयन्तितः । 

वामदेव ठतो ब्रह्य ब्रह्यात्मक व्यचिन्तयन्‌ २३ 

एवं च्यातो महादेवो ब्रह्मणा परमेष्ठिना 1 

मनसा प्रीतियुक्तेन पितामहमथाब्रवीत्‌ ॥२४ 

ध्यायता पुत्रकामेन यस्मात्तेह्‌' पितामहः 1 

हट: प्रमया भक्त्या ध्यानयोगेन सत्तम २५ 

तस्मादचानं पर प्राप्य कत्पे कत्पे महातपाः । 

वेत्स्यसे मा महासत्व लोकघातारमौश्वरम्‌ 1 

एवमुक्त्वा ततत. शर्वः अदास मुमोच ह ॥२६ 

“ * तवक्स्य महात्मान्चत्वारश् कुमारकाः 1 

सम्बग्रव.मे मह्यतमानो विरेजुः शुदधनरुदयः 1२७ 

विरजश्च चिबाहृश्च विशोको विश्वभावनः । 

ब्रह्मण्या ब्रह्मणस्तूत्या वोरा अध्यवसायिन्‌: (२८ 

उक्त रक्त-वस्त्र धारी महादेव कुमार को उषने देखकर मौर पर ध्यान- 
योग मे स्थित होकर विश्व-ख्य ईश्वरका जनान प्राप्त किया ॥२२॥ भगवान 
परम यन्त ब्रह्माजी ने उमङो प्रणाम करके फिर ब्रह्मा जीने ्रह्माल्मक्‌ वाम 
देव का वि्तेपरूप से चिन्तन किया ॥1 २३ ॥ द्रव प्रकछरये प्ररयेष्ठी च्रह्माके 
द्वारा ध्यान त्यि हए महादेव प्रोत्ि ते युक्तं मनसे पिताम्रहसे कहा ॥ ३11 
है सत्तम } पूते को कामना रखने दाक्ते मौर ध्यान करने वाले तुमने पितामह 
मुभैः परम भक्तिसे तया ध्यानकेयोगति देवाथा 1) २५॥ इमलिये परम 
ध्यान भ्रात करके महान्‌ तप वाने कल्प-क्त्यमे दै महाषत्य ! लोको कै धाता 
रर भु्को भली माति जान लोभे । इम प्रकार मेक्ह्‌ कर्‌ पश्चातु शवंने 
षदाछटुटरटास क्रिया या ॥ २६॥ इमके पश्चात्‌ उसके मदाचु भात्मा याते 
शार कृपार उत्पन्न दद्‌ चे खीर शुद्ध बुद्धि वाले महास्मा विदौपष््य दे दीसिमानं 


टये 1 २७॥ वे रदिरज, विवाद, विशोक ओर दिश्वमारव ये तथा ब्र्य्य, 
दोर, मध्यवक्ादी गौरद्रह्यरे टीदुल्यये ४२८२ 


२३४ 1 [ वायु पु 


रक्ताम्बरधराः सवे रक्तमाल्यानुतेपनाः 1 

रक्तभस्मानुटिष्ठाद्ध रक्तास्या रक्तलोचना ॥२यं 

ततो वपेसहस्रान्ते ब्रह्मण्या व्यवप्तायिनेः । 

गृणन्तश्च माहात्मानो ब्रह्म तद्टामदैवकम्‌ 11३० 

अनुग्रहार्थं लोकाना शिप्याणा हितकाम्यया । 

धर्मोप्दिशमयिल कृत्वा ते ब्राह्मणा स्वयम्‌ । 

पुनरेव महादेव प्रविष्टा शद्रमव्ययम्‌ ।1३१९ 

येऽपिचन्ये द्विजा यु जाना वाममीश्वरथ्‌ 1 

प्रपद्यन्ति महादे तदुमक्तास्नत्परायणा ॥३२ 

ते स्वे पापनिमुंक्ता विमला ब्रहमचंस 1 

रुद्रलोक गमिष्यन्ति पुनराबृ्तिडुलंभम्‌ (३३ 

सव रतत -वस्पो के धारणं करने वाले मौर रक्त मात्य तथा भनुतेएन } 
पुवनये। वे रक्त भभ्मसे मनृलिप भङ्गो वाते, रक्त मुख से युक्त तयार 
नैतो वाति ये ॥ २६ ॥ इक पश्चात्‌ एक सहस ॒वपो के बन्त मे वे ग्रहण 
महात्मा भौर व्यवसायी उस वामदेव व्रह्म को ग्रहण करने वातेये ॥ ३०। 
सौको के ऊपर अनुग्रह करने के तिये मौर शिष्यो के दित की कामना से सम 
धरम षा उपदे करके दे ब्रह्य स्वय पुन भग्यय ददर स्वस्य महदेव पर प्रवि 
हो गये ॥ ३१॥ बौरजोभी अन्य श्रषरद्विज याम रके पुमान हेतेद 
उने परण भक्त एव उन ही पे प्रायण रहने वाचे य वे महदेव फो प्रा श 
५ ३२।१वे सभी पारे चे द्ुटक्ाख रानि वाते होकर विप्र र्था पव ठ 
रहिन विशुद्ध होने वाते प्रहवध द्दरे लोक को नाति ट जहां चे फिर इष पशा 
मे यावृत दुरनंम हा करती द ॥ ३३॥ 

१ माहेहवरावतार-योगर ॥ 

एवत्रिशत्तम कत्प पौतयाप्ना इति स्मृतः । 

ब्रह्मा यर मह्‌तिजा पीववर्णस्वमागत ॥¶ 

ध्यायतः पुत्रकामस्य ग्रहयाण, प्ररमेष्ठिन 1 

परादुमूतो महातेजाः गुमारः पौत्रान्‌ ॥२ 


मदश्परावठार योय ] { २३१ 


पोतगन्वानुनिप्नाङ्ग. पोतमाल्यद्ररो युवा 1 

पीतयज्ोपवौतश्च पीतोप्मीचौ महामृजः 11३ 

ततं दृष्टा ध्यानसयुक्त ब्रह्मा लोकेश्वर श्रभुम्‌ 

मनसा लोकवातार ववन्दे परमेश्वरम्‌ ॥ 

ततो घ्यानगत्तस्तच ब्रह्मा मादेश्वरो पराम्‌ । 

जपदयद्गा विरूपा च महेश्वरमुच्युनाम्‌ ॥१५ 

चतुष्पदा चतुर्गक्रा चतुदहस्ना चतुःस्तनीम्‌ 1 

चतुन्नेतरां चतुःप द्धी चतुदरष्ट्रा चतुमुंखीम्‌ 1 

द्वात्रिशरलोकसृनतामीष्वरी सर्गतोमूखीम्‌ ॥६ 

सत्ता दृष्टा महातेजाः महादेवी मदैश्वरीम्‌ । 

पूनराह्‌ महदिवः सव्देवनमच्छरत. 113 

श्री वामदेवनेक्टा इक्तोसां कल्प पीतवासा हम नामने कहा 
गया है जहाँ ्डानु तेज वाला ब्रह्या पीत वर्णताक्ौ प्रत्तहो गयाहै॥ 1 
पत्र केषाने कौ कामनासे युक्त ध्यान करते वाले परमे ब्रह्या कै पीतत-वस्व 
वाला तया महान्‌ तेज से युक्त वार प्रा्मूद हना या॥२ध बहे कुमार 
पौत्त येन्व से यनुिप्ते यद्ध वाला था घौर वहे युर पीत-माल्य ङे धारण करने 
यकलाथा। वेद्‌ महानु सुजानौ वाल्ला पीतवर्णे काही यज्ञोपवीत धारण करने 
वाला या भौर पीत्त टी मस्तक उष्ौप घ्या लिरोवस्तर पिनि हए या ॥इ३॥ 
बरह्यानेध्यानर्मे संयक्त उस लोकद प्रमु को देखकर मने नोक धाता पर 
मेश्वर फी वन्दना की ॥ ४ ॥1 इमके अनन्तर वहां पर घ्यानमे स्थित ब्रह्माजी 
ने महेष्वर के मुखच्युत विष्य पर माहेश्वरी यो चो देषा ५ ५॥ वहगौ षार 
पदो वालो, चार मघो वटो चारदहीहायोसे युक्त भोरवचार स्तन षादीथी 
चथा उकके चरनेन चारश्रद्, वार दाद्‌ भौर चार मुय वह्‌ धत्तीम 
लोकसे खयुक्त, सवेतोमुखी अर ईश्वरो थी ॥६॥ वद महानु तेज वाला 


खम महादेवो महेश्वरो कौ देलक्कर मस्त दैवो कै द्वारा नमस्त अर्थाच वन्दि 
महादेव फिर वो्ते ७१) 


भतिः स्मूत्तिचुं ्िरिति गायमानः पुनः पुनः । 
एद्यं दीति मद्‌देवी सो्ति्ठन्‌ प्राच्जनिम घमू ध 


२३६ | [ वादुवृष 


विश्वमावृत्य योगेन जगत्सर्वं वशीकुर 1 

अथ वा महादेवेन श्द्राणी त्व भविष्यसि । 
बराह्मणानां हितार्थाय परमार्थं भविष्यसि वै 
अथेना पुत्रकामस्य ध्यायत परमेष्ठिन 1 

प्रददौ देवदेवेशश्चतुप्पादा महेश्वरीम्‌ । 

ततस्ता ध्यानयोगेन विदित्वा परमेश्वरीम्‌ ।॥१० 
ब्रह्मा लोकेनमस्कायं प्रप्य ता महेश्वरीम्‌ । 
गायत्रीन्तु ततो रौद्री ध्यात्वा ब्रह्या सुयन्वित ॥११ 
इत्येता वैदिकी विदा रौद्री गायत्रीमिताग्‌ । 
जपित्वा तु महादेवी स्द्रलोकनमस्छृताम्‌ 1 
प्रप्रस्तु महादेव ध्यानयुक्तन चेतसा । १२ 
ततस्तस्य महादेवो दिष्य योग पुन. स्मृतः 1 
हैश्वयं जानसर्म्पत्त वैराग्य च ददी पुनः ॥१३ 
अयाटहास मुमुचे भीपण दीप्तमीश्वरः । 

ततोऽस्य सवतो दाप्ना प्रादु ता. कुमारकां ॥१४ 


मति, स्मृति भौर बुद्धि, यद गाते हए मौर वार वार यही गायन करौ 
हए महादेवी याष्ये बाध्ये यह्‌ कहते हृए्‌ वह धत्यन्त प्रा्लि होकर वहा तिषठ 
होगये॥ खु दोग विश्वको गात करव दस समक्त जपतु षौ वध ध 
करो । सयवा यापर महादेव ङे स्ापदद्राणी हौ जाग्नोगी । व्राह्णोके द्वित के 
सिम खपर परमायं हो जाशोगो ।। ६ ॥ दमके बनम्तर सपक ध्यान बरन वति, 
कृच शो दष्टा वति परमो रो देवदेवेय ने वार पादो यापी महैशरे रो 
द द्विया । हमव पश्चान्‌ उशकोष्यानके योग रो परमेश्वरो जनलिषा्थ 
1१० ॥ सोरे द्वारा नमस्वारषरेके योग्य ब्रह्ाजीने उरा मध्र 
र्य मे जकर गदे पयात्‌ शोर गायतो वा प्यानं भर्या भी बु 
णये ॥ ११ ॥८्ग प्रशारसे इय वेदि विचा अदित रौर गाप्वीका 
प ङृररे र सोरदे दवारा नमतत महदेरी मसीत मार्मे ृशन ५ 
पेच षो पिरिध्दान ने वृत्त चित्तने महदेव शो ्द्रहाभेप्राघटोष्ठेे 


मदिष्वराववाद-योगं |] [ २७ 


11 १२ । इमङे गनन्तर महदिव ने पुनः दिव्य योम द्विया यौर देश्ये, लान 
स्न्पो सम्पत्ति तया दास्य प्रदान क्रियाथा ॥ १३॥ के उपरान्त ईवरने 
भीषण एव दीस मटूहाप हिय । इते इषके ठव भोर प्रारमू कुमार दीष 
ह्येयमे ॥१६॥ 

पीतमात्याम्बरधसः पीतगन्धवितेपनाः । 

पौतोप्णीपश्षिरस्क।्च पीताम्याः पीतमूद्धं जाः ॥१५ 

ततो वपेसहुस्नान्ते उपित्वा विमलौजसः 1 

योगात्मानस्ततः स्नाता ब्राह्मणानां दितंपिणः ॥१६ 

धर्मेयोगवलोपेता शपीणा दीर्धसत्रिणामू 1 

उपदिष्येतु ते योग प्रविष्टा स्दरमोश्वरम्‌ ।\१७ 

एममेतेन विधिना प्रपन्ना ये महेश्वरम्‌ । 

अन्येऽपि नियतात्मानो व्यानयुक्ता जितेद्िया. 0१८ 

ते श्व पापमुल्यरज्य विरणा शरद्वतः । 

विशन्ति महादेवं स्टन्ते स्वपुनभंवा ॥१६ 

ततस्तस्मिन्‌ गते कल्पे पोतवर्णे स्वषम्मूवः 1 

पूनरन्यः प्रवृत्तस्तु सितकरपो हि नामतः २० 

एकार्णवे तदा वृत्तं दिव्ये वपंसदेखकङे 1 

स्रष्टुकामः प्रजा ब्रा चिन्तपरामाघ दु चितः ।२१्‌ 

वे सरभो दुमार पीत माल्य त्तथा भम्बर कै धारण क्रे वानेय भौर 
पीतवर्णं को मम्ब के अनुलेपन से युक्त ये ॥ इनके मस्तक भर उष्णोप मर्थानु 
किरवेषटन वेस या वह भी पीत था, पीव मुख से युक्त तथा पीत दही केशोंवान 
ये ॥1 १५॥ दस्ङे बनन्ठर एक ब्रह वपो के भन्तमे निवास करे विमल 
भोज वाते, योगात्मा सौर स्नान कि हृए्‌ तथा गह्यमो के द्वो ॐ चाहने 
वान्नि धमं के छथायोपकेव्लपे र्प्वे खवर दीघं सतक यञजनक्टेवाते 
श्पि्ो को प्रा उपदेश देकर द्ध ईञ्वर योगर मे अविष्टो मये ^ १६-१७६ 
दस प्रकारसेगोदृस विधिष्ते महेश्वर को श्रसघ्च हुए तथा मन्य लोममी ध्यान 
ठि युक्तं नियत मात्मा वति नितिन्व्यिये वे शशी यपने पारो चे द्ुटकर दिर 


२३८ |] [ वाफुनुराय 


मौर ब्रह्यवर्च् वे महादेव द्रम प्रवैग त्रिया कमते ह ओर किर उङ्ाजम्‌ 
नही होता है ॥ १८-१९ ॥ श्री वायुदेव ने कहा--इसके अनन्तर स्वयम्भू की 
पीतवपं बालि कल्प के शमापत हो ननि पर फिर दुसरा कल्य प्रवृत्त हमा भिसका 
नाम प्रित कतय हमा ॥ २० ॥ उम हमव ठ्य एकमात्र समृदरके दिव्य एक 
स्च वपं हो जाने पर प्रजा के सूजन कौ वामना करने वलि ब्रह्मनी ष्म 
दु वित्त रते इए चिन्ता करने लगे ॥ २१॥ 


तस्य चिन्तयमानस्य पूत्रकामस्य वैप्रभो 1 
ङृष्ण समभवद्रणो ध्यायत्त परमेष्ठिन ॥२२ 
अयाप्यन्महतिजा प्रदुभूत कुमारकम्‌ । 
कृष्णवर्णं महावीर्यं दीप्यमान स्वतेजसा ॥२३ 
कृष्णाम्बरवरोप्णीप कृष्णयज्ञोपवी तिनम्‌ । 
कृष्रोन मौलिना युक्त कृष्णसगनुनपनम्‌ ॥२७ 
सते महात्मनममर घोर मन्त्रिणम्‌ । 
ववन्दे देवदेवेश विष्वेश कृष्णपिङ्गलम्‌ ।२५ 
प्राणायामपर श्रौमानर हृदि त्वा महेश्वरम्‌ 1 
मनसा ध्यानसयुक्त प्रपन्नस्तु यतीश्वरम्‌ । 
अघोरेति ततो ब्रह्य ब्रह्य एवानुचिन्तयन ।\२६ 
एवे वं ध्यायतस्तस्य ब्रह्मण परमेष्ठिन । 
मुमोच भगवान्‌ सद्र अद्ृहास महास्वनम्‌ ॥२७ 
अयाम्य पाद्वत कृष्णा दरप्णलगनुलेपना । 
चत्वारस्तु महात्मान सम्बभूवु वुमारका. 11२८ 


दम तर्ट्‌से चिन्ता करन वति पत्रक कामना रुक्त प्रभु परेषा 

भ्यान मे मल ग्हे-रहू ही इष्णवणं हो यदा । २२ ॥ एप मनन्डर्‌ मह 
तेज वातेनेप्रदूरभाि होने वात्न प्यवणे मे युक्त महान्‌ परीय वाने सप्ते तेष 
मे देदीप्यमान दुमारवौदेपा॥ २३ वहेदुमारक्राते वस्व मौर शिवेन 
यानायातवाटृष्ण उपवीत धाए्ण ष्र्‌ रहा षा । उल्का मरत्‌ भीष्ण ध 
स्वत तो मण्मा भौर विनयन से युश्त या ४ ॥ उ महात्‌ नाली 


रे४् ] [ वषु पराप 


छत स्यच यदुत्रह्म अहिमा सन्ततिक्रमा. ॥४७ 

ध्यान ध्यानवपु शान्तिविय्ाऽवियामतिवृं तिः। 

कान्ति शान्ति स्मृतिर्मेधा लज्जा शुद्धि सरस्वती । 

तुष्टि पुष्टि क्रिया चवर लज्जा क्षानि प्रतिष्ठिता ॥१्८ 

पडवित्तद्गुणा ह्यं पा द्वात्रिणाक्षरसन्निता 1 

प्रकत विद्धि ता ब्रह्म स्त्वस्मसूति महेश्वरीम्‌ ॥४९ 

मटेश्वर ने क्हा-यह्‌ समस्त मन्नो का रहस्य है ओर यह्‌ पावनं ठषा 
पृष्टिपे वर्थ वसे वातादै, तुममव मुञ्चसे इत प्रम गोपनीय विषय को 
सुनोजोष्ठिआदि्गमे जंसाया।४२॥। जो यह्‌ कल्प इतत समय वर्तमान 
है वह्‌ विश्वस्प दम नाम वाला बद गया है जिपर्मे भवादि देव छन्दस मनु 
कटे गये ह । ४३॥\ हे विभो। यद ब्रहयघ्यान है जब कि आपने षे प्रा 
त्रिपाद । तवसे री वेङर यह तैरसौ कत्र क्हागयाहै ॥ ४४॥ हे देवेष । 
लापके सम्मल ही जो मंकडो ओर सदृसो स्वयम्भर बीत गये उनकी कथा बतलार्ता 
ह । उम समय तुम्हारा नाम आनन्द था 1 ४५ ॥ तुम्हारा परह्ातय भी मानन 
हीष्टोताहै + मालव्य गोधर तपते तुम मेरे पु्रताबो प्राप्त दए हो ॥ ४६॥ 
तुमये योग, सरष्य, तप विद्या विपि, प्रिया, चत, सत्य जो व्र है षह 
अहिमा, सन्तनि प्रम, प्रतिति ह ।! ४७ ॥ च्यान-घ्यान का वपु, शान्ति, पिच 
धविद्दापति, धृति, कान्ति गान्ति, प्पृति, मेधा, लज्जा, णुद्धि, हरस्वती, ष्ट 
पुष्टि प्रिया, लम्जा बोर क्षान्ति येसद तुममें प्रतिष्टित है॥४5५॥ ये 
द्म गृण पत्तीम भषतो ए सासन युक्त दै । हेप्रहान्‌ । उपप मापी 
प्रगति महेश्वरो प्रहेति गमङ्नना पादि ४६॥ 


गधा भगवनी देवी तद््ूमि. स्वयम्भव 1 

चतम खी जगदोनिः व्रतिगोः प्रक्रीतिता 1 

प्रधान प्रहत चैव यदवटूस्तत्वविम्तका ॥५० 

सजामना लोटिना लुकतदृप्णा विरव सप्रमूजमाना युरूपाम्‌ । 
धरजोध्ट दंवुदिमादविश्वम्पा यायद्घी या विश्वस्पा टि युटा ॥४१ 
एतमुतनया मदाः शदृ्यलगयातर रोत्‌ । 


शर्व॑स्नोत्र ] [ देष 


वतिताम्फोटितरव ऊहाकहुनदन्तया ।१५२ 

ततोऽस्य पाश्वंतो दिव्या. सरवूपाः कुमारकाः । 

जटी मुण्डी णिखण्डो च अद्ध मुण्डश्च जजिरे 11५३ 

ततस्ते तु यथोक्ते न योगेन सुमहौजसः 1 

दिव्य वपंतहसुन्तु उपातित्वा महेश्रम्‌ ॥\*४ 

धर्मोपदेश नियत कृत्वां योगमय हदम्‌ । 

शिष्टाना नियतात्मानः प्रविष्टा रुद्रमएवरम्‌ ॥५५ 

यह्‌ यह भगवती देरी स्वयम्भू की तत्प्रमूति है मौर यह्‌ चतुपूंखी, 
मगद्योति, प्रदति भौर मोक्ही गर्हदहै 1 तत्वोके चिन्तन करने बाले परप 
दसम प्रधान ओर्‌ प्दृति कहते है ॥ ५० ॥ बृद्धिान्‌ ।भे गग हं, यह अजा, 
लोहिता) हृप्ण णुवेनां विष्व का सप्रजन करने वाली सुरूप, विश्वरूप वाती, 
गी भौर गायत्री जानी गई 1 ५१॥ महादेव न दस प्रकार से कहकर अदास 
करिया मौर वलित एव स्फोटितय्व वाला ब्हग्हेकी ध्वनि को ॥ ५२ ॥ दमक 
अनन्तर उपक पाश्व देश मे जटी, मुण्डो शिखण्ड मोर म्ेमु्ड दिव्य सवस्य 
कमार उदटयत्न हए 1 ५३ ॥ इमके पश्चातु महान्‌ योज से युक्त यथोक्त योग के 
द्वारा उन्होने दिव्य एक सहस वर्धं तक महेश्वर कौ उपासना की 11 ५४॥ 
किर योगमय नियत हद पर्मोपिदेश नरके शिष्टो मे निवत्त मास्मा वादि ईष्वर 
षदे प्रविष्ट दो ग्ये॥ ५५॥ 

1 शावे-स्तोत्र 11 

चव्वारि भारते वर्षे युगानि मुनयो विदु । 

कृतो तरता द्वापर च तिष्य चेति चतथु गम्‌ 1१ 

एतत्सहसुपयन्तमटर्यदत्रह्मण. स्मृतम्‌ । 

यामाचास्तु गणाः सप्त रोमवन्तश्चतुदं श ।२ 

सशरी. श्रयन्ते स्म जनलोक सहानुगाः । 

एव देवेष्वतीतेषु महर्लोकाज्जनं तपः 11३ 

मन्वन्तरेवतीतेषु देवा सर्वे महौजस. 1 

ततस्तेषु गतेषढ" मायुज्य कल्पवासिनाम्‌ ५४ 


२४४ ]} { वायु पृर्र 


समेत्य देवैस्ते देवाः प्राप्ते सद्धानने तदा । 
महर्लोक परिःयज्य गणात्ते वं चतह य ॥५ 
भूतादिप्ववशिष्ट पु स्यावरान्तेयु वं तदा । 
शूम्येषु तेषु लोक्रेपु महान्तेषु मुवादिपु 1 
देवेष्वथ गतेपुद्ध 2 ल्पवास्तिपु वं जनम्‌ ॥६ 
तत्सदुत्या तत्त ब्रह्मा देवपिगणदनिवान । 
सस्यापयति वं सर्वान्‌ दाहवृष्टया युगक्षये ॥७ 


धरी वापुदेव ने कहा--मुनिगण मारतवपं मे चाद युग कहते है, इः 
धता, हप्र मौरतिष्य ये चारयुगह॥ १॥ इन युगो काणक सहप्ज 
तक हो है तब ब्रह्मा का एकःदिन होता है। यामादि सात गण मौर गे 
वलति चौदह शरीर एव अनुगो के साप जनलोकं का सेवने करते थे । इम प्रका 
सषि देवोके तोत हो जानि पर महर्लोक से जन भौर फिर तपलोकं काते 
करते ई 1 २-३॥ मन्वन्तरो कै व्यतीत हो जान प्रर महान्‌ भोजते पुक्‌ 
समस्त देव होने ह । इसके प्चात्‌ कत्पवासियो मे उनके उध्वं सायुग्य शौ 
्राप्तहो जाने षरवे देवदेवो के एकत्रित होकर उस समयं सद्भासन पराप 
हने पर वे चौदहुयण मदने का परित्याग कर देते है ॥ ४.५॥ उस मय 
अवशिष्ट मूतादि स्यावरान्त, वे शून्य लोक, महानु गवादि बौरदेव बोर 
कल्पवासौ चे मदधं माग मे जनलोक मे चले जाने पर इ्रकं उपरान्त उस पहि 
ठे गरह देव, पिप्य मोर दानवो शनो चस्पापित करते है मौर युग के षय 
सव कौ दादवृष्टि वे षप्यापना क्रि करते है ॥ ६ ॥ 

योऽनीत. सप्तमः कपो मया वः परिकीतितेः । 

समुद्रं: परप्तभिर्गादमेकौभूतै्महार्णवः । 

आसीदेकार्णवं घोरमविभाग तमोमयम्‌ ॥४८ 

माययेकाणेवे तस्मिन्‌ शद्ध चक्रगदाधरः । 

जीमूतामोऽम्बजाक्षघ्न किरीटी भरीपतिर्हरिः 1 

नारायणमूखोदुगी्णं सोऽ्टम. पुस्पोत्तम. । 

सष्टवाहूर्मद्यरस्को लोकाना योनिष्च्यते । 


शा्व॑स्तोत्र ] [ २५५ 


किमप्यचिन्त्य युक्तात्मा योगमास्याय योगवित्‌ 11१० 
फणासट्सुकलित तमप्रतिमवचसम्‌ । 
महाभौगपतेर्भोगमन्वास्तीयं महोच्छयम्‌ 1 
तस्मिन्महति पर्यङ्क शेते वै कनकप्रभ ॥९१ 

एव तत्र शयानेन विष्णुना प्रभविष्णुना । 
आत्मारामेण क्रीडार्थं सृष्ट नाम्या तु पद्नम्‌ ।।१२्‌ 
शतयोजनविप्तीर्णं तरुणादित्यवर्चं सम्‌ । 

वच्रदण्ड महोत्सेघ लीलया प्रभविष्णुना 1१३ 
तस्यैव करीडभानस्य समीप देवमीदुप 1 
हेभन्रह्माण्डजो ब्रह्मा स्तमवर्णो ह्यतीन्दिय । 
चतुमुःखो विशालाक्ष समागम्य यदृच्छया ॥१४ 


जो सातवाँं कल्प व्यतीत टो गया वह्‌ भभनेतुमको वतलादिया दहै) 
सात समुद्र जो गाढ एकीभूत पहाणव ह उन्से एक भतिघौर तमोमय विमाग 
से रहित अर्णेव हौ ग्याधा॥ त ॥ उस एक समृद्रमे ने ण्डु, चक्र भोर 
गदाके धारण करने वाले, मेव को आभा वे सदृश आभासे युक्त कमल बे 
समान नेत्रो वाले, किरीटधारी, ल्मी ने स्वामी हरिकोदेखा जो कि नारायण 
के गख से उद्भीरणं हए भौर दह्‌ भावे पुष्पोत्तम ये । उनके माठ भुजएे चीं, 
महान्‌ चौडा वक्षस्थलथा भौर जोस्षमस्ल लोहो को यानि अर्थात्‌ उदुमव 
मयान कहे जाते है । योग के वेत्ता युक्त आत्मा वाले क्रिमौ मविष्प्यकायोगमे 
स्थिते होकर ध्यान करते ये ॥ & १० ॥ एक सहस्र फनो से युक्त अप्रतिम वचं 
वान्ते महामोगपति के उस्र महान्‌ उच्य वातं मोग को फंलाकर उस कनके के 
समान प्रमा वाते महान्‌ पङ्कुःपर शयन करते हँ ॥ ११॥ इस पकारसे वही 
शयन करने वाते अरमविप्णु विष्णुनेजो करि सपने मापे रमणकरने वाने ह 
उनने केवल श्रोडा के लिये जपन नामिमे एककमल नाल की सृह्टि की य\॥१२॥ 
वहे पद्धन नाल सौ योजन के विस्नारं वाला तथा तरण मूं के समान वर्चस 
वाला था, इमका वच्च के सट दण्ड तया इमकी मदान्‌ ऊंताईं थी, एसी 
स्वना प्रमविप्णृने वीलाङेडीद्ीकी ॥ १३१ इष तर्हक्रीदाक्से वाते 


२४९ |] [ वदु 


उपके समीपम देव कौ उपाठना करने याले हैम ब्रह्माण्ड से उप्यनन, सुवण १ 
समान वं वाले, इन्दरिमो से परे ब्रह्माजी यद्च्छासे मये जोति चार मूषो 
पृक्त, विशाल तेनो बते ये ॥ १४॥ 


श्चिया युक्तेन मध्येन सुप्रभरेण सुगिन्धना 1 

त क्रीडमान पद्मन दृटा ब्रह्मा तु भेजिवात्‌ 1१५ 

सविस्मयमथागम्य शत्य सपूणेया गिरा 1 

प्रोवाच को भगान्‌ ञेते आधित मधघ्यमम्मताम्‌ 11६ 

नय तस्याच्युत भ्र.त्वा ब्रह्मणस्तु चुर वच 

उदतिष्ठत पर्य द्ादिस्मभोत्फुल्ललोचन 1७ 

पत्युकाचोत्तर चैव क्रिपते यच्च क्रिचने। 

द्यौरन्तरिक्ष भूत्रज्च पर पदण्ह प्रश्रः ॥१८ 

तमेवमुवध्वा भगवान विष्णु पुनरथाब्रवीत्‌ 1 

कर्व खलु सम यातत समीप भगवान्‌ कुतः 1 

कुतश्च भूयो गन्तव्य कुत्र वाते प्रतिश्रय. ॥ ४ 

को भवान्‌ विष्वमूतिस्वव' क्त्य विश्वते मया । 

एव ब्र.वाण वकरुण्ठ प्रत्युवाच पितामह ॥२० 

यथा भव।स्तथा च्यहमा दिक्च प्रजापति 1 

नारयणस्तमास्यात स्वं वै मयि तिष्ठति (२१ 

ब्रह्माजी ने श्री से युक्त, सुन्दर प्रभावाले, सुगष से अन्वित कवीन कमः 
मे श्रीडा करते दए उनका देन कर उनश्ो सेदा करना आरम्भ कर दि ॥१६। 
दके उपरान्त वह अ-यन्व भरव मरकर धत्य सम्म वायते 
दम णत के मध्यमे ज्य तेकर शयन कले वाते माप कोन ह ?॥१६॥ ध 
शनन र भगरया्‌ यच्छत उन ग्र््नी के हया धुभप्र्न सवषूप वचन बो सुन षः 
विस्मयसे उल्न्त तेरो वले होते हए पदु वे उठ वटे ॥१७। मीर उदी 
रहमानी मे प्रण्न शा उत्तर दिफाङ्िज) शद भो व्रिपाजादादै भीः 
यन्तरि (गरा) एव पून उन सेम परम प्रद प्रभु ह ॥१८॥ उन प्रष्ठ 
जोक्तेमतर्ह्‌ भगवान्‌ विष्णु ने व्ह वरि वे यह्‌ वोत, अन्य कौ 


नावं स्तोत्र | [ २५७ 
भोयहांपरमयेहो बौर यपरके ययेह? यहाँ पका आगमन क्मि 
लिये हरादहै मोर फिर कहा जाना है तथा अपरका यात्रय रथान कौनसाहै? 
॥१९॥ बाप विश्वमूर्ति कोन मौर मृह्वसेमापदोव्याकरनाहै? इम 
प्रकार सं वोलने वाते मगवानु चिष्णू को पितामह ब्रह्याजो नै उत्तर द्विया ॥२०॥ 
भिस प्रकार माप चैके ही वादि क्ती प्रजापति पै मोह । मृक्षो नासयण इस 
नामप्े कहा गया गौर यह सभी कु मेरे अन्दर ही रहता टै अर्थान्‌ सिपि 
प्रास करता हं ॥२१।॥ 

सविस्मय पर श्रूत्वा ब्रह्मणा लोत्रक्तृंणा। 

सोजनुन्ञातो भगवता वैकुण्ठो विश्वमम्भवः॥ २२ 

कौनूटृलान्महायोगौ प्रविष्टो ब्रह्मणो मुखम्‌ 1 

दमानष्टादशद्दीपान्‌ ससमूद्रानू सपर्मतानू । 

भ्रचिदय सर महातेजाश्वात्‌ वे्यंसतमाकरुलानु 1 

ब्रह्मादिस्तम्यपर्य न्तान्‌ सप्वलोकान्‌ सनातनान्‌ ।1२३ 

दरह्मणस्तुदरे दृष्ट्रा सर्वान्‌ विष्णुर्मह यणा । 

महाऽस्य तपसो वीय्य' पुन पुनरभापत (1२४ 

पर्य्यटन्‌ विधिधान्‌ लोकान्‌ विप्र्नानाविधाश्रमान्‌ । 

ततो वर्णसदखान्तेनान्त हि दहे तदा ॥२५ 

तदाऽस्य वक्त्रन्निष्केम्य पन्नगेन््रादिकैतन । 

अजातश भं गवान पितापह्मथाप्रवीत्‌ ॥ ६ 

भगवन. यादि मध्यस्च अनन कानदशोनं च। 

नाहमन्त प्रपश्यामि द्य.दरस्य तवानघ 11२७ 

एवमुम्त्वाव्रवीदृभूय पितामहमिद हरि 1 

भवानेप्येवभेवा्य ह्य दर मम शाश्तम्‌ 1 

प्रविश्य लोकाच पर्येताननोपम्यान्‌ द्विजोत्तम 1२८ 

लोका के कर्ता ब्रह्माजी ने परम माश्चयं के माथ इम को सुन कर मग- 
वाद्‌ ने विश्व सम्मव मगदनि विष्णु को अन्ञात क्या ॥र२०॥) कौनरुहत सवद 
महान्‌ योगी ब्रहयके गुखमे प्रव्षिहौ मये 1 उम महु तेन वालेने प्रवेष 


२४८ |] { वापपृराण 


करफे समुद्रो भौर पर्वतौ के सिल हन शखारहं द्रौणे को चलम ते माः 
छन एवं सनातन ब्रह्मादि स्तम्ब पर्मन्त सात लोको को सको ब्रह कै ददरमे 
देवकर महान्‌ य वति विष्णु मे मन मे छोच, हो, सखे ठप का कितना 
आश्चयं धराक्रग है ? हसं के अनन्तर वे घ्र बार बति ३ २-२५५ विष् 
भेक लोर मौर पिषिष माति के गाश्रमोका पर्दन कषतेर्है ५१ 
एक सहत वौ के अन्त मे मौ उनका अनत उन्दने नहो देवा ॥२५॥ तव उह 
समय इनके मुख से धतनगेद्धारि केतन अर्यात्‌ पतग सर्पा के शिरोमणि फेषत्‌, 
ग्ड क केतन वाते ने तिकन कर यजात शश्र बर्थ एते जिन का को$ पन्‌, 
उल ही नं टमा हो, भगवान्‌ इसके अनन्तर्‌ पितामह ब्रह्माजी 8 गेत ॥९६॥ 
हे अनध? हि भगवान्‌ 2 आदि, म्य ओर्‌ बन्तकाल भोरदिशा षा भ्ठ 
तथा भङे उदर का जन्त यै नही देव पारहा है ॥(२७॥ इष अकारते ट क 
भवाम्‌ हरि पिर भिता 9 यदे वे दिकोसम ! रेषे है प भी भर 
शात उदरमे प्रवेश करके उपमा मे रहिन इन लोको को देवं ।२९॥ 

मनः प्रह्नादनी बाणी भ्र्‌त्वा तस्याभिनन्ध च। 

श्रौपतेरुदर भूय प्रविवेश पितामह" ५२९ 

तानेव लोकान्‌ गर्भस्य पश्यन सोऽचिन्तय विक्रम 1 

पयं टित्वादिदेवस्य ददर्शान्त न वै हरे ॥३० ¢ 

ला्वागमन्त.य पितामहस्य द्वाराणि पर्वाणि विधाय विष्यु 1 

विभुमेन. कतु मियेष चायु सुख प्रसुमोऽरिम महाजले ॥ 1 

तनो द्वाराणि सर्वामि विहितास्युपलकषयति 1 

सूद प्रत्वाद्म्रनो रूप नाम द्वारमयिन्दत ॥1३२ 

प्यसूव्ानुमार्गेग छनुमम्य पितामहः 1 

उज्जहासत्मनो षप पुप्वराचचतुरानम. 1 

पिस्यजारविन्दम्य प्यगर्भे्मदुति ॥३३ 

एतत्मिद्रलरे चाभ्यनिकेव्रस्य तु वात््यंत 1 

प्रवतं माने सद्षं मध्ये तस्या्णवस्य नु ॥र४ 

ततो ह्यपदिमेयात्ता सूनान प्रमुरीकवर" । 


चव स्प्ाने | ( स-~ 


गुलपाभिर्ममहादेवो हैमचीराम्बरच्छद ( 
आगच्छद्‌ यत्र सोऽनन्तो नागभोपपतिहुरिः 11३५ 


उनक्रौ अनेको प्रघनता प्रदान करने वाती इस ब्राणो को सुनकर तथा उसका 
र भति यभिनन्दन करके पिनामह्ने थौपरि के उदर मे भ्रव कियाय ५२६ 
चन्तिन कर्ने कै योग्य विक्रम चाले मगवाम्‌ हरि ने गर्भं मे ध्थित्त प्ते हुए उन्ही 
गोकोको देकर ओर चाये मोर परयेटन करके आदि देव हेरि का अन्त उन्होने 
दीं देला ।६०॥ उन वितामटके यागम कोजान कर भगवन्‌ विष्ण्‌.ने 
प्प्रस्व दवारो को वन्द करके विषृने मतमेयहक्खेकीडइच्छाकोकरिशीध्रही 
वरव पूवक दप महान्‌ जलौव मे शयन कर जाऊ ॥३१॥ इसके उपरान्त ब्रह्माजी 
फ़ समस्त द्वार पिहित दिखाई दिये तब व्रद्याजी ने अपने स्वप को सूम 
अरनाकरनामि मे द्वार प्राप्त किया था॥३२) ठव पितामह ने कमल सूव्रके 
्तुमायं कैद्रासय अनुगमन करके फिर चत.राननने कमतसे जपने रूपका 
ठडारक्ियाथा) उक मरविन्दमे स्थित होकर पदम के गर्भे प्रमान दयति 
बलि ब्रह्य विेष रूप से शोभिते हुए ॥३२॥ इस वौच मे उन दोनों म एक-एक 
फो पूणे तथाहं के उत्पन्न हो जाने घे उप्त समुद के मध्यमे पूणं समघ्नाप 
दमाथा ।३५। श्री चूनजी ने कदा--इमके अनन्तर सपिमेय भात्मा वाते 
्राणियौकै स्वामो ईप्वर्‌ दैमचौराम्बर वौ धारण करने वति शल हायमेलिये 
&ए महदेव वहा सागये जरह क्रि नापमोय के परतनि वहु मनन्त हरि वत्त 
भाने ये ॥६९५॥ 


श्रीत्र विक्रम्रतस्तस्य पद्‌भयापत्यन्तपीडितताः 1 
उदूतास्तुणंमाकाशे पृयुलास्तोयविन्दवः 1 
जत्युष्णाश्चातिशीताघ्च वायुस्तत्र ववौ मृशम्‌ 1३६ 
तदषरा महदाश्चर्यं ब्रह्मा विप्मुममापत्त } 


अविन्दवो हि स्यूलोप्णाः कम्पते चाम्बुज भृशम्‌ । 
एत मे खशय ब्रहि दिनरान्यनु त्वद्दिकीर्पसि 11३७ 


२५० ] [ वपुष 


एतदेवविध वाक्य पितामहमुवोद्भवम्‌ । 
शुत्वाप्रतिमकर्महि भगवानसुरान्तष्टन्‌ 1३८ 

किन्न. खल्वत मे नाभ्या भूतमन्यल्टरतालयग्‌ 1 
वदन्ति प्रियमत्यर्थं विग्रियेपि च ते मया 1३ 
इप्येव मनसा ध्यात्वा प्र्युवाचेदमुत्तरम्‌ । 
किनून्वन भगवास्तस्मिन पुष्करे जातसम्ध्रम" ॥४० 
किं मथा यत्‌ करन देव यन्मा प्रियमनुत्तमम्‌ । 
भासे पुरुप षठ किमथं ब्रूहि तत्वत ॥*१ 

एव प्रवाण देवे्ठ लोकयात्रान्तु तत्वगामू 1 


्रत्युवाचाम्बुजाभास्को ब्रह्मा नेदनिधि प्रभु ॥४२ ॥ 
श्न विक्रमं करते वाते उत्कर पादो से जप्यन्त पीडित सामे 


मोटी जल की विदु उद्भूत हई वी। वे मयन्ते उध्य भौर मल्यत ष 
थी। वहां पर वापु बहुत ही भविक चलने लगी ॥ ३६॥ तव ब्रहम ज 
महान्‌ भाश्रार्य देखकर भगवान विष्णु से कहा-ये परम स्थूल एव ष्ण 
कबर दस कमलको बहत ही मपिक कपाती ह। आप मेरे इ सशय 
वतलाहये, शाप भौर क्या करना चाहते ह ? ॥ ३७॥ पितामह केष 
उद्भूत इ वाक्य को सुनकर अमुरो कै अन्त करने वालि अप्रतिम रषात्‌ मः 
कमे करन वाते भगवान बोले ।॥ ३८ ॥ निश्चय हो मेरी इत नामिमे 
भ्य प्राणी आलय करने वत दँ ठेवा कहते ह । मेरे हारा वु्हारे घ॑ 
विप्रिय होने पर भी दते मलयन्त प्रि ही कहते है ३६॥ ईष भारते 
पि ध्यान करके थह उत्तर बोले । षया यहाँ परर आप उस कमल मे सम्म 
होग्येहि॥४०॥ हदेव। मेनो क्िाहैहै त्प धे 1 भ्‌ः 
प्रिय फते मुके वोत रदे ह आप किच तिये ठेसा कर रदे है दीक-ठीक 
ताध्ये ॥ ४१॥ इष तरह बोलने वलि देवेश से बम्बुन की भाभा वाति षेद 
निषिश्रषरुब्रह्मामीनेतप्व वाचो भो लोक यात्रा घौ ञ्चे पततागय या 

योऽसौ तवोदर पूर्वं प्रविषटोऽह्‌ त्वदिच्छया 1 

पया ममोदरे लोका. सवे दृष्टस्त्वया प्रभो } 

त्व दृ. का्स्येन मया लोकास्तवोदरे ॥४३ 


याव-स्तोत्र ] { २५१ 


ततो वर्यमहुनन्ते उपावृत्तस्य मेऽनघ 1 

नूनं मत्सरभावेन मा वलीकतुं मिच्छता 1 

बग द्वारायि सर्वापि घटितानि त्वया पुनः॥४४ 
ततो मया महाभाग सञ्िन्त्य स्वेन चेतस्ता 1 
लब्धो नास्या प्रवेशस्तु पच्चन्‌त्रादविनिगंमः 1४१ 
माभूत्ते मनसोऽत्पोऽपि व्याघातोऽयं कथचन 1 
इत्यपानुगतिविप्ो. का्यणिमौपसगिकी (१४६ 
यन्म यानन्तरं क्यं मयाध्यवसितं त्वयि 1 
त्वाश्चावाधितुकाभेन क्रोडाभूवं यदच्छ्या 1 

मायु रायि सर्वाणि घटितानि मया पुनः ॥*७ 
ने तेऽन्य थाविमन्तव्यो मान्यः पूज्यश्च मे भवान्‌ । 
सर्वं मपय कल्याम यन्मयगऽपक्तन्ततरे ¢ 
तस्मान्मयोच्यमानस्त्व पक्रादकतर प्रमो ॥४८ 
नाह भवन्त शक्नोमि सोटुन्तजोमय गुर्‌ । 

स चोवच वरं ब्रहि पञ्मादवत्तराम्यम्‌ 1४6 


लापङ्ी न्यासे जो रमन पिति आपके उदरे मेंप्र्रेणक्रिया थाव 
ने भापके उदरमे पूरणंसू्पसे, उसी स्पसे समस्त लोकदेषे जपे किष प्रमो 1 
अपने मेरे उदर में सम्दूणं लोक देवे ये ॥ ४३॥ दे ननध { फिर एक सट 
वपं पन्त यर.उधर हां पर पर्येटन कटे वाते मुद्ध को मालयं के मादेये 
वशप्रेकरने की इच्छा वाने मापने शोच्र दो मस्व दरार पटिठ केर दिये जप्‌ 
अन्दबरद्िये ॥४८॥ दे महामाग ! इनके ननन्तर भने यपने चित्तव 
सोघ.विचारकर नाभिमे प्वरेयप्राष्ठ क्रिया जिप्े कि प्यूतरसचे मेया फिर 
विनिर्मम हमा ॥ ४५॥ आपह सनको पोडा-सा मी तख ्रारन्न व्यापात 
नदवे, यद्‌ विष्यु के कायोंकौ मोपरि की अनुमि होरी है 1 ४६॥ दषे 
यनन्तप्जो मुभे टना वाटर मने मापमें बघ्यवश्चिव ( निश्चित) कट्‌ तिया 
दै। तुमकोषोहुमोदाधानक्लेङौष्च्छधायति ईैनेयह्‌ इच्छाव क्रोषए्- 
पूरक पीर सन्त द्वार पुन. चटिठ कर दिये 1 ४७६1 भषको दख विपपर्मे 


२५२ ] { वकरषृ्ण 


कठ मन्य प्रकार की वात नही समक्तौ चािए 1 भाप मेरे मान्य एवं दना 
करने केयोग्यहोतै ह । हे कल्याण ्वष्प ! अआपकायोन्नीर्मने प्रं बपार 
क्रियाहै उपे क्षमा कौजिवे। हे प्रभो ! हसतिषेमेरे दाराकहै हए मापप्व 
भे भवतरण करे ॥ ४८ ॥ म तेजपुणे गु यापृको महन नही कर पकता ह । 
यतत पर वह बोत्ते--वरमांगलो, प्म से बवतरण करता हं ॥ ४६॥ 


पुत्रो भव ममारिघ्न मुदं प्राप्स्यसि शोभनम्‌ 1 

सत्य धनो महायोगी व्वमील्यः प्रणवात्मकः 1५० 

अद्यप्रभृति सर्वेश श्वं तोष्णीपविभूपणः । 

पद्मयोनिरितीत्येकं घ्यातो नाम्ना भविप्यत्ति 

पु्ोमेत्वं भव ब्रह्मन्‌ सर्वलोकाधिप प्रभो ।॥५१ 

तत. स भगवान्‌ ब्रह्म वरं गृह्य किरीटिनः। 

एव भवतु चेत्यक्त्वा प्रीतात्मा गतमत्सरः ५२ 

प्रस्यासन्नमथाथात वालाकभि' महाननम्‌ 1 

भूतमल्यदरुभूतः षट नारायणमयाव्रीत्‌ ।\५३ 

अप्रमेयो महावक्रो दष्टरी व्यस्तथिरो रुहः । 

दश्रवाहखिश्यूलाद्धो नयनैविश्वतोमुखः 11५७ 

लोकप्रभुः स्वय साक्षाष्िकृतो मुञ्जमेलली 1 

मेढे.णोध्वे न महता नदमानोऽतिभभैरवम्‌ ॥५५ 

कः खल्वेष पुमानु विप्णो तेजो राशिमेहाद.तिः। 

व्याप्य सर्वा दिशो याच इत एवाभिवत्तंते ५६ 

भगवा विष्य ते कहा-ह थरिघ्न ! मेरे पूवर हो नाभो बहून ही मच्छ 
धानन्द प्राप्त फरोगे । सत्य घन वालि भौर महान्‌ योगौ भाप प्रणव स्वरः 
सतुति करभेके योप्यहै ।, ५०१ हे प्व ] भाज से सेकर पवेत पिरव 
से विसूूषित माप प्ययोनि इम नाम बे दिख्यात्त हो जामोये । हि प्रमो ! ह 
्रटयव्‌ } है समस्त लोको के गधिप ] तुममेरेपूव ही नामो ॥५१॥ ।५ 
तेर उन भगवान ब्रह्माजी ने किरीटौ { विष्णु ) के वरदान को ग्रहण 1 


षावस्छत्र | {[ २५३ 


मथेये 1 भ्र ॥ समीपे जये हए वाल पूर्वं के खमान जाभा बाते मह्‌ 
क्षानन (मुख) से युक्त हए अत्यन्त अदुभठ चारायण को देखकर वोते- ॥ ४३ 11 
छग्रमेय वर्था वमञ्चमें नदीं माने के योग्य, महान्‌ मुष चे युक्त द्राधारी, व्यस् 
बालों वाले, दश मुजा्ो से युक्त, त्रि्ूल के चिह्धु वाति, नेतरो ते विश्ववोमुख, 
स्वयो के स्वामौ, वाक्षाद्‌ विद्र स्वरूप वते, मूज कौ मेखंसावारी, 
मान्‌ जदं मेदस ध्वनि करते हए, हे विष्णो } यहकौन रवा पुष्पदहै नो 
वेज को गदि नौर मदायुत्ि वाला है शीर भस्त दिधा सेच्याप्त टौकर षट 
कीमोरदही जा रहा है ॥ ५४-५५-५६) 


तैर्नवमुक्तो भगवात्र्‌ विप्णुत ्याणम ब्रवीद्‌ 1 

पदुभयान्तलनिपातेन यस्य विक्रमततोऽणवे । 

वेगेन भदताकापे व्ययितताश्च जलाशयाः ५७ 

छटाभितरिप्णुतोऽन्ययं सिच्यते पञ्च सम्मवः 

घ्राणजेन च वातेन कम्पमान त्वया उह । 

दोघूयते महापद्म स्वच्छन्द मम नाभिजम्‌ ॥ ६ 

स एप भगवानीशो ह्यनादि्ठान्तङृद्विमु 1 

भवानटहच्च स्तप्रिण हय .पतिष्टाव गोच्वजम्‌ ।५२ 

तत कुदोऽम्बुजामास्क ब्रह्य प्रोयाच केशवम्‌ 1 

नं भवेद्‌ शयल्मात्मान सोकाना योनिमुत्तमम्‌ ॥६० 

ब्रह्मण सोक्कक्तरि मास्व वेत्ति मनतिनम्‌ । 

कौऽ्य भो. शद्धुरो नाम हयावयोर्यंतिरिच्यते 11६१ 

तस्य तन्‌ रोधन वाक्य शच.त्वा विप्युरमापत् 1 

मा मौव वदं कस्याण परिवाद महात्मन ॥६२्‌ 

मायायोनेश्वरो घर्मो राघर्पौ वरदः 1 

देवुरस्याव्र जगत धुखण पुर्पोऽन्यय- ॥1६३ 

उनष्े टाया व ध्रतारयेक्डे गये अमदाद्‌ दिष्टनेदहयाजौ से क्टा- 
शिम विक्रमते परो ठत निपातन ते समुद्रे मदन्‌ वेगसे, कायरम 
छमस्ठ जदागमष्ययिठदहोग्ये ड, घ्टार्यदेद्वारयाविघ्यु सेमी वधिङ एय 


२९ ] { पषण 


सम्मव सिच्यमान होते है मोर घ्राण से उघ्वत्न वायुमे नापे साय कम्पमान 
होकरमेरे नाभि रे उत्पन्न म स्वच्छ द महान पश्कोभी केपार्देहै वद्‌ पहं 
भगवानु ईश ह जो अनादि भौरभत क्सेवातविनु है । मधौर अप्त 
गोष्वज की स्तोके द्वारा स्युति करे 41 ५७-५८-५६ ॥ मके पवात्‌ कव 
युक्त ब्रह्मा यम्बुन की मामा वाज केशव त व व--याप उत्तम लोककी योरि, 
लोको के करने वाते मुक्ञङौ सनातन ब्रह्य वा पूनामा नहा जानठे ६। ह 
णद्धरकौनटैजाहम दोनो भी धिक वन रहा है। ॥ ६०-६१॥ उनके 
उस क्रो से उत्पल वाक्य को सुनकर विष्णु ने कहा--हे व-पाण । रेषा महाव 
साप्मा वाने की परिवाद (निदा) मत कहो ॥ ६२ ॥ यहे महद्‌ मामायोग का 
ईश्वर, धम दुराघप वरप्रदान करने वाते, इस जपन्‌ केतु परय मौर 
अव्यय पर्प ह ॥ ६२ ॥ 


जीवः खत्वेप जोवाना ज्योतिरेक प्रकाशते । 
वालक्रीडनकंटव क्रीडते शद्धुर स्वयम्‌ ॥६४ 
प्रधानमन्यय न्योतिरन्यक्त प्रकृतिस्तम ! 

अस्य चैतानि नामानि नित्य प्रसवधर्मिण । 

यक सइति दु खात्तैमूग्यते यतिभि शिव ॥६५ 
एष वीजी भवान वीजम्‌ योनि सनातन 1 
एवमुक्तोऽथ विश्वाप्मा ब्रह्म विष्णुमभापत ॥६६ 
भवान्योनिरह्‌ वोज कथ वीजी महेरवर 1 

एतन्मे सूषकष्ममन्थक्त सशय येत्तुमहसि ॥६७ 

ज्ञात्वा चैव सभूप्पत्ति ब्रह्मणा लोकतन्तिणा 1 

इद परमसाहष्य प्ररनमभ्यवदद्धरि (६ 
अस्मान्महत्तर गुह्य भूतमन्यन विद्यते । 

महत प्म धाम शिवमध्याप्मिना पदम्‌ 1६६ 

द्रं घीभावेन चास्मान प्रविष्टस्तु नयवस्थित 1 

निप्वल सुदममव्यक्त सकलश्च महैष्वर 1.० 

यहु जीषो भा निश्चय ही जीव है मौर एक ज्योतिकौ प्रकाधित करते 


गवे-म्तोव ] १ रभ 
५ 

यद्‌ देव दधुर स्वम वच्च के विलोनों से क्रौडाङ्िया करते 1 ९४1 
रही अकव के घमं वादे दूने प्रवान, जव्यय, ज्योति, भः्यक्त, प्रकृति, तम 
मके जते हं! वह्‌कौनहैजोदुखो के मात्तं होने वाते यत्तियो केद्वाय 
त्रा जाया करता है ? बह यही शिव ह ॥ ९५ ।1 यह वौज वालि है, अप 
१ द, योनि हूं जो कि सनातन ह । इम प्रकार से कहे गये विश्वात्मा ब्रह्म 
देते ६६ ॥ माप योनि ह अर्थाद्‌ वह्‌ स्थान € जदा वीज पडा करता 
मे बीज हं मौर महेश्वर बौज वच दै, यहं मु वहत वडा सशय होरहादहै 
लिये आप इष मेरे सन्देह का येदन करने मे समये हो ॥ ६७॥ सोक- 
री ब्रह्मा के वारा समुत्ति का ञान प्राप्त कर नगवान हरिने इस परम सा- 
पर प्रश्न को वत्तलाया था 1 ९८ ॥ इसत्ते अधिक मदान्‌ अन्य कोई क्ली भूत 
गे है 1 शिव महान्‌ कापरम घाम अीर अध्याप्मवादियो का पद दोऽ है 
९६1 अपने स्वल्प केदो विभाय कर प्रविष्ट दते इए यह त्यव्यित रहते 
। सूष्षम अव्यक्त एक निष्कल स्वल्प है भोर दूमरा सक्त मर्थात्‌ कलाभो से 
5 महे्धर स्वक्ष होता है ॥ ७०॥ 


अस्य मायाविधिज्ञस्य अगम्यगद्नस्य च 1 
पुरा लिद्ध भवदुवीज प्रयमं त्वादिसमिकम्‌ 1७१ 
मयि योनौ समायुक्त तदुवीज कालपर्ययात्‌ 1 
हिरण्मयमपारन्तयोन्मामण्डमजायत ॥८२ 
शतानि दशवर्पाणामण्ड"चाप्ु प्रतिष्ठितम्‌ । 
अन्ते वपैसहम्र्य वाना तदद्िघा कृतम्‌ ॥५७३ 
कप्लमेक दौजज्ञे कपालमपर क्षितिः । 
उल्वन्तस्य महोस्सेध योऽसौ कनकपवेतः 113४ 
ततस्तस्मात्‌ प्रबुद्धात्मा देवो देववरः प्रभु 1 
हिरण्यगर्मो भगवानह जज्ञे चनुभुं जः ॥७५ 
ततो वपैसहखन्ते वायुना तद्दिवा कनम्‌ 1 
अनाराङन्दुनक्षत्र' शून्य लोकमवेक्ष्य च । 
कोऽयमत्ने त्यभिच्याते दरुमारास्तेऽभवस्तदा 11६ 


२५६ ]} [ वपुष 


प्रियदरणेनास्मूतनवो येऽनीता पूर॑नास्तव 1 

भूयो वर्प॑सह्रान्ते तत एवात्मजास्तव । 

भुवनानलसद्धाशा पद्यपत्रायतेक्षणा. ॥७७ 

इ साया की विधि को जानने वत्ति तथा बग्प एव गहन का पि 
भादि सिक प्रथम लिद्ध बीज हमा जो कि घाप 11 ७१॥ कात कै प्य 
से बहु वीज योनि स्वल्प मुद में समायुक्त हमा 1 वह उस समय योनि म भए 
हिरण्मय बण्ड के रप मे उत्च्च हो गया था ॥ ७२॥ बह भण्ड दश सदत क 
तक जलमेही परतिषठित रहा फिर मन्त मे हनार वयं के बाद वहं वु करं 
कृर दिया गया ॥ ७३ ॥। उसका एक कपाल मर्थातु माघा भागं नेचौकौयमः 
क्रिया शीर दूरे कपाल ते क्षिति उधर हुई । उल्वन्त का महोत्ेध जो दैव 
यह्‌ कनक पवत है ॥। ७४ ॥। इसके पश्चात्‌ उक्षे प्रबुद्ध भाप्मा वाता देवों 
श्रे परभु देव हिरण्मग्ं माप मौर चार भुजा वाला ष उलप हुमा ॥५५ 
फिर एक सहत वष के भतमे वायुने पुन दो दुक्डे क्वि। तारा, सूय 
से रदित चू यलोक को देलकर यहां पर यह कोन है देवा अभिध्यन कएने ५ 
उस समयवे करुमार हये ॥ ७६॥ देखने मे प्रम प्रिय, सुन्दर शरीर वाते ४ 
जो पदे होने वालि पूवज येवे हो एक सहन वपो के लठ मे बाप? 
धापन ह । जो भुवन की सम्नि के समान तथा पर्यष्न के पुष्य विशव 
वाति ह ॥ ७७॥ 


श्रीमान्‌ सनत्कुमारस्तु -ऋभुश्चं वोद रेतसौ । 
सनातनश्च सनकस्तथेव च सनन्दन । 

उत्पन्ना समकाल ते बुदचाऽतीच्धियदर्शना ।७ 
उत्पा प्रत्तिघात्मानो जगुश्च तदेव हि। 
नारप्स्यन्ते च कर्माणि ताप्त्रयविवजिता ॥\५६ 
भस्य सौम्य वहूक्लेश जराशोकसमन्वितम्‌ 1 
जीवित मरण चेव समवचं पुन पून ॥८० 
स्वप्नभूत पुन स्वगे' दु खानि नरकास्तया । 
विदित्वा चागम सर्वेमवद्य भवितव्यताम्‌ ॥न 


शर्य॑स्तोत्र } { २५७ 


तभु सनतरुमारभ्च दृष्टा तेव वशे स्थितौ 1 

त्रयस्तु त्रीन्‌ गुणान्‌ हित्वा आत्मजाः सनक्रादयः 1 

वैवक्तेन तु ज्ञानेन निवृत्तास्ते महौजस. ।=र 

तत्तस्तेप्वपद्रतेषु सनकादिषु वं तिपु1 

भविष्यसि विमूटस्तु मायया शङद्धुरस्य तु ५८३ 

एव कल्पे तु वकल्पे सज्ञा नश्यतति तेऽनघ 1 

कत्मशेयायि भूतानि सू्माणि पाथिवानि च 1८४ 

सा चया द्यंश्चरी माया जगतः षमुदाहता । 

सर एप पवतो भष्दे वलोक उदाहतः ॥०५ 

उन दुमातें म श्रमाद्‌ सनुमार तो्छमु घौर उ्डवेरेवा ये गीर 
सनातन, सनक एव सवष्दनये सवरए हौ काल मे स्त्पन्नहयेयेनौददवृद्धिसे 
धतीन्दरिय दर्शन वा्तेये 1७८ ये प्रततिषासो उप्त हौतिहौ उसी सपय 
कहने लगे कि तीनो तापो से रटित रहते हृष दुद्धं भोकर्मोकी आरम्मनही 
करे ॥ ७६ ॥ इस दौम्य गोर वहूत-से ब्तेयो से पूरणे तथा वुापा एव शोक 
ध युक्तं जीवन गौर मरण को ततथा वार-्रार जन्म ग्रहृण करना, स्वप्न के घटश 
स्वर्गभेंवासतयादुखएवनरकोक्ा जानकर तया समस्त अप्यम सौर भवि 
तव्यता का ज्ञान प्राप्त करके भोर कमु सनल्ुमार को पिके वा मे रह्नेकी 
स्थिति ने देखकर तौन जो सनकार्दुिमारवेकगुणोको व्वागकर मह भोज 
बाति वे ठीनो वैव्तमागे केन्ञानि वे निवृद्यहो गयेवे 7 =०-१-र्रे ॥ दशके 
अनन्ठर्‌ ठन सोनो समकादिकः के जपदृत्त हो जने पर तुम लद्कुरकी मायासे 
विश्ेपरूपसे भूदहो जागे) ८३1 हे मनघ। इसप्रङारसे वैक्ल्मक्ल 
मेञपष्टी खनलानषटदोजत्तीदै भौरक्त्पमेज्ञियजो प्राणी हुवे चुदनबीर 
पराध है 1) ४1 वहं यडज्गद्‌ द्यी रेरी मायाक्ठो गरं है) गीरक्ह्‌ 
पह मेरपर्वतजोदहै सो देवलोक दत्ताया गया 1 ५॥ 

तवेवेद हि माहात्म्य दृष्टा चात्मानमात्मना 1 

ज्ञाघ्वा चेश्वरसद्भाव ज्ञात्वा मामम्बृजेक्षणमू ॥८६ 

महादेव महायोग भूनाना वरद भ्रमम्‌ 1 ^ 


२५८ |] [ वायुःपूयण 


प्रणवात्मिनमासाय् नमस्कृत्या जगद्गुरम्‌ 1 

त्वाच्च मान्चंव संकरो निः्ासात्निद्‌ हदयम्‌ ॥८७ 

एवं ज्ञात्वा महायोगं अभ्युत्तिष्ठ महावलः 1 

सहु त्वामग्रतः कत्वा स्तोष्येऽहुमनलम्रमम्‌ ॥रम 

ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा ततः स गरुडध्वजः । 

अतीतैश्च भविष्यैश्च वत्तमारनस्तथैव च । 

नामभभिशछान्दसंश्चैव इद स्तोतरमुदीरथत्‌ । रप 

नमस्तुभ्यं भगवते सुत्रतेऽनम्ततेजपसे । 

नमः क्षेचाधिपतये बीजिने चुलिने नमः ॥६० 

अभेद्योद्धमेदाय नमो वेकुण्ठरेतपते । 

नमो ज्येष्ठाय श्रे एाय अपूर्प्रथमाय्‌ च ॥ दष 

नमो हव्याय पूज्याय सद्योजाताय वै नमः । 

गह्वराय धनेशाय हमची राम्बराय च ॥६२ 

आपके ही इस माहात्म्य को तथा यात्मा से ही अपने मापो देखकर 
एवं द्ष्वर के सद्भाव तथा भम्बजक्षण मुक्षको जानकर महान्‌ योग वते प्राणियों 
फोवरदैने वततिप्रभु महादेवकोजोङ्गि प्रणव के स्वरूप वलि है, प्रा्तुके 
जगनु के गुरं कौ नमस्कार करके यह्‌ संक. होकर तुमको ओर मूतलको निश्वास 
मे निर्दग्ध कर देते ॥८६।८७॥ दस प्रकार से महानु वल वाले धत महायोग 
का सान प्रात करके बम्यु्यित होता था भे तुमको मागि करके उत मनल के 
समान प्रभा वाले की स्तुति फरगा ॥८८॥ धो सूतजी ते कहा--शसकै भनन्तर्‌ 
गर्टध्वज विष्णू ने ब्रह्माजी को बागे करै अतीत ( गुजरे षृ ) भाग भाने 
याते तथा वरपान नार्मौते भौर दछान्दसोके द्वार हस स्तोव्र का उच्च।रण 
भिया था ॥८६॥ सुन्दर ग्रत वाते, नन्त तैज से युक्त मगवानू मापुके तिये 
नमस्कार है 1 हेत के अधिपति यौज वलि यूती के तिये नमस्कार है ॥६०॥ 
भेद से रषटिवि तया उद पेदु यातत वेकुण्डरेता आपके चि नमस्कार है। ग्ये8, 
श तथा यपू श्रयम के निवे नमस्कार है ।६१॥ हव्य पूज्य भौर सच्च उत्पन्न 
होने वाने के तिये चमल्वार है! द्वरधनेय ओर दैमथौराम्बर धारण ब 
न्वे निय नमप्कार टै ।\६२॥ 


यरवं-स्ठो् ] [ रयै 


नमस्ते द्यस्पदादीना भूतानां प्रभवाय च 1 
वेदकग्मविदानाना द्रव्याणा प्रघवे नमः १३ 
नमो योगस्य प्रभवे सारयस्य प्रवे नमः1 
नमो घ्रबनिशोयानामृपीणा प्ये नम. 118 
विद्युदशनिमेवाना गरलितप्रभवे नमः1 
उद्दधीनाल्च प्रभवे द्वीपाना प्रवे नमः 1 
नद्रीणां प्रभवे चैवे वर्पाणा प्रवे नम । 

नमो नदाना प्रमदे नदीना धमवे नम ॥६द्‌ 
नेमश्वौपचिप्रभवे वृक्घाणा प्रभते नम. । 
घर्म्माव्यक्ताय धर्माय स्वितोना प्रभवे नम 1४ 
चमो राना प्रभवे रलाना प्रभवे नम. 1 

नमः क्षणानां भरमवे कलानां प्रभवे नम. [८5 
निमे प्रभवे चैत्र काषछठाना प्रभवे नमः 
जहोरानाद्धंमासाना मासताना प्रनवे नमः 11२2 


हमारे सषटण प्राणियो के प्रभव स्थानके लिये नमस्कार दै। वेदकर्म 

धीर सवदान द्रव्यो कै जन्म देने वाचिके लिये नमस्कार दै ॥६द योग दशेन 

कै उत्पन्ने करने वान्ते तथा साख्यको प्रभव देते वते त्तिये नमम्करारदै। 

"प्रघ निलो ऋषपियो कै स्वामो के लिये नमस्कार दै ॥२४।। विच दु-वस्र भौर 
मेधो तथा गर्जनके प्रमव स्वस्प के लिये नमस्कार टै । स्मत समृद्रो भ्रौ जन्म 

"देने वादे दथा भम्पूणे दोषा को उत्पत करने वानेके लवे नमस्कार है ॥६५॥ 
'परवतो के प्रमव स्थानके पिथ दथा दर्पो बै उन्पद्धि स्थर वादे के भिये नम- 
स्कारदहै। नदभोर नविोके प्रुके लिय नमस्कार है 1६६॥ मौपधियो के 
तथा वृक्तोके प्रभू केः लिये नमन्कारदहै। घमं के भव्यक्ष दया चमं स्वरम एव 
` खमप्त स्थित्तियो के घ्वामी के विवे नमस्कार है 1६७11 प्रमस्वत रघोकेतया 
सम्पूणं रत्नौ के स्वामीके ल्थि हमारा नमन्कारदै। दध्र आर क्तार्थोके 

श्रम केन्तिये नमस्कार है ५९४ निमेय-कथा वहोराथ-वेद्धमस्ड सीर मर्ये 

के ्रभूके त्यि हमारा नमस्कार प्य व 


२६२ } [ वदुदृण 


अम्युदोर्णाय दीप्ताय तच्याय निगुणाय च ॥११४ 
नम. पाशाय हस्ताय नम स्वामरणाय च। 
हुताय अपहूताथ प्रहुत्रशिताय च ॥१११ 
नमोऽस्त्ष्टाय मूर्ताय दह्यग्नि्टोमत्विजाय च । 
नप श्रुताय सत्याय भूताधिपतये नम. ॥११६ 
सदस्याय नपरश्चव दक्षिणावभृथाय च। 
अटिसयाय लोकाना पञ्युमन्नौपधाय च ॥११७ 
कमस्तुषटप्रदानाय व्यम्बकाय सुगन्धिनि । 
नमोऽस्त्वन्दियपनये परिहाराय स्रगिविरो ॥११५ 
विश्वाय विश्वरूपाय विश्वतोऽक्षिमुखाय च 1 
सवेठ पाणिप्रादाय ल्द्रायाप्रमिनाय च ॥११६ 


तप स्वरूप जनसूप मौर वरद फे लिये नमस्कार है1 बन्दना करे! 
मोग्य-मोक्ष स्वस्य जन मोर नरक ऊ सिव नमस्कार है ॥११३॥ भव मज 
इष्ट, याजक, मम्युदी्ण, दीप, वत्त्व, निगुण कै लिथे नमस्कार दै ॥१९५॥ ¶ 
हस्त ओर स्वाभरण ऊ लिये नमस्कार है । हुत, मपहूत, श्त तथा प्रथित १ 
लवे नमस्कार है ॥१९५॥ इष्ट मत्तं ओर अगि सम ऋत्विज के तिय हमः 
नमस्कार है ! त एव सत्य ठथा भूतो के अधिपति कै तिये नमस्कार है 1१११ 
सदस्य के निये दया दक्षिणावभृव के तिये नमस्कार है । भसा के सिये 
लोको के पशु-म-् एव मौपघ के तिये नमस्कार है 1११७॥ तुष्टि के 
करने वाले ध्यम्बक भौर सुन्दर यन्ध॒ वालिके तिये नमस्कार है 1 इनि 
पति, परिहार तथा सरगूवारी के लिये नमस्कार है ॥११८॥ विश्व- विवर 
मौर विश्वसे मक्षि मुत-समौ घोर हाय मौर पद वाते, प्रमित ओर 
तिये नमस्क्रर दै ॥११६॥ 

नमो हन्याय कव्याय हन्यकव्याय वै नमः। 

नमः सिद्धाय मेघ्याय चेष्टाय त्वव्यथाय च ॥१२० 

सुवीराय सुघोराय द्यक्षोभ्यक्षोभणाय च । 

सुमेधसे सुप्रजाय दोप्ताय भास्कराय च ।॥१¶२१ 


श्वं स्नोत } {[ २६३ 


नमो नमः सुपर्णाय तपनौयनिमाथ च । 

वि्पाक्षायत्पक्नाय विद्धलाय महौजपे ॥१६२ 

दृष्टिघ्नाय नमश्च व नमः सौम्येक्षणाय च । 

नमो धूम्राय श्वेताय छृप्णाय लोहिनाय च 1१२३ 

पिशिताय पिशबद्भध्य पिताय उ निपद्जिरो। 

नमस्ते सविद्रोपाय निविज्ञेपाय वै ननः १२४ 

नमो वै पद्मवर्णाय मृच्युघ्नाय च मृत्यवे । 

नम दामाय गोखय कद्रवे रोहिताय च ॥१२५ 

नम. कान्ताय सन्ध्याश्रवर्णाय वहुरूपिरो । 

नेम. कपालहस्ताय दिग्वस्वाय कपटिने ॥१२६ 

हव्य ओर कव्य तथा ह्य क्ञ्यके लिये नमश्करार दै) षिद्ध, मेध्यचेशटभौर 

अव्यय के लिय नमस्कार ई १९२०५ मुचौर, सूयर्‌, जद्योम्य क्षोमण, सुमे, 
शुप्रना, दीतत मौर मानकर के लिये नमस्कार है १,१२९॥ सपणः भौर तपनीय 
छ तत्य के लिये नमस्कार दै विद्याक्ष, त्यक्ष, ओर महान. मोज बरतिके लिये 
भमस्कार है ॥१२२॥ टष्टि के हनन करने वालि के लिये नमस्कारहै ौरप्नौम्य 
मैत्र बाति वे लिपे नमस्कार है। धूम्र, श्रेत, ष्ण मौर लोहित के लिये हेमाय 
नमस्कार है, ॥१२३॥ पिशित, पिशङ्ख, पत्त गोर निषद्ध वले के लिये हमार्य 
भमस्कार है विश्तिपतासे युक्त तथा विशेष कै लिये नमस्कार दै ॥१२४॥) 
पद्म जै वणं वान्ते, मृत्यु के नाच करने बाले तथा मू स्वरूप के लिये नभ 
स्कारदै। श्याम, गौर, कद्र. मौर रोदित के लिये नमस्कार है ॥१२५॥ कान्त 
सन्ध्या कै समान भश्र वणः वति तथा बहत, ठे ख्प वातै क लिये नमस्कार 
है! कपाल हाय मरे रखने वाले, दिशाओं कं वस्न वाले अर्थावु तनमग्न धा कपर्दी 
कै लिये नमस्कार है ॥१२६॥ 

दप्रमेयाप शर्वाय ह्यवध्याय वराय च । 

पुरस्तात्‌ पृष्ठनश्चं व विश्राणाय कशानवे 1१२७ 

दुर्गाय महते चव रोधाय कपिलाय च ॥ 

अक्प्रभशरोय वलिभे रहषाय च ॥१२८ 


२६४ ] [ वायु पुण 


पिनाकिनि प्रविद्धाय स्फीताय प्रमृत्ताय च। 
सुमेधतेऽक्षमालाय दिग्वासाय क्षिखण्डिने ॥१२९ 
चित्राय चित्रवर्णाय विचित्राय धरायच। 
चेकितानाय तुष्टाय नमस्सव निहिताव च ॥१३० 
नम क्षान्ता शान्ताप्र वच्सद््नाप च। 
रक्षोध्नाय मखघ्नाय शितिकण्डोद्ध रेतसे ॥१३१ 
अरिहाय कृतान्ताय तिग्मायुधघराय च । 
समादाय प्रमोदाय इरिणायेव ते नम 11१३२ 


प्रणवप्रणवेशाय भक्तानां शएर्मदायच ) 
मृगव्याधाय दक्षाय दक्षयज्ञहराय च ॥१३३ 


वप्रमेय-गव, बवध्य, वर, आभे ओर पोच विभ्राण, इशातुके ति 
नमस्कार द १२७॥ दुं, महान्‌, रोष, कपिल, सरथं की भ्रमा चे युक्त शैष 
चाक्तेके लिप, वली थौर रहम के तिये नमस्तर है ॥ १२८ पिनाको, रषि 
स्फीत, प्रमृत, सुमेषा भक्षो कौ माला वले, दिग्वासा तथा धिवण्शीके सिषं 
नस्कार है ॥१२९॥ विन्न चित्र वे, विधित्र, धर, चेक्रिनान, तृट भीर अति" 
हित के लिये हमारा नमस्कार है ।१२०)) 

क्षान्त, शान्त, व महनन, राक्षत ऊ हनन करने वि, मलो के नाश, 
दििषण्ठ बोर उदध्वरेता केलिये नमस्कार है ।[१२१॥ शव.मौ के नाश, 
कृतान्त, वीक्ष्य युधो क धारण करे वाते, मोह के सहित, मोह सवस्य मौर 
बौर द्रण के लिये नम्कार ह 1१३२॥ प्रणव के प्रथवेश, सक्तो को कत्य 
शाने रमे वक्ति, मृणव्याध, दक्ष शौर दक्ष प्रजावति के यज्ञ के विध्व + 
वाले के लिये हमारा नमस्कार है ।।१३३॥ 

तर्वभूताय भूताय सर्वेशातिशयाय च । 

स्मेव च शन्ताय सुगन्धाय वरेशवे 11१३४ 


प्पवन्तस्वरूपाय भगनेत्रान्तकाय च । 
प्गापपनाह्छामः ऋपाद्वमध क ११२ 


शावं स्वो ] [ प्य 


रवे. करालचक्राय नगेनदमनाय च} 

दैत्यानामन्तकायायो दिन्यक्रन्दकराम च ॥१३३ 

श्मश्चानरतिनित्याय नमस्व्यम्बदेधारिणे 1 

नमस्ते प्राणपालाय धवमालाधरा च ॥१३७ 

प्रहीणशोकंविविधंभूतंः परिप्ट्‌.ताय च। 

नरनारीशरीराय देव्यः त्रिरकराय च १३ 

(जटिने दण्डिने तुम्य व्यलगज्ञोपवीतिने । 

नमोऽस्तु दृप्यसीलाय वाद्य नृत्यप्रिया च ॥¶३& 

मन्यवे शीतशीलाय सुगीत्तिगायते नमः। 

कटककराय भीमाय चौग्रह्पृध यय च ॥।१४० 

सवभूत, भूत, सर्वेश के मतिशय के लिपि, पुर के भेदन करने वालि, 
शान्त सुन्व जोर नरेश के लियै नमस्कारं है 1३४ । पुप्पवन्त स्वप्‌, मग 
मेत्रान्तक, कणाद, वरिप्र जर कामके द्धौ को दहन करने वालिके लिये 
नमस्कारै ॥१२५॥ मूर्यं केकराल चक्र केलिवे त्तया तागेद्ध्रके दमनके 
लिे, दह्योके अन्तक ड लिये मौर दिव्यो को अकरन्द करने वालिके लिये 
हमारा नम्रस्कार है 1१३६ एमशान रति के ल्तिये तया व्यम्त्रकषारीके तिये 
ममर्कारहै | प्राणोके पालन करने वलि, घनकी मालाके धारण करने वाले 
जपक्रे लिये हमारा नमस्कार है ॥१३७॥ 

प्रहीण शोक वाते अनेक भूतोके दरा परष्टिते, नर भीर नारीके शरीर 
वाते तथा देदी के प्रिय करने वाते के लिये नम्र है ॥१३ =।( जदामो 
षै धारणं करते याने, दण्डवध्री, व्यालो (सर्गो) के यज्ञोपवीत पदिनने वालि 
तुम्हारे लिये नमस्कार है ।( नृत्य करने के स्वभाव व्िततथावाद्यएवनूष 
पर प्यार करने वाते अपके लिये हमारा नमस्कार है ॥१६६ ॥मनयु स्वरूप, 
शीतके स्वमाव वाते तथा सुन्दर मरतो के गायन करने वाते, कटक कर्‌, भीम 
मीर उग्रन्प धारण कटने वलि के तिये हमारा नमस्त्रार है ॥१४०॥ 

विभीषणाय भीमाय भगश्रमयनाय च। 

सिद्धसद्धात्तमोताय महाभागाय वे नमः ॥१५१ 


१६० |] [ वागु पृ् 


चष्टाप्रियो ध्वजौ छवी पताकराध्यजिनीपत्ति । 

कवची पट्टिशी शङ्खी पाशाहस्त परभृद 1१५७ 

अगमस्स्वनघः शुरो देवराजारिम्दन । 

त्वा प्रसा पुराऽस्माभिद्रिप-तो निहता युधि 1१४ 

अग्निस्त्व चार्णवानू सर्वान्‌ पिवनं व न तृप्यसे 1 

क्रोधागार प्रसच्चात्मा कामहा कामद प्रिय १५६ 

ब्रह्मण्यो ब्रह्मचारी च गोध्नस्त्व शिष्टपुजित्ते । 

वेदानामभ्यय कोशस््वया यज्ञ प्ररहिप्त ॥१६० 

हव्यञ्च वेद वहति वेदोक्त हश्यवाहुन 1 

प्रीते त्वयि महादेव वय प्रीता भवामहे ॥१६१ 

भवानीशो नादिमान्‌ धामराशिगरह्या, 

लोशानान्त्व कर्ताच्वादिसमं } 

सार्य प्रकतिभ्य परम त्वा विदित्वा, 

क्षीणध्यानास्ते न मृत्यु विशन्ति १६२ 

योगेन व्वान्ध्यानिनो नित्पवुक्ता , 

जात्वा भोगान्‌ सन्त्यजन्ते पुनस्तान्‌ ! 

येऽन्ये मर्त्याष्त्वा प्रपन्ना विगुद्धास्ते, 

कर्भभिदिव्यभोगान्‌ भजन्ते ।\१६३ 

अप्रमेयस्य तत्स्य यया विद्य स्वशक्तित 1 

कौत क्व माहारम्यपवार परमास्मन । 

शिवो नो भव सवत्र योऽस्ति सोऽसि नमोऽम्तुते १६४ 

यह महेश्वर तप क्षौ पान, गुहू के गुह, नन्दन मौर नन्दिवधेन ह। हं 
पीप, धराङे घाता, विधाता तथा भूति कौ घन करने वाने ॥ १५५॥ ८ 
वोववरो वे योग्य, बोयन, नेता, पूरह, दुव्परम्प्क वट्दथ, भीमकम ब 
वाने, वृहुरत्तति मौर धनस्ग्य द| १५६॥ यद्‌ मदे्वर पष्टाप्निय ध्वन 
पद्षपारो पाह््वभिनो के स्वामी, वरदषधारो पट्‌्नणिधारण करो व 
शये हायमे पाश प्रदे क्ले वाते सौर परथ्वरमृत ह ॥ १५७॥ 


शाव स्त्रात |] [ ९६६ 


गम, अनघ, शुर, देवराज के णएत्रुमो को मदन क्रने वले) जापो प्रसन्न 
कर हमने युद्ध मे प्रहिते श्रुभोकोमारा था ॥ १५८॥१ भाप अग्निस्वन्प ह 
समस्त समृद्रो का पान करते हुए भो तृप्त नही होते है । मापक्रोव के षर, 
भरसत्त जारमा वेष, कानके नाशक तया कानकैः वदाव करने वलि श्रिय 
॥ १५६ ॥ आप ब्रहाण्य अर्थाद्‌ ब्र्णो कौ रक्षा करने वाते, ब्रह्मचारी, भ्रोमो 
का नियत्रण करने वाले तथा शिष्ट पुरपो के हारा पूजित ह । अप वेदो कै भव्यय- 
कोश ओर आपने यत्चक्गी क्त्यन कीदहै ॥ १६०॥ हप वेद का वहन 
कररता है सौर हृष्य वाहन वेदोक्त का वहन करता है। हे महादैव ॥ नापे 
प्रसत्त होने परर हुम सत्र प्रसन्न होत ह ॥ १६१ माप भवानी के स्वामी, 
भादिमान्‌ न हमै वाते, धामो के समूह्‌, लोको के ब्रह्मा, मादिनगं मौर भाष 
मरत्ताह। सास्य एास्त्रके ज्ञाता मापको प्रहृतियोसे पर जान कर क्षीण ध्पान 
षत्वे पुमे परवश नही करते है। १६२॥ ष्यान करने वति योगके दारा 
लापे नित युक्त होति हुए जानकर फिर उन समस्न मोगो का त्याग कर्‌ देते 
। जो मन्य भगुप्य आपकी णरणागतिमे जाने है वे विशुद्ध होकर क्मोते 
दिव्य भोगो का तेवन करिया करते है ।। १६३!) अभ्रमेय तेत्व को जेते भपनी 
पक्ति से जानते वमे हो परमात्मा अ.पक्रा जवार माहात्म्य का कीर्तन ङ्रिधा। 
भमापनोभरीको्ईहो वह्‌ हो, हमारे लिये स्त्र शिव होवे । बाप लिषे हमार 
नमप्कार्‌ दै ॥ १६४॥ 


॥ प्रकरणं २५-पधुकंटभ उप्पत्ति ॥ 
स॒पिवक्निवतौ दृष्ट्रा मधुपि्ञायतेक्षण 1 
भ्रदुश्वदनोऽत्यथ मभवच स्वकौत्तं नात्‌ ॥¶ 
उमापतिविरूपाक्षो दक्षयज्ञविनाशनः 1 
पिनाक्रौ वण्डपरशुभू तप्रान्तसिनोचन 1९ 
तत. स भगवान देवः भ्‌ त्वा वाक्छामूत तयोः 
जानघ्चपि महाभागः प्रीतपूर्वेमथाव्रवीत्‌ 11२ 
कौ भवन्तौ महात्मानौ परस्परहितपिणौ 1 
समेतावम्दुजाभ.क्षौ तस्मिन्‌ घोरे जलप्लवे 119 


= 1 गष 


ताव्‌ चनुरेदात्मानौ सच्धिरीक्ष्य परस्परम्‌ । 

भगवन्‌ किञ्च तथ्येन विज्ञातेन त्वया विभो} 

युत वा सुखमानन्त्यमिच्छचारमृते त्वया ॥‰ 
उवाच भगवान्‌ देवो मधुरश्वकष्णया मिरा 1 
भोभोहिरण्पगरभेत्वात्वा च ङ़ष्ण वदाम्यहम्‌ ॥18 
प्रीतोऽहमनया भवत्या शाश्वताक्षरयुक्तया । 
भवन्तौ माननीयो ठै नम ह्यहं तरावुमौ । 
युवाभ्या कि ददाम्यद्य वराणा वरमुत्तमम्‌ 1७ 


शी सूतजौने कहा--उन दनो को भली भाति पान करति हृएकी 
भाति देखद्र मधु पिद्ग एत्र आयन नेवो वाले महेश्पर मधे कीर्तन से मधयन्त 
श्रहुष्ट मुल विदहो गये ।} ?॥) उपाके स्वामी, विद्प नेघ्रो वाले, दक्ष प्रजा" 
पतिक यत्का विष्के करे वाते पिनाकषारी, छण्ड प्रण, श्रेत प्रान्त भोर 
तीन नेत्र वलि उत भगवान महादेव ने एन दोनो के वचनानून को सुनकर भिर 
महाभाग जानते हुए भी प्रोति के साय गोले) २-३॥। षस धोर जत के 
विध्व मे परस्पर बे हित ॐ चाहने काते महान यात्मा वाले भाप दोनो कोन 
है? भाप कमलके समाननेत्रो काते यहा हक्टठे हेते कौन है? ॥४॥ 
उनं दोनों महात्मामो ने परस्पर मे भलो माति देखर कहा--है भगवान! 
है विमो ! तथ्य को जानने वासे मापे दिना मनन्त सुख इच्ाचार कही 
रकता ॥५॥ भगवान्‌ देव मधुर ओर स्तिग्य वाणी से वोक्ते-द हिय 
गभं | हेदृष्ण। ओमापदोनोते कहताहे, म आपकी एसभक्ति सेप्रम्र 
होगयाहूजो करि शाण्वताशाररे युक्तै अच मापदोनोही मेरे परम मान 
नीय कीर यतियोग्यहोगयेद्। ओज दहन) प्रमन्रषटक्रि वरो मे अनिरष्ठ 
कयानुमदोनोंको वरदन दू ॥ £-७१) 

तैन वमृक्तं वचने ब्रह्माण विप्णुरव्रवीन्‌ । 

ग्रहि ग्रहि महामागं वरो यस्ते विवद्धितः (८ 

प्रजादामेोरस्म्यद्‌ विष्णो पुत्रमिच्छामि धूर्व॑हुम्‌ 1 

तनः स भगान्‌ म्रदा वरेप्मु वृ्रनिष्तया ॥द 


मुरटम उलि | ब २७१ 


अय व्िप्मुस्वाचेद प्रजक्में पजापत्तिम्‌ 1 
चौरमप्रतिम पृत यत्त्वमिन्छसि धृतरदम्‌ ॥९० 
पुरत्वेनाभियड कव त्व देवदेवं महेश्वरम्‌ १ 

स तम्य वाक्य सपूथ्य केषवस्य पितामहे 1११ 
ईशान घरद म्द्रममिवाच वृताञ्धलिः! 

उवाच पृमकामस्तु वाक्तरानि सह्‌ विप्णुना (1१२ 
यदि मे नमवाचु प्रीत. पु्रकामत्य नित्यशः 1 
पुत्रो मे भव विश्वान्‌ स्वतुरयो वापि धूर्वह. 4 
मान्य वरमह वग्रं प्रोत त्वयि महेश्वर १३ 
तस्य त्ता प्रार्थना ्रुप्वा भगवात्रू भगनेनहा । 
निन्करमपममायच् बाढमित्यत्र ्ीदच (१४ 


उनङ़े हारा म ्रकारमे कटने पर विष्णु मगवान्‌ ब्रह्माजी से षोत्ते-- 
ह महामाग 1 बोनो-चोलो जौ भो बर आग्को विवक्षितो ॥ख॥ ह्‌ विष्णो 1 
प्रभाक कामना स्तने वाता ह ्मेचुरी का वहन करने पाला वृत्र बाहूता 
ह । इममे पश्चातु तुत्रकी लिप्सा से चरकी चाहना रश्ने वस्ते वट्‌ मगवानु 
प्रहाजी बोस (| ८1 इनके सनन्तर प्रदा ङी इष्टा जति प्रजापति से भगवानु 
प्रष्णुने वह्‌ कदा~-क्रिगोलापर परम धीर नौर अनुपम पुरीषे ग्नम 
पाला पृच्र वह्तेहोत्तो माप देयो कै देव महेश्वर दोही प्ृष्त्वकेसूपमे 
पभिपुक्त करे । तव पित्तामहने नंशवे सथवाद्‌ क दम वचन का यादर्रिमा 
॥ १०-११ + हना्ललि होकर वर देने घान ईसान ष्ट कौ प्रयाम करके विष्णु 
मै प्तायहौ पुत्र दो कामना रने वाध ब्रछाती ये चात्रय वो्ते।॥ १२। यदि 
भप मञ्ज पर पूणंतया प्रसतर्है तो तप्य ही पुत्र कौ कामना रखने वेत्तेमेरे 
हे वरिम । यापर नुत होये भथा मयने टी ष्टण धुरी का बटन मरने 
यात्रापृत्रदा ! ग इर अतिरिक्त ज्रोरईदमी चदान नही चाह्ताह्ै। दहै 
महेर्वर्‌ { माप जव प्रप्र तो यरी घरदान मृ दर्वे। १२३ ॥ ब्रह्माजीकी 
€ णयना को सुनकर भगके नेतो का टनन करन वाते भगवानु मटशद्वर विना 
निसी करमय त्तदा माया कै "अच्छा यही होगा यह वचन चोल ॥ १४ 


मृछर्‌ 


1 [ गुपू 


यदा कार्थसमारम्मे कस्मिश्चित्तव मुत्त । 
अनिष्पसतौ च वार्यस्य तरोधस्ता समूपेष्यति ! 
आत्मैग्रादशये दद्रा प्रिटिता प्राण दह्नव ॥१५ 
सोऽदमेवादशात्मा वँ शूलदस्त सहानुग । 
प्रपिभ्मिप्रो मदात्मा वै तलाटाद्धतिता तदा ।1१६ 
प्रसादमतुलं दत्वा ब्रह्मणस्ताटृश पुरा + 

विष्णु पुनरवाचेद ददामि च वरन्तव ॥१७ 

स हौवाच महाभागो विध्युभवमिद वेच ! 
सर्वमेतत्‌ कूत देव परिवुष्टोऽसि मे यदि 1 

त्वयि मे सुप्रतिष्ठाऽस्तु भक्तिरम्बुदवाहून ॥।११ 
एवभृक्तस्ततो देवस्तेमभापत केशवम्‌ । 

विष्णो श्यृणु यथा देव प्रीतोऽट॒न्तव शाश्यत ॥१& 
प्रकग्नछाप्क्ाणचछ जद्कप् स्थावर यत्‌ 1 
विश्वरूपमिद स्वं शद्रनारायणात्मक ९ ॥*० 
अहमग्निभेव नू रोमो भवान्‌ रात्रिरह्‌ दिनम्‌ । 
भवावृतमह्‌ सत्य भवानु ऋतुरहं फलम्‌ ॥२१ 


हि सुत्रत 1 जग वुम्हारे किसी कायंकेममाम्भमे कायंक्तीसिदिन 


हने पर आपको फोध वावेगा तव लपने एकादश स्र जो प्राणोके हतु स्वल्प 
दने है वहम एकादश स्वस्पवला हायमे शून धारण कयि द्‌ अनुचरोके 
साच महात्मा ऋषि भित्र उस समय ललाटसे होगा ॥ १५-१२ ॥ उक समध 
ह्या के कपर इस प्रकार का अतुल प्रमाद करके फिर विष्णु भगवा ते य 
वोले--रभे आपको वरदान देता हं ॥ १७ ॥ तव महाभाग यहु विष्णु भव यर्थाद्‌ 
महेश्वर से यह्‌ वचन वोते-ह देव ¡ यह सब शियाग्याहै यदि मुज्ञ पदमपि 
ण्यन्त परितुष्ट एव प्रषश्च हं तो हे अम्बुद वाहन { मापमे परेरी सुप्रतिष्ठित मक्ति 


होवे ॥ 


१८ ॥ द्सके अनन्तर त प्रकार से कटै दए महादेवं ने केशवे से कहा-- 


है प्िप्णो । हे शाश्वत ! टेदेवे । अप्पसुनो मवाप सेष्डूत ही प्रतत प 


1 प्रकाण बोर अप्रकाश स्वावर गौर द्धम जौ यद्‌ विश्वक्ाल्य | 


मधुरंटम उत्पत्ति ] [ २७३ 


वहं सद दद्र मौर नारायण ङे स्वन्पवालाहीहै।, २० गर्म अननिहंचो माप 
सोमर बापरत्रिर्हैतोर्येदिनहूँ! अप्र च्छवङदोर्गे सत्यु, मावच्छनु 
हैगोर्मेफतहि ॥२१॥ 


भवान्‌ ज्ञानम्‌ ज्ञेय यज्जपित्वा सदा जनाः 

मां व्रिशन्ति त्वयि प्रीते जनाः मुकूतकारिण 1 

आवाभ्या सहिता चैव गतिर्नान्या युगक्षये ॥२२ 

मात्मानं प्रकतं विद्धि मा व्रिद्धि पुस्प शिवम्‌ । 

भव्रानदंशरीरमे त्वहन्नवे यथव च । २३ 

वामपाएवंमहम्मह्यः ष्याम श्रीवस्मलन्षणम्‌ । 

स्वश्च वामेतर परश्च त्वहं घै नीनतोदहित ॥२४ 

त्वशच्चमे हृदयं विप्मो तव चाह हृदि स्थित. । 

भयान सर्व॑स्य कायस्य कर्ताहुमधिरेवतम्‌ ॥२५ 

तदेदि स्वस्ति ते वतन गमिष्याम्यम्नुदम्रम । 

एवमुक्त्वा गतो विष्णोदेवोऽन्तरद्धानमीश्वरः 11२६ 

ततः सोऽन्तदिते देवे स्रहटम्तदा पूनः । 

मेत शयने भूप प्रविश्यानर्जले हरिः ॥२३ 

त प्यः पद्मगर्माभि पद्माक्ष. पद्यमम्मवः। 

सम्प्रहृष्टमना ब्रह्या भेजे ब्राह्म तदामनम्‌ 1५२ 

धापश्नान हतोर्मै ने अर्पन जानने वे योष्य वन्तु । जिषष्य जम 
करते सवदा मनुष्यो मृदरृठ भरने वाते अपे प्रमन्न हने पर मु्ये प्रवे 
त्रिाकरनेषै।हमदोरनोकै सदिति हौ गतिदहै मौरयुपङकेक्षपम अन्य कोर 
मीग्तिनदयोदहोतीहै + र२२॥ यरे अपत्ये प्रडृत्रि मघो नौर मूमः चिव 
को पृर्पजाननो। अआपमेर मयद्यनेर ह गौर दमो प्ररारव्रे जन्पभो 
मापाणरीरहू॥ २३) गवाम वाश्वं हं भोर मेरे निय ष्वाम श्रोवलवका 
मण 1 मौरयाय वपते इतर अर्यात्‌ दिति पादह मौर मै नोस सोहत 
ह५२४॥ दे विप्मो ! जपमेरेदुदयरै गोर वं आण्र्दुदयमेप्वितह। 
अादसम्ह्ठकर्योके्ताहमौर पै उनत्दका अपिदववटं॥ २५१दहे 


२७६ [ [ वादु-वुराष 


वत्स ! दे सम्बुद प्रम! सो अद यादय, आपका शत्याण हो, सदमे धना! 
श प्रजारसे श्र विप्यु ढे देव ईश्वर अन्तथनिहो यये ॥२६॥ एम 
पश्चान महादेव क अन्तित हो जाने पर बह मवान्‌ विष्णु फिर भस्यनत पर 
होकर भूष 1 हटि ने जतम अन्दर ध्वे दिया भौर मपनी शंपारे शयन 
कटे लते ॥२७॥ प्य केसमान नेत्र याते पद्यते गमुगपत्र, रहय 
मग वारे अत्यागी ने श्घगभं हा माना वाते उन द्राद्य अग्यत यस्स 
हिया ॥२न॥ 


मधूरटभ उसत्ति [ २७५ 


भ्र कणिक्रा घटन गति को नही जाना तो इमके उपरान्त उरे कमल नाल कै 
पररा रात्तल मँ भवतरण शरिया सौर वहां जल के भीतर ृष्णाजिन नै उत्तरा 
पद्ध वक्ति हरि का दर्शन द्विया ॥३२॥ वहा उन्होने उनको बताया भौर 
विशेष श्प वृद्ध होने वाले उनमे यह्‌ कह।- हे देव 1 मुभे भूनो घे भय होता है, 
भाप व्यि, मेरी रक्षाकीजिए्‌ भौर मेरा कल्याण करिये ॥ ३३॥ इसके 
पश्चातु भगवान्‌ विष्णु जो कि शवुभो के दमन करने वाते है, हान के सहित 
योतते-भाप को डरना नही चाहिए ओर डरो मत, यह वनन स्वप मुनिनेक्टे 
॥ ३४ ॥ इते पूवं आपने कहा था कि भून से मुपे महान्‌ भव हो स्हाहिसो 
भृषादि वाक्यो के वारा भाप उन दोनो दैह्यो का नाण कर देशे ॥ ३५॥ 


भृशं व स्वस्ततो देवं विविश्ुस्तमयोनिजम्‌ । 

ततः प्रदक्षिण कृत्वा तमेवःसीनमागतम्‌ ॥२६ 

गते त्मिततोऽनन्त उदुगीर्यं भ्रातरौ मुखात्‌ । 
विष्णु जिष्णु प्रोवाच ब्रह्ाणमभिरक्षनाम्‌ । 
मधुकंटभयोज्ञत्विा तयोरागमन पुन" 113७ 

चक्राते रूप सादेश्य विष्णोजिष्णोख्च सत्तमौ । 
कृतसाहष्यल्पौ तौ तावेवामिमुखौ स्यितौ ॥३८ 
ततस्तौ प्रोचनृहुत्यौ ब्रहू.माण दारुण वचः। 
अस्माकं गृध्यमानाना मध्ये वैप्रादिनिको भव 11 
ततस्तौ जलमाविश्य सस्तम्भ्याप. स्वमायया 1 
चक्रतुस्तुमृल युद्ध यस्य येनेप्ित्त तद। ॥४० 
तेषान्तु युभ्यमानाना दिव्य वपंशतङ्गतम्‌ । 

न च युद्धमदोत्तिको ह्यन्योन्य सन्यवर्तत ॥४१ 
लक्षणद्वयमस्थानाद्र.पवन्तौ स्थिते्जितौ 1 
साहए्यादुब्यादुलमना ब्रहु-मा व्यानमुकागमन्‌ १२ 


सफ अनन्तर ^भूमूवः स्व” ये उम अयोनिन देव के अन्दद प्रविष्ट 
हो गये । ईम पश्चातु उनने श्रदक्षिणा की सर उसी जासनपर पृनःना गवे 
ओर वं गधरे ॥ ३६१ दसके पृदचात्‌ उम मनन्तज्रे दौ भाई युव ते उदुगीण 


९७९ ॥ [ शपू वरणे 


होकर विष्णु मौर जिष्णु सनेव ब्रह्या को राकरो श्योकरि पुन. उन दोनी 
मधु जोर कंटम का आगमन जन चया था ॥ ३७॥ विष्ण मौर गिष्मू 
कै ष्पकौ पमानताउन दोनो नै बनाक्तीयौ भर्‌ साप खूप वाति होकर 
उनदोनोकेहौ सप्मनेमे स्थित से ग्वे ये ॥ ३८ ॥ दमक भनन्तरवे दोनों 
दसय ब्रह्माजी पे बोले ओर अस्य दारण वाय कहै करि हमारे गढ करने वानो 
के मध्यमे प्रयस्निर वन जाओ ।' ३६ ॥ इसके पष्चात्‌ वे दोनो जलमे अरिष्ट 
दोहर अग्नो माया से उन्होने जल को स्तम्मत कर दिया गौर फिर वहौँउन 
दोनो ने उस समय वुमन युद्ध जसा भी जिसने चाहा किया चा ॥1 ४० ॥ सनक 
वहाँ पढ क्ते इए दिव्य एकः सौ वपं व्यतीत हौ गये जौर अन्योन्प काप 
करने के पदी भिक्त को अभिमि कमनही हमा 0४११ सरक्षण द्य ने 
स्यान रूप वाने वे स्थित इद्धित वानेये। उन दोनो के समान सूपताते 
ध्याङ्गक मन वातत ब्रह्माजी ध्यानम स्विते ग्येये ॥ ४२५ 


स तयोरन्तर बुद्धा ब्रहु.मा दिव्येन चक्षुपा । 
पृदमकेमरजे मूष्षम व॒वेन्ध कवचन्तयोः । 
भआमेखलस्व गात्रज्वे ततो मनन मुदाहरत्‌ 11४३ 
जपतेस्त्वभवल्वन्या विण्वष्पसपुस्िता 1 

पे न्दुवदनपरट्या प्रहस्तो युमा इती 1 

तादृ चितौ दस्यौ भयाद्रणंविवज्मितौ ॥४४ 
तेत प्रोवाच ता कन्या ब्रहम मधुग्मागिय। 
कः$त्र स्वमवगन्तन्धा ब्रहि सत्यमनिन्दिते (॥*५ 
पनाप्ना सपृज्य साकन्या ब्रह माण प्राञ्जनिस्तदा। 
मादिनी विद्धि मा साया विष्णो सन्देशश्ारिणोम्‌ ॥*६ 
प्वया सद्भीच्यमानाःह्‌ द्र मने प्राप्ता ्वरायुना । 
अस्याः परीदमना प्रमा गोण तराम चकार द्‌ ॥9५ 
मया च व्याहृता यस्माच्च व गमुपस्यिना । 
महय्याटूत्िरि्येय नाम ठे विचरिष्यति ४८ 
अरभ्वत्त ज प्यते भित्वा पा तेते कोषे + 


मधुक्ैटम उत्पत्ति ] [ २७४ 


एक्ानशातत्‌ यस्माच्वमनेकाथा भविप्यसि 1४६ 

तव ब्रह्ाजी ने उन दोनो ज्ञा यन्तर समक्चकरउनदोनोके पद्यदेणर 
से उन्पत मूष््म कवच वंध दरिया था । मेला गौर गात्र ठक इपर १२्चातु 
मन्त्र क्रा उच्चारण क्रिया ॥ ४३ ॥ इसके मनन्तर जप क्रते दए उनके विश्व 
षत्पसे समुर्थिन एक क्याहु्ईजो कि प्द्यहाथमेग्रटणक्यिहृएु गौर सख्त 
तपापृद् एव चदद्रक समान मुव वा्लीयधौ। वे दोनो दैत्य उये दण्वकर ब्रन 
ही ध्यथित तया भये से वणं दिवित टो यय १ ४४॥ इम्के अनन्तर व्रहुमजी 
न मधर्‌ वाणीस्षेउवृक्ग्यासे क्हा-हे अन्ते | मापकौनरहै? ओरर्मे 
भापको क्या सनत्‌ ? मप सत्य-मत्य मृक्े धरतलाने कौ दृप्ा वररे ॥। ४५॥ 
तव उष क्न्याने साम्वेदमे ददा की पत्रा करङे भौर प्राञ्जलि टो, र क्टा-- 
मृक्षो अपप विष्ण मगवानू की सन्देश का पालन करने वाली मोहि समन्त 
लीजिए ॥ ४६॥ ३ हद्‌ 1 आशे दाया मोत्वंमान हठी हृं म यटा बटू 
ही शोघ्रतासे प्राह टटंहं । तवर प्रसन्न मन वति द्रह्याजीने इनि गोण नाम 
क्रिया ।| ४७ ॥ वयोक्रि जाप मेरे दवारा व्याहत हृद है मौर मव यहा उप्त 
हो गर्ह इसत्िवद मे माप्क्ा नाम मदाव्याटूमि ससार मे प्रचतित्त हो 
जाया ॥ ४८ 4 वट्‌ जिर क्रा मेवन करकं उत्त हुई थो इननिवे वह्‌ सवित्री 
द्सनामसेभीक्टी जाती दहै । वयोक्गिव्विनाभग वारी एक है इसलिये बनेक 
मणवालीभौह्ोर्जांपरो ॥ ४६॥1 


गौणानि तावदेतानि कर्मजान्यपराणि च। 
नामानि ते भविष्यन्ति मत्परसादान्‌ शुभानने ॥५० 
ततस्तौ पीञ्यमानोौ तु चरमेनमयाचताम्‌ । 
अनादृत नौ मरण पुत्रवच भवेत्तव ।५१ 
तथयेच्युक्त्वा नतस्तूणंमनयद्यमघ्रादनम्‌ ॥ 

जनयन्‌ कँटम तिष्गूजिष्गुश्वाप्यनयनमयुम्‌ 1५२ 
एवन्नौ निदततौ दत्यो विष्णुना जिष्णूना सह्‌ । 
प्रीतेन प्रहु.मणा चाय लोकाना हितकाम्यया 14५३ 
मूत्रत्वमीड्ेन यया ह्यात्मा दत्तो निबोधत । 


मयुकटम उत्पत्ति ] [ २५६ 


प्रजाः सष्टुमनास्तेपे तप उग्र ततो महृत्‌ ॥६० 

तस्यै बन्तप्यमानस्य न शिच्ित्समवत्तत ॥ 

ततो दीर्ण कातेन दुखान्‌ क्रोधो व्यवद्धत ॥६१ 

सक्रोधा विष्टनेत्राभ्यामपतन्चशर्‌ विन्दुवः 1 

ततस्तेभ्योऽश्र विन्दुभ्यो वातपित्तकफात्मकाः ।॥६९२ 

माहूभागा महासच्ाः स्वस्तिके रभ्यलड कृताः । 

प्रकोर्णकेणाः सप्ति प्रादुभू ता माहु'विपाः ॥६२ 

है गोविन्द } हे लमिवर्धन । आपका कल्याण हो, अ।पने समुद्र का 
छेपकर दिया दै, अव मुञ्े कतलादये कि बरुञ्े क्या करना चाहिए ॥ ५७११ 
विष्णु ने कहा--अच्छा, है पद्मयोनि } हे हेमाभ ! आपृ अव मेरा वचन श्रवण 
करोक्रि आपने मदष्वर से पृत्र की कामनासे बेरदान प्राप्त करने का प्रसाद 
लामक्रियाथा॥ ५८ ॥ अत्र भप मुक्चसे बनृणहो गये हं ओर उष वरदान 
को सपरन यनाय । जाप अद चार प्रकारके श्राणियो का सूजन करे भयथा 
विशेष ल्प से सृजन करने का कायं करे ।॥ ५९॥ इम प्रकार ति पद्मथौनि 
पित्तामह ने गोविन्द से सज्ञा प्रात करके प्रजा के सूजन करते कै मन बले होकर 
फिर वहाँ महानु उग्र तपश्चर्या करने का आरम्भकरदियायथा ॥६०॥ जब 
इस तरह्‌से ब्रह्माजी बहुत समय तक तपक्ररते रहै भोर कुछभो उसष् फन 
नही हुमा त्तो फिर उनको महावर दुख उत्पन्न हुभा भौर उप्त दुख देक्रोधव्ड 
गयाथा॥ ६१ । जव ब्रह्माजी के नेव्रक्रोधसे पूणंतयाजाविषश्टहोगयेतो 
फिर उनसे आंसुभो की बदे निकल पडी घी । तव फिर उन भधर, चिन्दरमोते 
वात, पित्त गीर कफ के स्वरूप वाते महाभाग, महान्‌ सत्त्व, स्वत्तिको से घस 
हृत होते हुए महान्‌ विष वाते तथा फले हृए केशौ वाते सपं प्रादुभरुत्तहो णये 
ये ॥ ६२.६३ ॥ 

सपस्तिथाग्रजानू हृष्टा ब्रह्यात्मानमनिन्दत । 

अहो धिक्‌ तपस्ता मह्य फलमीटहशक यदि । 

चोफवैनाशिकी जज्ञे आदावेव प्रजा मम {1६४ 

तस्य तीत्राभवन्मूरज्छा क्रोधामपंसमुद्भवा । 


२७८ 1 [ षायु वृण 


विष्णुना जिष्णुना साद मद्ुकेटभयोस्तथा 1 

सम्पराये व्यतिक्रान्ते ब्रह्मा विप्णुममापत ॥{8 

अद्य वपंशत पूणं समयः प्रत्युपस्थितः । 

सक्षेपसम्लवद्धोरं स्वस्थान याभि चाप्यहम्‌ ॥५५ 

स तस्य वचसा देव. सटारम्करोत्तदा । 

मही निस्थावरा कृत्वा प्रकृतिस्भश्च जद्धमानर्‌ ॥*५६ 

येअप्करे गौणनाम है ओर दूमरे कमो से उदयन्न होने वालतिभी नाम 
हेति ह+ हि णुभानने । मेरे प्रसाद से इस प्रकार आपके बहुतहेनाम हगि 
॥ ५० ॥ इसके अनन्तर पीडित होते हृए्‌ उन दोनो ने यह वरदान मांगा हम 
दोनोकामरण अनवृतहो भोर याप्रका पत्रत्व होत्रे 0 ५१॥। इसके अनन्ठर 
देष्ठाहीहो, ण्ह कहकर हित की कामनासे शीघ्र ही यमालयको प्राप्त कर 
दिपा विष्णु कंटभ को ओर भिष्ु मघुकोलेगये।, ५२ ॥ दष प्रक्रमे 
विष्णु भीर जिष्णू के हाय वे दोनो दैत्य मारे गये ये । हव प्रत ब्रह्ानी ने 
लोोके हितकी कामना यह्‌ स्मे किया था ॥ ५३॥ अव जिस तरह मे 
वपने आपको पदरष्वके ख्पमे ईश ने दिया धा वह्‌ षमञ्च लो । तव बण्यु भौर 
जिष्णू के सराययुद्धमे मधु भौरकंटम के व्यतिक्रान्त हो जाने पर ब्रह्मी ने 
विष्णु से कदा--॥ ५४॥ भाजसौवः 4 पूरा समय समा्हो यया ईभौर 
अवरम भी पक्षेप तथा सप्नव से घोर (द्यने स्यान को जातत ह ॥ ५५॥ उसके 
स वचनसे देव ने तव सहार कर माया या। इस भूमि कौ बिना स्थावर 
वाली तया जद्धमो को प्रकृति मे स्थि ५ दिया था॥५६॥ 

यदि गोविन्द भद्रन्ते क्षिप्तस्ते प्यादसा पति । 

ब्रहि यत्‌ करणीयं स्यान्मया ते लष्िमि वददंन ॥५७ 

वाढ श्यृणु स्य हेमाभ पद्मयोने वचो मम । 

प्रसादो यस्त्वया लन्ध ईश्वरात्‌ पृत्रलिप्सया ॥५ 

तन्तया सफल इत्वा मत्तोऽमृदनृणो भवान्‌ । 

चतुविघानि भूतानि सृज त्व विमूजस्व वा ॥५८ 

अवाप्य सन्ञाद्रोविन्दात्‌ पद्मयोनिः पित्तामहः 1 


मघुकटभ उत्पत्ति ] [ २७६ 


प्रजा. ष्टुमनास्तेषे तप उग्र ततो मदत्‌ (१६० 

तस्ये वन्तप्यमानस्य न क्िख्ित्समवत्तेत्त 1 

ततौ दीर्घेण कालेन दु खात्‌ क्रोधो व्यवद्धत ६१ 

सक्रोधा विष्टनेत्राभ्यामापतन्नश्च्‌ विन्दुव 

ततस्तेभ्पोऽधरचिन्दुभ्यो वातवित्तकफास्मकाः 1६२ 

महाभागा महासत्वाः स्वस्तिकं रभ्यलड कृताः । 

भकी्णेकेशाः सर्पास्तिप्रादुभूता महुःत्निषाः ॥द२ 

ह गोविन्द ] हे सदिमव्घन । आपका कल्याण हो, भाषे खमृद्र का 
धिप कर दियादहै, अव मुञ्ञे वतलादये कि मुसते कपा करना चाहिए ॥ ५७॥ 
विष्णु ने कहा--भच्छा, हे पद्मयोनि ! हि दैमाभ ! माप बव मेरा वचन श्रवण 
करो करि आपने मरेष्ठर से पुर कौ कामना से वरदान प्राप्त करने का प्रसाद 
लामकियाया॥ ४८ ॥ अव्र आप मुक्ते अनृणहो गये ह मौर उस वरदान 
को सफल वनाशय । माप अव नार प्रकारके प्राणियो का सूजन करं अथवा 
विश्चेप हप से सूजन करने का कायं करें ॥ ५९1 इम प्रकार ते पद्मपोनिं 
पितामहे ने गोविष्दसे सज्ञा प्राप्तं करफे प्रजाके सृजन करनेके मन लि होकर 
फिर बहां महानु उग्र तपस्चरया करने का आरम्भ कर दियाथा ॥ ६० ॥ जब 
शस तरह से ब्रह्माजी बहुत समय तक तप कर्ते रह भौर कुछ भी उत्श् फल 
नही हा तो फिर उनको महानु दुख उन्न हमा भौरउस दुख पे क्रोषबढ 
गयाथा॥ ६१ । जव ब्रह्माजी के नेत्र क्रोधसे पूर्णतया मार्विशटहोग्येतो 
फिर उनसे बरंसुमो की बद निकल पडी धी । तव फिर उन जभ्र, बिन्टुमोसे 
वात पित्त बौर कफके स्वरूप्र वाते महाभाग, महान्‌ सत्त्व, स्वस्तिको से भ्न 
कृत होते हुए महान्‌ विप वाले तथा फले हए केशो वालि सपं प्रद्रुतो गये 
ये ॥ ६२.६३ ॥ 

सर्पस्तियाग्रजान्‌ दृटा ब्रह्मात्मानमनिन्दत । 

महौ धिक्‌ तपसा मह्य फलमीदटशक यदि । 

लोकवैनाशिकी जज्ञे आदावेव प्रजा मम ।1६४ 

तस्य तीव्राभवेन्मूर्ज्छा कोक्षामर्पसमुद्भवा 1 


५. 4 1 == 


मूरु्छाभित।पिन नदा जहौ प्राणान्‌ प्रजापति ॥६५ 
तस्याप्रतिमवीरयेस्य देदान्‌ वार्प्यपूर्वकम्‌ । 
भत्मैकादशते ष्ट्रा प्रोदुभूना स्दतस्तया 1 
रोदनान्‌ पलु सद्रास्ते स्वत तेन तेषु तन्‌ ॥६६ 
यष्टा पलुते प्राणा ये प्राणास्ते तदात्मकः. । 
प्राणाः प्राणभृता जेयाः सर्ेभूनेप्ववस्िताः ॥६७ 
अस्युग्रस्य महत्त्वस्य साधुना चरितस्य च। 

तस्य प्राणान्‌ ददौ भूय्िगूतो नीललोहितः। 
ललाटात्‌ पद्मयोनिस्तु प्रभूरकादशातम ह. ॥६८ 
ब्रह्मण सोऽददात्‌ प्राणानात्मजः स तदा प्रभु । 
प्रहृष्टवदनो रद्र शिचितु प्रत्यागतास्तवम्‌ । 
अभ्यभापत्तदा देवो ब्रह्माण परम वच ॥1६यै 
उपयाचस्व मा ब्रह्म स्मत्तु मंसि चात्मन 1 
माच वेप्यात्मज सद्र प्रपनाद कुर मे प्रमो ॥८० 


ब्रह्मज ने से व उतपश्न होते वाने उन सपो को देवकर अपने 

मापको ब्रूत कुद बुरा समक्ञाया, अहो । दपमेरेतपको धिक्कार दै॥ यद 
मुने एसा उक्षका पल मिलाह किमेते सबसे पूवं यह लोके विनाश क्से 
साली प्रनाही मादिने उघन्नकयो है ॥६४॥ उक्त समय ब्रह्माजौ को बहून दी 
तीत्रमूष्ाहो गई जोकि कोष मौर जमपे हौ पदा हृहयी। ठव प्रगापति 
ने उस मूर्खाके मभितापसे मपने प्राणोका परित्यागकर दिथाथा ॥।६५॥ 
उनके उत बप्रनिम वीय वाभे के देह घे करणा के साय एङ्ादश दद्र दन कसते 
हए उप्पन्च दुषु ! कपोकि वे रोदन कर रटे ये इसलिये ही उनम स्त्व के माम 
की प्रपिद्धिहृईयो ५६९५ जोद्धह वेप्राषरहैमौरजो प्राग है वे तदाह 
है । समस्त भूतो मे अवस्थित प्राणवारियो कै उम्हे प्राण समज्ञना चादिए ॥६५॥ 
घत्यम्त उग्र महव आर साधु से चरित उक्षके प्राणो को नीललोहित धरिदत 
ने पिरदे दियाय( जोकि प््योनि ब्रह्धाजौ के ललाट से एकादथात्मक श्र 
रेचल्यघ्र टरणये ५६८ उस अबह्मजप्रभ नेब्रह्याजोको प्राणोको दिषाया। 


सथुकटम उत्पत्ति ! { रेष 


रीर कडा--दे प्रभो { माप मूज्ञको मपना मानन खद्रसमञने भोर मुक्त पष 
वन्तता करे ।॥७०॥ 


श्रत्वा स्विदं वचस्तस्य प्रभूतच मनोगतम्‌ 1 

पितामहः प्रसन्नात्मा नेत्रे पुद्छाम्बुजप्रभैः ।७१ 

त्तः प्रत्यागतप्राणः स्तिग्धगम्भीरया मिरा। 

उवाच भगवान्‌ ब्रह्या शुद्धजाम्बूनदभभः {।अ२्‌ 

भोभो वद महाभाग आनन्दयसिमे मनः! 

को भवान विश्वभूततिस्त्वे स्थित एकादशात्मकः ७३ 

एवमुक्तो भगवता व्रह्मणाऽनन्ततेजसा 1 

त्त. प्रत्यवददुद्रो ह्यभि वायात्मजै. सह्‌ ॥७४ 

यत्ते वर महु ब्रह्मन्‌ साचितो विष्णुना सह्‌ 1 

पुच्रोमे भव देवेति त्वततूत्यो वापि धूर्वहः ॥७५ 

लोकेषु विर तैः कायं सर्वीविश्धा्मसम्मवेः 1 

विपादन्त्यजं देवेश लोकास्तवं सष्टुमर्हुसि (७६ 

एवं स॒ भगवानुक्तो ब्रह्या प्रीतमनाभवत्‌ । 

रुद्र प्रर्यधददुमूयो लोकान्ते नीललोहितम्‌ ॥।७७ 

प्रदाजीने दसं परम सुन्दर दचन को पुनकर सिसे किमने वे ष्वाह्ते 
ही ये, पितामह कौ धत ही प्रसप्नता हुई भौर उनके नैर विकसित कमर्लो फे 
श्षमान हो णये भे ।*७१।॥ सके गनन्वर प्रत्यापत प्राणो यांति भरयवाम्‌ ब्रह्मा 
विगुद्ध सुवणं कौ कान्ति के समान कान्ति घाते होकर घत्व स्निग्ध मोद 
शम्मोर्‌ वाणी से दोन 1७२४ हि महामा ! याप मेरेमनक्यो बहुत ही गाने. 
न्दिति कर रहे 1 घाप अव सस्ते वतलाद्ये कि एवादत्त स्वस्प वाते विश्वको 
भूति स्वष्प भाप कौन हं ?।७३॥ दरस प्रकार से मगयानु ्रह्याके द्वाराकटै 
ग्येजोकि प्रह्याभे जनन्त तेज से उष समय गुक्तये, भगवान षर ने अपने 
घारमजौं के राव ग्रह्याखौ को प्रणाम करके उत्तर दिया पा ॥७४॥ हे ब्रवु ! 
भाषने भगवत विष्णु ब साप मृक्मे जो धरदानमायाया कि यापर स्पयंया 
भापषेष्ो तुत्य धुते बहन करने दाला मेरा पुत्र होवे ॥५७५॥ हे देबेल { 


२५२ 1 [ वु पृचं 


खाप लोको मे समस्त विश्वातम सम्मव एव विधू के द्वारा जौ काय लोकौद्‌ 
सूजन का करना चाहते ह उसे अब विपादकौत्याग कर करं ॥५६॥ दत धं 
से कटै इए ब्रह्मी के मन को वड प्रसन्नता हुई बौर फिर भगवान ब्रह 
लोकात मे नील लोहित श्र से कटने लगे ॥७७॥ 


साहाय्य मम कार्ली्थं पजा सृज मया सह्‌ । 

यीजी ९व स्ंभरूताना त्प्रपन्नस्तथा भव । 

वाढमित्येव ता वाणी प्रतिजग्राह शद्भुर ॥७८ 

तत्त स भगवान्‌ ब्रह्मा कृष्णाजिनविभपित 1 

मनोऽ सोऽसृजद्‌ वौ भूताना धारणा तत ॥ 

जिह्वा सरस्वतीं क ततस्ता विश्वरूपिणीम्‌ ७5 

भृगुमङ्जिरस दक्ष पुलस्त्य पुलह कतुम्‌ । 

वर्षिष्ठर्च महतिजा ससृजे सप्त मानसान्‌ ॥८० 

पुनानाप्मसमानन्यानु सोऽनृजद्विश्वसम्भवानद्‌ ! 

तेपा भूयोऽनुमा्गेण गावो वक्नाद्विजज्ञिरे ॥।८९ 

ओद्धारप्रमुखानू वेदानभिमान्याश्च देवता । 

एवमेतान्‌ यथोक्तान्‌ ब्रह्मा लोकपितामह ॥५२ 

दक्षाद्यान्‌ मानसान्‌ पुरान्‌ प्रोवाच भगवानु प्रभु 

प्रजा मूजत भद्रवो खद्रण सह्‌ धीमता = 

अनुगम्य महात्मान प्रजाना पतयस्तदा ! 

वयमिम्छामहे देव प्रजा सष्टु त्वया सह्‌ 1 

व्रहमणस्त्वेप सन्देशस्तव चैव महेश्वर ॥ ८४ 

साप घ मेरो सहाया वरे मौर मेरे साये रहकर मेरेायंके तिप 
प्रभाम सूजन करो! याप समस्त प्राणियोषो वोज । यवय शाप उती १ 
नं प्रपद्नहो जाथे । तव तो हुत अच्छा, एषा दी होगा^--षल प्रषारणे भग 
यानु शद्धरने प्रहमाज की य वाणी को ग्रहणक तियाथा ७८५ द 
धन्‌-तर ब्रह्माजी ने जो दि टप्णाजिनं से दिभूपिन ये, सयते भागे मनां गू 
स्थि पिरदेवने प्राचिया को धार्या कष मजने विमा । इषवे उप्ररात वि 


मधुरकटम उत्पत्ति |] [ र्म 


रूपिणी जिह्वा तथा सरस्वती की सृष्टि को थो ॥७६॥ इमके अनन्तर भगु 
बद्िग, दक्ष पुनर्य, पुलह, फु, वसि इन सात मनस पुरो को महार तेज 
वाले ब्रह्याजौ ने उत्पन्न किया ॥८०॥ फिर उनने अपन ही तुल्य अय विश्व 
सम्भव पुरो का भजनक्िा किर उनके घनुमाय मेमुखसे गोञाग्रौ जन्म 
दिया ॥८१॥ लोको कै पितामह ब्रह्माजी ने बाद्धार की प्रमुखता वातरेवेदोक्षो 
तथा यनम देवतामा को मौर दरस प्रकार स यधाप्रोक्त इन सवको उत्तप्त न्या । 
1८२॥ ग्गवान्‌ प्रमु न हन सृजन किए हए दष भादि मानष पृषो तेक्हा- 
जाप सव धीमान्‌ रुद मे सायप्रनाका सून करो । माप्का क्त्याण होगा ॥ 
॥८३॥ तव उम समय प्रजाओ के पर्ति सब मटानू आत्मा वाले के पारा जाकर 
प्च भौर कटाह देव | हम सव पक्त साय प्रनाका सूजन करनेकी दण्डा 
क्रते! हि महेश्वर ! वद्‌ द्रद्याजी का तथा बापरा सदेश दै।१८४॥ 

तैरेवमुक्तो भगवान्‌ रुद प्रोवाच तान्‌ प्रभु । 

ब्रह्मणश्नात्मजा मह्य प्राणानू गृह्य च गे सुखा ॥८५ 

कृत्व।ग्रजाप्रजानेतान्‌ ब्राह्मणानात्मजान्मम 1 

ब्रह्मारिस्तम्बपयन्तावर्‌ सप्तलोकान्ममात्मकान्‌ 1 

भवन्त स्प्टुमर्हन्ति वचनान्मम स्वस्ति व ॥८६ 

तेनेवमुक्ता श्रस्व सद्रमाचन्निशूलिनम्‌ । 

यथाज्ञापयत्ते देव तया तद्व॑ भविप्यति ॥न७ 

सनुमान्थ महादेव प्रजाना पतयस्तदा । 

ऊगृरदक्ष महाद्मान भयान्‌ श्रो प्रजापति । 

त्वा पुरस्छृत्य भद्रन्ते प्रजा स्रक्ष्यामहे वयम्‌ ॥= 

एवमस्िविति वं दक्ष प्रत्यपद्यत भाषितम्‌ । 

ते सह चरट्‌ मारेमे प्रजाकाम प्रजापति । 

मगस्यिने तत्त स्याणौ ब्रह्मा समंमयालरूजवु ॥=प 

मयास्य सत्तमेऽनोते कत्पे नै सम्वमूवतु । 

शमु सनलनुमार्च तपो लोकनिवासिनौ 1 

ततो मटरपीनिन्यान्रु घ मानसानसरूनव प्रमु ॥६० 


२९४ | [ वधु पराण 


उनके हारा इस श्रवकारस कटै जाने र मगवान्‌ रदे उने क्हा-- 
श्राप सव देवता ब्रह्माजी क पृत्हो सो तुम सव मेरे लिये भ्रारणो कौ ग्रहण करो। 
मेरे घाप्मज धागे जन्म तने वाले न उग्र ब्राहार्णोवौ पिनि षरे मेर 
स्वरूप बाति ब्रह्ादि छे स्तम्ब पयन्त सात सोके को आप्‌ नोग्रमृषटि केलेके 
मोण्य होते ह । मेरे इस वचन से आपका वल्याण होगा ॥८५।।८६॥ एस तर 
रद्रकेद्वार कटै गये उन्होने आथ प्रिशूली शते कहा-देदेव) भंरीमी 
अपु अश्ना प्रदान करते ह वह खव क्या जायगा ॥८७।। ठव समस्त प्रग 
पतिथों ने महादेव का सम्मान करके महामा दक्षमे कहा कि आप एवमे धरम 
श्रेष्ट प्रापि ह । हम सव जापको ही भागे करके प्रजा का सूजन कर । 
सापका मद्र हो (८ तद दक्ष प्रजापति ने कहा--रेषा ही होगा भीर्‌ प्रजा 
की कामना वलि दक्षते उन सङ साय सृष्टि केक काम का भारम कर 
दिा। सग कै स्थित होने वाति स्थाणु मे किर व्रह्माजौ ने सगे का सूजन सिया 
था ॥६६॥ इसके अन.्ठर सप्तम कल्प के अतोत हौ नानि पर तपोनोक के 
निवास करने वाते मु बौर सनककुमार उ्वतत दए । फिर दके पचाद्‌ भ्र 
ने जन्य मानस महपियो का सृजन किया था ॥६०॥ 

॥ प्रकणं २६---स्वरोत्पत्ति वर्णेन ।॥ 

अहो विस्मयनीभ्रानि रहस्यानि महागते ॥ 

स्वयोक्तानि यथातत्त्वं लोकानुग्रहकारणाव्‌ ५१ 

तेत व सशयो यद्मवतता (वा) रेयु गूलिनः। 

क कारण महादेव कलि प्राप्य गुदारुणष्‌ } 

हिस्वा युगानि पूर्वाणि भवत्तार करेति वे ॥२ 

अस्मिन्यन्व-तरे चैव प्राक्त वैवस्वते प्रभो} 

गवतार केपन्चके एतदिच्छामि वेदितुम्‌ ॥३ 

न तेऽ्स््यविदित च्ििल्चिदिहु लोके परव चेष 

भक्तानामूपदेशायं विनपावु पृच्छतो मम । 

काय स्व महाप्राज्ञ यदि श्चाव्य पराग्‌ ।४ 

एव पृषटोऽ्य भगवानु वायुर्लोकदटिते रत. । 


२५८६ |] [ वाणुपराग 


तस्य चिन्तयमानस्य प्रादुभ्र तं तदक्षरम्‌ 1 
अशब्दस्पशेखूपञ्व रसगन्धविवन्ितम्‌ ॥११ 
अथोत्तम स लोकेषु स्वमूतिङ्वापि परयति । 
ध्यायन्वे स तदा देवमथेनं पश्यते पुन. ॥१२ 
तं एवेतमयं रक्तञ्च पीत कृष्ण तदा पून । 
वर्णस्य तन पष्येत नख्ीन चन पुंसकम्‌ ॥१३ 
तत्सर्वं सुचिर जञात्वा चिन्तयन हि तदक्षरम्‌ । 
तस्य चिन्तयमानस्य कण्ठादुत्तिष्ठतेऽक्षर १४ 


दस तरह चिन्ता मे मग्न रहते हृए्‌ उसके कुमार प्र्भरुत इए जौङ्गि 
दिम्य गम्ध वाति ओर सुापेशषी थे तथा दिव्य शचति का उन्वारण कर रहे ये ॥ 
॥८॥ चतुमूल देव ने शन्दस्पशं ओर च्य से रहितं अन्त वाली तथा गनयहीन 
एव रस वजित शर.ति का उच्चारण करते हृषु लाम किया या॥६॥ दग 
पृर्वातर्‌ ध्यान मे सयुक्त होकर भरद तषश्च मे भयित होकर मन से पोचने 
लगे कि यह्‌ श्रितय कौन है ॥१०)1 उनके चिन्तन करते हुए शब्द स्पशं पसे 
रहित तथा रस ओर गन्धत्ते वजित वहु भगक्षरप्ादुभूत हभ ॥११॥ पके 
अनन्तर उने लोको मे गनी मृति को देखा । तथ देव का ध्यान करते हृए 
पूनः इम देवको हौ देला ।॥१२॥ परते वेत फिर रक्त-पीत तथा शृष्ण व्ण 
मे स्थन उको वह देवा, न तो वहां कोरईस्ती थौ मौरन कोई पुष्प ही था। 
11१३॥ उम सवका ठटृत समय तक घ्यान करके भौर उम भक्षर का विन्दन 
केरे हए उ चिन्तन करने वाचिके कण्ठे बक्षर उत्ता है ॥१४॥ 


एकमात्रो महाघोप श्वेतवर्णे. सुनिर्मल । 

स ओकारो भवेद्रेदः अक्षरयै मटेश्वरः 11११ 
ततश्चिन्तयमानस्य व्वक्षर वै स्वयम्मुवः। 
प्रादुमूतन्तु रक्तन्तु स देवः प्रथम स्मृतः ॥१६ 
ऋग्वेदं प्रय्मं तस्य त्वभ्निमीते पुरोदितम्‌ 1 
एता दृटा छच ब्रह्मा चिन्तयामास व पुनः । 
तदशरं महुतेजा. क्न्मिकदिति लोगदद्‌ ॥१७ 


{ स्वरोस्ति वर्णन ] 


तस्य चिन्तथमानस्य तस्मिन्नथ महेश्वरः । 

द्विमानमक्ञरं जज्ञे ईशित्वेन द्विमात्रिकम्‌ ।1१द 

ततः पुनद्धिमाच' तु चिन्तयामास चाक्लरमु । 

प्रादुभ्रत च रक्तः तच्चेदने गृह्य खा यजुः 1 

इपे त्वोज्जेत्वा वायवस्य देवो वः सनिता पुनः। 

छम्वेद एकमानस्तु द्विमात्रन्तु यजुः स्मृतम्‌ ॥२० 

ततो वेदं द्विमान तु दृटा चैव तदक्षरम्‌ । 

द्विमात्रं चिन्तयन्‌ ब्रह्मा त्वक्षरं पुनरीश्वरः ॥२१ 

एकमाश्र-महा्घोप-एव्रैत वणं वाला ठया सृनिमंल बह बोद्धार अक्षर 
सौ महादेव ने वेद समना या ।१५॥ उतत अक्षर का चिन्तन करने तत्त स्वयम्भू 
के रक्त धरादुभरत इमा मौर वह्‌ प्रथम देव कहा गया है 1१६॥ उक प्रथ 
छमवेद षौ "“अभनिमीते पुरोहितम्‌'” इस च्छच कौ ब्रह्माजी ने देखा भौर फिर 
चिन्तन मे लग गये, भहानु तेज वाले तया लोको के वर्ताने विचारक्रियाकि 
प्रह मक्षर क्या ?।।१७॥ इष प्रकार से उसके चिन्तन करते हुए महैए्वर ने 
उसमे दग्समे दोमात्रा वाता द्िमा्त मक्षर उत्पन्न किया ॥१८॥ इसके 
परवा फिर द्विमान बक्तर का चिन्तन करिया । फिर उसके छेदन मे रक्त वर्णं 
याला यजुः प्रादु हृपरा ।॥११६॥ जिरकी श्रस्वा यह दै--“दपे त्वोर्जत्वा वाय 
षर्देवो वेः सविता पुन. । ऋग्वेद तो एकमात्र है भौर यजु दिमा्रक्टा 
प्या है ॥२०॥ ईसङे प्रश्चात वेद को द्िमा्र देखकर एर श्वर प्रह्या उस 
सशर को द्विमात्र चिन्तन करने मे सलम्नहो येये ॥२१॥ 


तस्य चिन्तयमानस्य चोद्धारः सम्बभूव ह्‌ । 
तनस्तदक्षर ब्रह्मा ओद्धुार समचिन्तयत्‌ ।।२र्‌ 
मयापष्यत्ततः पोतामृचं चेव समूतियताम्‌ । 
जम्न आयाहि वौत्तये गृणानो हुन्यदातये ॥२३ 
ततस्तु स मटातेजा दृष्टा वेदानुपस्वितान्‌ । 
चिन्तयित्वा च भगवाद्धिवन्ध्य यदिररक्षरम्‌ । 
धिव यत्‌ व्रियत्रणमोदु7र ब्रह्मसज्तितम्‌ २४ 


पय { { बापु पुर 


ततश्च व त्रिसयोगाद्‌ त्रिवर्ण तु तदक्षरम्‌ 

लक्ष्ानक्षयप्रहश्य च सहित निदिव त्रिकम्‌ ॥२४९ 

विमानन तिपद चैव व्रिपोगे चैव चादवनम्‌ ) 

तस्मात्तदक्षर ब्रह्य चिन्तयामास वं प्रम्‌, ॥२६ 

तप्मात्तदक्नर सोऽथ ब्रह्मल्प स्वयभ्भुव । 

नुदं शमुख देव पष्यते दौप्ततेजसम्‌ 1 

तमोद्धार स छृत्वादौ विधेय" स स्वयम्भ्‌ व 1२9 

तुमु वभुः खा्स्मादजायन्त चतुद श 1 

नानावर्णा स्वरा दिग्यमाद्य तच्च तदक्षरम्‌ । 

तस्मात्‌ विषष्टिवर्णा वं शकारप्रनवा स्मृता ॥२८॥ 

इ भरसे उने चित करते हए ओदर समृतम हा । एकै 
पशु रत अक्षर ओह्र का ब्रह्याजी ने चिन्न किया या ॥२२५ हे धन 
म्तर सपुत्यिति पीत दण वाली छवा फो देवा जिसका स्वह्प दै-- "भन 
घाधाहि वीतये गृणा नौ हव्य दातये " ॥२६॥ दमफे पश्चात्‌ उप महान तै 
धा मे समुपस्थित वेदो को देवकर मगन, ने दोनो छन््याओो पे जो त्रिर् 
था उग्रा चिन्तन किया जोकि तीन वणं वाला भ्रिषवण ब्रह्मी सजा चे पत 
मदुर पा 1२५ दपर पश्चात्‌ तीन के सयोग से तीन वणं वाला कह मशर्‌ 
सक्षय भौर भक्ष्य से प्रटश्य, हित के सहन, त्रिदिव, त्रिकः प्रिमा, त्रिपद 
किपोप भौर श्ाग्डठ वह गधरा उमका शगु ब्रह्माजो ते चिन्न करिणां 
५२५२९ णमे वहं स्वश्रू के दहा स्प उस अधर भो चतु गुल वाते 
देव कौ जोकि दीप्त तेज वानाया देषा । उपने उस बोद्धाटको यागे कफे 
उपे स्वयम्भू ही जानना चाहिए ॥२०॥ उम वमख ( ब्रह्मा} केपृ 
सीदह्‌ उतपद्र हर ओह्नाना दण वति स्वर ठया बाच वहु दिव्य अक्षर ५ 


हए 1 द्यम यक्लदे एमव्र तिरेसठ वणं क्ट ग्ये दहेत 
वत साधारणार्याय व्णप्नरतु स्वपरम्म्‌य } 


अवारष्टपं जादी त्‌. स्वत स प्रथम स्वर ॥(र६ 
ततप्तेभ्य स्वरेभ्यस्त्‌. चत. ण महामृशा । 
मनय रमप्रमूयन्ते दिव्यां मन्वन्तरे स्वरा (1६१० 


स्वरोलतचति वर्णन ] [ रन्ह 


चत्‌ ट्‌ णमुखो यश्च "धकारो ब्रह्यसेतितः? ` 
ब्रह्मकल्पः समाघ्यातिः सर्व॑वण प्रजापतिः ॥३१ 
मुखात प्रथमान्तस्य मनुः स्वायम्म्‌(यः स्मृतः। 
सकरारमस्त्‌, स विज्ञ यः श्वेतवर्णं स्वयभ्म्‌ व- ।३ 
द्वितियात्त्‌. मुखात्तस्य आक्रारो वं मुखः स्मृततः! 
नाम्ना स्वारोचिपो नाम वर्णः पाण्डुर उच्यते ॥३३ 
तृतीयात्‌. मुखात्तस्य इकारो यजुषा वरः। 
यजुर्मय. स चादित्यो यजुरवंदो यतः स्मृतः ॥३४ 
ईरः घ मन्यो रक्तवर्णः शरतापवान्‌ 

“तत क्तव प्रवर्तन्त तस्मा्रक्तस्तु क्षत्रियः ॥२५ 


से अनन्तर वर्णो के साधारण र्थं केलिये स्वयम्भू शरा अकारस्पं 
भादि स्थित भा जोकि प्रथम स्वर कटा जाता दै ॥२६॥) दमके उपरान्त 
उन स्वरो चौदह महाशरुल मनु उत्सन्न होते दै जोकि भन्वन्तर मे दिश्य स्वर 
दै ।३०। चत दंश मुख वाला जो मकार है वह्‌ ब्रह्यकौ संज्ञा तेयुक्तहैत्रहम- 
क्प अयति ब्रहमाके ही सण, सवं वण" मौर प्रजापति कटा गया है ॥३१॥ 
मके प्रयम मुख से स्वायम्मूवर मनुकहा गणाहैवह्‌ लक्रारतो स्वयमक 
श्वेत वणं जानना चाहिए ॥1३२॥ द्वितीय उसके मुख पने माक्रार भुखक्टा गया 
टैवह्‌ नाम स्वारोविष्र है ओर उमङ्गा वणं पाष्डुरकहा गयाहै ॥३३॥ 
उक तीसरे मृखसे यजुवें ध्र दकार दै । वहु यादिष्य यजुर्पेयहै मोत वह्‌ 
यजुवद षहा गयादहै १३४।) ईकार प्रताप वाला रक्तवणं मे युक मदर जानने 
फै मोग्यदहै1 इमि शत्र प्रवृत्त होता है । इसीलिये शत्रिम रक्त होता है ॥३९॥ 

चतुर्यात्त. मुखात्तस्य उकारः स्वर उच्यते 1 

वर्णतस्तु स्धृतस्तास्न स मनुम्तामसः स्मृतः ॥३६ 

परल्चमात्त्‌ मुखात्तस्य उग्रो नाम जायतते} 

पोतको वणं तश्च व मनु्चापि चरिप्णव. ॥३७ 

तत्तः पष्ठान्मुप्रात्तस्य गौद्धारः कविलः स्मृतः । 

वरिधश्च ततः पो विजयः ख मटात्तपाः ॥२४ 


२६० ] [ वपु पराभ 


सप्तमात्त, मुखात्तस्य ततौ वंवस्वतो मनु. 1 

शकार स्वरस्नत वर्णेन कृष्ण उच्यते ॥३8 

अघ्टामात्त्‌. मुखात्तस्य छकार श्यामवर्णं. । 

श्यामाक्षरसवणश्च तत सावगिरुच्यते 11४०॥ 

मुखात्त्‌, नवमात्तस्य लृकारो नवम स्मृत । 

धृस्नो बणंतश्चापि धृप्रश्च मनुरुच्यते ॥५१ 

दशम।त्त, मुखात्तस्य लृकार प्रभ्‌.च्यते । 

समश्च व सवर्णश्च वभौ सावयिक्तो मनू ।४२ 

उश्वके चत्‌थ मुष्व से उकार स्वर कहा जावादहै। यहुवणं सेताप्न 
कहा गयाहै भौर वह्‌ तामस मनु प्रनिद्ध हुआ ह ।२६॥ उमके पचम प्रुलस 
ऊकार नाम वाला उत्तर होता दै । यह्‌ वणं ते पीट तषा चरिप्ण्‌, मनु कहा 
भथा है ।३9॥) इसके पश्चात्‌ उमक छे मख से मोद्धार हुमा जो कपिल कहा 
गथा । वह पय नण मे वष्ट वित्य ओर महाधर तप कणा हं (८२२५ णे 
मप्तम मृश्ठसे वेवस्न मनु हु जिसका स्नर क्र हं भौर वण कृष्णं कहा 
जाता हं ॥३६॥ उप्तके अष्टम मुलते ऋकार हज वणं ष्याम ह । श्यामा" 
कर स्वगं होता दै इसो लिये वह सावर कहा जता ॥४०। नवम 
मुले उत्करे तृारहृभाजो तवमङ्हा गयाहै। यद्‌ वयं चेष होताद 
ओर धूम्र मनुदाकहा जाना है 11*५१॥ उषे दशम मृ्लसेलृ.कारहोतादै 
भोर प्रमु कहा जाता है । अह सम ध्ौर सवण है इसौ लिये घाविगिकमनु 
ष्म नामसे कहा गयां ६।४२॥ 

पुखदैकादशात्तप्य एकारो मनुरुच्यते 1 

विशद्खौ व्णेतश्चव पिशद्धो वण उच्यते ॥४३ 

दादशात्त्‌. मुखात्तस्य दकारो नाग उच्यते 1 

पिशद्नो भस्मवर्णाभि पिशद्धौ मनुत्यते ॥४७ 

त्रषौदलाग्मुात्तस्य भोकारो वणं उच्यते ( 

पञ्चव्ण समायुक्त ओकारा वणं उत्तम ॥*४५ 

चतुद णमुपात्तप्य ङ़ारो वर्णं उच्यते । 

कवरं व्णततश्चैव मनु सावर्णिख्च्यते ॥*६ 


चपि वश कीर्तन |] [ २६१ 


इत्येते मनवश्चैव स्वरा वर्णाशिव करत्पतः 1 
विचेया हि यथात्वं स्वरतो वर्णतस्तेथा ॥४७ 
परस्परसवर्णाश्च स्वरा यस्माद्‌ व्रता हिवे। 
तस्मात्तेपां सव्णत्वाद न्वयस्तु प्रकौत्ित ॥४६ 


सवर्णां सहशाश्चैव यस्माज्जातास्तु कत्पजाः । 
तस्मात्‌ प्रजाना लोकेऽस्मिन्‌ सवर्णां सवेसन्धय ॥४८ 
भविष्यन्ति यथाशैल वर्णाश्च न्यायतोऽ्थ॑तत । 
अभ्यासार्सन्धय एवैव तस्माञ्जेयाः स्वरा इति ।(५० 


एकादण मृलमे उक एकार हु्राजोमनु कहा जाता है। वें 
दि पिशङ्ग होता है इसी लिये पिशद्ख दस नामसेक्हा जाता है ।(४॥ उक 
रहय मुख से देर्‌ काम वालिः दुमा । बह पिशङ्ग भीर मध्मके वणं कौ 
प्रभाके समान मापावबाला था दमे किकद्ध मनु कहा जाता है ।(४४। उसके 
रहे मुखस ओकार वणं उत्पन्न हुमा है 1 यह्‌ पर्व वर्णांसे युक्त उत्तम 
पणे भकार दै ।।४५॥ उप्के चौदह मुख से ओक्रार वणं हुभा । षट्‌ वणं 
प कुर मौर सावाणां मनु कहा जता है ॥४६॥। य मनु स्मर भौर वणं कल्प 
मे जानने चाहिए 1 ये स्वर बौर वणं से टी यथात्तत्व भौर र ।|*७॥। ग्पोकि 
वर परस्वरमे सर्वाद्धित हृएहै। हसोलिये उनङे मवण होने से मन्वय कदा 
पादै ॥४९॥ ये सवरणं भौर क्ल्ममे होने वाले सदश उत्पतन हए ह" इषलिये 
शस लोक मे प्रजाभौ ॐ सवं सन्वि वाते ये सवणं होते ह ॥४६।, यथाक्षंल न्पाय 
पे भौरषयंसेये होगे । मभ्यासस्ते सन्धिपौभी दहै इसोपे इ स्वर्‌ जानना 
वादिए्‌ ॥५०॥ 


॥। प्रकणं २८- ऋषि वं कीर्तन ॥ 


भृमो स्यातिपिजजञेऽथ ईदवरी सुदु सोः । 
दुमाल्युमप्रदातारौ सवेप्राणगृता्िह । 

देवौ धाताव्रिधातारी मन्वन्तर विवारणीौ॥१ 
तयो्ज्ये्ठा तु भगिनी देवौ श्रीर्लोङमाविनयरे । 


२६२ ] [ वापृपुरा 


सातु नारायण देव पतिमासाच शोभनम्‌ । 

नारायणात्मजौ साध्वी व गीद्साहौ व्यजायत ॥२ 

तस्याभ्तु मानसा पुत्रा ये चान्ये दिव्यचारिणः। 

ये वहन्ति विमानानि देवाना पुण्यकर्मणाम्‌ ।*३ 

दतु वन्ये स्मृते भाय्ये विघातुषतुरिव च 1 

आयत्तिनियतिश्चं व तयोः पृर्री दृढव्रतौ 1४ 

पाष्टृश्चंव मृकण्डुश्च ब्रह्यकोशो सनातनौ । 

मनस्विन्या मृकण्डोश्च माकंण्डेयो वभूव ह्‌ ॥\५ 

मतो वेदशिरास्तस्य मूर्धन्यायामजायतः 

पवर्थ वेदशिरसः पुना वशक्ररा स्मृता. । 

मा्ेण्डेया इति द्याता शृपयो वेदपारगाः ! ६ 

पाण्डोश्च पुण्डरौकाया दुतिमानात्मनोऽभवत्‌। 

उत्पश्नौ ययूतिमन्तश्च सुजवानश्च तावभौ । 

तयोः पुत्राश्च पौताश्च भार्गवाणा परस्परम्‌ 1 

स्वायम्भूवेऽन्तरेऽनीते मरीचेः शृणुत प्रजा. 1७ 

शी पूतजी ने कहा-ृगु से स्यातिने पुलदृख के स्वामी भमर 
भाणपरारियो को णुभ तया श्म को ग्रहुग कटने वाले, मन्वन्तर के विचार कः 
याति घाता ओर विथग्वा दो देव उतश्च क्िये ॥ १॥ उनकी प्येड भरि 
लोकभाविनी श्वी देवौ थौ ! उमने नारायण देव को अपना पति प्रत वि 
जोकि परम शोमनये उम साध्वी देवी से नारायण के पू बल भौर उता 
उत्पत हए ।॥ २॥ उसके अनप दिव्यचारो मान्पुषये जोकि पृण्यवमे क 
वाति देवो क वियानो शा वहन ्याकरते है ५३॥ दो कन्यदेः हरै १ 
विपातो भोर चाताक़ी मार्या दई चो। उनष्ोनोके नावति ओर निवाता 
बति द्र दोपूत्र ट्‌ ॥४॥ पाडु मौर मृकण्डु ्रह्मरोश तथा घनाठन दए 
मनस्विनो मे मूवणडुमे माकंण्डेव उप्र दए 11 ५ ॥ उसका पुथ वेदिया ह 
णो मृदधन्यातर उत्पतन हमा था॥ वेदशिरासे पीवरीमे वश चलति बाति 
बरेगवेद्र1 पेषठदवेदके पारपमी शुधि माण्डेय प्रसिद्ध हए ॥ ९ 


चछछपि वण कौररन 1] [ २६३ 


पाण्डुरे पुण्डरीका पे दयुतिमान मात्मज हृं 1 य्‌त्तिमान ओर सूृजमान दो पूव 
उलन्न हृष्‌ 1 उन दोनो के पत्र मौर परौ मापें मावो के हए ॥ स्वाय 
म्म कै अन्तर व्यतीत दो जाने पर अव मरीचिकी प्रजा के दिपय भें श्चवण 
करिये ॥७॥ 


पत्नी मरीचे सम्भूतिविजज्ञे साप्मसम्भवम्‌ 1 

प्रजायते पूर्णं मास कन्याश्चेमा निवोघत 1 

नुटि प्ृष्टिस्त्विपा चैव ततथा चापचिति युमा 

पूर्णमास. सरस्वत्या द्वौ पुत्रवदपादयत्‌ । 

विरजश्वंव धर्मिष्ठ पर्वसच्वं व त्तावुभौ 11२ 

विरजस्यात्मजो विद्वान्‌ सुधामा नाम विश्रुत 1 

सुघामसुतवै राज प्राच्यान्दिशि समाधित ॥१० 

लोकपाल मुधर्मास्मा यौरीयुन प्रतापवान्‌ । 

पवस सर्वगणाना प्रविष्ट स महायशा 1११ 

पर्व॑स पर्वंस्तायान्तु जनयामास वं सुतौ 1 

यज्ञवामच्च श्रीमन्त सुत काश्यपमेव च 1 

तयौर्गेत्रिकरौ पुनी तौ जातौ घर्म॑निश्चितौ ॥१२ 

स्मृतरिश्वाद्जि रसः पत्नौ जने तावात्मसम्भवौ + 

पुनौ कन्याश्चतस्रश्च पुण्यास्ता लोक विधर्‌ ता 11१३ 

सिनीबाली गुहूष्छं व राका चानुमतिस्तया 1 

तथेव मरताग्निच कौत्तिमन्तच तावृभी ॥१४ 

मरीवि षौ पटनौ प्म्भूनि नाम वालौ यी उस्ने भपय पूवर उत्पन्न क्या 
भो पूणेमासर उस्र होता । बौर उसके जो क्न्याए्‌ हई उम्ह समप्षलौ 
तुष्ट, पुष्टि, त्विषा, मत्यविति घौर शुमाये कन्ये हई ॥५॥' पूरणेमासरने 
सरस्वतीमे षी पृष उष्पन्न क्रिये ये जिनक्रा नामं विरज गौर तिप फवसथा। 
येदोनोपुत्रये॥ ६॥ विरज को पृतर बडा विदान सुघामा इस नामस विसून 
था। सुधामागापृत्रवंराज वाजो कि पूवं दिगा कवा बाश्रय लेकर ध्यित 
रता पा ॥ १० ॥ लोकल, सुपर्मारमा बौर प्रताप वाला गौरी पृत्र पवंघ 


२६४ | {[ घायु परण 


समस्त ग्णोमे प्रविष्ट हषा ओर्‌ वह्‌ महान यश वाला या ॥ ११॥ पर्व॑ 
प्वंसामे दो पुत्र उत्पन्न क्रिये । श्रीमान यशवाम बोर दुसरा सुत काण्यपपा 
उमदोनोके गोत्र वरवे धमं निश्चित पत्र हृद॥ १२॥ बङ्गिरा को प 
स्मृ्तिनेदो पूवर पैदाकिएओौर चार परम पित्र तथा तोक विधत कन 
उत्पन्न की थी ॥ १६३॥ जिनं कन्यामो के नाम सिनीवाली, करहु, राका \॥ 
अनुमति चा तथा दोपृत्र कौीत्तिमान अर भरतान्निये ॥ १४॥ 
अम्ते पुत्रनतु पर्जन्य सहुती सुपुत्र प्रमुम्‌ 1 
हिरण्यरोमा पर्जन्यो मारीच्यामुदपादयन्‌ ; 
आभूतसप्लवस्थाथी लोकपाल. स वै स्मृत. ॥१५ 
जज्ञ कीतिमतश्वापि धेनुका तावकल्मपी । 
वरिष्ठ धृतिमन्तञ्चाप्युभावद्जिरसा वरौ ॥१९ 
तयो पुत्राश्च पौनाश्च येऽतीता वे सहसुशः । 
अनसूयापि जज्ञे तान्‌ पञ्चारे यानकटमपानू ॥१० 
कन्याज्चवश्रूति नाम माता शद्लपदस्य या। 
कर्दमस्य तु या पत्नी पुलहस्य प्रजापते ॥१८ 
सत्यनेत्रश्च हव्यए्न आपोमूति. शनीवर 1 
सोमश्च प चमस्तेपामानीद्‌ स्वायम्भुवेऽन्तरे 
यामेऽतीते सहातीता पचाप्रेया प्रकीर्तिता. ॥१४ 
तेपा पृ्राश्च पौय्रारच ह्यत्रिणा वं मह्पेमना । 
स्वायम्भुवेऽन्तरे यामे शतशोऽय सहस्रश ॥२० 
प्रीत्या ुलस्त्यभार्यापा दत्तालिस्तत्ुतोऽमवत्‌ । 
पूवंजन्मनि मोऽगस्त्य स्मृत स्वायम्मुवेऽन्तरे । 
मध्यमो देवबाहुश्च विनीतो नामते त्रय । २१ 
यन्नि से सहूतीने प्रभु परेत्य पत्रक प्रसव यापा] पर्जन्य 
रोषिमे हिरण्यरोमा उ्व.न तरियाजो भरि वह माप्रुतं सप्वव हक € 
हुने वाता सोक्रपात बदा ग्या १५॥ येतुकाने कीिमाततेदो ब्म" 
मन पूतडन्वन्नप्पि। वरिष गौर पूनिमातचे दोनो बाद्धिष्तोमे पम 


८ १९५" 1 | २६५ 


ये ॥ १६॥ उन दोनो के सहलो प्च तथा पौवये जौ अतीत दह । अनपूया मे 
भी मङत्मय पांच मत्रिथो को जन्म दिया ॥ १७ {1 भौर एक कन्या उप्यनन कै 
जिमकानामश्रतिथा ओर जो शह्वपद कौ माता थी जौ प्रजापति पृलह केम 
कौ पत्नी थी ॥ १५ ॥ पांचो के नाम--सत्यनत्र, हव्य, सापोपूति, णनिवर भौर 
पाँचवाँ सोम उननसेयाजौ कि स्वायम्भूव गतरमेथ। याम बै व्यतीत 
होने परये पौच अग्रेय जोकटेगये है सहातीत हो गये थे 1} १६1) उनके 
पुत्र मोर पौत्र महात्मा अतरिने स्वायम्मूव्रातर याम मेसंक्डो तया सहस्रो 
उपपन्न क्रिये ये॥ २०॥ पूनम्यकी भार्या प्रोति म उमा पुत्र दर्पात्निटमा 
था। पूव जन्म मे स्वायम्मुव मतर म वह्‌ लस्त्यकहाग्याहै। म-यम देवर 
बराह ओौर विनीत नाम बाला, ठरो वतीन दहै ।॥ २१५ 


स्वसा यवीयसी तेपा सद्वती नाम विध्रूता। 

पर्जन्यजननी शुश्रा पलीं त्वग्ने स्मता युभा ॥२२ 

पौलस्स्यस्थ ऋषेश्चापि प्रीतिपुत्रस्य धोमन । 

दत्ता पुपुवे पल्नी सुज ह्खादीत्र वहून्‌ सुतान्‌ । 

पौलस्त्या इति विख्याता स्मृता स्वायममूवेऽन्तरे ॥२३ 

क्षमा तु सुपुवे पुनान पुलहम्य प्रजापते । 

ते चाग्निवचषघ सव येषा कोति प्रतिष्ठिता ॥२४ 

क्दमश्चाम्यगपश्च सदिष्युश्चेतिते तरय । 

चऋपिर्वनकपीवास्व युमा कन्या च पीवरी ॥र्‌१ 

कर्दमस्य श्र्‌.ति पत्नी आात्रेय्य जनयत्मुतानू । 

पत्र शहलद चैव कन्या काम्या तथेव च ॥२६ 

सवै ्ट्पद श्रीमायु लोकपान प्रजापति । 

दक्षिणस्या दिशि रतत काम्या दत्वा प्रियत्रते ॥२७ 

फाम्या प्रियत्रताल्लेभे स्वातरम्मुवसमान्‌ मुना 

दशकन्याद्रय चेव यं-क्षत्र समभ्प्रदतितम्‌ ॥रे८ 

उनङ्गी मभिनी छरी सदत नाम वालो प्रतिदधदहै। जोषज-यकौषुध्रा 
म्त्तामौर मन्निक्ो पुध्रापटनो बहौ गयोदै 1२२ ॥? पनात च्चवे मी 


२६६ 1 [ यापु पराय 


प्रति पूवर घीमान दृतात्रि कौ पत्मी ने सुजद्वादि बहुत-ते शूरो का प्रसव क्या 
या। वे एव स्वायम्भुवान्तर मे पौलस्त्य इष नाम से विप्याव्‌ ठया कहैगये 
यै 11 २३॥ क्षत्रा ने प्रजापति पृनेह के पूत्रो कौ उत्पन्न रिया) वेस्व ठी 
अननिव्॑स थे जिनफी कीत्ति लोको पे प्रतिष्टित है (८ २४॥ वे करम, मभ्य 
रीष यौर सहिष्णु ये तोनर्है जर घनक पोवान चपि तथा पीवरी गूमकन्या 
चौ 1२५१ कदमकीषली श्रुति मातरेयो नेपप्रो को जन्म दिया॥ पृ 
श्वपदं या तथा काम्या कन्या यो ॥ २६॥ वह्‌ शध्रौमन दह्वप्द लोको 
पालक भौर प्रजापत्निथा। दक्षिण दिशः मे रत होकर काप्या को प्रियत्रन के 
त्थिदेदवियाया।) कोम्या ने प्रियव्रत से स्वापस्मुव के समान्‌ पुत्रो कौ श्रि 
कधी पूत्र दशये बरद कन्या उनमे थी जिन्हेनि यहाँक्षत्र को एमदृतत 
किया था । २७-२८॥ 


पूवो धनकमीवाश्च दहिष्णुरगाम विधर्‌ दः १ 
यशोधारी विजज्ञे वं कामदेवः सुमध्यम. ॥।२१ 
शऋतोः करतुसमः पुरो विजज्ञे सन्ततिः शुभा 1 

नैप भार्यास्ति पूत्रो वा सर्वेते ह्यदधं रेतसः 1 
ष्टे तानि सहक्ताणि वालदधित्या इति भूताः ३० 
सरूणस्ाग्रतो यान्ति परिवार्यं दिवाकरम्‌ । 
भाभूतक्षप्लवात्सवे पतङ्गसहचारिणः 11३१ 
स्वस्य तु यवीयस्यौ पुष्यात्ममुमती चते! 
पवस्य स्नुपै ते यं पूणं मासुतस्य वं 1३२ 
ऊर्जायान्तु वसिष्ठत्य पुरा वं सप्त जज्ञिरे 1 

ज्यायसी च स्वा ठेषा पुण्डरीका सुमध्यमा ॥*३ 
णननी सा चुतिमत षाण्डोस्तु महिषी प्रिया } 
अस्यां त्विमे यवीयासो वासिष्ठाः सप्र विधतः 1३४ 
रजः पुरोऽ बाहुश्च सवनश्चापनश्च यः । 

युतपाः भुक्न इत्येते प्रये गप्पयः स्मृताः ॥२५ 
द्जसो वाप्यजगयन्माकंष्डेयी यशस्विनी 1 


कन्नि यंश वर्णन ] [ २६७ 


। प्रतीच्यां दिश्चि राजन्य वेतुमन्तं प्रजापतिम्‌ ॥॥३६ 

गोत्राणि नामभिस्तेषा वासिष्ठाना महात्मनाम्‌ 1 

स्वायम्भूवेन्तरेऽतीतास्त्वग्नेस्तु ग्यगुत प्रजाः ॥३७ 

इत्येप ऋषिसर्गस्तु सानुवन्ध. प्रकीत्तित. । 

विस्तरेणानुपूरव्या चाप्यगनेस्तु शृणुत प्रजाः ॥३८ 

पत्र धक पीवान्‌ थाजो सहिष्णु केनामसे विश्रुत हुजा। यशोधारीने 
रुमन्यम कामदेव को उत्पप्न किया ॥२६॥ वतु का क्रतुकेतुत्यहीपुत्र 
हुभा भौर वह शुमा सन्तति थी । इनकी कौं भी मार्यानहीषीमौरन 
इनका को पृतही था यपोत्रि वे सभी ज्दंरेताये! ये सवसाठहनारयेजो 
वालतित्य इम नामसे प्रसिद्ध हृए ये ॥ ३० 1, सूयं को परिवृत करके ये मर्ण 
कै भगे जाया करते हिंओर द्रुत सप्तवमे तेकर ये सव पद्ध (सूं )केही 
महृचरण करने बाते होते है ।॥ ३१ ॥ भगिनीदो धोटो धी जिनकानेम दृष्या 
मर मात्म सुमति था। वे दोनो पवेघकीस्ुपा थी जोकि पूणेमाघकापृत्र 
घा ३९ ॥ ऊर्जामे वक्ि्ठके सात पत्र उत्पद्र हए भौर ज्याण्सौ ( बड़ी) 
उनको वहिन सुमध्यमा पुण्डगीकायी॥ ३३ । वह्‌ दतिमावु कौ माताथ 
यौरपाण्डुकी प्यारो रानी थी । इसमे ये यवीयान्‌ सात्त वाति भरसिद्ध टृएये 
॥ ३४ ॥ रज, पुत्र, मदट'वाहु, सवन, भथन सुतया मौर शुक्ल ये सत्र स्तवि 
कटे गये ३५ ॥ यण्स्विनो माकंण्डेपी रज से जनन किया। प्रतीची दिशा 
मे प्रजापति राजन्य वैतुमानु दो उत्पन्न क्रिया ॥ ३६॥ उन मटात्मा वातिष्ठे 
षै नामोसते गोष । ये स्वायम्भु्र भन्तरमे भनीतदहोग्ये ह! गव यभ्िकी 
प्रादा श्रवणक्रो ॥३ ॥ यह्छपियो का सगं यतुवन्धके सहिते कह 
दिपा ग्या । मब विघ्तार ते तथा भानृपूर्वी के घाप मनिनिकोौ प्रजा कौ सुनो 
1 ३८ ॥ 


॥ प्रकरणं २८-अग्नि वंश वर्णन ॥ 
योऽमावग्निरभिमानो दासीत्‌ स्वायम्भूवेऽन्तरे 1 


प्रह्मणो मानसः पृम्स्तस्मात्श्वाहा व्यजायत ॥¶ 
पावकः पवमान पावमानश्च यः समृतः । 


२६ 1 [ वायुपुराण 


शचिः शौरस्तु विज्ञेयः स्वाहापुव्राकषपस्तुते ॥२ 

निर्मथ्य पवमानरतु शुचि. शौरस्तु थः स्मृतः। 

पावका वेद्‌ ताश्च व तेपां स्थानानि यानि वै ॥३ 

पवमानात्मजश्चैव कव्यवाहन उच्यते । 

पावकात्‌ सहरक्षस्तु हव्यवाहः शुचेः सुतः ॥४ 

देवानां हन्यवाहोऽग्निः पितृणां कव्यवाहनः । 

सहरक्षोऽपुराणान्तु त्रयाणान्तु वयोऽनयः ॥५ 

एतेषां पुत्रपौघास्तु चत्वारिशत्तवेव तु । 

वक्ष्यामि नामतस्तेषां प्रविभाग पृथक्‌ पृथक्‌ ॥६ 

धं तो लौकिकाग्निस्तु प्रथमो ब्रह्मणः सुत. । 

ब्रह्मोदनागिनस्तत्पुत्लो भरतो नाम विनतः 1\७ 

स्वायम्पुवान्तर मं जो यहयग्नि था दहं वहतत धपिमानं वाना धा। 
ण ब्रहयाणी का मनसे उलन होने वावा मानस पू था एषते स्वाहा उपप 
हई ॥ १॥ पह पावक्त, एवमान भौर पवमान, हन नाणे सेक्हागया द। 
शुचि, णोर मौर विज्ञे ये तीन स्वाह्यके पत्ये ॥ २॥ एवपान निर्मल 
करे शुचि भौर शौरमो कहा या है? पावक मौर बैद. उने ये तयान 1 
1 ३॥ एवमान क्रा यात्मज कव्यवाहन का जाता है । पावक से सहर गी 
शुचि कय पुत्र हव्यवाह या॥ ४॥ देवोका जो मग्निं है वह हध्यवाह होता 
मौर प्िद्रेगणकाजो कभ्नि होवा है वहे कव्यवाहन कहा जाता है ॥ सहत 
नामकजोथगिटहै वह मपुरो का क्ट गया है। इसप्रकार एन तीनो के 
पषङ्‌-पृयव तोन ये मग्न होते है ॥ ५॥ इनके जौ पूवर तथा पोतहै वैः 
शास ह । उनके पृथक -पृयक्‌, प्रविभाग नापर से वतते जायेगे ॥६॥ प्त 
नामको ब्रम्ह वह सोकिकियग्नि है योर प्रथम प्रहा का पुरि) ब्रहम 
घमनि उमका पृवहै्रो भगत स्सि नाम से प्रिद हमा है॥ \ ॥ 

वैश्वानरमूखस्तस्य महः काव्यो ह्यपां रसः! 

अमृतोऽयवणा पूवं मथितः पुव्करोदयौ १ 

सोगवर्वा लौक्रिकाग्निस्तु दध्य्‌ चायवंणः मुतः ॥ 


बनि वेग षर्णब | { २६६ 


सर्वा दु भूगृक्नेयोऽप्यद्भिराभ्यरवेणः युतः 

तस्मान्‌ स लौिकागिनस्तु दध्यड चायर्वणः सुत. र 

अथ य. पवमानोऽग्निनिमन्याः कविभिः स्मृतः 1 

सन्ञेयो गार्हपत्योऽगिनिस्तयः पुत्रद्रय स्मृतम्‌ ।।१० 

शंस्यस्त्व'ह्वनीयोऽभिनयः स्मृतो हव्यवाहनः 1 

द्वितीयस्तु सुन. प्रोक्त. शुक्रोऽग्निर्यः प्रणोयते ॥११ 

तवा सम्पाचपध्यौ चै शस्यस्याग्ने सृतावृभौ । 

शस्यस्तु पोडश नदोश्चवकमे हव्यवाहनः । 

योऽपावाहवनीयोऽग्निरभिमानी द्विजैः स्मृतः ॥१¶२ 

कवरी कृष्णवेणीच्च नरमेदा यमुनाच्ठया । 

गोदावरी वितस्ता चन्द्रभागामिरावतीम्‌ १३ 

विपाशा कौशिक्तेखंव शत्र, सरयुन्तया ! 

सीता सरस्वतीव ह्ादिनी पावनी तवा ॥१४ 

उराका वैण्वानरगुत, मह काव्य यौद धारय, चरकं यनाम 
पदिते भयर्देणो ने पृष्करोदेधि मे मथन कथा चा । यट दरया यङ्ग यनि [1 
घो दध्यड.वापर्वण का पूत है) ८५ व्वा बरृयुोत्रम्ना शर्षु । 
मद्धिरा भयर्वेण का पृत्र दै । उदे वह लोपि यन्निद्णटट्‌चादरथन वृत्र 
॥ ६ ॥ इमके बनन्तर जो पवमान जनि है वट्‌ श्वि दाग निन्दा 
या है । वह्‌ गार्हपत्य नग्निं जानना वादिए्‌ । दषठरेददव कदय ५१० 
नो मनि हव्यवाहन कदा गपा टै बह वाट्नय भमि शरे तरतिढेगेत 


३०० ] [ वागु पराग 


आत्मान व्यदधात्तासु धिष्णीष्वथ वभूव सः ॥१५ 

धिष्ण्य दिव्यभिचारिण्यस्तामूतन्नास्तु धिप्णयः॥ 

धिष्णीषु जज्ञिरे यस्मादिष्णयस्तेन कीततिताः ॥१९ 

इत्येते व नदीपुत्रा धिष्णोष्वेव विजन्निरे । 

तेषां विहरणीया ये उपस्थेयाश्च येऽनयः1 

तान्‌ ग्पृणृष्व समासेन कीव्येमानानुं यथा तया ॥1१७ 

भ्रुः भरवाहुणोऽनोध्ः पुरस्ता दिष्णयोऽपरे । 

विधीयन्ते यवास्याने सोत्येऽह्नि सवनक्रमातु ॥१८ 

अनिट्‌ पयान्यवाच्यानामम्नीना शृणुत क्रमम्‌ । 

सघ्राडग्निः कृशानुर्यो द्वितीयोत्तसेदिकः ।।¶यै 

सग्राडगिनः स्मृता ह्यष्टौ उपत्तिष्ठन्ति तान्‌ द्विजा. 1 

अधस्तात्परवदन्पस्तु द्वितीयः सोऽय हश्यते ॥२० 

प्रतद्रोचे नमो नाम चत्वारि स विभाग्यते । 

बरह्मज्योतिवेमूर्नाम ब्रह्मस्थाने स उच्यते ॥२१ 

दन उपयुक्त मोवह्‌ नदिं मे नने याप्रको सोलह मे प्रष्‌-पृषड्‌ 
विभाय करक उने बषने मापो षर दिया भौर बह पिष्णीपु हो गया ।१५। 
उन पिय दिव्पभिवारिष्य णो उत्छघर हृए पे धिप्णप हए । क्योकि वे पिष्णी" 
पभो मे उखघ्रटृएये एमे वे िष्णयक्टे येह ॥ १६॥ एतनेये नदी १. 
है जोपिप्णीषु मेहो उह टए्‌ ये । उनमे विहार शरनेकेयोष जो उप्थय 
मिटै सड उनशो गेपतेषहेजाे वान्रोको यषाहठपाश्रवन करो ॥१४॥ 
चनु श्रवाहू, अमोप्र भोर पहिते दमरे विस्य सद्य दिवम मे पवपव प्रम 
गे पया स्यान पिये जनि 1) १८) धनिदृष्य वन्य वाप्य भियो वम 
कौ धुन । द्वितीयोसप्वैरिष णो शृणातु होता ६ वह शमर्‌ सन्नि ६ ॥ १९१ 
भट मञ्नाद्‌ अमि षरे गवे है करिका दि दज उपश्यान वियाष्रसते है। तीष 
म्य पर्दूतो पशा षद्‌ वह्‌ (होप दिगमाई देता ॥ २० ॥ प्रतो ममो 
शाम दाादटे वार्‌ दिमादित टता है । ब्रह्य ज्योति दमु नाम वाता वहं ष्ट 
दानमे इटा ताद ॥२१॥ 


सनि वेध वर्णन ] [ ३०१ 


हन्यसूर््याच्तं सृष्टः शगमितरे स विभाव्यते 1 
विश्वस्याय समूद्रोगिित्रं ह्‌.मस्णाने स कीर्यते २२ 
चऋतुद्यामा च सुज्योतिरौदुम्बर्य्या स कीयते । 
बरहु.मज्योतिवंसुर्नाम ब्रहु.मस्थाने स उच्यते ।1२३ 
अजेकपादुपस्थेयः स वं शालामूखीयकः । 

अनुद दयोप्यहिवुंध्यः सोऽग्निं टपति. स्मृतः ॥२४ 
शंस्यस्वैव सुताः स्वे उपस्येया द्विजैः स्मृताः । 
ततो विहूरणीयां श्च वक्ष्याम्यष्टौ तु तत्सुतान्‌ ॥२५ 
कतुप्रवाहणोऽगी धरस्तत्रस्था धिष्णयोऽपरे 1 
विद्धिषन्ते यथास्थानं सौत्योह्ि सवनक्रमा्‌ ॥२६ 
पौत्रस्तु ततो ह्यभनि. स्मृतो यो हन्यवाहनः । 
शान्तिश्चागनिः प्रचेतास्तु द्वितीयः सत्य उच्यते ॥२७ 
तथाग्निविश्वदेवस्तु त्रह्‌.मस्थाने स उच्यते । 
अवक्ुरच्छावाकस्तु मुवः स्थाने विभाव्यते ॥र्‌र 


भ्य सूर्यादि से अससृष्ट वहे शामित्र कमं मे प्रकट होता है । विश्वघ्याय 
मुद्र यन्नि वह्‌ ब्र्यस्थान मे कीत्तिति किया जातादहै॥ २२॥ ऋतुधामा 
भौर सुज्योत्ति अग्नि जो होता ह वहं भौदुम्बरी मेषा जाता है । ब्रह्म ज्योति 
वषु नाम वाला वह्‌ ब्रहम स्थान मे कहा जाता है ॥ २३ ॥ अजैक पादुपस्येय 
प्लामुलीयक् वहं अनुदेष्य भी महिवुःष्न्य वह अभिनि गृहपति कहा गया 
॥ २४॥ ये स्र पस्यकेहीपृत्रह ओौरद्िजोके द्वारा उपस्यानि करने कै 
योग्य कटे गये ह| अब इक्र मनन्तर विहरणीय गाठ उसके पूत है उन्हे वत्त 
तति ह ॥ ९५॥ ऋतु, प्रवहण, अग्नीध्र भौर वहां पर स्थित दूरे धिष्णि जो 
यया स्थान दिहरणोय होत है भौर सौत्य दिवस पे सवनकेफ़म से हुभाकरते 
ह॥ २६ ॥ दके पश्चात्‌ पौत्रेय जो द्त्यवाहन कहा गया है, शान्ति यौद 
प्रचेता अनिन द्विदीय सत्य कहा जात्ता दै ॥ २७ त्था विश्वदेव भग्निजो दै 
षह तोप्रह्छस्यानमेक्हा जाता है! अवधू भौर अच्छावाक तो मुव. स्थानमे 
विभावित ( प्रकट) हेतादै॥ २८॥ 


१०२ | {[ वायु पृदक 


उशीराग्निः सवीर्य॑स्तु नैष्ठीथः सविमाच्यते । 

णष्टमस्तु व्यरत्तिप्तु मार्जालीयः प्रकीत्तित. २५ 

धिष्ण्या विहरणीया ये सौम्येनन्येने चैव हि । 

तयोः पावको नाम स चापां गर्भं उच्यते ॥३० 

अग्निः सोऽवभृयो ज्ञ यः सम्यक्‌ प्राप्याप्मु यते । 

हच्ट्यस्तत्सुतो ह्यग्िनिर्जठरे यो नृणा स्थिते. ॥३१ 

मम्युमानू जाठरस्याभ्नेविद्धानम्निः सुनः स्मृतः । 

परस्पसेच्छितः सोऽग्निभूं ताना ह्‌ विभूर्महान्‌ ॥:२ 

पुत्र सोऽगेर्मन्युमतो घोरः सवत्तं क स्मृत, । 

पिवन्नपः स वसति समुद्रं वडवामुखः ॥ द 

समुद्र वाससिन. पुत्रः सहरक्षो विभाव्यते 

सहरक्षसुत. क्षामो गृहाणि स दहेन्नृणाम्‌ ॥द् 

क्रव्थादोऽभ्नि, सुतस्तस्य पुरुषानत्ति यो गतान्‌ } 

इत्येते पावकेस्याग्नेः पूना ह्यं व प्र तिता, ॥३५ 

सवीयं उणीराग्नि तो नंषरीयं सम्भावित होता दै । जो मारवा ध्वरति 
है वह तो मार्जाीय कहागयाहै ॥ ६१ जो धिष्प्य विहरणीय भ्य 
सौम्ये द्वा होति ह उनमे एकु पावक नाम वालाहैष्रह्‌मपा र्न क्हाजपा 
करता है ॥ ३०॥1 दह्‌ भवभय अग्नि जानना चादिश्‌ जो भती-मौति प्राच 
जलो मे हुयमान किया जाता है । उपका पृत्र हृच्छय भगिनि होतादहैगो मनर 
कैजठरमे स्थित दोताहै ॥ ३१ जठर कौ रहने वाली जाठर बनिनिका 
विद्वान्‌ मन्युमान्‌ जभ्नि सुत कहा गया है । परस्पर मे उच््ि बहु म्नि भूतौ 
का महान्‌ पिभ दोता है ३२॥ वह्‌ मन्युमान्‌ अग्नि करा पुत्र धोर सम्बत्ता 
कटा गया दै । बहु जला पान करता हभ वड्वामुख समुद्र मे निवास त्रिया 
करता है ॥ ३३ ॥ समुद मे निवा करने वे का पुत्र सट्गहो विमावित होता 
है 1 सहर कापूत्तक्षाम होता है वहं मनुष्योके धरोंको ललादिषयकष्ठा 
दै ॥ ३४ ॥ द्रव्याद्‌ मग्नि उसका पूष है जो मरे हए मनृप्योके एका 
भोजन दिया क्रतद । इतनेये पावक म्नि के दृव्रहैजोवि हस श्रा षे 
कटे ण्ये ॥ ३५॥ 


सन्निवेश वर्णन ] { ३०३ 


ततः शुचेस्तु येः सोरेेन्धर्वेरसुरादतेः। 

मथितो यस्त्वरण्यां वे सोऽभ्निरम्निः समिध्यते ॥३द 
आायुर्नामाथ भगवानु पक्नौ यस्तु प्रणीयते । 

आयुपो महिमान पुत्र. स शावान्नामतः सुतः ॥३७ 
पाकधकज्ञेप्वभि मानी सोऽग्निस्तु सवनः स्मृतः 1 
पुत्रघ्च सवनस्याग्नेरदभुतः सर महायशाः ॥३८ 
विविचिस्त्वदुभुतस्यापि पृद्रोऽ्नेः स महान्‌ स्मृतः। 
भ्रायदिचत्तेऽय भीमानां हृतं मुक्त हविः सदा ॥1 ३ 
वििचेस्तु सुतो हयर्को योऽग्निस्तस्य सुतास्त्विमे । 
अनीकवानर वासृजववांरव रक्षोहा पिवृहृत्तया 1 
सुरभिर्वैसुरत्नादौ प्रविष्टो यश्च सकमवानर्‌ ॥४० 
शुचेरग्नेः प्रजा ह्यपा बह्ञयस्तु चतुद श 1 

इत्येते वह्नयः धोक्ताः प्रणीयन्तेऽ्ररेषु ये 119१ 
आदिसगें ह्यतोता वै यामैः सह्‌ सुरोत्तमैः । 
स्वायम्भुवेऽन्तरे पूवे मग्नयस्तेऽभिमानिन. ॥४२ 


इसके अनन्तर शुचि सौरि का जित धबुरावृत्त मन्वर्वोके द्वारा बरणी 
मे मधन किया हमा अन्नि है वह अर्भ समिद्ध क्रिया जत्ताहै॥३६॥ वह्‌ 
परगवानू भायु नाम वाला होता है जोप्ुमे प्रणीत क्ियाजातादहै। भायु 
नामक म्नि का पुत्र महिमान्‌ पुत्र है वह शावान्‌ नाम वालापृत्र कटागयाहै 
॥ ३७ ॥। पराक यर्ञामे जो अभिमानी भणति दै वह सवन कहा गया दहै । सवन 
भभ्निका पुत्र यह महान्‌ यश वावा जदुभूत होता है १1३९ ॥) अद्भुत अभ्नि 
काभीपुवर विदिधि होता है जो कि महान्‌ कदा मयाहै। वहभ्रीमोके 
प्रापरिषत्च में वंदा हवन क्रि हए देवि को खाथा करता है ॥ ३६ ॥ विविचि 
मनि का पूवर बकं है उसके पुत्र ये होति ह जिनके नाम अनीकवान्‌, वाखजवान्‌, 
रकोहा, पितृ ` कृत्‌ बौर सुरभि ह॑ जौ स्वमवान्‌ वमुरलादिर्गे प्रविष्टौ गया 
ह 1४०॥1 ये गुचिनामङ अभ्निकी प्रजा ह गौर चौदह दद्धि! ये वल्लि 
च्हेगयष्टे जाक अष्वरोमे प्रणत हेतिह्‌ 1 ४१॥ सुरोत्तम यापाङके स्राव 


१७४ | [ दु पराण 


थादि सगं मे यतीतद्ए्‌ ह जो स्वायम्भुव न्तर मे षटित्रे जौ बनि ॥1 
अभिमानी पे ॥ र ॥ 


एते विद्रणौयास्तु चेतनाचेतनेप्पि्‌ । 
स्यानानिमानिनो लोक प्रागायनु हेव्यवाद्ना. ।४३ 
काम्थनैमित्तिाजेये वेते वर्मस्ववस्यिताः । 
पू्मन्वन्तरेऽतीते गुक्नेर्यामैः सुतंः सद्‌ । 
देवंर्महार्ममि पुर्ै. प्रथमस्यान्तरे मनोः 1४४ 
इव्येतानि मयोक्तानि स्यानानि स्यानिनश्च ह्‌ ) 
तेरेव तु प्रसह्लयातमतौतानागतेप्वपि ॥४५ 
मन्वन्तरेषु सरवेयु लक्षण जातवेदसाम्‌ । 

सवे तपस्विनो ह्यते सवे ह्यवभरया स्तया 1 
प्रजाना पतयः सवे ज्योनिष्मन्तस्च ते स्मृताः ॥४६ 
स्वारोचिपादिपु ज्ञेयाः सावर्न्तेषु समु । 
मन्वन्तरेषु सर्गेषु नानाल्पप्रयोजनं. ॥४७ 

वर्तन्ति वर्तमानश्च देवैरिह सहाग्नयः । 

अनागते सुरे. साधं वर्तन्तेऽनागताग्नय. 119८ 
इत्येष विनयोऽगनीना मया प्रोक्तो यथातथम्‌ । 
विस्तरेणानुपूगधर चर पितृणा वक्ष्यते तत ॒॥(४२ 


ये सब यहां परर चेतन शौर यचेतनो भे विहरणोय लग्न ह । सतार 
स्थानाभिमानी हव्यवाहन पिले वे ।} ४३॥ ये सव कामना वति कान्य 
सथा नैमित्तिक एव भजमन कमा मे सदस्थित रहा करते ह । पिते अतीत 
मन्वन्तर मे शुक्त याम पृतरोके साय तथा मनुदधेजो कि धम या उपदे मन्तः 
मे पृष्यशोल महात्मा चौर देवो के घायथा ॥४४॥ ये सबरयेने स्यानियोके 
स्थान बतला द्यि ह उनकेद्वाया हौ अतीत मौर अनागततोमे मौ प्रष्यात ह 
॥ ५५ ॥ समस्त मन्वन्तरो मे जातवेदो के लक्षण कटे गये ह । वे सव तपस्वी 
ओर सभी मव्य ये । ये सव प्रनाओो ॐ पति ओर ज्योतिष्मान्‌ कदे गप ६ 

ध ४६॥॥ स्वारोचिय मादि ओर साव्यं अन्त वानि यातो मन्वतयो मे सई 


१०६ ] [ पापु पृण 


तत उप्र हये ॥ ३॥ मधुआद्रियेषठ ऋग ह उन पिदृ गह दै।. 
"कतु वितर भौर देव है” इत प्रशार वानी यह्‌ वैदिकी श्रुति है ॥४॥ म्व 
ष्यतोत हए तथा अपगत मन्वन्तर मे मी शुम स्वायम्मुद् मन्कन्तर मैवे भग 
प्दिते उदघ्तद्ये ह ॥ ५५ ये नाम से अग्निष्वात्त तथा वर्हिषद बहे गये ६1 
उनके मयस्वरा गृहमेधीये । जो अनादित अभ्नियेये भमगिनष्वत्त वदे ४) 
॥६॥ उने जो यञ्ायेवे सोषपीयी पिततरये। वे ्म्निहोत्री पितरर्वाद 
ए कदे गये ह, छु पितर ओीरदेव ह, मह इष णास्य मे निरिवत मठ होगा 
1७) 
मधुमाधवौ रसौ ज्ञेयौ शुचिशुक्रौ तु शुष्मिणौ । 
नमश्चैव नभस्यश्च जीवावेत।च्‌ दाहृतौ ।० 
पश्च व तयोजंश्च सुधावन्ताय्‌ दाहुतौ । 
सहश्च व सहस्यश्च मन्युमन्तौ तु तौ स्मृतौ 1 
तपश्च व तपस्यश्च घोरावेनौ तु शंशिरो 11 
कालावस्थास्तु पट. तेपाम्मासाख्या वै व्यवस्यता. 1 
त इभे छतव प्रोक्ताश्चेतनाचेतनास्तु गै 114० 
ऋतवो ब्रह्मणः पृत्रा विज्ञे ास्तेऽभिमानिनः। 
मासाद्धं मासस्थनेपु स्थान च व्टतवोत्तं वाः ॥\११ 
स्थानाना व्यतिरेकेण ञेया स्थानाभिमानिनः । 
महो रात्र च मापाश्च तवश्वायनाति च ।\१२ 
सवस्सराश्च स्यानानि कालावस्याभिमानिनः 1 
निमेपाश्च कलाः काष्ठा मुहूर्ता मै दिनक्षपाः ।१३ 
एतेषु स्थानिनो ये ततु कालावस्यास्ववस्थिताः। 
तन्मयत्वात्तदात्मानस्तानू वक्ष्यामि निवोधत ॥१४ 
मधु गौर माधव र जानने के योग्यहं। शुचि बौर शक्र पुष्मी द † 
प्र जोर नम्यये दोनो जोव उदाहृत दृष्‌ हँ ।\ <॥ दष भौर उनंये देत 
वान्‌ कटै मये है ¢ षह भौर सह्य ये दोनो मन्युमान्‌ कहै यये है । तष शीर 
स्यम दोनो षो, सौलिर कदेगये हं ॥६॥ उनके वा को भव्या 
तौहैजो कि मासोके नामद्ेव्यवस्विन है वेह ये ऋतुष्वेलन मौरभ चे- 


देववन वर्मन ] [ ३०७ 


द्नक्ठ गद ॥ १०1 च्छनुध अभिन्नो टा केयुथ है ठेडा दानना 
श्वादिष्‌ ॥ मादादमात् स्यार्नोें च्छनु्मो कास्यानदै ॥ ११११ स्यानातिमाने 
केस्वानोदे व्वननरेने टी जटोरात्र. खान, चनु जौग आ्ठन हेते? ॥१०॥ 
कालावम्धानिमानौ द सम्वत्नर स्यान दत्रे दनो प्रर तरे निमेप ख्ना, 
वगा, वृर्र्न, दिन नौर ष््पाम्पानट्तरेटै ॥ १३१ इनन जौ म्यानीरहवे 
सव्र काववेन्याद्ों तरं जदस्यित ठै! ठन्मव टोनेञेवे उदाना हेतर्हुखनन्ने 
यवङ्ट्ताहस्नो ममीमाति मनञ्नलो॥ १४॥ 

पर््यास्तिययः खनन्या पक्ना मात्रादधं निता । 

द्रं माप मा्न्तु द्रौ माचादृनुख्च्यते 1१५ 

श्तु नय चायन द्धं जयने दक्निगोच्चरे1 

ख॒वेत्मर मुमेक्स्नु स्यानान्येतानि स्यानिनाम्‌ 11१९ 

श्त. नुमेकयुना विक्तेयाह्यटातु पट्‌ 1 

चदनुपूनाः स्मृता पच प्रजास्त्वात्तदलक्नषयाः 114७ 

यम्माचचं वात्तत्रपाम्नु जायन्ते स्याटजद्धमा. 1 

वा्तवा पिनरर्चं व -छतवरच पितामद्ाः ॥¶८ 

सुमेकात्तु परमूयन्ते च्िवन्ते च प्रजात्तयः॥ 

तस्मान्‌ स्मृत प्रजाना वै नुमेक्ग प्रपितामह ॥१४ 

स्यनेष्‌ स्यानिनो हयं ते स्वानाद्मानः प्रौत्रिता. 1 

तदाष्यास्तन्मयत्वाच्च चदात्मनाश्च ते स्मृत्ताः ॥२० 

भरनापत्निःस्मूतो यन्नु चतु सत्त्छरो मत । 

स॒ब्न्मर म्मृतो ह्यग्नि तदनमिध्युच्यते द्विजै. ॥२१ 

परवग्य त्िपियांदोतीहै। सच्याप्क्न मादक अर्येमागदै, द्म शरा 
दानाहोनाडहै। दो यर्पह एङ मादो दै प्रयत्‌ दोपन्नो का एड 
मापरदोठादै। बौरद्नौ म्क्ररघेदो नाकोकारए्क तु रोादटै। तीन्‌ 
श्नु का एक जयन्‌ दोव दै जीर वे दक्षिण ठया उत्तर मनने दोअयन 
दतेदै। दो यनो का एर सम्वत्सर दोउ दै। स्यानिगोकेयेदी स्पान येने 
, दै ॥ १५.१६ ॥ च्छतु मुनिर ढे पुव जानने चिरवे अठ प्रद्र 
, ६ै। च्टवृनोदेवूच मत्तया नसय वात पाचदते ५१० 





) 





१०८ | [ धपु कुराप्‌ 


सात्परय स्थाणु जन्म उष्पन्न होते है) बादंव पितरंद्वै भौर शमु पिम, 
होते &॥ १८॥ ये सय सुने ते प्रगत होते ह मौर श्रनाति मरते ह! मी 
लिये मूमेक्रजो होना ह वद्‌ प्रनाभो वा प्रपितामह कहा गयो है॥ १६॥ ` 
स्थानौमेस्यानी भौरस्थानामा के मचे! तत्मय होने से उनी ताम 
मारुयान भौर तद।त्मा वहे गये हँ ।॥ २०॥ जो इनका प्रजापति कंदामया 1 
वह सम्वत्तर माना गया है । सम्वप्सर अग्नि कहा गया है भौर द्विजो कै द्रप 
त्र्छमभी वह्‌ कः जातादै।२१॥ 


ऋनात्तु ऋतवो यस्माज्जज्ञिरे ऋतवस्तत । 

मापना पडृतवो जं यास्तेषा प चार्तवा. सुता ॥२२ 
द्िपदाचतुप्पदाचंवे पक्षिसस्पेतामपि । 

स्थाव्रराणा चप चाना पुष्य कालार्त स्मृतम्‌ ॥२३ 
शतुत्वमात्तंवत्व च पितृत्व च प्रकी तितम्‌ 1 

इत्येते पितरो ज्ञ या ऋतवश्चात्तं वाश्च ये ॥२४ 
सर्वभूतानि तेभ्योऽथ ऋनुकालाद्विजज्ञिरे । 
तस्मादेतेऽपि पितर अत्तंवादइनिन श्रूतम्‌ ॥२५ 
मन्वन्तरेषु स्वेपु स्थिता कालाभिमानिन 1 
स्थानाभिमानिनो ह्यते तिष्ठन्तीह प्रसयमाव्‌ ।।२६ 
अग्निष्वात्ता वर्हिपद पितरो द्विविधा" स्मृता । 
जज्ञाते च पिघृभ्यस्तु दरे कन्ये लोकविश्रते ॥२७ 
मेना च धारिणी चंव याभ्या विदवमिद धृतम 1 
पित्तरस्ते निजे कन्ये धर्मार्थं प्रददु शुभे । 

त उभे ब्रह्मवादिन्यौ योगिन्धो चवते उभे ॥२८ 


चनम नामपि ही उपमे त उतपन्न हए है। मास घ कुदे 
समहती वादिए्‌ गौर उनके पच आत्तं व पृव्रहोति दहै ॥२२॥ द्विष्द, बतुष्पः 
पक्नो, सपपंण करने वाले यौर स्यार इन पचो को पुण्य कालात्तव कदा गय 
दै॥२३॥ नुद, आर्तव भौर पितृत कहा गया है । ये सत्र ऋतु बौ? 
जो यातव है वे सव पिनर जानने के योष्य होते ह ॥ २४॥ उन्दी समर्य 


मदिश्वरावतार-योम ] [ ३०६ 


राणी हतु काल से उन्न हुए ह । इग्लिये ये आतव भौ पितर ह देता हमने 
सुना है ॥ २५॥ समस्त मन्वन्तरो मेये कालाभिमानी तया स्वानाभिमानी 
भयम से यहां रहा करते ह ॥ २६॥ बम्निप्वात्त भौर बहिपद एेतेयेदो 
भ्रकार के पित्तर कहे गये हँ । इन पित्तरोसे लोक प्रसिद्ध दो कन्या उलन 
हई यी ॥ २७ ॥ जिनका नाम मेना बौर धारिणौ है। जिन दोनोकेष्टारा 
ह यह समस्त वश्व धारण क्रिया हभ होता है । पितसो ने वे अपनी दोनो 
क्न्थामोकोधपरकेचिष देदविया धा। वेणुभ्र दोनोहो ब्रहवादिनो तथा 
योगिनी थी ॥ २ । 

अग्निप्वात्तास्तु ये प्रोक्तास्तेपा मेना तु मानसी 1 

धारणी मानसी श्चैव कन्या वर्हिपदा स्मृता ॥ २ 

मेरोस्तु धारणी नाम पल्यर्थ व्यसुजन्‌ युभाम्‌ 1 

कषरते कहकर स्थर) चे सोनसपखन भो 

अगनिप्वात्तास्तु ता मेना पत्नी हिमवते ददु" । 

स्मृतास्ते वै तु दौहित्रास्तदौहित्रान्‌ निवोध ॥३१ 

यस्ते हिमवत" पत्नी मैनाक सान्वमूयत्त । 

ग्धा सरिद्ररा चैव पत्नी या लवणोदधे । 

मेनाकस्यानुज. क्रौञ्च क्रौशवद्रीपो यत स्मृत ॥३२ 

भेरोप्तु धारणी पत्नी दिव्यौषधिसमन्वितम्‌ । 

मन्दर सुपुवे पुम तिल कन्याश्च विश्रुता ॥२३ 

वेला च नियतिश्वव व्रृतीया चायति पनः 

धाठुश्चं वायति पत्नौ विधाततुनियति स्मूता ॥1३४ 

स्वायम्भुवेऽन्धरे पूर्ेन्तयोरये कौर्तिता प्रजा 1 

सुपुवे सागराद्रं ला कन्यामेकामनिन्दितामर ३५ 

सा्वणिना च सामुद्री पतनो प्राचीनवद्ष 1 

सवर्णा साथ सामुद्री दशप्राचीनवर्हिप । 

स्वे प्रचेतसो नाम धुर्वेदस्य पारगा 1३६ 


जो मग्निष्वात्त षदे गे है उनकी मेना मानी है बौर धारणी तवा 


११० |] { चाय्‌ राण 


मानस क्या वह्पिदोकी है ॥ २६), मेरुके लिये धारणौ नाम वाती धुम 
कन्या को पतनी बनाने केल्यि देदौ ! वे वहिपदपितानोये वे सोमपीषि 
कहे गये है 1 ३० ॥ अएनघ्वात्ते ने उठ मेना कन्या को हिमवान्‌ को पी 
बनानेके लिथेदेदियाथा। वे दौ कहलाये गये हँ मव उसके दहिन को 
जानलो॥ ३१॥ हिमाचल की पलनीमेनाने मंनाक्र का प्रसव त्रिया । सरि 
त्तामोपेश्रष्ठजोगङ्गाथो वह लवणोदधि कौ पलनोथो । मेनाकका दोग 
माई करौ था जिससे क्रौच्वहीप कहा गयाहै॥ ३२॥ मेऽपवेतकौ परली 
धारणी थो जिसने दिव्य आपधियो से युक्त मन्दर गिरि कोपूत्र ष्पमे उल 
क्प मौर तीन प्रसिद्ध कन्याये भी उ्घ्नकी थी ३॥ जिन तीनो कन्या 
कै वेला, नियति मौर तीवरी आयत्ति यनाम ये भायत्ि घाता करौ ण्ली ह 
विधाता की पनी नियति कहो गई द ॥ ३४ ॥ स्वायम्मु+ अन्तरम पूर्वमे उ 
दोनो की सन्तति कदी गई है । मेला ने सागर से एक अनिग्दित गर्थद्‌ 
भच्छीकया क प्रसव किया या) सावि केदारा प्रचीन वटि शो ममुरी 
पत्नी हुई । वद सवर्णा धौ ईसलिय सामु घौ । दत प्राचीन वर्हि ये। वेश 
धनुेद के पारङ्खत प्रवन्त नामं वाले ये ॥ ३५-.६॥ 
॥ देववंश वर्णन ।1 

प्रतागुगमचे पूर्वेमातवर स्वायम्मुवेऽन्तरे ! 

देवा यामा इति स्याता पूर्वं ये यज्नसुनपः ।॥१ 

सजिता ब्रह्मण पुत्रा जिता जिदजिताश्चये। 

पुत्रा स्वायम्मृवस्वैते दयुकरनाम्ना तु मान्ता ॥२ 

तृ्तिमन्तो गणा ह्यते देवानान्तु धय स्पृत्ता । 

छन्दोगा्तु ब्रय्धिगत्मवे स्वायम्भुवस्य ह्‌ ॥३ 

यदुरयेयातिदीं देवौ दोधय स्रवसो मति 

विभाय वरतुप्रंवभ्रजाति्िंणतो युति 

वायो मद्भलश्चव यामा द्वादश कीर्तित 

नपिमन्स्प्रह्टि समयोऽय शुचिश्रवा । 

येवलो विश्वरूपश्च सुपक्षो मधुपस्तया 1 


देवद वर्णन |] [ ३११ 


तूरीयोनिर्ैपुश्चौ व युक्तो ग्रावाजिनस्तु ते । 

यमिनो विश्वदेवा यविष्ठोऽमृत्तवानपि 11६ 

अजिरो विभूरविंभावश्च मृलिकोऽय दिदेहक । 

शू तिगशरणो वृहच्छरो देवा ददज्च कौर्तिताः 11७ 

कैतायुग मुख मे पिले स्वायम्मुव अन्तरम जौदेवयेवैयामाद्घ 
नामसेप्रपिद्ध हूए हैँ मौर जो पहिते यज्ञ सूनु ये ॥ १॥ ब्रह्मा ङे भजित पूव 
ये सौर जितत यौर जिदजिता जो पत्र येये स्वापम्भुवकेये बौर शुक्र नाम से 
मानघपृव्रहृएये ॥२॥ येतृक्षिमन्त देवो के तीन गणक्टेगयेहैमौर 
छान्दोग तो सद्या मे तेतीष ख्व ह जो स्वायम्भुव कै होतेह ॥3३॥ यदु मौर 
ययाति दो देवता, दीधय, सवस, मति, विभाख ऋतु प्रजापति, विशव, य.ति, 
बाय, मह्गलये वार्ह याम क्ठेग्ये द । भभिमन्यु उप्र दृष्टि" समय, युचि 
श्रवा, केवल, दिष्वर्प सुपश्च, मघुप तुरीय, निरहयु युक्त मौर प्रावानिनये 
धामिन हैँ । विश्वदेवा्य यविष्ट, अमृतवान्‌ जिर विमु विमव, मूलिक, 
रिदेदक, श्र.ति ग्ण, वृदृच्छक्र ये द्वाद देव कीत्तित हए ह ॥ ४-५-६-७ ॥ 

आसन्‌ स्वायम्भुवस्येते अन्तरे सोमपाथिन । 

त्विपिमन्तो गणा ह्यं ते वीयेवन्तो महावला ॥८ 

तेषामिन्द्र षदा ह्यासीद्धिश्वनुक्‌ भ्रयमो विभु" । 

अमुराये तदा तेपामासनर दायादब्रान्धवा ॥द 

सुपणंयक्षगन्वर्वां पिणाचोरगराक्षसा । 

अष्टौ ते पितृभि साद्ध नासत्या देवयोनय ॥१० 

स्वायम्भुवेऽन्रेऽतीता प्रजास्त्वासा सहल । 

प्रभावल्पसरम्पना यायुपा च वलेन च 11९१ 

विस्तरादिह नोच्यन्ते मा प्रसद्ध भवस्विह । 

स्वायम्भुवो निसर्गे विज्ञय सम्प्रत मनु ॥१२ 

अतीते वर्तमानेन दृष्टो वैवस्वतेन स । 

भ्रजाभिर्देवतामिश् व्छविभि पिन्रुभि सह्‌ ॥१३ 

तेपा सक्पय पूर्वमासन्ये वार निवोधत 1 


३१२ | [ कापु पराण 


भरम्वद्भधिरया मरीचिश्च पुलस्त्यः पुलह क्रतुः ॥१४ 

अत्रिदच॑व वसिष्ठश्च सप्त स्वायम्मुवेऽन्तरे । 

अग्नी ध्रण्वातिवाहुष्व मेषा मेधातियिवंसुः ॥१५ 

उयोतिप्मानर युतिमानू हव्यः सवनः पुव एव च । 

मनोः स्वायम्भुवस्यंते दश पुत्रा मदौजसः १६ 

ये सव स्वायम्मुव अन्तर मे सोमपाोये। ये स्वििमेनू, महाव ब्त 
वाते मौर वीर्येशील गणये ।] < ॥ उनमें दन्द सदा विष्व का मोग कौ 
वाला प्रथम विभषा नौ अतुरथे वे उनके दाथ आकष करने वाते वान्धवय 
॥ & ॥ सुपर्ण, यक्ष, म्ब्व, पिथाच उरण, राक्षस ये आढ पितृणके साप 
नासत्य देवयोनि है ॥ १० ॥ स्वायम्भुव अन्तर मे इनकी घसो प्रजा व्यतीत 
होगर्जोक्रि प्रमा, ष्य आपु ओर बल से सप्पन्न ये ॥ ११॥ यद उना 
परणं विस्तार से वणेन नदी किया जाता है । यहाँ उनका प्रसङ्ग न हव । स्वाप 
स्भुष निसर्गं अश्च मनु जानना चाहिर्‌ ॥1 १२॥ अनोत मरे वत्तंमान वैवस्यन नै 
उहेदेवायाजो फिप्रनाओ के, देवताजो के, पियो के भौर मितयो कै सा 
भथा) १३॥ उन मतिं पहने जो ये षड उनके प्रिपयमे ममललो गु 
अद्किग, मरीचि पुलस्त्य, पूलह्‌, कतु, अत्रि मौर वतिघ्र ये सात व्वयनयु् 
अन्तरम ये । यम्नी्र अतिवाह, मेघा मेषःतित्च, वमु, ज्योतिष्मद्‌ य.ति- 
मान्‌ हव्य, सवन भौर पुर ये स्वायम्भुव मनु के महान्‌ ओज वाले दश धृत ये 
4 १४.१५.१६ ॥ 

वायुप्रोक्ता महासत्त्वा राजानः प्रयमेऽन्तरे । 

सामुरन्तत्सगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम्‌ 1 

सपिशाचमनृष्यच् सुपर्गाप्सरसाद्धणम्‌ ॥१७ 

नो शकयमानुपरव्येण वक्नु वर्पगतैरपि । 

दृव्वात्तामधेयाना सद्खना तेपा ब्रुले तथा १८ 

यावै व्रनकुलाय्यास्तु भासन स्वायम्भुवेऽन्तरे । 

कालेन बह्नतीता अयनान्दयुगक्रमेः 11८ 

क एप भगवानु काठः सर्वभूतापहारकः 1 


न्वद्य वर्णन ] [ ३१३ 


कस्य योतिं विमदिण्च किन्त्व स मरिमाप्मज ॥२० 
किमस्य चश्ु का मूर्तिं कै चास्यावयव स्मृता । 
{किनामधेप कोऽस्पाप्मा एतत्‌ प्रत्र हि पृच्ट्ताम्‌ ॥२१ 
प्रयम मध्वतरमेवायुकेद्धारा करे हुए महान्‌ मप्वे वलि राजाये। वह 
रुपे वै सहित पण्धर्वो स युक्त, यक्ष, उरग भौर राक्षसो कं हित, पिशाचौ 
भुक्त तथा मनुष्यो $ सहित भौर सुपणं तथा न्तदे पणते युक्त या 
॥ १७ ॥ बहून, य नामो ती स्या उनके कुल मे थी कोति बहुत सारेनाममये 
उ सवका आनुपूरवीके साव वर्णन वरने काकायसौव्पमभी पूणनही 
क्रिवाजा सकनद ॥ १८} जो द्रनकुत पे नाम वाति स्तराषम्पूर मन्व तरमेथे 
वै अयन वपर ओरयुगके क्रम ते बहुत मधिकं बाल मे मतीत हो गये ह ॥१९॥ 
न्षियों ने कहा--ह्‌ भगवान्‌ काल जोद्गि समस्त प्राणियो कै पहरण 
करने वाला है कोन? किमक यह्‌ योनिह? इसके आदिमेक्या या? इम्‌ 
(4 वास्तविक तत्व क्यादै? भौरयद्‌ रसिका आत्मज दै ?॥ २०॥ इकर 
त क्याै ? इसकी पृत्तिं कसी दहै? ओर दभङे जय शरीरावयव कमेक 
भये? इतक्रानामक्याहै ? इसकी आप्माक्यादै? टम सत्र यह वात भाष 
पि पृ्छरदैरहै, कृपा कर ठम आप यह सव वादये ॥ २१॥ 
श्रूयता कालसद्‌भाव श्र.प्वा चेवावधायताम्‌ । 
सूर्य योनिनिमेपादि सड्य्याचक्ष्‌, स उच्यते ॥२२ 
मूत्तिरस्य त्वहोराते निमेपावयवन्च स । 
सवस्सरशत स्वस्य नाम चास्य कलात्कम्‌ । 
साम्प्रतानागतातीतकाला्मा स प्रजापति ।॥२३ 
पच्चानिा प्रविमक्तानां कालावस्था निवोधत + 
दिनाद्धं मासमासेस्त्‌, -्तुभिस्तवयनेस्तथा ॥२४ 
सवस्सरस्तु प्रथमो द्वितीय परिवःसर 1 
इदत्रस्तरृतीयस्तु चतुथश्चानुवप्सर १२५ 
वत्सर पञ्चमस्तया काल स युगसन्नित 1 
तथाम्तू तत्य च्यावः कत्य नाणः पतिघोधप्त १९४ 


११४ } ` { वापुनणम 


(सूतज मे कह्य-- थव जापर सव लोग दन वात का संदना पृते 
श्रवण करे भौर उपरो पतर हूय पे सवधपरथ भी करे । इङो योनि मर्व 
उत्परसि स्थान सूयं ह! इसकी नरथा वधु निमरेप यादि दते जतन 
जावा दै १२२॥ अहोरात्र म्मा दिनि मोर रथ हो दमौ मूतिटै भैर 
मेष हो दसी मृत्ति के यवप्रव दते है । कलासमक सौ सम्बत्पर दै इता 
नाम होतो दै। वत्तमान-भरुतं भौर भविष्ये स्वल्प गानावह प्रगति 
॥२३॥ श्रृ शूपसे विभज्य पंचोको दौ काली मद्या जानलो 1 
पौच विभाग दिवमा (पक्ष) छत्‌ माप बोरषपनेयेहे इती 
पासोका विभागहै भौर उषीसे कालको अव्या होवौ है ॥२४॥ सम्बल 
प्रय होता है-द्रभेरा परिकर वरनीय त्सर, घौर चोय अनुवत्र तपा 
पश्वेभ व्रश्सर होता है । उतकाजो कालहोता है वही युग ह मेता पे 
ह्यना है । भद उनका तस्व वतलाता हं अप्र लोग उन मतो भारि षमत 
लेवें ॥२५।२६॥ ? 

ऋतुरग्निस्व, य. प्रोक्त. स त्‌. संवत्सरो मतः। 

आदित्ये यस्ससौ सारः कालग्निः पित्र. ॥२७ 
शुक्लकृष्णा गतिश्चापि अपरा सारमय. खगः। 

स इडवित्सरः सोमः पुराणे निश्चलो मनः 11२० 

यश्वाय तपते लोक्रास्तनुभिः सप्तसप्ति. 1 

आशुकर्ता च लोकस्य ख वायुरिति वत्सरः ॥२१ै 

अह द्खारानू दन रद्र सदुमूतो ब्रह्मणख्ेप । 

स रट्रो पत्सरस्तेपा विजने नीतलोहित. 1 

तेषा हि सत्वं वक्ष्यामि कव्यं मान निवोधत (1३० 
अङ्गपरःयद्वसयोगान्‌ कालात्मा प्रपितामहः । 

्रब्‌साम यनुपा योनिः पञ्चाना पतिरीश्वरः ॥२१ 
पोऽगिनर्यजुष्व सोमश्च स भुत. स प्रजापतिः । 

भोक्त. सवत्मरश्चेति सूर्यो योऽग्निंनी पिभिः ॥३२ 

यस्मात्‌ फालविमागाना मास्रत्वं यनयोरपि । 


देवृ वर्णेन |] ~ [ ३१६ 


ग्रहनक्षत्रश्ोततोप्णवर्पायुः कमणां तथा । 

योजितः प्रविभागाना दिवस्नानास्व भास्करः ॥३३ 

जोश्ूतु मग्न कहा गया है वह्‌ सम्वत्सर माना गया ह । यह्‌ मादित्य 
कासार है, कालागिनि परिवःसर हना है ॥1२७॥ शुवल दृष्ण गति है मोर जलौ 
काप्तारमय वग है । वह्‌ इडाव्मरस्रोम है जो कि पराण मे निश्चय किया 
प्याह ॥२८॥ जो यह सत्-मध तनमोतेखोकनो को तक्तादै वह्‌ लोकका 
वागुक्ता वायु ई कौर वरर होता ,है 1२६ भदद्धारदे षदन करवां 
हराष्द्रश्रदया से सदुभूत हप्र । वह रद उनक्गा (नीललोहित वत्र उत्सन्न 
हुमा । मव प उनङृ। कहा गवा तत्व वनलाता ह जिम भप समज्च तै्े ||३०॥ 
भद्नौ मौर प्रत्यद्ो ॐ सयोयसे कालाल्ना स्यतु कालत स्वस्प्वाता प्रपिता 
महदैजोकरि क्‌ साम भौर यजुका जन्मस्यान है शौर पाचोकापति 
श्वर ह ॥३१॥ वह भग्नि य्जुओरसोमदहै वह्‌ प्रजापति है { भौ सम्बत्पर 
क्हामयारहैसोर मनीचियोकेद्रायजो बग्निसूर्मक्हा गणा हुं | ९२्‌॥ च्योकरि 
कत कै विमागो का, मास, ऋत्‌, नौर भयन का तथा प्रद्‌, नक्षत्र शीत्त, षण्न 
वर्पा, छाथ. कर्मोकता मौर प्रविभाग दिवर्मो का भास्करी योजितं ६।३३॥ 


वैकारिकः प्रसन्नात्मा ब्रह्मपुत्रः प्रजापति. । 
एकेनैकोऽय दिवसो मासोऽयतु : पितामहः 11३8 
जादित्य सविता भानुर्जीवनो ब्रह्मसत्कृतः । 
प्रमवषचात्य मदचैव भूताना तेन भास्कर. ३५ 
त्ताराभिमानी त्रिज्नोयस्नूतीयः परिवत्सरः 1 

सोमः सवौपधिपतिर्यस्मात्स प्रपितामह ॥२६ 
आजीव. सर्वभूतानां योगक्षेमकृदीश्वर. 1 
अवेक्षमाणः सतत विभति जगदयुभिः ॥३७ 
त्तिथीना पव॑सन्धीनां पूणिमादल्लंयोरपि । 
योनिनिशा करो यश्च वौऽमृतात्मा परजापतिः 1२५८ 
तस्माद्‌ स पित्रुमानू सोम चग्यजुरछन्दजात्मकः- 1 


११६ ] { वषु पूरण 


प्राणापानसमानार्चव्यानोदानः्मदं रपि ॥३य 
कमभि प्राणिना लोके सर्वचेष्टाप्रव््तंक 1 
प्राणापानसमानाना वायूनाच प्रवर्तक ॥४० 
वंकारिक-~प्रपप्त म प्मा वाला, ब्रह्मा पु प्रनापतिहं । एक दिन, म्र 
भौर ऋतु पिताप्रहु॒ वह्‌ ॥३४॥ आदित्य सविता मान्‌., जीवन भौर ब्रहम के 
द्वारा स्कार प्रास होते व्राला, प्रमवओौर प्रायि का य्यप्‌ कह्‌ होवा 
दसौते भास्कर कहा जाता हं । १३६॥ ताराभिमानी तीवरा परिषिनद 
जानना चाहिए \ सोम समस्त यौपधियो का स्वामी होता है इती कारण से वह्‌ 
परापितामह हता हैया कटा गया है ।३६॥ यह्‌ समस्त जीवो क्रा भागव है 
योगक्षेमके करने वाला भौर ईश्वर है। सर्वदा निरीक्षण करता हमा ईन 
जगत्‌ काकिरणोके दवारा भरण किया करता है ॥३७} तिथियों का तथा पव 
साषयोका एव पूणिमा भौर देक काभी जौ निशाकर योनि होत्रा है गौर 
जो शमृतात्मा एव अ्रजापति है ॥,३८॥) उपमे वहं पितूमान कक्‌ पच भीर 
स्थप वाला सोम प्राणापान समानादि तया व्यान मोर्‌ उदानात्मक कणे ॥\ 
केद्वारा लोकगे प्राणियो कौ समस्त चे्टाओो का प्रवत्त॑क होता दै भौर ण 
अपान ९व समान वायुज का प्रवत्तक ठोता है ॥३६।४०॥ 
पन्चानाचे न्दरियमनोबुदिस्मृति जलात्मनाम्‌ 1 
समानकालकरण क्रिया सम्पायन्निव ।४१ 
सर्वात्मा सर्ेलोकानामावह्‌ प्रवहादिभि } 
विधाता सर्वभूताना क्षमी नित्य प्रसञ्जन ।४२्‌ 
यानिरम्नेरपा भूमे रवेन्छन्द्रमसश्चय । 
द प्रजापत्तिभरत लोकाप्मा प्रपितामह ॥४३ 
पति मुखेदवे सम्यगिष्टफलाथिभि, ) 
भेरेवे कपातेस्तु भम्वकं रोयधिक्षये । 
प्ते भगवान यस्मत्तस्मात्‌्यम्बक उच्यते ॥४ 
प््ी चंवत्रिषटष्‌ च जगती चैव या स्मृता । 
म्या नामत प्रोक्ता योनय सवनस्य ताः ॥१५ 


देववर वर्णन ] {[ ३१५ 


ताभिरक्त्वभूतानिखिवधारमि स्व्वीयत । 

त्रिवाचनपुराडान्नलि कषाय म वे स्मृत. 11४६ 

इ्येतत्पन्दवपं हि युग प्रोक्त मनीपिनि, । 

यञ्च व प्त्रधात्मा वै प्रोक्त वत्सरो द्विजै 1 

सक पट्‌्क विजज्ञेऽय मघ्वादोनृतव तिल ॥४७ 

पर्चो इन्द्रिय, मन, वुद्धि, स्मृति यौर जनाद्मङा का समान करालक्रते 
चालातथाद्रियाजो को मानो सम्पादन करता हूमा- सवम गौर प्रवादि 
कै द्वारा समस्त सोक्यो का मादटन कएने वाला तया बनस्त भूतो का विषाता 
यौर क्षमौ प्रमञ्जन निष्य होना ठै ॥४१।४२॥ जो चण्नि, जल, भूमि, सूरं 
भौरचद्रम क्षा दरष्म स्यानयोनिदै ट वायु सूतो का प्रगापत्ि, लोकात्मा 
मोर प्रपितामह है ।४२॥ मनी भाति दष्ट फना के र्यो प्रजापति प्रधान देवा 
कै द्वारा तपा तोनोटी कप्रालाकै द्वारा भौर ओपवि दायते गम्वर्नोवे दारा 
भगवान्‌ का यजन निया जाता दसौ वारण से वह ध्यम्बक इशानामसेक्े 
जति दहै ॥४४॥ गायत्री, त्रिष्टुर्‌ जवनो ओ कदी गई मौरनाममे म्वा 
कटी गर्टैवे सवनद्ौ योनिह 11^६। एक-वमूत उन तीना प्रकरारदालौ ख 
अग्नवौय सख तीन माधनके पुरोडान दालाहै इसौ लियं बह वरिक्पास कदा 
गाह ॥१८॥ यह इतना पचि वपंका मनीपिरोंतेगृगक्ठाटैमीरयढी 
भय्व प्रसर ऊ ्वन्य वाता द्विनोके द्वारा मम्ब मरक्टागयादै! वह्‌ एक्‌ 
पटक पैदा जिया जोकि मधु आद नुं दँ 1४८७1 

तुपु नात्तंव पञ्च इत्ति सर्गं समासत । 

इयेष पवमानो व प्राणिना जीवितानि तु 1४८ 

नदी वेमसरमायुक्त कालो धावति सह्‌ । 

जहोरानकरस्तस्मान्‌ म वागुरनवत्युन ॥५द 

एते प्रजाना प्रतय प्रधाना स्वैदेहिनाम्‌। 

पित्तर सव लोकाना लोक्ात्मन प्रदीतिना ॥५० 

ध्यायतो ब्रह्मणो वक्वादु्यय्‌ सममयदूभव ॥ 

-ऋपििप्रो मद्देवो धूनात्मा प्रपितामद 1५१ 


६१८ ] [ वपु पुदाण 


ईश्वर. सवं भूतानां प्रणवायोपपचते 1 
आत्मवेश्ेन मूतानामद्धप्रव्यद्धसम्भमव ॥५२ 
अग्निः सवत्मर्‌ सूर्यश्चन््रमा वायुरेव च । 
युगाभिमानी कालात्मा नित्य सक्नेपटृद्धिमु । 
उन्मादकोऽनुग्रद्ृत्त इत्सर उच्यते ॥५३ 
स्दरविष्टो भगवता जगत्यस्मिन्‌ स्वतेजसा । 
आघ्रयाश्नयस्योगात्तनुभिर्नाम भिस्तया ॥५४ 


तुभो के पृथ आात्तवरपाचष्। मक्षेपते यही मं होना है। ६ 
भ्रानियो के जोवनो का पवमानं होता ह ॥४८॥ नध के वेग के समान ही 
सवका सहार करना हुभा दौडा करता ह, बहोरा् करने वाला ह हममे द 
फिरवायुहो गयाया ॥५६।॥।ये मव प्रजाओ प्रात पतिं ह, ओर समत दै 
धारियो के पति है भौर ममश्त सोको के पितर है अतएव वे लोहरा धरित 
हृष है ॥५२॥ व्यान मे स्यत ब्रह्माजी के मुखस भव उवत्रहृएये जोक 
चपि, विप्र, महादेव, भूतात्मा मौर प्रपितामह है । ॥५०॥। समह प्राणिणोके 
ईश्वर प्रणव के तिथे उवगन्न हाते है । आसव वेमे भूतो अङ्ग प्रय 
सम्मव होते ह ॥५२।। अग्नि, सम्बत्घर, सूं, चन्द्रमा अर वापुये युगाभिमानी 
तके स्वस्प वाते विभ. ओर नित्य हो सोप करने वाते होति ह उनम 
मौर अनुग्रह करने वाले ह वह इदत्सर कहे नते टै । ५३॥ आधरगाशरय 
सयोय मे तनुओ के तया नाम्मेके द्वारा इहु जगती ठेल पे भपवान के श्प 
यपे तेज इदराविष्ट होति ह 1५४1 


ततस्तस्य तु वीर्येण लोकानुग्रहकारकम्‌ 1 
द्वितीय भद्रसयोग सन्तततस्यंक कारकम्‌ ॥५५ 
दैवत्वज्च पिघृत्वस्च कालत्यल्चास्य यत्परम्‌ । 
तस्माद्र सवथा भद्रस्तदरदुभिरभिपूज्यते ५६ 
पतिः पतीना मवान्‌ प्रजेशानां प्रजापनि. । 
भवन सर्वभूताना सर्नेपा नीलनोहितः। 
ओपधोः व्रतिगन्धत्ते स्द्र. क्षीणाः पुत्र पुन ॥५७ 


युगधर्मं निन्पण | | ११६ 


इत्येपा यदपत्यं वं न तच्छक्यं प्रमाणतः1 

वहृत्वातु परिपषह्ुचातुः पुत्रपौत्रमनन्तकम्‌ ॥५न 

इम वेल प्रदेणाना महता धृण्यकरमेणाम्‌ । 

कोर्तयन स्थिरकीर्तीना महतो सिदधिमप्नुयान्‌ )५६& 

सके अनन्तर उसङे वीयं से लोको पर अनुग्रह करने वाला सन्ततका 
एक करने वाला द्वितीय मद्र संयोम होता ह॥ ५५१ देवत्व, पितृत्व भीरः 
इसका कालत यत्पर दै उससे सर्वया भद्र उसी कै भांतिविद्ानोके द्वारा बभि- 
पूजित होति ह ॥ ५६ 1 भगवान्‌ पत्तियोकेभी पतिओौरग्रनाके ईशोंके भरी 
प्रजापति तथा समस्त प्राणयो जन्म स्थान एव नीत लोहित ह । स्र पुनः पनः 
कषोण हुई सोपधियो का सन्धान करते ह । ५७ ॥ इनङ्ी जो सन्तति दै वह्‌ 
प्रमाणक स्वल्पमने कही नदी जा सकती षै । वेहृत होने ऊ कारण उनकी प्रि. 
सख्या भो नही कौ जास्ती है वयोकरि पुत्र भौर पीवो का कुं मी अन्त नही 
है ॥ ४८ महान्‌ एवं पुण्य कमं वाले इन ्रजेशो का नो यह्‌ वंश रै जननी 
कि कौत्ति प्थिर दै उका कीत्तन क्रते हुए महती सिद्धि की प्राति 
होती दै ॥ ५६॥ 

॥॥ प्रकरणं ३०-युगधमं निर्ण ॥ 


अत उद्धे" प्रवक्ष्यामि प्रणवस्य विनिश्चयम्‌ 1 
मोद्धारमक्षरं ब्रह्म त्रिव्णं-चादितः स्मृतम्‌ ॥१९ 
यो यो यस्य यथा वर्णो विहितो देवतास्तथा । 
श्रचो य्गुपि सामानि वायुरग्विस्तथा जलम्‌ ॥२ 
तस्मात्त, अक्षसदेव पुनरन्ये प्रजज्ञिरे । 
चतुदश महात्मानो देवानां ये तु देवताः ॥३ 
तेषु सर्वेगतश्च व सवग सर्वयोगवित्‌ 1 
अनुग्रहाय लोकानामादिमव्यान्त उच्यते ॥४ 
सप्तर्पयस्तयेन्दरा ये देवाश्च पत्रभिः सह्‌ 1 
अक्षरान्नि सृता सरवे देवदेवान्मरैश्वरात्‌ ।॥* 
शृामूत्र हितार्थाय वदन्ति परमं पदभ 1 


३२० | [ भावष 


पूवमेव मयात्तस्त वालम्तु युगसक्ञिन ॥६ 
वृत चेला द्वापर धूमादि कतिना सद्‌ । 
परिवर्तमानैस्तं सव श्रममाणेपु चक्रवत्‌ ॥५ 
दवतास्तु तदोद्धिग्ना कालस्य वशमागना । 
न शक्नुवन्ति तन्मान सस्थापयितुमात्मना 15 


श्री वायुदेव ने कहा - इषके आग अव हम प्रणवतरा विनित्वप क्टो। 
भोद्धार जो भशर ब्रह्म है भोर यह भादितेतौन वर्णं वाला कदा गया है॥१। 
जोजो जिसका जना भो वणं मौर देवता विदित करिया गया हैर्वमादीश् 
यु साम्‌, वारु भग्नि भौर जल होता है ॥ र ॥ उन मनर सेहौफिपमः 
उप्प्त हए ह + वे चौदह महान्‌ मात्मा विरह नौ दधोकेभीदेकतह 
ह।३॥ उनम सवगत, समम ओौरक्षवयोग का वेत्ता लोगो के ऊर भनु 
कर ह लिय भादि, मध्य तया जन्त कहा जाता है ॥ ४॥ मवि इ मौ 
भोदेवह बे पितरा के साय सव अक्षर देवा के देव मरेशर ते ह निगृत द 
है॥ ५॥ यहां मौर परलोक मे हिताय के ल्य परम रद कहते है। मिषु 
की सत्ता से युक्त वान प्रहिते हौ वनलाग्या दै॥ ६॥छृतवुण त तादा 
युमादि इभ कलियुग के साव परिवर्समान उनके द्वारा ही चक्र की तिधा 
माण होने पर तव देवगण अप्यन्त उद्विष्न होकर इम काल बे वयभरेअ ई 
मौर अपने पते उस मगन की सस्थापनान बरस्केह॥७८॥ 


तदा ते वाग्यता भूष्वा आदौ मन्वन्तरस्य वै 
बहपयण्चैव देवाए्व इनद्रश्चव महातपा ॥४ 
समाधाय मनस्तीत्र सहृख परिवत्सरान्‌ । 
प्रपनास्ते महादेव भीता कालस्य वै तदा ॥१० 
अय हि कालो देत्ेशश्चनुमूं त्िण्नतुपरं ख । 

कोऽस्य विद्यान्महादेव अगाधस्य महेश्वर (\११ 
अथ दृटा महादेवस्त तु वाल्चतुमु यम्‌ 1 

न ब्रेतव्यमिति प्राहुवाव काम प्रदीयतामु 114२ 
तवरिष्याम्यट स्वन वृथाय परिश्रम । 


युयम्‌ ननिन्ष्ण | ॥ 


1] 
0 
(1 


उवाय देतो भगवान्‌ न्वयद्ुःत नृदुर्जय 1१३ 
यदेतस्य मुस दवेत चनुवित्व हि सक्ष्यन + 
एतत्‌ नयग नामतन्य कान्‌न्य व मखम्‌ । 
जनौ देव" मुर्रेष्ठो त्रह्मा वंवस्वनो यृ 11१२ 





उम ममेय वे वाग्यत अर्यानु मौन हकर मन्वन्तरके आदिमे दवा, 
द्पिषण मोर्‌ महान्‌ तप वाला दृद म्टगरों पग्विच्छर पवत तौद्रमन कौ 
समादित्त दरे ठव्र कालस्ते दरेटूएु महदेववें शरणमे प्राह टृ ॥ ६१० 
यह्‌ चार मूत्तितवाचारमूवोवालादेवो्ा ठ्या क्नया।ह्‌ मरटध्वर {दह 
मदादैव | जमाव इयको कौन जानता ॥ ११ ॥1 इङ्गे यन-तर ट्च चार्‌ 
मुवो वाति कात कौ मटादैवजौ न देवकर क्टा-ढरो मत। व्रापत्राक्या 
कामद मु वनाओो 1 १२ ॥। मदर्य स्वय मण्वानु कदेव ने कटा वह मव 
मनुम्दराराक्यं वम्गा। यह्‌ तुम्हारा मारापरिधरमव्यव नही ह्येता ॥ १३॥ 
यापद्‌ इमक्तास्वन मृवजौद्गि चार त्रिह्वा वाहा लश्लत्रदोष दै नयु 
नाम वाता उव कान का मुष । पट्‌ सुरामे श्रेटब्रह्ा दवै मौर वैवस्वत 
मटै ॥ १४६॥१ 


यदेतेदरक्तवर्णाम त्रृतोय वः न्मृत मया 1 

त्रिजिह्ल सेतिटान नु एतन्‌ तैनादुग दिता ॥१६५ 
जत यननप्रवृत्तिसनु जायते दि महेष्तराते । 
ततोऽन ज्यते यज्ञस्तिन्बो जिद्वाख्योऽग्नय ॥ 
इषा चैवाग्नयो विप्रा कातरजिद्धा प्रवर्तते ॥१६ 
यदेनद्रं मुख भीम द्विजिद्व रक्तपिद्धतम्‌)। 
द्विपादोऽन मविप्यामि पर्‌ नाम त्‌गमर्‌ 1113 
यदेलन्‌ हृप्मवर्णामि तुरीय रक्त पोचनभ्‌ 1 
एक्ञिद्ध धृ श्याम तेलिटान पून पून 1१८ 
तन कलियुग घोर्‌ सववात्नयद्भुरम्‌ 1 

कल्पस्य तु मुन द्यं तचवनुर्थं नार नोषणम्‌ ११ 
न मृखन्गापि निर्वाय नर्मन्‌ नविव बु । 


३२२ | [ याुदुराग 


बालग्रम्ता प्रजा चापि युगे तस्मिन्‌ भविषप्यनि ।२० 

ब्रह्मा कृतयुगे पूज्यल्च तायः यज्ञ उच्यते 1 

द्वापरे पूज्यते विप्णुगहुम्पूज्यश्चतुर्वंपि ॥२१ 

शी यह रक्तवण कौ भाभा कला मेरे द्वारा आवक वतीय कदा गथ 
टै तोन जीम वाला इममो चाटता हृभा ह द्विजौ 1 वह बरेतागुग है ॥ १५॥ 
यहा पर भगवानु महेश्वर से यज्ञ बरमे रे परवृत्ति होती है। तते यहाँ 
का याजन किरा जाताहे । तीन जीभ बौरतीनही मन्ति । है द्रो ! मनि 
यजन करके काल जिह्वा व॑) प्रवृत्ति होती दै ॥ १६॥ यहेजो दो नभ भ 
रक्त एव पिद्धल बण वाला भयानक मुख है यहं दौ पाद वाला हौ गाणा 

दद्रापररनामवालायु1 है ॥ १७५ यह जो चतुर्थं ह्प्ण वणं की भाभा वाता 

रक्त लोचन एक ओभ वाला अयि श्यामको बारनवारचटने वाला है षठ 
घोर भमस्त लोको को भयद्धुर कतिपुग दै । यह चोचा क्त्य काभीण्ण मु 
है १६ ५ स्मयृणम नतो कोय ही होता है जरत निर्वान { मोन) 
हीहोतादै। दम यग मे प्रजा भो सव कालस प्रस्त रहा करेगी ॥ २०॥ 
कतधगमेब्रहमापूराक पाग्येनेहै। चेता मे यज्ञ कहा जाता है । दए भे 
विष्णु पूजे जाततहैजौरर्म चागोभे पञ्य होता हूं । २१॥ 


व्रहु.मा विष्णुश्च यज्ञए्न कालस्येव कलादयः । 
मवेप्रेव दि कालेषु चतुमूं तिरमहेश्वरः ॥२२ 

अह्‌ जनो जनयिता (व } वालः कालघ्रवत्तं क 1 
युणार्ता तथा चैव पर प्रपरायण २३ 
तस्मान्‌ वलिदग प्राप्य सोकाना हितकारणात्‌ । 
वप्रा देवानागुत्रपोर्तोकिफिरपि ५२४ 

तदा भव्यष्चे पूज्यए्व भविष्यामि मुरोत्तमा । 
सरमादूभय नवा्यंच कति प्राप्य महौजषः॥२५ 
एवमूक्त.रनत सर्वा दवता शपित सद्‌। 
प्रणम्प निर्या दैव पनण्युर्जगप्पतिम्‌ 1२६ 
गदानिजा मदारवदो महावीर्ये मदाय.ति 1 


मृगध्रम निष्ण ] { ३२३ 


भीषण सर्वभूनाना ऊय कालश्चतुगुं वः ॥२७ 

एप कानस्वनुमू तिर्चनु्दष्टृश्चतुशूख 1 

सोकसरक्षणार्थाथ अतिक्रामति सर्वच "र< 

व्रह्मा, विष्णु ओर यत्तयेतोनोस्लनीरीक्लादे है । सभल्कानौ 
मे चनमू्तिम्हेष्वरहोनेट । २२१ मंजनहं हमारा जनन क्ले वाला 
काद जौ काल क प्रवर्तक होना टै तथा वटं युधरकां करने वाल्ला मौरषर 
परायणहोताहै ॥२३े॥ इसमे लोकोके हित कारण से कलियुग कौ प्राप्त 
करके दोनोलोको मे देवो का अमयार्थह ॥ २४॥ हेसुरोत्तमो } तव उम 
समयम भव्य ओौरपूज्यहो ज जगा । इसत महान्‌ मोज वालो 1 कलियुगको 
पाकर कृ भी भय नटी करना चाहिए ।। २५॥ इम प्रकार मे पियो 
साथ समस्त देव कटै गये मौर उन्होने शिर सेदेवदोप्रणामव्ररकेष्रिवि 
जगरव्‌ कै प्रतिमे वोते ५२६) देववियोने क्हा--महानू तैन बाला, मटन 
पथय वाला भौर महान वर्यं वाला तवा पहायतिये युक्त ममम्त प्राणियोके 
लिये भीषण काल चार मुखो वाला कंमे हा है ॥ २७ ॥ श्रौ महादेव जी ने 
मंदा--यह्‌ काल चार्‌ मूत्तियो वाना, चार दाटो वाला घौर चार मूष वाला 
लोको के सरक्षणके तिये क्षमो मोर से मत्क्रिमण करता है, २८॥ 


नास्राध्य वियते चास्य सवेस्मिनू सचराचरे 1 
कालः सृजति भूतानि पृनः सह्रति क्रमात्‌ ।२२ 
स्वे कालस्य वशगा न कालः कस्यचिद्रशे । 
तस्मात्त. स्व॑मूतानि कालं कलयते सदा १३० 
विक्रम्य प्दान्यस्य पूवोक्तान्येकसप्तति. । 
तानि मन्वन्तराणीह्‌ परिदृत्तयुगक्रमाद्‌ । ३१ 
एक पद परिक्रम्य पदानामेक्तप्नतिः 1 

यदा काल प्रक्रमते तदा मन्वन्तरक्षय ॥३२ 
एवमुक्त्वा तु भगवान देवपिपितृदानवानू 1 
नमस्ङृतश्च तं सर्वंस्त ेवान्तरघीयन ॥३३ 
एव स कराते भगत्रानू देवविपिन्रदानवान्‌ । 


३२४ | [ वाप पृरष 


पुन पुन सहरते नजते च पन पन 1३४ 

अतो म-वन्तर चैव दवविपितृदानवे 1 

पूज्यते भ ।वानीशो भयान्‌ कालस्य तस्य वै "३५ 

समस्त चराचर मे हमको कु भो ममाष्य नही हाना दै । वनरा 
ही प्राणिषो का सृजन क्रया क्रत है भर यदी क्रम से उनश्न सहार कर 
दे ॥ २९॥ कषभी कालवै वशमे जाने बाति होतेह कन्दु यद्‌ काल वि 
भी वश मे रहने बाला नही होता है । इततीलिये समस्त प्राणियो का पहका 
सद कलन क्रिया करता है ॥ ३० ॥ ईइके विक्रम के इकहत्तर १द ह जो पहि 
कहू गये है । चे यहा परिवृत्त युणो के कम से मन्वन्तर होते है ॥३१॥ ९ 
पद्कापरिक्षमकरकेजोवि कद्र पदै । ज्र काल प्रक्रमणं किया कर 
है तव मन्वन्तर काक्षय होता है ॥ ३२ ॥ इस भ्रका से भगवद्‌ म देवि ॥ 
जर भानवोसे कहा नौर उप बने कै पश्चात्‌ उन सवके द्वारा नस्ल ह! 
वहां प्रदहो मन्त्घान हा गय ॥ ३३ ५) ष प्रहार से वह भगवान्‌ शात मे 
धि, पिर मोर मानो को पुन पून गृजन किया कते ह मरवारव 
रहर भीश्रियाकरतेरह॥३४) दतीलिये उस कात कै भय से मग्वन्तर्‌ 
लि प्ति दानवो ङे द्वारा भगवान्‌ ईत पूजे जाति ह ॥ ३५॥ 


युगम निरूपण |] [ ३२५ 


सषठपिभिस्वैव साद भाव्ये तेतायुगे पुन 1 

गोत्राणाक्षत्रियाणाच्छ भविप्यास्ते प्रीतिता ॥४० 

द्वापरान्ते प्रतिष्ठन्ते क्षिया ऋविभिः सह्‌ । 

छते त्ेतायुगे चैव तथा क्षीणे च द्वापरे 1 

नरा. पातकरिनो ये बे वक्त॑न्ते ते कलौ स्मृता ॥ ४१ 

मन्वन्तराणा सप्ताना सान्तानार्थाश्र तिः स्मतिः। 

एवमेतेषु स्यु युगक्षयक्रमस्तथा ।४२्‌ 

दसीतिये द्विज को इस कनिगुगमे समस्त प्रयलो से तपश्चर्या करनी 
चाहिए । महादेव की णरणागतिमे जानें वाले को उसके पृण्य का महातरु फन होता 
दै । इसे देवता स्वर्गे मे जाकर फिर इम भूतल मे थवतरित होते है ॥ ३६॥ 
पिएण भौर देवदरन्द दष सुदारुण कलिगग को प्राकर घमं परायण होते हुए 
वहते अधिक तप करने की इच्या किया करते ह ओर इस कतियुग को प्राप्त 
वरे पूनः पून अवतासोक्रो करिया करते हँ 1, ३७॥ इस प्रकारसे कललान्तर 
मे हजारो ही जो सथर्ह वै अतीतो गये है । इमी वण से हन वैवध्वत 
सन्तर मे देवराजपि अतीत दहो गये ॥ रेख ॥ देवापि पौरव राजा मनु 
भौर इवाकरं कै वशमे जन्मने वाले जो क्रि महाम्‌ योग के वलते युक्त ये 
कालाम्तर की उपा्तना करते हँ ॥ ३६ ॥ उस कलियुग के क्षीण हो जाने पर 
ध्रेतायुमके तिष्य होने पर फिर सप्तपियो के साथ माव्यन्रेतायुगमे गोत 
सौर क्षत्रियो के भविष्य प्रकीर्तित किये गये 1 ४० ॥ दपर के मन्तमे 
श्रषियो के साथ क्षत्रिय प्रतिष्ठित होते दै । छनयुग, त्तायुग तथा द्वापर युगके 
क्ौणदहो जाने परर इस कलियुग मे मनुष्य जोह वै सव पातकी होते है देसा 
कहा गया है ।॥ ४१॥ सात मन्वन्तरो की सान्ताना्थं श्रुति भौर स्मृतिदै! 
तथा दसी प्रकारसे इन सवमेयुगोके क्षयहोने का क्रम होता दै । ४२॥ 

परस्पर युगानाश ब्रह्मक्षत्रस्य चोदुभवः । ४ 

यथा ढौ प्रकृतिस्तेभ्यः प्रदृत्ताना यथा क्षयम्‌ 1४३ 

जामदगन्योन रामेण क्षत्रे निरवकेपिते 1 

क्रियन्ते कुलटाः सर्वाः क्षत्रियंर्जचुबाधिपेः 1 


३२६ ] { वायुः 


दिव गतानह वुभ्य ओत्त यिप्ये निवोध ॥॥४४ 

एेडमिक्ष्वाकुवशस्य प्रति परिचक्षते । 

राजान श्योणिवन्धास्तु वान्ये क्षत्रिया भुवि ॥४५ 

एेडवशेऽथ सम्भूता यथा चेक्ष्वाकवौ नृषाः । 

तेभ्य एव शत पूर्णं कुलानामभिपेचितम्‌ ।1४६ 

तावदेव तु भोजाना विस्तरो द्विगुण स्मृत । 

भोजन्तु विशत क्षत चतुर्दा तचथादिशम्‌ ।1*७ 

तेप्वतीतास्तु राजानो न्र्‌ वतस्तान्निव'धत । 

शत वै प्रतिदिन्ध्याना हैहयाना तथा शतम्‌ ।\४८ 

धार्तराप्टरास्तवेकशत अशीतिर्जनमेजया । 

शत वं ब्रह्मदत्ताना कुलाना वी्िणा शतम्‌ ॥४६ 

परस्परमे युगाका भीर ब्रह्म कषत्रका उदभव होता उने स्पि 
लैमी श्रत होती ह ओर प्रवृत्तो कामे लव होता है तथा जगदनिके ध 
रामके दार ममम्त क्षध्रियो का निवे हा जाते पर इष मि के भवि 
शरियो ने समन्त सवया बलदा कर्दी थी उन दिवगतोके विपयब्रहम 
कगे मो तुम श्रवण करो ।| ४३.४४ ॥ इराक वश कौ दढ परति दतत ई 
जाती दै । राजा लोयभ्रंणी ये वद्ध तवा भूमि पर बन्य कषत्रिय हृष ॥४\॥ 
दढ वणम धिर श्रतरारमे दश्तरादु वण वाते राजा हुये उतरे ही सवशे 
हौ मभितिक्त हृष्‌ ये ॥ ४६॥ तभी पिरिभोजक्शवालोषा दुगुना सर्र 
कहागयादै। मोत वशम तनयौ श्रिय चारो मोर सव दिणभो पर ये 
11 ४० ॥ उनमे समाहत होने प्रर जो राथा लोग प्यतोत दृष्‌ उतत विष्य पे 
योलते हए मृ श्रवण करो । सौ प्रतिविन्ध्यो पे क्षयासौ वगदहयो ने 
॥ चठ ॥ पात्तंराष्टर एव सौ राजा हुए आर अस्सो जनमेजय दे कणन ए! 
पिरशो ब्रह्मदो वण वाते तदावीर्यीठुलोवे एङतौ राजा ट्‌ बे ॥*६५ 

सन शततन्तु पलाना शनं बाणिवुश्ादय । 

तथापर सदन्तु य<गोत्ता शशविन्दव. । 

रनानास्नेऽस्वमेषस्तु सवे नियुनदक्षिपं ॥५० 


युण्चर्मं निष्परय |] { ३२७ 


एव सन्ञेपत. प्रोक्ता न शक्या विम्तरण तु । 

वक्नु राज्य इतस्न। येऽनीतास्तेयुं न सह्‌ ॥‰¶ 
एते मयात्चिव गस्य वभू वु्व्वद्धं ना । 

कौ तिता द्‌. तिमन्तस्त ये कानु धाग्यन्ति व ॥१२्‌ 
चमन्ते च वरान पन्च दुर्लमान्‌ ब्रह्मलौकिकानु । 
मायु पुत्रा घन कौनिरेश्वयं तिरेव च ॥*इ 
घारणान्ट्वणाच्चैव पन्दवगेम्य धीमताम्‌! 

तथोक्ता लौक्तिकिार्च॑व ब्रह्मलोक ब्रजन्ति वै ॥६४ 
चध्वार्याहुः सदुराणि वर्पाणा च हृत युगम्‌ । 

तस्य तावच्छती सन्व्या सन्ध्या्श्च तयाविध ॥५५ 
कृते वै प्रक्रियापादश्चतु साह्न उच्यते । 
तस्मादतुःधत सन्व्या सन्ध्या तया विधः ॥५६ 


मके यनन्ठर पौल वश्च वालोके सौ नोरङ्गासिवुगारिक्रि सो हुए 
सके पी दूमरे हजारो हृए मौर शशत्न्दु वाते यतीत हए ये सव मश्वमेव 
यजो का यजन करने दलि ये जिन यज्ञो में नियुततो की सस्या दक्षिया दी मड 
थी॥ ५०॥ दस तरह से हमने न खद का वणेन स्तेये दी क्रिया क्योक 
इनका दिम्तार ३ साथवर्णनक्िया नही जा स्क्ताहै। जौ यजि समन्द उन 
यर्गोके साय अनीत्त हो गवे उनका भी विस्तारे दथननदी दहो सक्ताह 
॥५१॥ ये सव ययाति राजाङे वश कै बटन वलि दट्ृएु थे। उन यतमानो 
के विपये वणन क्रिया गयादहैजा लोग क्यो वारण क्रते है ॥ ५२ ॥ वघ्यन्त 
लं ब्रह्य लौकिक पच वरोको प्रा्ठक्रियाक्रतेहै।येपाचवद यागु पु, 
धन, कीर्तिं मौर देश्वयं व्रिशरूति टै ५२ ॥ इन धीमानों कै पच वर्गेकेव्यान 
से तया धारण एव रवण करने पे यथोक्त लौकिकं ची वे ब्रह्मलोक को जाया 
क्रते ॥ ५४1 दृतयूग चार सहस्र वपो हाया उस्ङो उतनी ही श्वौ ष्या 
यी मौर सन्ध्याद्यभी उसी प्रकार क्यया॥ ५५६ दत्तम ्रह्ियाषाद चाद्‌ 
सदस्र वालाक्द्यानात्तःहै 1 रसङ्ञा चार ग्रत सन्ध्या तथा उपर प्रवर 
सन्ध्याया प्र ६६ प 


३२८ |] { कदु 


्रेनादौनि सदुख्रागि सन्यया मुनिभिः मह्‌ । 

तस्यापि णत सन्ध्या मन्ध्याशद्िणन. स्मृतः (५७ 

अनुपद्पादश्रनायालिमाटख्रस्तु सद्धचया । 

दवापरे ट महस तु वपामि मम्प्रकीतितम्‌ 1४८ 

स्यापि द्विशती सन्ध्या सन्ध्याशो द्विशत्तस्तथा । 

उपोदुचातस्तरृतीयरतु हापरे पाद उच्यते ।५५ 

कलि वपसटृ्न्तु प्राह सखथाविदो जना" । 

तस्यापि शतक सन्ध्या सन्ध्याशः एतमेव च । ६० 

सहारपाद सब्यातश्चतुर्थो वै कलौ युगे । + 

संसन्ध्यानि सहाशानि चत्वारि तु युगानि वं ॥६१ 

एतद्‌ द्रादणसाट्स्र चतुय गमिति स्मृतम्‌ । 

एवं पादे सहसि प्लोकाना पच्च पञ्च च ॥६२्‌ 

सन्ध्यासन्ध्याशकेरेव ह्रे सहते तयाऽपरे । 

एव दाद्स्तादृघ्त पुराण कवयो विदु" ॥६३ 

यथा वेदश्चतुप्पादश्चतुप्पाद तथा युगम्‌ । 

यथा युग चतुष्पादे विधात्रा विहित स्वेयम्‌। 

चतुष्पाद युगणन्तु ब्रह्मणा विहित पुरा ॥६४ 

वरेतादि युग मुनियो के माथ स्रर्पासते सह ये । उमकी शती पध्ण 
तथा ्रिणत वाला सन््याश कहा गया है । ५७॥ बरेता काजनूषद्ग ४ 
स्यामे तीन सदव वात्या । द्वापर मेदौ सरहघ वपं वहे गवेहै॥५ # 
उमद्वापरयुगकी भी द्विशती सन्ध्या तवा सन्ध्याशमभी दोसो वात्ता था 4 
उपोद्धात सीरा दार म पाद कहा जाता दै ॥ ५६ ॥ सग्या के शतत व 
जजन कलियुग को एव सहत वं वाला वाति है । उसङी भी त्या ए ५ 
यासी एतिका है मौर उमा मन्ध्याश भो उसी प्रकार वानाएकसौवा दै। 
कलिषुग मे चनुवं सहार पद होताहै 1 दस तरह षन्ध्याके साधतया संगो के 
पदिन चार युगो का वर्णन क्या गयादै ॥ ६१ । यह वादह र 8 

कहै जितो दि जव बतलाया ग्यादै। एमी प्रहारते परोपि 


`वायम्भुद वश कीर्तन | [ ३२६ 


पको के पाच पाच सह ह ) ६२ ॥ तथा सन्ध्या मोर सं्व्पाशकोकै दारा 
रेदोसहसहोते ह इम तरह कवि लोग पुराणो को वारह सहल वाति 
करते हं ।। ६३ ॥ जिष् तरद्‌ वेद चार पादो वाला उसो प्रकारसे यूग 
चारपादौ बता होता है। जित तरह विघातानेस्वययुगको वार षाद 
नावनायाहै उक्तौ तरह से परहिते ब्रह्माजीवैसुरोके भीचदृनादका 
माण क्रिया या॥ ६४॥ 
॥॥ प्रकरणं ३१-स्वायम्भुव-वंश-कीर्तन ॥ 
मन्वन्तरेषु सर्वेषु अतीतानागतेप्विह्‌ 1 
तुर्याभिमानिन सवे जायन्ते नामरूपत ।।१ 
देवाश्च विविधा ये च तस्मिन मन्वन्तरेऽधिपा, । 
ऋषयो मानवास्चैव प्ये तुल्याभिमातिन ॥र 
महसे प्रोक्तो वे वश स्वायम्भुवस्य तु 1 
चिस्तरेणानुपूर््या च कीत्येमात निबोधत ॥३ 
मनो. स्वायम्भुवस्यासम दश पौनाम्तु तत्समा । 
यैरिय पृथिवी सर्वा सष्दरीपसमन्विता ॥9 
ससमुद्राकेरवती प्रतिवपंतन्निवेशिता 1 
स्वायम्भवेऽन्तरे पूर्वेमादं तेतायुभे तदा ॥ 
्रिपत्रतस्य पू्रेस्ते. पौत्रे स्वायम्भुवस्य तु । 
प्रजासमगेतपौयोभैरते रिय विनिवेशिता ॥६ 
प्रियद्रतात्‌ प्रजावन्त वीरान्‌ कन्या व्यजायत ! 
मन्यासातु महाभागा कद्‌ मस्य प्रजापते ॥७ 
श्री सूतजी ने कहा-अतीत मोर भनागत म्वनतो मे सव मे यह पर्‌ 
पतव नाम सौर रूप से तुल्याभिमानो उप्प्च होते द १।१ अनेकदेवगौ करि 
छस म^वन्तर मे अधिषये ऋषिदरृद ओर मानेवगण ये समी तुल्य अभिमान 
पालतेये॥ २ ५ स्वाथस्भूव काव महुषियों च्य खय कह्‌ दिया पया । अद 
विस्तारकेसाथ तयः अलुधूरदी े वणन क्रिये जाने वाघते का श्रवण करो ॥*२॥ 
पमयवं मनुके व्ह ङे समाव दश पृत्रयें दिनके दवाय यहसतो द्वीपो 


३३० 1 [ कणु पृष 


समन्वित समस्त पृथ्वी पर्णं है ॥ ४ ॥ यड सुमि ्रतिवपं निवेधित दवै, 
समुद्र तथा भाक्रो वाली है स्वायम्मूत मन्वन्तर मे प्रहिते आदय क्रप 
उत सभय यह्‌ पृथ्वी इनी तरह से युक्त थी ॥ ५॥ राजा प्रियद्नन केषु 
स्वायम्भुव मनु के पष्ोके द्वारा यह प्राक तग, तपश्व्पा मौर णेर, 
निवेधित की गई थो ॥ ६॥ राजा प्रिक्रतसे जो वि पजा पाला एव वीप 
कन्या उप्पन्न हुई थी वह कन्या महानु माम्य वाटी यो जो प्रजापति क्ल ॥ 
ध्याही स्थी ७॥ ~ = 


वन्ये दव णतपृव्रादचं सम्राट्‌ कुक्षिश्व ते उभे! 

त्वि ध्रातर दरा. प्रजापतिसमा दशर 

सम्नी ध्ङ्च वपुष्मास्च मेवा मेधातिथिविभुः 

ज्योतिष्मान्‌ स्‌तिमानु हव्यः सवन सवे एव च ॥& 

प्रियत्रतोऽभिपिच्यैतान्‌ स्त स्तम पाथिवान्‌ । 

्रपिषु तेषु धर्मेण द्वीपास्ताश्च निवोधत 1११० 

जम्बूदीपेदतरर चक्र अम्नीधन्तु मदावल्‌ + 

प्लकषद्ीपेश्करश्चापि तेन मेधातियिः ठन 111१ 

शाल्मलौ तु वपुष्मन्तं राजानमभिपिक्तवानु । 

उ्योतिष्मम्त कुशद्वीपे राजान दृतवान्‌ प्रभुः ।११९ 

य.तिमन्त्च राजान क्रौचटीषे समादिश्‌ 1 

शागद्पेश्वर्वापि हव्यशचचक्र प्रियत्रनः ॥॥१३ 

पुष्फराधिपतिन्चापि सवन दृतकान्‌ धमु" 

पुष्करे सवनस्यापि महावीतं सुनोऽभपव्‌ । 

धानकिर्चैव दावेतौ पुप्रौ पुत्रवता वरौ ॥१४ ८ 

दोक, सो पूत भौर शम्नाद्‌ लि वे दोनो पे, उन रोतो 
कै समानप्र भाई दमये ॥ ८ ॥ उनङेनामये हनी, वपृणाष्‌ / 
प्रपान, विमु उोनिप्मान्‌ स्ुनिान्‌ ह्य, यञ भौर श॑ये दप 
साजा प्रियव्रत नाच ्न राजाथ कासतद्रयो ने तिवत एफ 
मे वसं तिरल म्र दिदाया, उदङ्ोगोके विवय मेअङ्धतन ष्मो} 


स्वायम्भु! वश कौतेन | {[ ३११ 


भेष्तूदधीप मे महान्‌ बन वाने अग्नीन को वहाँ का स्वामी बनाया था! प्लक्ष 
प्री म उसने मेधातिधि को वहा का राजा निरुक्त सा था 11 ११ काल्मिलि 
दीषमे वदरम्‌ को राजा अभिषिक्त कििाथा। कुश द्वीपमे ज्योतिष्माचुको 
प्रियत्रत प्रभते रजा बनायाय) एर ॥ क्रौच्चद्रीपमे य॒.तिप्रान्‌ को राजा 
होने की अक्नादीथी । प्रिप्रतने शक्टटीपमे ह्य को वहां का राजा बनाया 
या १३॥ पृष्कर दीप्र मे सवन का अभिवेकक्रियाथा । पुष्करद्वीप मे सवन 
क भी महाकौत नाम बाला पृत्रहृजाथा। मौर एक षतकिपूनथा ये दोनो 
शृत पृत्रवानोमे परमश्रोष्टथ + १८५ 

महाकीत स्मृत वर्षं तस्य नाम्ना महात्मन । 

नाम्ना तु धातैए्चापि छातकरोखण्ड उच्यते ९५ 

हष्यो च्प्र॒जनयत्‌ पूत्रान्‌ शाकद्रोपश्वराच्‌ प्रभु 1 

जलदज्य कुमारञ्च सुकुमार मणीचकम्‌ 

सुमद चुमोदाक सप्तमञ्व मदाद्‌ मम्‌ ।॥१६ 

जलद ज तदस्याथ वर्प प्रथममुच्यते । 

कुमारस्य च कौमार द्वितीय परिकीतितम्‌ ।१७ 

सुकुमार व्ृतीयन्वु सुकुमारस्य कीत्तितय्‌ 1 

भणोचकस्य चतुथ मणीचकरमिहोच्यते 11१5 

चमुभीदस्य वे वं पञ्चम्‌ बधुमोदकम्‌ । 

मोदाकस्य तु मोदके वर्षं पष्ठ प्रकौतितम्‌ ।१६ 

महे्रमस्य नाम्ना तु सप्तमन्वु महाद्रमम्‌। 

एपान्तु नामभित्तानि सप्तवर्पायि त्य वे ॥२० 

कौच्चदीपेश्वरस्यापि पुता चुतिमतस्त वे । 

कुशलौ मनुगरश्चोप्ण पौवरश्वान्धकारक ॥ 

मुनिश्च दुन्वुभिश्चैव सुता चयुतिमस्तु च 1२१ 

मह्‌।वीत भहाप्मा ने उक्त नमि स दप स्पावित्त किया भा अर्‌ 
£्नामसमी धाठकीखष्ड कहा जातादहै ॥ १५ हन्य तै ५ 
वामो पुत्रो का उत्पत्तक्िपथा 1 यसात पचथ तिनके नाम, 


३६२ |] [ वु 


सुङमार, मयिचङ, वसुगोद, युमोराक ओर सववा मदम है । धे सपो प 
केनामहै। १६] जनदका जलद प्रयम वपं कहा जातादै दुर 
कौर दरया दपं कह ग्या है ॥ १७४ दृनोय युहुमारका घुमर प 
नाम वाला वयं कंठ याह) मणिवक का चौया मणोवक वयं है इण 
सेका जाताहे॥ ८५) पचो वतुमोदका वधुमोद्क भौर मोदारका, ५ 
मोदा वपं कटे गया हे ।१९॥ सातां महाद्रम के नामका महादुम क्म 21 
मे इनके भमर खात वर्ध होते है २०) कौच्चदपके स्वापो द्रतिपष ३ 
यतर हए उनङ नाम, कुशल, मनुग उष्ण, पौवर, अन्धकारक, गनि भोर ई ॥ 
यद्यतिमान्‌ रात्राकेदुत्रहएयं॥२१॥ 

तेषा स्वनामभिदया करौस्चद्वीपा्याः शुमा. 1 

उप्यस्योष्णः रभृतो देश पीवरस्यापि पवर (१२२ 

अन्धकारवदेषस्तु अन्धकार कीर्यते । 

मुनेस्तु मुनिदेशो वै वुनदुभेदु नुभि. स्मृतः 1 

एते जनपदा सप्त क्रौच्चद्रीपे तु भास्वराः ॥२२ 

ज्योतिष्मव दुशद्रोपे सक्ते सुमहौजव.। 

चद्धदो वेणुमाश्चंव स्वैरथो लवणो धृति;। 

चषछठ- प्रभाकरश्यं व सप्तम कपिल स्वृ ॥ए४ 

उदूभिद भ्रयमं वपं द्वितीय वेणुपण्डलम्‌ । 

छरनीय स्वरथावार चुं तवय स्मृतम्‌ ॥२५ 

पञ्यम धृतिमदरयं पष्ठ वपं प्रमाकरम्‌ ! 

सप्रम बपिल नाम वप्रितस्य प्रम तिनम्‌ ।1२६ 

तेपा द्रोण वृणद्धोवे तत्मनापान्‌ एतु । 

साध्रमाचारयुतानिः ध्रजामि सवलता ॥२४ 

भात्मसस्येश्वराः मप्र पु्राप्ते तु वपुध्पत । 

श्वेत हसनं र जोगत रोह्विस्तथा } 

यंदुमो मानमन्रे व सुप्रभं सनमरथा ।1२६ 

सन शानो दू तिमान्‌ के वृदे जनो रनागोवेक्रीयीष $ ५ 
चाययति पुम्‌ एष्न का एष्य, दोर र पीवर नान 4 


>" ५ भ | ¢ ९ ९ 


देश था ॥२२॥ अन्कारकङे देका नाम भी अन्यकारही दहाजाताहै। 
मनि का मुनि देव बोर दुन्दुभि का दुन्दुभि इसी नाम वाला देलया। ये घातं 
जनपद करो दवीप मे परम प्रास्वर मर्याद देदीप्यमान यै ॥२३॥ इषी तरह 
कुश द्वीपने महाद्रु भोज वन्ति ज्योतिष्मान्‌ के सातं धुव हुए । उद्िद, वेणुमानू, 
स्वरथ, लव, घुकत्ति, दछडा प्रमाकर ओर सात्वं कपिल कहा गया है ॥२४॥) 
उद्भिद ने प्रथम वप॑-तरेणुमण्डल, दूमग-तूनीय स्व॑रथाकाग्~चौवा लवण 
पांचा पूनिमावु-दडा प्रमाकर गौर सत्तम कपिल इम नाम वाला व्ंयाजौ 
कि इन्दीनामोसे सत्र प्रमिद्‌ है 1 २५॥२६॥॥ उनके कग दरीपमे द्वीप उन्दीके 
समानहुषुये जोकि आघ्रम एव आचण्र ते युक्त प्रनाओं से समलकृन ये ॥ २७ 
सत्मलि दोषे वदुभ्मानु के सात पुतरहृए जो उनो द्री के मचिषर हये! 
श्वेत, हरित, जीध्रुत, सोहि, मानव भौर सुशमये नाय वराते थे ध२८॥ 


भ्व तस्य श्वेतदेस्तु रोदित्स्य च रोहितः 1 
जीमूतस्य च जीमूतो हरितव्य च हारित र्ग 
वैद्युतो वैद्युतस्यापि मानस स्यापि मानसः । 
सुप्रभ सप्रमस्यापि सतते देशपानङ. ॥३० 
सतद्वीपे तु वक्षामि जम्बृद्रीपादनन्तरम्‌ 1 

सप्त मेधातिये पुत्रा प्लक्षद्वीपेश्चरा वपा ॥३१ 
ज्येष्ठ शन्तभयस्तेपा सप्तवर्षाणि तानि वै । 
तस्माच्छन्तमयार्च व शिशिरस्तु सुखोदयः । 
आनन्दश्च ध्रुवश्च व क्षेमकश्च शिवस्तथा ॥३२्‌ 
सानि तेपा सनामानि सप्ववर्पाणि भागय 1 
निवेशिना^नि तैस्तानि पूरवे स्वायम्मुवेऽन्नरे ॥३३ 
मेधातिथेस्तु पुनं स्ते सप्नद्रोपनिवा्तिमि । 
वर्णाधमाचारयुक्ता. प्लक्षदधीपे प्रजाः नाः 11२४ 
प्लज्नदरौपादिकैष्वेव शाक्द्वीपान्तरेपु वे । 

ज्ञेय पञ्चसु धर्मो वै वर्णान्नतरविमागवः (३५ 


शवेन कातेन दयया तया रदित का चेह्धिन. जीन क्म गोमद. 


४.१. [ वायुुराण 


हरिति का हारित, वचन का वयुन, मानस का मानम भौर सुप्रमज्ा शुम दण 
यामौरये मातो पुतरदेशोके पाव्य योरिदेष उन्दी सानो नामोदे 
प्रिद ह ॥०६।३०॥ जन्टू छैव के वाद मे मादव कटवा मेक विमि के 
सातपुत्रहृएये जोज्निप्लक्षद्रीपके स्नामीराजा हृष मे ॥3१॥ उन्मेजो 
सवते क्डाथा वह शा-तमयया। उनके भी सात पुष हुए ये} किर श्म 
के-फेद सिर, मुोदय, आनद, श्व, केम योर सावां निव ये नाम वानि 
सात पुष्ये ॥२२॥ उतसातोके नामोक्तेही विभाग पूर्वक सतक ६९। 
उन्टोि पूतं स्यायम्युव म^व.तरमे उन सातो कौ निवेषि क्य था ॥२३॥ 
मेवा तिथिके उन सात द्रोमो मे निवास करने वाक्ते पुत्रो न वर्णो ठ्या आमो 
क बाचारसते गुक्त प्लकषद्रीपमे भ्रजाका मृज क्रिया या 14४ प्लक्ष 
दीषादिमेत्या शाक दवीषान्तरोमे पाचोमे वर्माध्रमके विभागे धव जानने 
के योग्य दै ॥३५॥ ८ 


सुखमायुश्च रूप्य वलं घर्मश्च नित्यश । 
पञ्चस्वेतेषु दीपेषु सर्वं साधारण स्मृतम्‌ ॥३६ 
सप्तद्वीपपरिकरान्त ज्ूद्रीष निवोधत । 

आग्नीध्र च्ेष्ठदायादे कन्यापुन' महाबलम्‌ । 
प्रिसतव्रतोऽभ्यपि्चत्च जम्वृद्रीपेश्वर मृपम्‌ ॥२७ 
तस्य पृत्ञा वभूवुि प्रनापतिसमौजमः 1 

ज्येष्ठो नाभि रिति ख्यातस्तस्य किम्पुरपोऽनुज ॥३५ 
ह रिवर्षस्तृतीयस्तु चतुर्थोऽभरदिलावृततः । 

रम्य. स्यात्पच्रम. पुनो हरिन्मानु पष्ठ उच्यते ॥ द 
कुस्स्तु सप्तमस्तेपा भद्राश्वो छ्यष्टम स्मृत ! “ 
नवम वेनुमातम्तु तेषा देान्नित्रोधत 1 
नाभेम्तु दक्षिण वप हिमाहवन्तु पिता ददौ । 
हैमद्रट तु यद्रपं ददौ पिम्पुर्पाय तन्‌ १1४१ 

मैपध यन्‌ स्मृत वपः टरिवर्पाय तद्दौ । 

मध्यम यत्मूमेरोस्नु म ददौ तदिगाद्े ५४२ 


प्रायम्भुर बेय-रोतेन 1 [ ३३१ 


५ सूच, आयु. स्प, वल अर्‌ घमं नित्यहीशन पाँचोद्धीपो मे समस्त 
्रारणस्प ते स्थित बहे ग्ये है ।1३६।। प्रात्त ्रीपोसे परिक्रान्त जम्बू द्रोप 
जानना चाहिए । राजा प्रिय्रनने आग्नौ, ज्यष्दायाद, कन्यापुत्र बीर 
विन ग्रो उत जम्दू द्ीषमे वर्का राजा अभिपिक्तं करके धनाया वा 1३७। 
पफ पूवर मी प्रापि के समानो ओज वालि हृएये। उनमे ङौ पवसे वद 
रथा यह “नाभि'-दइय नाभस प्रमिद्धघां। उसक्रा छोटा मां सिम्पुरप 
#1३८॥ तीसरा हरिविपं, चौया इनावृत, परववां रम्य ओर पष्ठ हरिन्माव्‌ 
६1 सात वश एवं अष्टम भद्राश्वक्हा गया, नव्रमवैतुमत भा। अत्र 
“के देणो कै विपय ने वत्तदाय। जाता है उतरा चवण करो ॥३६।।४०।! पिता 
तरभिको हिम नाम वाला दक्षिणदेश दयाया गौरजो दैमवुट वपंयावह्‌ 
प्पूर्पकोो द्विषा था ॥४१। नैपपजो व्पंधा वह्‌ हरिवर्पंको द्विया भौर 
भूमे के मध्यमया वट्‌ उरे इवाठृत को दे द्विया या 11४२ 


नीनन्तु यतु स्मृतं वषं रम्पार्थ॑त्‌ पित्ता ददी । 
इतरेत यदुत्तर तस्मात पित्रा दत्त हुरिन्मते ॥४३ 
यदुत्तरं श्छद्धवतो वप" तन्‌ कुरते ददौ । 

चप मात्यवतश्चापि भद्राश्वाय न्यवेदयत्‌ ॥४४ 
गन्धमादनवपं न्तु केतू माले न्यवेदधन्‌ ॥ 
इत्येतानि महान्तीह नववर्षाणि भागश ॥४९ 
आग्नीघ्नस्तेष्‌. सवे. पुच्रास्तानन्यपिर्चत । 
यथाक्रम स धर्मालमा ततस्तु तपति स्थितः ॥५६ 
इृत्यैतेः सप्तभिः छरत्स्नाः सप्तद्टौपा न्विशिताः । 
प्रियत्रतस्य पुनस्ते. पीनं: स्वायम्मूवस्य तु 1४७ 
यानि किम्पुर्पाद्यानि वर्षाण्यष्टौ गुभानि तु । 
तेपां स्वमावत. सिद्धि सुखप्राया ह्यथतनत ॥४न 
विरर्ययो नतेप्वस्ति जराम्र्युभयं न च । 
धर्मधमौ न तेष्वास्ता नोत्तमाधममच्यमाः। 

न तेप्भ्नि युगावस्या ्रेचेप्वेव तु सर्वगः 1.9६ 


१३६ ] [ कषु 


जो नोल दम नाम वाना वपं पा, बह पिताते रम्य नाम धान पृ 
द्विया) जोण्वेनया उते पिताबे हारा हरिन्माद्‌ कगे दिया यादा 
णो शङ्खवानु कै उत्तरमे वपथाडेवुषटनाम पून षोद्िया। माद्य र 
जो वपं षा वह्‌ भद्राश्व वौ दिया गया १ ४४॥ गन्म दन नाम वाताय 
मालको देदियाया। ये मद महु भागम नोच ह ॥५५॥ ज ष 
आागनोघ्नने उन प्रो को अभिविक्त कर द्याया मर सवो कमके बू 
ही दिया मया किर वह परमास्मा स्वय तपश्चर्या मे म्थिन होगपापा॥१ 
हम सातो न समस्त स द्वीप निवेशित विये ये, ये सव प्श के ९१ वै 
स्वायम्मुतर मनु कै पौव ये।४७॥ जो ब्िम्पह्य बादिगणुभ मष्ट वप पेन 
स्वमावसही बिना किसी प्रवल के चुल प्राप्त पिद षौ ॥४९॥ बह 2) 
किस्ो भी प्रकार का विप्रयय नहो चा भोर वहीं पर जरा ( वृषा ) बग 
से उस्न होने वाला पुय भी भय नही होता या। उनम काईुभी धमत 
अयम कर यात भो नहो चौ मौर उनमे कोद भी उत्तम मध्यम तथा मधप । 
वाली वा्तभो नही यी । उनने कोई भी युम कौ मवस्या नही षी बौद 
कोङ्िसोभीष्ेत्र म देक्षानदी होता था ॥४६॥ 

नामेह सर्गं वक्ष्यामि दिमाह्वं तच्निवौधत 1 

नाभिस्त्लजनयद्‌ पुत्र मेष्देव्या महायुति । 

शछरपभ पार्थिवश्चष्ठ सवेक्षत्रस्य पूर्वजम्‌ ॥५० 

ऋपभा दरतो जज्ञे वौर पृत्रशताग्रज 1 

सोऽभिपिच्याय भरत पुन परव्राज्यमास्ित ॥ ५१ 

दिमाह्व दक्षिण वपं भरताय न्यवेदयत्‌ । 

तस्मात्तदुभारत वर्प तस्थ नाम्ना विदुवुंधा १५२ 

भरतस्यात्मजो विद्वान्‌ सुमतिर्नाम धाक । 

वभूव तस्मिस्तद्राज्य भरत सन्ययोजयत्‌ । 

पू सक्रामितश्रीको वन राजा विवेश त ॥५२ 

तेजसस्तु सुनश्चापि प्रजापत्तिरमिवजित्‌ 1 

तैजकस्याल्मजौ विदवानि-द्रयुम्न इति धत ॥५४ 

परमेष्ठा मु7श्वाय निवत तस्थ लोभन 


स्वायम्भुतर वस-कौत्तेन ] [ ६६५ 


प्रतीहारकरुले तस्य नाम्ना जज्ञ नदन्वयात्‌ 1 

प्रतिदेर्तीि विष्यात्ो जज्ञे तस्प्रागि धीमत ॥५५ 

उनंता प्रतिहत स्नु भुवस्तस्य सृत स्प्रत । 

उदूगौथस्नस्य पुनोऽभूलताविश्चापि तत्मुत ॥५६ 

अर्भ नाभि के सगं मे वतलाङगा उनह्नो हिमाह्नमे माप लोग थवण 
कर| नाभिने जोरि महान्‌ युतिस युक्तया, मेष्देवौमे पत्र को उत्पन्न 
क्रिय था} उसका नाम चछपभया जो समस्त क्षत्रियो का पूर्वेन तथा राजाजो 
मेप्ररम श्रेष्टा ॥८०॥ किर श्हपभसे भरतत्ल्मे हूमाजो सौ पुप्रोये 
सकरपर वडायथा। वह्‌ भरत भी. अग्ने पृच्चको राज्यामन पर अभिषिक्त करके 
स्वय सत्याम ङी अवस्था स्थित होगणाया 1 ५१ ॥ हिम नाम वाता 
दक्षिणजोव्पथा वह्‌ भरतके लिये दिधाथ) 1 इषीसे उस्केनामसे पह 
भारतवरष देना प्रसिद्ध हुमा जिते वप लोग भली माति जानते ह ॥५२॥ भरत 
काप समति नाम वाला प्रम घातिक भौर महान्‌ विदान था। वह्‌ राजप 
सारा उ्तीको भरतने दे दियाथा। जब पृत्रने राज्यश्री फो सक्रामितनकद 
लिथातो फिर राजा ने सन्याव लेकर तशा के लिये वन गमन कर दिया ॥\५३॥ 
तेज का पुत्र प्रजापति अमित्रजित या । तजस का आत्मज विशेष विद्वान्‌ इन्द्र- 
दयम्न दष नामसे सतारे प्रसिद्ध था ॥५४।। गौर णोमन परमेष्ठी पूत्र उवे 
निषन होनि पर प्रतीहार कुल मे उषे नाम से उतरे अन्वव से उत्पत द्मा या 
भौर्वह प्रतिरर्ता-दस नामसे विख्यात हुआ । उम बुद्धिमान प्रतिदत्ते 
उन्नेता ओर उसके गुव सुत हुमा उदूगीथ नाम वानरा उत्कता पुत्र हुमा मौर 
छेका भी पुत्र प्रतावि हमा या ॥५५।।५६॥ 


म्रनावेस्तु तिनु पुव पृथुस्तस्य मुतो मत ! 
पृथोश्चापि सुतो नक्तो नक्तस्यापि गय स्मृत 11५७ 
गयस्यतु नर पुत्रो नरस्यापि सुनो त्रिराट्‌ 1 
विरादसुतो महावीर्यो घीमास्तस्य सुतोऽभवत्‌ ॥५८ 
धोमतश्च महान्‌ पुनो महनश्वापि भौवन 1 
सौवनस्य सुनन्त्वम्टा अदिजस्य चाप्मज ६१५९ 


३३८ | { वाप ग 


अग्जिस्य रज पुर श्रतजिद्रजसो मत ॥ 

तस्य पुमशत त्वासीद्राजान स्वं एव ते ॥६० 

विदवज्योति प्रधाना येस्तंरिमा वदिता श्रजा । 

तैरिद भारतं वप" सप्रवण्ड कृत पुरा ९१ 

तेपा वशप्रमूतेस्तु भृक्तय भारती धरा। 

कृतत्रेता दियुक्तानि युगाख्यान्येकपप्तति 11६२ 

येऽनीतास्तंयु ग साद्धं राजानस्ते तदन्वया । 

स्वायम्भुवेऽन्तरे पूर्वं शतशोऽय सहस्रश ॥६३ 

एष स्वायम्भुव सर्गो येनेद पूरित जगत्‌ । 

ऋषिभिर्दवतंश्चापि पित्रग.धवं राक्षसं 11६४ 

यक्षभरूतपिशाचङ्च मनुप्यमूगपक्षिभि । 

तेपा सृष्टिरिय लोगे युग सह विवत्तंते ॥६५ 

प्रताविकापृत्र विभु गोर इतक पृत्पृयु हमा। पृक पुत्रनक्त 
हुमा मौर नक्त का आप्मज गय नाम वाला उत्पन हुमा या 11५७॥ गयका प 
नर हु ओरनर का आत्मज विराट नाम वाला उष्यन्च हुआथा। विराट 
पुत्र महावीयं हुमा तथा उम पुन धोमान्‌ उल्सन्न हुमा ॥५८॥ धीमा का 
सुत महान मौर महान्‌ का पु भौवन नामक उत्पन्न हूमाथा॥ भौवन का शुन 
प्वष्टा मौर हसक पुत्र अग्नि नाम वाला उप्र हुजा ॥५९॥ अरिजिका पुपर 
रन दरूमा मौर शनूजित रज वा गू भ्रा । उप्के सौ पूर उत्पघ्र हए वै समी 
राजा हूए ये ॥६०॥ ये सव विश्व ज्योतिके प्रधान वालेये मौर उनकेष्राय 
थे सन्तनि पर्न स्पते वदित हु थी, उम्होतर ही दस भारतवपं को सात सण्डो 
चाला पष्िले क्रिया घा (\६१॥1 उनके वशमे भ्रमत होने वालोके द्वारा इष 
मारतकौ भूषिक्रापूरणेस्पपे मोग गया। छत तरेनादिसे युक्त वहतत 
युग नाम वाल पयेन्त दम मारत भूमि षो मुक्त द्विया था ॥६२॥ उन पुणो कै 
साप जा राजामतीतहो गयेयेवे उस सन्वय ( वश्च } वात्रिये जो स्वायम्युव 
भव-तरमे पिते संगरडो मौर सहा नौ त्स्याम हए ये ॥1६३॥ यह्‌ स्वाय 
म्भुव शयं है जिस यह सगम्न जगनीनल पूरित हो रद्य है जिनमे च्वि, देवव, 
प्रयुव, गनपवं ओर राणग समी । हने अत्तरित्त यक्ष, भरून, पिणच 


भूवन विन्यास |] [ ३१६ 


परनुष्य, मृम अर पक्षी भादि सवदै । इनङी यह बृष्टि चोकम युगोके स्नाय 
विभत्तिति हती है ।६५॥ 


॥1 भूवन विन्या 11 


दिद भारत वपं यहम्‌ स्वायम्भुवादयः । 
यते मनव. प्रजामर्गे भव्न्तयु 1१ 
एतद्र दितु निच्छमस्तन्नो निगद सन्चतम। 
एतन्‌ श्रत्वा वचस्तेामव्रवील्लोमदरपंण ॥२ 
पफौरागिङम्तदा मून एपोणा भाव्रितात्मनाम्‌ 1 
एद्विस्नरनो भूयस्नानुत्राच समार्हिन 1।३ 
पुण्यनीये हिमवतो द्षिणम्याचलम्य दि1 
-शरुवपर्चायतस्यास्य दक्षिरोन द्विजोत्तमाः ॥४ 
नेया जनपदाना च विस्तर्‌श्रोनुमह्थ । 
अन वौ वर्णयिष्यामि वर्फेऽस्मिनु भारते प्रजा ॥५ 


ददतु मध्यमं चित गुमाश्‌भफनोदयम्‌ । 
उत्तर यत्समुद्रस्य हिमयदक्षिण च यनू ॥६ 
वर्प यदुमारतनाम यतेय भारी प्रजा। 
भरणाच्च प्रजाना वै मनुर्भरत उच्यते । 
निरक्तवचना््चं व वपं तदुभारत स्मृतम्‌ +) 


कऋषियो ने कहा-जो यह मारतवपं है जिक्र स्वायम्भुवादि चौदह 
भनु प्रनावे मगमे होते है॥१॥1 है सत्तम 1 हम इम जानना चातुरी 
जाप यह्‌ हवे वननण्डये । च्छपित्णके इम वचन न्य सुनञ्र लोमट्पण मद्धि 
उनकते कहने ली ॥२) उस्र समप मे मदात्मा ऋषियो ते पौराणिक सूती 
फिर पूरणं तथा समादित होक< यद सव वरिष विस्तारपूर्वक उने बोले ॥३॥ 
श्ीमूत जी ने काहे हिजोत्तमो 1 पूरवंपश्चायनु इम दक्षिण हिमवाग्‌ पव॑त के 
पुण्य तीर्थे दक्षिण कीमोर रो जो जनपद दह उनग्ा पदा विस्तृत वर्णन 
भप सव्र मूनने के योग्य होते है । यां पर मारतवर्पंमेजौप्रजादहैवद 


०० ; { गणु 


धापे सामने वर्णन कूपा 16८0६) चुम ओर अगुमकेफनर 
स्वरूप यहो मध्यपचिवर होताहै जोकि समुद के उततेरमे ओर हिमाव्‌ 
दभ्िगमेहै (हा पहुजोवं है उयहानामभास्वदै ओरयहीजो पवार 
क्रिषाक्रनी है व्ह भाग्यो प्रजा कटौ जातीहै। प्रनोओौ ३ मरणररः 
कारणतेमनु नी भस्तद्राश्दा गाद । निरुक्त क्सने के ववे भौ 
वं कदा गयाह ,1७1 


ततः स्वपेर्च मोक्षश्च मध्यशरान्तश्च यम्यते } 

म खल्यन्पत्र मर्व्याना भ्रूमौ कमे विधीयते ॥८ 

भारतश्यास्य ववस्य नय भेदाः पकीतिताः। 

समुद्रान्तरिता ज्नेयाम्ते त्वगम्याः परस्परम्‌ पाद 

इन्द्रदरोपः कमेरएन ताग्रदर्णो गभस्तिमान्‌ 1 ^ 

नागद्रीपस्नय। मौम्पौ गन्यर्वस्त्वय वास्णः ॥(¶० 

अयन्तु नव्रभस्पपा दीपः सागरसवरेनः 

योजनाना पट्स' तु द्ोषोऽय दक्षिणोत्तरम्‌ ॥११ 

आयतो द्यादुमारिकवयादागद्नाप्रभवाच्व वे 1 

निर्यगुत्तरविम्तीण मह्स्राणि नवेव त्‌ १२ 

रीषो ह्य पनिविशेऽय म्तेच्छंरन्तपु नित्यश. । 

पूर्वे परिन्रता पथम्यान्ते पश्चिमे यवनाः स्मृता; ॥१३ 

व्राह्मता हानिवा पण्या मध्ये पदर भागध.।॥ 

द्रञ्पायुदवलिन्पानिरयेतं यन्तो य्पवस्यिता ¦ ॥१५॥ 

द्मे षश] स्वनं पोत भौर भप्ठ यास्व गर्यामान होत हद 
हासि हादाहै । अहरद वयम मतुरा कामिष्केयटी क्कश ष 
तहता है ॥८्॥ दूत भारन्दर्तद गो मरब्हेशदे टै शि समुहे द 
टैदेला भगपना षाप्द्‌ धौष् ठे परत्वर वरे भवन्ड हेते है ।1६ा। एयर ९ 
कपर, धमदमान्‌, नावरं, सोप्द, दन्दद, वात्चभौष्म्ह शो 
करव्यो धकृत नवमदाद् है द्द्‌ रीत द्ठतोनष्य एर वदुतमेश्वष् 
1111178... 


शुवन-विन्यास | [ ३४१ 


उत्तर मेनौ सहस्व विस्तौणं होता है 11१२ यह द्रप नित्यहौ बन्तोःमे 
भ्त से उपविष्ट है । एवं मे इमे अन्तमे किराते लोग है मौर पश्विम 
मे यवन्‌ कहु येह ।1१३॥ मव्यमे इसकेभागते ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य भौर 
शूद्र रहते ई, जोकि ष्या, युद्ध, वाणिर्य आददे कै द्वारा मपना वत्त करते 
इए व्यवधित रहते है ॥१४॥ 

तेषां संन्यवहारोऽय वर्चत तु परस्परम्‌ । 

धर्मविकरामसंगृक्तो वर्णाना तु स्वकर्मषु ॥१५ 

सद्धत्पपच्चमानां तु आश्रमाणा यथाविधि) 

इद स्वगापवर्गाथं प्रवृत्तिर्येषु मानुपी । १६ 

यस्स्वय नवमौ द्रीपस्तिर्यगायेत उच्यते । 

कृत्छ' जयति यो ह्यन स सम्राड्‌ कौरत्यते ॥१७ 

अथय लोकस्तु वे सम्नाउन्वरिो विराट्‌ स्मतः। 

स्वराडन्यः समतो लोक पुनर्वक्ष्नामि विस्तरम्‌ ॥¶८ 

सप्त चास्मिन्‌ सुपर्वाणो विश्रूनाः कुलपर्वताः 1 

महेन्द्रो मलयः सद्य शुक्तिमावृ्नपर्वतः । 

विन्ध्यश्च पारियात्रश्च संते कुलपर्वता. ॥१९ 

तेपां सहस्रशश्चान्ये पवेतास्तु समीपयाः । 

अभिजातः सर्वगुणा विपुला दिचत्रसानवः 1२० 

मन्दरः परवत श्रेष्ठो वहारो ददु रस्तथा । 

कोलाहलः सभरसः मं नाको वेचुतस्तया ।२१९ 

उनफा परस्पर मेषा सुन्दर व्यवहार रहताहै क्रि वर्णों का जपते 
भपने कर्मो घनं, अथं गौर कामसे युक्त व्यव्हार रहतारै ।१५॥ सद्धुल्प 
पञ्चम आश्रमोकी विधि के अनुमार यहां पर जिनमे स्वगं तथा अपवग कं 
लिथे मानवो प्रवृत्ति रहा करती है ॥१६1 जो यह नवमद्वीप है वेह तियंक्‌ 
{येदम ) भयत हैदेष्ताक्डा जत्ताहं। इस पूरेकोजो जीत कर शान 
शिया करताहं वह यदंषर सम्राट कडा जताहं ॥१ ॥यदलेतो 
श्रा, ओर अन्तरिक्च विराटं कडा गया द जीर जी अन्य लौङह वड्‌ स्वराट्‌ 


३४२ | [ कषुणुणम 


कटे गये ह । उवङ विस्तार फिर, कहा जायया ॥१८॥ इषे वा पृष्व 
कूल पवेत प्रविद्ध है भिनङ्के नाम महेन,मलय, षह्य, युक्तिमित, 
यदेत, विन्ध्य बौर पारियात्र हू ! ये ही सात कुल पव॑त कहं गये ह ॥१६४ 
सात कुल पवंतो ॐ समौप मे रहे वाने सहच्नो अन्य पर्व॑त ह जोकि बभर 
[ सुन्दररुचन | समस्त गुणो से युक्त, विज ओरविय शिरो वान द ॥२५ 
मल्दरपवतांमे बहुन ही धरेषठवत है! वहार, ददुर, कोनाम, सवृ, 
मनाक्, वंत पवत है ।२१९५ 
पातन्धमो नाम निरिस्नथा पाण्डुर पवतः 1 
गन्तुप्रस्थ कृष्णनिरिगेधिनो गिरिरेव च ॥र२्‌ 
पुप्णभिवुःज्जयन्नौ च शैलो रवतक्रस्तथा । 
श्रीपर्वतद्व कास्यव वूःटीलो मिरिस्तया ।।२३ 
अन्धे तेम्य परिजात स्वा स्वत्पोपजीविनः। 
तै्रिमिध्रा जतपदा आरयम्नेच्छारन नित्यशः (२४ 
पपन्ते यैरिमा नयो गदा सिन्धु सरस्वती । 
शनद्रवन्दमभागा च यमुना सरयूस्तया ॥२८ 
प्रवल विनम्ता च विपाशा देविका वृहू. । 
गोमन धुतपापा चय गरट्दा च हपद्रती २६ 
फौरिको चत्रूनीयातु निरनीरा गण्डौ तया। 
टृशूुरतोदित एन्पेता दमवत्वाद नि.मृता ॥२७॥ 
येदम्मूतिरकेदवी वृव्रध्नी सिन्धुरेव च । 
वर्णाशा चन्दना चप मतीरा मह्न तया ॥२म 
परा सम्मण्दनः चैव विदिगा वेत्रवत्यदि। 
चिदा प्यवन्नो च नया परादियायाश्रयाः म्प.ना. ॥ २६ 
प्म अनिर दातज्यत नाम दामा निरि त्व पमुप प 
दृदस्य, इृततिरि, पोडननिति, पृ्विषि, उम्जयत्‌, रवद, धी ११६, 
र, ृष्संद तिरि पर्रेन उति धरजोप््ठ दवेषः भी. 
रोतो कर्दितर षत अद्र उने पित हुर्‌ है सो किष्य री च भप 


मुवन-विन्याम |] ३४३ 


म्तेच्दों से युक्त रहते ह ।॥ २३-२४ ॥ जिग दय ये नदरा पाई जाती उन 
नदि्योके नान-गद्गा, मिन्यु, सरन्वती, शातद्र, चन्द्रमा, यमुना, घरपर, 
्रावतो, वित्तस्ा, विषाणा, देविका, कुह, मोती, धूतपावा, वाहुदा, दषद्रती, 
कौशिकी, ततीय, निश्चीरा, गण्ठङरी, इषु मौर लोहित ये षव नदिया हिमवान 
के पाद से निक्त हई ह २५-२६--७ ॥ वेदस्मृति, वेदवठी, वृश्नो, चिन्धु, 
वर्गा चन्दना, सतो, सहनी, परा, चर्मवती, विदिशा, वेत्रवती, क्षिप्रा, 
लवन्तरी--ये पारियात्रात्रयाक्टी गह्‌ ₹॥।२८२६॥ 

शोणो महानदश्चैव नर्मदा मुमद्द्रुमा । 

मन्दाकिनी दञ्चर्णा च चिब्रहुटा तथेद च ॥३० 

तम्रा पिष्पला श्रोणी करतोया पिश्लाचिको। 

सीलोत्पला विपाशा च जम्बुला वालुवाहिनी ।3१ 

सितेरजा गुक्तिमती मक्ूणा त्रिदिवा क्रमाद्‌ । 

श्क्षपादात्‌ प्रमूतास्ता नचो मणिनिभोदकाः 11३२ 

तापी पयोप्णौ निविन्व्या मद्रा च निपा नदो । 

वेन्वा वैतरणी चैव ललितिवाहुः कुमुद्वती ॥३३ 

तोया चैवे महागौरी दुर्गां चान्तथिला तथा 1 

विन्ध्यपादग्रसुताच नद्यः पुण्यजलाः युभाः ॥३४ 

गोदावरी भामरथी कृष्णा वेण्यथ वन्जुला । 

तु्धभद्रा सुप्रयोगा कावेरी च तथापगा । 

दक्षिणापथनयस्तु षद्यपादाद्धिनिः सूनाः ॥1३५ 

दीर णोग मदाद्‌ नद है ठया नमेदा, सुमदाद्रमा, मन्दाकिनी, दत्रार्णा, 
चिववुटा, तमक्ता, श्रोणी, कदतोया, पिशाचिका, नौ लोली, विपारा, जम्बुना, 
दालुगाहिनो, चिनेरजा, शुक्तिमती, यक्ष्या, वरिदिदा, ये सव नदियां ष्श्षपाद 
नामक धवंतके पादस प्रमूतहोने वाली गौर मथिके समतस्वकृदुजन 
वाती नदियां ह 1 ३०-३१-३२ ॥ ठाषी, पोषो, नि्विंन्ध्वा, मद्वा, निपया 
नदी, वेन्वा, वैतरणी, शितिव्राहु, करमुद्त्ती, तोप महागौये दुर्गा मन्ठविला 
मे समस्त नदियां विन््याचल के पादपे प्रसूत होने वाली मीर गरुम तया परर 


३४४ |] [ वपुर 


पित्र जल वालो ह ॥ ३३.३४ ॥। गोदावरी, मीम रथो, ष्णा, वेणी, वनदुर। 
तुद्धभदरा, सुप्रयोगा, कावेरी ये समस्त नदियां दक्षिग पथ को मोर वाती तषा 
सह्याद्ि पव॑त के पाद से निकली हुई ह ॥ ३५॥ 


कृतमाला तास्नवर्णा पुप्पजात्यूत्लावती 1 
मलयाभिजानास्ता न्यः सर्वाः शीतजला. भाः ॥३६ 
त्रिसामा ऋतुक्रुत्या च इरुला. त्रिदिवा चया। 
लागलिनी वंशधरा महेन्द्रतनया; स्मृताः ॥३७ 
पीक सुकुमारौ च मम्दग। मन्दवाहिनी 1 

कूपा पलाशिनी चैव शुक्तिमत्प्रभवाः स्मृताः ॥३८ 
सर्वा पण्या. सरस्वत्यः सर्वा गङ्गा. सनुद्रगा.। 
विश्वस्य मातर सर्वा जगत्पापहराः स्मृता. ३ 
तासा नद्युपनद्य ऽपि शतशोऽथ सट्लश. । 

तास्विमे कुष्पा-चाताः शाल्वाश्चैव सजाङ्गलाः ॥४० 
शूरसेना भद्रकारा वोधा. शतपथेष्वरेः । 

वत्माः करिमप्णा. युल्याश्च वुम्तलाः काशिकोशला. ॥५॥ 
अथ पादे निलद्धाश््र मगयाइच वृकः सह । 
मध्यदेशा जनपदाः प्राय्रशोऽमी प्ररौतिता. ॥४२ 


हतमार, ताप्नवर्णा, पुप्पजातो, उललायती, ये समस्त गदिषा मलय 
पतने उन्पप्र होने वाली तथा शुभ एव पीतल जल याती ह ॥३५॥ 
त्रिसामा, च्छनुकर्ण, दुवा, निदि, लागुतिनी, वशधरा] महेन तनया अर्वा 
ये शद मदन्राचलमे उशत्र होने दाल नदियां कही दं 1 ३७॥ शपो, 
शुषुमारी, मन्दया, मन्दउहिनी, शूका, पतातिनी ये सब नटि पृ्तिताव ण 
ठे प्रसून षने वाती ह ॥। षट ॥४ये कभी नदिषं पष्य अर्थात्‌ पन १११. 
सरस्वती भोर सद भदन एव सधुद मे अनिकामोह।ये षव ष्ठी 
भानात्‌ बौर अणती चत बं ममरत पारगो शाह्रण क्रमे वासीबणी 11 
1 ६६॥ हननस्य मे {दते वातो उवतदियौभी सं््णोतपा गहा 
-ट। दे ये शद दृदगर्दात्‌, शाद भोर पमाद्गता ह ॥४४०॥ पृ 


शरुवन-विन्या् |] { ३४५ 
प्रकारा श्रौर परतपयेश्वयो के द्वारः वोधा वत्सा क्िसप्णा, कुल्या, कुन्तला, 
पत्निरोसता है 1 ४१1 इसके अनन्तर पाष्वंमे ही तिलद्ध, मगपजोङ्गि 
वृको के सहित ह मध्यदेशमेये प्राय जनपद कटै गये हं ॥ ४२॥ 


सह्यस्य चो्लराद तु यत्र गोदावरी नदौ । 
पृथिव्यामिह कृन्स्नाया स प्रदेशो मनोरम ॥.३ 
तत्र गोवदंनो नाम सुरराजेन निर्मित 1 
रमश्रिपाथं स्वर्गोऽय वृक्षा मोपधयस्तवा ।४४ 
भरद्वाजेन मूनिना तस्पियार्थेऽवतारिताः । 
अन्तःपुरवनोद्‌ शस्तेन जज्ञे मनोरम ॥*५ 
चाह्लीका वाढधानाश्च आभीरा. कालतोयकाः । 
अपरीताश्च शूद्राश्च पल्वाश्चर्मखण्डिका ॥४६ 
गान्धारा यवनाश्चैव सिन्धुसौवीरभद्रकाः । 

शका दा कुलिन्दाश्च परिता हारपरुरिका. ॥४७ 
रमटा रद्ध टकाः केकया दशमानिकाः । 
कतरियोपनिवेशाश्च वैयशूद्रकुलानि च ।1४८ 
काम्बोजा दरदाद्चैव ववं सा. प्रियलौकिकाः 
पीनाश्चंव तुपाराश्च पल्ववा वाह्यतोदराः 1 दे 
आत्रेयाश्च भरद्राजाः प्रस्थलाश्च कतेरका ॥ 
छम्पाका स्ननपाश्चैव पीडन युहृडे सह 1 ५० 
अपगाश्चालिमद्राश्च किरातानाञ्च जातय. । 
तोमरा हसमार्गाश्च काश्मी रास्तद्धणास्तथा ॥५१ 
चूनिकाश्चाहुकादच॑व पूदर्वास्तियेव च 1 

एते देशा ह्य.दीच्याश्च प्राच्याच्र देशान्निबोधत ॥५२ 


सद्य पर्व॑त के उत्तराद्धं मे जहां कि गोदावरी नदीरहै पृथ्वीम भौर 
समस्त दस भूमइप्न मे यह्‌ प्रदेश हूत ही सुर दै ।| ८३२ १॥। वहां पर मोवद्धन 
परवैनदै जौ करि बुरराज के द्वारा तरिनिमिंतक्रिया गाद! यहरामकी 
श्रियाकेनिेस्त्वमं है तथा यहु पर दृश्षादि एव ओपदियां सव्र भग्द्राज मुनि 


३४६ 1 [ वाघ पुरा 


ने हौ उके प्रियकर के निये अवतरति किय ह्‌॥ अतपुरवनका दृ 
उने परथ मु-दर उत्प किया दै ॥ ४४५५॥ वा्ोक, वान, बीर 
कालतोयक, अपरीत, पद्वब मोर चम खण्डिक सूद्रजात यत्ते सोहे) 
गान्धार, सवन, सिधु, सौवीर, भद्रक, शक, ठर, कन्द, प्रित, श्रि 
रमट, रद्ध कटिक, केकय, दशमानिक य ्षत्रियोपनिवश् कया वैश्यषएव गुः 
कुल ह ॥ ४९४७ ४८ ॥ काम्बोज दरद, वचर प्रियलोङ्रि, पीन वप 
प्ह्वव भौर वाह्यतोदर है आत्रेय, भरद्वाज, प्रस्थल, क्रक, लम्ाङ्, स्वप 
ठया बुदृढो के सदित पीक, जग ओर अलिमद्र ये सव क्रिरतोगौ ॥॥ 
हाती ह। तोमर, हषमाग, कादमौर, तद्धण, चृन्तर वादक तथा पूण दव॑ 
सद देण उत्तरके ह भरवात्‌ उत्तर दिशामे हान वाति परदेश हृति दै । भरर 
भर्यादु पूव दिशाम होने वालोंदो दवण क्रो ॥ ४६ ५०-५१-४२ ॥ 

अन्धवाका सूुजस्का अन्तगिसिवदिपिरा ॥ 

तया प्रवद्धवद्धया मालदाः मालवतिन ॥५३ 

ब्रह्मोत्तर. प्रविजया भाग्वा गेयमर्थेका । 

्राम््पोतिपाप्च मुण्डाश्च विदेहास्तामलित्ा 1 

माला मगधगाविनदा प्राच्या जनपदा स्पृता पण 

अयापरे जनपदा दक्षिणापय वानिन ॥ 

पाण्ड्ाश्च वेरलाश्वव चौत्या वुल्यास्तथैव च ॥५५ 

सतुता मूविक्ाण्चव युमना वनवात्तिका ।॥ 

मटाराष्टरा माह्पिरा कलिद्रा्चेव सर्वश ५१५६ 

जमोरा सह्‌ चैषा आटव्याश्च वराश्च पे1 

युदिद्रा विन््यमूलीका वेदर्मा दण्डं रद्‌ ॥५७ 


पौलिका सोनवार्चैव अस्मङा भागवद्वना ॥ 
नलिषा बुन्तना आघ्रा उदूमिदा नलराणिक्रा ॥४८ 
दाक्षिणात्याश्च वं दता यपरा्तातिगोपत ॥ 
मुपात्रारा फोलवन्म दुर्गा कासीत गह ५6 
शूतपापव गुरा याश्व रूपमार्‌ भप गद 

तथा तुरसिदारयव सवं जद पग ॥६१ 


युवत-विन्याघ |] [ ३५४ 


अन्ध्रवाक सुजरक, अन्तरिरि. कष्र्मिर, प्रवद्ध वद्र, मालदा, मान 
त्ता, ब्रह्मोत्तर, प्रविजय, मार्पेव, मेधमथक, ्राग्ज्यातिय, मण्ड, विदेह, ताम- 
लप्तक, माला, मग्ष जौर सोविन्द ये सड जन पदश्राचौ दिश्ामेक्टैगयेह 
1 ५३ ५४ ॥ इगक्रे अन-तर दक्षिघ्रा रय वामी जनपद ह जिनङ़े नाम पाण्डयः 
हरन, चौन्य कुल्य, मेतु मपिर, दुमन, वनवामिक् है । महारणष्टर, माह्पक, 
विद्ध, समोर, चंपक, आटव, वरा, पृलिन्द्र, विन्व्य मूनक घौर दण्डके 
गदित वंद, भौनिक, मीनिक्, मस्मक, भोगवदधन, नंर्गिक्‌, कुन्तल, नार, 
गुभिद भौर मनङ्गानिक् ये तत्र दक्निणाप्य प्रदे होतेह । नक्ते मतिरिक्त जो 
शरे है अद उनका शरद कगे । शूरकक्ि(र, कोनवन, कातीतङ, पुनेय, मूरा, 
पप, तावत, तुरस्षित ये सव परकर है ।1 ५५- ६।५७-५८-५६-६० ॥ 


नासिक्यायास्न ये चान्ये ये चौवान्तरनर्मदा" । 
भानुकच्छा. समा टिया. सदसा शाश्वलेरपि ॥६१ 
कच्छीय।ए्च सुराप्टरश्च अनर्त्ताश्चावुं दं सह । 
इत्येते सम्परीताइच श्ृणुध्व विन्य्यवामिन ॥६२्‌ 
मासवाश्च करूपाश्च मेकलाश्चौतलैः सह्‌ । 
उत्तमर्णा दशार्णाश्च भोजा त्रिप्ठिन्धकैः सह्‌ ॥६३ 
तोसला कौरलाश्चैव तीपुरा नोदिकास्तया 1 
तुमुरास्तुम्बुराश्यव पट्मुरा निप सद्‌ ॥९४ 
अनुपास्तुण्डिकरिराज्च वीनिदोचा द्यवन्तय । 

एतं जनपदाः सवे विन्ध्य पृष्ठनिवासिन ॥१६५ 
अतौ देशान्‌ प्रवक्ष्यामि पवंताश्रयिणश्च ये । 
निगहंरा हममार्गां शुपणाम्तद्धणाः पसा ॥६६ 
वुश्प्राचरणार्यैव हणा दर्वा. सहूदक्ा । 

तिगर्ता मालवार्यैवं त्रि रातास्तामरसौ सह्‌ 1,६७ 
चत्वारि भारते वर्प युगानि कवयो विट्‌ 1 

हेत घ्रेना हापरन्च कलिष्चेनि चतुष्टयम्‌ 1 

तेपा नितं वक्ष्यामि उपरि्टाच्रिवोधत ॥६८ 


१४८ |] [ वपुर 


नाके धाद तैवरजोनर्मदाके शन्तर मैवे शाश्वतो कैद 
इहा भानुक्च्य के समान देष ह । कच्छीय, सुरा, मावत, चनु दवे! 
परीत होति है । भव विन्ध्य व।सियो को धवण करो । मातव, क्प ५ 
कल, उत्तमे दशाण, भोज, किष्किन्धक, तोसल, कोसल, शरणुर तया ॥॥ 
र कमडुर, वटसुर, निपथ, मनुय, तुन्डकेर, कीति्ोच, ववनती प ठ, 
पद विन्व्यके पृथ प्र निवास करने वाते है ॥ ६१-६२-६३.९४१ 
कै यागे जो परवेताश्रयी देश ह उन्हे दतलाया जाहाहै नि््हर हममा 
पण, वद्धण, सस, वुशप्रावरण, हण, द्वं सहूदक, श्रिपते, मालव, पि 
भस ये पर्वतो पर आश्रय वातत प्रदेश ह । कवि लोप भारतवपं मे चारः 
ते है उनके नाम कृतयुग, वता, दपर मीर कलिय मे बार हेते ई । म 
गें बततलावेगे । ऊपर से जआानलो ॥ ६६-६७-६८ ॥ 

॥ प्रकर्णं ३३-ज्योतिष प्रचार (१) ॥ 

अध प्रमाण मूर्ध वण्य॑मान निवोधत । 

पृथिवी बागुराकाशमापो ज्योतिश्च पचमम । 

अनन्तधातवो द्यं ते व्यापकास्तु प्रकीर्तिता ॥1¶ 

जननौ सर्वभूताना सर्वभूतधरा धरा ¦ 

नानाजनपदा कीर्णा नानाधिष्ठानप्ना ॥२ 

नाननदनदौशैला नैकजातिसमाकुला 1 

अनन्ता गीयते देवो पृथवो वहुविस्तरा ॥१ 

नदीनदक्तमुदरस्थास्तथा कुद्राश्चया स्यिता 1 

परवताका्सस्थाण्च अन्तभूं मिगताश्चया ॥४ 

सापोऽनन्ताश्च विज्ञेयास्तथाग्नि. स्वंलौकिङ़ ! 

अनन्त. पठ्यते चौव व्यापक सर्वसम्भवः ॥५ 

तथाकाशमनालम्ब रभ्य नानाश्रय स्मृतम्‌ । 

मनन्त श्रथित सवं वायुश्चाक्राणसम्मव ६ 

आप पृथिव्यामुदके पृथिवी चोपरि स्थिता 1 

आङाणच्चापरमधः पुनश्रुं मि पुनज्जंलम्‌ ॥1७ 


तिप प्रचार (१) |] + २ € 


धी मूनजीने कटा-अय बाप लोप बधप्रमाण मौरङ्दं जोकि 
द्वारा वण्धमान होगा उसका श्रवण करे । पृथिवी, वायु, बाक्राश, जल मीर 
पवी ज्योति ये यनन्त घातुपे हं जो व्यापक कहो गई १॥ समस्त 
धयो क जनन करने वाली जननी चया सम्पूरणं भूतो को षारण रने वासी 
{होती है जो कि अनेक परत्तर क जनपदो से आङ्ग्य दै तथा विवि प्रकार 
भयिष्रान एव नगरो बालौ है ॥ २॥ इम धरापे नाना मातिके नद, नदी 
1 पर्वत्त ह भीर मनेवः प्रकार पी जातिर्यो स यह समाट्ल होरहीहै। यद्‌ 
पी देवी थन.त एव वहूत विस्तार वाली गाई जातीषै॥३॥ नदी, नद 
र समुद्रम रहने वलितया द्षिद्धेटे माध्रमोमे स्थित, पर्वत एव ब्रा 
गहने याने पतया इख भूमण्डल कै बन्दर मे रहने वाते जल भी अनन्त उन्हे 
विनामत वाले जानना चाहिए । दसो भाति समस्त लोक मे रहने वाला 
समनि भौ व्यापक एर तवं मम्भव तथा अनन्त पटा जाता दै ।॥ ४५॥ इसी 
गरस यह्‌ माकाश विना भवतस्र वाता, सु दर एव सनेकोका बाश्रय कहा 
1 है । यह सव अन-त प्रयत है । जौर वायु माकादा स्ते उत्व होने वाला दै 
६॥ जल पृथिवौ मदै ओर जल के उपर यद पृथी सित दै । माकाश 
प्रद फिर नीचेजतदहै मौरफिरमृमिहै॥७॥ 
एवमन्तमनम्तस्य भौतिजस्य न विद्यते 1 
पुरा सुरेरभिदहित निश्चित्तं निबोधत (1८ 
भूमिजलमथाकाशमिति जेया परम्परा । 
स्थितिरेषा तु विज्ञेया सप्तमेऽस्मिनर्‌ रसातले ॥। ८ 
दशयोजनसादखमेकमीम रसातलम्‌ । 
साधुभि परिविख्यातमेवक बहुविस्तरम्‌ 11१० 
भ्रयममतलच्चैव सुतलन्तु ततं परम्‌ । 
तते परतर विद्यादितल वहुविस्तरम्‌ ।\११ 
ततो गभस्तल नाम परतश्च महातलम्‌ 1 
श्रीतलज्च तत प्राह पाताल सप्तम स्मृतम्‌ ॥॥१२ 
छरप्णभौमच्व प्रयम्‌ मूमिमागच कौत्तितम्‌ । 


३५० ] [ वागुर 


पाण्डुमौम द्वितीयन्तु तृतीव रक्तमृत्तिवम्‌ 14 

पीतमीमश्तुथन्तु पंचमं शकं रातलम्‌ । 

पष्ठ शिलामयस्रौव सौवर्णं साप्मन्तलम्‌ 1१ 

ष प्रकार से इस भौतिक की अनन्तता दै ओर इमका मनन कमो 
होना है । पहने देषो ने नोक्हाहै अव्यः जो मौ निस्विन है उपदन पर 
कसो । ८ ॥ भमि, जल तथा आकाश यद इनकी परम्परा हनी हैमो 
जाननेके योग्य ह) इत सपनम रसमतल मे यह ह्थिति जानने के णोभ्य होती ६ 
॥ ६॥ दश सद योजन वाता यह एव भोम रसातल है । साधु ृष्योके दर 
यह एक-एक वदत विस्तार से यक्त परिविस्यात दै ॥ १०॥ इने जौ र { 
चद्‌ अतल नाम वाला दै । इषक्ते भागे सुनन होता है। इसके भी भि ग 
विस्नार वाला वितल होताहै ॥ ११॥ समके मे गभस्तल नाम वाता 1 
ओर फिर यामि महातल है । इम के आगे श्रीतल करागया ह मौर पातार, 
साता कहा गया है ।) १९॥ प्रथम भागदृष्णभोमदै जोह (५ 
कोरि किया गा है । पाण्डु भूमि वादा पाण्डु भौम द्रुमा भागहै॥ ) 
रक्त भूमि वाला अर्यानू ज्रिनमे लाल म्री है देता भाग दै । पीतमोमन 
भाव होना] पावका भाग शद्धरातन वाना होना भोर 
शिलां ते पूणं है तथा सात भाग सीवनं होत है श्यात्‌ दैनमर 
॥ १ -१८॥ 

प्रयमे तु तते ब्यातमषुरेनदरस्य मन्दिरम्‌ । 

नमूचेरिच्ध गच्रोहि महानादस्य चालयम्‌ ॥१५ 

पुरस्व शंदुकर्णस्य वःन्धस्य च मन्दिरम्‌ । 

निष्ठुतादस्य च पुरं प्रहृष्टजनसदढलम्‌ ॥१६ 

राक्षसस्य च मोभरस्म धूलदन्त-य चालयम्‌ । 

सोहिताक्षकलि राना नगर श्वापदस्य तु ॥१९५ 

धनञ्चयस्य च पुरं मादेन्द्रस्य मदात्मनः1 

कालियस्य च नागस्य नगर वस्य च ॥१८ 

एवं वृरमद्याचि नागदानवरक्षनाम्‌ ॥ 


ज्योतिष प्रचार (१) |] [ ३५१ 


तलेज्ञेयानि प्रथमे कृप्मभौमे न संशयः 1१६ 

द्वितीयेऽपि तले विप्रा दैत्येन्द्रस्य सुरक्षसः 

महाजम्भस्य च त्था नगरं प्रथमस्य तु ॥२० 

हधग्रोवस्य कष्यम्य निक्रम्मस्य च मन्दिरम्‌ । 

शवाख्येयस्य च पूरं नगरं गोमुखत्य च ।१२१ 

नमे जो श्रथमतलदै उषे अभुरोके स्वामी का मन्दिर ष्यात्‌ दै। 
षन क शवत्रु महानाद वाने नमुचि का यह बालयटहै ॥ १५॥ घंकुकणे का 
नगर है मौर कच्न्धक्ा मन्दिरहै । भौर निष्कुलसे मका पुर परम प्रृष्ट 
मनुप्योते परङुन अर्यात्‌ चिराहूभा है ।\ १६॥ बत्यन्त भीम लर्पावु भयानक 
शूलदन्त राक्षर का आनय दै । लोहिताशषक तिद्नो का मौर श्व्रापदकानगरदै 
1 १७ ॥ मेन्द्र महाल्मा घनञ्जय का नगर है तवा कालियनागका भौर 
कलपकावहा पर नगरहै॥ १८॥ इम परार से वहाँ परनाग दानवभौर 
राक्षछठोके सट्लो नगरहै। ये खव कृष्णमौम प्रयम तल मंदहौ जनिन के योग्य 
देते है मीर इसमे दुयभी स्षश्यनदी है ५१६ ॥ हे षितो! दितरीयव्वरे 
भी दैत्यो के स्वामी राक्षत प्रधम महाजम्भ का नरह ॥ २०॥ मौरपिर 
बां हयप्रीव, ष्ण, मौर निङ्कम्म का मन्दिर है । शष नाम वलि योर गोमुख 
क्य पूर एवं नेगरहै२१॥ 

राक्षसस्य च नीलस्य मेघस्य क्रयनस्य च ॥ 

पुरञ्च कुरूपादस्य महोप्गीपस्य चालयम्‌ ।\२२्‌ 

कम्बलस्य च नागरस्य पुरमश्वतरस्य च । 

केट्पूत्रस्य च पुर तक्षकस्य महात्मनः ॥२३ 

एव पुरसहस्राणि नागदानवरक्षमाम्‌ । 

द्वितीयेऽस्मिन्‌ तते विप्राः षणण्डरुमौमे न संशयः ॥२४ 

तृतीये तु तते ख्यातं प्रह्लादस्य महात्मनः! 

अनुह्वादस्य च पुर दैत्येन्द्रस्य मदात्मनः ॥२५ 

तारकारपस्य च पुर पुर त्रिकचिरसस्तया 1 

शियुमारस्य च पुर्‌ ठुर्पु्टजनाक्रुनम्‌ २६ 


३५२ ] [ वपु 


च्यवनस्य च विज्य राक्षपतस्य च मन्दिरम्‌ । 

राक्षसेन्द्रस्य च पुरं कुम्मिलस्य परस्य च ॥२७ 

विराधस्य च क्रूरस्य पूरमुलकागुखस्य च । 

हेमकस्य च नागस्य तथा पण्डुप्कस्य च ॥२५ 

इन बनिरिक्त वहां पर नल, मेव मौर क्रयन राक्ष का पुर्दैतयः 
कुरपाद ओर महोप्णीप का मालय है॥ २२॥ कम्बल नागका शौर भवद्‌ 
कपुर दै । कटके पुत्र महान्‌ भात्मा वति तक्षक कान है॥२३॥ ध 
परह्मारसे वां पर नाग, दानव मौर र्नमो के सहलो ही पुर है ह विशे । 
षम द्वितीय तनमे एसे अनेक नगरहै जोरि पाण्डुमौम हत ननि वालाहै। 
इममे भो तनिक सभय नही ह ॥ २४ ॥ तौपरे चले महाधना ्ह्वादका 
पुर प्रतिद्धहै तवा महासा दलेन अनुद्वार का नगर दै॥ २५॥ वद 
तके अतिरिक्त तारक नाम वालि का पुर, तरिश्िरा कापर, भौर हप म 
से समाङुन शिशुमार का पूर दहै॥२६॥ वहा पर च्यवन रक्ष का म्द 
सो जान चेना चादि तथा राक्षन कुभ्मिल भर लर का पुरभीदै ४ 
तथा मत्यन्त क्र विराधकापुर मौर उल्कापूव का पुरहि) एव देभा 
तथा पाण्टुरककेभी वदी परपृरर्ह॥२८॥ 

मणिमन्सस्य च पुर कपिलस्य च मन्दिरम्‌ ) 

नन्दस्य चोरगपतेविालस्य च मन्दिरमु ।।रम्‌ 

एव पुरसद्श्ाणि नागदानवरक्षसाम्‌ । 

चृतीयेऽस्मिस्तने विप्राः पीतमीमे न सशयः 11३० 

चतुरे द्यस्य कालनेमेर्मदा-मनः । 

गजक्णंस्य च पुर नगर वुञ्जरस्य च ॥३१ 

राशसेन््रस्य च पुर मुमानेर्वंहुविस्तरम्‌ । 

मुश्जस्य लोकनाथस्य वृ त्वकव्रस्य चालयम्‌ 11३२ 

यदूयोजनसाहख वहुपक्षिममाकु तम्‌ ॥ 

नगर दौनतेयस्य चतुेऽस्मिनू रमातते ॥॥३३ 

पन्ने शङरामौमि वहूयोजनविन्त्रने । 


ज्योतिप-प्रचार [१] [ ३५३ 


व्रिरोचनह+ नगर दत्यर्चिदस्य धीमत ॥४ 

वैद्य्यभ्याग्निजिद्वम्य हिरण्यक्नन्य चालयम्‌ 1 

परञ्च वि्य.ज्जिह्धस्य राक्षसस्य च धीमत ॥३५ 

वहां तीसरे तल मे मणिमन््र का पुरतथाक्पिलका मरिर्रदै। 
उरगा केस्वामी नन्द का एव विल्ञानका मन्दिरदै॥ २६ ॥हैविप्रो इम 
लूनीपत्ततमे, जोकि पीतमौम है नाग, दानव्र बौर राक्षनाके चहो हौ 
पूर एव मन्दिर है इसे कुछ भी सणयनष्टो है ॥ ३० 1 अव्र जगे चौथे तलमें 
द्यो पिह्‌ महात्मा कालनेमि दे, गजकणं के तथा कुर्जर के पुर एष मन्दिरं 
है॥३१॥ नया रानमेद्र मूषालि का वहत विस्तार वाला पुर दै। मृल्ज 
नोकनाय वृक्क के वरालप ह | ३२॥ ईत चनुय रमातल म बहून मे सद 
योजन के बिह्लार्‌ वाला गीर वटूत ने पलिर्यो समाकुल विराहूत्रा वनतेय का 
सुरम्पनगरदै 1३३ ॥ पाच जो करा भीमतलदहै उक्षमे ओकर बहून 
योजनो के विस्तार वाना है दैप्योमे विह के समान एव बिमा विरोचन 
कानगरहै। -४ (वैदूर्यं अग्नि जिह्ध मौर हिरण्यान्न का मालध (धर) दै 
तया चीमान्‌ राक्षम विनरुध्ग्हक्ापुर भी दै ॥३६५॥ 

महामेचस्य च पुर राक्षभेद्धस्य शालिन 1 

कम्मारस्य च नागस्य स्वस्तिकम्य जयस्य च ॥३६ 

एव पुरसहस्राणि नागदानवरक्षसाम्‌ । 

पञ्चमेऽपि तथा ज्ञेय शकुरानिलपरे लदा ।1३७ 

पष्ठ तते दैत्यपते के सरेर्नगरोत्तमम्‌ । 

भुपर्गण सुलोन्मश्च नगर महिषस्य च । 

राक्षमेन्दस्य च पुरमुकत्ोशस्य महात्मन ॥्८ 

तत्रास्ते सुरस्पुतर शनशीर्पो मुदा युत 1 

कश्प्रपस्य सुत श्रोमानू वासुकिर्नानि नागराट्‌ ॥३६ 

एव पुरसद्ग््राणि नागदानवरक्षसाम्‌ । 

पटे तलेऽस्मिनु विस्पते शिलामौमे रसातले ॥४० 

स्मेतुतले ज्ञेय पात्ताल सवेपश्िचमि। 


३५४ } [ गुनु 


पुर वने प्रमुदित नरनारीसमाकुलम्‌ 1४१ 

असुराशीविपंः ूरणमुदुतेदवशवुभि 

मुचुकुन्दस्य दैत्यस्य तत्र वै नगर मइत्‌ ॥*२ 

राक्षघरेन्ध एव शाली महामेष कापुर दै। तया इ्तीठल रभ 
नाग, स्वस्तिक तषा जयङेभो पुर ह ॥३६॥1 म परकर ते पाव [ए 
निनयमे नाग, दानव तथा रासो के सहनो ही पर स्त हठो जानौ 
चाहिए 11३७1) भथ छठा वल जो है इममे दैवयो के पति केरी का उतम मम 
है। एव सर्वा, सतोना ओर महिपके नगरर्ह। राक्षर महार्ता 
कानगरदै ॥३८१॥ वही पर च्डेतव्मे सुरा कापृत्र ओर एतशीषं बही 
्रसत्तता से यक्त है ओर वहां क्यपः पुव धीमान्‌ नागराट्‌ वापुकि नि दानी 
ह १३६ म चे िनामोम विषयान रावल मे न, दानव ओर स्व 
केह्रारो ही पुर ४५] अब सपं वलम जोकि सव से पीव द 
पाताल नाम वाते मेनर सौर नार्यो पे समाहत विक बहव ही परनि 
गर है ॥४१॥ वह्यं पर बुर बौर माशोविषो है पूं बोर उषा 
शभू से युक्त मुनुद््द दत्य का एक्‌ ब्उ वडा नमरदै १४२ ` 

अनेकदितिपुनाणा समूदीरणमंदापुरे 1 

तथैव नागनगरं ऋ द्विमद्भि. सदशः 11४२ 

दंस्याना दानवाना समुदोर्णमंहाुरं" 1 

उदं राक्षपावास सेकश्च समाकुलम्‌ 11४४ 

पानालान्ते च विपरेद्धा विस्तीर्णे वहुपोजने । 

जन्ते रक्तारविष्दाक्षो महात्मा ह्यनरामर ५१५ 

धीतशह्भोदरवदूर्मीलवामा महामृजः। 

विशालभागो द्यूनिमाश्चिवमालाधरो वली 1४६ 

रूग्मशृ्ध।रवदातेन दोप्तास्येन विराजता । 

प्रमुमुंखसद्श्रेण शोभतेवेस कुण्डली 11४७ 

म जिह्वामालयादेवो लोनञ्वालानना्िपा । 

उ्वालामालापरिन्निघ" कलापः इव लक्ष्यत 11४८ 


उथोतिप प्रचार (१) } { ३५५ 


सतु नेनषहल्लेण दविभुरोन विराजता । 

वालूरय्याभितास्रण शोभते स्निग्धमण्डलः ४६ 

वहां सप्तम तल मे अनेक दितिकेपूर्धोके समुदीणं महान्‌ ¶रोसे, तथा 
नागोके नगरोते जोकि बहुन ही ऋद्धिमान्‌ गौर सख्यामेभी सहो है, 
दत्य ओर दानवो के समुरीर्णं महान्‌ परो से तया उदीर्णं राक्षमो के भावाप् 
स्यागौसषेःजोकि वहत से है यह सप्तम तत समाङ्गल है ।॥४३।४४॥ हे वितरद्रो 
यहूते योजनो के विस्तार वाले इस पतालान्त में महात्मा अजरामर रक्तार | 
विन्दाक्षदै ॥।४५॥ वहाँ चौ शद्वौदरव दु, नीनवास्ना, गहागुन, विद्यालभोग, 
दयक्तिमान्‌, चिव्रमालायर, वलो, स्वयज्ग से वदात (श्वेत) दीपतपुलसे 
विराजमान सहत गुल से प्रमृदुण्डलो णोमा देता है ॥ ४६।।४७)। वहां पर वह 
देव नोल ( चचत ) ज्वाला के अनल की अवि वाली न्ह्वाभोकीमालासे 
परिक्षिप्त कलास कौ भति द्विषठाई्‌ देते ह ।॥४८॥ वहां पर वह दुगुने सद्र 


नेषोकीशोमासे ओकरि बान सूपं कौ अभिताम्रता के सदश है स्निग्धमण्डन 
शोमायमान होति ह १1४२॥ 


तस्य कुन्दनुवरणेस्य अश्रमाला वि राजतत । 
तरुणादि त्यमालेव श्च तपवेतमूढंनि ॥\५० 
जटाक्ररालो द. तिमानू लक्षयते शयनासने । 
विस्तीणं इव मेदिन्य्रा सटल्रशिषरो पिरि (1५१ 
महाभोगेमदाभगेमेदानगिर्महावलं । 

उपास्यते महातेजा मदानागपति स्वयम्‌ १1५२ 
स राजा स्व॑नागाना शेपो नाम मद।य्‌.तिः। 
सा वैष्णवी ह्यहितनुम॑र्ादाया व्यवस्विता ॥५३ 
सप्तं वमेते कथिता व्यवहूर्या रसातलाः । 
देवासुरमहानाग राक्षत्ताव्युपितताः सदा 11५४ 
अत्त परमनासोक्यमगम्यं सिद्धसाघुभि । 
देवानामप्यविदित व्यवहारविवज्जितम्‌ ॥५५ 
पृथिव्यन्नयम्बुवायूना नभसश्च द्विजोत्तमाः । 
मदत्वमेवमृपिनिवेण्येते नात्र सशयः ५६ 


३५६ |] [ वायुपुराण 


कुन्द भौर इन्द्‌, के समान वणं वात्ते उसकी यक्षमाला विगजमान है। 
यह पमो भ्रनीत हनो दै जपे दिमाच्छदिन शवेन पवेत के शिवर प्र तस्य 
सूर्यकी मालाहो (५० जटा्ोमे करान द्युति वाने उक्त भगे शयना 
प्रेषे दिलाई देते जेषे भूमि पर महल शिखरो वाला कोई पव॑त पना 
हदो 11५१॥ वह्‌ महन्‌ नागोकरा स्वामौ महान्‌ भाष वाले ओर महान्‌ भो 
वाति तथा महान्‌ वन वानि महान्‌ नागोकेद्रागा माद्‌ तेजसे गस्य 
उवास्यमान होति है ॥५२॥ वह समस्त नागो के राजा ह मौर महान. चति 
वनि येव नाप वति ह) वई अहिक तर अर्यात्‌ रोर वैष्णवो अर्थ्‌ दिष्य 
स सम्वनय रकने वानी है जोकि मर्यादा म व्यरस्थिन है ॥\५३५ यैरतोहौ 
व्यहारके योग्य रसातल कद गयेदै। ये सव सर्वा देव, बश्‌, महान 
ओक राक्षमोके निवामस्रूभिवने हृदद भ्ण हते अपो स्यान देखने ता 
समन प्रमे क यथोप है निवे कि षदे मिद भौर सापुमौ नही जापते द । 
यद्‌ जनिका इमे देव्य भौनदी जाने है ओरव्य्रहर न स्वपा रहित 
हे ह ॥५५॥ है द्विजोत्तमो 1 ्रपिपो दे दवाय पृथिवी, घणि जत, यापु भोर 
साराय कामद दनो प्रहार से वणेन सिया जाता है इममे ए भी सपय है 
४ ।५६॥ 

सन ठं प्रवक्षामि मूर्यायन्दमसोर्गतिम्‌ । 

सूर्याचन्द्रमष्वेतौ ध्रमन्तौ यावदरेवतु। 

पररायादः स्वमानिस्तो मण्डना गमस्विनौ ॥4२ 

सनन. गमुदरत्णा द्वी गानान्तु स विम्नरः। 

विम्नराद वृथियास्तु भवेदन्यत्र वाद्यत ॥१८ 

पर्यानिवारिमाण्यन्तु न्द्राितपो प्र्राणत । 

पर्यादवारिनाण्येव भूमेम्नुत्य दिव रगृनम्‌ ॥५९ 

अवति तोनिषान्‌ तोरन यम्मार्‌ सूये. पदिम्‌ 1 

सद्पानु प्रदायास्य क्ययनाह्त रवि. समृ: ॥८* 

अत वर्‌ प्रवदयामि प्रमाणं चन्द्रगर्येया 1 

यटा मरोलस्ते लस्वन्‌ ववे निष्यते ॥६१ 


भ्योतिप प्रचार | ३५७ 


अस्य भास्तत्र्पस्य विषकप्मन्नु सूविस्यरमू 1 
मण्डन माषहरत्याय योजनाना निगेवत ॥९२ 
गेवथोजनस्रहवो विस्तारो भास्करस्य तु । 
विस्तारात्रिगु्श्चास्य परिणाहोऽथ मस्डलम्‌ । 
विष्कम्भो मण्डलस्यव मास्कराद्दिगरुण श्री 1६३ 
ममे भे पूयं भौर चद्द्रमा करौ ग्रति कै विषयमे वतनता । ये 
दोना मूषे ओर चद्मा जद तरू भ्रमणङ्िथा करते हैवेदोतो मण्डनामे प्रमा 
ध्थित होते हए अपनी प्रमा से प्रकात्रित दति है ॥८91 सात समुद्रो काभौर 
दीपो का यह्‌ विस्तार दै परथिवी क्ाता उत विस्तार का मधभागदहै जोकि वाह्य 
तेमन्यपे होता है ॥५८॥ चद्र मौर आदिव्य पर्थानि के पारिमाण को प्रकाल 
्िकरते द जौर प्पानि के पारिमरण्य से वुव्प ही दिष कहा पथा है ।1५६॥ 
यद्‌ सूपं परिश्रमण करता दमा तीनो सोनो ख तिन सारण रक्षामि करना 
दै चह यवघातु प्रकादा नमर वषलाहै ओरमवन पसैमेही वह रविवहा 
गयादहै ।६०॥ इवे मणि अद चनद्रओ( सूपं कर प्राण कदाजानाहै। 
मष्ट्नव्र केकारणसे पदो गह्‌ णकः हम वत मे मिगानितत क्रिया जता 
६।६१। इ मारतं का सुवा भिपूकम्मह मतन्तद भाष्फरकं मण्डल 
फे योगनं सनञ्ललो ॥ १1६२॥ भा्कर का वि्तारनो पोननसदृघ्र भयु नौ 
योजन वालाह। इगक्ञे श्िसतारते तगु हमरे मण्डरका हौ विपृरम्प्र दै। 
भाक्कग् से दुगुना चन्द्रमा है ।1६३॥ 
भत पृथिब्या व्याम प्रपाण योजने सह्‌ 1 
सप्द्रीपसनुद्राया विस्तारो मण्डलञ्च यत्‌ 11६४ 
द्थेतदिह्‌ सद्भुचात पराण परिमाणतः 
तदरकपामि प्रसन्भपाय साम्प्रतं ररभिमानिभिः ॥द५ 
अभिमानिग्यतीता ये तुल्यास्ते समग्प्रतैरिह्‌ ! 
देवा येकं ह्यतीत्तास्ते ल्पंर्नामभिरेव च ॥६६ 
तस्मात्तु साम्नतं देवं वक्ष्यामि वसुधातलम्‌ । 
हु ककय -त तम्प्र छतत "1५५ 


३५८५ |] { वाृगृत 


शताद्धं कोटिविस्तारा पृथिवी छृत्स्ततत स्मृता । 

तस्या वाधंप्रमारोन मेरोर्ये चतुरन्तरम्‌ ॥६॥ 

पृथिव्या बाधं विस्तारो योजनाम्रास्रकीत्तिति 1 

मेरुमध्यात्‌ प्रतिदिश कोटिरेकादश स्मृता ॥ ६ 

तथा शतसहस्राणि एकोननवति पून 1 

पञ्चाशच्च सदस्राणि वृथिव्या वारे विस्तर ॥७० 

दसलिय पृथिवो का प्रमाण योजनो के साथ वताता है। साद्ौपी 
घौर सप्त मुदो वाली का विस्तार ओर भो मण्डल है ह यहा न पिमा 
घे पुणणनेसस्या कहै । वह भाजक्व के होन वलि अभिमानियो के न 
परस्या के सिये बतनाना हं ॥८४।।६१५॥ जो मभिमान वरते वति व्यतीत ध 
गये वे यह माज के समय मेहेत वालोके तृप हीये। जो देवतायै 
भीनमोओौर बफनेषूपो केसद व्यतीत हो गये ह ॥६६॥ एते 1) 
धरयत इन सममे होने वाते देशे ते वधु तल को बताता । का 
मेद्राराहौ द्रूणष्नाते दिव का सप्िरेश हाता है ॥६७॥ ष्ट र्वी परणता 
पचास करोड विम्यार वाती कहौ गई । उपक अधं प्रमाण तमेषा 11 
होता है ५६६॥ पृथि का भधा विस्तार योजनाप्र ते प्रहीतिति होहा ॥ ६ 
ढे मध्य वे मरनि्ामे ग्यारह मरोड दे गये ह ५६६ सौ हनार नकी भ 
पथाति सट पृथिवी काभध विष्ठार है ॥७०॥ 

पृथिव्या विस्र त्त योजनेस्तक्नियोधत ॥ 

तिमर गरोटयस्तु विम्र स्यति स चतुदिणमू ॥७1 

तथा पघतसटख।णमेकोनाशीतिष्च्यते । 

स्रीवगमृद्राया पृचिव्वाह्त्वेप विस्तर ५७२ 

विस्तारात्‌ त्रिगुणचंय प विस्यन्नस्य गण्ड 

गथित योजगग्रनु कौटवस्त्वेकादण स्मृता 

तया लगसहस-तु मप्त्रिापियानि त्‌, 1 

दष्येतदं प्रगद्धयान एृचिव्यन्त्य मण्डनम्‌ 

तारकासद्धिवेलस्य दिदि यावदि मण्डसम्‌ 


उपोहिप-प्रचार्‌ (१) ] [ ३५६ 


पर्याप्तः सत्निवेशस्न भमस्तावत्त्‌, मण्डलम्‌ ॥८५ 

पर्यासपारिमाण्येन भूमेस्त्‌त्य दिवं स्मृतम्‌ । 

सुप्तनामपि लोकानामेत्तनमान प्रकीितम्‌ १७ 

पर्यात्तपारिमाण्येन मण्डलानुगतेन च । 

उष्रुंपरि लोकानां छनवत्परिमण्डललम्‌ ।1.७ 

पृथिदो का विस्नार पूर्गेव योत्रनो के द्वारा समहाना चाहिए । चार्य 
दिशाभो मे अर्थात्‌ समौ मौर तोन करोड विम्तार मगा फिया भरा है ॥०१॥ 
"छाति दीप मौर सान समुद्र वानो इष पृथि सव्रताः सौ ठुजार उन्पामौ 
कहा जातताहै।७२॥ इसे विस्तारसे तिगुना पृथवो कं अन्व का मण्डल होता 
है1 योजनाग्र ेगिना गयादै सौर ग्यारह करोड कटे गये ई ॥5३। उम 
प्रकार से सेतीसं अधिक सौ सदत यटपृचिश्यनन का मण्डन प्रसप्यातित्रिया 
परया है ॥छ७४ दिविमेतारकार्भो कै सनिवेैय का जितना मण्डल है सन्निवेश 
[ष पर्या ओर भूमिका मण्डन उतना ही दै।७१५॥ ईइमलिये पर्या के पारिमाण्य 
पै भूभिकादिवकैहौ तूत्थहोतराहरेषाक्हा गया । सातो लोको का यद 
मन क्हागयाहै ॥७६॥ पर्पामि के परिमाण्य ते मौर मण्डल ङे अनुण्तपे 
सोक्रो के ऊपर ऊपर छत्र की तरह प्रमण्डल होता है ॥७७॥ 

सस्थित्िषरिहिता सर्वा येष्‌. तिष्ठन्ति जन्तव. 1 

एतदण्डकटाद्प्य प्रमाण परिकीत्तिनम्‌ 11७८ 

अण्डस्यान्तस्त्विमे लोकाः सप्तद्वीपा च मेदिनो । 

भूर्लोकश्च भुवश्चौव तृतीय स्वरिति स्मृतः । 

मठर्योकी जनदचैव तपः सत्यश्च सप्तम ॥॥७८ 

एते षप्न छता लोशाण्छता कारा व्यवस्थिता. 1 

स्वकैरावरणं; सृष्षैर्धायं माणा पृथक्‌ पृथक्‌ ॥८० 

दशभागाधिक्राभिश्च ताभि. प्रकृ तिभिवंहिः। 

धा्ेमाणा विशेषं शच समुत्पन्न : परस्परम ॥1८१ 

अस्याण्डस्य समन्ताच्च सन्निविष्टो घनोदधिः। 

पथिवीमण्डल कृत्स्न घनतोयेन चायते ॥=२ 


३६० | { वपृपुय 


^ 
घनोदधिपरेणाथ धार्य्यते घनतेजसा । 
वाह्यतो घनते बत्‌, निर्य्गृढ न्त्‌, मण्डलम्‌ ॥=३॥ 
समन्तादृघनवतेन घाय्यतेगाण प्रतिम्‌ । 
घनवातात्त थाकाशमाकाशच पहा्मना ॥८१४ 
जिनमे जन्त्‌.यण निरास ररते है उक्तो कतिवति विहित हई बौप 
मण्ड कटाह का प्रमाणी कहु दिवा गथा दै ॥७८॥ दरम अण्ड के मीतरयेते 
है, सतद्वीपदै भोरण्ह प्थ्वीदै ! तीनो नोकोमे र्वो, भूव तोर 
तीसरा स्वरम है एषा कहा मपा है ) महर्लोक, जनलोक, त परलोक आर सत्‌ 
सत्प लोक है ॥७६॥ बे लात लाक क्ये यथे बौर दत्र के भाकार वति 
स्थित दति है ।ये सातो भने २० बावरो जोम मूकम्‌ 
प्रयत्‌ षापंमाण है ।,८०॥ वाद दशभागं मपि उन ्रहृतिणो ते भीर न 
समृुत्पप्नो से परस्पर मेय धार्यमाणं हति द| ८१॥ इष अण्ड के वारोज 
धना सपुद्र पश्निविष्ट होता है। इम सम्त भरूमण्डन का घन जन हे धारणि 
जातादै ।5२। इपर घनोदयि केषरेघत तेत ते घारग कथा जा द 
मादिरमे नतेन का निह भौर ऊदृषवं मण्डन होता है ॥९३॥ विम्‌ 
घनवानकं दवारा यह्‌ धयंमाण हाहा हुषा प्रिनरिति हेवा षन ब 
माक्राश गौर मदान्‌ जाह्मा बाले से अकाश प्रतिष्ठित होता ह ॥८४॥ 
भूतादिना वृत्त सर्ग भूतादिमंह्ना वृतः । 
व्रूली मदाननन्तेन प्रधानेनाग्वयात्मना ॥८५ 
पुराणि लोक्पालाना प्रयामि यथक्रमम्‌। 
ज्योतिर्गेणप्रचारस्य प्रमाण परिवक्ष्यते ॥८६ 
मेते प्राच्या दिशि तथा मानसस्य व मूदधंनि। 
वस्वोकसारा माहेन्द्री पण्या हेमपरिष्कृता ॥न्७ 
दक्षिणेन पनम रोमनिस्यवं मूर्दनि। 
वैवस्वतो निवसत्ति यम सयमने पूरे ॥न=< 
प्रतीच्यान्त्‌. पुनभसेमनिसस्मीव मृद्धनि ॥ 
सूखा नाम पुरी रम्या वदेणस्याथ धीमतः य्व 


ज्योतरिप-प्रचार (१) ] { ३६१ 


दिष्युत्तरस्या मेरोस्तु मानमम्यं व पूनि 1 

तुत्था महिन्रपर््या तु सोमस्यापि विभावरी 11८० 

मानमोच्चतरपृषठ तु लोक्पालाभ्चतुदिणम्‌ । 

स्थित्ता घम्मेन्यरवस्यायं लोकमरक्षणाय च 1164 

यह सव भुतादिके द्वारा वृतह्‌ भौर यह सत्र भूत यादि महानू 
घर्थानु महू से वृत होता दै भर वह महान्‌ यत्ययार्मा एव नन्त प्रवानके 
हारा आवृत्त होना हं ॥=४॥ जत्र लोक्प्रलोके पुरोकौक्रमके भनुमार 
बताया जायगा अर ज्पोतिरगंण के प्रचर का प्रभषण मी वत्ता जायगा ८६ 
प्राचो भधति पूर्वं दिशा मेँ मान के मूवपिर मेरु हं जिकर भोक्मार वाची 
हैन परित मदद्धी दै ५८७॥ माननके मध्तक्परहीमेम्पे दषिणमे 
पपमनपुर मे वैवस्वत यम निवास क्रिया करता है ॥८८॥ ओर मानसके मर्षा 
पर मेके परिविम दिशामे धीमात वरमदेव को परमरम्य सुतानाम वासी 
नगरी है 15९॥ मानमकेहौ मूर्जापर उत्तर दिश्षामेभेष्ठके मदेन पुरोके 
शुल्य दो सोमक विमात्ररी बुरी है 16६० भानत के उच्तर प्रष्ठ परनारो 
दिदाजो मे लोकात धर्म कौ व्यवस्था करनेके निये वथा लोको के मरकष 
के के वासते स्थिन रहा करते ह ॥६१। 

लोकपालोपरिष्टात्तु स्वेत दक्लिणायने 1 

केछागतस्य सूर्यस्य यतिर्थाता निबोधत ॥ दर्‌ 

दक्षिणो प्रक्रमे सूयं. दिक्नेषुरिव सपति । 

ज्योतिषाश्वकृनादाय सतत परिगच्छति ॥1६३ 

मव्यरगश्चामरावत्या यदा भवति भास्करः + 

वैवस्वते सयमने उदयस्तत्र उच्यते १८४ 

गुखायामद्ध रातञ्च मघ्यग स्याद्रविर्वदा । 

मूदायामथ वाह्ण्यासुत्तिषठन्‌ घ तु दृश्यते ॥६५ 

विभायामद्धं रात्र स्यान्माहेन्य.गमस्तमत्ति च 

तदा दक्षिणपूरकेपामपराह्वौ रिधीयते 11९६ 

हक्षिणापर देयाना पूर्धि. परिकी्यते । 


गोष प्रचार {१} ] { ३६३ 


तपत्थेकन्तु मच्याह्तं तरेव तु सरदिमभि. 11१०४ 
उदितो वदंमानाभिरामध्य्राह्घ तपन्‌ रवि 1 
भत. पर हृसन्तीभिर्गोभिरस्त स गच्छति ॥१०५ 
सदा मे त्था वारुणी मे मध्याह्न मेँ जव अ्थ॑मान होति ह तब निभावरै 
मौर सोमपुरी मे विभावसु उत्थित होति टै अर्वाच उगते है ६€॥ उस 
प बमरावतोमे रात्रिका जाघा माग होता है भौर यमके यहां बस्ताचल- 
पीहा करते ह । मोमपुरी मौर विभामे मध्याह्न मे दिवाकर हया करते 
॥ १०० ॥1 त्रि षमय मटर कौ अमरावती मे सूर्यं उदित हमा करते है तव 
पनमे आध्री राह होती है ओौर वारुणी मे मस्त होते दँ ।॥ १०१॥ बह 
करमलातके चक्रक भाति शीघ्रही आया करते ह जाति 1 माहाणमे 
ग्रो भ्वममाण टत हृए सूयं श्रमण क्षिया करते ह ॥ १०२॥ इम प्रहार 
चारो द्रीषोमे दक्षिणान्तसे प्रपर्ेण क्रिया करते ह । उदय ओर भस्त मन 
दवारा पह बार-बार उत्वित प्रा करते हँ ॥ १०३॥ पूर्वाह्न मे भौर मष 
ह्मे वहे दो-दो देवालय बले होतेह! एकको तो मप्याह्धमे तपते 
र बद्‌ उन्ही रङ्मियो फे वारा वर्बमान होने बालियो स उदित टोते हृष्‌ 
वाहन त भूयं तपन प्रिमा करते है इसके पश्चात्‌ हास्त को प्रास होती हई 
परमोत वेद्‌ अन्ताचन को चते जाया कर्ते ह ।। १०५४१०५ ॥ 
उदयास्तमयाभ्या हि स्पत पूर्वापरे दिशौ । 
यावत्पुरस्तात्चपति तावद्‌ पृष्ठो तु पाश्वयो. १०६ 
यनोचन दृश्यते सूर्यस्तेपा स उदय. स्मृत । 
यत्न प्रभाश्रमायाति तेषामस्तः स उच्यते ॥१०७ 
सरवेपामुत्तरे मेशर्लोकालोकस्तु दक्षिणे 1 
विदररभावादकंस्य भूमेले बादृतस्य च + 
ह्यन्ते रमयो यस्मात्तेन रात्रौ न दृदयते 1१८८ 
प्रहनक्षत्रताराणा देन भात्करस्य च+ 
उच्छ्ायस्प्र प्रमारोन ज्ञे यमस्तमनोदयम्‌ ॥९०द 
युक्च्छायोगिनिरापश्च कृष्णच्छयः च मेदिनी । 


१६२ 1 [ ५५ 


तेपामपरस।ग्रस्च ये जना उ्तरापये ॥६७ 

देशा उत्तरपूर्वा चे पूं रात्नत, तान्‌ प्रति ॥ 

एवतेवो्रेष्वर्ा सवनेषु विराजते (दद 

सोपान पो उपरकेभागमेमदधोरते दह ४ बाः 
सूं कौजोगति हाती है सो सापसोग समन लवे ।१९२॥ दधिग व 
सूं फंके हए तीर षौ माति दीढ लगाता ह भौर निरन्तर उ्पातिर्गयङे २ 
कमे तेकर चारो जोर जाया वरता है 1६३1 जिन समय मववाु मुक मातत 
अमरावती मे मध्यगामी रोते है तब वटं पर यँवध्वत पयमन मे उदय 
जाता है 11६५॥ जव रविदेद मध्यगामो होति हत गुखापुरी बरे नव ४ 
होती ै1 गवा मे मौर इम अनन्तर वाणी मे उत्तिष्ठ मान हतै 
बह दिललाई दिया करते है ॥१६५॥ विभा मे वापीरान होत दै गौरम 
वह्‌ भस्ताचलमामो होते है । तव ददिण पूर्वं वालोकरा पराह 8 
जाता दै ॥1६६॥ दधिणा परदे बालो का पूर्वाह्न परिकीतिद होना हैव 
मपरमे रत्नि होती है जो जन उत्तरप्य मे निवास जरिया कते है ॥६७1 ` 
देय उत्तर पूव होने दै उन भनि पूर्वराश्रि हाती है। इसी प्ररे 
भुवनो मे सूयेदेव विराजमात हआ करते दै ५५६८॥ 

सुलायामय वारुप्या मव्याह्व चार्य्या यदा। 

विभाव्या सोमपुर्मामन्ति्ठति विभावसु. ।16८ 

राप्रदध चामरावत्यामस्तमेति यमस्य च। 

सोमपुर्या विभायान्तु मघ्याह्नं स्यादिवाकरः । 1१०० 

मदेन्द्रस्याम रावत्यामुत्ति्ठति यदा रवि । 

अद्ध राज सयमने वारुण्यामस्तमेति च ॥१०१ 

स षीघ्रमेति पर्ययेति भास्करोऽलातचक्रवत्‌ 1 

भ्रमन्‌ वै श्रममाणानि क्षायि गगने रवि ॥१०२ 

एव चतुपु' दीपेषु दक्षिणान्तेन सर्पति । 

उदयास्तमनेनासावु्ति्ठति पुन पन. ॥१०३ 

पूर्वाह्न चापराद्धे तुद्धौद्धौदेवालयौतुम.॥ 


पयोतिप प्रचार {१} ] { ३६३ 


तपत्येकन्तु मध्याह्न तरेव तु सरदिमभि. ॥१०४ 
उदितो वदंमाना्भिरमध्याह्लुः तपन्‌ रविः १ 
अत. पर सन्ती भिर्गोभिरस्त स गच्छति १०५ 
मुखा मे त्या वाणी मे मव्याह्ध मँ जव अर्थेमान होति है तव विमावरो 
। मोर सोमदुरो मे विभावमु उत्त होने टै मर्या उमने ह॥ ६९॥ च्य 
परप अमरावनो भें पत्रिका माधा माग होता ढै गौर मम के यहां बस्तानन- 
मो हज करते ई । मोमदुरौ मौर बिमा मे मन्याह्न मे दिवा्र हमा करते 
॥ १०० १ जिष्ठ समय मदन की अमरावती मे सूरं उदित हमा करते है तव 
यमनमे आघ्रीरतटठोती है ओर वाद्णीमे बस्तरहोनेरह।। १०१॥ वह 
ष्पपए्मलातके चक्रक माति शौघ्रही आया करतेह जाति दँ । भागने 
द्त्रो कै भ्रमण होते हृए्‌ सूयं श्रमण सरिया करते ह ॥ १०२ ॥ ह्य प्रका 
चसो द्रोषोमे दक्षिणान्तसे प्रस्पेण क्रिया क्रते ह ! उदय गौर मम्त मन 
¡ दारा पह बार-बार उत्विन हप्र करते ह ॥ १०३ ॥ पूर्वाह्न मे भौर मष 
हमे वह दो-दोदेतरानय बालि निर्ह ! एक्को तो मध्याह्नमें पपन 
गीर वह्‌ उन्ही रश्मियो के द्वारा वर्धमान रोने वानियो मे उदित होने हृष 
याह तक भूयं तथन कतिया करते ह दइमङे पदात्‌ दा को प्रात होनी हर 
करणो से बह मन्ताकत ङो चते जाया कमते हं ।, १०४-१०५ ॥ 

उदयास्तमयाभ्यां दि स्पते पूर्वापरे दिशौ । 

यावह्दुरस्तात्तपति तावद्‌ पृष्ठ तु पाश्वं यो. १०६ 

यनोयनर दृष्यते सूर्यस्तेया स उदय. स्मृत. 1 

यन्न प्रमाणमायाति तेपामस्तः स उच्यते ॥१०७ 

मर्वेपामुक्तरे मे्सोकालोकस्तु दक्षिरे 1 

विदुरभावादकस्य भूमेले वादृतस्य च 1 

ह्ियन्ते रश्मयो यस्मप्तेन रानौ न दृस्यते ॥१८द्‌ 

ग्रहनक्षत्रताराणा दैन भास्करस्य च ॥ 

उच्छरायल्य प्रमारो जे ममस्तमनोदयम्‌ ॥१०८ 

शुक्जन्छायोग्नियप्रघ्न कृष्मच्छया च मेदिनी । 


३६४ 1 [ वादु 


विदूरभावादर्कस्य उच्तस्य विरश्मिता । 

रक्तामावो विरदिमत्वद्रक्तत्वाच्चाप्यनुप्णता 114१० 

लेखयावस्थित सूर्यो यत्रयत्र तु इश्यते } 

उदं गत. सह्न्तु योजनाना स दश्यते 4९१ 

प्रभा हि सौरी प्रादेन अस्तङ्कच्छति भास्करे › 

अम्निमाविशते दानौ तस्माह्‌राव्‌ प्रकाशते ११२ 

त प्रकर से उदय भौर मस्तमों के दारा र्वष पणि 
गर्ह । जव तकत जागे वह तपते है तद तक पृषठमे पाणं काना हेग 
।॥ १०९ ॥ अहां प्र उगते ह९ घूयदेव दिलाई दते है उन वह उद १६ 
गया है। जहां पर वह प्रकाश कौ प्रात होति टै उनक्गा वह्‌ मस्त वदा भाः 
करता ह \॥ १०७ ॥ सव वर्पो के उततरमे मेह होवा है भौर सोकावक प्व 
सवके दलिणमे होगा । षै क विग दर हो गाने से तथा पू शो *€ 
समावृत हने ते उक किरणे हिया हो जाया करी ह 1 दमी काणा ` 
यह्‌ राति मे दिदलाई नही दिया कत्ते ह ॥ १०८ ॥ रह नत्र बर्‌ ताग 
का तया ष्क वो दभन उच्छाय ऊ श्रमाय ते मानना चादिए। जो बनोर 
होता ६ वहैः बस्त कहा जाता है ।। १०६॥ समि सौर जल कन धा १ 
हे भोर मेदिनी कृष्ण टाया बालौ हनी है । विष दरो फे मावे हीम ८ 
कराप्णस हो उचत सूं की धिरण्मिला होती है वयति किरणो के दण्न 
समावरहा करता दै चव उपरी विरग्मिता होती है चौ उस्रं सतता 
यभाव रहा करता है लोर लालिमा के भाव का सपव होने से उष्णता च 
मभाव रहवा हे ॥ ११० ॥ तेषा ते भवस्व बूथ जहा-महौ षर भी सि 
देवा है तो वह षहो पोजन ठय गपा भा दितलाई दिया करवा है १११ 
भगवानु भुवन भास्वर के वस्तमे गमेनकरे पर्‌ सौरी प्भाषाद सेरा 
विट दौ जाया कठी द दप लिथे रानि मे रर घे भकािठ होती दै ॥१ १९। 

उदितस्त्‌ पुनः सूर्यः अस्तमागनेयमा विशत्‌ । 

सयुक्तो व्विना सू्ंरतत स तयतते दिवा 111१२ 

य्रकिस्यख तयौप्ण्यच्च सर्याप्नेधौ च तेजसी । 


१५।० प्रचार (१) | {[ ३६९१५ 


प्रस्परानुप्रवेशादाप्यायेते दिवानिशम्‌ ॥११४ 

उत्तरे चैव भूम्यद्धः तथा तर्मिश्च दक्षिणो । 
उत्तिष्ठति तथा सूये रात्रिराविशते त्वपः । 
तस्मात्तास्रा भवन्त्यापो दिवारातिप्रवेशनान्‌ ।११५ 
भस्त याति पुनः सूर्ये दिन वै ्रविशत्यप. । 
तस्माच्छुत्ला भवन्त्यापो नक्तमह्वः प्रवेशनात्‌ ॥११६ 
एतेन क्रमयोगेन भृम्यद्वं दक्षिणोत्तरे । 
उदयास्तमनेऽकंस्य अहोरात विशत्यप ॥११७ 

दिन सूर्यप्रकाशाट्य तामक्षी रात्रिरुच्यते । 
तस्माद्वयवस्थित्ता रात्रिः सूयविश््यमह्‌ समृतम ॥११८ 
एव पुष्करमध्येन यदा सर्पेति भास्कर, । 
वरिशाशकन्तु मेदिन्या मुहूर्तेनैव गच्छति (1११४ 


धनः जब्र वह्‌ उदित होताहैतो सूर्यं आम्नेय शस्त मे भाविष्टहौ जाता 
३ मोर बह्ि घे सयुक्त होना हुमा वह सूयं फिर दिन मे तपा करता है ॥११३॥ 
शका होना वथा उष्णता का होना वेदोनोहौ सूं तथा भग्निकेतेज 
ते दोनो प्रश्र चे मलुप्रबेण करके ही दिन मौर रात्रि मे भाव्पाभित्त 
दमाकदते है ॥ ११४1 भूमिके उत्तर अर्धभागये तया दक्षिणनेसू्के 
प्थित होने परर रात्रि जलमे आविश्हो जातौ है! इमी लिप जल दिवारात्रि 
ग प्रवेशनसेताम्र होजतिठ॥ ११५॥ किरपूरये के अस्तगतदहोजाने षर 
दन जलमे प्रवष्टहो जाया करता है ॥ इती लिये जत शुक्नहो जक्तिर्हँ। रात्रि 
देन केभ्रवे्नहोनेकेकारणमे ही एसा हमा करता है ॥ ११६॥। इस क्रम 
3 मोग भूमिके मघ दक्ञिणोत्तरमे मूर्यं कै उदयास्तमान वेला मे बहोरात्र 
मे प्रवेश भरियाकरते ह ॥ ११७॥ जो मूं के प्रराश्च के नाम वाला हता 
¡ बही दिनि कडा जाया करता है गौरजो तामौ अर्यात्‌ प्रक्र के भमावमे 
षकारसे पूणे होती है वहरात्निके नाम वाली कटी जाया करती है । दते 
त्रिक व्यवस्या होती है भौर जो सूयविक्षयहै अर्थाद्‌ जिर समयमे सूयं 
सनेके षोभ्य होता है वह दिन क्हा गयाहै॥ ११८ ॥ इत प्कारततिजव 


३६६ ] {^ 


से पष्कद के म्यच सर्पेण क्रिया कता है तो पृथ्वीका प्राश पृहं, 
मेही चलाजातादै॥। ११६९॥ 

योजनाग्ान्ृहुत्त स्य इमा उख्या निबोधत 1 

पूणं शतसहसुाणामेकत्रिशततु सा स्मृता 11१२० 

पाशततु तथान्यानि सटसुण्ययिकानि तु । 

मौह गतिद्यंपा सूर्यस्य त्‌. विधोयते ।१२१ 

एतेन गतियोगेन यदा काष्ठान्तु दक्षिणाम्‌) 

पर्य्यागच्छेचचदादित्यो माच काष्ठान्तमेव हि ॥१२२ 

सर्घते दक्षिणायान्तु काष्ठाया तन्निवोधत । 

नवकोस्य भ्रसखयाता योजनै. परिमण्डलम्‌ ॥ ।१२३ 

तथा शतसदसुाणि चत्वारिशच्च पच्च च) 

अहोयव्रास्रतद्भस्य गतिरेषा विधीयते 14२४ 

दक्षिणाटिनिवृत्तोऽमौ विपुवस्यो यदा रविः 1 

क्षीरोदम्य समुद्रस्य उत्तरान्ता दिणश्चरद्‌ ॥1 २५ 

मण्डल विपुदयापि योजनैम्तश्निवोधत ॥ 

लिमु कौटवस्नु विम्तोरणा विपुवयापि सा स्मृता ॥१६९ 

योजनाप्रे मृहृतं कौ इस सम्याकोतन्त सो 1 वहपृतंमोष 
को द्रतोन व्ही ग१६॥ १२०॥ तपा अन्द परषाम सहन अपिषि १ 
यट मुहं वाटी यति का विचान वाजता ह॥ १२१५१ ५ 
योगम जद दनय हिता लो पूपं प्रमन्‌ मिण इण्ट क. 
दिगा भमन्तरोषहाद्र होता । १२१ दप्तिथ दाप ज्य श्न 
क्रगारै श्नाभो रमशमो। नोत्ररोट पोशनो मै विमिष्ण्ल प्रतय 


उ्योतिप प्रचार (१) ] { ३६७ 


तथा णतसहसुणामशौत्यैकाधिक्रा पुनः 1 

श्रवणे चोत्तरा काष्टाखित्रभावूयेदा भवेतु 1 
शाकद्वीपस्य षष्ठस्य उत्तरान्ता दिलश्चरनर 1९२७ 
उत्त रथाञ्च काष्टाया प्रमाण मण्डलस्य च । 
योजनाग्राखरसखघाता कोटिरेका तु सा द्विजैः ॥१२न 
अशीतिनियुतानीह योजनाना तथेव च 1 
अष्टपञ्चासत्तञ्चंव योजनान्यधिकानि तु ॥१२ 
नागवोध्युत्त रावीथी मजवीथी च दक्षिणा । 

सूल चैव तथाषाढे द्यजवीथ्युदयाक्षिय. । 

अभि जि्पूवेत. स्वातिर्नागवीध्युदयाखय ॥१२० 
फोाषठमो रन्तर यच्च तद्ये योजनैः पुन । 
एतच्छतसहसुणामेकविशोत्तर शतम्‌ ११३१ 
भयद्धिशाधिनाश्चान्ये ्रयसिशच्चयोजनंः । 
फाछटमोरन्तर द्ध तयोजनाग्रात्‌ प्रतिषितम्‌ 1 ३२ 
काषटपोर्लेखयोष्चैव अन्तरे दक्षिणोत्तरे । 

तेतु वक्ष्यामि सखचाय योजनै्तन्निमोधत १३३ 


इमो प्रकारसे सौ सदसे ओर एकाधिकं अस्सी श्रषगमे उत्तर दिशामे 
अवसूधंहोतारहतो वह शाक्हरीप ष्ट कौ उत्तरान्त दिद्ामो का विचरण करता 
माही होना ह + १२७ ॥ उत्तर दिणामे मण्डल बाप्रमाणमो्तेताहैगह 
द्विजो द्वारा योननाग्र से एक करोड प्रपूत क्रिया गाद + १२८॥ 
यह्‌ पर मोननो के अन्ौ निपुन मौर अट्ठात्रन अभिर योजन होते ह ।*१२६॥ 
नागवीधो, उत्तराोयौ मौर नवीयो ये दक्षिण मूत्त प्रौर जाषाढमे भमवीथो 
येतोन उदय होते ह भभिङित नक्षत्र से पूर्मं स्वाति मे नागवीथी तीन उदय 
ष्टोते है ॥ १३० ॥ दिशामोमे जो अनर होत्ता है उनो पुन. योजनोके द्वारा 
तनाय जायगा । यह सौ हजार एक सौ इकत्तीस गौर्‌ मन्य तैतीत मधिक 
अर्थात्‌ तेनीष यो्नोकेद्वारा योजनाप्र मे दिशाओं का अन्दर धरतिशिति दोहा 
दं ॥ १३१-१३२ ॥ रिशामो मे गौर तदामो में जो दक्षिणोत्तर अन्तर हभ 


३६८ } { कषृनुरत 


करते ह उनकी संया करके यौजनीं कै दारा वताय ज्यया उने मौ मष 
लोग समन्न लेवें ॥ १३३ ॥ 


एकंकमन्तरन्तस्या नियुतान्येकपप्ततिः 1 

सहसुाण्यतिरिक्ताण्च ततोऽन्या पञ्च सप्तति. ।॥¶२३४ 

तेखयोः काष्ठयोश्चैव वाह्याभ्यन्तरयो. स्मृतम्‌ 

अभ्यन्तरन्तु पर्येति मण्डलान्त्तरायणे ॥१३५ 

वाद्यतौ दक्षिणे चैव सततन्तु यथाक्रमम्‌ । 

मण्डलाना शतत पूणं मशीत्यधिकमुलारम्‌ (11३६ 

चरते दक्षिणे चापि तावदेव विभावसुः । 

प्रमाण मण्डलस्याथ योजनाग्रान्निबोधतं ॥१३७ 

एवाविशद्यो जनाना सहसूाणि समासत 1 

शते दे पुनरप्यन्ये योजनाना प्रकौतिति ॥१३८ 

एव विश्तिभिश्रैव योजनैरधिकैहि ते । 

एतद्ममाणमाघ्यात योजनैमेण्ल हि तत्‌ 11१३९ 

विष्यम्मो मण्डलस्यप तिक्‌ सतुं विधोयते! 

परत्यटस्यरे तानि मूर्यो यै मण्डलक्ृमम्‌ ॥१४० 

उमा एक-एक का न्तर एक सहति अर्थन्‌ दर्हतर निष । 
ट्स चरित ह दपर धादभीभन्पय पिवहृरददै॥ १६५॥ वतन त्य 
कायाण्यन्तद्‌ (िगाभोमे यह्‌ अन्तर क्हागफाहै | भोरजम्यन्तर ह पः 
मे मपो को पपिवन कराह 0 १३५१ वापुते दिलत निष ¢ 
के भनुभाग्‌ एतो भ्यो मण्डन) हे उलग्मे तदा उसी प्रशा दर न 
भी विभादनु सिदिरल (दि ग्ण्तादहूं | मष्टतका भ्रमन भी दोग 
शममर मो ॥ ११६.१६० ॥ यने स्न गहृषठतवारिष्जन्य दोशौ णे 
क १२३ । ११८॥ प्रायभव पोगनोके क्रामण मापमन ५ 
स्ह ११६ १ ग्न हा जो पिष्दमम हेतारं ष्ट निम्‌ ( ४. 
दिवान्‌ त्वि राता ह | पूवं शतिर मष्डत्‌ कम वृक उककरा विबिप्त 1 


९० 1 [ षुण 


मे जाया कन्ता है ॥४५१। जटाग्ड महतौ मे उत्तरायण परिम दिनमा 
करता है उमम भी वह्‌ वदत्त धीमी परति वाला होता हा विचरण क्रिया करती 
है॥ १४६ ॥ सूयं नक्षव्रो के श्रषोदभा्ं को अर्ध॑से चरण्रियाकररता दै। 
रात्रि मे अठ रह महू मे नक्षव्रो का चरणङ्जिा करतादै ॥ १४७ ॥ मके 
बनन्तर उन दनो से भिस प्रकार र भौर मन्द चकर श्रमण क्गिया करता दै 
भौर पन्पिष्ड कौ भाति मध्यमे स्थित ध्न जते भ्रमण करतादै॥ १५ ॥ 
तीस मुहूत्तो को हः अहोरात्र कहे ह । ध्रुव भ्रमण करता हा दोनो दिशयर्गौ 
के मध्यमे वह मण्डलो का भ्रमण क्रिया करता है ॥ १४६॥ 


कुलालचक्रनाभिस्तु यथा ततैव वत्ते } 

ध्ुवस्तेथा हि विज्ञ यस्तैव परिवर्तति ॥९१५० 
उभयो काष्टयोर्मध्ये भ्रमतो मण्डलानि तु। 

दिवा नक्तव्च सूर्यस्य मन्दा णौघ्रा चवं गतिः ॥१५१ 
उत्तरे प्रकमे तिवन्दोदिवा मन्दा गतिः स्मृता । 

तथेव च पुनर्मक्त शोघ्रा सूर्यस्य वै गति. ॥१५२ 
दक्षिणे प्रक्रमे चैव दिवा शीघ्र विधीयते । 

गति सूर्मस्य नक्त व मन्दा चापि तथा स्मृता ॥१५३ 
एव गतिविरेषेण विभजन्‌ रात्र्यहानि तु)! 

तथा विचरते मार्गं समेन विपमेण च । १५४ 
लोकालोके स्थिता ये ते लोपालाक्चतुदिशम्‌ । 
अगस्त्यश्चरते तेपामुपरिष्टाज्जवेन तु । 
भजन्नसावहोरात्रमेवद्धतिविशेषणैः ॥ ९५५ 

दक्षिणे नागवौथ्याया लोकालोकस्य चोत्तरम्‌ । 
लोक्सन्तारको ह्येप वेष्वानरपथाद्वहिः ॥१५६ 
पृष्ठे याचन्‌ प्रभा सौरी पुरस्ताद्‌ सम्प्रकाशते! 
पादवेयो. पृष्ठनस्तावल्लोकालौकस्य सर्वतः १५० 


जिम प्रहार बलाल के चक्रकीनाभि वहाँपदहीरहा करती दै 0५ 
गभी दयो प्रइारवा जान तेन। वाहु । वह वद्‌ पर ही पदिवत्तनं रिया 


अयोतिप प्रचार (१) | {[ ३७ 


करता है ॥ १५० ॥ दोनो दियाजो के मध्ये मण्डलो कद्‌ भन क्से वाते 
शात मोर दिन मूर्यं की गति भौ मन्द मौर शीच्रतः वाली हो जाती है ॥१५१५ 
उत्तर प्रक्रम मे चन्द्रमा को गति दिनम मन्दक्डी गृह! उती माति रात म 
भूयं कौ गति भीध्रता वानी हा करत) है 11 १५२ ॥ दक्षिण प्रक्रम मेदिनय 
सीघ्रहते कावरिधान होना दै) रात्रि मेमूयं की गरतिमन्द उपो भांति कटी 
गदृहि) १५३१ हम प्रकार से गति विश्चेषके द्वारा गत भौर शिनि काविमाग 
क्रे हुए मम भौर विपपकेद्वागा उसी श्ररार यामे का विचरण सिक्ता 
है॥ १५४॥ लोकानोक चै जोस्पितरटैवे चारो दिशाओं मे लोकपाल है । 
उनके ऊषर अगम्त्य वेग मे चरण करने ह जोकि इस प्रकार भे गरति विकेपणों 
ते रत दिन सेवन करने वाति है ।1 १५५ ॥ दक्षिण में नागवीयी मे लोक्रालोक 
पर्वत के उत्तरम वैश्डानर पथ से बाहिर यह छोय सनतार्क है ॥ १५६॥ 
प्रमे सौरी बर्थान्‌ सूयं कोश्रमा जव तक आगे भसतै-भाति प्रकाशित होतीहै 
लोकशरालोक के षीय बौर पार्वो मे मव योर तव तक्र प्रकाश दिया करती 
है ॥ १५७ ॥ 


योजनाना सहषाणि दोषं न्तुच्छितो गिरि. 1 
प्रकाशदचाप्रकाशश्च सर्वत परिमण्डलः ॥१५८ 
नक्षनचनद्रमूर्याद्च ग्रहास्तारागणं सद] 

जभ्यन्तर्‌ प्रकाशम्ते लोकालोकस्य वै गिरे. 14५ 
एतावनेवर लोकस्तु निरालोकस््वत परम्‌ । 
लोकालोक एक्यातु निरालोकस्त्वने धा ॥१९० 
सोकालोकन्तु मन्वत्तं यस्मात्‌ स्यं पसप्रहम्‌ 1 
तम्मात्म्ध्येति तामाहुल्पाच्यषटयोर्यदन्तरम्‌ 
उपारातरि स्मृता विग्रव्यंषटिद्चापि त्वह स्मृतम्‌ ।१६१ 
सूयं हि ग्रसमानाना सन््णाकाने हि रक्षसाम्‌ । 
प्रजापत्तिनियोगेन शापस्तेपा दुरात्मनाम्‌ । 
जक्षयत्वन्व देहस्य प्रापिता मरण तया ॥ दर्‌ 
तिसु षौल्यस्तु वि्यातता मन्देहा नाम सल्लका: । 


३७२ ] [ वगयु-पूराण 


प्रार्थयन्ति सहसांदुमुदयन्ति दिते दिने । 

तापयन्तो दुरात्मानः सूर्यमिच्छन्ति खादितुम्‌ ।,१६३ 

अथ सूर्य॑स्य तेषाञ्च युद्धमासीत्‌ सुदारुणम्‌ । 

तततो ब्रह्या च देवाए्च ब्राद्मणाङ्चैव सत्तमाः । 

सध्येति समुपासन्त. क्षेपयन्ति महाजलम्‌ ।(१६४ 

ओद्धु रव्रह्मसयुक्त गायत्र्या चाभिमन्त्रितम्‌ } 

तेन दह्यन्ति ते दैत्या वजभूतेन वारिणा ॥१६५ 

यह गिरि दग सहनन योजन उच्छिन ऊपरकोदैमौरसवभर दे 
परिमण्डल प्रकाशयुक्तं तथा अप्रकाश वाला है 1 १५८ ॥ लोक्रालोक गिरिके 
भीतर नक्षत्र, चन्द्र भौर मू्ं तयाताराओके गणो के साय समस्द ग्रह प्रकराश 
दिया करते हँ ॥ १५६ ॥ इतनाही लोक हं ओर दषके अगे तो निरालोकदही 
ह । नोकालोकतो एक प्रकार का ही होता हं भौर निरालोकं भनेक प्रकार 
वाला होता हं ॥ १९० ॥ जिष कारण से सूरं लोकालोक के परिग्रह का सधान 
करता है इती लिये उपा भौर श्युष्टि काजो अन्तर होता ह उतको सन्ध्या 
कहा कते है । विप्रोकेदारा उपाको रात्रि मौरब्ुष्टिको दिनि कहागयाहं 
५ १६१ ॥ सम्व्याके समयमे ूयंका प्राम करने बते उन दुरात्मा राभ 
फो प्रजापत्तिके नियोग से शाप्रहं देहका मक्षयत्व तथाते मरणको भ्रात 
करये गये ये ॥ १६२॥ मम्देहा नाम वानि विद्यात राक्षत तान करोडटै जौ 
दिन-दिन मे उशने वालि पूयं क प्राना करतेर्दै। ये दुरल्माततापदेते हए 
सूयं फो खाना चाहते हैँ ।। १६३ ॥ सके अनन्तर उनका मौर सूयं का महा- 
दाश्ण युद्ध हमा धा ! तव ब्रहाजौ, देवगण, भौर सत्तम ब्राह्मण सन्ध्या दकौ 
उपाप्नना करते हए महाजल का क्षेप क्रिया करते ह ।। १६४ ॥ ओौद्धार प्रह से 
सपुक्त मौर गायभ्री मन्त से अभिमत बह जल हं । उस वज्रभूत जल तेये 
दैत्य दग्ध होति ह ॥ १६५॥ 

तत पुनम॑हतिजा महाय तिपराक्रमः। 

योजनाना सहसुाणि ऊद मुत्तिष्ठते णतम्‌ ॥१६६ 

ततः प्रयाति भगवान्‌ ब्राह्मणै; परिवारितः। 


ज्योतिष प्रचार (१) [ ३७३ 


वालखिल्यैश्च मुनिभिः कृतार्थे समरीचिभिः ॥१६७ 

काष्टानिमेपा दश पंच चैव त्रिंशच्च काष्ठा गणयेत्‌ कलान्तम्‌ ॥ 

त्रिशत्‌ कलाश्च व भवेनह्तस्त खिशता रात्यहनी समेते ।॥१६८ 

छासवृृद्धी स्वह्‌ भगिं दिवसाना यथाक्रमम्‌ । 

सन्ध्या मृहतंमानन्तु हसि वृद्धौ समा स्मृता 1१६ 

लेखाप्रभृत्ययादित्ये तिमृहर्चागते तु वे । 

प्रातस्तनः स्मृत" कालो भागस्त्वह्वः स पचमः 11७० 

तस्मात्‌ प्रातस्तना्तालात्‌ तिमूहरतस्तु सङ्गतः । 

मध्याह्वखिमृहतं स्तु तस्मात्कालाचच सद्धं वात्‌ ॥१७१ 

तस्मान्भध्यन्दिनात्‌ कालादपराह् इति स्मृत. । 

त्रय एव मृहूर्चास्त्‌ तस्मात्‌ कालाच्च मध्यमात्‌ ॥१७२ 

(. इसके अनन्तर महाव तेज से युक्त भौर महान्‌ यति तथा पराक्रम माले 
सहस रत योजन ऊध्व मरे उर्तिथित होते ह ॥ १६६ ॥। इपक्े पचात्‌ वालसिल्प 
गुनि, कृताथ मरीचि जोर ब्राह्मणो के दारा परिवारित भगवान्‌ प्रयाण करते 
दै ॥ १६७ ॥ दृण भौर्‌ पाच निमेषो की कारा होत होती है भौरतीस काण्गोपे 
कलान्त होता हं गौर तीप कलभो का एक मृहृत्त होता ह तयां तीस गृहत की 
राधि तया दिन नम हीति ।॥ १ ८॥ दिनके भागोसे यथाक्रम्‌ विनो की 
छार मार गृद्ध हती है 1 मुहतं ॐ मान तक सन्ध्या हास ओरव्रृढि मे 
समबा गह ५ रद्र) इषे अनिम्तर तीन मुहृत्तं आदित्य के भगत 
हने पर तैला परति होती हं 1- जो -पातस्तन होतो हं वह.काल्‌ कहलाता ह 
द्‌ दिवस्त का याचका भाग होता ह ॥ १७० ।॥ उष प्रातस्तन काल से तीन 
महत्त वाला सद्धं होता ह 1 उत सङ्गव बाल स तीन मुहुतं वाला मव्य 
होता है 11 १७१ ॥ उस मच्वन्डिन काल से उपरा -यह्‌ कटा गया है। उष 
मध्यमं काल से दीन हौ सुहत होते दै १७२ ॥ 
~~~ ~ 

अपरा व्यतीपाते कालः साह उच्यते1 

दशपन्चमुहूरत्रं मुहूर्ताय एव च ॥१७३ 

दशपचमृहत्त' वै अहविपुवति स्मृतम्‌ । 


३७४ | { वायु पूरण 


दशपचमुहर्तद्वं रात्रिन्दिवमिति स्मत्‌ ॥९ ४ 
वद्धते हसत यव अयने दजिणोत्तरे । 
सहस्तू ग्रसत रात्रि गत्रिस्तु प्रत त्वह ॥१५५ 
शरद्रत"तयोमध्ये वियुवन्तद्विभाग्यत । 
अहोरात्र कलाश्च व शषप्न साम समरश्नुन ॥१७६्‌ 
तथा पचदशाहानि पक्ष दव्यमिधीयत । 
ह्वी प्तौ च भवेन्मासो द्रौ मासावन्तरावृतु 1 
ऋत्‌ तयमयन स्वादु ऽगने वयमुच्यते ॥१७ 
निमपादिङृत गात काठाया दशषचच। 
वता्याधिश् काष्ठा माताशोतिद्रयासिका ॥१.२ 
शतघ्नै कोनका्षिज"मानात्रिशत्‌ पद्ृततरा । 
द्विपष्टिमिक्र तयोप्रिण म।नायार्व चला भवेत्‌ १७४ 
चत्वररिण एसहम्‌/णि शनान्यष्टौ च विय.ति । 
सप्नतिल्वापि तं व नवति विद्धि निश्चये ॥१८० 
अपराह्न र व्यतीत हयो जनि प्रर जौ काल होता हं वहु सायाह 
कहा जाताद्‌) दप पच मृहून से तीन दही महूत होति ॥ १७३ ॥ द्‌ 
पच मुज््त वाना्विटूवान्‌ म अहङ्हागपादै) दग पाव पुहृतसे दरत्रिदिन्‌ 
महुषदह्‌। गया है ॥ १७८८ दन्निय ओर उत्तर भसवग्वद्े रात्रि दिनं षदृता ह 
सौर ह्वासका प्रप्त हनाह 1 अह रात्रिका श्रगक्रताह्‌ भौरराव्रिभर 
षाग्रत वियावकग्तीरहं । शयी तरद्सेहनदोनोबा धाम तथा वधन हो 
करतां ॥ 1७४५॥ शरद ओर दसत के मघ्यम वहु दिपुषत्‌ विमावित्‌ 
छता ह । अहोरात्र मौर कना मत ह्क्रो मोम समया विपा वरता ह 
1 १०६॥ उनीप्रङर स पद्हदिनिङा पक्लवहाजन्ताट्‌ । होपक्षोष 
एक माणां षौरनो मामोंङेभवनर मणु होना हं । तान "एतुषो 
का एव ववनटात्रा हं अर दोमदनाका एर वरव जायाकग्ताहं 
1 १७३५ ॥ द्ग रौद पच न्न्‌ ददटहकषाका निमपादिषत प्रान होताह्‌। 
माग कृदाङदादाटाक्रौर अयन ( घन्यो } दपङी मत्राोती रं ॥ १७८ 


ग्योनिप प्रचार (१) ] ॥ 


२३७२ 


नध्नैकोनका व्रिशत पट्‌ उत्तर वाली मात्रा वासठ के मजन वाली तडं मप्रा 
चन हानी हे ॥ १७६ ॥ चानीम सहनन सो मौर अठ विद्यति सत्तर 


रीर वहा ही जन्ये निश्चय मे जानो ।¡ १८० ॥ 
चत्वार्येव शतान्याहुधिय्‌ तौ वंघसमूगे 1 
चराशो द्यप विज्ञेयो नालिका चात्र कारणम्‌ 11११ 
सवत्सरादय पच्च चतूर्मानविकर्पिता । 
निश्चय स्ेकालस्य युग इत्यभिवीधते ॥१न२ 
सबत््रस्तु प्रयमो दनाय परिवत्सर । 
इदत्सरस्तृतीयम्तु चतुर्थश्चानुवत्सर ॥ 
प्वमो वल्परस्तेषा कालस्तु परिसनितः ॥१८२ 
विशशत भवेयं पर्वणा तु रवेयुः गम्‌ 1 
एतान्यशदशद्ञिशदुदयो भास्करस्य च 1१८४ 
प्रोत्वाछ्लिदत सौरा अथनानि दशेव तु । 

स्चत्रिशन्‌ शत चापि पष्टि्मापाश्च भास्कर ॥१ ५ 

विशदेव ल्वहोरात्र सतु मःमर्च भरर 1 
एकपष्टिस्वहाराना दनुरेफो विभाव्यते ॥1१ ६ 
अह्नान्तु व्यधिक्राशीतिः शन चाप्यधिक्त भवेन्‌ । 
मान तच्चित्रभानोस्तु विज्नेय गवनस्व तु. १८७ 


वैकषयुग वियति मे चारमौ ही क्ट्वे ह । यहां चराश जानना 

घािर्‌ 1 यद्य पर सचक्रा कारण है ॥ १८१॥ सम्वप्तर आदि पाव वचार 

मान से विकल्पित होते है समन्तं साल का निघय युग दा कहा जति 

॥ ८२ ॥ प्रथम सम्बप्मर हाता है, दूमरा परिव सर हाता है, तीसरा 

¦ इर बोर चोया यनुवरछर तया पाववां वत्र होता है । इसप्रकार षे 
उनका काल परिपज्निन टोतां है ॥ १८३॥1 चौस सौ पर्वका पूणं रविका 

युग दोदाहै\ पे गास्‌ तीष मर््रकाउ्दय ङे १८४1) सौर चछतृए 

पोह धौरदयदहौ अग्न रोते ह 1 पनन ओर सी तया खाट माष माकर 

है ॥ १८५ ॥ तोही अदौरानका वह्‌ मास्छर मान हाता है १ इकमठ महौराव 


३०६ 1 { काषु पु 


एक दनु विभावित होता है ॥ १८६ ॥ दिनो वे तिरासौ ओर सौ मधष हाकु~ 
ह । बह चित्रभानु भवेन का मान्‌ समनज्लना चाहिए ॥ १८७ ॥ 


सौरसौम्य तु विज्ञेय नक्षत्र सावन तथा। 

नामान्येतानि चत्वारि यै पराण विभाग्यठे 1१८८ 

खे तस्थात्तरतश्चव श्यृद्धवान्नाम पवत । 

मरीणितस्पत्‌ श्रृ ्घणि स्पृ्ष्तोव नभस्तलम्‌ ॥1¶८४ 

तैश्चापि श्रन्ुवान्नाम सवतश्चेव विश्रूत । 

एकमार्मश्च विस्तारो विष्ण स्भश्चापि कीतित ॥१४० 

तम्य वै स्वेत शुद्ध मध्यमन्तद्धिरण्मयम्‌ । 

दक्षिण राजतव शद्ध तु स्फटिकप्रभम्‌ ॥१९१ 

स्वैरत्नमय चैक श्यद्धमृत्तरमुत्तमम्‌। 

प्व कृ्टेिभि शैले श्यद्धवानिति विश्रूत ॥१८२्‌ 

यतद्विपुवत श्ृद्भन्तदक प्रतिपयते । 

शरद्रस्न्तोमेध्ये मध्यमा गतिमास्थित । 

अहस्तुल्यामथो राति करोति तिमिरापह ॥१६३ 

हरिताश्च हया दिन्यास्त नियुक्त! महारथे । 

अनुलिप्ता इवाभान्ति पद्मरक्तं गभस्तिभि ॥१८४ 

मेपात च तुलान्ते च भाक्करोदयत स्मृता । 

मृहर्ता दश पच्चव अहो रातिष्च तावती ॥॥१६५ 

सौर, सौम्य, नक्षत्र गौर सान न्द्‌ समक्षलेना षाहिषए्‌।पेथ।र 
म ह जिनमे पुराय विभावित होता है ॥ १८८॥ आङ्गाश मे उतरे उत्तरम 
एतवान्‌ नाम कषाएव पवनदहै उनके तीन धिवर है जोकि ने उवेषैकि 
र्नो वे भात्रौण तन का स्पशं करते ह।। १८९ ॥ उहींसे श्यद्रवान्‌ हनाम 
विथओरिश्रत हनाहै । एक मागं बौर विस्तार भौर विष्कम्भ मीक्हा 
पवाद ॥ १६२॥ उग्रे दिर सव मोर दै उनम जो मध्यम श्ृदधहैवह 
देरण्मय दोना है । दक्षिण रपर गजत (नादीका) हैगोपरिर्प्टिकषौ 
गभाग्रालादहै + १६१॥ उनरदी ओर जो णिपर है वहे गमस्त रत्तो 


ज्योत्तिप प्रचार (१)  इण्छ 


परिपणे एक उत्तम शिखर दै ! इस प्रकार से तीन दटोके क्षेलो ते यह शङ्गवाव्रु 
ष नामस प्रस्यात है । १६२१ जो चिषुवत्त ग्टद्ग है उत्तकौ भकं भतिषन्न 
होना है 1 रतु गौर वसन्त के मध्यमे मध्यम भति मे अस्थिति होता है 1 
तिमिर अयत्‌ अन्धक्रार गदृहरण करने वाला सूयं दिन के तुत्य रत्रिको कर 
देता है ॥ १६३ ॥ दिष्य हरित अश्व महारथ मे नियुक्त होते है । पके 
पमान रक्त किरणो ते अनुलिप्त कौ माति शोणित होति ह 1 १६४॥ भेष 
फे ब्वमे मौर तुला कै अन्तम मास्करोद्यत कहे गये ई । पद्ह्‌ मृतक 
उतनी हौ महोरातरि होती है ॥ १६५ ॥ 


छृत्तिकाना यदा सूरेः प्रथमाशगतो भवेन्‌ 1 
विशााना तथा ज्ञेयश्चतुथोश निशाकरः ॥१६६ 


विशाखाया यदा सुयंश्चरततेऽश्‌ तृतीयकम्‌ 1 
तदा चन्द्र विजानीयात्‌ कृतच्तिकाशिरसि स्थिरम्‌ ॥१२७ 


विपुवन्त तदा विदयादेवमाटुमेहर्षयः 

सूर्येण विपुब विध्यात्‌ काल सोमेन लक्षयेत्‌ 1१९ 

समा रात्रिरहुप्चैव यदा तद्धिपुवद्वेत्‌ । 

तदा दानानि देयानि पित्रुभ्यो विपुवत्यपि 1 

श्आरह्मणेभ्यो विरेपेण मूख मेतक्तु दवतम्‌ ।\१५६ 

उनराघ्राधिमामौ च कलाकाछठामृहत्तंकाः । 

पौर्णमासी तथा तोया ममावास्या तयैव च 1 

श्िनीवाली बृुहुष्चैव राका चानुमतिस्तथा ॥२०० 

त्तपम्तपस्यौ मधुमाधवौ च णुक्त- युचिश्चायनमृत्तरस्यत्‌ 4 

नभो ननस्मोभ्य इषुः सदोजंः । 

सह.सदटस्याविति दक्षिण स्यान्‌ 1२०१ 

सवत्मराप्ततो जेयाः पच्वान्दा ब्रह्मण. सुताः । 

तस्मात्तु ऋतवो ज्ञेया तवो ह्यन्तरा स्मृता (२०२ 

निम प्ररार दृत्तिकाओ का सूरं प्रपमाशमत होता है व विशापा्मोके 
चनुोगमे निदतररदोनाटै 11 १६६ ॥ श्रिशालाने जद गूयंतृतोय सशने 


३७९ |] [ वपु पुण 


चरण क्रिया प्ग्दादहैतद चनमाको छत्ति्नके दिर मे स्थित जनना 
{} १९६७ 0 उत्त समयदेव को विषुवाय्‌ समक्षना चिण्‌ देखा कपि लो" 
कहते ह । सूयं को विव समकेथौर कालको सोभ कै प्ाय सक्षितः 
॥ १६८ ॥ जव रात्रि मौर दिन समान होवे मौर जब विपृूवद्‌ हीवेत्तव द्प 
चाचूमे भी पितरोको दानदेने चाहिये भौर विशेष कफे ब्राह्मणी कफोदेषै 
वयोकिये देवताजोकामुव हुप्राकरतादहै ॥ ६६६ ऊन रार गौर भय 
मास, कला, काष्ठा भौर मुहूर्त पौर्णमासो तथा अमावस्या जाननी चाप्‌ । छिनी 
वाली, कुहू, राग मौर अ्रुमरति जाननी चाहिये ॥ २००) तप भौर तपस्या 
मधु जर माधव, शुक्र ओर शुचि उत्तर भयन होताहै। नभ भौर नमस्य 
दपु सों भौर सह तथा सदस्य दक्षिण भयन जानं लेवे ॥ २०१॥ दके 
पश्चात सम्वत्सर जाने जो किं पच्च अब्द ब्रह्मयाके सतह) उषसे ऋतु जने, 
ओ यन्तरहोतेहैवे ऋ कटे गये ह ॥ २०२॥ 

तस्मादनुमूखा ज्ञेया जमाव स्यास्य पर्वेणः 1 

तस्मात्तु विपुत्र जे य पित्ृदेवहित सदा ॥२०१ 

एव ज्ञात्वा न मद्धो दैवे पिच्य च मानव. 1 

तस्मान्‌ स्मृते प्रजाना वे विप्वत्सतगं सदा ॥२०४ 

अआलोकान्न. स्मृतो लोको लोकान्तो लोक उच्यते ! 

लोकपाला. स्थितास्तत्र लोकालोकस्य मध्यतः ।(२०५ 

चत्वारस्ते महाटमानस्तिएठन््या भूतसम्प्लवान्‌ । 

सुधामा चैव वैराज. कट्‌म शड कृपस्तथा 1 

दिरण्यलोमा पजन्य केतुमाय्‌ जातनिषश्चयः ।२०६ 

निद्स्दरा निरभीमाना निस्तन्त्रा निष्परिग्रहाः । 

लोकपाला. स्थित्ता हयं ते लोकालोके चतुदिशभ्‌ ॥२०० 

उत्तरं यदगस्त्यस्य अजवीथ्याश्च दक्षिणम्‌ । 

वितृधाणः स वे पन्या वैश्वानरपथाद्वहिः ॥२०८ 

तप्रासते प्रजावन्तो मुनयो ह्यग्निदोतिण' 1 

लोरस्य सन्तानकरा पिनरूयाणे पथिस्थित्ताः २०६ 


उत्ति प्रचार (१) ] [ इ 


हसे इस पवं की श्रमावस्या कौ अनुमूखा जाननी चाषटिए 1 उसमे 
पतर मौर देवो के हित वाला विपृव सदा जान लेना चारिए्‌ ॥ २०३॥ मान 
गत प्रकारसे ज्ञान प्राप्त करके फिर दंव तथा पितर सम्बन्धी कार्यं मे मोह 
ही करना चाहिये । इते समस्त मे ममन करने वालाक्षदा प्रजाओ का 
प्रपुवत्‌ कहा गया है ॥ २०४ ॥ भालोक्ान्त खोक कहा गया दै भौर सोकान्त 
चोका जाता है वहं पर लोकाटोक के मध्यमे लं.क्पाल श्वत होति 
॥ २०५॥ वदा चर प्रहान्‌ आत्मा वलि भूतमप्लव पर्थन्त रहा क्रतेद। 
मुपरातरा, वराज, कटूभ, शङ्कर, हिरण्यरोमा, पजन्य, केतुमान, जातनिश्चय, 
. निर्ध, निरभिमान, निस्तन्व, निष्परि्रह-पे लोकालोक मे चारों द्विधामो मे 
सोपान स्थत ह ॥ २०६९२०७ ॥ अगस्त्य के उत्तर मे मौर भगवीपौ के 
दक्षिणम वैश्वानर पयसे वाहिर्‌ वह्‌ पिदृगण पन्या टोत। दै ॥ २०८1 वहा 
प्र भनोत करने वाले प्रजावान्‌ मुनिगण लोक के सन्तान कटने वात्े पितृपाण 
फेमांमेस्पिनि होते । २०६॥ 
भूनारम्भ कृतं कमं आशिषा छत्विगुच्यते । 
प्रारभन्ते लोककामाम्तेपा पन्याः स दक्षिणः ।२१० 
चलितन्ते पुनदधं मं स्थापयन्ति यूने युगे । 
सन्तर्या तपसा चैव मर्यादाभिः श्रुतेन च २११ 
जायपानास्तु पूर्ने वे पर्चिमाधा गृहेषु च । 
पर्विनाश्नं व जायन्ते पूर्वेषा निधनेष्वपि ॥ 
एवमावर्तमानास्ते तिष्ठन्त्याभूतसम् लवान्‌ ॥५१२्‌ 
अष्टाशोतिसदसाणि भूनीनां गृहमेधिनाम्‌ । 
सवितुद किण मार्गं धिता द्याचन्द्रतारकम्‌ । 
क्रियावता प्रषद्भूयोयाये द्मशानानि भेजिरे ॥२१३ 
सोकमव्यवहारेण भूतारम्मछृतेन च । 
इच्छा पप्रकृप्या च मंथुनोपगमेन च ।२१४ 
तया कामकृतेनेह्‌ सेवनाद्विषयस्य च । 
ए्नस्नैः कारणः सिढाः श्मशगनानि हि भजिरे 4 
भ्रजैिषन्ते मुनयो द्वापरेष्वट्‌ उन्निरे २१५ 


३८० |] [ षापु पराण 


नागवीष्यु्तरे यच्च सप्तपिस्यदच दक्षिणम्‌ । 

उत्तरः सवितुः पन्था देवयानस्तु स स्मृतः ॥२१६ 

भूतारम्भ कृत कमं भागीप से ऋत्विग कहां जाता है । लोक दी कामना 
वाले प्रारम्म करिया करते है उनका वह्‌ दक्षिण पन्या होताहै ॥ २१०॥वे 
चलित हो जाने वलि धमं को फिर युग-युग मे स्यापित क्रिया करते ह भौर वह्‌ 
सन्ततिसे, तपसे, मर्यादाओ से भौर श्रुत केद्वारा हौ क्रिया करते 
1 २११॥। पर्चिमोके गृहो मे पूवं जायमान होते ह, भौर पश्चिम पके 
निधन होने पर उन्न हुमा करते ह । इत प्रकार से आवर्तमान वे भूतसप्नव 
तक ठहरा करते है ॥ २१२ ॥ भठ.ठासो सहस गृहमेधी मूनियो का सविता का 
दक्षिणम है जिक्षपरे वे आधित रहते हँ ओरजव तकत चन्रमा तथा तारागण 
स्थित ह तत्र तक रहते है, भौर क्रिया वालो की प्रसंश्या करनौ चाहिए जोकि 
शमशानो के सेवनं क्रिया करते ये ॥ २१३ ॥ लोक कै सब्यवह्‌ार से भीर भूता" 
रम्भद्रृतसे, इच्छा ओरद्रपकी प्रवर्ति षे, मैथुन के उपगम से तथा यहां पर 
कायकृतसे मोर विपयकेसेवनसे इतने ये कारण दह जिन सेसिद्ध लोग ण्म 
ष्तानो के सेवन किया कस्ते थे। वे मुनिगण प्रजाओ के इच्छा वाते यहं द्रापरो 
मे उप्त हुए ॥ २१४-२१५॥ नागब्रीयो के उत्तरमे भौर जो सपपियों के 
दक्षिण मे उत्तर सविता का पन्था है वह देवयान कहा गया टै 1 २१६ ॥ 

यत्र ते वासिनः सिद्धा विमला ब्रह्मचारिणः। 

सततन्ते जुगृप्सन्ते तस्मान्मृत्युजितस्तु तैः २१७ 

अष्टाणीतिसहस्राणि तेषाम्‌ रेतसाम्‌ 1 

उदक्पन्यानमरयम्णः धिता छ्याभूतसम्प्लवात 1२१८ 

इत्येते कारणैः शुद्धं स्तऽस्मृतत्व हि भेजिरे । 

आभूतस्सम्प्लवस्यानाममृतत्वं विभाव्यते ॥२१२ 

द्रैलोक्यस्थितिकालोश्यमपुनमा्गिगामिनः । 

ब्रह्महत्या खमेधाम्या पुण्यपापकृतोऽरम्‌ । 

भआभूतसम्व्तवान्ते तु क्षीयन्ते ह्यद रेतसः ॥२२० 

ऊदेत्तिरम्‌पियभ्यस्तु धवो यास्ति व स्मृतम्‌ । 

एतद्विष्णुपदं दिव्यं धृतीयं व्योम्नि भास्वरम्‌ ।।२२१ 


ऽोतिप प्रचार (२) 1] { ३०८१ 


ततर गत्वान शोचन्ति तद्विष्णो परम पदम्‌ 
धर्मश्रुवाचयास्तिष्टन्ति यत्र ते लोकसाधक्ा २२९ 


यहां प्रजो निवाम करे वालिरहैवे विमल, सिद मौर ब्रह्चारी दै । 
। निर्तर्‌ जुगुप्मा करते है इने उन्होने गृ पु को जीत लियादै॥ २२७१ उन 
द वर्ता के भट्‌गासी सहल है जो भ्मा के उदक, प्या का नाश्य वलति 
{ गीर भूतसप्लव अर्थात्‌ महाप्रलय पर्यन्त वहाँ जाध्रित रहते है ॥२१८॥ इन 
्वकारणोपनेजोकि शुद्ध वे भस्मृतप्व का सेवन करते थे । भौर भूतसप्लय 
79 स्थित रटने वालो का बमृतत्व विभावित होता है ॥ २१६ ॥ अयममा्मे- 
गामिका यह्‌ तैलोक्य को त्विति का कालहै। व्रह्यहत्वा भौर नण्वमेषोसे 
ष्य, पाप छृत सपर है । भूनसप्लव के अन्त मे उड'बरेतामी क्षीण ही जति 
ह । उद्ध'वोत्तर पियो क लिपे जहां प्रव हि वह कहागया है। यह्‌ ष्योम 
भे भास्वर त सरा दिव्य विष्णु पद होता है जहां जाकर किष प्रकार शौक नही 
षर्ते ह बही विप्णु का परम पद हता है बहा चमं ध्रुशारिक बहरा करते है 
जहवे जोकके साधक होने हैँ । २२२॥ 


॥॥ प्रकषण ३४--ज्पोतिष प्रचार (२) ५ 


स्वायम्मृवे निसर्गे नु व्याख्यातान्यूत्तसणि तु 1 
भविष्याणि च सर्वाणि तेपा वक्ष्याम्यनुक्रमम्‌ 1।¶ 
एतच्छ.त्वा तु मुनय, पप्रच्ुर्लोभदर्पणम्‌ । 
सूर्थाचन्द्रमसोश्चार ग्रहाणाच्चं व्‌ सर्वश ॥२ 
भ्रमन्ते कथमेतानि ज्योतीपि दिवि मण्डलम्‌ 1 
ति्ेष््युहेन सर्वाणि तर्यवासद्धरेण च । 

कश्च श्रामयते तानि श्रमन्ति यदिवा स्वयम्‌ ॥३ 
एतद्र दितुभिच्छामस्तप्नो निगद सत्तम्‌ 1 
भूतसम्मोदनन्त्वतच्छोतुभिच्छा प्रवर्तते ४ 
भूतसम्मोह्न छ्य तद्‌ ब्र.बतो मे निवोधत । 
शरसयक्षमपि दृश्ये यत्तत्‌ समोहयते प्रजाः ॥\५ 


३८२ ] [ बाग पूरान 


योऽमी चतुदिण पृच्छे शिशुमारे व्यवस्थितः। 

उत्तानपादपुव्ोऽमौ मेढीमूतो ध्रुवो दिवि 1६ 

सहि श्चमन्‌ भ्रामयते चन्द्रादित्यौ ग्रहैः सह्‌ । 

र मन्तमनुगच्छनिति नक्षताणि च चच्छ्वत्‌ 119 

श्रीसूजीने कहा--म्वायम्भुत्र निसं मे जो उत्तर पे उनी व्यालय 
कर दी मई} भविष्य मे जितने सव है उनका अनुक्रम वतनाघा जामा 11१५ 
यह भुनक्गर मुनिगग ने लोमहरपेण से पृद्धा फि सूं, चन्दमाका चार ओरम 
ग्रहीकावारक््ाहातादै? 1९॥ ऋषियो ने कहा--दिविमण्डनमे येव्यो- 
तिया शसि प्रकारसे भ्रमण क्ियाकरतीहै। येसवतिर्थग्‌ प्यूहति तथा भस 
द्धारमेश्रमणव्धाकरते है? मौर उनको कौन श्पणकराया करता दै 
जयवा वे स्वय हौ भ्रमण क्रिपाक्प्तेहै?॥२॥ हे सत्तम ! हमस्भी लोग 
धम ब्रात को जानना चते हसो आप्‌ छपा करके हमङो सव वतलाश्ये । स 
भूत सम्मोहन के सुनने कौ इच्छा हमर होती है ।४॥ श्रोसृतनौीने कहा 
थवर्थे दत भूत सम्मोहन को हौ व्तलाता हसो माप सब जान लिवें। जो यह 
्रस्यशा मे देखने कै योग्य है वही प्रजा का सम्मोहन किया करता है ॥ ५॥ मे 
यह्‌ चारो दिशां मरे शिशुमार पृच्छते व्यव्यत है वह॒ राजा उत्तानपाद का 
पढीभूल पुत्र दिनि मे धरवहै॥६॥ वहही स्वय भ्रमय वरता दुाप्रहो दे 
साय चन्द्रमोर बादिष्य दोनो को प्रमणं कराा करता दै भौर उम धमण 
करते दए के पौ नक्षत्र अनुगमन षक्र भौतिक्िपा क्ते 1७) 

ध्रुवस्य मनमा चासो सपते भगणः स्वयम्‌ 1 

मूर्याबिन्द्रमसौ तारा नक्षपघ्राणि ग्रहैः सह्‌ ॥८ 

वातनोकमयेवन्धेष्रुवे बद्धानि तानिवें। 

तेपा पोमश्व भेदाश्च कालचारत्तथेव च ॥६ 

अस्तोदयौ त्थोतपता अयने दक्षिणोत्तरे 1 

पिपुवदूव्हुवर्णाण्व धुवारगवं प्रवति ॥१० 

यरा पमो दिम रात्रिः रान्प्या चैव दिन तथा। 

शुमासुभ प्रजानाच् धुदार्वं प्रवत्तं ते 14 


ज्योति प्रचार (र) 


घ्रणाधि्तास्चैव सूर्थोऽ्यावृत्य तिष्ठति \ 
देप दीप्तक्िरण स कालाग्ििवाकर्‌ ॥\१२ 
परिवत्तं क्रमाद्रिपरा भआभिरालोकयन्‌ दिश ! 
सूये किरणजालिन वायुयुक्तं न सर्वश. 1 
जगतो जलमादत्तं कृप््नस्य ह्विजसदमा" ॥१३ 
आदिद्यपीत सूर्याग्ने सोम सक्रमते जलम्‌ 1 
नाडीभिर्वाययुक्ताभिर्ल{कराधान प्रवत्तं ते 114४ 
प्रवके मनस यह भ्रगण स्वय श्रमणश्रिया करता दै गीर सर्म चन्द 
म्मौर तासगण नक्षत्रौ ठया ब्रह के साय रुप क्रियाक्सतेटै ॥८॥ वे एव 
चाठानीरकपूण यन्धनोसते ध्रुव मरेवंचेहृएहै1 उना योम भेद भौर कालकार्‌ 
होता टै ॥ ९॥ अस्त, उदय तया दक्षिणोत्तर मणन ने यन्य उत्पा एव विपु- 
चद्‌ परह वने यह्‌ सभी ध्रुव वे ही प्रवृत हा क्ता है ॥ १०॥ दर्पा, घाम, 
दिम सत्रि, सन्ध्या तथा दिन मोर प्रजान का गुम एव अभूम यद समीकृ 
धवसे हो प्रवृत्त होता दै "६११ घुष के दारा अवित जो ह उनको 
खान करक मूथं स्विनि दै दषीस यह दीक्तक्रिरणों वाला--कालाग्नि नौर्‌ 
दिवाकर होढा दै ॥ १२५ हे विप्रो! हे द्विज सत्तमो । सूर्यं परिश्ृत क्रम 
से प्रभासे दिशा मे मानोक करता हमाजोवि सव मोर वायु से मन्त 
किरणो के जाल केद्वारा बानोक् द्विया करता है समस्त जगत्‌ बे जलं का ग्रहण 
करतेताहै 11१३॥ सूवान्नि के आदित्य पोत जल को सोम सक्रानित 
पिपा करवा है । वागुक्त नाद्यो चे लोकाचान वृत्त हभ रना है १४॥ 
यदसोमान्‌ सुवते सूर्स्तदग्र प्ववतिषठन 1 
मेघा वायुनिघातन विनूजन्नि जलम्युवि 1१५ 
एवमृर्कषप्पते नचैव पनतच पुनर्जलम्‌ 1 
नानेप्रिकारमुदवन्तदेव परिवर्तत ॥\\६ 
सन्धारणा्ं भूताना मारवेषा विश्छनिमिता 1 
अनया मायया व्यान्त श्नौलोक्य सचराचरम्‌ ॥\१७ 
विश्वेशो लोकद व सदसायुः प्रजापति 1 
धाता दृ्स्नस्य लोकस्य ्रभूिप्णृदिवाकूर (१८ 


ग्ौहिष प्रचार (२) 1 [ ३८५ 


यनस्सदरृतुवशान्‌ काते परिवर्तो दिवाकर । 
मच्छत्यपो हि मेचेभ्य शुक्ला भुक्लगमस्तिमि ॥२४ 
अश्नस्था प्रपतन्त्यापो वायुना समुदीरिता । 
सर्वभूतहितार्थाय वायुर्भिश्च समन्तत ॥२५ 
तता वपति पण्मासान्‌ सर्वमूतविदृद्धये । 
वायव्य स्तनितच्ंव वैचयुतस्चारिन्सिभवम्‌ ॥ २६ 
मेहनाच्च पिटैद्धतिोर्मेधप्व ब्प्ज्ञयन्ति च । 
न ध्रश्यन्ति यतस्स्वापस्तदश्र कवयो विदु ॥२७ 
मेधाना पनर्त्पत्तिखिविधा योनिरुच्यते 1 
जाम्या ब्रह्मजार्गैव पक्षजाश्च पृथग्विधा । 
त्रिधा धना समाद्यातास्तपा व्यानि सम्भवम्‌ 1२८ 
समक्त प्राणियो क्त णरीयेमे जो जल अनुगत होता है उनके जल नान 
प्रर जगम मौर स्यावसो मे सवत्र ही उस जलका दभ्धीभाव हमा करता किरि 
टौ जल धरमभूत होकर सव गोर निकलना है ॥२२॥, उमे फिर चादतो 
की रचना होतोद्ैयजलकास्थानरहौ कदा मथाहै। शयं कातेजही किरणो 
के दि भूतो जनक मादान भिया करता ५२३ ॥ समुद स वायुके 
सपोगसे निरे जलका वहन क्ाक्रतो है) क्योकि फिरच्छतु पै वणस 
कलमे दिवाङ्गर पिवर्तंहो जाता है। गुक्रल क्रणोये दवारा मेवा से गूप्रल 
जलकोदेनारै॥२्४॥ अधरोमे रटने वलि जल वायु से समुदोरित दति हये 
नीचे गिराकर्ते हय जल समस्त प्रायिया केतके लियही वापुकेद्दाय 
भूमि पर प्रपतित दज करते है ॥ २४॥ फिर समस्त प्राणियो कं हित समया 
दनरेके लियं मास्त तक यह्‌ जल भूमि पर वकता रहना दै) मौर यह्‌ 
.वायश्य, स्तनित, वंद्यूत तया बग्नि प्म्मरव होतादै ॥२-॥ मेहनक्रने कं 
' कारण सर यह भिदि धातु से मचतरकोश्रक्टच्िया कर्ठाहै। यह खलो षौ 
धिन नही भिया कर्तार इसलिये कवि सोग द्ये बधरक्दा करते दै (२७) 
पून मधो को उसतत्ति कास्यान तोन प्रारद्या धताया गपा दै॥ बापनेय, 


. { वायु पुग 
सर्वलौकिकमम्मो व॑ यल्छौमाचभस्च सूतम्‌ । 

सोमाधारं जगत्सवंभेत्तथ्यं प्रकीतिततम (दं 

मर्ाद्प्म निसवते सौमाच्छीत प्रवर्तते । 

शीतोप्णवोयोः द्वाविनौ युक्तौ धारयतो जगत्‌ ॥२० 


सौमाधारानदी गङ्गा पविता विमलोदका) 

सोमपुत्रपुरोगाश्च महानद्य द्विजोत्तमा ॥२१ 

सोमसेजोस्रविन होता है उसके मामे सूयं मपरस्थित गहा है! 
मैघवापुके निषा प्रात कर उसमे ही भूमि पर सलक त्याग किया क 
॥ १५॥ दृष भरकार सेयह जल उत्वि हेता दै गौर फिर गिरा करता १! 
मही जल अनेक प्रकार का परि्वतित टमा करता है ॥१६॥ प्राणिपो को सन्धा, 
रण करनेके तति यद्‌ विन्निप्रिता माया है भौर इसमायाःसे यह पचराचर 
सोपय ष्यातत दो रहा दै ॥ १७॥ दष समस्त विश्च का स्वामी, लोको की 
रेचनाकोक्रने वाला देव, सदसत किरणो वाला, प्रवपति समप्त लोक्षषा 
धाता, भमु मोर विष्णु दिवाकर दै ॥ १८॥ समस्त सोकर जत सोम 
पिभाकागते सत होताहै। यह्‌ समस्त जगती तलह सोमके माधार वाला 
्ै। यह विल्बुल तथ्यहो वृहागयाहै॥ १६॥ सूं ते उष्णताका निस्रवण 
दभाक्रताहै। सोमसेधीतषी भत्ति हतौ है। ये दोनो शीतोप्ण वीप 
पतै भौर दोनों हो युक्त होते ह्ये श्व जग्ठो चारण किया करते है ॥२०॥ 
द परम पितर नदौ मौर विमत जल पालो सोमधारा है। ह एविगोत्तमा । 
1 समस्व महानदिय। सोम पृषके भागे जाने दासौ होती ह ॥२१॥ 


सरवभूनशरीरेु मापो छ्यनुगताश्च या । 

तेय सन्द्ममानेषु जं स्भस्यावरेपु च । 

धूभभूनास्ु ता अषौ निष्यरामन्तीह्‌ सर्वश ॥२२्‌ 

नैन चाश्रायि जायन्नं स्यानमवराम्पतत स्मृतम्‌। 
भक्तो हि भूतेभ्यो ्यादत्ते रप्रिभिनं उम्‌ ॥२३ 
गमृदराढादरमयोगाद्रहन्यापो गभस्तय. ॥ 


ग्योतिप प्रचार (२) ] [ ३८५ 


यनस्सवृतुवशानू काले परिवर्तौ दिवाकर 1 
य॒च्छत्यपो हि मेचभ्य शक्ला एुकलगभस्तितनि ॥२४ 
अञ्रस्यः प्रपतन्ध्यापो वायुना समुदीरिता 1 
सर्वभूनटितार्थाय वायुभिश्च समन्तत २ 


तता वर्पति पण्मासान्‌ सर्व॑भूतविवृदधये । 

वायव्य स्तनितच्चंव वैचुतस्चाग्निसिभवम्‌ ॥२६ 

मेह्नाच पिहतो मेघप्व व्यह्धयन्ति च । 

न श्रन्ति यतस्त्वापस्तदश्र कवयो विदु ॥२७ 

मेधाना पुनसत्पत्तिलिविधा योनिरुच्यते 1 

आग्नेया ब्रह्मजाश्चैव पक्षजाश्च पृथग्विधा । 

त्रिधा घना समाद्यातास्तपा वक्यामि सम्भवम्‌ ॥२न 

समत्त प्राणियो क णरीयेमे जो जल अनुगत होता है उनकेजल जाते 
"पर जगम भौर्‌ स्थावरो म सवत्र हौ उप जल वा दम्धोभाव हमा करता दै फिर 
हौ जल धूमभूत होकर सव भोर निकलना दै ॥ २२॥ उमन्ते किर भादतो 
क सरवन होतो दैयजत्कास्यानही क्ट मथाहै1 पयं कातेजही पिर्णों 
केदारा भूतो ते जक क मादान शिया करता ॥ २३१) पमुद्र से वापुके 
सयोगमे रिरे जल का वहन क्या वरतो है । क्णोकि किर च्छतु के वणते 
कालमे दिवाकर पपिवरत्त हो जाता है शुत्रल किरणो कै दारा मषां चे शुन 
जनकोदेनाहै॥ रे४॥ बभ्रो मे रहने वाले जलवायु ते समृदौरित होति हये 
नीचे गिपकर्तेषैय जल समस्त प्राणिया कैिनिके लिवहौ बायूकेटारा 
मूपि पर प्रपतित दतरा करते दै ॥ २५॥ फिर समस्त प्रायिवो के हि सम्पा 
दनकरनेके लियघं माप्त तक यह्‌ जल मुमि पर वक्ता रटता है। भोर यह्‌ 

५ वायश्य, स्तनिन, वंदून तथा यनि क्षम्म्द होताहै ॥२.-॥ महन करने के 

कारण स्र यह्‌ मिहि धातुसेमेष्तकनोप्र्टन्ियाः कदताहै। पह जलो को 
भर शिन नहं किया करता है इतिथ कवि सोग दते बध्रक्हा करते टै 11२७ 
पुन बरर्पो को उत्ति कास्यानतोन प्रकारङ्ा श्ठाया ग्या दे। बाम, 


३५६ |] [ यप्र पूरा 


ह्यज भौर पक्षज,ये पृथक प्रकार वनिदौतेदै। धने पीन रार य्तैक 
गये ह मव उनगा सम्भव वत्तलाया जाता है ।1 २८॥ 

आग्नेयास्त्व्णेजा प्रोक्तास्तेपा तस्मात्‌ प्रवर्तनम्‌ 1 

शीतदुदिनवाना ये स्वगुणास्ते व्यवस्थिता ॥२६ 

मर्हिपाछ्च वराहाश्च मत्तप्रातद्धगामित 1 

भूत्वा धरणिमभ्येत्य विचरन्ति रमन्ति च ॥३० 

जीमूता नाम ते मेघा एतेम्या नीवसम्भवा । 

विदयदुगुणविहीनाश्च जनधाराविलम्बिन ॥दष्‌ 

मृका वना महाकाया प्रवाहस्य वशानुगा । 

्ोशमात्राच्च वर्षन्ति करोशार्दादपि वे पुन ॥२२ 

पर्वेताग्रनितम्बेषु वपन्ति च रमन्तिच। 

वलाकागभेदाश्चंव वनाकामभेधारिण ।(३३ 

ब्रह्यजानाम ते मेघा ब्रह्मनि श्वाससम्मवा । 

ते दि विदयुदुपुणोवेता स्तनयन्ति स्वनग्रिया (३४ 

तेषा शब्दप्रणदेन भूमि स्वाद्धरुटोदुगमा 1 

राजी राज्ञाभिपिक्तव पन्य वनमश्नूते । 

तष्य प्रौतिमासक्ता भरुनाना जीवितोदुभवा ॥३५ , 

जो आामेयमभेषहोतेर्हैवे मवणन होते हैँ भौर उना उमते प्रवतत 
होता । भीत दधिनि बातजो य उक्षमे अपने गुण वे व्यवस्थित्र हति 
॥ २९ ॥ मर्हिव वराह ओर मत भग्तद्भगामो होकर धरणी मे खाकर विवरण 
क्रिया करते हँ तया रमणक करतेह॥ ०॥ जीभूत नाम वाले वे मेध 
के ही जीव सम्मूत होते है। ये बिचुदगण स रहिते भीरजल धारके 
वेलम्बौहने ह ॥ ३१॥१ मूक अर्यात्‌ गजन न करने वालि घन मर्त भ्य 
धक गहरे महान षाया अर्थान्‌ माङार्‌ वाले भौर प्रवादं के वशर्मे भनुगमन 
घ्ने वतिय एङ कोश मात्र स भयवा आधे कोदसेभी वर्पाक्षिया केह 
| ३२॥। ये मेव पवताग्र निबन्धो मे वपतेह बौर रमण किया करते है। 
लाद के गर्भं के प्रदान करने वाते ओर वलाङामोके गर्मधारी हमा करते 


ज्योतिष प्रवार (२) } [ ६८७ 


ह॥३३॥ ओ ब्रह्य मेष हेति हवे ब्रह्य के निश्वास मे उत्पत्ति चाने हुमा 

करते ट) वे विदयुद्गण से युक्त तथा स्वन { णब्द } प्रिय द्ेते ह ओर गर्जना 

पिया करते ह ॥ ६४१ उनके धनद परमाण सचे टी भूमि मपल बद्ष्दो कफे 

खदूणम धानीहो जानी है) राजाके दारा अभिपिक्त की हृद रानी षे समान 

ह फिर यौवन की प्राति कर लेती है} उनमे यह्‌ भूमि प्रीति मोरा हई 

1 पन्त आसक्त होकर प्राणिषो के जीवन को उदपनत्न क्से वाली हौ जाती 
॥ ३५ ॥ 


जीमूता नाम ते मेवास्तम्यो जीवस्य सम्भव । 

द्वितीय प्रवह्‌ वायु मेचास्तेवु रामाधिता. 1३६ 

एते योजममानाच्च साद्खदचनिष्छरनादपि 1 

वृष्टिसर्गस्तया तेपा धारापतासः परङीत्तिता 1 

पुष्करावत्तदा नाम ये मषाः पक्षसम्भवाः ॥३७ 

केण पकषाप्िटतना चे पवेताना महौजसाम्‌ ! 

यमगाना प्रवृद्धाना भूताना शिवमिच्छता 1३5 

पु्कसानामते मषाः वृहन्नस्तोय मत्स 1 

पुप्कररावर्तकास्तेन करसोनेद शब्दिताः 1६८ 

नानाह्पधराश्ं व महाघोरतराण्व ते1 

कल्पाननवृटे. स्टार सवर्ताम्निनियामकाः ॥४० 

वपन्ते युगान्तेषु वृत्तयास्ते प्रगीत्तिता । 

अनेय षूपयत्याना पूरयन्तो महीतवम्‌ ॥ 

वायु पर वहन्त स्युराधिता वत्य्ताधका" + ^¶ 

यान्यस्याण्डकपालस्य प्राह स्वामवस्नदा 1 

तस्मादृप्रह्या समूपन्नश्वतुचंवध स्वयम्ञुव. । 

ता-येवाण्डक्पालस्य सर्वे मेषा. ्रीततिताः॥४२्‌ 

जोमूल नाम वाति वे मेषति ह जिने जीवो का जन्म हा ग्प्ताद 
३ चद पतो प्रवह्‌ वायू बे समाव हमा कते ह ॥ च भरा निष योज 
सादतेभो उम प्रसार वा उष वृष्ट समं होता त्ि उ चापलाद्‌ कहागः 


६८ |] [ यापु वृण 


है। पृष्कर ओर नावर्तं नाम वत्ति पक्षसम्मव मेव होते ह ॥ ३७ ॥ वच्छ 
से ममन करने षी इच्या वि, प्रटृढ प्रा्ययो कौ हिनैच्छा सेदनद्र मै महन्‌ 
धोज सि यृक्त परवतो के पक्नोका ददन कर दिवा धा।। ३८ ॥। पुष्कर नाम धारे 
जो मेषं वै वहृत बडे ओर जल कौ मत्सरता रखने याचे होति है । इती बारण 
सेवे पुष्करावत्तक दस नामस्ते ान्दिक हए ह \, ३६५ अनेक प्रषारके ल्पौँ 
को घारण करने वलते भौर मदाद्‌ घोरतर तथा कल्पान्त वृष्टि के करे वाते 
एव सवर्ताभि के नियामक होते है ॥ ४०॥ येयुग कैषन्त में वर्षाय 
ररते है मौरवे तृतीय वहे गये है । मनेक स्प मौर सस्थान वलि तथा इस 
महोतल को पूर देने वाल हैँ भोर पर वायु को वहन करते हुए कल्प के घाघक 
उती पर आधितर्दाकरते हं 1 ४१॥ जो इस प्राकृत अण्ड कै कपाल से उत 
समयमेहृएये जब चारों मुखो वाला स्वयममुव ब्रह्मा उत्पन्न द्मा चा । वेही 
भण्ड कपाल के सव मेध प्रकोत्तित हए है ॥ ४२॥ 

तेषामाप्यायन रूम" सवेदामविशेवतः 1 

तेषा श्रे्ठस्तु पर्ज॑न्यश्चत्वारश्चव दिग्गजाः ४३ 

गरजाना पवेताना मेघाना भोगिभिः सह । 

कूलमेक पृथग्भूत मोनिरेका जल स्मृतम्‌ ९४ 

पजन्यो दिग्गजाश्चैव हेमन्ते शीतसम्मवा. । 

तुषारवृष्टिं वर्षन्ति सर्वसस्यविषृदधये ॥४५ 

शरं ष्ठः परिवहो नाम तेषा वायुरपाश्रयः 1 

योऽसौ धरररत्ति मवान्‌ गद्धामाकाशगोचराम्‌ 

दिव्यामतिजला पुष्या विद्या स्वगेपथ स्थिताम्‌ 

तस्या विष्पन्दजन्तोय दिग्यजाः पृथुभिः करैः । 

शा सम्परमुखन्ति नीहार इति सस्मृतः॥॥ 

दक्षिरोन गिरिर्योऽसौ हेमकूट इति स्मृत-^१ 

उदग्‌ हिमवतः शंलादृत्तरस्य च दि + \ 

पुण्ड नाम समाट्यात नगर तव्रद्‌ 

तस्मिन्निपत्ित्त वपं यत्तुपारसमृद्भव, 


६८५ |] { वपु पृ 


है। पुष्कर ओर आवर्तं नाम वाले प्क्षसम्मव मेव होति है ॥ ३७॥ स्वेच्छा 
ते ममनकटे की इच्या वत्ते, प्रवृ प्रा्णयों की हितेच्छा वे इन्द्र ने मह्‌ 
घोजसे युक्त पवतो के पर्नोका ददन कर दिया धा।। ३८ ॥ पुष्कर नाम चाके 
जो मेध रह वे वदरत वडे ओर जल की मप्सरता स्खने वाति होते है । इषौ कारणं 
सेवे पुष्करावर्तर इष नाम चे शाग्दिक हए है ।, ३६ ५ अनेक प्रकारके स्प 
को धारण करन वाते ओर महान घोरतर तथा कलान्ति वृष्टि छे करते बति 
एव सवता के निणामक्र होते है ॥४०॥ वेयुगर केमन्व मेँ वर्षार्रिया 
करते हैँ गीर वै तृतीय न्ह गये ह । अनेक ल्प गौर स्यान वति तथा इस 
महीतल को पर देने वाति है गौर प्रर वायु का वहुन कतै हए कलन के शापक 
उषी परर आधित रहा करते है ॥ ४१॥ जो इव प्रात ण्ड के कपाल तै उष 
समयमे हए थे जब चारो मुखो वाला स्वयम्भुवं ब्रह्मा उत्पन्न हुमा था। केही 
अण्ड कपाल के सव मेध प्रकीत्तित् हए है ॥ ४२ ॥ 

तेपामाप्यायनं ध्रूम" सवेाम विशेषतः । 

तेषा श्रं परस्तु पजन्य श्चत्वारश्चंवे दिग्गजाः ॥॥४३ 

गजाना पव॑तानाख मेघाना भोगिभिः सह्‌ 1 

कुलमेक पृयग्भूत योनिरेका जल स्मृतम्‌ ४४ 

पजन्यो दिग्गजाश्चैव हिमन्ते शीतसम्भवा. । 

तुपाखवृष्ट वपन्ति सर्वेसस्यविवृद्धये ॥४५ 

शं ्ठः परिवहो नाम तेषा वायुरपाश्रयः। 

यौऽसौ धरति भगवान्‌ गद्धामाकाशगोचराम्‌। 

दिव्यामतिजला पुण्या विद्या स्वर्गषथ स्थिनाम्‌ ॥1४६ 

तस्या विप्पन्दजन्तोय दिग्गजाः पृथुभिः करैः । 

शा सम्प्रमुन्चन्ति नीहार इतित स्मृतः ॥४७ 

दक्षिणेन गिरिर्योऽसौ हेमकूट इति स्मरतः । 

उदग्‌ हिमवतः संलावृत्तरस्य च दक्षिरे । 

पुण्ड नाम समाव्यात नगर तवर वं स्मृत्तमू ॥४्य 

तस्मिप्तिपतित्त वपं यत्तृपारसमुदुभवमू । 


४८८ 1 [ वाध परा 


है । पृष्कर ओर अवरत नाम वाने पक्ष्षम्मव मेव होते ह ॥ ३७ ॥ स्वेच्छा 
से गमन करते की इच्या वाले, प्रवृ प्रा्णयोको ह्िच्छा हे इद्र ने महान्‌ 
भोजसे क्त परेतो के पशनो का दयेदन कर दिया धा।। ३८ ॥ पुष्कर नाम वाके 
जोमेषरह वे वहत बडे ओर जल कौ मस्परता रखने बले होते हैँ । दसी कारम 
से वे पुष्करावर्तक इस नाम से गाग्दिकि हुए है ।। ३६॥ अनेक प्रकारके कूपो 
को धारण करन वाते भौर महान्‌ घोरतर तवा कलयान्त वृष्टि कै कणे वाति 
एव सवर्तागि के निणमक होते ह ॥४०॥ येयूग केषन्त में वर्चा 
करते है गौरवे तृतीयक्हे गये हु। भनेक रूप भौर सस्थान वाते तया दस 
महोतल को पर देने वति मौरपरवायु का वहन करते हुए कल्प के पाषक 
उषी परर आशित रहा करते है ॥ ४१॥ जो इस प्राकृत अण्ड के कपालं से उप 
समयमे हूए थे जव चारो मुखो वाला स्वयम्भुव ब्रह्मा उत हमा धा । वे > 
भण्ड कपाल के सव मेध प्रकीत्तिते हुए है ॥ ४२॥ 

तेषपामाप्यायन धूमः सर्वेघामविशेषतः । 

तेषा शरं ्स्तु पजेन्यए्चत्वारण्चव दिग्गजाः ।\४३ 

गजाना पवंतानाच मेवाना भोनिभिः सह्‌ । 

कुलमेक पृथग्भूत योनिरेका जल स्मृतम्‌ 1.४४ 

पजन्यो दिग्मजाश्चैव हेमन्ते शीतसम्मवा. 1 

तुषार वर्षन्ति सर्वसस्यविषृदये ॥४५ 

श्रष्ठः परिवहो नाम तेपा वायुरपाश्रय.। 

योऽप्तौ धरत्ति भगवान्‌ गद्धामाकाशगोचराय 1 

दिव्यामतिजला पुण्या विद्या स्वगंपथ स्यिनाम्‌ ॥४दे 

तस्या विष्पन्दजन्तोय दिग्गजाः पृथुभिः करेः। 

शा सम्प्रमु्न्ति हार इति स स्मृतः (1४७ 

दक्षिरोन गिरिर्योऽसौ हेमकूट इति स्मृतः । 

उदग्‌ हिमवतः भंलादुत्तरस्य च दक्षिरो 1 

पुण्डुः नाम समाष्यात नगर तत्र वं स्मृतम्‌ ॥४८ 

तस्मि्निपतित वपं यत्तुपारसमुदमवम्‌ । 


न्न | { धागु परान 


है1 पुष्कर ओर आवत्तं नाम वनि पक्षसम्बव मेधदहोते ह ॥ ६७ ॥ स्वेच्छा + 
से गमन करने की इच्था वाले, प्रवृद्ध प्राणो को हिच्छा से द्र ने मह्‌ 
घोजते युक्त पवतो के पक्षो काचेदन कर दिया धा।| ३८ ॥ पृष्करनाम वलि 
जो मेष दँ वे बहुत ग्डे ओर जल की मत्सरता रखने वति हीते है । ती कार्ण 
सेवे पुप्कदावर्तङ हस नामसे गास्दिक एह) ३६॥ बनेक प्रकार के ष्पा 
को घारण करने वाते भौर महान षोरतर तवा कल्मान्त वृष्टि के करने वावि 
एव पवर्तागि के नियामक होते ह ॥ ४०॥ येयुग केमन्त मै वर्षाय 
करते हँ भौरवेवृतीयक्हेगये ह) भनेकष्प मौर सस्थान वति तवा इ 
महोतल को पूरदेने वालि ह भौरप्र वायु का वहन करते हए कल्प के घाघक 
उती पर आधित रहाकस्तेहै ॥ ४१॥ जो इस ्राङ्त बण्ड के कपाल से उ 
समयमे दृष ये जव चारो मुखो वाता स्वयमपुव ब्रह्मा उलप हा वा । वे दी 
भण्ड केपाल के सव मेष प्रकीत्तित हुए है ॥ ४२॥ 

तेपामाप्यायन धूम सरवेपामविशेषतः । 

तेपा श्रेष्ठस्तु पजंन्यश्वत्वारश्चंव दिग्गजाः ४३ 

गजाना पवतानाच मेषाना भोगिभिः सह्‌ । 

कुलमेक पृथग्भूत योनिरेका जल स्मृतम्‌ ४४ 

पजनन्यो दिग्गजाश्चैव हेमन्ते शीतसम्भवाः। 

तुपा रवृ वप॑न्ति सर्वसस्यविकृदये ॥४५ 

शर ्ठः परिवहो नाम तेपा वायुरपाश्रयः! 

योऽस्तौ धरत्ति भगवान्‌ गज्गामाकाशगोचराम्‌। 

दिव्यामतिजला पुण्या विद्या स्वगेपथ स्थिताम्‌ ॥४६ 

तस्या विप्पन्दजन्तोय दिग्गजाः पृथुभिः करैः । 

शा सम्परमुखन्ति नीहार इति संस्मृतः 11४७ 

दक्षिसेन भि्यऽौ हेमकूट इति स्मृतः \ 

उदग्‌ हिमवतः शंलादुत्तरस्य च दक्षिणो 1 

पृण्डु' नाम समाघ्यात्त नगर तन वं स्मृतम्‌ ॥४८ 

तस्मि्निपतित वपं यत्तुपारसमुद्भवम्‌ । 


६८८ | [ कायु पयन्‌ 


है॥ पुष्कर ओौर आवर्तनाम वाते पक्षसम्मव मेष होत है ॥ ३७ ॥ घ्वेच्ा 
से गमन कटने की दृष्या वाले, प्रवृद्ध प्रग्णयोकी हितेच्धा से ड्द ते मह्‌ 
भजसे युक्त पर्वतोके पशनो कादेदन कर दिया या।। ३८ ॥ पुप्कर नाम वलि 
जो मेष वे वृत बडे भौर जल कौ मत्सरता रने बाले हते हैँ । दसी कारण 
सेवे पुप्करावर्तक इत नाम से शाब्दिक हए है! ३६ ॥ बनेक प्रकारके सपो 
को धारण कटने वले भौर महान्‌ घोरतर तथा कल्पन्त वृष्टि के करने वति 
एव सवर्ताग्नि के निणामक होते ह ॥ ४०॥ येग केमन्त मं वर्षार्िा 
फरते द मौरवे तृतीयके गयेहै। अनेकरूप गौर सस्थान वतितथा दस 
महीतल को पूर देने वालि है भौर पर वायु का वहन करते हए कल्प के पधक 
उषी पर आश्रित रहा करते है ॥ ४१५ जो दस प्रकृत अण्ड के कराल ते उत 
समयमे हृएये जव चारो मुवो वाला स्वयम्भुव ब्रह्मा उपत्र हृभा या । वेह 
भण्ड वपालके सव मेष ्रक्ीत्तित हुए है ॥ ४२॥ 

तेपामाप्यायन धूम" सवेपाम विशेषतः । 

तेपा श्रेष्ठस्तु पजंन्यए्वस्वारणष्चंव दिग्गजाः ।\४३ 

गजाना पवंतानाच्व मेषाना भोगिभिः सह्‌ । 

कुलमेक पृथग्भूत योनिरेका जल स्मृतम्‌ 1.9४ 

पजन्यो दिग्गजाश्चैव हेमन्ते शीतसम्भवाः ¦ 

तुपारद्रष्टि वपन्ति सव॑सस्यविवृद्धये ॥४५ 

श्र्ठः परिवहो नाम तेपा वायुरपाधयः। 

योऽपौ धरत्ति भगवानु गङ्धामाकाशगोचराम्‌ । 

दिव्यामतिजला पुण्या विद्या स्वर्गपय स्थिताम्‌ ।।४६ 

तस्या विष्यन्दजन्तोय दिग्गजाः पृथुभिः करैः । 

शा सम्भ्रमन्ति नीहार इति स स्मृतः ४७ 

दक्षिणेन भिरिर्योऽसौ हेमकूट इति स्मृतः । 

उदग्‌ हिमवतः शंलादुत्तरस्य च दक्षिरो । 

पुण्डुः नाम समाख्यात नमरः ततर व॑ स्मृतमु (४८ 

तस्मिन्निपतित वपं यत्तृपारसमुदभवम्‌ । 


१५५ | [ वापं पृण 


दै! पुष्कर ओर आवर्तं नाम वाले पक्षमम्भव मेष हठ ह ॥ ६७ ॥ चेच्छा 
ते गमन करने कौ दृष्टा वते, प्रवृद्ध प्राष्णपोकौ दििच्धासेषद नै महव 
घज से युक्त पर्वतो के पक्षो कादेदनकरदिया षा।। ३८॥ पुष्कर माम वाल 
जौ मेष है वै बहृत बडे ओर जल कौ मट्सरता रखने वाले होत है । इमी कार्ण 
सेवे पुष्करावर्तक दत नामस शाब्दिक दए दै), ३६॥ मनेकप्रकारके पौँ 
को धारण करने वलि ओर महाद्‌ घोरतर तवा कल्गन्त वृष्टि के करने वते 
एव सवर्ताग्नि के निणमङ होते ह ॥४०॥ येयुग केवन्त ते वर्पात्पि 
करते हँ भौर वेतृतोयवक्हेगयेह। मनेकलूप गौर सस्यान पातेत्याह 
महीतल को पर देने वाते है मौर पर वायु का वहन करते हुए कल्प के प्रापक 
उती पर आधितर्हाकरतेहै ॥ ४१॥ जो इस प्राकृत मण्ड के कपालं से उस 
समयमे हृए ये जव चायो मुखो वाला स्वयम्भुव ब्रह्मा उन्न हमा षा। वे दी 
भण्ड केपाल कै सव भेष प्रकीत्तित ए है ॥ ४२॥ 

तैपामाप्यायन धरम" सर्वेषामविशेषतः । 

तेपा श्रं स्तु पर्ज॑न्यष्चत्वारश्च॑व दिग्गजाः ॥४३ 

गजाना पवंतानाच मेषाना भोगिभिः सह्‌ । 

कुलमेक पृथग्भूत योनिरेका जल स्मृतम्‌ ।४४ 

पजन्यो दिगजाश्चैव हैमन्ते शीतसम्भवाः। 

चुपारग्रट वेपन्ति स्वं सस्य विवृद्धये ॥४५ 

श्र ्ठः परिवहो नाम तेपा वायुरपाग्रयः। 

योऽसौ धरत्ति भगवान गङ्गामाकाशगोचराम्‌ । 

दिभ्यामतिजला पुण्या विद्या स्वगं पथ स्थिताम्‌ ॥४६ 

तस्या विप्पन्दजन्तोव दिग्गजाः पृथुभिः करः । 

शा _ सम्भ्रमन्ति नीहार इति ख स्मृतः ॥४७ 

दक्षिणेन गिरिरयोऽप्तो हेमकूट इति स्मृतः । 

उदग्‌ हिमवतः शंलादृत्तरस्य च दक्षिरो । 

पुण्ड नाम समाख्यात नगर तत्र वै स्मृतम्‌ (४८ 

तस्मिन्निपतित वपं यत्तुपारसमुद्भवम्‌ । 


न्म |] [ वाप पृशग 


है । पुष्कर भौर यावर्तं माम वाति पक्षमम्गव मेष होति ह ॥ १७ ॥ स्वेन 
शे गमन करने बौ इच्छा वातत, प्रवद प्रागरथो की दितेच्छा तेद ते महपः 
भोजते युक्त पएवंतोके पशनो काेदन कर दिया धा।। ३८ ॥ पुष्कर नाम वाहे 
जो मेष वे वहत बडे भौर जल की मत्सरता रने षति होते है । पमो षार 
सेवे पूप्करावर्तक दस नाम से शाम्दिक हुए है ।' ३६॥ अनेक प्रकारके हपौ 
को धारण कएने वाले भौर महानु घोरतर तथा कल्यान्त वृष्टि ॐ करने वति 
एव सवर्ताभि के निणमक्र होते है ॥ ४०॥ येयूग केमन्त मँ वर्पारिया 
करते दमौरवेतृतीयक्हेगयेटहै। भनेक ल्प भौर सस्थान वाले तथा इस 
महीतल को पर देने वाते है मौर पर वायु का वहन करते हए कल्प के पधक 
उती पर आधित रहा करते है ॥ ४१।\ जो इस प्रान अण्डके कपाल ते उत 
समयमे हए ये जब चारो मुखो वाला स्वयम्भुव ब्रह्मा उत्पत हज षा । वेदी 
भण्ड कपाल के सव मेष प्रकीतिते हुए ह ॥ ४२॥ 

तेपामाप्यायन धुमः सर्वेषामविशेषतः 1 

तेपा श्र ए्तु पज॑न्यश्चत्वारभ्चंव दिग्गजाः ॥४३ 

गजाना पवतानाच मेघाना भोगिभिः सह । 

कूलमेक पृथग्भूत योनिरेका जल स्मृतम्‌ 1४४ 

पजन्यो दिग्गजाश्चैव हेमन्ते शीतसम्भवाः । 

तुपारद्र्टि वप॑न्ति सर्वैसस्यविदृद्यये ॥४५ 

श्र ्ठः परिवहो नाम तेपा वायुरपाधयः} 

योऽसौ धरति भगवान गङ्गामाकाशगोचराम्‌ । 

दिग्यामतिजला पुण्या विद्या स्वगंपथ स्थिताम्‌ ।४६ 

तस्या विष्पन्दजन्तोय दिगजाः पृथुभिः करैः । 

शा  सम्परमुन्ति नीहार इति सस्मृतः॥४७ 

दक्षिणेन गिरिर्योऽसौ हेमकूट इति स्मरतः । 

उदग्‌ हिमवतः शंलादुत्तरस्य च दक्षिणो । 

पुण्ड नाम समाष्यात नगर' तत्र वं स्मृतम्‌ ॥४८ 

तस्मन्निपतितत वर्पं यत्तुपा समुद्भवम्‌ 1 


उपोप प्रकार {२} 1 { ३८६ 


ततस्न दावहौ वा वरहिन ते लाव्‌ समुद्‌ । 

आनयत्यारमयोयेन सिच्चमानो महागिरिम्‌ ॥ष्टं 

खम चद्कामी अयन अवििपख्पसे धूप ही हतादै॥ उचमेषरम 
रर प्न्य होवा ह कौर चायं दिग्मज होते हं ॥४३॥ गजो का, मेघो का 
मौर पवतो का भोगिो के षाय पृथक्‌ मूतणएक हे कुल होनाहै ओर नको 
योनि अयात वदात्ति म्यल एरु जन हयोक्हा गवाह + ४४॥ पर्वेन्य मौर 
दिस्मज देमन्त मे मीन ति जन्म ग्रहग कएने वालि! ये पव प्रणारकेसत्यो 
की बृष्ठि ङे तिये चुपार वृष्टि या कप्तंर्ह ण ४५ पस्विह नात्र वनाशे 
होतार लिषङ्ा अवाशव वायु होना दै॥ जो यह भगवत्‌ माक्ागमें दिवा 
देने वाली, दिव्य, मल्पविकू जन वे युक्त, पुण्य, परिया जौरस्वर्गे के मागमे 
स्विति करे वालो यङ्धात्रारण कर्ते ह ॥ ४६॥ उथक्के जल को विष्यन्दित 
कए हए दिषन अवने वृष्तो केदारा मकर कमु चन करते है वद नीहार 
कहा जाता द 1४७ ॥1 दक्षिण दिशा तेजो रिह वद हेमकूट कदा जाता हि 
हिमाचन के पदाड के उत्तर भौर दिय मुद्र नाम का नग्र कृडा गादहै। 
वे नगर बहून ही प्रि है ॥ ४८॥ उमे पडो दृश्जो वर्शाहै वह तुषार से 
समदुभूव है । उश उदका बहन कले वाता वादु दिप्ैल वे समृदरदन करता 
हमा जात्मयोग चे महवगिरि को लिन क्तः हना नान दै ॥४६॥ 


हिमवन्तमतिक्रम्य वृष्टे तत परम्‌ 1 
इहाभ्येति तत. पश्चः्दपरान्तविवृदधये ॥५० 
मेषावाप्यायतश्चैव सर्वमेतत्‌ प्रकोत्तितम्‌ ॥ 
मूय एव तु वृष्टीना स॒श्ा समूपदिश्यतं ।1*१ 
घ्रुवेणा वेष्टितः सू्स्ताभ्या वृष्टि प्रवत्तते 1 
घुवेणावेधिनो वायुवर ट सइरते पुन" ५२ 
ग्रहा चि सृत्य सूर्यात्‌. ङर्स्न नक्षत्रमण्डले 1 
वारस्यान्ते विशत्यकं ध्रुवेण परिवेष्टितम्‌ ५५३ 
अत सूर्येस्यस्याय सच्रिवेश निबोधत 1 
सस्यितैनैक वक्रेण पद्धारेण विनाभिना 11५9 


६६० | { वायु परण 


हिर्मयेन भगतरान्‌ पर्वणा तु महौजसा । 

नष्टवप्तधकरिण पट प्रकारं वनेभिना 1 

चक्र भास्वता सूयं स्यन्दनेन प्रति ॥१५ 

दश योजनप्ताहेतो विस्तारायामत स्मृत । 

द्विगुणोऽस्य रथोपस्थादीपःदण्डवमाणत ॥५६ 

हिमवान पवत का अनिक्रमण वरङे उसे म वृष्ट कादेप भागण्डां 
भात! है! इमङ पक्वान्‌ अपरात की वृदधिके विद्‌ वहवर्पा हुमा करतोदै 
॥\ ५० ॥ नेष ओर आप्यायत यह्‌ सव कृ दिषा यपाहै। वृष्टिपा के पूजन 
करने वाला सूय ही उपदिष्ट फिया जाताहै॥ १॥ धत्रके हारा अवेत 
मूर होता है, उन दोनो से वृमि प्रदृत हमा करनी है । घ्ुवकेद्वासय वापु फिर 
वृष्टि का सहार क्रिया करताहै ॥ ५२॥ पूर्ण ग्रहसे निकतकर सम्बूण त्वर 
मण्डनमे वारकेअतमे ध्रवकेद्वारा पपिविष्टेतसूर्ममे प्रवेश रिपः करता 
दै॥ ५३॥ इभे मागे उनके पश्चत्‌ सूरण के रय का तरिश को सभ ल । 
एक चक्रि सस्थित होने वाल पाँ भारसे, तनिनामिप्रि मक्त तथा महान मोन 
बाते हिरण्मय पव मे अन्वित एव मार्ग फे भन्धकरार को दूर करने वाले तथा ठं 
प्रकारक एकनेमि वालि भाभमान चक वाले रवसे भगवान प्रमपण कषा 
करते है ।॥ ५४-५५।। दश हजार योजन व ल। विस्तार तथा जयाम कहा गया 
हैजो ईषा दण्ड वमाण से इयके रयोरस्य दे दृगुना होता ॥५.॥ 

सतस्य ब्रह्मणा मृ्ो रथो ह्यथेवशेन तु । 

मक्तङ्ग काय्चनां दिव्यौ युक्त परमगं हयं ॥५३ 

छन्दोमिवाजिरूपरेतु यत युकस्तत स्थिन 1 

वर्गस्यन्दनस्येह्‌ लनणं सहगस्तु स । 

तेनाऽ सवतिव्याम्नि भास्वता तु दिवाकर ॥५८ 

अथेमानि तु सूरस्य प्रत्यङ्गानि रथस्यतु। 

सवेत्सरम्यावयवे कलिितानि यया क्रमम्‌ ॥4६ 

जहस्तु नामि सूरस्य एकचक्र सवे स्मृता । 

आरा प्चर्दवस्तस्तनेमि पर्श्रतव स्मृता ॥६० 


ज्पोहिप-प्रनार (२) { ३६१ 


रयनीड. स्मृतो द्यव्दस्त्वयने कूवरावुनौ 1 
मुहूर्ता वन्यु स्तस्य म्या तस्य कला स्मृताः 11६१ 
तम्प काष्ठा स्मता घोणा ईषादण्ड क्षणस्तु, वै । 
कमिपास्वानुकर्पोऽस्य्ईपा चास्य लवाः स्म.ताः ॥६२ 
रानिर्वरूयो घर्मोऽस्य ध्वज उदं समुचितः 1 
युगाक्षकोटी ते यस्य अ्यैकामाुभौ स्मृतौ ॥६३ 
उव वह्‌ रथ अथं के वग रहे वले ब्रह्मा केद्वारा निर्मित क्रिया 
गया है जोकि सद्ध रहित, दिव्य ओर सुवणं कादै गोर वर-गमन करने वालि 
म्वो मे युक्तमी होता हि 1५७॥ अण्व स्वरूप दन्दके दारा जहां युकहै 
दौपरहौ स्थित हठा है1 यदं यह्‌ बर्ण के रय ङे लकष्पो केसी 
दोततादै। भाम्वत उसके साय यह व्योम मने दिवाकर गमन श्रिया करता 
है १५॥ वकने उपरान्त सूयं के र क हल प्रत्यद्धो को सम्बन्यर के मवयवो 
के दासा सथाद्गम कल्पि किया मया है ॥*५३॥ अह अयति दिनि सूयं की नामि 
है ौर वह्‌ एक चक्र वाता कहा गयादटे। पाच च्छतुेही उपक पाव मार 
हठे है मौर च॑ लु उको चेम बताई गहं १६०] मभ्य रम का नो 
बहा गपादहै बौर दो जयन दी उसके दो शूवर दै 1 मृदतं उनके गन्पुर्दै भद 
ता उष्को पाम्या चै 1 द्मा हौ बनाया गया है ॥६१ काष्ठा उसग्नी चोपा 
कही गई मौर दण ईषादण्ड बहा गया हूं निमेष मके अनुर्पं हं भौर लव 
श्सका ईपा वाया गपा हं ।1९.11 रातिदमस्यका स्म ह । घमं मका 
कारकौ मनुदद्रित्ष्वज हं 1 बधं मोरक्ाम ये दोनो उमके युगा कोटोक्दे 
मदे हं 114६३11 
मप्नाश्वरूपादद्रन्दानि वहन्ते वामतो धरान्‌ 1 
मावमो चै चष्टुप्चम्ननुष्डव्‌ जननो ततया 1 
पड क्तिश्च वृतौ चैव उष्णिक्‌ चेव तु सप्तमम्‌ 1 
असे चक निबडनतु घ्रे तदाः म्मापिनः ११९१ 


सदूचमो च्नमत्य्ष- साल श्मति ध्रुव! 
अक्षः सहैव चकण श्वमतेऽमौ घ्र वेखिनि- ॥*५ 


३६२ | { वपु पुफप 


एव मय॑ वशात्तस्य सच्रिवेणो रथस्य तु 1 

तथा सथोगभागेन ससिद्धो भास्वरो रथ. ९७ 

सैनऽ्मौ तरणिर्दवन्त रमा सर्पे दिवि । 

युगाक्षकोरिसम्बद्धौ रश्मी दरौ स्यन्दनस्य हि ॥६८ 

धवेण श्वमतो रश्मी विचक्रयुगवोस्तु वै { 

भ्रमतो मण्डलानि स्यु चेचरस्य रथस्य वु ॥६६ 

युगाक्नकोदी ते तस्य दकि स्थन्दनस्य तु 1 

प्रेण सग्रहीते वै द्विचक्रश्व तरज्जुवत्‌ । ८० 

साति अ्वोकेष्ूप म रहने वले एन्द ह जो वामभागसेषुत कौ वहन 
करते ह! वे पात छन्द पयत, निष्प, अनुपम्‌, जगती, पक्ति, वृहती भीर 
सातां उत्णिक्‌ है । भश्तमे चक्र निबद्ध है थोर वह्‌ अक्त द्रव मे समर्पित होता 
६ ।६५।।६५॥ चक्क के सय अश्च भ्रमण करत द ओर बक्षङे साथमे धव 
परूमदादै !चक्रकेसाथही धूत्रचे प्रेरित होता हआ यहभक्नभ्रमणस्िि 
फरता है ॥६६॥ ह्म प्रर से अथं के वश से उसके रय का यह्‌ सन्निवेश किमा 
गथादै गौर उत प्रकारे सयोग के भावस्ते सम्यक्तथा सिद्ध उत्का भ्व 
रथष्टौता है ॥६७॥ उस रके द्वाराह़ीयदसूदेव दिवमेवेणके सष 
सर्पेण क्या करते है । उपे रय के युगाक्ष पोटी से सम्बद्ध दो रगा होती 
६ 11६८ निचक्रयुगोकौ दोनो रशा प्नुद के द्वारा क्रमण किया करती है 
श्रमण करने वाते मक्कशमामी रथके भण्डल होते है ॥६६॥ उप स्यन्दन के 
दक्षिण पगा कोटी श्रु कै द्वारा द्विवक्रोए्वर रज्वुरी भति सप्रहीत होती 
हं ॥७०॥। 

श्रमन्तमनुणच्छेताघ्चूव रश्मी तु तावुभौ । 

युगाक्ष केटी ते तस्य वातोर्मी स्यन्दनस्य तु ॥७१ 

कीलासनक्तो यथा रज्जुध्॑मते सर्वतो दिशम्‌ । 

हधतस्कस्थय रणए्मो तो मण्डतेपूद्चराधरो ७२ 

वदधते दक्षिणे चैव ध्रमतो मण्डलानि वु। 

श्रुवेण सवृहौनोकु रश्मी बे नपतो रविम्‌ 11३ 


प्र.र्चर्य } { ३६३ 


भाङृष्येते यदा तौ व॑ ध्र वेण समविष्ठिनौ । 
तदा सोऽम्यन्तर' सूर्यो भ्रमते मण्डलानि तु (9१ 
अशीतिमण्डलल्लतः काष्टपोदमयोश्रन्‌ 1 
ध्र वेण मुच्यमानान्या रष्िभ्यां पुनरेव तु ॥७५ 
तथव बाद्छतः सूर्यो भ्रमते मण्टलानि तु। 
उदधंशटयनरू स वेगेन मण्डलानि ततु गच्छति ॥७६ 
भ्रमण करने वाले ध्रुवके पीय वे दोनों रष्मियां मनूगमन किया करती 
ह । उम स्यन्दने (रय) कौ युगादा कोरी वै वामी होती है ॥७९॥ भिम 
पकरसे कतमे भामक्त रज्जु सव दिशाय मं श्रमेण स्मि करतो है रतकयै 
गरष्ठहोने वाली उषक्नोये दोनो रर्मियां उत्तरायण के मण्डलो मे रहती 
६॥७२॥ दक्षिण मर मण्डो का श्रमण करने वात्र उषकौ ध्व के द्वारा मग्र 
रनवे रर्मियौ रवि कोते जातो है" ॥७३॥ जिम समये ध्रुवके दरार 
भमधिष्ित वे दोनो आटृप्यमाघ होती है" उक्ष समय में सूयं मण्डो के अन्दर 
रमण क्रा करते हैः । वह्‌ वेगके साथ उद्ध्वि क्रते टए्‌ मण्डना फो चले 
नावरे टै" ॥७६॥ 
॥ प्ररणं ३१५--ध.वचर्णा 
स रयोऽधिष्ठितो देवैरादित्यै ऋ पिभिस्तया । 
गन्वरेरष्स सरोभिश्च प्रामणीतपरालनेः ।¶ 
एने वसन्ति वै सूये दौ, दौ मासौ क्मेणतु। 
घाताय मा पुलस्त्य पुलट्क्छ प्रजापतिः ५२ 
. उरगो वानुक्रिश्चं व सद्धा तावुमौ 1 
सम्बुरनरिदश्चंव गन्वर्वा गायतां वरो 11३ 
ऋनुस्यल्यम्तरात्र व तया वं पुल्जिर्स्यसो । 
श्यमेणी रयङ्च्दरश्च तपोर्यश्रं व तायुमो ।४४ 
रदी हतन पतिन यातुघानावदाह्नौ । 
मधुमादवयोरेय गणो वसति न्वरे 11५ 
चामन्तो प्र प्मिकौ मामी मित्रस्व वस्यपन दह्‌ ॥ 


३६४ 1 [ वापर दरम 


कऋपिरव्रिवसिष्ठद्च तक्षको रम्म एव च 11६ 

मनका सहजण्या च गयत्री च हृहा दृह्‌ । 

रय स्वनक्च ग्रामण्यो रयचित्रण्व तावुमौ ॥७ 

पौश्पेवा धवं व यातृधानावुदाहूतौ । 

एतवसम्ति व सूय मामयो गुचिघुक्रया न 

श्रोमूनजीने कटा--वह याका रथदेव मादित्य थौरच्पियोषे 
दवारा भयिष्ठित हाता है 1 दमा प्रकारसेग वव अन्ता ग्रामणी मपे लौ 
रक्षपाके द्वारा भौ भविष्ठिन रहा करतादहै॥।येसदवूयमदोदां 
मासतक् निम क्रिया करेहै ओरक्रमसे इनता वह केष हता । भास्कर 
मे जिसका निवाम दै उनका परिगणन किया जाता है, धता, भयमा पुलम्त्य 
पुनह्‌, प्रजाति डस्य वागु खर्‌ सद्धोगारवे दोनो गायन करने वाल श्रेष्ठ 
छुम्धर भोर नारद ग धव क्रतस्थनी यप्मरा पुलक स्यली, ग्रामणी रथदृष्द 
भौर लपोपं वे दोनो रक्ष, ति, भेदि दो यानुषान भौर मधु माघव के माम) 
भे यह्‌ गण भक्किः मे वास करते है ॥२।३।४।१५॥ वास त ओर ग्रष्मिक 
दो-दो, मास्त उनमे मित्र, वरुण बत्रि ओर वसिष्ठ श्रव्पि तेक्षक्र र्म्म 
मनका भौर सहाजया तथा हटा हृहदो गधव रथस्वन ग्रामण्यं 
यौर रथधिवर वे दोन षौरयथ मौर धव दो यातुधान ये शुचि शुक्रम 
सूर्म म निवासे करते है ॥६।॥५॥८॥ 


तत्त मूयं' पुनस्प्वन्या निवसन्तीह्‌ देवता । 
इन्द्रश्च व विचस्वाश्च अद्भिर भृगुरेव च ६ 
एलापणस्तया सम॑ शह्ुपालश्च ताबुभौ । 
विश्वावसूग्रसेनौ च प्रात शचैवारुणाश्च ह्‌ १० 
प्रम्लोचेति च विच्याता निम्लाचति च ते उभे। 
याततधानस्तया सर्पो न्या शवे तश्च तावुभौ । 
नभानभस्ययारव गणो वसति भास्करे ११ 
शरटतौ पुन धुना वसन्त मुनि देव्ता 1 
पञ्जन्यश्चाय पूपा च भद्रान सगौतम 1ष्‌र्‌ 


मरजलचयां | { ६६५ 


विश्वावसुर गन्धर्वास्तय व गृरिभिर्च यः! 
विरकराचौ च धृताची च उने ते युभलक्षणे ॥१३ 
नाग एैरावतश्चं व विध््‌न्व धनन जयः} 
मेनाजिच्च सुपेणश्च नेनानीर््रामणोश्च उ ।१४ 
सापो वातश्च तावेतौ यातुधानावुभौ स्मृतौ । 
वसन्त्येते त्तु वे सूर्ये भामयोर्व इपार्जयो (११५ 
मरे अनन्तर [फर यहा सूर्म मे मन्य देवता निवास्त कग्ते हैः जिनपर दन्द, 
दिवम्बान्‌. अजिरा, चग एलापणं, सप मोर गब्रुपातत दे दोनो विष्वा-वमु-उग्र- 
सेन, शरान; यदग-दिरयान प्रम्नोचा मोर निम्लोचा वे दोर्नो, फानुघान तषा मपे, 
स्यात भौरश्वेतवे दोनो, यह्‌ मणनम कोर नभम्थ इन दो मामोमे माग्करः 
मर वानमरते ह १६।१०।।११॥ रद नुने रगु मुनि भौर देवला 
घान तिया करते ह । पर्जन्य मौर प्रू, गोनमके माय मण्डन, विष्रावनु, 
ण्यं मौर पमो माति मुरमि, वित्याचो ओर धूनाचोयेदोनों भरम सक्षोमे 
ञे मुक, नाम ओर देरावत, विधु भोर चनज्जय-मेननिन मौर मषेण. 
ठेनानी भौर द्रामभो वे दोनो जन मौर वान वे दोनो पतुधरान कहै ्येटैये 


सृ भिवय होद्ययोर ङ मारनोने मूग निरा क्ले ।१२।१२॥ 
1१४११५॥ 


हैमन्निकयो तु द्रौ माम वमन्ति तु दिवाकर । 
लो मगदच द्वावेतौ कयपश्च त्‌भ्न ट्‌ ॥१९ 
भूजद्भश्च महापद्चः सपः वकटिक्न्मया ॥ 
विव्मेनरच गन्धव ऊर्मायुभ्चं व तावुनौ ।१७ 
उवगो विप्रचित्तिश्च तयेवाप्सरस गुम । 
तादपदवारिषनेभिरव मेनानोर््ानणेन्य तो ॥4व 
पिय्‌(नुन्कूठजेर्च तावुप्रौ यानुधानाद्दाहतौ 1 

मर चव सदस्य च दमनतयेते दिवाकरे 1142 

त्तः शंनिरयोरापि मासयोनिवघन्ति चं । 

रेप विलुनेमदम्निपरिशानिवन्नयंव च ॥२० 


१८६६ 1 [ वायु ुराप्र 


काद्रवेयौ तथा नागौ कम्बवाण्वरावृभौ । 
गन्धर्वो घृतराष्टश्च मूं वर्चोस्तिथं व च ॥२१ 
तिलोत्तमान्सराच्चव देवी रम्मा मनोरमा । 
तुजित्सजिष्चं च ग्रामण्यौ लोकविश्र.तौ ॥२र 
बरह्मोषेतस्यथा दक्षो यज्ञोपेतश्च स स्मृत 1 
एते देवा वसन्त्यकं द्रौ मासौ तु क्रमेण तु ।२३ 


हैमन्तिक मर्थात्‌ हेमन्त शटृषकेदो मामोमेतो निम्न लौग भर्षा 
अधोगणित लोग समयमे वासर करते है-अशमौरमगये दोनों कण्ययभौ 
ऋतु मुजज्ख-महापम्म सर्प॑-तथा कर्कोटक गन्धवं भौर अर्णाय वे दोनो, उवं 
भौर वि्रचिति ये दोनो शुभ म्सराए-ताध्यं मौर अरिष्टनेमि दो सेनानोमौ 
ग्रामणो- विद्यत मौर स्सू्नवे दोनो उग्र पातुघान कदे गवेर्है। सह मौ 
सहस्य मास मेये सब दिवाकर मे बसते ह ॥१६।।१७॥ १९॥१६॥ इमी प्रका 
सरे शिशिर च्छत्‌, केदो मासो मे त्वष्टा-विष्णु-नमदग्नि विश्वामित्र -कम्बर 
मौर अश्वतरये दोनों काद्त्रेष नाग गन्वकरं पूतराष्ट, तवा मूर्यवर्ग- 
म्रा तिललोततमा-देवी रम्भा मनोरमा-छरतवितु लोक मे प्रसि प्रामणी-बह्मो- 
पेत तथादक्ष मौर जो यज्ञोपेन कहा गया दै 1 इतनेये देवगण दो माप तक सूरं 
छम रे निवाक् किया करते दै 1॥२०।॥२१।२२।२२॥ 


स्थानाभिमानिनो द्योते गणा द्वादश सप्तकाः 1 

मूयंमाप्याययन्ध्येते तेजसा तेज उत्तमम्‌ ॥२४ 
(स्रयितेम्तैर्वचोभिस्तु स्तुवन्ति मुनयो रविम्‌ । 

गन्धवप्सिरसश्च व गीतन्‌त्यौरपासते ॥२५) 

ग्रामणीयक्षभूतास्त. कुर्वते भोमसग्रह्म. 1 

सर्पा वहन्ति सूर्यं च यात्‌धानानुयान्ति च 1 

वालखिल्या नयन्त्यस्त॒परिचार्योदयाद्रेविमु २६ 

एते पामेव देवान यथावीर्यं ययातयः । 

यथायोग यथास्षव्य' यथाधर्मं यथाव्रलम्‌ ।२७ 


पदव्या } [ ३६७ 


यथा तपरयसौ सूरयस्तेया सिदस्तु तेजा 1 
इत्येते वं वसन्तीह द्रौ टौ मासौ दिवाकरे 1२ 
ऋपयो देवगन्धर्वाः पन्नपाष्ठस्साद्धणाः॥ 
ग्रामण्यश्च तथा यक्षा यातुधानाश्च भूरिशः। ।२यै 
एते तपन्ति वप॑न्ति भान्ति बरान्ति सजन्ति च॥ 
भूनानामशुम कमे व्यपोहन्तोह्‌ कौतिताः १२० 
ये सव द्वादश र सात गण स्यान, के अभिमानी होते है।ये सूं षो 
भीतेन से उत्तमतेज द्वारा आप्यायित किया करते ह । २४ {(वे मृनिगण 
प्रथित वचनोके द्वारा रवि का स्तवन किया करतेरैततया मल्धवं मोर अप्पराये 
मौतो एवं नृह्योके द्वारा सूयं की उप मना किया करते है ॥ २५ ोप्रामणी 
भौर यक्ष, भूत भोम संग्रह क्रिया करतेर्है। सपं यं का वहनकरते ह मौर 
पातुान अनुयान किया कर्ते वालालिल्यादि उदय जे परिचर्या करके उम 
सविकोजप्ताचल मे ले जाया कस्ते है ॥२६॥ हन देवो के यथावीय, 
यथातप, यषायोम तषा सत के अनुसार घम क्षौर बलके अनुसार जपे यह 
सूयं तपता है उनके नेत्र से सिदध होता है ५ दूते ये सब टो.दो मास पर्मन्त 
दिवाकर मरे यह निवास किमा करते ह 11 २७-२८॥ श्वि लोग, मन्ध देव, 
प्रग मौर भप्मगओ के गण, ग्रामणो लोग तया मक्ष" यातुधान बहृतं सारे।ये 
तपते है, वपते है, दीप होते, तान करते ह जोर सुजन करतेदैएवं प्राणियो 
केजो यहा प्र शुम करम होते उनका व्यपोह्‌ क्ता करते द इम प्रकार के 
कहेष्ये ह । २६-२० ॥ 
मानवाना शुभ होते हरन्ति दुरिताद्मनाम्‌ 1 
दुस्त हि प्रनाराणा व्यपोहन्ति कचित्‌ न्त्‌ 112१ 
छिमानेऽवस्थिता दिव्ये कामगा वातरंहस । 
एते सहैव सूर्येण श्रमन्ति दिवसानुगाः ॥३२्‌ 
बन्तश्च तनवश्च द्वादयन्तश्च वैप्रजाः॥ 
गोपाधन्ति तु भूतानि सर्वानीहामनुक्षयात ३२ 
स्यानाभिमपनिनामेतत्‌ स्थान मन्यन्तरेषु वै 1 


३६ ] [ वषु पृरव 


भतीतानागतानेा वे वर्तते साम्प्रतन्तु ये 1 

एव वसन्ति नै सूये सप्तकास्ते चतृर्दिशम्‌ 1 

चतुद श सर्गेषु गणा मन्वन्तरेषु च ।२५ 
्रप्मे हमि च वर्पासुसुचमाना घर्म हिम वपर्च दिन निशास्य] 
सालन गच्छत्युतुवशात्‌ परिवृत्तरश्मिदेवानु पिद च मनुजान तर्पयन्‌ ३६ 

परौणातति देवाननृतेन सूम सोम सूपुम्नेन विवद्धं पित्वा 

शुक्ते त, पूर्णं दिवसक्रमेण स कुष्णपप्ते चिबुधा पिचन्ति ॥३७ 

पे मानवोकं णुमवर्मो कातथा पापात्मानो के वच्छे कमोषा दषम 
नियापेरतेहै । क्टीकटी पर प्रचारो के दुरित का व्यपोह्‌ कयि) कप्त ६ 
11३१) द्य विभात मे अवत्थित काम के मनुमोर ममन यर पाति वात 
स्द्ये घृपं केपाधहौ दिनभे लनुगपन कर्ने वाते हीति हृ श्रमण भिया 
यस्ते) ६२ वपण वर्तेत तपते ह्‌ सीर जाको भाल्वादित षषे 
हए यह्‌† पर अनुश्षय से समस्त प्राणि्णों को रक्षाकिया करते ६ै॥ ९३१५ 
श्यानाभिमानियो के मन्वन्तरे यद स्यान दै मतत श्रौर मनागर्तो तषार 


प्रवचर्ण 1 


अमूनेन तृ्तस््वदं गत मुराणा माकं तृ स्ववया पिनुणाम्‌ 1 
अन्न पच्धतत, दधाति मर्त्यान्‌ मूः स्वय तदच निनि गोभि 18० 
अय दररिस्तैरैरि निन्तुरन्मेग्यनहि चापो हस्तीत रदििमि"1 
विमरगकालि विमूजन्च ता पुनविभिं शश्वत्‌ सथिता चराचरम्‌ 11४१ 
हरिहस्दिनि्ियत त्रद्धमै ्िदन्ययापो हरिनि स॒हृतुधा 1 

तन प्रम-त्यमि तास्वसौ हिस मुह्यमानो हरिभिस्दस्त्रमै 119२ 
दत्ेप एकचक्रंण मूमस्तू्णं र्थन तु. 1 


वहोरानाद्रवेनामी एकच््रम त्‌ त्मन्‌ 1 
सप्तद्रौपसमुद्रान्त मप्नभि सप्तमिर्हय १ ५४ 
दविकाना वश्चित्र पोत मोम वौ दृष्ण्षम द संम्मरयो ङे दाया ह्ण कर्ते 

ए उय सुचापूत को वितर पान किया करतेहे । देव घौर मौम्प उम प्रवार 
सेन्या पान दिया क्रते ॥६८॥ मूर्यं ग्णोमे जोकि ममुद्मेन है 
सौर फिर समुद. जलो से वृष्टि स मत्यन्त ददार लोपि न मनुष्य धुना 
दौ अन्न वानो मे जीता कस्ते दु+ २६॥ अयू हे ददो ॐी वृति अधिमास 
तवहोतोटै मौर मुधा विसे की माम्दं नृति हमा क्तो दै 1 मनुष्यो षौ 
शघ्र म सरद तृह्ि दोती मरत पूयं स्वम स्लसरमो राया उनका मरण निया 
रताद ॥ ४०५ यद्‌ दरि है जा उन हरि तुरङ्गमो क द्वारा अवाह 
रधरिमयो मे चनो का ह्ण क्रिया करता दै ञलौर जव उने व्याप का तमय 
दाता तो पुन उनका दिसजन कर्ता हुंमा सविता निरन्तर चवर काभग्ण 
क्रिया क्तादै ५४११ हरि हरत्‌ तुग्ड्धमोने द्िपमाण रेने ह मौर सहत 
प्रमारसे हस्यो ॐ द्वारा जल का पान क्रिया करते" किर दुष्करे मननर्‌ 
उनको यह्‌ हरि त्यागं वद्‌ दरि हरि तुरड्धमों से मुह्यमान होते दै ॥ ४२५ 
ष्मतरहसे सूये एक चक्र ( पिया } वचि र्थ क दवपरा उन भद्र यक्ष अर्यो 
सिदिवमेष्ठपम सर्पण कपा करता ड वर्यौन्‌ दोड लगाता रदा दै ॥\ ४३ 1 
यदश स्यसिजोतिःएक दी चक्र वाना हे एक बटौगतमः खात सात ब्र 
दवे दाद देप वाते समुद्रो > गन्त हरं व्रमण क्वाह | 


३६५ |] [ वाषु पूर 


अतीतानागता वै वर्तन्ते साम्भ्रन्तु ये १३४ 
एव वसन्ति ग सूरे सप्तकास्ते चतदिशम्‌ । 
चतुद शु सगु गणा मन्वन्तरेषु च ॥1९५ 
ग्रोषमे हिमे च वर्पस मुचमाना घमं हिमश्च वपंज्च दिन निशाञ्च। 
मालेन गच्छत्यृतुवशात्‌ परिवृततरशमरदेवान्‌ पितर शच मनुजा तर्पयन्‌ %३६ 
परोणाति देवानररेन सूय सोम सुपुम्नेन विवद्धं यित्वा । 
युक्ले त्‌, पूणं दिवसक्रमेण व छप्णपषे विबुधा पिबन्ति ॥३७ 


य मानवो कं भुम वमो का तया पापात्मानो के यच्च क्माँकाहुरर 
क्िपाकएतेहू। कृहीकही पर प्रचारो के दुरित का व्यपोह किया करते ई 
॥ ३१॥ दिव्य विमाने मे बवत्थित कामके अनुमर गमन करन वाते वाते 
स्ते सूयः कसायहोदिनमे अनुपमन करने वाते होते हृए्‌ भ्रमण श्रिया 
भरर है ५३२ ॥ वपणकग्ते हए तपते हए भौर प्रजा को भह्वादित करते 
हए यहा पर जनुक्षय से समस्त प्राणियो कौ रक्षाक्षिया करते है॥ ३३॥ 
स्यानाभिमानियो के मन्वन्तरो मे यह स्यान दै मतीत भौर अनागतो तामौ 
साग्भ्रत ह यत्तितष्ोते ह । ४४॥ इत भ्रकारस् वे सप्तक चारो दिशाभोमे 
सूय मे वाल किया क्रतष्ैजो चोददे सगोम भौर मन्वन्तरो मे गण षसते 
॥३५॥ ब्रीप्मवातम, हिमम्‌ बौर वपा मे धाम, हिम तथा वर्वाका 
मुञ्चनक्रते हृएषएव दिन यौररात्रि को बनाते ए समयरो ऋतु दै कार्ण 
परिवृत्त रगो वाता देव पितर योर मनुष्योंकोतृत करते हए जाते है 
॥ ३६॥ भूयं देवता कमी अनृत बे दवारा रसघन केरतादै भौर चब््रमाको 
सुशूम्नाबे दारा विनेष्ये गे वधन करङे्रनद्र त्रिया करता टै । धुक्लप् बे 
सोरण मौर दिनो दे प्रम ने इप्णव्मे उमङौ देवता सोमपाने 
ट ॥६७॥ 


पोतन्तु सोमं दविक्रालावधिषट ष्णदये रपमिनिस्तं कषरन्तम्‌ । 
मृपामृत तितर पिवन्ति देयाश्च सौम्याश्च तयैव पथ्यम्‌ ॥३८ 
गये गोभित्त्‌ समुद्ध.तानिरद्मि पुनदवैव समुद.ताभिः। 
प्रटपातिवृदानिरपोषपोभिरर्या एुघम्वघ्पारनर्पमति ॥९ 


प्र.वचर्य 1 


अमूनन वृ्ठि्लदं मान मुरा मामादध वृष्तिः स्वधया पिनूणाम्‌ 1 
अन्नेन शश्वत, दधाति मर्त्यान्‌ सूयः स्वय तच्च विरमति गोमि ॥४० 
अय दरस्तैटरि भिम्तरदधमेस्यनुदि चापो हर्ती अपिमभिः। 
वविमर्मकाते विमृजश्च चाः पुनविभतिं स्यद्‌ सविता चराचरम्‌ 1४९ 
हरिप्मिहिवते तुरद्धम पित्रह्मयापो इरिथि- सहरधा 1 
तत. प्रमुद्धत्यपि तास्वसौहरिस मुह्यमानो हरिभस्तुरद्नम. 18२ 
दरे एकचक्रेण मूयसतूणं रयेत तु 1 
भद्र सयरक्षतैगष्यी नदति दिवि क्षये ४३ 

अलोसगाद्रयेनामौ एकलक्रेण त्‌. श्रमन्‌ 1 


सप्ठद्रीपसमुद्रान सप्ननि सप्ठधिर्हये 198 
दविकाना वदिन पोत मोम को दृक्ष द्भ रभ्मियोके दायस्य क्ते 
हृष्‌ उम सुचामूठ ङो पिठर पानक वरते । देव जीर सौम्य उमी प्रकार 
} कव्य का पान स्पा करते 1३८५ मूको किरणोने जोकि ममुदृन ह 
रीर पिर समुद्धत लोख वृष्टि ते अव्यन्त वटी ्ोदधिो म मनुष्य दुवा 
कते मह्न पानो मे जीता कस्ते ₹॥ २९६1 यन देवो री वृक्ति माधे माष 
तव ठोल टै मो मुत पिते कते मासां कृषि टमा क्रतो दै । मलृप्यो षौ 
ल ३ सपदा ृ्ि दोरी दै अन मूं स्वय त्रिरा दारा ससका मरण क्रिया 
क्रताष्ै। ४०0 यह्‌ हरि है जा उन इरि दुर्गमे क दवाय जता हमा 
रश्मयो मे जलो का दरण क्रिया क्ता है जौर जब उन त्याग क्य एनय 
याता हतो पुन उन्न विसर्जन करता ठा मविता लिरन्तर चसचर कामग्ण 
कियाक्र्तादै॥ ४१ ॥ हरि हर्त तुरद्धमोने द्धियमाण नेमो सदो 
प्रलारसते हर्पो के द्राराउल का पान क्वा करनेरष्पिर दुमत्रे लनन्तर 
उनको यह हरि त्यागने ह वह्‌ हरि हरि तुरङ्र्मो से मुह्यमान होने द ॥४२॥ 
व स्ह खे सूपं एक चक ( पिया } वातत रथ केद्वारा उन गदर यक्त ५ 
सच दिवमेकतयमे सर्पण करिया कर्ता 2 अर्थान्‌ दौड लमाता रहना है ४३५ 
यदश स्यत्तेजोक्रि प्क दो चकत वाना है एक ब्होगत्र म साठसात अन्व 
दे षाव दप वाते कमु के अन्त तक त्रमण ङ्रतादै ५४४५ 


०० { वायु शुष 


छन्दोभि रण्वरूपैस्तर्यतश्चक्रम्तत स्थिते ! 
गृामदते स्बृदयुक्त रमिेस्तेमेनोजने ।।४५ 
हुरितीरम्ययं पिद्धं रीष्वरेकं हवादिभि ¦ 
सीति मण्डलशते चमन्त्यब्देन ते हया" 11४ 
वाह्यमभ्यन्तरञ्चौव मण्डल दिवसक्रमात्‌ । 
छत्पादौ सम्परयुक्तास्ने वहन्त्याभूतसम्प्तवाद्‌ 1 
आबरृता वालखिल्यैस्ते श्रमन्ते राव्यहानि त्‌ ॥४७ 
प्रथितेवेचोभिर्ं स्तूयमागी महपिभि 1 
(सेव्यते गतनरपयोश्च मग्व्वैरन्वसोगणे । 
पतङ्ग पततगररदनेश्र ममाणो दिवस्पति ॥1४< ) 
वीध्याधयाणि चरति नक्षनाणि तया शशी । 
्ासबृद्धी तथैवास्य रश्मीनां सूयंवत्‌ स्मृते ॥४५ 
क्रिचक्रोभयप(श्वस्थो विज्ञय शशिनो रथ । 
अपा गभेसमून्नो रथ साश्च ससारयि । 
णतारेश्च व्रिभिश्चनेयुक्त शुद्लैटेमोततमौ ५० 
दशभिस्तु कृभर्दिग्यैरमपम्तमेनोजये । 
सष्धयुक्तं रथे तस्मिन्‌ वहते चायुगक्षयात्‌ ॥५६ 


उनथछदसूप्अष्वों से जटा नक्रदै वाद्य स्थित भौरक्षम स्प 
धाति, एक्ढार युक्त गयि हए ममित मनोवेषे मे पक्त, हरित, भग्यय, विन्न, 
्रहमवादी ईश्वरके बश्वहजोअब्दमे अस्सी मण्डलो का भ्रमण किण करते 
ह ॥ ४८४६ ॥ दिनों क क्रम से दाह्यभौरभस्यतर मण्डल्‌ कोक्लय के 
सादिर्मो पम्प्वुक्त वे मूत सप्लव तव वहन किया करते हं । वातकितयो सै 
शृत ष्‌ वे रानि जीर दिन बठुन रिया क्पे ह ॥ ४५॥ (परम प्रयतत एव 
खतम दचनासे मदुधियोरे दारा स्तृथमान तधा गन्वं भौर षप्रामोके 
हरा मीत एव दृ-योये हेश्यमन होतें ६ । दिवस्पति पद्ध पतग भदवोदे 
क्षत भरमम देवे टृ रहते है ॥ ४० (तवा धरन्दमा वीवीकै धारय 
स्वर नक्षत्रों कः चरण (या श्स्दाहै! धृयंको भावि समौ हिरिणो श्च हास 


ध्रतवचर्मं] [ >" 


श्यर दृदधि उषी अकार सकट गडंदै 1४३11 छोन चद्र वाचा उनय वाश्वो 
मे भ्यित चन्द्रमा क्यं रथ त्षमन्नना चाहिए जः जलकं गन म्‌ अश्वो तयामारपि 
कै महिनि ठ्न हाद 1 एक सौ बर वाला, ठीन चक्रो सर युक्त खौर भुग्न 
भग्डाक् मदिति हता 11 ५०॥ सुद्ध मे रदित, हरय, दि-यजीरमनक 
कन्य चम वाने दय अन्वा एकार उप रय वें युक्त करक युग वं क्षय पन्त 
उमा वहने टवाद ५१॥ 
सगृहने रथे नन्मि्‌ द्वेनल््वकु श्रवास्तु वै । 
अश्वान्तमेकवर्णाम्ने वरन्ते चखवद्धं मम्‌ ॥५२ 
ययुश्च त्रिमनाश्चैव कृपा राजीवलो हय 1 
जभ्बौ वामस्तु रण्यष्च हसो व्योमी मृगरस्तया ॥५३ 
इ््येने नामभि से दपर चन्द्रमसो दया 1 
एते चनद्रमम देव वहन्ति दिव भयाच्‌ ॥॥५४ 
, देटौ परिदरतः नम्य पिचृभिस्यौव गच्छनि । 
सोमस्य युकल पक्षादौ भास्सरे पुरत न्यते । 
आपूरमने भूरस्यान्त मतत दिवसक्रमान्‌ ॥५५ 
देने पीत क्षये नोममान्याययनि नित्यदा 1 
पीत पञ्चदयाह्‌ दयाहुन्त्‌ ररिमिनैकेन भास्कर ५९ 
मापूरयन्‌ सुपुम्नेन भाग भागमह्‌ कमान. 1 
शुम्नात्यावमानम्य युर्ला वदं न्ति वौ कना ॥५७ 
तेन्मादुध्नमन्ि नै ङरप्तो शुक्ल आप्याययन्ति च । 
इयेय मूयवीवेय चन्द्रस्याप्परायित्ा तनु ५५८ 
प्ममृब्रटोतररथमे श्वेत चक्षुधवा एक वप वल अञ्च उम्भ वर्चम 
(षद्ादट्नश्रिया करते है 1 ५२१ उनके नार्मो का यद्य परिगणने तिषा 
वाहे 1 यु, तमना, वृष, रावल, इय, मम्ब वाम, तुर्य, हम, व्वोनी, 
दणयदगइ्ननामों वालि चद्रमा के नस्य हैएयवद्र दद दिवसकेक्षयसे 
पदन म्ार्म्ते है 11 ५३॥ देवो दथः पिवयेके दाय परि एव सौम्य 
९2 भमन मते है । शुनश्च द जदि मे भाषन्‌ कयात म्प्वि दने प्रर 


४० | { शयु वरा 


चन्दमापे पु का अन्ता दिवसक कमे बतत आपूरित हता दै 4 ५५१) 
क्षयमेदेरो ङे दारा पोत योमङो भव्य द्री अष््पारिनि कमता है! प्रद्र दिनि 
ठक वहे पीलद्वोता है ओर भाप्सर अवनी एक ही रिमित प्रह कर्मके 
अनुलार माग याग को मापून्ति बुवुप्नास कते दु र्हून है मौदनुगुम्नाभे 
आश्यायमान चद की दुक्न वलादे ददुःक्ग्तो टै प ५६.१७ ॥ उमृ 
पथमे षित होनी है मौर शुस्ल ये श्ष्याप्ति द्रा कतीह । इन प्रद 
मे पूरे वीयः मे चरमा का शरोर जप्णाधिरत हआ कता ॥ ५२1 

पोणेमाम्था स दृष्येत युत सम्पुर्ण मण्डल 1 

एवमाप्यायित मोम शुकनपन्ने दिनक्रमात्‌. ॥५दे 

ततो द्वितोयाप्रमृति चहुलम्य चनुदशौ 1 

अपा सारमवन्येष्दो रमम।तात्मवस्य चे । 

विवन्त्यम्बुमग्र देवा मनु सभ्य सुधामयम्‌ ।६० 

समप्रतश्वाद्र मानिन अमृत मूर्यतजसा 1 

भक्ना्थेममते सौम्य फर्णमास्यामपासते ॥६१ 

एकरा मुरं सर्वे पितरमिश्व महिनि । 

सोमस्य दृष्णपक्षाहौ मान्कररामिमुखस्य च ॥६९ 

प्रकषोयते पृरस्यान्त पौपम्राना गना क्रमति. | 

क्षोपन्ते तस्मान्‌ कृष्ठौ या युक्ने द्ाप्याययन्तिता ॥६३ 

एव दिनकमतीते पिनध्ास्तु निशतिरम्‌ 1 

पीत्वाऽधं मासङ्गच्छम्ति अमावाम्या सुरोत्तमा । 

पिनृरण्चोपतिरछठन्ति जमावाम्या नि्चाकरम्‌ ।)९* 

तत पच्वदय भाय फिच्चिच्िषि कलात्पेः 1 

अपराह्ने परिनृगणं जघन्य पयु वास्यते 1\६५ 

पौणेमामो तिधिमे मम्पृणं म-इलं भुक्न दिवलारईदेना दह । पम भ्रम्‌ 
म मोप ( समर} शूवस्पक्ष मे निर्न क कप मे आप्यापितद््रा करता { 
॥ ५६) फिर इक उपरान्त मे द्वितोया निधि चनुदंगी तक जसो रे षाद 
पूर ष्टुबा गो द्गि रस माग्रास्मङ होता रै, उमे भम्युमय मपु तीर 


भ्रवेव्भं ] [ ०३ 


भोर अमूनमय को देव्ता लोम पान वियाकरे ॥ ६० (1 सूर्वंकेत्जनम 
मघमा्ठमे वदू अमृन पुन मम्नृत हौ जाता है । सौम्य जौ मृत है उस्न 
मङ्ग क्रनेके निय वृणंमामो हिवि में उपारनाकौ जाठी है + ६१ ॥ भस्कट 
के जमिमुखमे म्यत चन्द्रमा कौ कृष्णपन्न के आदिमे एङ रात्रिये देवता, 
भमन परिताभौर मरेपियो कै दाया पई गपो कलार क्मसे पुरक मन्दर 
शोषा जाया स्तो ह । जो भुत्रलपस मे बाप्यायित ह्तो हवे सवङ्ृप्मपन 
मेशोयहो जाया क्ग्ती ह ॥६२॥ इय प्रकारते दिनो के क्मके बीन 
हाने पर विवृत सोग निराकर का पान करके अमावस्पा तिथि म मुगोत्तम बद 
का मासद्ध मन श्या कन्त ह । अमावस्या मेँ पितृभ्य निता करकं उपम्पान 
कोषर है, ६३ ६८॥ इत अनन्वर कलातमक्‌ पनद्रह्वे मागके ृद्गप 
। प्र अपराह्न मे जधन्य वह पितृगर्णोके दवाय पयुपाित क्या जाना 
॥ ६५11 


भिवन द्विकनाकाल शिष्ठा तस्यतुयाक्ला। 
निमृ तदमावाम्याद्धमस्तिभ्य स्वधामृतम्‌ । 

ता स्वधा मासनृप्त्यै तु पीत्वा गच्छन्ति तेऽमूतम. ॥\६ 
सौम्या वर्िपदश्च व अग्निप्वात्तास्तयंव च । 
ेव्याश्चंवतुये प्रोक्ता पितर्‌ मव एवते 1६3 
सवत्मरान्तु वं कल्पा पचाद्दाये द्विज न्मूना । 
खौम्याम्नु श्रुनवो जया मामा वर्हिषद स्मृता 1 
अम्निप्वात्तात्तवश्चेव पितृमा हि यै द्विना ॥६= 
पिवृमि पोयमानम्य पचदध्याक्लातु यी । 
सायन क्षीयततेत्तम्य भाग पचदगम्नु न ॥६द्‌ 
नमावम्यान्नदा तम्प अन्तमापूवंते परम. 1 
दृद्धक्षपौ बै पक्षादौ पाडरया शनन. न्पृती ॥<० 
एव मूपेनिमित्तेप। सयन्रृदधिनिलाकरे 1 
तासाग्रहाया वष््यामि स्वर्भानोर्च रथ युन ॥-१ 
नोयततेनोमम युश्र मोमदृ्न्ययै रप 1 


४०४ 1 [ वायु पृण 


युक्तो हयः पिशद्धं सतु अष्टभिर्वा रहम 1७२ 
उक जोक्नाचिष्ट होतो है उमे दो कलाके काल तक पान का 
करने है 1 यमावस्या मेङ्गिरणो के दारा जो स्वाम नि मृत होता है उ 
स्वधामन कोवेषएक्मान कीतृक्िकेलियिषान कर जाते है ६६॥ सौम्य, 
बष्टिप्द, मन्निष्वात्त मौर कन्य जोय कठ गये हं वे सभी पितर होते है ।॥६७॥ 
सम्बत्र कश्य होते है जो द्विजो ने पाच अब्द दततये दै) सोम्य ऋतु 
जननौ चाहिए भौर माम बर्िपद कदे गये है । अगनिष्वात्त आतव होते 1 
ह द्विजो! ये सद वितृषणका ममं होता दै ॥। ६८ ॥ पितृषणोकेद्वात पीयमान 
चन्द्रकी पदशो ( अमावस्या} मे जव तक पचर माव क्षीण नही होता 
तव तक अमावस्या मे उसके बन्दर पर बाूरित हो जाता है । शक्तिके पोडशी 
मेप मादि वृद भोरधषय कदे गय ह्‌॥७०॥ स प्रवर ये निया 
करच्चेजोभी स एद वृद्धि होत सूपं के निमित्त दाली हो हभ वसतो है 
तार्रह्कोमोर स्वर्भानु के रय कयो फिर वतलया जायगा ॥ ७१॥ सो 
पूवकारयतोय (जन ) भरतेन चरिपू्णं होता दै सौरगुध वणं वात 
हाना ह) शौर बह रय आठ वाणु बे तुल्य देम वाक्ते एव पिग्ध भव्यो कुः 
हना ॥७२॥ 
मवन्य यादवं मृतो दिव्यो रथे मदान्‌ 1 
सापासद्रपनाकम्नु सप्वजो मेधसन्निन 1७३ 
भार्मेवम्य स्यः श्रोमान्तेजमा सूयंसन्निभ. । 
पृिवीमम्मनेदृ्ता नानावर्णपेत्तमौ ॥७४ 
स्वेन विशद्ध माग्द्नौ नाल पोतो विलोहित. 1 
कृष्व हरितदरीव पृपनः पृच्िरव च । 
दगमिम्तोमेहामरडमर्वातविगितेः ७६५ 
अष्टास्व काञ्वनः श्वोमान्‌ सोम्या पि रयोऽमवत. 1 
अमददितैर्शी मर्सगौरग्निगम्मदो 1 
मलस कमाये दौ ऋजुवतरानुचक ग 113६ 
तनम््याद्िरमो विद्रान्‌ देवाचार्पो वृति" + 


घ्रवचयां ] {[ ४०५ 


शलो ररी. काचनेन स्यन्दनेन प्रसर्पनि 1"७3 

यृक्तनतु वाजिभिदिव्यौरष्टभिर्बातसम्मितैः । 1 

नदत्रऽव्दन्निवलति मवेगन्तेन गच्छति १५७ 4 

तन. शगीश्चरोप्यश्चं : शवलोर्व्योमसम्मने 1 

कारप्मायस्च तमारुह्य स्थन्दन याि गै शनै ॥७८ 

उम रयमे वरय के घटित. अनुकं स युक्त महान्‌ दिन्यमून होना 
ह । मोर्‌ वद्‌ उपासन्त एव पनाक मे अत्व एव ध्वना के तदित मेवके 
वुन्य होता है 1 ७३॥ ार्गैवका रयतेज ने मूं के महन होता हे । वद 
पथ्यो मे जन्म लेने वालि नाना प्रकार के वृणे वाले उत्तम अदरवो मे मक्त टोठा 
है॥ ७४॥ अव उन अरण्वो के नामों दी यहां परिगणना कौ जाती दै । सेत, 
पिण्ग, श्ररङ्ग, नील, पीत, विलादिन, कृष्य, हरित पशत मोर पृष्िये दन 
महन वायुकेवेगर वलति महाभाग नम्ोख युक्त रय होता दै ॥७५॥ माठ 
सो वाला मुणं ऋ बना हा गोमामे युक्त मोम कारय या॥ सर्वत्र जने 
बलि, चद्घ ने रदित, मश्व सचे रमुत्पत्र लोष्धि अस्वो के दारा चनु ओरवद्र 
चक्र षा बनुगर यह्‌ कुमार सरपृण क्रिया क्ता दे ॥1 ७६1; इमके मागि भाद्जिरस, 
देवो फे आचय परम विद्वान बह्वति शोण ब्य से युक सुवर्णमय रथमे 
भ्रमरेण करते हे ॥ ७७1४ दिव्य ओर गयु के सहन माठ अष्वोसैगुक्तटोना 
हभ नन्त प्र एक छन्द तकं निवान रिया कण्वा है फिरवेगके साय उसमे 
देट जाता ह \७८॥ पिर इक अनन्वर शनेस्चर व्योय से ममुत्पन्न शवल लर्थातू 
रद्र -बिरगे अग्वों से युन कलि लौटने निमि ्यमे चटकर घीरेसेजावा 
कग्ताहि 1! ७६£ 1 

स्व्भानोस्तु तयवान्वा कृष्णा ष्टौ मनोजवाः । 

रयन्तमोमयन्तस्य सछृुक्ता वहन्त्युत =° 

मादित्यान्न नृतो राः सोम गच्छति प्व॑मु। 

बादित्यमति सोमाच्च पुन- सरेषु पर्वसु ॥८१ 

मय केतुरथस्याश्वा जष्टा्टौ वान.रहसः॥ 

पलालघ्रमखडाश्ाः शवला राखमारणा- (र्‌ 


४०६ ] [ गुर 


एते वाहा ग्रहाण वै मया प्रोक्तौ रथैः मद्‌ 1 

सर्वे ध्र्‌बनिवद्वास्ते प्रयद्धा वातरश्मिभि ॥=३ 
एते वै श्राम्यमाणास्तु यया योग ध्रमन्ति वं 
वायव्याभिरहश्यामि प्रवद्धा वातरश्मिभि ॥८५ 
परिध्रमनति तद्वद्वाश्रन्दमूग्रहा दिवि । 
श्रमन्तमनुगच्छन्ति ध्रुवन्ते ज्योतिषा गणा ८१ 
यथा नद्युदके नास्तु सचिलेन सहोह्यते । 

तथा देवावया ह्यं ते उद्यन्ते वातररिमभि. । 
तस्मात्सर्वेण दृश्यन्ते व्योम्नि देवगणास्तु ते ॥५६ 


स्वर्भानु के अश्व भो उमौप्रकारकेहोते है वे कलि बौरमाढ हेते 
निनकामनके तुल्य वेण होता दहै) उप्के अन्घकारमय स्यमे एक वार युक्त 
होते हए उका बहन शिया करते है ९ ८० ॥ मादित्य मे निकला हमा राह. 
प्वोमचदद्रमाको चला जातादहै। पन सौर पर्वोमेसोमसे निक्लकर मा- 
दित्ये जाया करता है ॥ ८१॥ इसके भनन्तरद्ेतु के रयकेभौ माठ बश 
होते है जिनका वेग वाु के तुल्थ हुमा करताहै। इनका रय पलाल के पमा 
के समान होता है, शवल शौर रास्मार्ण होत्रा ॥ ८२ ॥ ये ग्रहो के बहन 
मैन र्थो के सदित बतला दिए ह । घे सद ध्र.वसे निवद्ध बोर बाते ररिमयो 
ते प्रवद्ध होतेह ॥८३॥ ये भ्रम्थामाण होते हृए योग के अनुतर ही भ्रमण 
क्रिया करते है । अदृश्य बायन्याओ से वातरदिमियों प्रवद्ध ह ॥ तथ ॥ उमम 
बद्ध वद्र, सूयं भोर ग्रह दिवमे परिभ्रमण कियाकरतेहै। भ्रमण करते हए 
घ्व के पौ ज्योति के शण अनुगमन करवा करते हं ॥ ८५ ॥। जित प्रकारे 
नदी के जल मे नौका सिलके साय ही उद्यमान होती है उसी प्रकारघेये 
देवालय भो वातररिमियों से उह्यमान हज क्ते । इसत वे देवगण जाकाश 
मै सवके द्रायां दिखक्ा्द दिया क्रते है ॥ ८६॥ 

यावन्त्यश्चं व तारास्तु तावन्तो वातरष्मय } 

सर्वा ध्र वनिवद्धस्ता भ्रमन्त्यो भ्रामयन्ति तम्‌. 11८७ 


घ्ूवनर्या ]} {[ ८० 


तैलपौडाकर चक्र भरमद्श्रामयते यथा। 

तथा श्रमन्ति ज्योतीपि वाततवदानि सर्वेश (८ 

अलातचक्रवचान्ति वानचक्र रितानि तु । 

तस्माज्ज्योरीपि वहते प्रवहस्तेन स स्मृत. ॥=य 

एव ध्रुवनिवदधोऽमौ मर्ते ज्योतिषा गण 1 

मैप तोरामयो ज्ञेय धियुमारो ध्रुवो दिवि॥ 

यदह्वा बुत्ते पापद्टरात निशि मुच्यते ॥६० 

यावत्यश्च ब तारास्ता शियुमाराध्िता दिवि। 

तावन्त्येव तु वर्पाणि जोवन्द्यम्यधि करानि तु ॥९॥ 

शाश्वन शिबयुमा सोऽसौ विज्ञेय प्रविभागशः 

उत्तानपादस्नस्याय विलयो ह्य तरो हनु ॥&र 

यज्ञोऽधधरस्ु विज्ञो धर्मो मूर्धानमाधित । 

हदि नारायण साव्यः भन्धिनौ पूर्व॑पादयो 15३ 

याकाण मण्डल म जितम तारागण ह उतनी ही दान रभ्मियां भोदै) 
ये समौ ध्रुवके दाग निवड होतो हृरद स्वव भ्रमण क्रिया कर्ती ह थर उतम 
भ्रमणकराया भी क्ती ह 1) ८७ ॥ तेल पीढाकर चक ( पया ) निस 
तरह प्मना हभ मण कराया करता दै उमी प्रकार मव अरम वातवरद 
होकर ज्योनियां भो श्रमण करती ह ४८८१ दात चक्रये इरित होकर मलान 
केचक्रकौ भातिये जाया क्तेरढे। इमपे वद्‌ उ्यो।तयो को प्रवहन करता 
हमा स्वय वह्ना हे, रेवा कहा प्याह" =€॥ इनम्रकार सेघ्रवकेद्धार 
निष्द दा हमा योविवो का गण मरपेण किया कन्त है। वदुयह दिवम 
सारामय शिनुमार नव जानना चादिए्‌। जोकिदिन मे पाप कियाकरतादहै 
मौर उलि रात से दकर उप पाणे दुरक्मरा पा जाता है ॥ ६० ॥॥ जितने 
हवे तासा दिषवमे सिशुमार के आभ्रिन होति ई उनने री अविक वपं नीवित 
रहाकरतेह\॥६१॥ प्रविमाणस इन शिवृनषर को आवन जानना चाहिए ॥ 
यहु उत्तान पाद का उत्तर हनुहो ॥ इ२॥ यज कमे अवर मोर घमकोपूर्ठा 
काबरातरय लेने वाला जानना चादिष्ट ॥ दय पे ममान नारषेण को स्य 
करना चहिए्‌, अश्विनो मते का पूवपादो चे साधन कसना चाहिए ॥६३॥ . 


12 


1 { वाच 


वरुणश्चार्यमा चैव पश्चिमे तम्य"सच्रिनि। 
शिश्न सव -सरम्तस्य मिव्रोःपाने समाधित 11६४ 
पुच्छेऽग्निश्च महेन्द्रश्च मरीचि क्यपो ध्रव । 
तारमा किंशुमाररच नास्तमे त चतुष्टयम्‌ 1६ 
नक्षत्रचद्धसूयदिच ग्रहाम्नारगणं सह्‌ । 
उन्मुखभिगूखा सवे चक्रौभूनाधिना दिवि 1 द्‌ 
भ्रुबेणाधिष्िता सर्वे ध्रुवमेव प्रदक्षिणम्‌ । 
परत्यान्तीह वर ग्रषमेधीभूत ध्रुव्न्दिवि 11७ 
प्रूवानिनिकरश्यपानान्तु वरण्चानौ ध्रुव स्मृन । 
एक एव च्रमत्येप मेरपर्वतमूर्दनि पर 
ज्पोतिपाच्च्रमेवद्धि सदा कर्पस्यवाड मुख 1 
मेरमालोकयत्येष प्रयातीद्‌ प्रदक्षिणप्‌ 11८८ 


उसे परिचम सद्य मे वषय ठया अयंमा का सावन कलना षाषिए 


उमका शिश्न समरहै। भित्र अपान में समाधित रहता है ॥ €४॥ पृष्य 
मे मभ्नि, महेन्द्र, मरीचि कश्यप ओर प्व तारक भोर शिशुमार पद षनृश्य 
भस्त नदीतर ॥ ३५॥ नक्षत्र, चन्द्रं सूर्म, ग्रहे तारागणो के सायं उन्यृत 
तथा मभिमुव सथर दिवि मे चकोभरूत होकर स्थित रहते है ॥ ६६ ॥ये सव्व 
कै द्वारा मविन्िहिमौरध्रूवही प्रदक्षिण है) यहाँ वरध जोर एकी 
ध्रव को दिवि में प्रमाण किप करते दँ €७॥ घ्रुव, मन्ति शर कश्यप हन 
तीनोमेष्रवही शशका गयाहि\ पहर्क दही मेरु पवंत्तके मूर्धा मेश्वण 
सिया करता! य्‌ ज्योतियो का चक बवाउमृद होता हृभा सदा कयं 
श्वा क्रतद । यह्‌ मरुष्ले देवताहै भोर र्हं प्रददिण को जाता है ॥ ६८ 


६६॥ 


1१ प्रकणं ३५--उपीतिमण्डल का विम्तार ॥\ 


एतच्छर.त्वा तु मुनय पुनस्ते मशयान्वित्ता । 
पश्रच्युस्त्वर भूयस्तदा ते दपम्‌ ५५ 


व्योति-्ष्डन का विक्षर | { ४०६ 


यदेतदुक्तम्भवता गृहाण्येतानि विचत्‌ । 

कव देवमृहाणिम्यु कव ज्योतीषि दर्णय।र्‌ 

एनवमवं समाचदव उयोत्तिपार्चैव निश्चयम्‌ । 

श्रत्वा तु वचन तेपा तदा सृतः समाहिन- ॥३ 

अस्मिद्रयं मटाप्रा्ञ यदुक्त जानवुद्धिभि 1 

तद्ोष्ट मम्वश्यामि मूर्याचन्द्रमनोभेवम्‌ । 

यया देयगृहाणीह नूर्याचन्द्रमसोवर टम्‌ ॥४ 

लन पर त्रिविधामेर्वक्षयेऽटन्नु समुदुभवम्‌ । 

दिव्यस्य भौतिकम्याम्नेस्याम्ने णयिवस्य च 11५ 

वयुशयान्तु रजन्या वै बरह्मणोऽव्यक्तजन्म्न । 

लब्याकृतमिदन्त्वासीच्रं मेन तमसावृतम्‌ १६ 

चतु ताविषटे ऽन्न पाथिव सोऽग्निरुच्यते । 

यम्चादौ तपते सूये युचिरग्निस्तु न स्यत ॥७ 

श्री सापपापनने कटा--मृनिगणने यह सुनकर इन स्य ये युक्त 
रोपर अपने प्रन का लोमह्पंण ने उत्तर शरा ॥१५ च्छपिर्यो ने कटा-यायने 
यो यहक्हातरि ये व्रिधूत ग्रह्‌ दै तो देवम्रह शि भकार से हैमौर उमोनियां 
क्रित ठरहमेटै? पा कर यहवपंनक्रिव ॥२॥ पठ. उयोतियों सा 
निश्चय ववाहे । पह उनञा वचन सुनकर उम खमय सृत जो मारि दए 
सर खन्दनि श्टपिर्पो से कदा--11३॥ महान्‌ पण्डित ठया ज्ञान नौर्‌ वृद्धि 
वाने मापने इम व्रिपपमेंजोवबरुटक्टा दैवदयव यै खाप सूर्य, चद्रका 
उन्मक्ट्ठा हं । पहापरिषश्रद्रार ने देवद सूं, चन्द्रके ग्रह द ॥४॥ 
दनद्चियापे पे ठोन प्रकारो सण्निका समुदुमदभी कटादि अनि, 
मोत म्नि बोर पाथिव घम्नि-दन दोनों प्रारकौ मतयो कौ उदचति 
अनीति दवस जादो है 1 ५१1 व्युष्ट रात्रिमे मन्यक्तसेजम ब्रहण क्ते 
दविग्र्याष्टौ यह निधाङेषन्वहारसे अवृत ज्दथा॥ ६ ॥ चार मूतों 
मे अयि दमे दह्‌ पिव अग्विक्दा जगह! दोवादि ममयं मे दाष 
देशा वर श्वि च्म्नि श्न््गयांदटहै।1४॥ 


४१० ] [ वागु पुराण 


वय्‌ ताप्यस्तु विजञेयस्तेपा व्येऽय लक्षणम्‌ 1 
व॑दयुतो जाठरः सौरो ह्यषाद्ध माह्प्ोऽनय । 
तस्मादपः पिवन्‌ सूर्यो गोभिर्दीप्यत्यसौ दिवि 
वैय्‌तेन समाविष्टो वर्षो नादुभि. प्रशाम्यति । 
मानवानाच कुक्षिस्यो नादूभि शाम्यति पावक ॥६ 
अधिपान्‌ परमः सोऽग्नि प्रभवो जाठर स्पत 1 
यक्वाय मण्डली शुक्लो निरूप्मा सभ्रकाशते ।१० 
प्रभाहि सौरी पदेन द्यस्त याति दिवाकरे। 
अग्निमाविशते रनौ तस्माददररात्‌ प्रकाशते ॥९१ 
उदन्त च पुन सूर्यं मौप्ण्यमागनेयमाविशन्‌ । 

पादैन पायिवस्यागनेस्तस्मादगिनस्तपत्यसौ ॥१२ 
प्रकाशश्च तथौप्ण्य च सौराग्नेये तु तेजनी । 
परस्परानुप्रवेशादाम्यायेते दिवानिशम्‌ ॥१३ 

उत्तरे चैव भूम्यद्धं तस्मादरिमश्च दक्षिरो । 
उत्तिष्ठति पुन सूये राप्रिराविशते त्वप । 
तस्मात्ताम्रा भवन्त्यापो दिवारातिप्रवेशनात्‌ 11९४ 


जो अग्नि वैद्युत-इम नाम वाला होता है उसका लक्षण बताया जायवा। 
तीन प्रकार क्री अग्नि होती है । एक वयत, दवय नाठर भौर तीसरा भपाद्ुरभ 
देता! दसस जलो का पान्‌ करता हुम सूयं आका मे ङ्िरणोसे दीप टमा 
धेरतादहै॥८॥ वदयत सै समाविश मभि जलोसे कभी शानत नहीं करता है । 
जो मानवो की षृक्षिमे स्थित रहने घाला जाठर अम्नि होता है वह भीजलसे 
शमन वो प्रात नही हा करता है ॥६॥ वह भग्नि प्रम अचियो वाता 
होता है निका प्रभव जाठर बृहदा गयाहै। जो यह मण्डली, शवल मौर विनां 
उष्मा वाल्ला सप्रकाशितठ होतादै ॥ १० ॥ सौरो प्रभा पाद से दिवा करके 
घस्तवापलगामी हो जानि पद धगिनि मे याविषटहो जाती दहै। रातिम वह दरव 
प्रडाादेी है ११॥ वह माग्ेय उष्णता उगते हए सूपं में ूनः माविष 
होजायाक्ृरीहै। पादे पायिव अग्निम दै भतएव यह छम्नित्ताप दिया 


उ्योि-मण्डल का विस्वार ] [ ४११ 


ती है ॥ १२ ॥ प्रक्ा्च जीर उप्ता पौर या आसनेय तेज राठ-दिन परस्परः 
4 अनुप्ररा पाकर नाप्यायित हुमा करते है ॥ १३ ॥ उत्तर के भूमि केलवं 
मामे गौर उममे इस दक्चिय मे पुन. मूं के उत्पत दोन पर रात्रि भपमे 
अर्थान जतम प्रवेश करतो 1 हषी से जल तात्र वणं वाते टो जे दै क्योकि 
दिनि सौर ररि मे उनका प्रवेशन होता दै 11 १४५1 

अस्तं याति पुन. सूये अरव भ्वरिशत्यपः। 

तस्मान्नक्तं पुन. शुक्ता आपो विष्यन्ति भाक्करे ॥१५ 

एतेन क्रमयोगेन भूम्यदधं दक्षिणो्रे 1 

उदयास्तमये नित्यमहोरान' विशत्यप. ॥।१६ 

यश्चालो तपते सूये पिवत्तम्मो गभस्तिभिः 1 

पार्थिवो हि विमि्रोऽमौ दिव्यः शुचिरिति स्मृतः ॥१७ 

सहन्‌ पादः सोऽग्नस्तु वत्तः कुम्मनिभः शुचिः। 

आदते तत्तु खमीना सहसु ण समन्ततः ॥1¶न 

नादेमोर्वैव सामुद्री, कौप्यार्च॑व सघान्वनीः 1 

स्यावरा ज्धमार्चैन यश्व सूरो हिरण्मयः 1 

तस्य रक्मसदसृन्तु वर्वणोतोप्मनि सूम्‌ ॥१ ् 

तासंचतुःशता नाडयो वपन्ति चितमूर्तयः 1 

वन्दनाद्च॑व चन्दादव छतना तरूलनास्तया 1 

अमृता नामतः स्वा रमयो वृष्टिमजेना- 11२० 

हिमवाहाष्व ताम्योऽन्या ररमयलियताः पुनः 1 

दरया मष्यादच बाह्याश्च हादिन्यो हिमसर्जना- ॥२१्‌ 

, चनद््रात्ता नामतः सर्वाः पौताभास्तु गमस्तय. 1 

सुवलार्च वकूमश्चंव गावो विश्चयुत्नवा । २२ 

पुन मूं डे सस्नाचलमामी होने पट्‌ दिनि जग्मे प्रवे विया शस्व 
{1 मीस सम्निमें भूर्य जत मार्ष विष्ट दति ॥ १९१) दम 
त्तमे योगद दक्षिोचर भृन्ठकेलदड भे उदयास्वमय च्रं नित्य ही दनि" 
रात उने प्रदेय त्रिया परे ट 11 १६॥ जो पद यमं जलका ब्रन 





४१२ ] { यायु पुरा 


भिरणो के दाय पान परता हभ तपता द यह निश्चय हौ पयि मौर विर्निय 
दिन्व शृचि दै- रेखा ब्रह्य यया है ॥ १७ ॥ सद्र चष्यो वाता वह्‌ मन्न म्म 1 
केश्टशणुधिहो गयाहैगोकरि सदय रर्मियो सेसव भोरे पे ब्रहम 
किमा करता है ॥ १८ ॥ दे जत नादेवो, सामृद्री कष्य, सथान्वनौ, प्यावर 
आओौरनहुमरोते दैभौरजोपूर्मरै वहु द्रण्मय दोतादै। उन्ती सुदल 
ररिमा, वर्षा, शोत मौर उच्णता दा निव क्रे वाली होती है॥ १८॥ 
उनकी चिधरप्ति दातो कारसो नाडी वप्तो दै। वन्दना, वेदा, श्नः 
सतना, वपरूढा इन नामो वारी होती ह 1 ये सव ररम बृध्टिके जन कर 
वाली है ॥२०॥ उनते भी बत्य तीनसो टिभ्वाहा रसिया होीहै। मे 
टश्या, मेष्या, बाह्या, हादिनी, हिमसजना बोर चषद्रानामो वाली है। वै षव 
पीत भामा वाती मत्तया ( किरणे } होती ह; शूका, ककम ग, विध्र" 
शृतहोनी दै ॥२२॥ 

शुक्लास्ता नामते सर्वास्त्रिशता घमेस्जैना । 

सम विभति ताभिस्त्‌, ममुप्यपिष्रदेवता ॥२३ 

मनुप्यानौपघरेनेह्‌ स्वधया च पिवृ.नपि । 

नमतत सुरात्र सर्वाखी लिभिस्तरपयदयसौ ॥२४ 

वसन्ते चैव प्रीप्मेच सतं सुतयते निभिः। 

वर्पास्विथो शरदि चतुभि सम्प्रक्पंति (२५ 

मन्ते फिशिरे चव हिम समृजे तिभि। 

ओपधौपु वलन्धत्ते स्वधया च पितनपि। 

सूर्योऽमरस्वममृतद्रयन्विपु नियच्छति ॥२६ 

एव ररिमप्तदहमून्तत्‌ सौर लोकार्थं साधकम्‌ 1 

भिचते -हतुमासाय जलशीनोप्यनि मृवम्‌ ॥२७ 

दत्येतनमण्डक शुन भास्वर सूर्यसत्तितम्‌ । 

नक्षद्रमरदुसोमाना प्रतिायोनिरेव च } 

ऋक्षचन्द्रहम. स्वे विज्ञेया सू्ेमम्मतरा पदन 


भोरिमण्टल क विस्तार ] [ ४१२ 


* नेक्ष्राधिपति. सोमो ग्रहराजो दिवाकरः1 
शेपा प्चग्रहा जेया ईश्वरा. कामह्पिणः ॥२६ 


जोवाम खे शरन दैवे षवतोनसौरहँमौरघमेका सर्जन करे 
वाली] उने मान द्परसे मन्‌.प्थ, रितिरमौरदेवोका मरण क्रिया जाता 
दै॥२३॥ यहां मनुष्यो को भौव छे, स्वधा से पितिसे मौर मघ्रनयेदेवोको 
इन सव तनौ को यह्‌ तीनो तृप किया करता है ॥ र्या व्तन्त भौर ङ्गीष्म 
मे बह तीनो से मी प्रकार तपाकरदा है 1 वर्था मौर णरदमे चारो मन्छी 
प्रभमरषे प्रकषण किया करता है ।1२५॥ हेमन्त मीर शिशिर मेवहतीनोषे 
हिमना सुजन क्िणाकरवा है 1 मौषधिवोमे बल धारण करवादै, स्वना 
पिवरोकोभी मूं तीनो मे ममृतत्रय वमरत्वकोदिया करवा है ॥२६॥ इम 
र्रर मे सूं सम्बन्वी सहस्र रदिम्ां चोरके अधं कौ तावक होती है च्छु 
को प्रहर जल, णीत मौर उष्णा के सवण करा भेदन करती ह ॥२७॥1 
कना यह्‌ मण्डल शुक्रल एव भास्वर मूर्धंकोसनावाबा दै मोरनन्षत्र, ग्रह 
ओौरचन्द्रङी प्रविश्ठा काजसस्यानहो दै) ऋष -चन््रमा बौर ग्रहय सपर 
सर्च दौ उपद्र होने वाजे होते ई-रेषा जान सेना चाहिए 1२९ नदात्रो का 
स्वामोचद्रमादैभोर ग्रहौ का राजा सूयहोडा है । हेष पच ग्रह कापटी 
ईश्वर जानन चाद्िए्‌ ॥२६॥ 

पठयते चाग्निरादित्य आीदक्श्चन््रमा स्मृतः ॥ 

शेपापा प्रहन्ति सम्यग्व्ण्ममाना निवौवत ॥३० 

सुरसेनापति स्कन्द पठ्यतेऽङ्गारको ग्रः । 

नारायण बुध प्राहुदव ज्ञानविदो दिदु 11१ 

स्द्रो वैवस्वत साक्षादर्मो प्रभ स्वयम्‌ । 

महाग्रहो द्विजे छो मन्दगामी शनंश्वर 1३२ 

देवामुरगुष दरौ तु भानुमन्तौ मदाग्रहौ । 

प्रजापतिसुनावेताबुमौ णुक्नरहस्पतो ॥ 

दैत्यो महेन्दश्च तयोराधिपत्ये विनिितौ ।३३ 

नादित्यमूतमणिल चिलत मात्र सशध- । 


४१४ { वायुपुराण 


भवत्यस्य जगत्कृत्स्नं सदेवासुरमानुषम्‌ 11३४ 

शुद्र द्रोपेष्रचन्द्राणा विप्र्रास्मिदिवौकम्ताम्‌ । 
दुयुतिदूयुं तिमता इत्स्ना यत्ते जः सावंलौकिकम्‌ ॥॥३५ 
सर्वात्मा सर्वलोकेशो मूल परमदैवतम्‌ । 

ततः सजायते सवं तत्र चं व प्रलीयते ।१३६ 


मादित्य मनि पदा जाता है मौर चन्द्रमा मोदक कहा गमा है । रेपो 
षते प्रदृहति को जोकि भवो भ्त वर्णन कलो जाने वालो है समक्षलो ॥३०॥ देव" 
ताभोषोसेनाकास्क्रामोसून्दहै भौर बद्भारक ग्रह पडा जाताहै 1 वुष को 
भागय बहते भौरदेव यो. तान के वेत्ता जानते है ॥२१५ रदरवैवस्वतदै 
सो सोमे सादात्‌ घमं एव स्वय प्रमुद द्विजोभे सेठ मन्दगमन षे 
याला महाह नैश्र र ॥६२॥ देयागुरगुं { बर्यानु वृहस्पति मोर शक्र } 
ये दोनों भानूमान्‌ महाप्रह होते ६ । ये दोनो प्रजापति बे पतर शक्र भौर्‌ वृहस्पति, 


हि) 


क्योत्िमण्डल का विष्डार 1] { 


ऋतुनामविभायस्व पुप्यमूलफल दतः 1 

वु. नस्याभिनिप्पत्तिय्‌ गौपधिगमादि वा ॥४० 
अमाव व्यहाराणा देवाना दिवि चेह च 1 
जगृस्रतापनमृतते भास्कर वारितस्करम्‌ 11४१ 

स एव कालश्चाग्निश्च द्वादशात्मा प्रजापतिः { 
तपत्येष दिजप्रेएाह्ण लौक्य सचराचरम्‌ 1४२ 


समस्त लोके फे भाद भौर भम)व पहि मादित्यसे निक्तेये\ हि 
विभो } यह जगत्‌ अहे समरतना चाहिए सोर दीतिमानं रवि क्रो सग्रह भानत 
चादिए्‌ 1३५१ नहा एर्‌ क्षण, मृहूनं -दिवघनिशा, पूणवा पक्ष, मात, सम्बषर, 
यनु, भपन भीप्यय निवन को प्राप्त होते ह नर्थाद्‌ समति दति है भौर बार 
बारखतन दमा कषे ह ४२८५ उष दम्य सापित्य क व्रि उती क्थ्त 
सम्या नह दोनो है । कालके धिन निगम नूः होत्रा है, न दील होवो है बौर 
मकौ माद्धिरक्रमटीहोनाहै ५२दा जब -ख्तेभो का कैर्‌ विमणणहौो गदौ 
ठो फिर पुष्पमूल ओर फन कह हे फेते हो सकते है ? सस्य को भभिनिन्यक्ति, 
गुण बोर नोप्रथिपणदि मी कंसेहो खक ? 1४०४ दिव घरदेवीकफासौर 
यहा परभी समी व्यवहेरो का भभा दो जायगा । वादिके स्कर अर्थात्‌ 
अपहरण करने गर्ते भास्कर के क्रिया जगत फाप्रतापनदौ चापगा 11४१ हि 
प्रिर} वहहौ काल मौर धमि प्रभाषति द्वादश स्वरम बाला है। यह 
श लोक्य मे मस्त चराचर बो तपता ई ।॥४२॥ 


स एपतेवसा राशि. घमस्तः सावंलौकिकः। 
उत्तम मार्गमास्थाय वायोर्भाभिरिदस्जगत्‌ १ 
पाव दमश्च व तापयत्येष सवे शः ॥४२ 
रथेददिमसहस्‌ यल्‌ श्राड मया समुदाटतम्‌ 1 

तेषा श्रोष्ठाः पून सक्त समयो ्रहुयोनयः (भ्म 
सुम्नो दरिकेसश्च विश्वकर्मा तवव च 1 
वियवश्रवाः पुनक्वान्यः सम्पद्सुरतः रम्‌ ॥ 
खवविसु पुनश्वान्यो मवा चति प्रकोततितरः 1४५ 


४१४ ] [ यायु पुण्र 


भवत्यस्य जगक्ृत्स्नं सदेवामुरमानुपम्‌ ।(३४ 

शद ्रषेन्धचन्द्राणां विद्र्रास्विदिवौकसाम्‌ 1 
दुयुतिदरयु तिमता दत्स्ता यत्तं जः सावंलौविवम्‌ (३५ 
सवर्मा सर्व॑तोकेशौ मूल परमदंवतम्‌ । 

ततः संजायते सवं तत्र चव प्रलीयते 1३६ 


घादित्य अग्नि पडा जाता है मौर घद्द्रभा गौदक कहा गथा है । रोषो 
की प्रहृति को जोकि मलौ भत वर्णेतषी जाते वावी है समलो |॥३०॥ देव 
ताथोकीसेनाकास्वामीस्कन्दहै मौर भद्गारक ग्रह पदा जाता 1 बुधको 
नारयण कहते हुं मोरदेव कौ. ज्ञान के वेत्ता जानते है ।॥३१॥ द वैवस्वत है 
जो लोक मे साक्षात धमं एव स्वयः प्रभुरहं । द्िजोंमे शरेष्ठ मन्दगमन करन 
वाला महाग्रह णनंश्वर है ॥२२॥ देवाशुरगुरं { जति बृहस्पति भौर शुक } 
ये दोनों भानुमान्‌ मह््रह होते है । ये दोनो प्रनापनि के पृतर शुक्र शीर वृद 
नाम वनि 1 दत्य बौर मटेनद्रइ्न दोनोकै आाघिप्त्यमे विनितित हए 
है 1३३॥ यदे समस्त त्रैलौक्य आदिप्य के मूल वाना है, इसमे गुट भी संम 
महीं है सम्पूणं जगद देव, असुर मौर मानवो के सहित सवा होता है ॥३४॥ 
हि विद्र वृन्द । स्द्र इन्द्र उपेन्द्र जन्द्रदेवो कौ जोकि यतिमान्‌ दै, समस्त. ति 
भोर सावंसोक्रिकतेज है उन सत्र कौ आर्मा समरह्त लोकतो के ईय मूल परम 
देवते दै मातु सूयं मून ओर सदमे वडा देवना है) उत्ते ही सव्र उप्त 
होता है स्मे वुख उपमे प्रलोन हुआ करता है ।1३५।।३६॥ 


भावाभावौ हिं लोकानामादित्याच्नि सृतौ पुरा 1 
जगज्जेयो ग्रहो विप्रा दीप्तिमान्‌ सुग्रहे रविः 1३७ 
यत्र गच्छन्ति निधनं जायन्ते च पुनः पुनः । 

क्षाणा महत्ता दिवस्ता निशाः पक्षाश्च इत््स्नश्ः । 
मासाः संवत्सराश्च व ऋतदोष्न्दयुगानि च 1२८ 
तदादिस्याहते तेपां कालसख्या न विद्यते 1 
कालाहते न निग्र न दीन्रा नाद्धिकनमः १ रय 


सूयौततिमभ्डते क विस्र ] { भश 


ऋतुनामविमागद्च पुष्पमूलफलं दतः 

मुतः सस्थामिनिप्पत्तिगुं णौपधिगणादि वा ४० 
अपरावो व्यहारापां देवानां दिवि चेह ब) 
जगरप्रतापनमृतै भास्करं वास्तिस्करम्‌ ।॥४१ 
सएव कालवचागिनिदच हादशात्मा प्रजापतिः! 
तपत्येष द्विजघरेाछ लोक्यं सचराचरम्‌ ॥४२ 


समस्ते सोक के सव्र मौर समाव पिते जादिष्य्े निक्तेये1 हि 
विषरो ! यह्‌ जंतु ग्रह्‌ समञ्ना चाहिए र्‌ दीप्तिमान्‌ रवि को सुगरहु जानना 
चाटिए 1३७1 जहां षर क्षय, मूहूते -दिवषटनि्ा, पूतया प्क्ष, माघ, सम्ब्रे, 
श्रम, भपन भोर यग निधनको प्रात होतेह र्यात्‌ समात दते नीर वारः 
पाररतप्न हुमा करते टै दे) उस समय आदित्य के बिता उवकौ काल्‌ 
मम्परानहो देरी है! कालके विना निषभ नही होवा है, न दौकाहोरौ है मौर 
च फोर मह्िक परमहो होता है 1६51 उव परतुमरो काकोई विपापो नहीदै 
तो फिर पृष्य-मरूल बौर पन कहां मे कते से खत ह? रस्य को जभिनिन्पक्ति, 
गुण मौर मौपभिगपओआदि भी सतेहो प्केये ?॥४०॥ दिवे बौर देवो षा भौद 
यटोप्रभो समी व्यवहारो का लाव हो जायगा वारि मे तस्र पर्याद्‌ 
अेष्हए्ण कणे बाले भास्कर ठ द्िता अग्रत का प्रतापन टो जाया 1४१1 है 
दिजधेषो ! वही काल मौर क्षमि प्रजापहवि द्रदिदा स्वस्व वाता ६! वह 
ध्रभोत्प मे सभरस्त चराचर को तपता है 1४२) 

सं एप तेजतां राशिः समस्तः सविंलौकिकः। 

उत्तम म्गेमास्वाय वायोर्भाभिरिदल्जगत्‌ । 

प्रारवेमूर्दमधश्चं व तापयत्येष स्रवंशचः 1४२ 

रवेरदिम्रहमू यन्‌ प्रा मथा चनुदाटतम्‌ ! 

तेषा यं छाः पुनः सप्त रश्मयो ग्रहयोनयः ५४ 

सुम्ने इर्किदरव दिश्वकर््रातयवञ 

विर्वस्रवाः पृनन्चाम्यिः सम्पदवमुरतः परम्‌ 

सर्वावमुः पुनश्यान्यौ मया चाव॒ प्ररौितः १४५ 


४१६ ] { वायुपुराण 


सुप म्न. सूयं ररिमिस्तु क्षीण शशिनमेधयन्‌ । 
तिर्यग्‌ प्रमावोऽमौ सुषुम्नः परिको्यं ते ॥४६ 
हरिकेश. पुरस्त्वादया शक्षयीनिः प्रकीर्यते । 
दक्िणो विश्वकमां तु रदिर्बदर्भयते बुधम्‌ ॥४७ 
विश्वश्रवास्तु यः परवान्‌ शुकधरोनि. रपृतो बुव. । 
सम्पद्वमुश्व यो र्मिः सा योनिर्लोहितिश्य च ॥४न 
पष्ठस्व्वावसू रपिमर्योनिस्तु स वृहस्पतेः । 

शनंश्चर पुनश्चापि रष्मिराप्यायतं स्वराट्‌ ॥४६ 


षह यह ही समस्त एव सवंलौक्रिक तेजो कौ राशिदहै। वायु के उत्तम 
मागमे आ्वित होकर अनी प्रभाओते दष जगत्‌ को पाश्वं ने-ञ्पयको 
घौर भधोमागमे सव मोर सरे यह ताप देता है ॥४३ सूं को सदत रमयां 
जो प्राडमय समृदाहृत हुई हैँ उनमे भी फिर श्रेष्ठ ग्रहो कौ जन्मभूमि स्तः 
रषमिया होती हुं ॥४४।। अव्र यहां कुं रदिमथों कै नाम ओर उनके वाम वत~ 
लाये जति है । सुपुम्ना,हरिकेश- विश्वकर्मा विर्वश्रवा-फिर्‌ सन्य परम सम्पद 
रत , अवरविहु-पे ररि धरोतित को गर्‌ हैँ ॥४५॥ पुपुम्ना नाम वालीनो 
सूर्मकीरश्मि है वहक्षीण शशि कौवृद्धिकरतोहै। हसस्ना रभाव तिक 
जोर उदुध्वंको हृभा करता दहै इमी तिये यह सुप्‌म्ना कदी जातो है ॥४६॥ हरि 
छश नामक रशत घाथाररिमि है भौर यह्‌ नक्षत्रों का जन्म स्यान कहौ जाती 
ह ॥ विश्वकर्मा नाम वाली जो रस्मि है वह दक्षिणम बुव का वर्धन क्या करती 
दि णजा विश्वश्रवा नामक ररिमि जोह वह दुर केदारा प्ष्चाव शुकी 
योमि कदी गई हं 1 सम्पदवमु जो रष्मिहै वह्‌ लोदित कौ योनि होती हि ।४८॥ 
पष्ठ रिम अर्वावसु होती है वह वरृहृस्यति का जन्म स्पान होती है । मौर स्वराट्‌ 
एपिमि फिर पनश्चर को आन्यापित किया करती है ॥४६॥ 


एव सु्ेप्रभावेण ग्रहनश्चच्रतारवा. 1 
वद्धं न्ते विदित।. सर्वा विश्वञ्चेदं पुनजंगन्‌ । 
दीयन्ते पुन्तानि तस्माच्त्त्रता स्वृता ॥५० 


ञयोद्धि-मण्डन का विन्तार |] { ४१२ 


्ेतनाग्येतानि वै पूरवंमापतन्ति गभस्तिभिः 1 
तेषां ज्ञे ताणयादत्त सूर्यो नक्षत्ताद्धत. ।५१ 
तीर्णान गुहृतनेह्‌ सुरतान्ते प्रदाप्न पात्‌ । ~ 
ताराणा तारका द्य ताः युक्लत्वाचवेव तारकाः ॥५२ 
दिव्यानां पा्थिवानाञ्च नंशानाचोव सर्वंशः। 
साद्रानानित्यमादित्वस्तमतां तेजसां महानु ॥५२ 
सुवति स्पन्दनार्थ च धातुरेष विभाव्यते । 
सवनात्ते जसोऽपाश्च तेनासौ सविता मतः ॥५४ 
वहर्यश्चन् इत्येष ह्वादने धत्रिप्यते 1 
शुक्लत्वे चामृतत्वे च शतत्वे च विभाव्यते ॥५५ 
सूर्चन्द्रमसोदिव्ये मण्डले भास्वरे खगे । 
ज्वलक्चं जोमये शुक्ले इत्तकम्भनिभे युभे ॥५६ 
द्म प्र्तारसे मूर्येके परमाव सेस ग्रहनक्षतर मौर तारागण वदते हौ 
टसं विदिनिहै। यद्‌ विश्व भौर यह जगत्‌ भी सूर्यं के प्रनावसे ही विनि 
ता 1 फिरवेक्षोगनदी हनि हि इमी बे नक्षगना कही यई दै ॥५०।। पहिते 
षेध गमत्तिपौ उ यापतित रोति है । उनके क्षेत को सूयं नक्षघ्रता को प्र 
आलतेर्तेनादै ॥५१ इम संसार मेसृक्रतसे तोणं घोर सुृतकै गन्तम 
होकेनाश्रपस्ते ताराभौं चेवेवारूूहैमोरणगुम्वहोने सिटी तारक होते 
४२४ दिव्यानि मौर नत्त मर्थात्र रात्रिये होने वाते अन्धकारो क्ये 
भोकर यादान करनेने दहो यदमहानु बदिष्य प्रा है मर्घात्‌ मादान से बादित्य 
म पडा है ॥५६॥) स्पन्दन मर्थं चे सुवति यह धानु विमाविति होती! वजो 
> मौर जलोङे सव्रनकरेसेयट सिवा इम नाम वालः सटा गया दै ॥१५४॥ 
नद, यदे बहून अयं वाना दै] द्धादनमे घातु दोता दै जुत्नस्व~जमृनत्व मौर 
वनते वह्‌ विप्राविन होऽ है॥५५॥ सूय सौर चन्द्रमा के दिव्य अकाल 
गमन करने वालि मास्वर मण्डन ह, ये उ्ववन्त, ते जोमय, शुक शुभ ओर 
उत्त दुभ्म ॐ नुन्थ होते हैँ 11 ५६।१ 
पनत्तोयाल्मकृ' तत मण्डर्लं ज्ञिन. स्मृतम्‌ ॥ 


#१८ 1 [ वाप्रुुरण 


धनेतेजोमयः युक्त मण्डल भास्फरस्य त्‌, ।५७॥ 

विशन्ति सवेदेवास्तु स्थाना न्येतानि सवंशः । 

मन्वन्तरेषु सर्वेषु ऋषक्षसूयेग्रदाघ्रयाः । द 

तानि देवगृहण्येव तदाष्यस्ति भवन्ति च! 

सौरः सूरण विस्थान सौम्य सोमस्तयंक च ॥॥५६ 

षौ शुक्रो विशस्थान' पोडशद्धिः प्रतापवान | 

वृहद्वहस्पतिश्वव लोहितश्च व लोहितः । 

पानौष्वर' तेया स्यान देवइ्यौव शनैश्चरः ६० 

आदित्यरश्मिसयोगरात्‌ सश्रकाशात्मिकाः स्ताः । 

मवयोजनप्राहृनो विष्कम्भः सवितुः स्मृत 11६१ 

व्रिगुणस्तम्य विस्तारो मण्डलच्च ऽमाणतः 1 

द्विगुण. सूयं विस्वाराद्वि्तार शशिन स्मृतः ।॥६२ 

तुट्यस्तयोस्त्‌. स्वभनिुमूंत्वाधसतात्‌ प्रसर्पति । 

उद,त्य पार्थिवच्छाया निर्मितो मण्डलाकृतिः ॥६३ 

वह घन तोयात्मक शशि कामण्डल कृहागयाहै मोर भाष्करती 

` अण्डल पन तेजोमय सतन णडा गया है 11491] समस्त देवहा लोग रव भौर 

मैदनस्यानोमे प्रवेश क्रिथा करते ह । सम्ठ मन्वन्तरो मे नक्षव-सूषः अर 
ग्रहो के भ्रव होते द ५॥५८॥ वे देवोकेप्रहही ह घोर उप्र बास्या वर्णाः 
मसेयेष्टोते ह) सय सोर-विशस्यान है भौर सोम सौम्पविशस्पान होता 
है ॥५६॥ सोलह मवि दाला परताप से युक्त शुक्र दक्र फा प्रवेश स्थान दै। 
ददु ( व्डा) वस्यति भौर सौद्ित दी लोहि तथा देव शेश्वर शानं श्व? 
विभस्थान होता है ५६०१] ये सव मादित्य क रश्यो के छमोय से सम्पराणाः 
त्मिक् पदे गवे ह। मवि्ठा का तरिष्कम्म नौ हय योजन वात्ता होता है-रेता 
कहा मगर है ।॥६१॥ उदका, विस्तार त्िगृना सौर प्रमाणप मण्डल होता है। 
सूर्य क विस्तार से दुगना शशि वा विस्तार एटा भया है ॥६९॥ उन दोनो के ^ 
हत्य स्वर्मान्‌ दो कर अवोमाम से द्रमपण दिया करवा है) पिव भरद्‌ 
पृच्वो कोद्य उदरण फरक यर मष्डत को भाषति वाला निरिति हमा 
चदा टै 14341 


ज्पौति-मण्डल दा विस्तार [ ५१६ 


न्व्मानोम्त्‌. वृहत्‌ न्यानचनिित' यत्तमोचयम्‌ 1 
मादिव्यात्तच्च निष्कम्य सोमं गच्छति पर्वन 11९४ 
आदित्यमेति सोमाच्च पुनः सोम पर्वसु 1 
स्वर्भासा नुदते यत्माच्चतः स्वर्भानुर्च्यते ॥६५ 
चन्द्रस्य पोडणो भागो भार्गवश्च विधोयते 1 
विष्कम्भान्मण्डलाच्यैव योजनाग्रार्‌ श्रमाणत्तः ॥)६६ 
भार्गवात्पादहीनन्तु विज्ञेयो वौ तृदप्पति- 1 
वरृहम्पतेः पादहीनौ कुजमौरावुमौ न्म॒ततौ । 
विन्तारान्मण्ड लाटी पादहीनन्तयोवु धः 1९७ 
तारानक्षतख्पाणि न्वयपुप्मन्तीह यानि नै 1 

वृघेन समत्‌ ल्यानि विन्तारान्मण्डलादय ५६८ 
प्राय्श्चन्द्रमोगानि विदयादसापि तत्ववित्‌ ॥ 
तारानक्षानल्पाणि हीनानि तु परन्णरम्‌ ॥६ब्‌ 
शतानि पच्च चत्वारि वरीणि हे चैव योजने 1 
ूर्वापरनिकृढटानि तारकामण्डलानि तु॥ 
सोजनान्यद्ं माति तेस्थो म्व न व्रियते ॥७० 


स्वभानु का बृहन्‌ स्पान जो तगोमय निमित हना है बह आदित्ये 
निक्ल षर पवोँमरे चला जायाक्रतादहै प्रह्णा सोप से आदित्ये आताहै 
यर पिर परवा मे खोन को नाया करता ३ । अयनो दोतिच नुन सिया बरना 
दै इमो कारणसेयह स्वपरु-रेमा कटा जायाकर्ता है ॥९५॥ चन््रमाकां 
सोवा भाय दगु होता ह जोकि धविपवम्न मण्डन भोर योननाप् के प्रमाण 
खे होना है ।९६॥ न्नैव ते एक पाद हीन वृदृस्यति को जनना चाहिए नौर 
गृदस्पति वे एक पादक्म वलिक बौर सौर दोनो कटे गचे है 1 विष्वार 
गोर मण्डलसे खन दोनो खे एक पाद दीन वुच क्ते कदा गवा दं ६७ यहां 
जो अयने वषु बाति तारा नक्षय शूप ते पुक्त दैवे द विस्वार तथा मण्डल रे 
बुषकेसमान ही दोह 1६न्प तच्व्ेत्ता को चादिषु द्धिश्राय इन्द चन 
के योग वाने जानं । चारा न्तर रूप वाते परस्परम दीन ह ॥६६॥ सौ पांच 


४२० |] { घापु वुरण 


चार-तीन सौर दो योजद त्परकपण्डवे पूरवाकर मे निश होते ह} उने जाणे 
योजन से दोरा कोड्भरी वही होवा दै ॥७९०) 


उपरिष्टातृत्रयस्तेषा ग्रहा ये दूरसपिय 1 

सौरोऽद्धिराक्चवक् जेया मन्दविचारिणः ॥७९ 

तेभ्योवऽस्तात्त्‌, चत्वार पुनरन्ये महाग्रहाः 1 

सूर्य. सोमो वृधश्च व भागेवश्चं व शौघ्रगा ॥७२ 

यावन्त्यस्तारका. कोट वस्तावदृक्षाणि सर्वंशे. । 

वोथीना नियमाच्च वमृक्षमार्गो व्यवस्थित 1७३ 

गनिस्तास्त्वेव सूर्यस्य नौचोच्यत्वेऽ्यनक्रमाव्‌ । 

उत्तययण मानस्यो यदा पर्वसु चन्द्रमा । 

सौव वौधोऽय स्वर्मावु स्वर्भानो स्यानमास्थित. 1९9 

मेदयथ ऋ कनि तएवणिः द्विक्युपत ज 

गृहाण्ये तानि सर्वाणि ज्योनोपि मुह्नासनाम्‌ 113१ 

मन्परादौ संत्रद्नि निमितानि स्वयम्भुवा 1 

स्यानान्येतानि तिष्ठन्ति पावदाभूतसप्नवम्‌ 11७६ 

मन्वन्तरेषु सतरेु देवतायतनानि वै ॥ 

अभिमानिनोऽच तिनि यावदाभूतसप्तवम्‌ ॥1७७ 

उने उपरमे तौन ग्रहदूर सर्गी अर्था दूरतक रथ मरे वत्निहोते 
ठै । घोर ब्रह्िरा छया वक्ये मन्दवारी अननेके योग्य होतो है 113१1 उनके 
नोत रिर्यारमयम्हप्रहहोतेहैजोणोघ्र गमनकरने वत्ति दये सम॑ सोम 
युर भार्गवो ट ॥७२॥ जिक्ते वरोदतारक। ह ठको गय मोर 
मणत्रह्ोने है। वौविगेदे निरते गेहोनकतो स्य मां गयव्रस्विन होता दै 
13६५ सूर्म कौ दह्‌ पदिनीद, उच्च थयवदे द्रमतेहोहोतीष्ै। जप बरमा 
उनराय् मागमे स्वितपदां ये होतादहैतददोदवोपमा मौर स्वर्मातु 
स्वनाुरेस्वानरवेग्र्विव होता दै (13८ समष्तदयतनदत्रो प्रदेश द्वि 
बरन षट ।पे तद ग्रोटिपो मुदका्पामरा रे धरूदृहोते है जभ रत्ये धारि 
पिमादपृतस्पदन्पुदिदष्छ नित्रित पे स्वान भौर पू गत्व वर्मन ष्ट्य 


उ्योतिमण्ट का विस्तार |] [ भरर 


द ॥७६॥ समस्त मन्वन्वसं म देवता के मादन अभिमान इलि जव तक 
सव मल्पव दीता दै अव्यत ुजा क्रतं ह (3.1 

अनीचैस्तु सहातीता भाव्याभाव्यै सुरानुरे । 

वर्तन्ने वत्त मानैव स्वनानि स्य युर सह्‌ 11 

जन्मिन मन्व्रनरे ीन ग्रहा वैमानिका स्मृता 1 

विवस्वानदिते पुन सूर्यो दैवम्वतेऽन्तरे ॥1७य 

व्विधिमान्घरमपुनन्तु नोमदेवो वनु स्मृत । 

शत्रौ देवन्नु विन्नयो नागं वोऽमुरराजक् ॥>० 

चृदत्तेजा स्मृतो देवो देवाचार्योऽद्खिर मुत । 

चृश्ौ भनोहूरद्यैव न्विपियुनेस्तु म स्मृत ॥८१ 

लग्निविकलन्पान्‌ सजज्ञे युवाऽनौ लोहिनापिप 1 

नक्ष्हागाभिन्यो दाक्षायण. स्मुनास्तुता ।।तर्‌ 

स्वर्भानु तिदिकूपुमो भूतमन्तापनोऽमुर 1 

मोमद्षाग्रहमूयः तु को्तिनास्ट्दनिमानिन ८३ 

न्यानान्येतान्ययोक्तानि स्यानिन्यज्व देवनाः । 

युनलमग्निमय स्यान सहन्राशोत्रिवस्वत ॥ऊ४ 

मट्च्लागोन्त्विप स्यःनमम्मय युक्लगेव च । 

जय श्याम मनोज्ञस्य पर्चरण्मेरुंट्‌ स्म्‌ तम्र ॥<५ 

युक्रस्याप्यम्मय स्यान सद पोडश्षरष्मिवन्‌ । 

नवर.्मेस्तु यूनो टि लोहितस्यानमम्मयम्‌ ॥=२ 

हरिद्चाप्य वरह्चचापि दादशा्चोकं न्पते 1 

अष्टरन्मे ह प्रोक्त क्रप्य वुद्धत्य जम्मयम्‌ ।1=अ 

अनीत्तोके साय बतीत यौर भाव्या के खाय भव्य य सुरनुर्‌ वत्त 
मानों के साय यपने सुग के साय वत्तंमान स्थान होने ई ॥14=॥1 
श्म मन्वन्तर मे ्रह वमानिक् क्ट गय रै! वँेष्वव बन्तरमे सूयं 
अदिचि ष्य पृत्रन्हा ग्या है ॥७६॥ स्विदिमानु घमं का पुन गौर सोमदेव वसु 
शगार शुरु जधुद्टन नर ज्य कव्ह्‌ ० अनिद 


»२२ ] [ वायुशुराण 


भय व्‌ तैम व्ल देद दहसि देदावध्यं कहा वया है! मनोहर बुध त्वयि 
पमरक्हा गयाद्ं 1८१ जनित्‌ पित्स स उन्न हु जोकि लोहिनाधिष हं । 
नमुवच्छकष मे गमन वरमे वली वे दादावणो कहो गई ह 15२॥ स्वभू 
विदि का पूष हं जोकि धराणिया न्ते सन्ताप देन वाला असुर होवा दै। माम 
षष ग्रह मूर्मतो सभिमानी कौत्तिवि न्रियिगये हं ॥5३॥ यसदरयानर्जम 
वाय गवे ह मौर स्वानोय देवता जोष्य गेह उनवे विवस्व सूयवा 
स्थानि पुङ्न एव भमन्तिमय स्यान हो है ॥5४॥। त्विषि सदसा क्रा शयन 
जनमय मौर शुक्रम हाता दं । इमक्र अनन्तर पञ्चररिमं मनोज्ञ का श्याम गृह 
हा ग्या 11८४) शृक्त काश्य स्यान जनस्य तथा पोट रद्मिक हृत्य 
म्टोण हं । नवर युनक्क्रा अभपमय लोहिते स्थान होता हं ॥८६ 
ददतां वृहृम्पयि का हूरि-आच्य सोर वृहद्‌ स्यान दहं । मण्रक्िि दृव 
गृह ट. भोर मपमयक्हा गपा हं 1७ 


स्वमानोस्तामस स्यान भूतेखननापनालयम्‌ 1 
विच्चे यास्तारका सर्वास्त्वम्मषास्त्वेकरक्मयं 11८ 
आश्रया पुण्यक्रोत्तिना सुश्‌.क्नास्वं व वर्णते । 
धनक्तायाल्मिका ज्ञेया कन्पादौ वेदनिमिता [लनं 
उच्चत्वादुरश्यते शोघ्रमभिन्यक्तं मं मन्तिभि 1 
तथा दक्षिणमागेस्यो नीविवयासमाधिते ॥८० 
भूमिनेखावृत सूर्यं पूर्णाभिवास्ययोस्नया 1 

ने हृष्यते ययाकात घीघ्रनोऽस्तमुपं तति च 154 
तम्मादत्तरमाग स्यो ह्यमावास्या निशाकर । 
दयत दक्षिणे मागर नियमाद्दृश्यते न च 11२ 
उओनिपा गर्तियोयेन सूर्याचन्द्रमखातुभी 1 
ममानपालास्तमयौ विपुवत्सु समोदयौ 1८३ 


व्यो्िमण्डन का विस्तार 1 [ ४२३ 


स्य्माुश् स्यान ताम होना है जोकि धूपो के बनता देने वण्लाघर्‌ 
दोगा है 1 समस्वत्तास्ा जो इं वे एक रश्मि वत्ति ओर गपनय जननेके योग्य 
हेन है ॥= जो पृष्व कौतिटोतेरह उनके आत्रय उच्य वर्णं से नुक्ल हभ 
करे हमीर वे घन-तोपामकर होतेह भौर यन्द क्ल़् ञादिमेहीवेद 
निमिव जानना चाहिए ॥२६॥ उच्च दहने प्त गमल्वियौ के द्वारा अनिग्यक्ति 
होरे के कारय शीन्र दिवाद्‌ दिया कस्ते ह तवा दक्लिग मार्गेन स्यिन नीषि 
वोयो मे समाधिव दोना है 1६०॥। पूिमा ओप जमावव्यामे सूयं मूभिलला 
खेतर होता है! वद ययाराल दिवलाईनदी देगाहै मौरशीघ्रहौी भम्त- 
ताकोप्र्त हो जाया करता दै ॥६१॥ दशते उत्तर मार्गमे स्यि ममववस्यामे 
नि्ताकर दक्षिण मानंमे दिकाई देतादै मौर निपमसे दिल्ललाई नही दिया 
कता है ॥९२॥ ज्योियो के गरड योने सूं भौर चनमा दोनो मातं 
„कान मे अम्तमप तया त्रिगवनतू म सतन कात मेडउदय वलि होते दै ॥२३॥ 
`उत्तया वीपियोमे जन्वर अन्त अर उद्य बावे हते ह । प्रिमा यौर जमा 
व्याने इहे रयोविश्चक्र के युवा जानना चादि ॥६४॥ 


दक्षिगायनमार्मम्यो यदा भवति रदिमवान्‌ । 
तदा सवंग्रहाणा त मूर्योश्चस्नान्‌ प्रचपं ति 115८ 
विस्तीर्णं मण्डल कत्वा तस्योद्धेनचरते शशी । 
नक्षनमण्डल कृत्त्र' सौमाददध प्रसपं ति धम्द 
वक्ष्यो वुव्रश्चो्' बुघादूदं वृहस्पतिः ; 
तम्माच्छरनश्वरष्चोर्ध तस्माघ्मप्तपिमण्डलय्‌ 1 
-छपोणाश्चं व सपताना ध्रुव ऊं व्यवस्यितः 13 
दविगुेप्‌, सहखेषु योजनाना शतेषु च 1 
ताराग्रहन्तरायि स्यु्परिष्ायवक्रमम्‌ (न 
ग्रहाश्च चन्द्रमूयौ तु दिवि दिग्येन तेजना 1 
नित्यमृक्षेषु युज्यन्ति गच्छन्ति नियनक्रमात्‌ ॥== 
ग्रहनक्षनसूर्यास्तु नोचोच्चमूद्वस्यिता । 
समागमे च भदे च पश्यन्ति युगपन्‌ प्रजाः ॥१०० 


४२४ | , { बाषु परध 


परस्परस्थिताः छ्य ते युज्यन्ते च परस्परम्‌ } 

असद्करेण विज्ञे यस्तेषा योगस्तु वै वुधैः ॥१०१ 

जिह समय रपिममान्‌ दक्षिणायन मागमे त्यि होना है उम समरप व, 
सूये समस्त ग्रहो के अधोमाग्‌ मे प्रघरपण किया करता है ।६५॥ मण्डवव 
विस्तीर्णं करके उपक उदंभाग मे चन्द्रमा सन्वारण किय करता है । समर 
नक्षत्र मण्डल चन्द्से ऊपर प्रपरपण क्रिया करता है ॥६६॥ नक्षसे उपः 
गुप्रओरवबुधसेमी ऊ्वभागर मे वृहस्पति चरण क्रिया करता है । उसे ज 
अनंश्रर आर उतपि उच्वंभागमे सक्तविपो का मण्डल चरण करता दै । सातं 
क्टपियों के ऊर धूत्र व्यवस्थित है ॥६७॥ दो सौ सद योजनो कै उपरर यथाः 
क्रम तारागृहोके जन्तर हँ ॥६०८॥ सम्य ग्रह्‌, चन्दर मौर सूयं दिवमे दि 
सेजमेनित्यदही्क्षोे युक्त होते मौर नियमकेक्रमसे जति हं ॥६६। 
अह, नक्षत्र भौर सूयः नोच--उच्चे भोर मृदु अवस्थित होने ह) ये, समाप्रममे 
ओर भेद मे एष्य प्रजा को देते ह ॥१००॥ परस्पर स्थितये परस्परम 
युज्यमान होते है। विद्वान पर्प के दवारा उन का यौग सद्धरः स्पे जानन 
चाहिए ॥१०१॥ 

इप्येप सन्निवेशो व पृथिव्धा ज्योतिपत्य च । 

दरीपानमूदयीना च प्ताना तथैव च ॥१०२्‌ 

वर्पाणा च नदोनाच येषुतेपु व्तन्तिवं। 

एते चव ग्रहा पूवं नक्षत्रेषु समुत्थिताः 11१०३ 

विवस्वानदिते पच सूर्यो वे चाुपेऽन्तरे। 

विशाखामु समुत्पन्नो ग्रहाणा प्रथमो ग्रह. ॥१०४ 

त्विपिमानु धम्मेपुतरस्तु सोमो विश्वावसुस्तया । 

पीतररिमः सम्‌ त्पत्न. कृत्तिकाम्‌, निशाकर. 11१० 

पोडशाचिभं गोः पृच्र युकः सू्यदिन्तरम्‌ 1 

ताराग्रहाणां श्रवरस्तिप्यक्ेत्रे सम्‌ त्थि. (१०६ 

दरचाद्चिरस : पुरो दादशाच्विव्र हस्पतिः। 
पातमुनीप्‌, सम्‌ त्पच्ः सर्वासु च जगद्गु ॥¶० 


ज्योतिमष्डल का दिस्वार | { ४२५ 


नवाचिर्नोदिकाद्धस्त्‌ प्रचाप्निसुनो प्रहु: 1 

आपाटास्विह्‌ पू्वानु सम्‌ त्पत्र इति श्रू ति ॥१०८ 

इनना यह आपका पृथिवी मे सच्धिरेश लौर ज्योत्तिप का सन्निवेश है । 
इमी प्रकर चे दीने का, उमुदो क्फपवतोक्ा व्यावर्णोक्मौरनदियो काहि 
जिनने षास क्षिया करते हँ। ये खव ग्रह्‌ पिनि नक्षत्रो ने समुत्थित होते हैं । 
11१०२१०३) चान्ञुप न्तर मे विवस्वान्‌ पूर्मं बदिति कापृत्रहैभार यह्‌ 
वि्तावाओौ मे उन्भन द्मा है वया खनस्त प्रडोमेप्रयम ग्रह्‌ कहा जाता 
।१०४॥ व्विविमदर धमं का पुत्रहै बौर खोर विरावमु उषी प्रकरे! 
यह्‌ गीनरदिमि निदाहर रत्ति्राजो मे समुन्न हुजा दै ॥१०५५ पोडयावि 
सगुक्ा पुत्र है मनन्र मे नयसे णक्ररैजो तारग्रहोमेश्रक्ट दै गौर तिष्य 
मे मृत्य हूमह ॥ए०्दा द्वादगाबि बूहन्पनि बद्भिराफा पुन भौर 
पतगुनो भ उपन्न हआ है तया मस्त देवो म यट जगदुगुर ह ॥१०७}) नवि 
भ््ोहिनाद् ग्रह प्रजापति का पुत्र है भौर यह पूर्वायाठ मे समुखन्न हमा है देषा 
निर ॥१०८॥ 

तेयत्तीप्वेव सर्ता स्तया सौरशनेरचर- 1 

रोहिणीपु तम्‌ त्वी ग्री चन्राकमहु नौ १११०२ 

एत्र तारग्रहाण्ैव वोदव्या भार्गवादय । . 

जन्मनक्षत्रपीडामु मानि वंगुण्यतायतः 1 

स्पृ्न्ते तेन दोपेण ततस्ता ग्र हभक्तिप्‌, ॥११० 

सवरग्रहाणामेतेपामादिरादित्य उच्यते । 

तारग्रह्रणा सक्स्तु केनुदास्येव धूमवद्‌ ५१११ 

श्रवः कालो ब्रह्मणा तु विमक्ताता चतुदि्म्‌ 1 

नक्षत्राणां श्रविष्टा स्यादथनाना तयोत्तरम्‌ ।॥११२्‌ 

वर्पाणा-चापि पन्चानामाद्यः सवत्मरः स्मृत. । 

नूना श्वििरस्यापि सास्ना माव एव च ११३ 

परक्ञाणा युक्रतरपसस्तु तियौना प्रतिपत्तया ! 

अदोरत्रिविनगानासट्स्यादि प्रकोतिनम्‌ (प्‌ 


४२६ ] [ वागु पुराय 


मू हूर्चाना तथेवादिमुहर्तो रुद्रदैवतः । 

अष्णोश्चापि निमेपादि कात कालविदो मतः ॥१११५ 

सप्तावि शनेश्वर सर है बौर रेव्तीमे ही सम्रुतन्न ह्हैः 
चद्राकं मदेनयेदो ग्रह रोहिणी मे समुद्र हूए है ५१०६॥ य मागौवादि 
ताराग्रदे जानने के योग्य है क्योक्तिय जन्मनक्षत्र पौडाभ्नोमे विगुणता को 
क्रिया कुरते है। इसके पश्चातु ग्रहमक्ति मवेउप्र दोप सेस्पशंकः 
है ॥११०॥ इन समस्त ग्रहो मे मादित्य वदि कह्‌। जाताहै! ताराग्रहा. 
शक्र ओर केनुओमे पूमवानु है ॥१११॥ चारा दिशाभो त विभक्त ग्रदौक 
ध्वे काल होता है, नक्षत्रो काञ्चविष्ठा भौर अयमो का उत्तर होता { 
11११२ पचो वर्षो म माद्य सम्बस्वर का गया है । समस्त नभौ मे विचिः 
ओर सम्पूणं मसो मे माघमास नाद्य होता है ॥1११३॥ पक्षो मे धूुषल पक्ष 
तिथियो मे भ्रतिपद्‌ भौर अहोरात्र फे विभयो मे मह मादिका गपा 
212 १४४ मूं दे अदि मुत्त स्ट दक्र डता तषण कष्ठिणेरक्ििमौ 
कालविदो मे काल माना गया 11११५॥ 


श्रवेणान्त श्रविष्ठादियुग स्यात्‌ प्ववा्विकेम्‌ । 
भानोर्गतिविशेषेण चक्रवद्‌ परिवहति ॥११६ 
दिवाकर स्म.तस्तस्माप्करालस्त विद्धि चेश्वरम्‌ । 
चतुविघाना भरुनाना प्रवतत कनिवत्तर ॥११७ 
इत्येष ज्योतिपामेव सन्निवेशोऽधेनिश्चयाव्‌ । 
लोकसभ्यवहारार्थमीश्वरेण विनिर्मित ॥॥११८ 
उप्पत श्रवणेनासौ सक्षिपचश्च धरुवे तया। 
वर्भतोन्तेष्‌, विस्तीणा दृक्षाकार्‌ इति स्थिति ११४ 
वुद्धिषनम्मगवता कल्पदौ सप्रकीत्ित ! 
सायः सोऽभमानी च सर्नद्य ज्योततिरात्मक 1 
विश्वरप प्रधानस्य परिणामोऽयमदयुत 1१२० 
नैव शक्य प्रस स्यातु याथातथ्येन केनचित्‌ । 
गत्तागत्त मनृप्येपु ज्योतिषा मासचघुपा ॥१२१ 


नोलकम्ट-म्तु्ि [ 


आगमादनुमानाच्च प्रस्यक्लदूपपत्तित्त 1 
परीक्ष्य निपुग च्या श्रद्धाठन्य विपर्चिवा ११२२ 
चञ्ु शाख जन तव्य गधितर बुद्धिनसतमा 1 
पद्वते हनवो जेया ज्यतिमं णविचिन्तने ११२३ 
र्ष्ठाके आदिने तेकर भरयङे अन्व तनर्पाचवपं कायुग होता 
दै। मानुकौ गति की वितेपसे चक्र क्ये भति परि्वात्तिव होता दै १११ 
दिषाक्रक) कान कडा गपा ई ओरखछ कौ ईश्वर जनौ । चार्‌ प्रकारके 
प्रगिर्योका यहु प्रग्र ठय निवतं दोठा है 21११७ पह इउना अवेके 
निस्वपमे ज्गोत्तियो काही सतित्रेश है ओर इषे लोक के सम्यक्‌ प्रकारसे 
व्यवहारकेलियि दगरने तित्रित्र क्रिया दै षत यड खवगसे उप तया 
ध्रयनेभ्रक्षित घब जोरत्ते अन्येन विवी वृक्त के नाक्रः जनी इतकी 
न्यििहोी दै शसा मातृ ने कम्पके मन्दि ने वृद्धि के साय इते सम्प्र- 
कौत्ति।क्जिपाहै। यह बाधय के उहिवि-मःभममनो यौर स्का उमोतियामक 
दै ॥ विश्वषू्प वानायदे प्रवान का एकं अदभुत परिणामे है ¶१२ग पह 
ज््िकेभो द्वारा यथा्स्म ने प्रतरह्माठ नही कि जाचक्डादै मनुष्यो 
मे ज्मोनिप्रो के तायत को प्रा्त-चञ्ग. ने दरा नौ नही ज सक्वाहै 1१११८ 
जपम से-पर यक्षमान मे ओर्‌ उयपरत्ति से विद्राने पुद्य को मनोमांति परीक्षण 
करके मक्ति मे श्रद्धाः केटी चार {1२२२४ चशु-खस्व-जल-चव्य गौरः 
गणि्-वद्धिषसमो 1 ये पौ देन उयो योः ङे गणक विचिन्ठनमे जानने ङे 
गोग्य ह ५१२३ 
॥1 प्रकरणं ३ २--नीचण्ठकस्तुति ॥ 
कस्मिन्‌ देदे महायुष्यमतदाद्यानमुत्तमम्‌ 1 
धृते ब्रह्यगुरोगाणा कस्मिन्‌ काले मायते 1 
एतदाद्पारि चः सम्यग. यया उत्तः तपोधनः ॥१ 
यया श्रु सया पूवं वायुना जगदायुना 1 
कथ्यमान द्विजं छ : सत्रे वपं सदसुके ॥1२₹ 


1 वपुृराण 


॥ 
येन कण्ठस्य देवदेवस्य युचिनः। 
4 यिप्यामि ग्ध्वं शनितत्रताः ।॥३ 
र्‌ दोलराजस्य सरसि सरितोहदाः। 
्योचानेपु तौ्येष. देवत्तापतनेप्‌, च । 
निरिशृद्धप्‌, तुञ्घप, गह्वरोपत्रनेप्‌, च ॥४ 
देवभक्ता महात्मानो मुनयः गस्ितवृता । 
स्तुरन्ति च महदिव यत्र यत ययाविवि ॥५ 
(छ्यजुः सामवेदश्च चरत्यनीनाच्य' नादिभिः । 
ओ द्रेण नमस्करारेरच्चं यन्ति मदा शिवम्‌ 1६) 
प्रवृते ज्योतिषा चक्रो पध्यन्याप्रो दिवाकरे । 
देवता नियतात्मान. सर्वे तिष्ठन्ति ता कथाम्‌ । 
अथ नियमप्रवृताएच प्राणमेषव्यवस्थिताः ॥७ 


चपि लोग बोतते किस देश मे महान्‌ एण्य याका यह्‌ उत्तम आख्यान हुभा ? 
हे महानु य्‌.तिवलि  ब्रह्मपुरोगो का यद ाप्यान शरिस कालतमेहुभ। है? 
तपोधन 1 यह सव हमसे मलोर्नति किए जेते मौ हभ हो 11१1. सूनजी 
ने कहा-है द्रिज्े्ो { एक सस्र वपं वति नमे इस जगतुकीथायू वागु 
के द्वारा क्थ्यमान पहले जैसा नी र्मैते सुनादहै ।)र।1 जिसके द्वारादेवोकेभी 
देष भगवान्‌ धरूली के कण्ठक नीलना हुई उत्ते मै अव कहता ह आप शसित 
मरन वाते उपे श्ववेण करौ ॥३॥ शंलरान के उत्तरमे रिवर भौर ह्वद 
द) पुष्नोचनो भे-तीरयः मे-देवताथा के भायतनोमे पर्वतो क शिखरोमेजो 
कि चहून ऊचे ह बौर गह्वरउप्वनोमे देव के भक्तं शतित प्रन वाले महानु 
मात्मा वलि मुनि लोग जहौ-जहां पयाविपि महादेव को स्तुति विया करते है 
॥४।१५॥ (कवय अौरसाम वेदौःके द्वारा, तृष्य, गौत बौर बचन दिस 
मोद्धारसः जौर नभस्वार से वदाशिव क्यौ अचा का करते ह ॥६। 9 ग्पोति- 
याकेचक्रके प्रवृत्तटटोते पर दिद्रक्ररकेम"यमे व्याप्त दौ जाने पर निपत 
यात्मा घाते देवपण मब ससक्वाकोक्टने ह । इसके अनन्तर नियमोमेवे 
"त्त दोते हि ङि उनके केवल प्राण ठी भेष व्यवसित हीने ह ॥७ 


नोलक्ण्ड-स्ुत्ि ] 1 { ५२६ 


नमस्ते नीलकण्ठाय इट्युवाच सदागतिः 1 

तच्छ्‌.त्वा भावितात्मानो युनयः शसितग्रताः । 

वालचिल्येति विस्याताः पतद्धन्रह्चारिण. धन 

अोनिनहन्रापि मुनीना मुदं रेनसाम्‌ 1 

तस्मान्‌ पृच्छन्ति बै वानु" वायुप्णान्बुमोजनाः 118 

नीलकण्ठेति वतु भोक्त स्वया पवनतत्तमं । 

एतेद्गुद्य पवि तणा धुप्य पुण्यता वरा. ॥॥१० 

तद्वय श्चोनुमिच्छमस्तवस््स्तादत्पभञ्जन ॥ 

नीलता येन कण्ठस्य कारसोनाम्विकापतेः ॥११ 

श्नोनुभिच्छामहे सम्यदट्‌ तच वक्रादिदोपततः 1 

यावद्राचः प्रवर्तन्त सार्यास्नाश्च त्ववेरिता. १1१२ 

वर्गस्यानगते वायौ वाग्विधिः सप्रवत्तते । 

ज्ञान पूर्वमयोत्सारृस्त्वत्तो वायो प्रवतेते ९१३ 

त्वयि निप्पन्दमाने तु मेषा वणेग्रदृत्तयः 1 

यत वाचो निवर्तन्ते देद्वन्धाश्च दुलेभाः 1१४ 

सदागद्वि अर्यावु वागु ने "नतत कण्ठ वालि आपके लिये नमस्कार दै 
यह्‌ कटा! यह्‌ सुनकर चतिद ब्रत वाते भाविखाला मुनिगम्‌ जो क्रि वातद्ित्य 
इपनामते दिन्पातर्ह मोर पनद्व [ शरूयं } के घह्वारी रह यौर ज्दरेठा 
युनियो मे यदूढ्ादी चट्श्र है तया केवत वायु, पतते गोर जल फे भोजन करने 
यलियेवैमअ वायते पूय द ८.६ ॥ पियो ने कठा--हे पवन सत्तम 1 
मापन अमी "नोवक्ष्डः--यह्‌ जो कटा है--ह्‌ युद्ध विय है जो पकिरों का, 
पुष्यह्तो कारुण्य एग्रे्ठदटै। टे प्रमञ्जन 1 इने हम आपको हषा से सुनने 
की इन्या करते ह जिम कारेण से जभ्िङ्ञाढे पतिकेक्ष्ठकी नीचता हृद थी, 
खाये षटु पे त्रियेय स्यसे उपे भलो-माति खग्ण करते को इच्या रखते ह ॥ 
भिचनी मी वाणी ्रहरृ्त दोक्तौ है वह जापते दारा ईस्व डोची इद घां इमा 
करदो १०-११-१२) वायु दे च्य कौर स्यान पर जनिपरवाम्‌ की 
विवि सशवृत्त होती है 1 हे वायो १ पटिने चान जोर इसके उपरान्त उन्ाइ 


४३० } [ वायुपुराण 


घापते प्रदत्त होता है 11 १३ ॥ आपके निव्पन्दमान हनि रही होपवर्णाकी 
भ्वृत्ति हमा वरती है । जहां वाणी निवृत्त हो जाती है वहां देहबन्ध दूर्तम 
होता है ॥ १४॥ 

ततापि तेऽस्ति सद्भावः सर्वेग्त्व सदानिल । 

मान्य सर्वगतो देवस्त्वहतेऽस्ति समीरण ॥१५ 

एष वै जोवलोकस्ते प्रत्यक्षः सर्वतोऽनिल । 

देत्य वाचस्पति देवे मनोनायकमीश्वरम्‌ ॥\१६ 

रहि तत्वष्ठ्देशत्य कि ढता रूपविक्रिया । 

शरुत्वा वाक्यन्ततस्तेपामृपोणा भाविनात्मानाम्‌ 1 

प्रत्युवाच मदातेजा वायुर्लोक नमस्टृतः 11१७ 

पूरा तयुगे विग्नो वेदतिणंयतत्परः ! 

वसिष्ठो नाम धर्मात्मा मानसो वै प्रजापते ॥१८ 

प्रपच्छ वात्तिवेय वै मयूरवरवाहनम्‌ 1 

महिपानुरनारीपा नयनाञ्जनतस्रम्‌ (१ 

महासेने महात्मान मेघस्तनितनि स्वनम्‌ । 

उमामनश्रहृपेण वातक छम पिणम्‌ ॥२० 

धौ =यजौवितदत्तार पावंतोटदि नन्दनम्‌ , 

वनिष्ट पृच्छते भव्या वानिवेय महावलम्‌ ।1२॥ 

दे्प्र भी बापका सदूमाष रहना हे अनित [ घाप गदा वेत 
दप्तद्म्ते वाति } टे म्मीस्य । यादे दिनि सनयवोट्भौ देव रवयत 
ल्ह ॥ १५ ॥ हे यनि! यहणोषो शा पोह सन् म्नोर ते षापं तपि 
द्रषबपहीहै। घाद दासो पथि यौरम ङे नादगरेव ईष्ए्शो वनने 
ठ १६५ भाप श्टमादर उनङे दृष्टटेशदे स्पब् [दरि दिगि कारेन 
डेट 1 प्मङ्‌ नतष मादिद्दयाप्मा दाति उद श्पिनेषेद्ष वदरो 
कनेर पोरो ष टार नमस्त पटु मेडन दुकठदापुरेदर्होमत ११५४ 
धी दादेव ते कटा--दािति समदमे डृनयुषये देङ्‌ (ष्यकषनेपधष्रप्न 
दति नामदाते दषुटय टूग्त ङो परमातमा कदाद्रगाएति ह्मानततत्रय 


नीचकूष्ठ-स्तुति 1 { ५२९ 
} १८ मदुर के श्र वाहन वाले वात्य से वष नेष्र्यायानो कि 
पहिपामुर कौ स्विगो के नयनो के मज्जन के चरि वालि दस्कर ये! जो महा- 
देन-महाल्ा बौर भेव के मजित के खमान च्वनि वत्ति. 1 उमा के मनके 
प्रदं से गवक् स्प वत्तिएवचयष्पी ये तथा क्रौदधके जीवन काहरप 
करने व सोद पार्वती के हदय को आनन्द प्रदान करने वाति ये! पैसे महान्‌ 
वत्त वा स्वामी कासिकेय चे वि मुनि पृते है मौर मक्तिकेजावके साव 
पूछने ह ॥ १६-२०-२१ १ 
नमस्ते हरनन्दाव उमागभ नमोस्तुते । 
"नमस्ते मम्निगर्भाय मज्खागर्म नमोन्ततु ते १२२ 
नमस्ते शरगर्माय नमस्ते कृत्तिकासूत 1 
नमो द्वादणनेत्राय पण्मुवाय नमोञ्स्तु ते ॥२३ 
, नमते सक्तिदस्ताय दिव्यघष्टापताक्रिने 1 
एव स्तुत्वा मदानेनं पमरच्छ शिखिवाहनम्‌ ॥२ 
युदेतद्प्यते वणं युधं युध्ा्जनग्रबम्‌ 1 
्त्किमथं समुतन्न कण्ठे कु्दन्ुसंभभ ॥॥२५ 
एतदाप्नाय भक्ताय दान्तायब्रहि च्छते । 
कथा मद्धलसयुक्तं पविना पापनाशिनीम्‌ । 
सस्परियायं महाभाग वक्त मदैस्यदेपतः 11२६ 
श्न त्वा वाक्य ततस्तस्य वसिष्टस्य महात्मनः । 
भ्रयुवाच महातेजाः सुरारिवलसूदन- 1२७ 
प्यणुप्व बदत्ता श्रो कृथ्यमान वचो मम! 
उमोत्सद्घनिविष्टन मया पूवं यथाश तम्‌ 11२ 
वसिण्जीने कटा- महदिव कते आनन्द श्रदान के वादे हे उमा. 
म ! बापङ्नो दमाय नमस्कार है। अगनिगमे बापकरे न्ि द मद्धाम ! हमार 
नमस्कार है॥ २२५ दे दत्तकः सुतर ! शरगर्मे अपके लिये नमस्कार हैष 
द्वाद नेनो वाने दधा षट्‌ मुखां वाले आपके लिय नमस्कार दै। शक्तिको 
द्यमे रडने कचे वया दिव्य चण्टा नौर पताका दले लापक्े लिये नमस्कार 


५२२ } [ वागु पुराणं 


है इस प्रकार से स्तवन करके शिखी के वाहन दाते महाहेन चे पृछा ॥ २२- 
२ धजो यहु धुभ्र मय्जन की प्रभा के समान मुम वं है वहुदरुन्द ष्व इन्दु 
के सटश प्रमा वाति कष्ठ मे नीतता कंसे उप्पनन हई है ५२५॥ यह याप्त-क्त 
दान्त तया मद्धलसे सयुक्त पवित्र बोर पाषोके नाश करने वाची क्याके 
पूदखने वातत मुभे वततादये 1 है महाभाग 1 मेरे प्रिय के लिये प सम्य ल्प 
से कट्न के योग्य होते है ॥२६॥ इमके भनन्तर मट्‌(त्मा उस्र वचिष्ठ के वघन 
षो सुनकरसुरोकेत्र.नो केवल के नाणक मटान. तेजसे यक्तं वायुने कठा 
है ॥२७॥ हे वौसने वालो मे शे! कहै जान वाते मेरे वचनकाश्वण करो 
जोक्गि उमाके गोदमे वेठे हुए मने पहिने जेता भी बुद्धसुनादै धरना 

पाल्या सह्‌ खाद भर्वस्य च महात्मन । 

तदहद्धीत्तयिप्यामि व्वस्प्िपा्यं महामुन ॥२२ 

वियुदधमृक्तामगिरत्नभ्रुपिने शिनातने ठैममये मनोरमे । 

सुखोपविष्ट मदना नान प्रावाच वय गरिप्स्यिजपुत्रौ ॥५० 

भमवेन्र भूतभव्येश गोवृपाद्धिनशासन । 

तव वण्डे महादेव श्राजतेऽम्युदमन्निनम्‌ ॥३१ 

नात्युरपरण नातिगुश्च नीलाञ्जनचयोपमम्‌ 1 

किमिद दीप्यते देव कण्टे कामाद्ध नाशन ॥.र 

कहत कारण किख वष्ट नीतत्वमोश्वर । 

एतत्सव यथान्याय व्रि कौनूटल हि मे ॥३३ 

श्रत्वा वादय तनस्वम्या पावेष्या पार्वतीप्रिय । 

फथा मप्तचयुक्ता कययामास शद्भुर ॥द२४ 

मथ्यमानेयमृते पूवं क्षोरोदे गुरदानवेः। 

अप्र समुल्वित तस्मिन्‌ विव याकानतप्रभम्‌ ॥३५ 

तष्ट मृरमद्धाश्च दैत्याप्रेव यरानने। 

विप्वदना सदे गनास्ते द्रद्योर्भःनयम्‌ ॥३६ 

विनुद्‌ मुना थोर गधिणे तेषा रानोमे भूतं दमम एव पम 
8. पिपा पर मुखपृद्र वियमः मदतदे मतो द्य षटुने वते 


नीलरण्ट-घ्युति 1 [ भ्स्द 


शम्भु से गिरिराज पुती दोतो ॥२६॥ देवी नेक्दा- दे भगवान्‌ !हिमून 
भव्येश ! हे गौ वपाद्भिति सासन ! हे महादेव । भाक कष्ठ मे अल्डरुदकेतुस्य 
भ्राजमान हेनाडहै। ट कामके अद्धके नाशन । गहन तो बत्यन्व उल्वण ही 

हैयौर न शुश्र ही है-यह नीते अर्जन के टेरक समान हदव {क्याकण्ठ 
दीप्यमान ते रदा ॥३०-द१! दे ङश्वर्ाम नीनलहोते काक्याटठुरै 
योरमकया कार है ? यह्‌ खनी यथान्याय दतलाद्य, मुके इय वात क नम्बत्व 

मेवा मादी कौनूहन हो रहा है ॥३२॥ षङ उपरान्त पर्वती को प्रिवने 

उस्र अपनी परिषा भरावंतो क्रा यह्‌ कचन. सूतकर शङ्कर नगवान, ने मद्खलसे 

सयक कया बो क्ट्ना बारम्म त्रिया या १३३ पटितर समयमे देव ओर दान 
वोकौ द्वाद क्षीरसमुद्र को मय्यमान होने प्र अर्यात्‌ मृत कं लिये उषा 

मन्थन विदे जान पर भयम उमे कति जनन के प्रमा को समान विप उल 
ह्र था ३४ ह तर आनन वालो । उको देव कर देवो के षमुदाय बोर 
देव्यो को घदूह नौ खो बहर ही विपादसे यक्त मुर वतिहोकरब्रह्मा ज 

क समीपम ग्य ॥३९५।३६॥ 


् सुरणणानु भीवाद्‌ ब्रह्मोवाच महायतिः। 
कमर्थं भो महाभागा भीता उद्विष्वचेतसः 1२७ 
मयाष्टगुणमेश्रयं भवतं सम्परकस्मितम्‌ । 

केन व्यावर्तिता गयं वं सुरसत्तमाः ॥- 

ने लोक्थस्येश्ररा मुय सवे वं विगतज्वराः 1 
भजाम न सोऽप्तीट्‌ जावा यो मे निवत्त यन्‌ 1३६ 
विमानगामिनः से सवे स्वच्छन्दगामिनः 1 
उच्यरासे चाधिभूते च अचिर्दवे च नित्यशः ॥ 
प्रजाः कर्मविपाजनं शक्ता यूय प्रवततितुम 1४० 
सक्तिं भयोद्धम्ना ममा. सिरदादता इव 1 

कि दु.ख केन सन्तापः कुतो ता चयमागतम्‌ 1 
'एतत्मर्वं यथान्यायं शोघ्रमाख्यातुपर्दथ 11४१ 


नीतङ्ग्-सुति } ॥ ४३१५ 


प्रत्युवाच महातेजा लोकानां दिततक्ताम्यवा 1२७ 
गगुध्वं देवताः सवे चट्पयश्च तोघरनाः॥ 
यत्तद् चमुखदर मथ्यगाने महोदधौ (७ 
विषं कालानलपर्यं काचद्ेति विश्रुतम्‌ 1 
येन प्रोदुमूतमानेप छनक्प्यो जनादन: ।॥*& 
द्म प्रकार त्ते महान्‌ आस्म वाले व्रह्मा जके इ वाक्च वो सुनकर उष 
उमय श्टधियो क चाय मे रह दले देव-अनुर बौर दानव मभमोने कहा 1४ 
महात्मा देन मौर बनुरो के दारा पायोवि के मन्यत किय बति पर क्यं 
तथा भौराके समान एव नीव वपं वासे मेघ के तुल्य सम्वर्वानि क्ीप्रमा 
वाला घोर विप उसे घे प्रासूत हा टै ॥४३। काल मन्यु की माति उद्भू 
बह दै जोकि युगके जनन चमथ मषदिल्य क वर्प के समान वर्नं वाता, 
च॑लोकय को उत्ादित कसे वाने चासो लोर से अनपि सू की मामावाला, 
ह प४५॥ उपर ऋानानन के नान कान्ति वाले उत्तमान्‌ विप त्तेनिदम्व 
य ओर अद्ध वाने जनादन कूनक्प्म ह्यो गवे ह 11४६॥ उन स बौरबङ्ख 
चेयुकछ जनादन को रूप्मीभूर देवशर हम चमी मीत हते हृए देवगण इष 
नमय बपृद्धौ दरण में जावे हृष्‌ है 1४४६१ ठव तो पितामह व्री्रह्याजौ नै मुर 
तपा अमुर कै इस क्चन ऋो सुनकर महाव सेजचे यक्त लोको के हि कौ 
कामता मे कहा ४51 टे नमन्त देशनामो मौरहे वके दौ घन 
चागो समस्त श्ट्पिगणो ! नुने, जो नकने पद्िने खमु मन्यन करने पर 
उपनहृभा करना है दह काने जवन के ननन दिप कालद्ुट विधत दै जितके 
नन्दने मायके हो जनादन क्न कप्य ो ग्वे परभ 
तस्य विप्गुरह्च्नापि स्वे ते सुरपुद्धवाः 1 
न शवनुवन्ति वै तोट वेनमन्ये तु णद्भरत्‌ ॥१० 
त्युक्त्वा पयगर्मासः पद्ययोनिर्योनिजः ॥ 
ततः सनोतु समारल्यो ब्रह्मा लोक्षपितामदः 1\५4 
ततत श्रीतो छं तसय बरह्मणे नुमदात्ननं । 
~> ~स वा वाचा पितामहमयाब्र.वम्‌ र 


नीलकण्ठ-स्नृत्ति ] [ ४३७ 


च्वामूतेऽन्यो महादेव विप मोदु न वियते! 
नास्तिकर्चिद्‌ पुमान्‌ छक्तख गोपेषु च मीयते ॥५६ 
एव तम्य वचः धर्‌ त्वा ब्रहपः प्रमेषठिन 1 
वाटमिच्येव तद्वाक्य प्रतिगृह्य वरानने 1६० 
ततोऽहं पाचुमारन्घो विपमन्नकसन्निभम्‌ } 
पितो मे महार विषं मुरभयकरम्‌ । 
कण्ठ ममृमवत्तृणं दृप्णो मे वरवणिनि ९१ 
ततं दृष्रोत्पलपव्रान कण्डे नक्तमिवोरगम्‌ । 
तक्षकं नानराजान लेनिहानमिव त्थिनम्‌ ।\६२ 
अथोवाच महातेजा ब्रह्मा लोकपिनामहुः । 
मये त्म महादेव कष्टनानिन नुत्रत 11६3 
तनस्नस्य वचेः श्नु.वा मया गिदिवगारमने । 
पदगता देवन दवाना दत्यान।ञ्च वरानने 114 
यक्षगन्यत्नम्‌तानां परिशाचोरयरक्नमाय्‌ 1 
पृतं कण्डे विषं घोर्‌ नोलक्रण्डस्ननो ह्यहम्‌ ॥\६५ 
छपे देकर हम प्रव सम्ध्रान्त चित्त यचेद्रेटृएषहैसोख्ते हि महप्रिव 1 
खपे लोको कौ हिनक्ामना ने पान कर नाये 1 अपि सवते पूवं मे निक्लन 
चप्तेक्ामोग करने वाति ह ओरवप्रदुप्रगरु वरदान ह १५८1 है महादेव! 
जपिक्ो द्धोडकर भ्व क्रिनीदी भौ नामव्यं नर्दीदहैजो उम चिपक्रौ सट, 
करस्के1 दसत्रलोक्री मेए्मा गक्तिशालो कोई पर्प नही दनायाजातादै 
1५८ है वरानने १ परमेष्ठी दद्याङी के इन प्रकार के वचन को सुनकर "हूत 
अच्दा--यटौ वचन क्ह कर्मने स्वीकार कर तिया था 11६०) उम मन्ति 
(सिय दिप को पोना जस्स्म कर दिया पए 1 उन मान्‌ घोरमुरोक्योमी प 
कनै वलि विपको पान क्रते दुदु नेरा वण्ठ टेवरर्यागनौ ॥ तुरन्वहोदष्य 
योययाया पादश उत्पन्न की बाना वले-क्ण्ठ मे स्प्क्त उरग की मांति- 
चरने हुए नागराज ेक्षक्न के समान स्यितर उव को देख कर पितामह दौते॥६२॥ 
इयदे उपरान्त महत्‌ तैजसे युक लोर पितामह्‌व्रह्यात्री ने क्टा-- दै मुग्रन ! 


४१६ ] [ वयु द्ृगव 


मगयन भूनमन्येत लापनाय जमन्कने। 
शिकायत मया ब्रह्य रनंव्प उद नुद्रत 1५३ 
श्रत्वा वाक्य नतो ब्रह्माप्र वुपाचाम्ुजेक्षण, । 
भूतभव्यभवतायश्रयता कारण्र ॥4४ 
सुयानुरमेथ्यमाने पयाघावस्युजशषण । 
* भगवन्मेव सदु नीनजोमूतनन्निमम्‌ ॥+५५ 
प्रादुभूत विद्र सवर्ताग्निनमय्रमम्‌ । 
कालमृत्युरिवोदूभूत युभान्नादित्यवच्वमम्‌ ॥५६ 
परंलोक्यौतमादि सू्याभि वि्छुरन्त समन्तत । 
अग्रं समस्यत तस्मिन विपद्धालानतप्रमम्‌ ॥८७ 
उङ्क इम महान्‌ वेणको भगवान्‌ विष्णु र्वै मौरसमी सुग मेंष्ठ 
अपसो कोई सहन कटने मरे समयं नहीं वरव गङ्धप्डो उमे सहनकर 
सक्ते ह ।५०॥ यह्‌ कह कर प्यगमंको माता वालो-अपोनिज भोर पद्मोनि 
लको के पितामहं ब्रह्माजी ने स्तुनि कण्ने का आरम्भ कर दिपा ॥1५१॥ दहे 
अनन्तर उन सुमहाप्मा ब्रह्मा परमे परम प्रतौ गपा मौर मृक्ष्म वाषौमे 
ने पिवामहते कहा ॥५२॥ हे भगवन्‌ ! हे भून भौर मञ्यकेस्वामिन्‌ । हे 
लौकोक नाय । हे जगन्‌ पति। है ब्रह्मद 1 आपको युस्ते कगरा करता दै 
वटे सुव्रत! वव याप मुभे वनादवे ।॥५३॥ कमन के खमान नेत्रो वानव्रह्या 
जीनेमेरेदम वि को सुनकर फिर कहा-- 11५४ सव्त्तातिनि के समान 
भभा वाला महावोग विप प्रदुभूठ हयो गया दै} वह्‌ विव काल्य, को माति 
भूत हुमा जोय्‌गकेगन- तमहो जाने वाले नादित्य के तुप वनम वाला 
भौर ब्रौलोक्य के उप्मादन करने वाले सूर्म को अमावाला है, जोकि समी योर 
विक्षेप रूप से स्फुरित है । वड कालानल के समान प्रभावाला यत्ते आगे सम्‌ 
प्यितत है ॥५५।।५६।५७॥ 
तष्ट तु वय सर्वे भोता सम्श्रान्तचेतस । 
तत्‌ पिवस्व महदिव लोकाना हितकाम्यया । 
भवानगृयस्य भोक्ता वै भवार्चैव वर प्रमु ॥ ८ 


नीलक्ष्न स्तृति ] [ ४२७ 


स्वाम्रतेऽन्या महादव विप स्येन न विते} 
नाप्िकश्चित्‌ पुमान्‌ एक्तदनावयेषु च नीयते 11 
एव तम्य व्र श्रता त्यम प्रमि} 
चान्मित्यव तद्वाक्य प्रतियृद्य वरानन 11६० 
तताऽह प्ातुमारन्धा विपमन्तश्ततिभम्‌ । 
पिवनो म महाघार पिप सुरचयक्रम्‌ । 

कण्ठ समभवत्तूण टरप्णा म वरर्वरणिनि ॥1६१ 
त दषटोत्प पनाम कण्डे नक्तमिवोरगम्‌ 1 

तक्षक नारानाने लेलिलानमिव प्थिनम्‌ ।॥९२ 
सयण्वाच मतातेजा ब्रह्मा लाक्पिनामह्‌ । 
श्योममे त्य महदिव 7ष्टेनानन मुत्रन ।+६३ 
तनम्नस्य वच भुवा मया जिदधिवग मने 1 
सदयना देवनद्धाना दयान्=्व वरानन ॥1.४ 
यक्षगन्ध गमनाना गितातचोरारक्षमाम्‌ । 

पुन कण्टे विप वार नोनर्ण्डन्नचो द्यट्म्‌ ५६५ 


चस देष्वक्र हम सदषएग्नात चित्ति वावरष्यहरहैसो उतेह शरटादेव 1 
पलो क दितङ्गामना उ एति क्९ दाहय । माप सवन प्रुव म निकलन 
चगैकामोगे क्ले बालहैँ जोर जायहाप्रत्रु वरदान है ॥५८॥ हि भादर 1 
अपि छोटकर धप त्रियीको नौ नामन्य नहींहैजो उप विपकी सहन 
रपरे) ्सभ्रेलोक्गो मना गक्तिपरानी क1द परप नही वभरापां जातादि 
1१२ ह वरानने ॥ परमतो प्द्यादाके दनं प्रकारके देवन नो मुनकर बहुन 
अर्या --यषहौ वचन कद कर न स्वीज्ञार कर तिया था 11६०! उम अन्तिक 
-नननिम विपक्तोपोना जारय बरदिपा या1 उन माद्‌ घारयुराकोना ~यं 
त्ने वाने विपको पानक्यनहूृर्मेरा क्ठ ह वर वणिना पत्रुरत्ही ह्ण 
हौ ग्याथा ॥६१ा उ पन कौ आमा वतिक्ण्ठ मे सक्त उर्यकी माति 
चाट ह नागराज तलक व समान स्थित उन का देख कर पितामह बोत।६२॥ 
षङ उव्रराठ महाद्‌ तेग ठे युन लार पितामह ब्हानी दे स्हा--दैयुत्रव 


४१८ |] [ ाषु-दुरभ 


कद्देव । याप दष नोत वर्णं यातेकण्ठमे परम शोमाक प्र होये ६।॥६३ _ 
ह गिखिविर षौ भामते । गे पचन्‌ मैने उम दप वषम गृनकट्‌ दवा 
के ममूह--दंत्य-यक्ष-गर्धवे भूत--पिएाचघ-उरग भौर राक्षसयादि षके 
देपपे हृए्‌ फिर उप्त महापिषप को कण्टमहीधारनक्रलियाया। तवसं 
हीमं नी्क््ठहो गया है १६५॥ 


॥॥ प्रक ३७ - लिङ्धोद्‌ मव स्तुति ॥। 


गुणकरमप्रमावश्च कोऽधिको वदता वर.॥ 
श्रोतुमिच्छामहे सम्यगाश्वथं गणविस्तरम्‌ ॥५ 
भव्राप्युदाहरन्तीममितिहास्त पुरातनम्‌ 1 
दिवस्य माहात्म्य" विभुत्वन्च महात्मनः २ 
पूव नं लोक्यविजये विष्णुना समुदाहूतम. 1 
वलि वद्धा महौजास्नु त्रं लोक्धाधि पति. पुराः ॥३ 
प्रणशेपु च द्यप श्रहृटे च शचौपतौ । 
अथाजम्मु, प्रमु दर देवाः सवस्िवाः ॥४ 
यत्रास्ते विश्वरूपात्मा क्षीरोदस्य समीपत. । 
सिद्ध्रह्यपयो यक्ना गन्धर्वाप्रसाद्धणाः ॥५ 
नागा देवर्पयश्चव नय॒ सरवे च प्वेताः। 
अभिगम्य महात्मान स्तुवन्ति परप हरिम्‌ ॥६ 
स्व धाता त्वच कर्तारस्य त्व लोकान सूजसि प्रभो । 
त्वप्रस्ादाच्व कल्याण प्राप्त तरलोक्यमव्थयमे. 1 
अभुराद्च जिताः सवे वलिवं दश्च वं त्वया ।1७ 


ऋषियो मे कटा~वोने वालोमे श्रे गुण-कमं मौर प्रभाव सेकौन 
अधिक! ध्म गुगोके विस्तार वाते आश्चयं को हम सुनना यहते है ॥१॥ 
श्रीमूतजी ने कायां पर इस पुरातन इतिहा का उदाहरण दते 
लिश्वम महादेव का माहात्म्य जीर उन महान आत्मा विका विभुन्व वणित 
होता है ॥र॥ परित त्रंलोक्यके विजय मे भवाद्‌ विष्णु ने समुदाहृतक्यि 


तिङ्गोद्मव स्तुति ] { ४३६ 


है॥ भोज प युक्त तं लोक्य के अवियति ने पले समय मे बलिराजा को बाषकर 
ही यह उदात क्रिय या ।३1 समस्त दंप्योके नष्ट हो जने पर शचौ के पति 
इन्दे के परम प्र देने पर इ उपयन्व इनदर के सहित उमस्त देवगण प्रमु 
के द्ेनक्से कै स्थि घाये ये 11४॥ वड्‌ विष्वल्पात्मा क्षरघागरर के समीप 
मं जषर्ये वां सिद त्रह्यवि-गक्ष-गन्पर्व-जप्बराजो के समूट्‌-नामदेधकि 
नदौ समस्त पर्व॑त गाकर महान्‌ भात्मा वाते परप हरि का स्ठवन करते र ५२! 
॥1६॥ हे परमो ! इस चमस्त पिष्वकेजपही धव्ठाहैअपही कर्ताहं जीर 
मपह इन लोकोकामूृजन क्रिया कसते हँ । बपकते प्रसादसे हो पह जत्य 
चलोक््य कल्याण को आप्त होता दै! मापने समस्त यष्रुराको जौतलिपाह 
दै भौर अगुरोकें एजावलिको भी बद कर नियः ई ॥<॥ 

एवभृक्त' सुरं विष्णुः सिद्धेश्च परमविभिः 1 

प्रत्युवाच तत देवानू स्वास्तान्‌ पुर्पोचचमः ॥< 

श्रयतामभिघास्यामि कारण सुरसत्तमाः । 

यच्छ सवेभूनाना कालः कालक्ररः प्रमु पापै 

येने दि ब्रह्मणा सादः मृष्टा लोकाश्च मापया । 

तस्यव च प्रसादेन आदौ तिद्धत्वमागतम. 11१० 

पुरा तमति चाव्यक्ते च लोकये भ्रा्तिते मया 1 

उदस्स्येष्‌, भूतेपु लोष्ट्‌ शयितस्तदा ॥११ 

सहश भूत्वा च सहलाक्षः सट्स्रपात्‌ ! 

शद्वुचक्रगदा पाणिः शयितो विमलेऽम्भसि ॥\२ 

एतस्मिच्रन्धरे दूराद पश्यामि ह्यमितप्रमम्‌ 1 

शतसूर्यप्रतीकाशं ज्वलन्त स्वेन तेजसा ॥१३ 

चतुवेक् महायोग दूरय काखनप्रभम्‌ । 

निमेषान्तरमातरेष प्राप्ोऽखौ प्‌ स्पोत्तमः ॥(१४ 

इ प्रकार क्ट हुए सुर-्िद बौर वह मर्हपियो के ढारा स्तुवे म~ 
भानु विष्टर पुख्पोत्तम समस्त देवो से कह्ने सये ॥*४ हे सुरसत्तमो 1 इदङा 
कारणं म वेठाऊप्ा जाद सव सूनियि। जौ समम्तप्रागियो क परूजन कएने 


४८० [ वायु पुरान 


व्वालादहैवह्‌कोालकोभी क्ग्ने यालाप्रमु काल टै ॥६॥) जिमत्रद्ाके साच 
-मायापते चाक का सृजन क्या यया उनी के प्रमादने आदिमे सिदत्वको 
साया ॥1१०॥ पटिति बव्यक्त तममे मेरे द्वारा प्रलोकय वै ग्रासित होने पर उस्र 
समर समस्त प्राणिपो क उदरस्यहोने परर्ग सोकमे श्रयन करने बानाथा 
५११॥ म उस समय सट धीर्पो वा्ता-खटत ते मे युक्त तथा महम चरणों 
वाना यख-चक्रण्दा हयो मे लिये हए विमल जवम शयनं क्रताया) 
॥5२। दमी वीच मे दरूरसे भमित प्रमा वाने तथा एक शत सूर्यो के प्रती 
काश अपने ही तेज सेञ्वननन होते हुए वारमुखो वाले-महाद्‌ योगसे युक्त 
मुवणं कै जनी प्रमा ते परिषूणं कृष्ण मृग चर्मंधारी-बमण्डलु से मूषित देव पुर्य 
को देलता हं जोकि एक निमिपमे ही यह पुष्योक्तम प्राप हो गवा 41१ 


तततो मामरचीदुब्रह्या सर्वलोके नमर्हृनः । 
कस्तव कुतो वा किर्चेह तिष्ठते वदमे विभो ॥॥१५ 
अहं करत्ताऽन्मि लोफाना स्वयम्भू विश्वतोमुखः । 
एवभुक्तम्तदा तेन ब्रह्मणाटमुवाचनम्‌ ॥॥१६ 
अह कर्ताच लोकाना सहर्ता च प्न पुनः। 
एव सम्मापमाणाम्या परस्परजयेयिणाम, 1 
उत्तरा दिशमास्थाय ज्वात्रा रष्टाप्यविषटिता ॥१७ 
उयातन्तततस्तामरालोक्य वित्तिमितौ च तदानयोः। 
तेजसा चेव तेनाय सवं ज्योति.कृत जलम्‌ ॥१८ 
वद्धंमाने तदा वद्धावत्यन्तपरमादूभते । 
सिदुद्राव ता ज्वाना ब्रह्मा चाहर्च सत्वर. 1१४ 
दिमरमूमिर्व विष्य तिष्ठन्त ज्वराठमण्डतम्‌ 1 
तस्य जातस्य मध्येतु प्यावो विप्‌ लप्रभमे ॥२० 
प्रदिशमात्रमव्यक्त लिद्ध परमदीौपिम्‌ 1 
नच तत्वास्वन मध्येन शेलन च यजतम ॥२१ 
गक वनन्नर सम्हल लककांदे दारा नदन्डरत भवत्‌ वन्दित ब्रह्याभी मे 
गछ --टे दिनो [अवि कौनेदै-दांने बौरवपरो यहां स्थित ई, मुभे 


विद्धोदमव-स्टुचि ] [ भद 


दवलादपे ॥१४॥ सै चो समस्त लोगो का कर्ता हूं मौर विरवतनोमुख स्वयम्मू 
हं । इव प्रकारसे उच ब्रह्य केदारा क्टै गये मैने उनसे कहा--॥१६९॥ इन 
समरस्ठ लोको का मनन करने बाना वथा संहार क्से वाला ओर वार-वार 
दषाहोषरतै रहने वाला है) इस वरह छे जाप में सम्मापण करते वत्ति 
दोनो के, जौक्रि परस्तर्मे जय प्रा्तकणे की शच्या वत्तिये उत्तरद्ितामे 
वास्थित होकर मधि ज्वावा देखो गई ११७११ ज्वाता के मध्य हे उसको 
देखकर षस्मिते हुए 1 तव इन ठे से खव सल ज्योतिद्धच होगया ॥१८॥ उप॒ 
समम अत्यन्त एवं परम भदुषुत वद्धि के बडजाने पर प्रा भौर मैने शीघ्रता 
ठे च्छ ज्वाला ऋभ्व क्रिया ॥1१६१ दिव ओर नूनि को दिदवन करके 
स्प दुमे वाति उप॒ जालामो के मण्डल के मव्य येंएक चिपुत प्रमा वाते 
शु को दम दोनो देखे ई ॥२०॥ वहं प्रादेश मात्र मत्यन्त दोपि अव्यक्त 
चगि था 1 नठो कषत घा,मध्य मेन राउत (बीका ) चैह 
भा ५२१५ 

अनिद ्यमचिन्त्यञ्च लघ्यालक्षय' पुनः पुनः 

मदौजस्र' महाघोर वद्धंमानं भूल तदा । 

ज्वालामालापत्त न्यस्तः घर्वशूतभयद्भरम, ॥२२ 

जस्य लिङ्गस्य योऽ च गच्ठते मन््रकारणम्‌ 1 

धोर रूपिणमत्यथं सिन्दन्तमिष रोदवी ॥२३ 

ततो मामत्रवीदतब्रह्या अधौ गच्छ त्वतन्दितः। 

अन्तमस्य विजानीमो सिद्धस्य तु महारमनः मर४ 

संहे मद्ध्ये यमिप्यामि यावदन्छोऽस्य ग्यते । 

तदा त्तौ समय छृत्वा गत्‌ द्देमधस्च हे ॥२९ 

ततो वय॑खहत्नन्तु मह्‌ प्‌ नरधो गतः! 

न चं पष्यामि तस्यान्त भीतश्चाह्‌ न सशयः ॥ ६ 

तया ब्रद्या च श्रान्तश्च न चान्तन्तस्य प्यति । 

सस्रामृतो मया सादं चवं व च मटाम्म्ति 11२७ 

तड दि्न्यनापननावुम वत्य महात्म ? 

मायया मोहितौ तेन नष्टसन्नौ व्यवस्वितौ एर 


५५९ ] “ { वादुशुरण 


वद्‌ धनिरेश्य भोर न चिन्तन कटने के योग्य तया वार-वार तद्यस्य 
था । महान भोज से युक्त- महाघोर मौर उस सभय वहत हौ मधिक वहने वाता 
या 1 उ्वालामन्ता जता आयत्त एव न्यल्न तया समत्व प्राणिर्यो फो महा भद्र 
था॥२२इप तिज्ग के जोच^्ततहजातादै उसका कारणम्र्र ढीषटै। 
वह्‌ षत्मन्त घोरस्य धारै टेषाया मानों सेदद्ी का भेदव करता हमा 
॥२३॥ इ के अनन्तर त्र्या ने मुक्ते कहा कि माप बततन्दित होते हृएु नीचे 
फ़ ब्नोर जावे । इस महात्मा लिद्घ का अन्त हम जान लेवें ॥२४॥) म कपर 
के भागे जाताहूँजव तककरि दक अन्त दिखाई देता है । तव उप्त समय 
वस प्रकार से वायदा करके उदष्वेमाग मे तथा अधोभाग मे रथे ॥२५॥ सके 
प्वातु एक सहसे वपं त्क भै वहाँ नीचे के भागमे गया था । वहां र्येने उक 
कहौ मन्त नही देलाबौर अभीतो गया--हसमे दुभ सश्यनहीदहै 
॥२६॥ उसो प्रकार से ब्रह्मा भी श्रान्त हो गये भौर वह्‌ भी उसका घन्तनही 
देखते दै मीर मेरे साथ उसी महाजल मे वापिस बागे ये ॥२७॥ तब हम दोनो 
खस महात्मा के विषय मे परम आश्चयं को प्राप्त हृए मौर उघके द्वारा माया 
से मोहित हो गये एवं नष्ट न्ना वाते होकर ध्यवस्थित हो शये ये ॥२०॥ 

सेतो ध्यानगतन्तत्र ईश्वरं सवंतोमुखम्‌ 1 

भ्रभव निघनश्चं व लोकानां प्रभुमव्परयम, ॥२२ 

परह्याञ्जलिपुटो भूत्वा तस्मै शर्वाय गलिते 1 

महाभैरवनादाय भीमरूपाय दष्टिणे। 

अव्यक्ताय महान्ताय नमस्कार प्रकरुमहि 1३० 

नमोऽस्तु ते लनोकघुरेथ देव नमोऽप्तु ते भूतपते महांश्च 1 

नमोऽस्तु ते णाश्वत्त सिद्धयोने नमोऽस्तु ते सर्वेजगत्प्रति्ठ ॥\१ 

परमेष्ठौ पर ब्रह्य अक्षर" प्रम पदम्‌ : 

श्र स्त्वं वामदेवश्च शरः स्कन्दः शिवे. प्रभुः 1३; 

स्व यज्ञस्त्वं चपद्‌कारस्त्वमो्खारः परः पदम्‌ । 

स्वाहाकारो नमस्कारः स्कारः सर्वकर्मणाम्‌ ।३३ 

स्वधाकारश्य जाप्यश्च रतानि नियमास्तथा । 


लिङ्खोदृमष-स्तुति 1} { ५४६ 


वेदा लोकाश्च देवाश्च भगवानेन सर्वशः 1 
आकाशस्य च शब्दस्त्व मृतानां प्रभवन्ययम्‌ | 
भूमेगेन्धो रसश्चापां तेजोरूप महेश्वर ३५ 
इघके अनन्तर वहाँ पर घवंदोगूख ईश्वर के ष्यानगत हुए जो सोक कते 
भ्रमरव तयां निधने एव अव्यष्ट प्रमु ये ॥२६) तव ब्रह्माजी भञ्जतिपुट वासे 
होकर उन॒शर्थ--गलधारण करने वातते--महाचु भरवनाद वाले--मीम ङ्प 
धारौ- देष्टृ वलि-अश्यक्त मौर महान्त के लिये नमस्कार कसते ।२०५ दे 
सोक धरेश ! दे देव ! माफ्करे तिपि नेभ्तार दै । दे यूतो फ पठि) हे महान्‌ 
बपकं किये नमस्कार है 1 दे सार्वत { हे सिढयोनि { जापकं तिमे हमारा नम- 
स्कार है 1३१५ बाप परोधो-पस्रह्य-क्षर ओर परम ष्ददह ।भष्पभरेष्टहै। 
यप्रदेव-ह्र-न्द-शिव भौर प्रमु है ।1३२॥) माप यतत है-वपटकरार है-मोद्धार है 
भौर परमप्रददहै। मापहो स्वदार ह । नमर्‌ ह 1 जप्य ह-मापही त्रत 
दै मौर नियम स्मह । वेद गौर्‌ लोक तथा देव सौर पत अकर ते मगदनु है 
लाप ॥२८॥ अपद्‌ आकाशके षएव्दह मौर आप प्राणियों के प्रमेव ता 
बध्यं । भूमिक गन्वजलाके रव मौरतेनकते रूप [ है महेश्वर { पह्‌सव 
माही हैर 
वायोः स्यश्च देवश्च वधुश्चन्द्रमस स्तथा ! 
युधो ज्ञानश्व देवेश श्रत चीजमेव च ।३६ 
स्व कर्तां सवेभूनाना कालो मृद्युपंमोऽन्तकः { 
स्वं घारयति लोकास्नीस्स्वमेव सृजति प्रमो ॥३७ 
पूर्वेण वदनेन स्वमिन्देत्व प्रक्षे 1 
दक्षिणेन च वकेण लोकान संक्षीयते प्रमो (1३८ 
पर्िचिमेन तु वक्रण वर्णत्वं करोपि वै 1 
उत्तरेण तु वक्रेण सौम्यत्वख व्यवस्यितमु ॥३९ 
राजसे बहुधग देव लोकानां प्रमवाग्ययः । 
जादिष्या कसो रद्रा मल्तस्वाशविनीुतौ ॥४० 
साध्या विसार नापाश्चारणाश्च तपोधनाः 


४४४ ] [ शमु पुर 


वालखिल्या महात्मानस्तप. सिद्धाश्च सुत्रता. ॥४१ 
त्वत्तः परसूता देवेश ये चान्ये नियतव्रताः 1 

उम सीता सिनी वाली कुटूर्गायत्रिरेव च ॥४२ 
लक्ष्मीः कौत्तिषूं तिमेधा लज्जा क्षान्तिवेप्‌.; स्वधा। 
तुष्टिः षष्टिः क्रिया चैव वाचा देवौ सरस्वती । 
वत्त. प्रसूता देवेश सन्ध्या रात्रिस्तथैव च ॥४३ 


चायु कास्पशं,देव तथा चन्धमा कावपुञपदहीर। ुघ-क्ञान भौर 
परकृतिम वीज भीहेदेवेश1बपही ह 111६॥ भाप समस्त प्राणियोके कर्ता 
काल-मृदधु-पम मौर अन्तक घापहीरह। भाप हन तीनों लोको को घारण क्रिया 
करते ह भौरि प्रमो ! सापहौ इनका स॒जनभीङक्ियाकरते ह \॥२७॥ भाप 
पूष वदनि इन्द्रत्व का प्रकाश करते है, दक्षिण वक्ासे हि प्रभो 1 भाप लोको 
कासक्षयक्िया करते द तथा पर्चिम वक््रसे वर्णत्व को करते भौरमभा, 
शपते उत्तर वक्ष से सौम्पत्व की व्यवस्था करते ह ३९।३९॥ हे देव ¡ वषा 
लो्ौका प्रभवृष्यय मादित्य-वमु-मदन मौर मश्विनौ सुतर ॥४०) तपा 
साध्य-विधाधर-नाग-चारण, तदोधन वालविल्य-महारमा-तप सिद्ध भौर भुव्रत वे 
सव हे देवेण ! तथा मन्य नियम व्रतत वाते बाप्ते ही प्रमूत हए ह । उमा-सीता 
सिनीवाली कुहू-मायतरो-लपी-कीति-पृति मेधा-लञ्जा-वपु स्वघा-तुषटि-पष्टिक्रिष 
मौर वाभिर्योको देवौ सरध्वठी-सण््पा तया रप्रिये तभी दहे देवेश | भाषते 
ह प्रमूत ह ॥४१।४२।१४३॥ 

मूर्पाुतानामयुतप्रमा च नमोऽस्तु ते चन््रसदस्रगोचर । 

नमोऽस्तु ते परवेतरूपधारिणो नमोऽस्तु ते सवंगुणा कराय 11४४ 

नमोऽस्तु ते पद्‌टिगरूपधारिणो नमोऽस्तु चमेविभूतिधारिरो । 

नमोऽस्तु ते स्देिनावपाणये नमोऽस्तु ते सदायवचक्रधारिणो ॥; 

नमोऽस्तु ते भ्मविभूविताद्ध नमोऽस्तु ते वामधरीरनाणन। < 

नमोध्तु ते देव हिरण्यवातते नमोऽस्तु ते देव हिरण्य गाये ॥1४६ 

ममोऽम्तु ते देव हिरण्यस्य नमोस्तु से देव हिरण्यनाभ । 

ममोपम्तते नेधटखचिप ममोऽम्त ते देव द्िरष्यरेतः ॥9७ 


लिद्धोदुमवस्तृति 1 [ ४९५ 


नमोऽस्तुते देव दिरण्यव्ं नमोऽस्तु ते देव दिरण्यगभं 1 
नमोऽस्तु ते देव हिरण्यवीर नमोऽस्तु ते देव दिर्यदायिने 18८ 
नमोऽस्तु ते देव हिरण्यमालिन नमोऽ्सतुतेदेव दिरण्यवादहिनि 1 
नमोऽस्तु ते देव दिरण्यवत्मने नमोभ्टु ते मैस्वनादनादिने ॥४्य 
(नमोश्स्तु ते भेरवदेगवेग नमोऽतत्‌, ते शदधु-रं नोलकण्ठ 1 
(लमोज्तु तं दिव्यहलवाहो नमोसत, तं नर्तनवादनप्रिय 11५९ 
हे चन्दरषद्र मोचर  अधुव पूया जहो मयुठ भरमा है मापके तिये 
नमसकार है1 पर्व केरूपको धारण कणे दाति तथा समस्व के माक 
रके न्ये हमारा सवका नमस्कार हे ॥४५॥) पटूटिव स्प के घारो तया चमं 
बौर विमूति के पारण कएने वति आपके तिये नमस्कार है 1 ष्ट पिनाक्पाणि 
क {त नमस्कार है ठथा खारे भस्य ये विमूषिठ मद्धो वाते देदेव! हं ` 
दिर्वनाम 1 मापङ़े लिये हमारा नमहर है। दहे कामके शरीर कोनादा 
से वाचे ! याप तवे हमाया नमक दे । हे देव {नेव सवित्र 1 
६ हिरण्यरेवः ! हे देव ! मापे लिये नमस्कार दै प४दा४७१ हे हिरण्य- 
वर्णं { हौ हिरण्यगर्भे ! दे देव 1 यापे सिये नमस्कार है 1 हेहिर््य चीरदेव ! 
दिरण्यके देने वाते सापे लिव नमस्कार है ॥४९॥ हिरण्य कौ माषा बाले 
मोद हिरण्यवाही भाप चवे दिदेव { हमारा नमस्कार है । भैरवनादके 
नादो त्रया हिरम्यदरम राड त्थि दिदेव १ हमारा नमस्कार दै 1४६। ह 
भरव वेग ! हे नीलकण्ठ ! मापङे विये हमारा घवा नमस्कार दै। है दिव्य 
सदृस्रबराह वाटे 1 हे नृस्य मौर वादन पर व्यार करने वत्ति ! नाप के लिये 
नमस्कार है ५० 1) र 
एवं संस्तूयमानस्तु व्यक्तो भूत्वा महामतिः 1 
भातिदेवो महायोगो सूं कोटिसमप्रभः १1५१ 
अभिभाप्यस्तदा हृष्टो महादेवो मदेश्वरः 1 
वक्रकोटिसटलरेण ग्रखमान इवापरम १५२ 
एकम्रोवसतवेकजटो नानामूषगभ.पितः 1 
नानाचित्रविदि्राड्‌ मो नानपमात्यानुलेपनः ॥\५३ 


६ 1 { बापु पुरान 


पिनाकपाणिभं गवानु दृपमाषनधूलवृक्‌ः । 
दण्डङृव्णानिनधरः कपालो धोरट्पदक्‌ ।।५४ 
व्यालयज्ञोपवीती च सुराणामभयद्धुरः1 
दु्दुभिस्वननिर्घोपपजं न्यनिनदोपमः । 

मुक्तो हासस्तदा तेन नभः सर्वं॑मपूरयत्‌ ॥५५ 
तोन शब्देन महतः वय भीता महातमनः 
तदोवाच महायोगी ग्रीतोऽह्‌ सुरसत्तमौ १५६ 
पश्यैता महामाया भयं सवं प्रमुच्यताम्‌ । 
युवा प्रसूती गात्रेषु मम पूर्वेतनातनी ॥५७ 


दव भकार मलौ भाति स्तुति क्वि जाने वालो मामति ध्यक्त हो कर 
महायोगी भौर करोहो सूं के समान प्रभावाटो देव शोभा देते हँ ।५१॥ उघ 
क्षमय प्रपन्न महैश्वर महादेव अभिभाषण करने के योग्य चे । उस समय व्‌ 
ते प्रतीत हो र्दे ये जै समो करोढ मुखो ठे मपर फो प्रमान हो रदे दौ 
५१५२ एक रीवा बाले-एक जशघारी-अनेक मूपित-नाना वितो ते विचित्र 
ङ्ग वालो बौर मनेक प्रकार की माल्य चथा यनुलेपन से युक्त -पिनाक कौ 
हायभे लिये हृए- वृपम के आसन पर शून को धारण करने वारो ठया दण्ड 
मौर प्य थिन को धारण करे वाले, कपालो भौर घोर शूप को रखते वाल 
रिव ६ ॥५३।५४॥ व्याल के यश्ञोपवीठ को परहिने हए भौर देवो को धमय 
कादानदेने वालो तथा दुन्ुभिको ध्वनिक समान शब्द वालो एव मेषी 
मर्मेना कै सदृश ध्वनि से युक्त उन शिवने उप्र समय हासं षोड पा जिषे 
समस्त माकातमण्डल प्रित हो गया च ॥५५।१ उम समय में उप हाक 
हाद म्द चे जोकि उन महमा ते किया या हम छव दद्‌ गये । ठव महायोगी 
घोल है सुर सत्तमो ! प आप्ते प्रपन्न {ह ।॥५६॥ महामाया को देषो भौर, 
खमस्द मय दे र्या करदो । तुम दोनों खनातन मेरे गार मे प्रयूत हए हो ।4६; 

जय मे दक्ञिणो बाहूब्रं ह्या लोकपितामहः । 

वामो वाहश्च मे विष्णुनि्य" युद्धंपु तिष्ठति । 

भ्रीतोऽट्‌ युवयोः सम्यवर ददिम यथेप्ितमु ॥५८ 


िपोदरमव-सृति ] [ ४५७ 


तततः प्रहृष्टमनसौ प्रणतौ पादयौः पुनः 1 
ऊचतुश्च महात्मानौ पुनरेव तदानघौ 11५६ 
यदि प्रीषठिः समुत्पन्ना यदि देयौ वर्च नौ1 
भक्तिं वतु नो नित्यः त्वयि देव सुरेधर 1\६० 
एवमस्तु महाभागौ सनता विविधाः प्रजाः। 
एवमुक्त्वा स भगवांस्ते बान्तरथीयत 1६१ 
एवमेप मयोक्तो वः प्रभावस्तस्य सोनिनः1 
सेन खवेमिद' सृष्ट हेतुमा्ा यन्त्व्‌ ॥६२ 
एतद्धि खूपमन्ञातमव्यक्त शिवसन्तितम्‌ । 
उतिन्त्य' तदददयन्च पश्यन्ति जानचकृपः 11६३ 
तस्मै देवाधिपत्याय नमस्कारः प्रयु ह] 
येन सृक्ष्ममचिन्त्य प्यन्ति ्ञानचश्ुपः 11६४ 
यह लोकपितामह ब्रह्मा मेरा दक्षिण वाहू है! विष्य मेरा र्वाया बाहू 
है जोर्निलय द युद्धो मे दत्तमान रहा करे द । म जाप दोनो ते परम 
पसन ह मौर नापको यथोचित वरदान देना है ५२) दक ननन्तर दोनो 
ही प्रहष्ट मन प्रणत हए मौर स्रिचरणो नें पिरगये महान्‌ जसा वाहो भीर्‌ 
दाष रदित उन दोनों ने किर कटा-१५६॥ हि सुरेष्वर ! हेदेव 1 पदि मापे 
हृदयम हमारे प्रति प्रीति उत्पन्न हो गर्दै ओर हम दोनो को वरदान देनादै 
तोम यहो चै है क्रिहमदोनो कौ जापक चरणो म नित्य नक्ति दोषे 
{1६०1} श्रोमगवान्‌ ने कटा--दे महान्‌. माग, वादो! रेषा ही देवे 1 मबनाप 
दोनों अनेक भरकारकी अनाज कानन करो ! रेखा कह कर मगवान्‌ वरहा 
परही जन्दर्घान हो गये ये पद्व इव प्रकारसेयेरेद्राण उन योगीषा 
भ्रमाव सपक सामने कटा गया है । उने षो यहसद भृजनक्िपादै, हम तो 
केवल देतूमात्न ही है ॥६२॥ यहं शिव इत उना दाला खूप नन्यक्त एव यति 
दोचा है \ वह्‌ खूप चिन्तन करने के योग्य नदीं है जौर ब्व्य भीष नकं 
चशुबालै दी उनेदेवा करे ईह 1६३0 उष देवो" के नयिपठि के ५५ 
का श्रयोग कने है छठे जान की चनु वाये उश सूक्ष्म वा ॥ 
क लिये योम्यकरो देडा कूठ ॥६४॥ < 


४४ | { वागुुराय 


महादेव नमस्तेऽस्तु महेश्वर नमोऽस्त्‌, ते 1 
मुरासुरवर श्रं्ठ मनोहंस नमोऽस्तु ते ॥६५ 
एतच्च, वा गता सरवे सुरा स्व स्व निवेणनम्‌ 1 
नमस्कार प्रयुञ्जाना शद्धुराय महात्मने ॥६६ 
इम स्तव पठेद्यस्तु ईश्वरस्य महात्मन. } 
कामाश्च लभते सर्वानू पापेम्यस्तु विमुच्यते ॥६७ 
एतत्सर्वं सदा तेन विष्णुना प्रभविष्णुना । 
महादेवप्रसादेन उक्त ब्रह्म सनातनम्‌ 1 

एतदः स्वेमाष्यात मया माहेश्वर वलम्‌ 1६५ 


है महादेव ! ह महेश्वर 1 आपके लिये हमारा नमस्कार है । है चुराषुर 
वर। हे धे्ठ! है मनोह्‌स 1 आपके लिये नमस्कार दै।(६५॥ शरी सूत जी 
ने फहा-यह श्रवण करे समस्त देवगण अपने अपने निवास स्थान को चते 
गये भौर जाने कै समयमे सव महात्मा शद्भुर के लिये नमस्कार करते हए पे 
ये ॥६६॥ महान्‌ घ।टमा वति ईश्वर केम स्तवकोजो कोई पठता दै वह 
समस्त कामनाओं को प्राप्त्या करता है भौर पम्भणं पापो से छ्ुटकाराथा 
जाता है ॥६०।। उन स्वं षद! तत प्रभविष्णुं ने महादेव के प्रसाद से सनातन 
ब्रह्म कहा है । यह्‌ सब माहेश्वर के वल से भाप भने कह दिया ह ॥६८॥ 


1 प्रकरणं ३८--पितर-वर्णन ॥1 


अगात्कथममावास्या मासि मासि दिव नृप । 
फेल. पुरूरवा सूत कथ' वऽनपंयव्‌ पितर.न ॥¶ 
तस्य चाह्‌ प्रवक्ष्यामि प्रमावे शाशपायन । 
पिलस्यादित्यसयोग सोमस्य च महात्मन ॥२ 
अपासारमयस्यन्दो पक्षयो शुक्लङकप्णयो ॥ 
द्ासवृद्ीः पिटरूमत पक्षस्य च विनिणंय ॥३ 
सोमा वामृतध्राप्ति पिदर.णां तपेण तथा । 
सचव्याग्केशात्तसभिामाषणाप्वेव त्थः गः 


पितग्वणेन ] [ ५४६ 
यया पुषूरवाश्चं लस्तपं यामास वै पित्रूनः 
एतत्सर्व प्रवक्ष्यामि पर्वाणि च यथाक्रम 1 १५ 
यदा सु चनद्ूरयौ तौ नक्षत्रेण समागतौ 1 
जमावास्यानिवश्षत एकराप्र कमण्डते 11६ 
सगच्छति तदा ब्र दिवाकरनिशाकरौ । 
अमावस्याममावात्यां मातामहपितामहौ । 
अभिवाद्य तदा तन कालयेक्ष- प्रतीक्ष्यते ॥७ 
श्रौ शाशपायन ने कदा--दं सतनी ! राजा रेल पृषुस्वा माब-मास 
पं यमावस्यामे दिवमे कंते गया आर किष प्रकार से वहीं पितरो को तृत 
स्था चा 1 सूतनी ने कडा--दे पान } त उक भ्रमाव को वता ग 1 
लका धादिव्य छे चाय ठया मदात्मा चन्द के साथजो सयोग हुमा बह भी 
बताया जापमा ए२॥ जलौ का सारमय जो चन्द्रमा दै उषक्राङृष्ण ओरभुक्ल 
पक्षो म ह्ाष मोर वृद्धि हमा करती है 1 यह पक्लका विष निर्णय पितृमत 
ह।३)॥ सोम घेहो यमव को प्राति हा वास्त है ठया पितो का दन 
होवा दै ५४॥ दप प्रकार से पुरूरवा रेख राजा पियो को वृति किया कता 
था। यहस्वघोर क्रमक अरनुलर पर्वोकोर्भ वतलाऊगा पा जिस समय 
चे दोनो चन्दर मौर सयं नक्षव्रसे समागत हेते है तो भवानस्य मेफकरत्रि 
तङ मण्डल तं निवा किया करते है 116 उख समध वह्‌ दिवाकर शौर नि्ा- 
करका दलन प्रात कसे द्धे क्पे जाता हं । माव्य मे माता- 
मह्‌ मौर पिता मह्‌ को अभिवादन करके उख समय वहां पर कालकौ भपेक्षा 
वाला प्रतीक्षा किया जाया करदा ह १७1 
प्रसोदमनान्‌ सोमाच्च पित्रतत्पस्खिवात्‌ 1 
देः पूसा विद्वान्‌ मासि मासि भ्रयलतः1 
उपास्ते पितृमन्त त ससोम' ख दिवास्यिनः पल 
द्विलव कुहुमान तुते उभे तु विचार्यं खः। 
विनी वालीप्रमाणोन सिनीवालीमुपासक ६ 
कुहूमए्ा कलां व ज्ञायोपास्ते कुहु पनः! 
स तदा भावुमत्येक कालयेक्षी प्रपश्यति 14० 


५५० 1 [ वायु परा 


सुधामृतः कुतः सोमात्‌ प्रच्वेन्मासवृप्तये 1 

दशभिः पञ्चभिषएचं व सुधामृतपरिखवै. ॥११ 

कृष्णपक्षे तदा पत्वा दुह्यमानं तथाशुभिः । 

सद्य पक्षरता तेन सौम्येन मधुना च सः ॥१२ 

-निर्वापिणाथः दत्तेन पितरेण विधिना नृषः। 

सुधामूृतन राजेन्द्रस्तर्पयामास वै पित्र नु । 

सौम्या बहिपद कान्या मगिनिष्वात्तास्तयव च ॥१३ 

ऋतुरग्निस्तु यः प्रोक्त" स नु सवत्सरो मतः । 

जश्ञिरे ह्य.ववस्तस्माटतुभ्यश्चात्तवाएच ये ॥१४ 

्रसौदभान भर्थावु भ्रसन्नता प्राक्त हुए सोमे पिसो"के लिये उसके 
परिचर मे पेल पुरूरवः विदान मात्त-माष मे प्रषल्नके साय वह दिवमे या 
विस्त होता हुम! ससोम पितृमान्‌ उस को उपाघना कमता है ॥८५॥ दो खव 
गुहुमात्र वे दोनो विचार करके बहु सिनीवाली प्रमाण से सिनावाली कापा 
सक होता दै 1॥६॥ बहुनात्र मौर कलाको जानकर फिर कुह की उपना 
फरता है। वहु उस समय मे भानुमान में एक काल की अपेक्षा कटने वाला 
भ्रक्पंसूपसे देखतादै ॥१०॥ मास तृक्तिके लिये वहा सोमस सुप्रगृतका 
भर्व होता है। दशसौर पांच सुधागृत परिघ्वोस प्राप्त करता रै ॥११॥ 
उस्र समयङृष्ण पक्ष मेअशुजो षे दुह्यमानकोपीकरसय वह्‌ उक्त सौम्य 
सधु से पक्षरत होता है ॥१२॥। वह राजा मित्र दिये हृएसे जोकि निर्वारणके 
लिये दिया गया है, विविक्त राओ सुषरामून के द्रा पितरो कोत्र 
कथा करता या। उसमे सौम्य-वहिपद-काव्य मौर भगनप्वात्तये सभी 
है ॥१३। ऋषु भन्ति जो कहा गयाहै, उसके छवुए्‌' उत्पन्न हई बीर 
च्छतुमो सेये बा्तव उत्त हुए है 1१४) 


आर्तवा छ्यद्ध मासाख्या पित्रो ह्यन्ददरूनवः 1 

ऋतु. ततामह मासा तुदचं वाव्दसूनवः 1१५ 
भ्रपितामहास्तु वं देवाः पच्चाब्दा ब्रह्मणः सृताः । 
सौम्यास्तु सौम्यजा ज्ञेयाः काव्या क्चेयाः कवे द्रुताः ॥१६ 


पितर वर्णन 1 [ ४५१ 


उपहूता स्पृता. देवाः सोमजा. सोमपास्तया 1 
आग्यपास्तु स्मृता कान्यास्तृष्यन्ति पिवृजातम ॥१७ 
काव्या बाहपदश्येव अन्निप्वातताद्त ते त्रिधा! 
गृहस्या ये च यज्वाना तुदं हिपदो ध्रचम्‌ ५१८ 
गृहस्याश्च पि यज्वाना अभिनिप्वात्तास्तयाततेवाः 1 
उष्टकापतय काव्या पच्छा-दास्ताचिवोधत 114८ 
एपा सवत्सरे ह्यग्न सूर्स्तु परिवत्सर 1 

सोम इत्सर भक्तो वायुरं वागुवल्सर 1२० 


जो बात्तंव हवे अर्थ॑मास नाम वाह 1 पितर मन्द केपुषरटै। तु 
के पिदामह माखर्ैमीर च्छु अद सूनु टै ॥1१५॥ नके प्रपितामहे घोत्र्या 
के पुर देव पञ्जा ल्द ह1जो सौम्य हवे सौम्धरज जानने चाहिएमौर जो 
काव्यहूवे कविके पुत्र सममन वाहिद ५१६॥ उपहूत देवं सोमज तथा सौमज 
कट्‌ गयेष्टै।जो घाज्य दैवे काय कहे गये है ये पिदृ जातिया हं जोकि 
वृष हूम। करतो दै 11१७॥ चे कान्य वहिपद नौर मन्न प्वात्त तीन प्रकार के 
हुभाक्पते है1 जौ यज्दान गृहस्य हति दै उनका यहिपद ऋतु होता दै 
गृह्य यज्वान जोहोति है अनिनष्वात्त उनके बार्तव हत ह । मटका पति 
काथ है 1 उनको पञ्चद जानना चाहिए ॥१८१६॥ नक्ता सम्बप्र 
अनिन है गौर स.प परिवत्सर होता दै ॥ सोम ददत्वरकटा गया हं नौरवागु 
ही भनुवर्र होता हं 1२०1 


रस्तु वत्परस्टेषा व्वाद्दा ये युात्मका । 
चेखास्वैवोप्पपाष्चं व दिवाकी्याष्च तो स्मृता 11९4 
एते पिवन्स्वमाबास्या मासि मासि सुधा दिवि।॥ 
त्तेन तर्पयामास यावदासीत्‌ पुरूरवा ॥१९२ 
यस्माद्‌ प्रस्वते सोमान्मासि मासि तिवोधत 1 
तस्मात्‌ सुघामूत्त तद्ध पितरन्णा सोमापायिनाम्‌ ॥२३॥॥ 
एव तदमृत सौम्य चुघ च मधु रीगदह। 

> यथा चन्दो कला पद कमाव्‌ १२४ 


४५२ 1 { चायु पुराण 


पिव्त्यमबुमयीदेवास्रयस्िशत्तु छन्दजा । 

पीत्वा च मास गच्छन्ति चतुंषया सुधामृतम्‌ ॥२५ 
इत्येव पीयमानस्तु दैवतं श्च निशाकर । 
समागच्छदुमावास्या भागे पदे स्थित ।1२६ 
सुपुम्नाप्यायातिस्चंव अमावास्या यथाक्रमम्‌ । 
पिवन्ति द्विकल काल पितरस्ते सुधामृतम्‌ ॥२७ 

तत पीतक्षये सोमे सूर्योऽसावेकरश्मिना । 
अप्याययस्सुपुम्नेन पित्र णा सोमपायिनाम्‌ ॥२८ 


सद्र उनक्रा बत्षर होता है ये युगाऽ्मक पन्वान्द होते है! वे तेला उष्मपाः 
गीर दिन्यकीर््या कदे गेह ॥२१। ये बमावश्यामे मापमात मे दिवि 
मुषा पान किया करते है । उष पुहटरवा जद तक है उनका तपण करता 
प ॥२२।जितसे मासमाक्त मे सोमो का प्रस्रवण करता है उत्ते जान लो। उषसे 
षामृत सोमपायौ पितरो का होता है ॥२३॥ स प्रकार से वह सोभ्य भमूत- 
षा भोर मधु दोताटै। जिस प्रकारसेकृष्यपनमे चद्रमाकौ क्रमते पद्रह 
्वाए होतो है ॥२५॥ देव मम्बुमयी का पान करते है गौर तेतीसचछदतर 
रीति है भौर चतुद॑शी मे माप्तक सुधामृत को पाकर चले नाते हँ ॥२५॥ दस 
पकारसेदेवोंके द्वारा पीयमान निशाकर अमावस्या को पञ्चदश भागमे त्वित 
भ प्या घा ॥२६॥! सुपुम्ना से भाप्यायित अमावस्या को यथाक्रम द्विकल कात 
कि परतर सूषामृत कापानकरते ह ॥२७ इसके मन^तर पीत दहोनेते क्षय 
लिप्ोमके होने पर यह सूयक रष्िते सुषुम्ना केद्रारासोमपायौ 
परतरो को लाप्यापित कररता दै ॥२८॥ 


नि शेपाया कलयान्तु सोममाप्याययत्‌ पुन । 
सुपुम्नाप्यायमानल्य भाग भाग मह क्रमात्‌ । 

कला क्षीयन्तिता ष्णा शुक्लाश्चाप्यायर्या्ति च॥ र॑ 
एव सूर्यस्य वीर्येग चद््स्याप्यायिना तनु । 

दग्यते पौण मास्या वै शुक्त सम्पूणमण्डत । 


पितरदणेन ] { ५५३ 
ससिदधिर्वं सोमस्य पक्षयोः णुक्लङ्प्मयोः 11३० 
इत्येष पितूमाव्‌ सोमः स्मृत इदत्सरः कमात्‌ । 
कान्तः प चदषैःसाद्ध सुधामृतपरिस्रवैः ॥३१ 
अतः पर्वाणि वद्ष्यानि पर्वणा सन्धयस्तया । 
गरन्यिमन्ति यथा पर्वाणीधुवेषवोमेवन्सुत ॥३२ 
तथादधं मास पर्वाणि शुक्लकरप्णानि वे विदुः 1 
पूर्णामावास्ययोर्मदैश्र ्थिर्या सन्धयश्च वे॥ 

द्धं मासस्तु पर्वाणि तृतीयाप्ृतीनि तु ।1३३ 
अग्याघानक्रिया यस्मात्‌ क्रियते परवसन्धिपु 1 
सायाह्धो प्रतिपचचंव स काल. पौर्णमासिकः ॥३४ 
व्यतीपाति स्थिते सूर्ये लेखोदधं नतु युगान्तरे 1 
युगान्तरोदिति चव लेखोद्धं शशिनः कमात्‌ 1३५ 


कला के निदे दोनिपर भीफिरसोमको आप्पापित करता है 1 
सुपुम्ना से मआप्यायमान को भाग-माग महा के क्रमसेवे कृष्ण कलाक्षीण हो 
जारी है बोर सुक्ल को माप्यायित क्रिया करली ३।॥२९। इस प्रकारसे सूर्येके 
वमस चदद्रका शरीर भी भाप्यायित दोता ह 1 पोर्ममासो मे शुक्ल खप्पूणं 
मण्डल दिद्वलाई दिया करता है इत भकार से शुक्ल प्ण पष्णो मेसोमकौ 
संद दोठी दै ।॥३०॥ यह्‌ पितृमान्‌ सोमर से ददत कहा मया दै । पन्द्रह 
सुधाम परिस्रवो के घाव कान्त होवा है॥1३१॥ इस के गि वै पर्वाःको 
क्या पव सत्यो को द्ताङधा 1 जिच प्रकार चे द्रकवेणुर्मोके पव" ग्रन्विमाद 
हेते ह ।३२॥ चो प्रह्रवे अघंमास के पव गक्च कृष्ण जानने चाहिए । 
शूगिम्ग भौर यमादश्या ऊ अदो ये ङो ग्रन्थि ओर जो सन्धिपां हं ॥ भर्षेमाष 
सृता प्रभूि ह १३३॥ जिसमे पर्वावर अम्यायान कौ प्रिया को जातो है1 
सायाहधमे प्रतिपद्‌ दौ वद पौ्णनासिक कान होढा दै ॥*६४॥ सूयं ढे व्यटीषात 
म पयत होन पर युगान्र मँ सोषोद्व्व होगा दै मोर पुगान्वर्म ठ्दिं हेते 
परक्रमते तेखोदूष्वं शि का हठा है 1९५५1 अ 


४५४ 1 [ वायुपुराणे 


पौणंमासे व्यतीपाते यदीक्षेते परस्परम्‌ 
यस्मिन्काले स सीमान्ते स व्यतीपात्त एव तु ॥३६ 
काल सूर्यस्य निदु दष्टा सह्या तु सपति । 
मव पय क्रिप्राकाल कालात्सयो विधीयते 1३७ 
पूणन्दो पूर्णपक्षे तु रातरिसन्धिषु पूर्णिमा 1 
यस्मात्चामनुपद्यन्ति पितरो देवतं सह 1 
तस्मादनुमतिर्नाम पूणिमा प्रथमा स्मृता ॥३८ 
अत्यथं भ्राजते यस्मात्‌ पौणंमास्यात्तिशाकर । 
रज्जनाच्चंव चन्द्रस्य राकेति कवयो विदु ।३६ 
अमा वतेतामृक्षे तु गदा चन्द्रदिवाकरौ! 
एका पञ्चदशी रात्रिममावास्या तत स्मृता ॥४० 
ततोऽपरस्य तैरयं त पोसस्य लिषपकर । 
यदीक्षत व्परतोपाति दिवा पणं परस्परम्‌ । 
चन्द्रार्कावपराह्ने तु पूगत्मिनो तु प.गिमा 1४९ 
विचिठ्ता ताममावस्या पश्यतश्च समागतौ । 
अन्योन्य चद्रसूों तौ पदा तदृशं उच्यते ॥४२ 
पौर्णमास व्यतीपात मे जो प्रस्पर में देते ह जितकाल मे वहं षीमान्त 
महै वहच्यीपान नहीदै ।३६॥ सूय कालके निदेश को देल कर स्या 
सर्पण कियाकरतोहैवहदो निष्वय शूपसे प्रिमा का कालत्तेतुरतदही 
पथ व्रा विषान क्रिया करता दै ।३७॥ पूणे बन्दके पूण पशमे रध्रिष्टी 
समपिपोमे प्रणमः है जिकहे देवो दे साय पितर उते देखते द । दषस घनुमति 
नाम यारो प्रथम पूणिमा कटौ गई ॥३८॥ जिरते पणम में निशाकर भव्य 
पिष्टस्य छठ भ्राजमान होताहै। चन्र रञ्जन करप पूणिमाकी राति 
क्¡ नाम राका-यह्‌ प गया जिवि क्वि लोग जानते है ॥३९॥ ममाश्रमे 
वापष्रती दै जह दि चन्द्र मौर दिनकर दोनो एक पश्ठदोक्षीरात्रिको 
दाम व्रियाकरते ह । दसो ते भमादस्याहौी बहो गह है ।४०॥ फिर द्रूषरेषा 
वके द्रा पोणंदणी यें निताकर श्स्वोपाच बे पर्णं दिनमे परस्पर ॥, 
॥ 


पितरवर्वन ] [ ५५५ 


दीखदा है । अपसम तो चच खोर सूं स्वस्य वारो दते है इषीतियि 
पूर्णिमा यह कहो जततो है 1 समन दे दोनो उस अमावस्या को विचित्त 
देष ह । वे दोनो चन्र मौर सूयं अन्योन्य मे जद देखनै हं ठौ बह ददा देण 
कटा जाता ॥४२॥ 

द्रौ द्ौ लवावमावास्या यः कालः पर्वसन्धिपु 1 

ह्ाक्षर कुहुमान' तु. एव कालस्तु स स्मृतः ! 

नष्टवन््राप्यमावास्या मब्यतूर्ेण सङ्गता । ७३ 

दिवसार्देन राव्यदं सूं पराप्त तु चन््नाः 

सूर्येण सहसा मि गत्वा प्रातस्तनोल्सवौ 1 

द्रौ कालौ सङ्खम्चैव मव्याह्ं निष्पतेद्रवि ॥४४ 


प्रतिपच्चु्चपक्लस्य चन्माः सूयं मण्डलान्‌ 1 


निमुःच्यमानयो्मच्ये उमोरमण्डलयोस्तु वै ॥५५ 

स तदा दयाहूते. कालो दशस्य च वपटुङ्रिया । 

एतहतुमुख ज्ञं यममावास्यास्य पर्वणः ॥५६ 

दिवा पवप्यमावास्था क्षीणेन्दौ वहते तु वै । 

तस्मादहिवा ह्यमावास्या गृह्यतेऽसौ दिवाकरः 1 

गृह्यते वै दिवा ह्यस्मादमावास्या दिविक्षये. 1४9 

कलानामपि वै वासा बहुमान्याजडात्मकैः 1 

तिथीनां नाम धेयानि विदवदुभिः सनि तानि वं ॥४८ 

दश येत्रामयान्योन्यः सूरयाचद््मसावुभौ । 

निष्करामत्यय तेनैव क्रमशः सयं मण्डलात्‌ १४२ 

अमावस्या मे दो.दो लव पवंखन्वियो मे जो कात होता है वहद्राक्षर 
कुहा इस प्रकार से काल कहा गया दहै । नष्ट चन्द्र बाती भौ ममादस्या मध्व 
सूम के खाय वद्धद होली दै १८३ दिवसा के पाय राभि के बंषो 
चन्द्रमा सूयं को प्राह कर, सूर घे ब्दा छटा पाङ प्रः 
काचन उ्छद वालेदो काल है सोर वञ्च टि 1 मध्याहमे सयका 
निपठन होवा है ॥\४४॥ एकत पक्ष को श्रतिषद्‌ को चनद्मा सूर्म मष्डत से 


५६ |] [ कायु भुरण 


उन निषुच्मान गण्डर्तो केमध्यर्मे होता है ॥५५।। उच प्रमपमे व्ह धाह 
तिका कासि तथा दशं की ववरक्रिया होतो है । इत पं की बमावस्या पद्‌क्तु 
सुख लानना चाहिए ॥४६॥! दिवा पर्वं मे बमावस्या को घधिक चद्व क्षीण 
हो जाने पर सते दिवा मे अमावस्या फ़ौ यहु दिवाकरं ग्रहण क्रिया जाता दै । 
दिवा ग्रहण किया जाता है इसत दिविक्षयो से बमावस्या होती हं 1\५७॥ उन 
कलाभो कौ मौ जडारमायो के द्वारा वादमान्या होती है । विद्वानों ने त्िथिो 
केमीनामोकी साकी है ॥४८॥ सयं लोर चन्रमा दोनो भभ्यौन्य बो देएते 
ई भौरक्रमते उसी के साय सूय मण्डलमे निकलता ।।४६॥ 


द्विलवेन छहो रात्र भास्कर स्पृशते शशौ । 
स तदा ह्याहुतेः तलो दशस्य च वषट्‌ क्रिया 11५० 
कुहेति कोकिलेनोक्तो यः कालः परिचिद्धितः । 
तत्काल स क्ञिता यस्मादमावास्या कुहुः स्मृता ॥५१ 
त्तिनीबालीप्रमाणेन क्षीणशेषो निशाकरः 1 
अमावास्यां विशल्यकं सिनीवाली ततः स्मृता ॥५२ 
पर्वेण. पर्वं कालस्तु तुत्यो वै तु वपट क्रिया 1 
चनद्रसूय॑व्यतीपाते उभे ते प्रुणिमे स्मृते ॥॥५३ 
"प्रतिपत्पश्दद्योश्च पवंकालो द्विमात्रकः । 
फालः कुहुसिनीवात्यो समुद्रो द्विलवः स्मृतः ॥५७ 
अर्काग्निमण्डले सोमे पव कालः कलाश्रयः । 
एव स शुक्लपक्षो वें रजन्या. पर्वसन्धिषु ॥५५ 
सम्पूर्णमण्डलः श्रीमाशचन्द्रमा उपरज्यते 1 
य्मरादाप्यायते सोम पञ्चदश्यान्तु पूणिमा ।५६ 
महोरत्नमे चन्द्रमा दो लव भास्कर का स्पशं क्रिया करताहै। उ 
मिय वह्‌ गाहति क्ता वथा दरगे कौ चपट क्रिया काल होता है ५५०॥ कोकिल 
क्त जो काल बुद्धा पषा परिचिन्हत होता है उप्ता से सज्ञा वाली यमावस्य 
गृह्षी जाती है ५१ सिनीवाली के प्रमाण से ण शेप निशाकर मा 
-वस्याके दिन पपंमे प्रवेद अ्रियाक्रतादै दषो छितोवानी पदी महहै। 


शिहिस्वणेन ] { ५१७ 


1९२ पवशन पव कान तो कपट क्रिया के तुल्य हो होठादै। चन्द्रमौर मूं 
के व्यतीपाह मे वे दोनो पूयमा कही गहं है ५५३॥ प्रतिपवु अर 
पवद का पकाल मात्रिक ही होता दै 1 पिनोवाली ओर कुहू ना समुद्र 
द्वित वय गया दै ॥५५1 सोम के मग्नि मण्डल मरं पर्वं काकाल कल्के 
माधय वात्ता हेतताहै। इष प्रकार ते पदं को सम्घियोमें रात में जुक्न पत 
हता है ॥५५॥ सम्पूणं मण्डन वाना श्रीमान्‌ चन्द्रं उपरञ्वित होतादै निष 
से पदी 7 सोम जाप्यायित होना है इसत प्रिमा हानी है ॥५६९॥ 


दशाभिः पञ्चभिश्च वः कलाभिदिवसक्रमात्‌ । 

तस्मात्‌ कला प्यदशी सोमे नारित वु पोडशो 1 

तस्मात्सोमस्य भवति प्चदश्या महाक्ष. १५५ 

इत्येते पितरो देवा. सोमपा" सोमवद्ध नाः । 

आत्तं वा ऋतवो यस्मात्ते देवाः भावयन्ति च ५ 

सत. पिन प्रवश्यामि मासघ्राद्गरजस्तु ये 1 

तेषा गतिञ्च सस्वन्व गति श्राद्धस्य चेव हि ॥\५य 

न मृताना गतिः शव्या विज्ञात. पुनरागतिः । 

तपसापि प्रसिद्धेन कि पृनर्मासचश्ुपा ॥६० 

श्राददेवान्‌ पितू नेतत पितरो लोकरिकनः रमृताः 1 

देवा- सौम्याश्च यज्वान. सर्वे चैव ह्ययोनिजाः ॥६१ 

देवास्ते पितरः स्वे देवास्तानू नावयनत्यन । 

मनुप्याः पित्तरष्चं व तेभ्योल्ये लौकिकाः स्मृताः ॥६२ 

पित्ता वितामह््च व तथव प्रगतामहः ॥ 

यज्वानो ये तु सोमेन सोमवन्तस्तु ते स्मृता- ६३ 

दद बोर पाच कलायो दिवसोकेक्म ते पह कलासोममे दो 
६ रोवहनां नदीं द्यवी है ॥ मते सोमका पदी मे महान्‌ कष दोठारहै1 
14७1 दृतने ये पितर दद खोन्पन्नीर स्लोगन द ॥ जिते आत्तंक गौर 
श्टनूएं है, वे देव मादिव किया क्ते ठं गद इमसिदे पिदर कौ वताजशा 
जोति मा श्राद्धके मोदी हेति हं 1 उनो गठि शौर सत्त्व वथा शराडी गनि 


४५८ ] [ कागुुरप 


को मी वताया जायगा 1) त मूमनुष्यो कौ गति तया पृनरागतिं बतानी 
जा सक्ती है! यहं प्रसिद्ध तप से भी नही वता सकने है इन मीत चन.मोकी 
वातहीक्यादै 1 ६०॥ शाद्देषर व इन पितये को सौरिक पितर का गया 
है! देवसौम्य भौर यज्वान ये सव॒ वायोनिज होतेह ॥६१॥ वैस 
देव पितर हँ ओर उनको देवहौ माव्ति विया क्रते है । म्वुष्य शौर 
पितर उनसे भय लौकिक कटै गये ह ॥६२॥ पिता पितामह गौर्‌ प्रपितामह 
जोसोमके द्वारा यज्वान हाते हुवे सोमवत कदे गये ह ॥६३॥ 


ये यज्रान स्मृत्तास्तेपा ते वं वहिपद स्मृता । 

कर्मस्वेतेषु युक्तास्ते व्ृप्यन्त्यादेद॒सम्भवान्‌ ॥६४ 

सग्निप्वात्ता स्मृतास्तेया होमिनो याज्ययाजिन.। 

ये वाप्याघ्चमघर्मेग प्रस्थानेषु व्यवस्थिता ॥६५ 

अन्ते घ नैव सीदन्ति श्रदायृक्तेन कमंणा। 

ग्रहाचर्येण तपसा यज्ञन प्रजया चवे 1द्द 

श्रद्धया विद्यया चंव प्रदानेन च सप्तधा । 

काम स्वेतेषु ये युक्ता भवन्त्या देद्पातनावु ।६७ 

देवेस्तं पिपरभि साद सूष्व, सौमपायवंः । 

स्वर्गता दिवि मोदन्ते पिवरृमन्तमुपासते ॥६०८ 

प्रजावता प्रणसेव स्मृता सिद्धा जियावतामू । 

तेपा निवापदत्तान तत्ुलीनेश्च वान्धवै ॥ ६ 

मास श्राद्धभूजस्तृति लमन्तं सोमलौरिक्रा 1 

एतं मनुप्या पितये मापि श्रादमूजस्तु ते ॥७० 

जो यज्वान षहमयदै उने वे वदिषदक्देग्येदै । इनक्म्माम 
युक्त ये दें भम्मव तद दृसद्ोदै ॥६४॥ उदरे याग्ययागी होमौ अनग्नि. 
प्वात्त कदं गये । घयवाजो भो आशम धर्म ते प्रस्या्नो मे ष्ययिदित है । 
1ष््वाश्रदा ते युक्त षमंवेद्राराअत गमपर्वेदसोनदीषोते दै एणी 
परग्मरणोद्रद्रवप-नरयक्त ौरप्रनासयुक्होकेदहै वेधीदुषोनदीदेषे 


परितस्वर्णन 1] - [ भ्न 


ह पद्मा धरदधादे वियः से बौर प्रदानं ते ठत प्रार्‌ से इन कर्गीपे जो युक्त 
हते है मौर अपे देह के पाठन तक इसी प्रकार से रते हवे उन देवौ के-पििरो 
के बरौर सूक्मक सोमपायङो के साच स्यं म गयेट्एु मोदगक्त दते हतया 
दिषिमे पितमान्‌ कौ उपामना क्या करते हू 1\६८॥ प्रना बालो दी प्रर्ाही 
कोई मौर क्रिया वालो ङो बह सिदध ह । उनके निवाप दत्त मन्न कोजो 
फ तक्कलीनों के दास एवं बन्धदोकेढारा द्विया गया है माष पयन्त धाद 
भोचो सोम लौकिक वृत्ति को प्राप्त किमा करते ह । ये जोकि माघमे शरद 
भोजी दद ह वे मनृप्य पितर है ॥७०॥ 

तेभ्योऽपरे त्‌. ये चान्ये सङ्कीर्णः कर्मयोनिपु । 

प्रष्टाप्चाश्रमधर्मेभ्य स्वधास्वाहाविवजित्ताः 7७१ 

भिद्रदेहा दुरात्मनः" प्रेतभूता यमक्षये 1 

स्वकमाण्येव शोचन्ति यातनास्यानमागताः 1७२ 

दीघवुपोऽनियुष्कास्च विदणा्च विवासः } 

क्षुतपिपासापरौताफ्व विद्भवन्ति इतस्तत ७ 

सरित्सरस्तडागानि वापिश्चं व जलेप्सनः 1 

परान्नानि च लिप्छन्ते कम्पमानास्तवस्तत. ।\७४ 

स्याने. पाच्यमानाश्च यातायात प्‌, तेष्‌.चे। 

शार्मसौ वेतरण्याञ्च कुम्भीपाकेप्‌, तं प, च ॥७५ 

करम्मवालुकाया् असिपत्रवने तया 1 

शिलासम्पेपणे चं व पात्यमानाः स्वकमं भिः ॥1७६ 

तत्र स्थानानि तेषा वै दुःखानामम्यनाकवव्‌ 1 

लोकान्तरस्थानां विविधैर्नीभिगोत्रतः 119७ 

उनसे ऊपर जो बन्यर्हैवे क्मयोनिया सद्धीर्हैमौरय श्रमोके 
घमो सं रट हुए स्वाहा तया स्ववा ते विवर्जित होते है ॥७१॥ भिन ¦ वाक्ते ` 
दष्ट घात्मा से युक्त योर यमक्षय मे परेत मूत याचना केस्यानोने प्राये हए 
भष्नेक्ि हए करम्मोँको दही शोचा कस्ते ह ॥७२॥ दीं माणुवाने. बव्यन्त 
शुणह, विवणं मौर चिना वस्व वा मूढ भोर प्या से परीव हुए दधः 


५६० 1 [ काथु दुरा 


विद्रवण किया करते है 11७३1 प्या ते व्याल जल पराह करे कौ षा 
याते मदी सरोवर-तालाव भौर पावडी तथा प्राये यन्न को दर~ग्धर वाप 
हुए चाहा वरते है ॥७४॥ उन यातायातो के स्थानो मे पाच्मान-शाल्मदीर्गे 
भौर वैतरणी मेमौर उन बुम्भोपाको कर्म वालुका मे-वतिपम दनव 
घोर धित सम्देषण मे वपने कमे द्वारा विराधे दए हेते है।।५५।७६॥ 
अनाक की भांति वहां पर उन दुः्लोके स्थान, भन्य लोको मे प्वित उनके 
विविधनाम भौर मोश्र से होते हं +*७॥ 

भूम्यापरसभ्यदभेपु दत्वा पिष्डव्रयन्त्‌ वं 1 

पति तास्तपंयन्त च प्रेतस्यनिप्वधिष्ठिना ॥७न 

मप्राप्रा यातनास्यान सृष्टये भुवपचधा। 

पश्वादिस्यावरान्वे पु भूताना तेषु कर्मषु ॥५६ 

नानारूपासु जातीप्‌. तियेग्योनिप्‌. जातिप्‌, । 

यदाहारा भवन्त्येते तामु तास्विह योनिप्‌. । 

त्मिस्तरसिमिस्नदाह्ार श्राद्ध देत्तोपति्ठति ॥० 

कालत न्यायागत पात्र विधिना प्रतिपादितम्‌ । 

प्राप्नीखनन' यथा दत्त वन्युयं नावतिष्ठे (०१ 

यथा गोपु प्रनष्टासु वत्सो विन्दति मातरम्‌ 1 

तया श्रद्ध तदिषटाना मन्तः प्रापयते पितुन्‌ ॥तर्‌ 

एव ह्यविकरल' धराद्धदत्तन्तु मन्तः । 

सनल्ुमारः प्रोवाच पश्यन दिव्येन चश्युपा । 

गतागतिज्ञः प्रताना प्राद्ध्रादुधस्य चैव हि ॥८३ 

वह्वीकाश्चोप्मपाए्च व दिगाकीर््याश्चव तं स्म्‌,ता.। 

छृप्णपक्षस्त्वदस्त पा गुक्वः स्वप्नाय शवं री ॥=४ 

भूमि से धपसव्य दमो मे ठीन पिण्ड देकर प्रेत स्थानो में मधिष्टित उन 
पतितौ का हरण विया करते है ।॥७5॥ जो यातना के व्यान मे प्रात मूमिमे 
मृष्ट है वै पाव प्रकार वै होते ह1 पयु भादि स्वावसर््तो मे प्राणियों के उनः 
कमोे नाना प्रशनार कौ जातिपो पे तिर्या्ोनिपो मं यदाहारहीते ह । ठग 


पिरवर्णेन ] [ ४६१ 


दन उनका बाहार श्रद्धे दिषा हमा उपप्वित होना दै ॥७६॥। 
करा कानमे न्यायये जाया पत्र विवि चे प्रत्तिप्रादिठ तवा दत्त अन्त 
कनो ब्रत क्ता कप्त दै जहौ ए वन्वु अक्स्थिन होना है ॥८१॥ जि तर्द खे 
तायो के प्रविष्ट होने परवसम मताकालाम या करता दै उनो प्रकारचे 
श्राद्धमे तदिष्टं का मन्व पितरो को प्राप्त रूरल टै ॥८२॥ मन्व से दिया 
हा धाद्व अविक्रत श्राद्ध होता है, इस वत कौ दिव्य चकन. से देखते हृए सन- 
सुषारनेक्हाया जोकि गतागतिकेज्ान रव बाते तपाप्रनोंके प्राप श्राद 
के क्नाता ये ।८३॥ वह्वीक-उष्मया ओ दिवाङगोदं वे कहेमवेह। उना ङ्ष्ण 
श ल्‌ होता है बौर चुक्रं पक्ततो स्वप्न ढक ववि सवं ( सत्रि) दोगै 
11० ६॥। 

इतये ते पितरे देवा देवाश्च पितरश्च वं1 

शताततेवा अनेके तु अन्योग्धपिनरः स्मृताः ॥८५ 

एते तु पितरो देवा मानुपा पितरश्च ये। 

तेपु तेप प्रीयन्ते धदायक्त न वर्मणा ।1<६ 

देवः पिभरः प्रोक्त पितरं सोतपापिनाम्‌ 1 

एतः्‌ परितृथतत्वं दि परते निश्वयो मतः ॥८७ 

इत्यक पितृ सोमाना्म॑लस्य च समागमः ॥ 

सुधामृतस्य चावाप्तिः मिताव व तर्पणम्‌ ॥८5 

पूगिमावास्यमोः कालः पितरणां स्यानमेव च। 

समासारकीततित स्तुम्पमेष सः मनातनः । १८६ 

वैश्वरूप्यन्तु सर्वस्य कथितं कदेणिकम्‌ । 

न वप परिमद्धयाातुः धटः भूतिमिच्छता 14० 

स्वायम्मुवस्य होत्येप सगः क्रन्तो मधाव वे। 

विस्तरेणानुदू्या च भूयः क वणंयाम्यट¶ ॥ 1 >| 

देद्य वितस्देव धौरदेयमोर पितर ठया च्व पितर अनेद्य 
म्योग्यमिवर मदे णवे पद्ये विरुदे मौरये मानु शठिष्ह। श्रा 

सं पुम फे पारा उने प्रद टोन पर प्रयु देते दै ॥२९५ ६५ 


४६२ ] { वायु पराण 


भ्रकार्‌ से पितर क्ट गये ह । सोमपार्णा पितरो का यद्‌ ितृमतत्व निश्वस्य 
से पुरष्णने सानामया दै ८9) यह्‌ यकं पितर सोमो का ठया देल का स्माः 
गम मौर मुयरमृत री मवाक्षि भौर पितरो का तर्पण पूणिमा मौर बमावस्या 
काका मौर पितो वा स्थान ये समी का सक्षेप सं तुम्हारे सामने वर्णेन कर 
दिया है । यही सनावरन बर्याद सवंदा से चते भाने वाला सं है ॥८॥ 
1 ८६॥ सवका वैरूप्य यौर देशिक कह द्विया है । यह्‌ परिमस्या वाला नैदीदये 
मक्ता है । भूतिको चाहने वाते को श्रदधाक्रे के योग्य होग है 11६०1 य 


न स्वायम्भुव कारणं वहा है फिर मानि वि्नारके तवा मातृपूर्व के साय 
कया वणेन कष ? ५६१ 


॥1 प्रकरणं ३६--यन्ञप्रथा वर्णन ॥ 


चतु गानि यान्यासन्‌ पूर्वं स्यायम्भुवेन्तरे । 

तेपा निसर्गं ततत्वच शोत्‌मिच्छामि विस्तरान्‌ 114 

पृथिव्यादिप्रसङ्गोन यन्मया प्रागुदाहृतम्‌ । 

तेपा्चतुयुं ग ह्यो तन्‌ प्रवक्ष्यामि निवोधतत 11२१ 

स्येह प्रसङ्कय पय विस्ताराच्चैव सर्वेशः। 

युर च युगभेद च युगधर्भन्तथैव च ॥।३॥ 

युगसन्व्य शक च॑ व युगसन्धानमेव च । 

पट.प्रकारयुगाख्याना प्रवक्ष्यामीह्‌ तत्त्वतः ॥४ 

लौकिकेन प्रमाणेन विबुद्धोज्दस्तु मानुषः । 

तेनाट्देन प्रमह्भुपाय वदयामीह्‌ चतुय गम्‌ ॥१ 

निभेपक्राल चषठा च कलार्वापि महत्त का. । 

निनेपकाननुत्य' हि विद्याल्लध्वक्षर चयत्‌ ॥६ 

चाषा निमेपा दशपच चव त्रिशच्च वाष्ठा गणयेत्‌ कवस्ताः 

त्रिशन्‌ कलाश्चैव भवेन्मृहर्तात्तत्रिशता राघ्रयहनी समेते ॥७॥ 

चऋपिर्फो ते षटा~-स्वायम्पुव अन्तरम पदतिजो चार युगये उतवा 
नियतं भौर दद दिरबा परह हम धरदय बरदा पाटो ह ५१५ धी गूतजीने 


यत्प्रयावणन 1 {[ ४६६ 


कहा पृथिवी बादि के प्रसद्घ से जो भने पटिति उदाहूत स्यि है उनका यहं 
वतु मव वततताङगा, उत मलो माति समालो ५२॥ यहां सस्या ने ग्रन- 
दधान मरके भौर सदभ्रकार मेव विश्वार से युगम्व्य शक तया युग स~ 
स्वानपि नद्यौ प्रार्‌ केयग नान्‌ वालो को मै वत्वपूवेक ज्य तरल 
बतलाना ॥३॥४॥ सोकरिक प्रमाण से विवद जद तो मानय होता है 1 उस 
क्षम्द तते प्रमत्या करके चनुय्‌*ग को यहां क्तलायां जयिगा ॥॥५॥ निमेष काल 
षाण्राक्ता गौर मुह्तक होति ह । निमेष काल ॐ ममान दी जो मुष्क काल ङे पमान दी जो नध्वकर्‌ टत. 
है उ जानना च।दिए्‌ 11६ 17 ` कन 
न । ठी स्ता यह्वं मीर छ ती 
प्रि गौर दिनं हेते ह ॥७। 


~ 
अहोरात्रे विभजते सूयो मानुषदैविके 1 
साह" बमं चेष्टाया रात्रिः स्वप्नाय कत्प्यते ।४८ 
पिच्ये राघ्यहनी माष प्रविभागस्तयो. पूनः । 


खष्ण पश्म्त्वदस्तेषा शुक्ल स्वप्नाय शवेरी ॥& 


्र्षच्च मानुपा मासा. वन्यो मासश्च सस्मृनं । 
शतानि प्रीणि मात्ताना पष्टया चाप्यधिकानि वं! 
पिय, संवस्वसे ह्यं प मानवे विभाव्यते १० 
मानुपेभेव मानेन वर्पाणां यच्छन भवेत्‌ । 
पित्रृणा द्रौणि वर्पाणि सद्भय्‌तानीह्‌ तानिवे1 
नचत्वारस्नाधिका माता: वित्रे चेवेद्‌ कोतिताः 14१ 
सौक्िरेनव मानिन अन्हे यो मानुप स्मृत. 1 
एदिव्यमहोरात्र शान्तेऽस्मिन्‌ निष्ण मनः ॥१२्‌ 
दिव्ये राच्यदनी क्पं प्र विमागस्तयोः पुन 1 
अदस्तमोदगयन राधिः स्यादृक्षिणायनम्‌ ॥११३ 
येते रा्यहुनो दिव्ये प्रसड खयातं तयोः पुन 1 
प्यदनानि वर्पायि दिव्यो मानस्तु न स्मृतः 111 


५४६४ ] [ दयु पुर 


मानमुप ओर दिक अदोरात्र क्रूं ही विभाग ्ियाक्रताहै। उन 
मे दिनतोक्मोकीचेष्टाकेत्तिये मौर रात्रि स्वप्ने सिपि कपत को जाती 
दै ॥९॥ पिच भौर रानि ओर दिन तया माप्त उनका पुनः विमाग होवा है) 
उना दिन द्रप पक्षहोता हैमौर माघ का शुक्ल पक रान्निदोतीहैजो 
शन के तिषे ही है ।२॥ मानुपक्ा तोघ्ठ मास गौर पिध्य अर्थाद्‌ पितरो कावद 
एक माततकहागया है।तीनसौ साठ मायो का पितरौ का सम्वत्सर यह मा 
दुपसे विमावित हिव जाताहै।॥१०॥ मानु मानसे ही वयोक्ानोएक 
सकट होता है पे पिततये $ यहां प्र तीन वपं स्यात होते है । यहां पर चार 
मधिक मापरिपिवर के लिप हौकदेगये दै ॥२१॥ लौकिक मानसेही मो 
मान्‌.प अन्द करदा गया है यह्‌ रिव्यं अहोराच्नहोताह। यह्‌ इस शास्म 
निश्चय माना गयाहै ॥१२ दिव्य राधि ओौर दिन ओर फिर उन दोनोंका 
भरविभाग कहते है । वहां उत्तरायण दिन होवा है मौर दक्षिणायन राशन हुमा 
कर्ती है ५१३५५ ज ये रपति ओर्‌ दन द्वि प्रख्यात (कथि ग्‌ ह उन दोनो 
कै फिरतोसवे वपं दित्य मास कटा गये है ॥१४॥ 

मानुपच शत" विद्धि दिव्यमासास्प्रयस्त्‌. ते । 

दश रौव तयाहानि दिव्यो यंप विधिः स्मृत. ॥१५ 

च्रीणि वपं शतान्येव पष्टिवर्पाणि यानि च । 

दिव्यः सवत्सरो ह्येष मानुपेण प्रकतितः १६ 

प्रीणि वपं षह्लाणि मानुषेण प्रमाणतः । 

व्रिशदयानि तु वर्पाणि मतः पक्पिपप्सरः ॥१७ 

मव यानि सहस्राणि वर्पाणा मानुपाणि तु । 

अन्यानि नवतिश्च व क्रौर्चः सवत्र. स्मृत ॥१८ 

पट त्रिशत्त्‌. सदस्राणि वर्पाणा मानुपाणि तु । 

यर्पाणन्तु शतः ज्ञेयः दिव्यो ह्येप विधिः स्मृतः ॥१६ 

ग्रीण्येव नियुत्रान्येव वर्पाोणा मानृपाणि च। 

पष्टिश्चं व सहन्राणि सदु यातानि त. सद्या । 

दिव्यव्ं सहखन्तु प्राः सह्वधाविदो जनाः ॥1९० 


यक्प्रथा वर्णन |] [ ५६५ 


इत्येयमृपिभिगीत दिव्या सहु ययान्वनम्‌ ॥ 
दि्येनैव प्रमाणेन युगक्च खचाप्रकल्पनम्‌ ॥२१ 


मानुप वपंतोसौहोेरह क्षिदयेसौवयपं तोन दविव्यमानदृप्राक्प्ते 
हमौर दध दिन यह्‌ दिव्य विवि कटा गहै १२५ तान सौ षट व्प॑ओो 
हति है यह दिय सम्वस्र मानष के दारा कीति किप गा दै 11१९॥ 
मानु प्रमाण सेतोन सर्त वपं ओर तीक जो वपं होतिर वद सपविरोा 
वस्र पाना गया दै 1९७ मातुवङ़े नौ मदम जोव होतेह मौने दाति 
वह्‌ गरौ सम्ब्र वद्‌ गया दै ॥१८॥ मानष दतीन हार वों का दिष्य 
वपो काएर्‌ मंकडा होता हमद विधि कटी गहू 11१६ मान्य के तीन 
नियूत वपं तया साठ हजार वप जो म्याके सप्वात होति उनमोसन्या 
फे ज्ञाता साग दिय सहेघ्न वप कहते ६५२०५ इतो प्रारसे दिन्यसप््रा 
से भगवित ऋषियो केढाराभी गयागयादे। दित्य प्रमाणसेही युग स्या 
क्म प्रकत्पन टोता दै ॥२१॥ 


चत्वारि मारते वपं युगानि कपो विड्‌ । 

पूव छनयुग नाम तत्तां विधीयते । 

द्परश्च कलिश्च व युगान्येतानि कल्पयेत्‌ ॥र२्‌ 
चत्वार्याह सहस्रणि वर्पाणान्तु कन युगम्‌ ॥ 

तम्र तावच्छनो सन्या रन्ध्पाशर्च तथाविधं ॥२३ 
इत रासु च सन्ध्यासु सन््याशेषु चने त्रिपु 
एवापायेन वत्त न्ते सहन्ननि शतानि च ॥२४ 

भरना त्रीणि सहन्राणि मह्वयंव परिकीतगंते ॥ 
तस्यास्तु रिषत सग्च्याशश्च तथाविधि ॥९५ 
द्वापर द्रं चसन तु युग्माहुमे नीविण 1 

स्यादि द्विशती सनव्या सन्ध्या सघ्यया पम । ॥२६ 
यलि वपुस्तु युगमाहुमं नौपिप ॥ 

तस्याव्य दशती सध्या सन्ध्या सन्ध्यया मम ॥र२७ 


४६६ |] [ वायु-दुराण 


एपा द्वादशपाहछ्ली युगास्या परिकीत्तिता 1 
कृत त्रे ता द्वापरस्व कलिदचं व चतुष्टयम्‌ ॥२न 


भारतवपं मे कविण चार य्‌. बताते ह । पहिते इतय्‌. अर्थाव्‌ 
सतट्रुग होताहै इपके प्वाव्‌ च्रेठाका विधान्‌ क्रिया जातताहै। किरद्रषर 
घौर ङ्लियुश्से यग कल्पित किये जानि चाहिए \1२२॥ चार सह वर्पो का 
करतपुणहोता हं रिन्तु यहां वपं दिव्य ही मानेगये ह । वह पर उतनीदही 
शती सन्ध्या की होती है मौर सन्ध्याश भी उसी प्रकार का हभ करता ६।२३॥ 
दतर सन्ध्याग्नो मे तथा तीन सन्व्पार्ो मे एक्ागाय से महृन्र मौर दत हो है । 
॥२८॥ पेता की सरथा तीन सहश्त सद्यात कर पररिकोत्तित कौ जती है। 
उषी व्रिश्चती सन्ध्या होती हं भौर उक्ती प्रकार का सन्व्याश भी हुमा करता 
है ॥२५॥ मनीषो लोग द्वापर वौदो षदषु वर्पोक। युग कदे 81 उसी 
द्विषती सन्ध्या तया सन्घ्याके बराबर टौ सन्ध्या होता दै ॥२९॥ कलियुग 
वो एक सद्र बाला मनीपी गण कहा करते है' । उसी मी सर्द के दिसाव 
से एक्शत वाली सन्ध्णा होतो है भोर सन्ध्या के तुर्य ही सन्ध्याश होता है।।२०॥ 
यह वारह सदस शे युगाख्या कदी गई है दपते तत्रे ताद्रापर भौर कनिषुष 
ये षार य्‌ग होते ₹।२८॥ 

भन सवत्सरा मृष्टा मानुषेण प्रमाणतः । 

कृतस्य तावद्वक्ष्यामि वर्पाणा तस्प्रमाणत ॥२६ 

सहाणा चतान्यत्र चतुदश त्‌ सठयया। 

चत्पारिणन्‌ सहसुएणि कालिकातयुगस्य तु ॥३० 

एव म खयात कालश्च कालेप्विह विशेपः 1 

एव" चतुयुंग कालो विना सन्व्याशकै. स्मत ॥३१ 

चत्वा्णत्राणि चैव नियुतानिच सप्य्‌वा। 

व्रिशत्तिश्व सहुषागि ससन्ध्याशश्चतुयुं ग" ॥३२्‌ 

एव चतुगुं गास्या त्‌, साधिवा दछयोकरप्तत्तः । 

छराव्रं तादियुक्ता सा मनोरन्तरमुच्यते ॥ ३३ 


य्प्रया वणन ] [ ४६७ 


मन्वन्तरस्य सख्वतुकपप्रण निपोधत॥ 
तिषत्ोटयस्त्‌, वर्पाणा मानुषेण प्रकोरिता ४ 
सप्तपष्टिस्तयान्यानि नियुतान्यधिकानि तु 1 
विशतिश्च सहसाणि कालोऽय साधिका विना ॥३५ 


यहाँ परे मानुपषे दास प्रमाण से सवत्सरो का सुजन वियागवाहै। 
पत्र तक्षत युग कै चपों कनो उम प्रमाण से वठताया जाता दै ५र्ासौ 
हनारं चौदह सद्शासे चामौष षटुत कलिके यकावाल हति ह (1०॥ 
यहा कातरे विशय षप से हय प्रकारका सरत काल टै । इष वरह विनि 
सन्ध्धातके चारोयुगोका कान कहा गयाटै ।३१। सम्पासे सोनातीस निरुत 
वष स्ख चाये मगो कासण्याण होताटै 1३२1) रख प्रकारसे चारोषूगा 
कौ नाम बालो इकदृत्तर सराचिक्ा है । कृत भौर भेता नादिते युक्तवद्‌ 
भनु नन्ठर क्हा जाता ह (३.0 मन्व^वर कौ सन्या वर्पाप्रते जाननी 
षादिए 1 मानुप के द्वा तीस करोड वपं कटे गय हं ॥३४॥ मडपढ नियत 
मन्ध सधिक भौर बीक्च सदतु का यह्‌ काल साधिङाके विना होना है ॥३५॥ 


मन्वन्तरस्य स घर्‌ पा त खणाविदुभिरद्रिजे स्मृता । 
मन्वन्नरम्प कालोऽ पूर्मं म्रादधं प्रकीतिते 11३६ 
चतु सहमुयुक्त ये प्रयमन्तर्‌ कृत युगम्‌ 1 
नेवावेशिष्ट वक्ष्यामि द्वापर कलिमेव च २७ 
गुगपर्षमवेनार्थो दिवा वक्तु न शक्यते । 

मागत मया ह्यं तत्त.म्प प्रोक्त युगदरयम्‌ 1 
शपिवणग्रसद्घ न व्या एलस्जात्यैव च ॥३< 

ततत प्र तायुभस्यादौ मनु सप्तपं यश्वते । 

श्रीन स्मात्तंर्व धर्मञ्च ब्रह्मगा च प्रचोदितम्‌ ददं 
दारानिहो्नयोगम.ग्यजु सामस क्तितम्‌ 1 

दू यादिलक्ष श्रीन धमं सप्नपं योऽप वन्‌ ॥४० 
पर्परगन धम स्मात्तं चाचारवक्षणम्‌। 


श ] [ वाम 


वर्णाश्रमाचारयुन मनुः स्वायम्भुवोऽगरवीत्‌ ।1४१ 
सप्येन ब्रह्मचयण ध्र तेन तपा च यै। 
तेषा सृुतप्तपसामापे येण क्रमेण त्‌. 1४२ 


सन्याके विदन्‌ ब्राह्मणों ने मन्वन्तर की यह्‌ म॑हया दतलाई । मन्व 
न्तरकायहुकान युगो के साय प्रको्तिति किया गया है ।॥३६॥ चार सदषृ ते 
क्त प्रयमवहदृतण्गरहै। च्रोता द्वार कलि जो अवाशिष्ट है उदे बतलाया 
जायगा ॥३७॥ एरु साथ समवेउ बयं दो प्रकारे कहा नही जा सक्तादै। 
फ़मघेाया हूः वहर्मेनेतुमसेदो यकद दिये दहै । ऋषिगो के प्रत्न से 
वप्रादरुतदहनेसे उक्ती प्रकारसं केह ॥३८॥ वहा परप्रोतायगके मादि 
मेमन, मौरवे स्तवि ये। श्रौत मौर स्मार्त षमंयाजोज्गिब्रह्मादे दाय 
मरेन्तिङ्गिवाग्या चा॥३६॥ दासनिहोमसरोवव्छपयनु जौरसम सरा 
से पुक्त-ष््थादि लक्षण वाते श्रौत धर्मंको सक्तपियो ने क्डाथा॥४०॥ 
परम्प्यासे वाया हमा आचारके नशस युक्त तया वों मीर मामो के 
वापा वाति प्मावं पमं कोस्वायम्मुव्रमनुने कडा चा 1४८१।) सदय प्रह्मचय ^ 
श्रतियौरत्तप से मसीमात्रितप् कएे वाति उनके आ्पेपक्रमसे कदा गपा 
दै 1४२ 


स्नर्पीणा मनोप व आद्यं प्रो तामुगस्य त. 1 
सवुद्धदूवं क तेषाम क्रिप्ापूकमेव य 11*३ 
यर्भिव्यक्ताम्त्‌, ते मन्म्ास्दारकायेनिदशं नं 1 
आदिवल्ये तु देवाना ्रादुम्‌-चास्त्‌. ते स्वयम्‌ 11४४ 
प्रणाद त्वव सिद्धिनामवप्यामाश्च प्रवरनम्‌ 1 

यामन मन्या व्यत्रोतेपुं ये बल्पेषु सदखग । 

ते मन्त्रा वे पूनस्तेवा प्रत्तिमासवमुत्यिता ॥ ५४ 
छचोयन्रूपि सामानि मन्त्राघ्रायर्वणानि न। 
स्रदिभिस्तु नै प्रोत्ता स्मतं धमं मनुरनेगौ ॥४६ 
ताहो खटति वेदा देवया धर्मदेषत-। 


यदग्यान्पेन ] [ ४६६ 


मंसेघादायुप्च व व्यस्यन्ते ढापरेषु ते 4४२ 
छवस्तपना देवा; कौ च दापरेपु वं । 
यनादिनिघना दिव्याः पूर्वं चाः स्वयम्मुवा ॥ ७ 
सवर्माः सप्रनाः चाद्धा ययायमं यु युगे । 
विक्रौडन्त ्मानार्या वेदवादा ययावुगम्‌ ।। ४६ 
जारम्मयज्ञा क्षत्रस्य हविर्यज्ञा विशाम्पतेः ॥ 
परिवार यज्ञायरासतु जपयन्ना दविनोत्तमाः ॥ ५० 
या यु जामे चषके बोरम्नु कतेडनके अवृद्ध पूर्वक तया 
यद्विय पूर्हटहीक्टा गवा टै १४४२ तारम निदर्ननो देवे मन्व अनिग्यक 
टृए हदवो के मादि षलमेठोदे स्वय" प्रादभ हए पे ॥४४॥ इनके 
अननर दिद्धिपों के प्रपा देने पर मोर इनका प्रवत्त॑न ट्मा॥ 
व्यवीत वन्यामे जो षदन्न मन्यवे मन्व पुनः उन प्रविमाम से सम्यत 
द्‌ दै । १४९॥ वय.-पु घाम बोर लपवं के मन्यो को ख्पिसो ने क्टाया 
योरस्मावं घमं को मनु तेव्हा याप्या वरता कै बादिमे द्वन वेद 
सद्वा यौ धर्े्ेप खे योर लाप, के संरोषदे वे दपर मं व्यस्वमान हरै 
च्ञ सनियम मोर इपर में ठप दे श्टदिगय देव मनादि निघ्रन अर्थाव्‌ 
सादि वोर्‌ निषान (मृयू) नरन वलि प्वं दिव्य पष्टिनि स्वयम्भू नेनृ् 
श्रिये 1४ घमं के सलि ध्रा ङे सदिव बीरसद्रो के सहित पुथ्रयुम मं 
धमं के अनुषार यपायुग्र वेदवाद सनन बयं वचि विजेय कीडार्िया करते 
४ ॥४६1 यारम्नयन कद्रिय-इदियं जञ वाति दश्च -स्वारके यह वाते शूदर 
यौरउपके हौ यज्ञ वाचे द्राह्यन ये 11\०॥1 
वथा प्रमुदिता वर्गास्पतायां धमं पालिताः॥ 
क्छियावन्त- प्रजावन्तः समृद्धाः नुखिनस्तवा 11५१ 
ब्राह्मनननुवतं न्ते क्षत्रियाः क्षत्रियः विचः1 
यीस्वान्‌.वात्नः मुद्राः परन्परमनुयताः 1५२ 
शुभाः प्रदत्त यस्वेयां धमा य्तश्मास्तदा 1 
सदधुत्पितेन मनना वाचोच्तेन स्वकमंपा॥ 


५७२ 1 [ वायु-दयण 


चाले-मत्त मातङ्ग प्र चद्कर यमन करने वाटे महान्‌ धनूपारी रेते वेप 
गुणो" से भूषिन समस्त शुम एव सुन्दर लगणो से मम्पन्न एवं न्यग्रोष परिमण्डल 
वाति वेता युग मे चक्रवर्ती राया ये ॥६४।।६५।६६॥ 


न्यग्रोधौ तौ स्मतौ वाहु व्यामो न्यग्रोध उच्यते । 

वामिनैवोच्टूपरा्यस्य सम ऊदूर््वनतु देहिनः। 

समृच्छृयः परोणाहो ज्ञेयो न्यग्रोधमण्डलः 1९७ 

चक्र" रथो मणिर्थ निधिरष्वा गजास्तया 1 

सपातिशपरतरानि स्पाचक्त्रततिनाम्‌ ॥द८ 

चक्र रथो मणिखद्धः धनू रलश्च पकमम्‌ । 

केने निधिश्च सप्ते ते प्राणहीनाः प्रकीत्तिताः १६६ 

भार्या पुरोहितश्चैव सेनानी रथङ्कच्च यः1 

मन्भयफ्वः कलम कर्चव प्राणिन सम्परकोत्तिता, ७० 

रत्रन्येयानि दिग्यानि सिद्धानि महात्मनाम्‌ । 

चत्‌ दंश विधेषानि सर्गेपा चक्बतिनाम्‌ ॥७१्‌ 

विप्णोरशेन जायन्ते पृथिबा चक्रव्तिन । 

मन्वन्तरे सर्गेषु मतीतानागतेप्‌, वे ॥७२ 

भूतभव्य।नि यानीह्‌ वत्तमानानि यानिय॥ 

चर तायु गादिकैप्वच्र जायन्ते चक्रव्तिनः ॥३ 

वेदोनो व्यप्रोधवाह क्हेग्ये हैमौदजोध्यामहैः वह ग्रोष कहा 
खानादै। जिम देह्षारोश्ना नामसेटी उच्छु से उद्भ्दं समदै। समुच्टृष 
प्रीणाह्‌ न्यग्रोघ मण्डत जानने के योग्ण होता ह ।1६७ । चक्र रयनमणि पवर्ग 
घन्‌. यह पचिवा रत्नधा 1 देतु जोर निषिये सात रत्न प्राणो से हीनक्टे भये 
ह ॥६८।६६11 मार्या-पुरोहिव-से नानो घौर रयहृतु-मन्नो अश्व कलम ये साप 
शाण भासे वयत्‌ प्राणवायौ रल क्डे गदे ह जोक स्वात्तिशय रल चम्रवत्तिषो 
केह ये ॥७०॥ पे दिष्यरलन महान्‌ मात्मा वालोकेसतिडधषहौपेये। भोर 
समस्त चद्रदत्तिरोकेये वौरह्‌ वेधेय चे ।७१।1 एमस्ते मन्वन्तर्योमे जो यनी 

, ह! दवा मनाम हैः पूवयो ने चद्रव्ता विष्णु भगवादूके बते उलत्र 


यरय द्पेन 1 ५०३ 


हमाक्तते ह ॥७२॥ चूत मव्य ओर जो दत्तमान है ्होंत्रैवापृगादिभरे 
चश्व्रती उपह देते दै 1७३1 
भद्राणीमानि तेपा वै भवन्तीद्‌ महीक्षिताम्‌ 1 
जदुनुतानि च चस्वारि बल घमं: सुख धनम्‌ 1148 
जन्वोन्यस्पाविरेचेन भ्राप्यन्ते वै दषं समम्‌ 1 
स्यो घमंश्च कामश्च यसो विजय एव च {1७६ 
रेश््येणाणिमाचे न प्रमुक्तया तयेव च 1 
अन्येन तपमा चैव शपीनभिभवन्ति च 1 
चलेन तपा चव देवदानवमानुषान्‌ 11५६ 
सदाभैप्रापि जायन्ते शरीरत्वं रमानूपेः 1 
केशस्िना लना्ोयां जिह्वा चास्यगमार्जनी । 
ता्प्रमोन्तोरा. श्रीवत्सा्वोदष्वं देनला ॥२3 


आजानुत्राह्वश्रं व जालदस्ता वृपाद्धिता । 

न्यगरोयपरिणाहाश्च ्िदस्कन्धा सुमेदना ॥ 

गेन्द्रगतयश्चौव महाहुनव एव च ॥*५ 

पादवोश्नक्रमल्त्यौ तु श्वय चु न्तयो 1 

पञ्वाशोतिखहल्रानि ते मवन्त्यजरा नपा । ७४ 

जषद्धा गनयस्तेपा च चतखश्चन््वत्तिनाम्‌ 1 

अन्तरिति समुद्रो च पाताले पवतेपु च ५० 

ट्‌ उनराशाजो केदेषरममद जीर वयन्त बदूमुन वार बत पर्म- 
नुकमौरचनदहोते दह ॥ऽ) नर्पोकेद्रासय अन्योन्य ॐ बवितेषनेसखमानस्म 
$ भ्रात पमे जति ह बे जयं घनं शाय यथ गौर विय ह 113१ वे बनिमादि 
रं छ ठया प्रनुगक्ति ते मोर कन्यव्गवे चरका मो कमिनवन्रिपा 
षरे ह ।बल यर तदे सनन्द देव दानद जो्यानक्रो को जमिति 
षरे हं 1७९11 भरर चरने कन्तो चो लक्ष हवे दे, उनषठेमीपयृक्तवे 
डन्रहोपे हं) वेचरन नोर दै जोरि जनानूव दै जर्दान्‌ मनुय मे 


४७४ | [ वायुवु 


कही होने वालं होये हू । के पर श्वितत ऊर्ण लाट वाद योर सकी; 
जन करने वारो जिदह्वाधौ। ताघ्र दे समान प्रभा चलिभो्र एवदतोष्टव 
श्रीवत्स तथा उद्व रोमश्च ये ,।८७॥ जानुपयःक वाहुओ दाते जाल हस्तत 
वरृपाद्धिन य्रोध द सभाग परिगाहेते दुक्त विहवे सटृशस्व्घवालभ 
सुमेहनये ( गजेद्र के समान गति वाल तयामहनु हनु (टोढी) बले 
11७८ जिनके पैरोमे चक्र एव मत्यकेविहयेतधाद्वायोमण्हुभं 
पद्मके चि-हु येमे त्रिञ्चासौ सट्छवेभकरर अर्थाद्‌ वृद्तापे रहति एरूपये 
119६॥ उन च्व््तियो की चाग गतियां अमह्धधी? बतरिक्षमे समुद 
पातानमे जौर पवनो = भवत्र उनङी गति सौ ॥८०॥ 

दज्या दान्‌ तप सत्य त्रो ताया धर्मं उच्यते । 

तदा प्रवत्तते धर्मो वर्णाध्मविमागण ।८९ 

मयदिस्यापना्थं च दण्डनीति प्रपतने । 

हृष्टपुष्टा प्रजा सर्वा ह्यरोगा शूुणमानसा ॥घ२ 

एको वेदष्चतुष्पादले तायुगविधौ स्मृत । 

प्रीणि वर्पमटघाणि तदा जीवन्ति मानवा ॥८३ 

पु्रपौ्रसमाकौर्णां भ्रिषन्ते च व्रतेण तु 1 

एव प्रत्ते धर्मक्ने तासन्धौ निवोधत्‌ ॥८४ 

गोायुगर स्वमावस्तु सन्प्यापदेन वत्तते । 

गर्ध्याया व स्वभविस्तु युगपदेन तिष्ठति ॥८६ 

मथ प्रो तागुपमुमि यज्ञस्यामौस्रवतं नम्‌ । 

पूवं स्मायम्मपे गर्गे पयावत्तदुग्रवीहि मे ॥*८६ 


यततप्रया-वपन 1] [ 9५१ 


जाजप प्रम प्रसत एवं पृच्ट, रोणे से रिव शौर पूयं मानस बराल ये ॥<>॥१ 
उबर विवि मे चनुप्याद एक्‌ वेद कटा गया है । उद समव मे मानव 
न सदृघ्र दर्पो वक गोवित रहा क्रतं है [८३॥पुव जीरपौत्रोतेपूनं 
दाजग्र चमाङ्ञोणंहो गने येठवद्रमपि मदवृग्त दगा क्रतोये । इसप्रकार 
। वायु वा यह्‌ घम है 1 मद व्रता कौ सन्विमेजो घमं था उवे जानतो 1 
ता यग कला स्वभाव सन्ध्या पाद घे देष्ठा टै सौर सत्यामे स्वमाध 
पवाद न्वे ण्टूता है ॥ < ॥ ८्५॥ श्रो खारपरायन ने कटा 
वायु के मुम यत्त काप्रवत्तन कंते होता या ? पटिते स्वायम्मुव फेने 
अमुप्रह्मारसे है वहमु वतवास्ये गा ङ्त ग के साप सन्ग्याके अन्त 
ति जनि पर उव समय पमरेतेताय्‌गज प्राप्त टोने पर वलीलया स्यान्‌ 
सल नाम वाचो ढे प्रवृत्त होने परि वयां नौर बाघ्रमो कर व्ववस्याकी 
पो १८७ 

सम्मारंग्यांश्च सम्भृत्य कय यन्न प्रवतितः 1 

एतच्छर.त्वात्रवील्नूतः ध्र.यता प्ाशपायन 1 

यथा त्रेतायुगमुखे यज्ञरपरसीलपवतं नम्‌ 1 

जोपयीपु च जाताम्‌ श्रवते वृष्िमर्जने 1 

प्रतिष्ठिनाया वार्ताया गृहाश्रमपुरेष्‌, च ॥1* य 

वणाः घम व्यवस्थानः कृत्वा मन्वान मिताम्‌ 1 

मन्नान्‌ सयोजयित्वाय दहामूत्रप्‌, क्म मु ॥&० 

तया विदवमुगिन्दस्नु यज्ञ प्रावतं यत्तदा 1 

दैवतैः सहितः स्वः सर्वेसम्मारमम्म-तम्‌ 11€¶ 

अयाद्नमेधे वितते खमाजग्मुम' ठप यः 1 

यजन्ते पयुभिमध्यं हुत्वा सवः समागताः दर्‌ 

कमं वयप्रेप्‌, त्वित ननते यज्ञकर णि + 

सम्परगोतेप्‌, तेपतरैवमागमेप््रव सत्व रम्‌ 11३ 

परिकरान्तेप्‌, लघुपु जघ्वयुं दपभेष्‌, च 1 

उपरलब्येषु च मेष्येपु तया पञ्युगणेपु यै 1४४ 


४७६ | [ वयाु पराण 


हविष्यग्नौ हूयमाने देवाना देवहोतुभि । 

आहूतेषु च देवेषु यज्ञमा महात्म ॥६५ 

य इन्दरियात्मका देवा यज्ञमाजस्तथा तुये! 

तानू यजन्ते तदा देवा. क्पादिप्‌, भवनिन ये ॥६६ 

उन मभ्मारोकौसभ्रूतं करके यन्न किस प्रकारे प्रतरते हप्राधायहं 
दतराष्ये । यह्‌ सुनकर थी सूतजी बोन हे शाशरायन । षद तुम मक्षे 
श्रदण क्रो {।८८॥ जित भ्रकारसेत्रतायुयके मूख गज्ञकीश्रहृच्चपी। 
यृष्टिकेसजेन होने षो योपधियोङके उप्न्नहोने पर ग्रह्‌ ओर यश्रम तथा 
पुरो भँ वात्ता के प्रतिषि होने पर वणं भौर माशध्चमो कौ पूरणं व्यवत्याकखे 
पथा मन््रो मौरस हिता के" < पवस्यित बनाकर एव यह भीर परलोक के कर्मो 
में मन्य्रोका रायोजन करङ़े तव विश्व काभोगकरने वलि द्द्रनेण्क्नकी 
रवृ क्या धा जात्रि समस्त देवो के साथ समस्त सम्मारौ रं 
सम्भूत था ॥९६।६०। ९१॥ हमके भनन्तर सश्वोष के वितत होने पर मटपि 
गण समागत दृएये। ओौर सव्रते समागमन करर मेध्यजगमौ त्वौ केट्रार। 
यजन प्रिया धा ॥६२॥ सततत होने वाले यत्नो के कमं -त्विकौ षे कमे करे म 
ष्यप्त होने परभमौर सए्वर ही उन समस्त गामो के सम्प्रगीत हानि पर तथ 
संघु अष्यय्‌- भौर बृषभो के परिक्रान्त होने परत्तथामेध्यो के भाल 
भन दोजाने प्र एव बनिनमं हविर्यो के हृयमान हो जाने पर भौर देव होताभ 
मै द्वारादौ बे माहु श्िजाने पर जौकह्ि महानु मामा यतते देव यज्ञोढे 
मागकोग्रह्णक्रने वाने वे, जो इन्दिपान्भक देव यञ्ञक भागम वालि ये 
उष समय जोक्ल्पादि महते ह उनका दा यजन किया रते है ॥६१।६४॥ 
॥१६६॥ 

अघ्वरयेवः प्रैपवाते अ ये महषंय 1 

महपंयस्तु तानु दृटा दोनान्‌ पुणा हिपतान । 

पग्रष्णुरिन्द्र सम्भूय वौऽ्य यज्ञदिधिस्तव ॥६७ 

अधर्गेो व्तवत्निष हिघाधमेप्छया तय 1 

नैष्टा. पशुवधस्त्वेय तव यज्ञे सुरोत्तम ॥1६८ 


यर्प्रया वर्णन { ५७७ 


अधर्मो घम घानाय प्रारव्वः पञ्ुशिस्त्वया 1 

नाय धर्मो ह्यधर्मोऽय न हिसा घमं उच्यते ॥5प 
आगमेन भवान्‌ यन्न करोत्‌, यदिहेच्छसि । 
विविद््टेन यज्ञेन धम मव्यदेत्‌.ना ॥ 

यज्ञव्रीजैः सुरेथेष्ठ येषु ट्स न वियते ॥१०० 
भिवपपरम वालमूपितैरप्ररोहिभिः 1 

एप घर्मो महानिन्द्र स्वयम्भ्‌ विहितः पुराः ॥१०१ 
एव' विदवमुगिनदरस्तु सुनिभिस्तघ्वदश्िभिः। 
जद्धमं . स्यावरेर्नेति केयष्टव्यमिटोच्यते १०२ 
तेतु छिन्ना विवादेन तत्त्वयुक्ता महंथ. 1 

सन्धाय वाक्यमिन्द्रण प्रपच्छुश्चे दवर वनुम्‌ 11१०३ 
महाप्राज्ञ कय दटस्त्वया यज्ञविधिनुप ` 
उत्तानपाद प्रवर टि सशय छिन्धि न प्रभो ॥१० 


भष्टकालमे जो मपि अध्य" श्यति हृएये ठो उस समय मे 
स्न दीन एव स्त पञुगरणो को देख कर महपियो ते सम्भूत हो कर दन्द च 
पया चा सि यह जापकं सज्ञकी बया विति ? 07७ वरप हिमा षम 
की इच्छा सर यह वडा जगरदस्त सधर्मं किया जाता 1 दे मुसेत्तम 1 मापक 
स्मवरष् पशुभोकावय तो इष्ट नह दै १16 आपने पमकद 
धमं दा नान करके क लिय यह अधमं बारम्मर कर दिप है । यह सोधम 
महह्‌। व्डरोअवमं हो३। हिमा कमी घमं नही कहा जाया करता है 
माप य्दिचाहौोलीहैतो मागमकं दराय्त क्यियिगा॥ हं मुरश्ेषठ 1 धम 
म्यकाहेतु विचष्ट यज्ञै तथा यक्ञ-गीर्जो कं द्वारा यत्न दोन चार्दिए 
‡ मे हा नदहोके ॥१.०॥ द इन्र 1 तीन वपं तक परमक्नाल ॥ अप्ररो- 
हिमे क द्रण उ्॥ रहर हर्‌ यद धमं महान्‌ स्वयम्‌ कर द्वारा विहि ह 
जक पिनि स्थिः गया है ॥१०१॥ इन प्रक्र से वित्वमुक इन्द देव तत्त्व क 
इष्टा महि कं द्वारा कहा जातादहै क्रि स्वावरो" से ही हमक यजन 
कणा बिष ॥१०२्‌] वे ठव से युक्त मटनन्म दरिवादसे व्डटीदिन 


४५ 1 { वर्‌ पुरम 


हृष मौर इन्द्रे द्ररा वाक्य का सन्यान करे ईश्वर वधु से उन्दने पूया 
॥ १०३१ पियो ने कटाहे महा प्राज्ञ! है चप । आपने यद्‌ केषी भौर 
क्था गन की तरियि देली है ? उत्तान पादके विषय मेवठाश्येहे प्रमो } 
हिमारे इम सशय का चदन करिये ॥१०५7 

श्रूत्वा वाक्य ततस्तेपामव्रिचायं वलावलम्‌ । 

वेदशास्व्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह } 

यथोपदिष्ट यटव्यमिनि हौ वाच पार्थिवः ।*१०५ 

यष्टव्य पञ्युभिरमेध्यै रथ वोज" फलंस्तथा । 

हिसास्वभावो यज्ञसमं इति मे दर्शयत्यसौ ॥१०६ 

यथेह सहितामन्त्रा हिसालिद्खा महपिभिः। 

दीघेण तपमा युक्त द॑शेनैस्तारकादिभिः । 

ततप्रामाण्यान्मया चौक्त तस्मान्मा मन्तुम्‌ य ॥१०७ 

यदि प्रमाण तान्येव मन्त्रवाक्यानि वै द्विजा 1 

तदा प्रवर्तना यज्ञो ह्यन्यथा नोऽनृत' वचः ॥ 

एव हतोत्त रास्ते वै युक्तात्मानस्तपोधनाः ॥¶०्८ 

अधच भवतत दृट.वा तमर्थं वाप्यो भव ॥ 

मिथ्यावादी नृपो यस्मात्‌ प्रविवेश रसातलम्‌ ।।१०८ 

इत्युक्तमात्रे नृपति प्रविवेश रसाततम्‌ ! 

उदधंचारो वषुभूत्वा रसातनचरोऽमवन्‌ ॥१९० 

वसुधातलवाक्षी तु तेन वाक्येन सोऽमवन्‌ 1 

धर्माणा सशयच्छेत्ता राजा वसुरथागतः ॥११ 

तस्मान्न वाच्यमेतरेन वहू्ेनापि सशय. । 

वहूढारस्य धम॑स्य सूक््माद्‌दू रमुपागति. ।११२ 

तस्मात्न निश्चयाद्‌ धर्मः शक्यस्तु केनचिन्‌ । 

देवानृषीनुपादाय स्वायम्मवमूते मनुम्‌ ॥११३ 

तस्मान हिसाधर्मस्य दारमुक्त' मदपिभिः 1 

ग्िरोटिस्रदस्ाणि कर्मभि. सवेदिकं ययुः ॥११४ 


यत्तया देन 1] ४३ 


इस अनन्तर उनके वाक्य को सुनकर भोर दलावन फा विचार नकर 
के तथः वेद धास्तर का अन्‌मरण करके यत्क तत्तव को बतलाया था । पाधिव 
ने कहा्ज॑प्नाभी उषरिष्टहै उसो से यजनक्रना चाहिए ॥१०६॥ मेष्य पुमो 
टा, बौजोङे द्वारा भौर फनोकेद्वारा यजन करना चाहिए । मुभे यह्‌ दिख 
लाश्देवा है कि यज्ञमा हिमा स्वमाव होता है ॥१०६ यहां पर जवास 
कमन्यं जिनका लिद्ध हीहिमाहै दें तपसे पृक्त महवियोने गोर 
रिकादि द्संनो > शहद 1 उती ङे प्रामाण्य सेरभैनेक्हादटै इमतिर दस 
भरेपयमे मुत मत मानो 1 अर्यात्‌ मुभेदी मानने के योग्प नही दोतिरहै॥\१०७॥ 
द्विव गमो! यदिवेहो मन्व वाक्य प्रमाणतो यज्ञ को प्रवृन करो अन्यया 
दृमारा वचन अमत्य है} इम प्रकार से युनात्मादे तपो घन हृतोत्तर ह गये 
भर्थद्‌चुष्हो गेये 19० नीचे भवन को देथक़र उमके सिये व्यत 
अर्यात्‌ मौन दो जाओ 1 जिते मिथ्यावादी नृप ने रसातल मे प्रवेशाकरियाधा 
॥१०६॥ इतना केवल क्म पर राजा ने रसातल मे प्रवे किपाधाञौर 
ऊर्वववारौ दधु होकर रमातल मे चरण करने वाना हये गया या ।1११०] उत्त 
वाक्पते वह्‌ वमुश्रा चलत कावासो हो गयाया। धर्मा के सायका देदन 
कएने वाला राजा वधु दनक समनन्तर आग्रया ॥१११।॥ इपलतये चहं बहुत एं 
चानने वात्ता्भो क्योनहो क्भोभीस््पिएकूकौ सशमका निराकरण नही 
चोचना वा्रिए्‌ । वहुद उद्धार वाले घमं वी सूक्ष्मता मे दूर उपागति होती है 
पषा इव कारणत किवोके द्वारा निस्चय पूर्वक धमं का विषय बोला 
नरी जा सक्जाहै । केवलदेवोकोनौरच्छपिगोनो तेकर स्वायम्भृव मनु ही 
हौ धमं को जानते ह ! इनको छोडकर मन्य कोर नही जान स्ता है11\१३॥ 
इमलिये महवियो > हा को घर्मं काद्वार नही कदा दै 1 सदसो क्रोड ण्वि 
नमने कम्मोंसे स्वमंकोग्येये ५॥११२॥ 


तस्मान्न दान यज्ञ वा भरशंसन्ति महरपेयः 1 
तुच्छ भूलं एलं शाक्मुदपान तपोधनाः 1 
एवं दत्त्वा विभवतः स्वर्गलोके प्रतिखिनाः ५९१५ 


४८० 1 [ वायदररग 


अद्रोदुश्चाध्यलोभश्व दमो भ्रुतदया तप 1 

बरह्मचयं तथा सत्यमनुक्रोश. क्लमा घृतिः। 

सनातनत्य धर्मस्य मूलनेतदुदरासदम्‌ ॥११६ 

धर्मेमन्तरात्मको य्चस्तपर्दानशनात्मकम्‌ । 

यज्ञेन देवानाप्नोति वैराग्य तपसा पुन ॥११७ 

ब्राह्मण्य कर्मंसन्यासाद्रं राग्यात्‌ प्रेक्षते लयम्‌ । 

ज्ञानान्‌ प्राप्नोति कैवल्य पञ्चं ता गतय स्मृता ॥११ 

एव विवाद सुमहत यज्ञस्यासीन्‌ प्रवत्तं ने 1 

शरहपीणा देक्तानाच पूरव स्वाप्रम्भुवेऽन्तरे ॥१९८ 

ततस्ते पयो दृ वादुमूत वत्मं वलेन तु । 

वसोर्वाक्यिमनादृत्य जग्मुस्ते वे यथागताः ॥१२० 

गतेषु देवसद्धं पु देवा यज्तमवप्नुयु । 

शरयन्ते हि तप सिद्धा ब्रहाक्षतमया नृपा. ॥१२९ 

इससे महपिगरण दान थवा यक्ष की प्रणता नहो त्रिया करते है । ता 
धन यर्पात तपस्व लोग तुच्छ पूत फल शाक मौर उदक्रका पातर देकर १ 
अ्कारस्चे विप्रवसते स्वगं सोकमे प्रतिष्टित होने ह ॥११५॥ नदो लोम न 
करना दम-्राणियो पर दयानतपस्या.तर चयं -सत्य अन्‌.करोश क्षमा धृनि यहं स्र 
सनातन धर्मेष्षो दरा ॥ ललन) मल टोला दै ॥११६॥ धम म्त्रासमक 


चारे यणो य बास्ान | 


प्रियब्रलोचानपादौ ध्रुवो मेधातियिरंघुः1 ^ 

सुमेघा विरनाश्चव शद्धपाद्रजषएव च 1 

प्राचीनवरहिः पर्जन्यो हविदानादयो नृपाः १२२ 

एते चान्ये च वहवो नृषाः सिद्धा दिवं गता 1 

तस्मादुद्वित्निप्यते यज्ञात्तपः सवपु कारणः 1 

ब्रह्मणा तपसा सृष्ट जगद्विश्वतिदं पुल ॥१२४ 

तस्माच्चाचयेति तज्ञ तपोमूलमिदं स्मृतम्‌ 1 

यज्ञपवर्तन द्यो वमतः स्वायभ्भुवेऽन्तरे 1 

ततभभृति यज्ञोऽयं युगेः षट व्यवततं ् ॥१२५ 

्रियत्रय-उत्तान वाव-घ्.व नेवाठिणि-वल -ममेषा- विरडाश्ख वाव 


र परस्वीनवहि प॑न्य ओर ददिर्वानि नादिर्न दृ तथा अन्पव्ट्वरो 
रजा शिदये बरवे स्वर्गे कोगयेये। ये राग्पिगण महाव स्वसोयुक्तगे 
जिवनो नि कीति घरिपिव है ॥1१२२॥ इमन्िये खव क रणो षेद्रारात्तपय्ल 
से विति हुम! कर्ठा है \ पदे शर बरहा ने तप से ही इख जगन्‌ तषा 
विश्वको चष्ट किया या ।१२घ। इएलिगे वह्‌ यज विक नही देता है 1 ह 
तपदेमून वासा क्हागपादै इत प्रकार चे स्वयम्भुव मन्वम्वरमे यत्तका 
रवत हमा था । ठव सो तेर यह्‌ य वृ के ए विद्ञेपस्पसे हना 
धा द्रशा ति 
11 प्रकरणं ४० -चारो युगो का मापन ॥ 

अहत ऊध प्रवश्यामि द्वापरस्य विरि पनः 1 

तवर त्रेतायुगे क्षीरो ढापर प्रतियत 1.१ 

द्वापरदो प्रजानानतु िच्स्तितायुने तुया 1 

परिवृत्ते युगे त्मिस्ततः सा सभ्रणश्यति 1२ 

ततः प्रवत्तं ते ता प्रजानां द्वापरे पूनः 1 

सोघ्नोऽरृतिवं णिग्बुद्ध तत्तवानामविनिस्वयः 11३ 

उम्मेदश्रंव वर्णाना कार्यायान्ा विनिर्मः 1 

योपय; पर्ौदण्डो मदो दम्भोञ्छामा वलम्‌ ॥ 


चारोयुगो क ञच्यान ]} { भ्म्दे 


तपो दष्टिविभिन्नंस्तैः कृतं शास्त्रकुलन्त्विदम्‌ । 

एको वेदश्चतुध्पादस्त्रेतास्विह विष्ठीयते 11 १० 1 

सरोधदःयुपरचैव ख्यते दापरेयु न । 

वेदव्यासेश्वतुर्घा तु व्यस्यते द्वापरादिषु 1) ११॥ 

ऋखपिपु्रै पुनर्वेदा भिन्ते टष्न्विभ्रमैः। 

मन्मेत्राह्मणविन्वासेः स्वरवर्ण विपर्ययः ।\ १२1 

घरंहिता ऋग्यजुःसाम्नां सदम्यन्ते श्र तपिमिः। 

सामान्यां छृताच्चैव हप्टि भिन्ने. करचित्कववचितु ॥ १३ ॥1 

ब्राह्मण कृल्पपूजाणि _ भन्वभ्रवयनानि च॥ 

अन्ये तु प्रहिास्तीर्थेः केचित्तार्‌ प्र्पवस्विताः 1 १४१, 

परस्पर भे विभिन उन मनृष्ोके दाग ञौर दियो के श्रम के 
हने से--"यह घमं हे मर यह घं नहीरै' ण्ट निश्चयनह तिमा जाता ह 
कि वम्तुतः धर्म क्या 0 त 1 कारणो के वैवत्परने से बौरकास्णवा भ्ये 
निश्चय न्ह होनिमेमोरडउनषके मल्मिदरौनेतेद्ष्ियोदः विश्रम हौ जाण 
करता ४ १ ११ इमङे पञ्चात्‌ दृष्टि मे विभिम्न उनके दारा यड नात्र कुल 
दिया गणै 1 दषठच्रताते पनां एक्ठेद चार षादौ वाना विघान किएा जात्ता 
है 1 १०॥१ हृदयो याप्त्रे संरोघमे दिव्लादेवादै 1 द्वावरादि मे वेद 
ध्यसकेदधराचार प्रकार से व्स्यमान क्या जता) १९१५ श्यो ै। 
पृक दयदृष्टिके शिन्निनोते वेते के पृनः भेद त्रिये जायाक्रते द 
मन्व लोर ब्राह्मण माव के विन्दार्सोके द्वारा तयास्वर वें के विपर्ययो के 
द्म्ानेदस्दिचातेह1 २ 1) ऋमू-पचु गोरसाप्रवे्ो की हि ष्टी 
कां पर ्ष्टिते मिन्नश्रलप्यिके द्वारा सामान्य तथा वेने रूपसे महन्य- 
मानदौ) ३ ॥ द्राद्य, कल्पनूत्र बौर मन्व प्रदवन अन्य हार्थो के 
दयाय प्रहि ह 1 दुद नोय उने परनि अवस्थित १४१ 1 

उपरेषु प्रवर्तन्ते नित्रउत्ताध्रमा द्विजाः! 

एकमा््व्वतं पूवमायीदटं वं पुनस्ततः 1 १५१ 

मत्रान्यत्रिपेत्ावेः न्तं लास्यदुचन्त्विदम्‌ } 

जाव्वर्वतस्य प्रह्दावरर्वटूवा व्वाहदरन एतम्‌ सद्र 


] [ वषु परण 


एषां रजस्तमोयुक्ता प्रवृतिद्रापरे स्मृता ॥ ४॥ 
आच छृते च धर्मोऽस्ति त्रेतायां सम्प्रषद्यते । 
दवापरे व्याङ्ुलीभूत्वा प्रणश्यति कलौ युगे ॥ ५॥ 
वर्णाना विररिष्वषः सकीत्य॑ते तथाश्रमः 

दं धमुत्पद्यते चैव युगे तस्मिन्‌ भनौ स्मृतौ ॥६॥ 
दान्‌ श्रतेः स्मूतेश्च॑व निश्चयो नाधिगम्यते । 
अनिश्वपाधिगमनाद्धमतत्तव निगद्यते । 

धर्मत्वे तु भिन्नाना मतिभेदो भवेन्नृणाम्‌ ॥\॥1 


श्रीसूननीने कठा इसके थमे पुनः इपर की स्थि को वहू । 
यह पर प्रतायुगकेक्षण हो जन पर द्वापर यु प्रतिपन्न होताहै॥ १॥ 
प्रजा-जनौ को तरतायुण मरे जो िद्धि षौ वह दापरके जादि मे युग के परिवृत्त. 
हो जानि पर उष द्वापर मे वह्‌ फिर प्रनष्ट हो जाती टै) २॥ द्वापर मे फ़र्‌ 
उनप्रजाभोके लोम, धृति वगिग्युद्ध, तकतवौ का अविनिश्चय, वर्णो का 
सम्मद, कये" का गविनिर्णय, यन्ञौपधि पशु का दण्ड, मद, दम्म, मक्षमा, बत 
से सव भरवृत्त होति दै मोर नकी रजोगुण तया तमोगुण से युक्त हापर मे प्रवृत्ति 
कही गहै ॥ ४॥) माचष्टत पुगमेष्मेहै वरतामेद्हे समपनन होता है 
भौर द्वापर मे व्याकुली श्रुत होकर कलिमग मे प्रन हो जाया कणत दै ॥ ५11 
वर्णः बा विजेपरूप्से प्रिष्वस सकत विया जाता है 1 उ पृगपे परति 
स्मृतिमे बश्रम मौस्सोप्रकारनेद्रंधमाव को प्रात हौोजादादहै।॥६॥ 
धूति के मौरस्पृत्तिकेटय भावस किकी भी निश्चय का भवियम नही क्था 
जाता । अकिप्चय के अयिगमनसे धमं का तत्व कहा जाया करता है। 
धमक ठस्वसभिनमनृरप्यो का मतमेददहोजाताहै॥७॥ 


परस्परविभिन्रंस्तंहष्टीना विभ्रमेण च । 

अयं धर्मो ह्यय नेति निश्चयी नाभिगध्यत्ते ॥८॥ 
कारणानान्व वंतल्यात्‌ ऋारणस्याप्यनिन्वयान्‌ 1 
मतिम्िदेचतेषा वै रप्टीन विघ्मो सदेन्‌ ५६१ 


चारो युगो करा आद्यान्‌ | [ चम्ड 


तततो हच्टििभिन्नैस्पैः छृतं शास्वङ्ुलन्त्विदम्‌ 

एको वेद््चतुप्पादस्तैनास्विह वियते ।{ १० ।। 

सरोधादायुपर्वैव हश्यते द्रहपरेपु च । 

वेदव्यासंश्चतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु ॥ ११॥ 

चछषिपुतर. पनर्वेदा भिन्ते हव्विध्रमैः । 

मन्मत्राह्मणविन्वासः स्वरवणं विपर्यये. 11 १२ 

दिता श्ग्यजु-साम्नां सटुन्यन्ते श्र. तपिनिः1 

सरामान्यद्ं कृताच्चैव हष्टिभिनने. क्वचित्ववचित्‌ ॥ १३॥ 

ब्राह्मण कत्पसूनाणि _ मन्द्रप्रववनानि च। 

अन्धे तु प्रहितास्तीर्थैः केचित्तान्‌ प्रन्यवस्पिता. ॥ १४॥ 

परस्पर भे विभिन्न उन मनुष्यों द्वा भौर दृध्िमो के {श्रम के 
होने घे--पहष्मं है ओर यह्‌ परं नहीदहै' यहु निल्चयन्ही विया जाता दै 
कि वम्तुन. घमं क्याहै।) र ॥। कारणो वंबत्परोमेसेमौरक्ारणवा भ्य 
निश्चय नही होने से मौरखनके मल्मिद रोने टधियो का विधम हो जाणा 
करता 1 ६ ॥ इमके पश्चातु दृष्टि से विभिन्न उनका यह शास्र कुल 
दिया ग्रहै! इष प्र॑तामे यल एक केद चारथादो वाला विधान किया जाता 
द १०1 हृदयो मे आपके सरोधसे दिव्लाद्रदेताहै । द्वापररादि भँ वेद 
स्पासङेद्धगा चार प्रदर से व्यस्यमान निया जातारे। ११४ ऋष्यो ३ 
पश्रोरे ह्रारष्टिके विश्रमते वैदो कै पृनः भेद त्रिये जायाक्रते ङ 
मन्व छीर ब्रामण माण के विन्यासोकर द्वागा तयास्वर वर्ण के विपर्ययो के 
दवारा भेद क्रिये जति ह+ १२॥ ऋग्-पजु मोर सामवेधो कौ सहिता षही- 
कट पर टष्टिसे भिन्न श्च.सेक्ि के दारो सामान्य त्था वेत सूपसे मह्य 
मान होती ई ।\ १३ ॥ ब्राह्मण, कल्पसूत्र जौर मन्व प्रवचन अन्य तीर्थो के 
ह्यय प्रहित है ! कु लोग उनके श्रत जड्थिते हे १४॥ 

द्वापरेषु प्रवर्तन्ते भिन्नवृत्ताश्मा द्विजाः । 

एकमाध्वयेवं पूवमामोदुरं घं पुनस्ततः 1 १५॥ 

सापान्यविपरेता्थैः कृते शास्वकुलन्त्विदम । 

आघ्वर्येवस्य प्रप्तावैवंहुधा व्याङ्गल छतम्‌ 11 १६11 


४८४ |] [ वपुश्ुतण 


तथेवाथर्व्चक्‌साम्नां विकल्पैश्वाप्यसंश्नयैः । 
व्थाकुल द्वापरे भिन्ने क्रियते मिन्नदशनैः ॥ १७ ॥ 
तेया भेशाः प्रमदाश्च विकदेश्चाप्यसश्षथाः । 
द्वापरे सम्प्रवर्तन्ते विनयन्ति पुनः कलौ 11 १८ ॥ 
तेपा विपथं याश्चैव भवन्ति हरे पुनः 1 
अवृष्टिमेरणञ्चैव तथेव व्याध्ूपद्वाः। १६॥ 
वाड.मनः । कमंजदु खं िरवेदो जायते पुनः + 
निर्वेदाज्जायते तेपा दूःखमोक्ष विचारणा ॥ २० ॥ 
विचारणाच्च वैराग्यं वंराग्याहोपदर्शनम्‌ । 


दोपाणा दशनच्चैव द्वापरे ज्ञानसम्मवः॥ २१॥ 


द्वापर मे भिन्न वृत्त मौर आश्रमो वाने दज ्रवत्तित होते है। एक 
पहिले माध्वपेव था वह फिरद्रव हो गया ॥ १५॥ सामान्य बौर विषरोत 
सर्थोसे यह णास बुल क्रिया गया} आध्वंवके प्रस्तावो से बहधा ष्याङरल 
करदियादहै॥) १६॥ उसौ प्रकार से अथवश भौर सामो परै भक्षय 
विवरूरोसे मी भिन्नद्वापररभे भिन्न दर्शनों व्याकुल शिया जता 1, १७॥ 
उने भेद भोर प्रभेद मौर विक्त्पोसे भौ असंक्षयद्रापरमे सम्वत हेते दै 
घोर फिरक्तयुगमे विनष्टो जाया कत्ते ८ ॥। दपर मे फिर उन 
के विपयेयभी दोतते है । वृष्टि मृत्यु भौर उसो ध्रारसे व्णाविणो बे रपद 
होने है॥ १९६ ॥ वाणो मन मौर कमं से उत्पन्न दु-खो ते फिर निरयेः [वंगग्य) 
हो जता 1 निरवेदद्येजनेमे उनो दुखसे टकारः पाने षौ विचारणा 
होती 8 ॥ २० ॥ विषाग्णाते वैराषहोता है घौर वैराग्य पे शामारिकि 
लनुभरोे दोषो कषा दगेन होने सग्वा है मौर दोषों के देवने तते द्वापर मे शान 
षी उह्यत्ति होनी ६।॥२१॥ 


तेषार्च मानिनां पूरवंमाचे स्वायम्भृषेऽन्तरे। 
उष्पदयन्ते हि शास्त्राणा दवापरे परिषन्विनः॥ २२॥ 


चारे यमोक्ता आसान ] [ य्त्‌ 


भायरवेदविरत्पाश्च अज्गण्नां ज्योतिषस्य च । 

अ्वंशास्वविकन्यश्च दैनुबास्वविक्रल्पनम्‌ ॥1 २३ ॥ 

स्मृनिरान्नपरभेदाष्च प्रत्यानानि गृयक्‌ पृक । 

दापरेप्वनिन््तन्ते मप्तिनेदास्निया नृणाम्‌ 1 २४८॥ 

मनसा क्षेमा वाचा कृच्छ्रा द्रत प्रतिद्रयनि। 

दरे मतरेमूपाना कावकेतयदुर्फृताधर्‌श्य 

लोभोऽघरृतिविग्बुदढ तत्वानामविनिशव्रयः 1 

वेदसास्वप्रय पनं ध्मीणा सशर स्तया ॥ २६ ॥। 

द्वापरेषु प्रवर्तन्ते रोगो लोमो वघम्नया । 

वर्णाद्रमपरिध्वस. कमह पौ तयेव च ॥ २७॥ 

पर्णे वपनं रे परमायुप्तथा नृणाम्‌ । 

निने दवापरे तस्मिन्‌ तस्य सन्ध्या तु पादत ) २८॥ 

पटले यादय ध्वायम्नुव मन्दतरमें उन मानो भस्ोके दापर में परि 
प्न्य उपव होतेह २० अङ्गो के गोर ग्योतिपिके जगुर दिक्न्प ह! 
्ेनफस्य विङ्त्प मोर टैनुखस्व विक्त्य ह! २३॥ स्यृवयास्वके प्रनेद 
¶ृषक प्यर्‌ श्रस्यान ह । द्वारम उष श्रकूर से मनुष्यों के मतिनेर गभि 
वे्तव्रहोतैदह॥ २४॥ मनते, वानीचे, कमं से, कश्च वार्ता प्रिद हठी 
है परमे ममस्त प्राभ्य कौ वात्ता वायवतेश से पूरश्छृता दोती दै ॥ २१५५ 
सोम, अथय, विजयुड वस्वो का निश्वपन होन, वेद श्रो का प्रणयन 
मीर घमोकाषद्ुट, रोप, सोन, वध, वथो मौर प्राश्रमो का दशष्न्यि, काम 
मीरद्रपये सब्रद्वापर मे प्रवृत्त नै ह॥ 2७ ॥1 मनुष्यो की परमायु पूरणं 
दोरु वपं हीतीदहै । उस द्रापरकेनिदोप हीने पर उषङ़ी न्ध्या एर 
पदसेदोठीटै॥ रसा 

प्रतिषे गुपर्ूनि घर्मोऽखौ द्वापरस्य तु 1 

तथैच सन्ध्यापादेन असस्नस्यावतिष्ने ।! २६॥ 

द्वापरस्य च वर्षे या तिप्नस्यततु निरोवन । 

द्यपरस्याशकषनेतु प्रतिप्रत्तिः क्तेरतः॥ ३० ५ 


1 { ग्रु द्ण्ष 


हिञात्रपानृततं माया वदरवैव तपर्विभाम्‌ । 

ए स्वमावेस्विष्यत्य माध्रयनि च वं प्रजा ॥३१॥ 
एप धर्म. ङ्प कलो घमरर परिदीयने । 

मनत कर्मपा स्तुत्या वात्ता सिद्धयति वान वा॥३२॥ 
कलौ मारको रोगः सतेन शुद्मयानि वं । 
अनादृटिमय पोर दर्ततङ्व व्िपयंयम्‌ ॥६३॥ 

न पाय स्टेरन्ति विष्ये लोके युपर पुमे 1 

गरभ॑स्यो श्रिःते करिवयौदनस्नथापरः । 

स्याविरे मध्यौमारे ज्नियते व कलो प्रजा ॥ ३४॥ 


अवामिङान्त्वनाचागस्फीकय कोपातेनघ. 1 
सन्नतर ठ सततत पिप्ये जायलनिति वं प्रजा ॥ ३५॥ 





चारो युगो काञस्यान ] [ ४८७ 


दुरिष्टदुं रधीतैश्च दुराचारेदुं रागमैः 1 

विप्राणा कमं दौपेस्तेः प्रजाना जायते भवम्‌ 1 ३६॥ 

हिसा माया तयेर्या च कोधोऽसूधाक्षमानृतम्‌ 1 

तप्ये भवन्ति जन्तूनां रागो सोमश्च सवशः 1 ६७॥ 

संभोगो जायतेऽत्यर्थं ॑कलिमामाच वं युगम ॥ 

नाधीयन्ते तदा वेदा ने यजन्ते द्विजातय. । 

उत्सीदन्ति नगाच॑व क्षेत्रिणः सविश क्रमात्‌ ॥ इषा 

छ्षुदराण मन्धयोनेस्तु सम्बन्धा ब्राह्मणं सह 1 

भवन्पीह्‌ कलौ तस्मिन शयनासनभमोजर्न. 11 ३६ ॥ 

याजानः शूद्रभूविष्ठा पाषण्डानां भ्रवतंकाः 1 

श्र.णहत्याः ्रजास्तज प्रजा एव प्रवर्तते 11 ४० ॥ 

लायुरमेवा व रूपं कलस्चैव प्रहीयते 1 

चृद्राश्च प्राह्मणाचाराः शूद्राचाराश्च ब्राह्मणाः ।1 ४१॥ 

राजवृ्ते स्थिताश्चौ राइचौ रवृत्ताश्च पाथिवाः । 

अ नप्टसुहदो युगान्ते पयु पस्थिते ॥ ४२ ॥ 

युरे इष्ट वालि, वरा अध्ययन करनं वाति, वुरे वाचार वलि मौर बुरे 
भागम वति ब्राह्मणोके इन कमं दोपोत्ते प्रजा जनो को भय उतपन्न हमा 
करता है 1} ३८ ॥ हिसा, माया, ईर्ष्या, क्रोध, अपूपा, अक्षमा, यनृत, राग 
भौरलोभतिष्यमे सवमगोरसे जग्वुमोरो हमा करते है ॥ ३७ ॥ कलियुग 
प्राप्त करके जीवौ को बत्यन्त संकषोम हआ करतादै। उस्र कलि के समयसे 
द्विजाति वेदो को नदीं ष्डाकम्ते हैषोरनवे भजनदही क्रिया कत्ते ह । दसत 
भनुष्य भौर वैष्योके सहितक्षत्रियक्रम से उत्पौदित हमा करतेहैँ ॥३८॥ 
क्रो फा मौर जन्य योनि का सम्बन्च ब्राह्मनो के साय ईतस्र कलियुम रे शयन, 
ाघ्रन मौर भोजनके हारा हुजा करते ६। ३६ ॥ रषजालोगद्रद्रो फी बधि 
षता वक्ति प्रायः हमा करता दै मौर प्रापण्डो के प्रवत्तक होत ह । उनमे प्रजा 
पिमोहोतीदहैनोभ्र.ण हया वाती होनो दहै ॥ ४०॥ आय्‌, मेषा, वल, खूप 
धरर दुत रिहीनहोताईै।जोयुद्र हति ई उनकेतो ब्राह्यणो जते भचार 
होते ई भौर जो ब्राह्मण होतेह उनके शूद्रो के समान भाषार हृजा करते 


४८६ | [ वागु पूरण 


हिषतामरयानृतं माया वधश्चैव तपस्विनाम्‌ । 

एते स्वमावास्िप्य्य साधयनि चवं भ्रजा;॥ ३१॥ 
एप धर्म त कृ-ध्नो धमव परिहीयते । 

मनता कर्म॑णा स्तुत्या वार्ता सिदच्ति वानया 1३२) 
कलौ प्रमारको रोग सतत ुदूमयानि वे। 
अनावृष्टिमिय घोर दर्शतञ्व विपरयथम्‌ ॥ ६३॥ 

न प्रमाण स्मृतेरस्ति सिप्पे नके युगे धुगे । 

गभ॑स्थो भ्चरिव्रते कश्चिद्यौवनस्नधापरः ॥ 

स्थाविरे मध्यकोम।रे त्रियन्ते व कलौ प्रजा ॥ ३४॥ 
अधार्मिकास्सवनाच।गास्नीक्षण को गाह्पतेजस. । 
अनृतन्.वश्च सतत तिप्ये जायन्ति वे प्रजा ॥३८॥ 
द्वापर का यह चमे गुणोसे हीन प्रतिष्टित होता) उसी प्रकार से 


सम्ध्याप्राद से उमका अश्र अवस्थित हीवाहै 1 २६॥ हषर के व्पं मे भो 
तिष्य कौ है उसे मपक्न लौ । द्राषरर के अश्चशेष मे दसमे फनियुभ कौ प्रति 
प्र्तिदौजातोहै॥३०॥ हषा, भूया अनृत, माया भोर तपस्ियो का 
वधयेस्थमावतिष्यके हमा क्रते है । उप्त समयप्रला इनका साषन शा 
करती है ॥ .१14 यह्‌ किया हरा पूरणं घमं है शौर धर्म परिहीन हो जाता है। 
मनसे, कर्ममेमोौर वाणीति (वाणीकाही पर्याय स्तुति दहै) वार्ता सिदध 
होतो है भौरनहीभी होती है॥ ३२ कलिय मे जो रोग होता है वहं 
श्रक्पं स्पसे मारक हआ करतादहै भोरनिरन्तरक्ष.धा के नान्ते करन का 
भय वना रहा करता है त्या कं चित्टृलन होने का भय सथा धौर दशन 
एव विपये होता है ॥ ३३ ॥ तिष्य लोकम युगयुग मे स्मृति का प्रमाण 
नहीं होता दै । कोई गर्भे मे स्विति ही मर जाताहै ओर दघरा पूणं यौवना 
वस्थामेस्वितहौ पपयुगत हो जाना है । कनियुगमे स्याविर मे मध्य कौमार 
प्रजा मर्‌ जाया करती है। ३४ ॥ त्तिष्यमे प्रजा मधािक, बनवार से युक्त 


तौक्न्ण कोप वाली, बल्प ठेज से युक्त ओर मिथ्या बोलने वाली निर^वर उपपन्न 
न्म््यर्तोटहै॥ ६५॥ 


चारो पुमो क्ा अन्यन | [ ४८७ 


दुरिष्टं रथीतैव्व दुराचारे रागमैः 1 
विप्राण्ण कर्मेदोपेस्तैः प्रजाना जापते भवम्‌ 11 ३६॥ 
{हसा माया तये च कोधोऽनृथाल्मानृनम्‌ । 
ए्प्ये भर्वात जन्नूना रागो सोमश्च सवेल ॥ .७॥ 
सभ्ीभो जायनेल्य्यं कलिमासाद्य व॑ युगम्‌ । 
ध्राधीयन्मै तदा वेदा न यजन्ते द्विजातय ! 
उत्सीदन्ति नरार्चवक्षनिणाः मव्रि्ञ क्रमात्‌ ॥ इत॥ 
धुद्राण मन्धयोनेस्तु सम्बन्धा ब्राह्मणं नह्‌ 1 
भवन्तीह केलौ तस्मिन्‌ शयनामनमोजनं. ॥ ३९ ॥ 
राजान. गूद्रभूिष्ठा पापण्डाना प्रवतंकःः] 
प्रणतयः भरजास्नत्र प्रजा एव प्रवर्तति ॥ ४० 1 
आयुर्मेधा वल सूप लस्यैव प्रहोयते ! 
पृद्राष्च प्राहयणावारा. शद्राचाराप्च ब्राह्यणा. 11 ८१।। 
राजवृत्े प्थितादचौरादचौरवृत्तापचे पाथिवाः 1 
४ नष्टसुहृरो युगान्ते पयु पस्विते ॥( ४२॥ 
षष्ट वाते, युरा अन्यवने करने वाते, बुरे भावार्‌ बाले भौर बुरे 
भागम वत्ति ब्राह्यभोके इन कमं दोपोसे प्रजा जर्नो को भय उन्न रुमा 
ष्ला है ॥ ३६ ॥ हिसा, माया, ईर्ष्या, क्रोध, अनूपा, मक्षमा, ननृत, राग 
भोर्लोम त्िव्यप्रे चव बोरसे जन्ृथोकोहूमाक्रते्है 1३3 ॥ कञ्युग 
धरा रके जीवो को मयन्त सक्षोन दूजा करता दै । उप क्लि के समयम 
्विजाति वेदो कौ नहींण्दाक्म्तेहैमौरनवे मजनहीक्िवाङ्रतेह। इतने 
मनुष्य मौर वेर्यो दे घटि सतिप क्रमते उतत हूभ्रा करते हु ॥[३८॥ 
क्रो का जोर यन्य पोतिका मम्दन्प प्रायो प्रापश्ख न्पिपप एन, 
यामन मौर भोढनकेटटारा मारते है 1 ३६१1 गजा सो ददो कौ बधि 
कना बति प्रापःहजाक्रतादै घौर वादण्डो के प्रवत्तंङ हीति 1 उत्मे प्रजा 
देमहोवीषहैयोश्रुहयावानी हेनये है २० ॥ आदु* मेषा, क्न, स्प 
कोरबृलपिटीनष्टेताटै । जापुदरह्मे उक्तो प्रादयो जंमे मावार 
देह वीरम ब्राह्मणेवद उने रुद्रो छमा लकार हया क्से 


अदरः 1 [ वाषु-पूरथ 


॥ ४१॥ राजाकैदरृतमे चौर रहाक्रतेह ओर वौरवृत्तयाते राना लोग 
हिते है । युगान्तके पुवभ्विनि देवर जो भ्य होते हवे सीदं शौ कोते 
वत्ति हृजाकगतै ह+ ४२॥ 

अशीलिन्योऽव्रलादचापि चियो मद्यामिपग्रियाः । 

मायामात्रा भविष्यन्ति युगान्ते प्रत्युपस्थिते ॥ ४३॥ 

ख(पदप्रबलस्वन्च गवाजञ्चंवाप्युपक्षयः। 

साधुना विनिदृत्तिश्च विदत्तस्मिन कलौ युगे ॥ ४४॥ 

तदा सूक्ष्मे महोदर्को दुलंमो भोगिनां तथा 1 

चतुराश्रमशेधिल्यादधमंः प्रविचलिघ्यति ॥ ५५॥ 

तदा ह्यल्पफना देवी भवेद्भूभिर्महीयसी 1 

शृद्रास्नपश्चरिप्यन्ति युगान्ते प्रत्युपस्थिते 1 ४६ ( 

तद्हह्य काको धर्मो द्वापरे पक्ष मासिकः 

परेताया वत्सरस्थश्च एकराहादतिरिच्यते 1) ४७ 11 

अरक्षित'रो हतारी बलिभागस्य पाथिवा। 

युगान्तेषु मरविष्यन्ति स्वर्रणपरायणा. ॥ ४८ ॥ 

अक्षतियाशच राजानो किष. शूद्रोपजीविनः । 

शूद्र भिवादिन सर्गे युगान्ते द्विजसत्तमाः ॥ ४& ॥ 

कलियृणमे युगान्तके रहुपस्थित होने पर स्वयां शौन से रदित, 
दिना ब्रत वाली जौर मद्य तया मासे प्यार करते वाली, माया से परिषृथं 
हो जोवगी 11 ४२ ॥॥ एवापरे कौ प्रवलता तथा गोमो का उपक्षय उत कलिषूग 
मे साधुधेकी विनिद्ृत्तिहो जायगौ एमा जान लेना चाहिए] ४४॥ उस 
समय सूक््ममे भोगो का महोदकं दुनंम होमा । चारो बाघ्र्भो की शिधिततता 
से धमे प्रविचछिन हो जायगा ॥ ड ॥ यह महीयक्षी देवी भूमि मी भल्प फल 
देते चाली होगी । यृवान्त के उप्वितत होने पर जो शूद्र वणं वालेव्यक्ति ह वे 
तपस्या करेगे ॥ ४९॥ जो घनं द्वापरयुगमे म्षिक या वह्‌ व्तियुग.के 
समयमे एकाहिकं वर्षात्‌ एक दिनम पूणंहोने वालाहै, यही धमं प्रतामे 
ण्म वर्पंत्रे होने वालाहोताथाजौभ्ि प्रमाद सै अतिरिक्तं हुभा करताह। 


चारो युगो दा बास्यान ] ॥ ४८६ 


॥ ४७ ॥ युगान्ते मे राजा सौग भ्रजा की रलान करने वाले भोर अपे दी 
संप्र पे प्रायण रहने वाति वैदल वति भाग दे हरण करने चलि होगे ॥४८१ 
राजा सोग्र यसचिय वर्यात्‌ शत्रिय दणं के न रहने वाते तया वैष श्रो से 
छषनो सेनी कमाने वति गे तया युमा्द मे प्रेष्ठ दविज मो शूरो कौ बभि- 
यादन कने वाते होये ॥ ४६ ॥ 

पतयप्च भविष्यन्ति वहयोऽस्मिच्‌ कलौ युगे 

चि्वयां तदा देबो यदा स्यात्तु युक्षयः॥ ५° ॥ 

सवे वाणिजगाश्वापि भविष्यन्त्यधमे युगे । 

भूूषिष्ठ कूटमानंल्व पुण्यविक्रीततेजनं : ॥ ५१ 11 

कुशीलचर्यां पापण्डैदृ धारूपे समावृतम्‌ 1 

पु्पाल्यं चहृस्वीकं युगान्ते पयु पस्विते ।} ५२ ॥1 

वहुयाचनको लोको भविष्यति परस्परम्‌ । 

्व्यादनः षूरवाक्यो नार्जवो नानसूयकः ॥ ३ ॥1 

नृते प्रतिकर्ता च धीमो लोकगो भविप्यति । 

अमद्ा चैव पतिते तयु गान्तस्य लक्षणम्‌ ॥ ५४ ॥ 

नरदून्या वनुमती शून्या चैव भविष्यति। 

मण्डलानि भवन्त्य देशेषु नगरेषु च ॥ ५५ ॥ 

अल्पोदका चाल्पफला भविष्यति वयुन्धरा । 

मोप्तार्वाप्यगोहयरः प्रमविष्यन्त्यप्षासनाः 11 ५६ 1 

षम कनियुग मरं बहुतसे पठि हि । उछ मयम देव मी वित्र-वर्या 
हाता होगा, अषि युग्य होगा ॥ ५० ॥ म पम युगम समौ वासिक 
शर्त वाभिग्य श्रते वाते गि खो जि _ थिव हे श्ट-मान छीर पस्य 
विक्त देजनो से चीविषयोषार्जन सिपि करये ॥ ११1 बुनोल्वर्या होगी मीर 
कृषा शू पापष्टो से समन्त चोडे दर्द ठा पिष स्िपो से दुक्त भमान 
युन श पपुपस्यिह कात मे हो भामा १५२५ सोर दहुतमे यापने 
पन सारम हो जरगा 1 मानमेगोर छर पयव शोचते दाते ममरन मोर 
मिम्धाष्रनै ददने तोगेये ॥ष्३ दि हुए उरक का प्रविर्तामहोषर 


४६० 1 { वापु-पुरण 


कषोण-लोक हो जायगा । युगान्त का यह लक्षण है कि पतिं मे मशका 
करतौ है ॥५४॥१ वसुमतो नरो चे रहित एव शून्य हो नायी । देशो 9 मौर 
गये भं यहां मड होगे ॥१५५॥ बधुन्बरा यह योडे जल वाली मोर षोड ट 
फन देने बाली हो जायगी । गो रक्षा करे वातवे हौ सरक्‌ मौर एतन 
रहित होगे ॥५६॥1 

हर्तारः पररस्नाना परदारप्रघपंकाः। 

कामास्मानो दुरात्मानो ह्यधर्मात्‌ साहसप्रियाः ॥ ५७ ॥ 

अनष्ट्चेतना. पृन्सो मृक्तकेशस्तु चूलिकाः । 

ऊनपोडशवर्पाश्च प्रजायन्ते युगक्षये 11.५८ ॥ 

शुक्लदन्ता जिताक्षाश्च मुण्डा" कापायवासस,. । 

शूद्रा धरम ्वरिष्यन्ति युगान्ते षयुं पस्थिते ॥ ५६ ॥ 

सस्यचोरा भविष्यन्ति तथा चंलाभिमरशेनाः । 

चोराण्वोरस्य हृत्तीरे- हन्तुहैत्तीर एव च ए ६०४ 

ज्ञानकर्मण्युपरते लोके निष्कियताद्धते । 

कोटमूविकसर्पाश्च धर्वयिष्यन्ति मानवान ।। ६१ ॥ 

सुभिन्त क्षेममारोग्य सामथ्यं दुर्लभ भवेत्‌ । 

कौशिकाः प्रतिचर्स्यन्ति देशान श्ुदभयपीडितान ॥ ६९ ॥ 

दुःवेनाभिप्लुतानाञ्च परमायु. शतं भवेत्‌ 1 

हृष्यन्ते न चे दृश्यन्ते वेदाः कलियुगेऽदिलाः ॥ ६३ ॥ 

दूमरो कै रलों षरा हरय करने थाने ओर पराईस्मौ फा प्रपपंण फते 
यावि ामाटमा भोर दु घाट्मा वाति मोर भयम के काम मे सदस दिने षति 
दथा चेठना नष्ट न होने वाति पुरुप केबेश सुते हए तथा चृधिया चुली रणते 
घाते भौर सोलह यपं से भी कम उद्भवति यूगके यवे उलप होते है ॥५७- 
॥५८॥ पुषस दन्त जिता मुण्ड भौर बापाय वर्ह कै धारणं करने वातत पृद्र 
युगान्व ढे पयु पश्यत होत षर धर्म दा घराचरण हिया षरेगे ॥५६॥ सस्य 
शुराने बाते हया चंत (वस्त) बे अभिमर्तन करे वति, वीरके हरण श्रे 
दाति ष्टोरतयाहतदक्टे दातेशाहस्ण श्रते दाते सोम हमे ॥६७॥ कान 


चारो दुमो का बास्यन ] 1 ५६१ 


फ कर्मे उपर लोक मं वकि यह चर्वपा निष्डयवा कनो प्राप्तो जापपा, 
कीट, मूषक खौर खपे मनुष्यो का घपेण किया कये १1६१ दुभिन्न-सेम बौर 
्ारैग्य एवं छामय्यं यह सद दुतम हो जये ! भूख नौर ववाघङ्े भवस 
पौट्पि देशों कौएनिवाठ किया करे ६२) दुख से मभिम्तुतसो्योको 
प्रमाय घौ वपं को दो जायगी । कलियुग मे सम्बलं वेद दिखाई देते है घौर 
नहीं मी दिला दिया करते है 11६३1 

उत्वीदन्ति तया यन्ना. केवला धमंपीडिताः 1 

कपाणिणक्च निग्र न्यास्ठथा कापालिनश्च ह {1 ९४1 

वेदयिक्रयिणश्चान्ये तोर्थविन्छयिणोऽपरे 1 

वर्णाश्रमाणां ये चन्ये पापण्डाः परिपन्यिन. 1 ९५॥ 

उलयन्ते तया ते वै संप्राप्ते तु कलौ युगे । 

नाधीयन्ते तदा वेदाः शूद्रा घरममर्थिकोविद।: ।1 ६६ 11 

यजन्ते नाण्वमेघेन राजानः शूद्रयोनेय. 1 

स्त्रीवधं गोवधं कृत्वा हृत्वा चैव परस्परम्‌ 1 

उपहन्युरग्दान्योन्यं साधयन्ति तथा प्रजाः 11 ९७ 1 

दुःखप्रचारतोऽत्पायुदशोत्सादः सरोगता । 

मोदो स्ानिप्तथापरौख्यं तमोृत्तं कलौ स्मृतम्‌ ॥ ६८ ॥ 

प्रजा तु ध्रणहव्यायामय व सम्प्रवति। =“ 

तस्मरादायुरवेलं रूप कलि प्रापय प्रहीयते 

दु सेनाभिस्लुतानां वं परमायु" नृणाम्‌ (1 ६९ ए 

दृश्यन्ते नाभिहश्यन्ते वेदाः कलियुऽखिलाः 1 

उस्प्रीतन्ते तदा यज्ञाः केवला धर्मेपीडिताः॥ ७० 1! 

केवल धर्मं हिव यज्ञ उत्सघ्र होत है 1 काय वस्वधारी त्या निगेन्य 
कपाली, दूमरे वेर्शे के देचने वाते वथा तोके विक्रय करने वाते भौर वणश्रिमों 
कै पाषण्ड प्रकट करने वाचे परिपन्पौ लोग इष कलियुग के स्मप्ाह्त दोतरे षर 
्वप्नदहगि! उयखमय कोर्दभी वेदो दा लध्ययन नहीं किया श्त्येकेवम 
शूद्र ही पमि कै पण्डित ठंगि ॥६४।,६६।१९६]। धूद्र यौनि राजा लोम 


५६२ ] [ वाुयूराग 


का यजन नदी क्रिया करते हु तेथास्वीका वध-गौ का वथ करके मोर्‌ परस्पर 
मे हनन करके तव एक दूतरेका उपहननवरेगे मौरद्सतरह से प्रनावा 
साघन क्रिया करते ह ॥६७॥ दुखोके प्रचारे यत्य भयु देणोत्पाद-मोह- 
सरोगन ग्लानि तया मसोष्य हस तरह से कलिषूय में तमोवृत्त कहा पया दै 
पद्मा ण्जा नव श्चणद्रतया मे सम्प्रवत्तदहोनी है, प्सी से कलिदुगकौ म्‌ 
करके आयु बल भौर सूप समो दुत नष्टो जिह मरौर सदभोरनेदुसोमें 
हषे हुए मनुष्यो की आयु स्ये अधिक्सौ वपंकी हो जाती है ।६६॥ मस्त 
वेद लो इष कलियुप मे दिखलाई देते है भौर नही भौ दिललाई दिया करते है। 
उष समय केवल धं पीडित यज्ञ उतत हा करते ह ॥७०॥ 

तदा त्वल्पेन कालेन सिद्धि यास्यन्ति मानवाः। 

धन्या धर्मञ्चरिष्यनित युगान्ते द्विजसत्तमा 1७१1 

श्र. तिस्मृत्युदित ध्म ये चरन्त्यनसूयका ॥ 

त्रैनाया वा्विको धर्मो दपर मासिकः स्मृत 1 

यथाशक्ति चरम्‌ प्राज्ञस्तद ह्वा प्राप्नुयात्‌ कलो ॥ ७२ ॥ 

एषा कलियुगेऽवस्था सध्याशन्तु निवोध मे । 

युगेयुगे तु हीयन्ते त्रीस्व्रीनु पादाए्च सिद्धय ॥ ७३ ॥ 

युग्रस्वभावात्सन्व्यास्तु तिष्ठन्तीमास्तु पादश 1 

सन्ध्यास्वभावाचाशेषु पादशस्ते ्रतिष्ठिता ॥ ७४॥ 

एव सन्ध्याशके काले सम्प्राप्ते तु युगान्तिके 1 

तेपा शास्ता हयसाधूना भृगुणा निधनोत्थित ॥ ७५॥ 

गोत्रेण वै चन्द्रमसो नाम्ना प्रमितिरुच्यते । 

माधवस्य तु सोभेन पूर्वं स्वायम्धुवेऽननरे)। ६५ 

समा स विशति पूर्णां परयेटन्‌ चै वसुन्धराम्‌ 1 

आचके स व सेनां सवाजिरथकरुञ्जयम्‌ 1 ७७ ॥ 

प्रगृहीतायुधे विप्रं थतशोऽय सहस्तश 1 

स तदा तं परिवृतो म्लेच्छान्‌ हन्ति सहश ॥ ,८॥ 

स हत्या सर्वंगश्चैव राज्ञस्नानु शूद्रयोनिजावर * 

पाप्डानुस नन सर्खायि क्रोमि कनवान पश ॥। ५८ ॥1 


चारों युगो का आल्यान |] [ ४६३ 


नाव्यं धारिका ये च तान्‌ सर्वान हन्ति सर्वशः 1 

वर्णन्यत्यास्जातांरव ये च तानुपजीविन. ॥ ८० ॥ 

उस युगान्त ये जो धे दिन घमं का माचरण श्रिया करते ह वे मानव 
भल्प कालमेही सिद्धिको प्रास्करज्तेहै 1 जनो अनकुयक अर्थात्‌ अमूण 
न करने वालि सौग शति स्मृति मेँक्हेहृए धर्म का आचरण किया भरतेरहै। 
श्रता परे वािक धमं होता धाद्रापर मे वह मासिक कटा गया ह भौर कलिगुग 
मँ प्रात्त तथाशक्ति करता हुआ एक दिन मे प्राप्त कर लेता है ॥ ७१॥७२॥ 
यह तो किष कौ भदम्धा है घव इसका सन्व्याग भीसमक्षलो " युगयुगमे 
तीन-तीन पाद सिद्धिं होन होती ई ॥७३॥ युगे स्वणवमे ये सन्ध्या पाद 
से रहा करती हे । सन्ध्या केस्वभावसे मगो मे पाद मे प्रतिति होतेह ॥॥\४॥ 
स तरह से युगान्त मे सन्ब्याश कालके सम्पात होने पर उन असाधु भृगुगरो 
का णास्ना निचन मे उत्त्थत होता है ॥७१५।! मोत्र से चन्द्रमा के नाम से भमिति 
कही जाती है । स्वायम्भुव मन्वन्तर मे परिरो वद माघव के मणसेहोतीषटै 
1 ७६५ पूरे तीस वपं तक इम वमुन्धरा पर पयंटन कण्ते हृए उसने घोडे 
हाधियो मे भुक्त सेना का अक्क्पण किया ७७॥ मायु ग्रहण करते वाते विप्रो 
के द्राण जो यस्या शकटौ मौर हजारो ये उनम पा दृत होकर हनागे ही 
मते का हनन करता ह १७८ बह सवत्र नाने वाला उन गू योनियौ मे 
समूत्पन्न राजानौ को ठया समस्त परापण्डो को बहुप्रभु नि.ेषकर देने है ।७६॥ 
जो पर्यये घापिक नहो दै उन स्वको सव भोरमे मारदेतेटैजोभी वर्णेके 
ध्वत्या मे उत्कच हृए है मोर अनुनषष देने वालि € ॥८०\॥ 


उदीच्यान्मघ्यदेशाश्च पार्वतीयांस्तथेव च ॥ 

प्राच्यान्‌ प्रतीच्याश्च तया विन्ध्यपृष्ठापयन्तिकान 1 ८१ ॥1 
तथैव दाक्षिणात्यांश्च द्रविडानु एदल: सह्‌ 1 

गान्धारान्‌ पारदाश्चैव पल्लवानु यवर्नास्वया 11 ८२ ॥1 
नुपारानू वर्वराश्चीनान्‌ शूलिकान्‌ दर दान वत्ता ॥ 
लम्गकानय केताश्च किरातानाच जातय ॥ ८३॥1 
्द्तचक्रो बलवान्‌ म्तेच्छानामन्तकृधिमुः 1 


४६४ ] [ धापुयुराण 


अधृष्यः सरवंभूतानां चचाराथ वघुन्वराम्‌ 11 ८४॥ 

माधवस्य तु सोशेन देवस्य हि विज्निवात्र । 

पर्वजन्मविधिन्ञश्च प्रमितिर्नाम वीर्यवान्‌ 11 ८५॥ 

गभेण वं चन्द्रमसः पूर्वे कलियुगे प्रभुः 1 

दा्धिोऽभ्युदिते वयं प्रकान्ते विशति समाः ॥ ९६ ॥ 

विनिघ्नन सर्वभूतानि मानवानि सहत्णः । 

करत्वा वीयविेषनन्तु प्रथ्वी द्टेन कमणा 1 

परस्परनिमितेन कोपेनाकस्मि नतु | ०७॥ 

स साधयित्वा वृचलानर प्रायणस्तानधार्मिकानू । 

गद्भायमुनयोमेध्ये निष्ठं प्राप्तः सहानुगः ।। ८८ ॥1 

उत्तर मे रहने वालि मध्य दे वाते पर्वतीय -प्ाच्य तथा प्रतीच्य अर्थात्‌ 
परिम में रहने वाते एवं विन्ध्य पृष्ठ प्रान्तिक, दाक्षिणात्य गौर विहसो,के षाय 
द्रविद़्-गान्धार-प)स्द-पद्धव तथा यवन-ठुपार-ववेर चौन-शूलिक-दरद-खष-लम्पक- 
कैत शोर किरात जाति वलि इन स्थका म्तेच्छो का भ्रवृत्त चक्र बलवान्‌ विपु 
अन्त करने वाते ये जोकि समस्त प्राणियों के गधृ्यं ये, उनने इस वभुन्यरा पर 
चरण किया या ॥८१।।८२।॥८३।८४॥ उसने अपने को माघव देव के बंशसे 
विज्ञष किमाथा। पूर्वं जन्मकी दिधिको जानने चालोके द्वारा वीर्यवान्‌ 
भ्रपिवि नाम का गय है ॥ पूवं कलियूण भें चन््माके गोत्रसे भ्रम मे बत्तीस 
वपं के अभ्युदित होने प्र वीस वपं पन्त समस्त प्राणौ तथा सहो मानवो 
का हनन करते हए ल्द़कमंणे पृष्कोको वीर्याक्शेप करे परस्पर निमित्त 
बलि माकस्मिक कोपसे उपमे दृषलों की, जोकि प्रायः अवातिक ये साधना 
करके अप्रने शमुग ॐ साप गद्धा यमुना ङे मध्य मे निष्ठा प्राप्तका धी ॥८५॥ 
॥६६।८७॥८५०॥ । 

ततो व्यतीते तर्रिभस्तु ममात्ये सत्यसनिके 1 

उत्छाच पाथिवान्‌ सर्वान्‌ म्तेच्छाश्चैव सहु ः ॥1 ६६ ॥ 

तत्र सन्ध्यांशके कालि सम्प्राप्ते तु युगान्तिके । 

स्ितास्वत्पावशिष्टासु प्रजास्विह ववचित्‌-फवचित्‌ ॥ ६०॥ 


चातो दुर्यो का बाल्यान | { ४६५ 


भ्रग्रहमस्ततस्ता व लोकचेषटास्तु वृन्दः 1 

उपहिमम्ति चान्यो्यं प्रपचन्ते परस्परम्‌ ॥ ६१ ॥ 

अराजक यृगवध्ात्‌ सये समुपस्थिते । 

प्रजास्ता र ठतः सर्वाः परस्परभयादिताः।॥ ६२ ॥1 

व्याकुलादच परिघरान्तास्त्यक्त्वा दारान गृहाणि च। 

स्वान्‌ प्राणान समवेक्षन्तो निष्ठा भरप्ताः सुदुःखिता ॥ ६३॥ 

मष्टे श्रौते स्मृते घमें परस्परहतास्तदा 1 

निर्मर्यादा निराक्रन्दा नि.खहा निरपत्रपा, 11 २४८ ॥ 

नष्टे वपे प्रतिहता स्वकाः प्चविघकाः 1 

हेत्वा दार्स्च विपादव्याकुलेन्दरियाः 11 ६५ ॥ 

ड़ परवाद्‌ उष्ठ सत्य संनिक बमात्य के व्यत्ीठ हो जानि पर समष्ठ 
पाथिवों फा तया तदस म्तेच्छों का रत्साद्न करके वह सन्ध्या कालमें 
गुगान् के सम्प्राप्त होने पर कदी कदं प्र मत्यन्त बल्य प्रजा के भवनिष्ट 
गहयाने पर वे दस अनन्तर प्रह रदित मौर वृन्दो म लोकवेष्टासे गृक्त 
होकर ए दूमरे को माप भे उपहिसन कषत टै ॥८६।६०॥६१५ गुग-वयषे 
भरागश्वा ङे संशय ड हमुपस्यित हौ जाने पर वह समस्ठ भ्रा भपप भमव 
्े परम दु निव पो ॥१६२॥ वदयनठ वयादूल-मरिशा् हे दृष सपनी स्वि 
नषा चरो शो द्दोढकूर अपने ही प्राणो कौ देखते दए पुद्ुखितच देवे हए 
निश प्रा् हए 1६३॥ ध्ोत तया स्मात्तं धम के नष्ट हौ जनि पर उम समय 
पै परस्वरमे हव होत हृष दिना मर्यादा वाते-निराकरन्द-नि.स्नेह चोर निख- 
शरस होयये ये ॥१६४॥ वपं ॐ नष्ट होने पर श्रतिटत हस्वे ठा पञ्च विक 
उनो पियो एवं पुतो शास्वा करके विषाद से व्यादुलिव इन्दिणें वते 

१६९॥ 

अनादृषिदताश्चैव वार्ताभ्टरज्य दु खिताः । 

्रत्न्तास्ताश्िदेवन्ते हित्वा जनपदान्‌ स्वकाद्‌ ॥ २९ ५ 

सरितः सागरान्‌ कृपान्‌ सेवन्ते पर्वतस्तदा ` 

मधूुमाैमूलफलेवततेयन्वि सुद खिता 11 ९० ॥ 


चर्ण का व्यान ] [ ५६७ 
तिष्ठन्ति चेह पे सिद्धाः सृदृष्टा विचरन्ति च 1 

सदा सपतपयष्चैव तत्र ते च व्यवस्तिः ॥ १०४ ॥ 
बरह्मसत्रविशः शूद्रा बौजा्यं ये स्मृ इहे! 

कलिजैः सह्‌ तै सर्वे निविशेपास्तदामवन्‌ ॥ १०५॥ 
तेषां सपट्पयो धर्मं कथयन्तीतरेपु च । 

वर्णा श्रमाचारयुक्तः श्रौतः स्मार्तो द्विधा तु सः ॥ १०६॥ 
ततस्तेषु क्रियावत्सु वर्तन्ते वै प्रजाः कृते 

श्रौतः स्मात्त. कृतानान्तु धर्मः सप्तपिदशि्तः ॥ १०७ ॥ 
ता धर्मेव्यवस्यायं ति्ठन्तीहायुगक्षयात्‌ । 
मन्यतराधिकारेषु तिष्ठन्ति मुनयस्तु व॑ 1! १०८1 


४६६ |] [ वापुन्वर्णेन 


ची रवद्नाजिनधरा निष्प्र निष्परिग्रहाः॥ 
वर्णाश्रमपरिश्रष्टाः सद्धुर घौरमास्यिताः ॥ ६५ ॥ 


एताः काष्ठामनुपराप्ठा मत्पशेषास्तया प्रजा. । 
जराव्याधिक्ुधाविष्टा दु खन्निवेदमागमन्रू ॥ ६६ ॥ 


विचारणन्तु निवेदान्‌ साम्यावस्या विचारणाच्‌ । 

साम्या वस्यासु सम्बधः सम्धोधाद्धमंशीलता ॥ १०० ॥1 

तासूपगमयुक्ताषु कलिशिष्टासु वै स्वयम्‌ । 

अहोरा तदा तासा युगन्तु परिव्ते ते ॥ १०१ ॥ 

चित्तसम्मोहन इत्वा तासान्त॑ः सप्तमन्तु तत्‌ । 

भाविनोऽ्ेस्य च वलात्ततः कृतमवतेत ॥ १०२ ॥। 

प्रवृत्ते तु पुनस्तस्मिस्ततः कृतयुगे तु वं । 

उत्पन्नाः कलिशिष्टास्तु कातेयुग्पः प्रजास्तदा । १०२ ॥ 

बे सब उस समय रे अनावृष्टि ते महत ये भौर वार्ताकास्याग कर्‌ 
बहुतही दुसित होरे ये । अपने-अपने जन प्वोकोत्याग कर प्रत्यन्तो का 
हवन करते घे । नदिौ--षागर कूप गौर पर्वतो का सेवन करते थे । भत्यन्त 
टुखित होति हए मधुमास तथा मूल फलो से जीवित गहत ये ॥६६६७॥ चीर 
वस्त्र तथा अजिन के घारण कटने वलि--निप्पत्र एव निष्परिग्रह वर्णा्म से 
रिभ घोर सकर मे आस्यित ये ॥६५॥ ठेषी काष्टा को शक्त होते वाते बह 
डी सौ वचौ हवई प्रजा जरा-व्यावि भौर सुषा माविषटहोतीहृवुखसे 
नवेद को प्राप्त हृ यो ॥६६। निवेद से विचारणा दृह मौर विचादणा दे 
आम्याद्या हहं । दाम्यावस्यामो मे कुल सम्बोष हमा मौर पिर सम्बोष से 
गमेशौलता उलन्न हुई 1१००॥ कलियुग मे मव शिष्ट ओर उपगम से गृक्त उन 
मे स्वम उत्त समय अहोरात्र उनके युग परिवत्तित होते ह १०१५४ उनके 
चित्त का सम्मोहन करे उनके द्रा भावी अर्थंके बल से फिर सप्तम इत 
म या ।॥१०२॥॥ फिर उसके पञ्चात उ कृत यूग कै प्रवृत्त होने पर उ समय 
मे कलिशिष्ट कातंयृम्य प्रजा समुत्पन्न हई थी ॥१०३॥ 


चारोग का सल्यान | [ ४६७ 


तिष्ठन्ति चेह ये सिद्धाः सुदृष्टा विचरन्ति च । 

सदा सप्तपंयश्चव तय ते च व्यवस्तिाः ॥ १०४ ॥ 
ब्रहयक्षचविश शृ वोजा ये स्मता इहं 1 
कलिजैः सह्‌ ते सर्वे निविशेपास्तदाभवन्‌ १ १०५॥ 


तेषा सप्र्पयो धर्मं कृययन्तीत्तरेु च 1 

वर्णा श्रमाचारयुक्तः श्रौतः स्मार्तो दविधा तु प्तः ॥ १०६॥ 

तत्तेषु क्रियावत्सु वतन्ते वै प्रजाः कृते । 

श्रौनः स्मार्त. कृतानान्तु धर्मः सप्रपिदथितः ॥ १०७ ॥ 

तामु धर्मन्यवस्या्ं तिष्ठन्तीहायुगक्षयातु । 

मन्वत राधिकारेु तिष्ठन्ति मुनयस्तु वं ॥ १०८ ॥ 

यथा दावप्रदग्धेषु त्ररोप्विह तपे ऋतो 1 

नवानां प्रयमं दष्टस्तेपां मूते तु सम्भव. 1! १०६ ॥ 

एवं युगायुगस्येह सन्तानस्तु परस्परम्‌ 1 

व्तत्ते ह्यव्यवच्छेदायावन्मन्वन्त रक्षय. ॥ ११० ॥ 

महाषर जो सिद्धं स्ित वे सृदष्ट होते हए विचरण कसर ह भौर 
सदावे सप्तपि सोग मो व्एवस्यित होने रै 11१०ब ब्राह्यण-सतिप नौर्‌ वष्य 
ठपापूदजे यहां बोजकेलियेक्ठे गये वे खव कति मे समूत्पप्न हने वातो 
के साय उप सम्यमे निर्वितेप होगये पे ॥१०५॥ उनके धर्मको मौर हतर 
सर्षप ष्हूते ह । वणं बोर माश्रम के आदार से युक्त वह धमं दो प्रकारका 
या ॥१०६।। इसके अनन्तर कृत मेँ क्रियावान नये प्रजाद्ती ई बीर सत- 
पिरयो दास दिखाया दूजा धौव वथा स्मात्तं घमं करने वाते ई 1१०७॥ 
यहा पर युवे कछ्षयसे उनमे घमं ढी ण्यद्ाथा के लिये मन्वन्तराधिकातेमे 
मुनिगण स्पिव रटे ह 1१०८ जिख तरदं ते दावानिन से जते हए वृषो परः 
ठपश्छ्तुमे उनके भूल सम्मव नवीन वृणो का प्रयम दिखाहदिपा हुमा 
शोठा &।१०६॥) रको मादि वडा युमको गुण वे परस्पर में हन्वान होता है) 
अव तङ मन्वन्तर काष्छय होता है, ठव तङ वह्‌ अग्पवच्येदसेरदाकरठा 
दै ५११० 


४६ | [ वापुनपुराण 


मुखमायूरवलं रूपं धर्मायौ काम एव च । 

युगेष्वेतानि हीयन्ते च्रौणि पादक्रमेण तु ॥ १११॥ 

ससन्ध्यंशेषु हीयन्ते युगानां धर्मसिद्धयः । 

इत्येप प्रतिसन्विवैः कीरिततस्तु मया द्विजाः ॥ ११२॥ 

चतुगुं गानां सवेयामेतेनेव प्रसाधनम्‌ 1 

एषा चतुयुं गावृत्तिरासहस्त्‌ प्रवत्तते ।! ११२ ॥ 

ब्रह्मणस्तदहः भोक्त रव्रिश्च तावती स्मृता । 

अत्राजवं जडीभावो भूतानामायुगक्षयाव्‌ ॥९१४ 

एतदेव तु घरवेषां युगानां लक्षणं स्मृतम्‌ । 

एपा चतुय गानन्तु गणना ह्यो कसप्ततिः ! 

क्रमेण परिषृतता तु मनोरन्तरमुच्यते ॥११५ 

चतुय गे तथंकस्मि्र भवतीह यथाघ्र्‌ तम्‌ । 

तथा चान्येषु भवति पुनस्तदे यथाक्रमम्‌ ॥११९ 

सर्गे सर्गे यथा भेदा उत्पद्यन्ते तथैव तु ॥ 

पञ्चविशत्परिमिता न न्यूना नाधिकास्तथा ॥११७ 

सुख--भायु-.बल -ल्प- घ्म गौर कापर ये सव तीन भगो मे पाद 
फ्रमसे हीयमान होते है ।१११॥ ससरन्व्याथोमे युगो की घमं सिदधिर्णां दीन 
होतरहै। हे द्विजो | इस प्रकारसे यह गापको प्रतिसम्धिर्भने कीत्तित कर 
दियादै। चायो युगोकाद्रपसे ही प्रसाघन होता है। यह्‌ वतुगरुगोकी भवृति 
सद्र पर्यन्त भा करती है ॥११३५१ब्रह्ा का वह्‌ दिन कहा गया है मौर उतनो 
राश्निमी कदी ग है। यह प्र श्राणियो का युग क्षय वकं जङ्ीभाव होता है 
१1११४यदह्‌ ही समस्त युगो का लक्षण कहा गया है । यह चारो युगो की गणना 
दकटृत्तर होती है । क्रम से परिवृ्ा वह होती हई मनु का अन्तर कहा जवा 
& 1११५ यहौ एक चतुयुःग मे उस ्रकार से यथाधूत होवी है । उसी प्रकार 
पि रन्योंमी वह्‌ फिर यथाक्रम हमा करतो है ॥११६॥। सगे-सगं मे भिस 
भ्रवाप्से मेद उत्पन्न होवे ६ उस प्रकार सेवे पच्चीश्त की स्यामे परिमित 
षते दै । नक्मर्है मौरन यचिक दह होते ई॥११७॥ 


वारो युगो का बाल्यान |] [ ४६६ 


तथा कत्पयुनै. साद्धं भवन्ति समतेक्षमाः। 

मन्वस्तफणा सर्वेषामेतदेव तु लक्षणम्‌. ॥११८ 

तया युगानां परिवर्चनानि चिरप्रवृत्तानि युगस्वमावात्‌ । 

तथा न धन्तिष्ठति जीवलोकः क्षयोदयाभ्यां परिव मानः ।९१६॥ 

इत्येतल्लक्षणं भोक्त युगाना वं समासतः! 

अतीतानागतानां वै सरवेमन्वन्तरेप्विह्‌ १२० 

अनागतेषु तद्वच्च तकः कार्यो विजानता 1 

मस्वन्तरेषु रवेषु अतीतानागतेष्विह १२१ 

मन्वन्तरेण चैकेन सवग्यिवाम्तराणि वै 1 

ˆ व्यार्यातानि विजानीष्वं कल्पे कल्पेन चैव हि 11१२२ 

अस्पाभिमानिनः सर्वे नामर्ूपै मवन्तयुत । 

देवा ह्यष्टविधा मे च इह मन्वन्तरेश्वराः 1१२३ 

उख प्रकार से कल्प युगो के साथ समान लक्षण वाले होते हैँ 1 समस्त 
मन्बन्तरो का यह्‌ दी लक्षण होता दै ॥११८॥ उख भ्रकार से युगो के पपिवर्तन 
युगो के स्वभाव से चिर प्रवृत्त हते ६1 उष्ठ प्रकार से यद्‌ जीव लौक क्षय 
एव उदयप ते परिवतंमान दोहा हआ नदीं स्थिव रहा करवा है ॥११६॥ तना 
पदयुगं का सेपरे तक्षणरैने कहदियाहैणोकितीतदहो गये, 
अनागत हैँ भौर यह षमस्ठं मन्वन्तरे होते ट ॥१२० जो बनापतरह मौर 
समस्त मन्यन्वर्यो मे जो मवीत्त एव अनागत ह उने विन्न व्यक्तिको सी 
भति से चके करना चाहिए 1५१२१॥) एक मन्वन्ठर से समस्त मन्वन्तरो कौ 
व्याष्या करदी गह है! कत्पमे कल्पसे उष्ठि जान तेना चाहिए ॥१२२५ 
हषे अभिमानो सवना भौर सूपो यहां मन्वन्वर मेँभाठ प्रकारके 
भन्बन्तरेश्वर देव होते है ।(१२३॥ 

पयो मनवर्चैव सर्वे तुस्याः प्रयोजनः । 

एवं वर्णीधमाणान्तु भ्रविमागो युगे युगे ॥१२४ 

युगस्वभावाच्व तया विधत्ते वं सदा प्रमुः1 

व्णोश्रमविभागश्च युगानि युगानि युगसिद्धये ॥१२५ 


५०० |] { वायु-वणंन 


अनुषगरः समाख्यातः सुष्टिसर्गन्निवोधत ) 

विस्त्रेणानुपूर्व्या च स्थिति वद्य युगेष्विह १२६ 

चछधिगण भौर मुनि वृन्द षय प्रयोजनो से वुस्य ही हमा करते ई । धौ 
प्रहारसे युगयुग्मेव मौर याशथमोकाभ्रविभाग हमा करता है ॥१२९॥ 
युके स्वभावसे प्रभुं उती प्रकार का किया करते ह। वणो मौर साधमोका 
विमाग तथायुगकीसिद्धिके तिये युगो को शरे ह ॥१२५॥ अनुपङ्खकीतो 
ध्यार्या रदी गई है1भवसृष्टिके सको समन्ञलो । म विस्ञारते तया 
अनुपूर्वीं से यहा पर युगोमे जो स्थिति है उमको बतलाऊंगा ॥१२६॥। 


प्रकरणं ४९१- ऋपिलक्षण 


युगेषु यास्तु जायन्ते प्रजास्ता प्रै निबोधत । 

भासुर सपंगोपक्तिपेशाची यक्षराक्षसी 1 

यस्मिनु युगे च सम्भूतिस्तासा थावत्त्‌, जीवित ॥१ 

पिशाचाभुरगन्धर्वा यक्ष राक्षसपन्नगाः । 

यूगमाव्रन्तु जीवन्ति छते मृत्युवधेन ते 1२ 

मानुपाणा पशूनार्च पक्षिणा स्थावरं. सह्‌ । 

तेषामायुः परिकान्तं युगधर्मेषु सवशः ॥।३ 

अस्थितिस्तु कलौ दृष्टा भूतानामायुषस्तु वै 1 

परमायू* शतन्त्वेतन्मनुप्याणा कलौ स्मृतम्‌ ॥४ 

देवेामुरपरमाणात्तु सप्तसप्तागुल" हसत्‌ ॥ 

अगुलाना शत पुणंमष्टपञ्चाशदुत्तरम्‌ ।)५ 

देवासुरप्रमाणन्तदुच्छाय कलिजेः स्मृतम्‌ । 

चत्वारदचाप्यशोतिश्च कलिजं रगुलैः स्मृतम्‌ ॥६ 

स्वेनागुलग्रमाणोन उष्दूवमापादमस्तरकम्‌ 

इत्येष मानुपोत्तेयो हसपतीह युगान्तिके 1७ 

शरो सूतजीनेभ्टा-युर्गोमेजो प्रजा उपघ्न होती है उनको जानतो । 
हृ श्रजा वामुरौ-सर्प-यौ पशी-वेगाचो यौर्‌ यश्च रामी हमा वरतो है 1 जित 


च्छपि-लक्षय ] {[ ४०१ 


युय मं जिची सम्दति होती है बौर उनका जितना सो जवित्त क्ल होढा है 
वह षद दतताफा जाता है 117! रियाच जसुर-गन्वं-यत्-राक्षठ-पन्नम ये सव 
युग मात्र जौवित रहण करते 3 । मूल्य वव के दिना टी इनका उक्त जोवन हौवा 
है ॥२॥ मनुर््यो को पुं को अओौर स्थावरो के साय प्रयो को इन स्वकौ 
मायु सदप्रकारसेयुगके धमो मं परिक्रान्त हज करती है 11३1 केसिपुगरमे 
पराभि्योकौ भायु कौ अस्विति देवी गईं है । कलिगुग यें मनूष्यों कौ परायु 
सौवषपंडधी कटी मर्टै ॥४।। डेव नौर घसुरो के प्रमाप से खाठ-सरात अगल 
कम होता हुमा है । एरु सौ अटठावद पूं प्रमाण होता है 11‰॥1 देवापरो का 
प्रमाण बोर उना इच्द्धाय कलि मे उनर्ेने वार्नोङेद्वाराक्हागयादहै) 
॥६॥ बपरने अगत के प्रमाय से उपर परो से मस्वक् ठक यह मानूप उत्व 
होता है न्तु यहां युणन्तिक म यह ्वायुक् होत है 11७11 

सर्गेषु युगकालेषु अतीतानागतेष्विह । 

स्वेनांगूलप्रमाणौन अप्टतालः स्मृतो नरः ॥* 

आपादतो मस्तक तु नवतालो भवेत्त, यः 1 

घहताजान्‌ वादस्तु स पुरेरपि पूज्यते 11६ 

गवाश्वहस्तिनाशं च महिष स्यावरात्मनाम्‌ 1 

क्रमेणैतेन योगेन ह्वादद्रदधौ युने युगे ॥1१० 

षर्पप्त्यंगुलोतत्वेध पशूनां ककुदस्तु वे । 

संगुलाप्टशतं परणमुत्वेवः करिपां स्मृतः 11११ 

ल मुलानां खहचन्तु चत्वारिं गुर विना 1 

पन्चाशत्तं याना च उत्ते. शाखिनां स्मृतः १२ 

मानुषस्य शरीरस्य सच्रिवेशस्तु यादः 

तल्लक्षणस्तु देवानां हृष्यते तत्वद्थ॑नात्‌ 1 १३१ 

बुद्धा तिश्चययुक्त्च देवानां कायमुच्यते 

देवानतिशयञ्चेव मानुष कगयमुच्यते 1! १४८॥ 

खमस्त बुगो के कमलो मे नो जती है उया ननागव ह जपने जगल के 
श्रमाण से भनुप्यबशटदठाल कहा ग्यार्हु।1८॥"जोंरद्रों से सकर मस्तक 


५० 1] [ वायुपुराण 


पर्यैन्त नवताल होता है भौर जौ माजानु चाह वाला होता है वह सुरोके हार 
भौ पूजित हा कर्ता है ॥ € ॥ गौ-अश्व-हस्ती-महिष भौर स्यावर स्वष्प 
वालोकीषमसेदृठयोगसे युग-युगमें हास मौर वद्धि हुमा करती है ॥१०॥ 
पु की ऊ्वाई सडसर अंशुल ओर ककुद की होती दै । ह्वायियो का रत्वे 
हर एक सौ माठ मेगल को पूणं कहा ग्या है ॥ ११ ॥ पत्वारिण्व्‌ (चालीस) 
मेगल ॐ बिना एक सद्र भेगुल गौर पश्चात्‌ हयो ( घश्वो } का शादो 
( वृक्षो ) का उत्सेव का गया है ॥ \२॥ मनुष्य के शरोर का सक्निवेण जंचा 
है उसी सक्षण वाला तत्त्व दधन से देवो का दिखलाई देता है ॥१३।) देवो का 
शरीर बुद्धि के अतिशय से युक्त हुमा करदा है-देसा कहा जादा है । देवो के 
सनतिशय वाला मनुष्य-काय कहा जाता है ॥ १४॥ 


इत्येते वै परिन्तान्ता भावा ये दिव्यमानुषाः । 

पशूना पक्षिणाञ्चैव,.स्थावराणां निवोधत ॥ १५॥ 

गावो ह्यजा महिष्योऽश्रा हस्तिनः पक्षिणो नगा. 1 

उपगुक्ता. क्रियास्वेते यज्ञियास्विह सर्वशः ॥ १९ ॥ 

देवस्थानेषु जायन्ते तद्र.पा एव ते पुनः। ४ 

यथाशयोपभोगास्तु देवानां शुभमूर्तयः 1 १७ ॥ 

तेषां शपानुूपेस्तैः प्रमाणैः स्थाणुजङ्गमैः ¦ 

मनोज्ञं स्तत्वभाव्न : सुखिनो ह्य.पपेदिरे ॥ १८॥ 

अतः शिष्टानू प्रवक्ष्यामि सतः सार स्तथंव च । 

सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तदरन्तो ये भवन्त्युत 1 

सायुज्यं ब्रह्मणोऽव्यन्तं तेन सन्तः प्रचक्ष्यते ॥ १९॥ 

दशात्मके ये.विपये कारणे चाष्टलक्षएो । 

ने शष्यन्ति न हृष्यन्ति जितात्मानस्तु ते स्मृताः 11२० ॥ 

सामान्येषु च धर्मेषु तथा वंथेपिकेयु च 1 

मरह्मश्षश्रविशो युक्ता यस्मात्तस्मादद्विजातयः॥ २१॥ 

ये शमने दिम्व भानुध माव वरिकांव विये! शद पुर्यो वाप्यो 
षा धोरस्याधर्तो का माव रखुमघ्ततो॥ १६॥ गौ-बजा ( वक्री } महिषौ 


शछधि-लक्षण ] { ५०३ 


{ मख } अष्व-हापी-पक्षीगण सौर नग ये क्रियाय मेँ उपयुक्त होति ई! यहां 
प्रये सव श्रकार से यज्ञीय कहै जते ह 1 १६1 देव्यानों मै नो उदन 
होते हैवेक्रिरतद्रपही हठे ह ! यथ्ययोपमोव वलि देवोकीही शुम मूिपौ 
हती है १३॥ उसके रूपके यनुल्प स्थाणु जद्धम उन प्रमागोतेभीकि 
मनोक्ञ भौर तत्त्वमाव के ज्ञाता सुखी होतेह ॥ १८ 1 ईसते भगे दिं 
हषा सद्‌ भौर प्ाघुमों को बताऊगा! रदु-पद-व्रहय का शब्द है उसके रसने 
वति जो होते है बरहम का भल्यन्त सायुज्य होता है इसी से वे (सन्त)-एेमे 
कटे जते है ॥ १६ ॥ ओ दशाम विषम मे सौर बाड लक्षणो वाले कारणे 
नतो ष्रेषित होतेह ौरन प्सन्नही होते हवे भितात्म कटे जते है 1२०) 
सामान्य घर्मो मे तथा वंशेपिको मे केयोकि ब्राह्मण-कव्रिय-वश्य युक्त होते है 
„ वी सिए ये द्विनाति कदे जति ह ॥ २१॥ 

वर्णाश्रमेषु युक्तस्य स्वगंगोमुखचारिणः 

श्रौतस्मातंस्य धर्मस्य ज्ञानादमेः स उच्यते 1 २२॥ 

विद्यायाः साधनात्साघुन्रल्यचारी गुरोरितः 1 

क्रियाणां साधनाच्चैव गृहस्थः साधुरुच्यते ॥ २३1 

साघनात्तपोऽरण्ये साधूरवेखानसः स्मृतः 

यतमानो यतिः साधुः स्मृनो योगस्य साधनात्‌ ।। २४॥ 

एवमाश्रमधर्माणां साधनात्‌ साधवः स्मृताः ¦ 

गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्योऽय भिक्षुकः ॥ २५11 

नच देवा न पितरो मुनयो न च मानवाः! 

जय धर्मो ह्यय नेति त्र. बन्तोऽभिन्नदशना- 11 २६ 1 

धर्मधिमविह भोक्तो शब्दावेनी क्रियात्मकौ । 

चरुशलाकुःणलं कमं धर्माधर्माविति स्मृतौ ॥ «७ }+ 

धारणा पृतिरित्यर्थाद्धातोधर्मः प्रकीत्तितः 1 

अघारणेऽमहत््वे च अधमं इति चोच्यते । २५ ॥ 


व्ग्निमों मे युक्त तया स्वगं गोमुख कै चरण करने वाते श्रौतस्मातं 
अमेक्रानान हने ठ वह वर्मक गाठार्है 1 २२॥ विच्छ साधन क 


भण्ड |] [ वाग पुराण 


साघु--गृख का हितठ ब्रह्मचारी भौर क्रियाभोके साधनसे ही गृहस्य साधु 
कहा जाता है ॥ २३॥ जद्खवमे ठप कै साधनसे साधु वंखानस क्हाग्या 
है। जो यह्तमान साधु यति योय के साधनसे कहा गया है ॥1२८) इस प्रकार 
से भ्रमे घर्मो के साघनस साधु कटे गये ह । गृहस्यत्रह्मचारी-वानप्रस्य 
घौर भ्षुक ये चार आश्रम ह ।1 २५॥ न देव-न पिति रन भूतिगण 
घौर न मानव यह्‌ धमं है बौर यह नही दै--ग्ह बोचते हृष्‌ अभिघध 
देन होते ह ॥ २६॥ यष पर धमं बौर बधं क्हेगयेरहै। येदोनोंही 
शब्द फ्रियात्मक होते हं । कुशल कम धमं है ओर सकुशल कमं अधमं है एषा 
कहा गया ॥ २७॥ घातु का धृति यह्‌ अ्थंदटोने से घारण धमं कहा गया 
है । अघारण ओर अमहत्तवे होनि मे यह बधं एेखा कहा जाता है 1 २८॥ 


अप्र्टपापका धर्मा आाचार्येरपदिश्यते 1 

दृद्धा द्यलोलुपाश्चैव भात्मवन्तो ह्यदम्भका । 
सम्यग्विनीता शछजवस्तानाचायनि प्रचक्षते ॥ २६ 1 
स्वयमाचरते यस्मादाचार स्थापयत्यपि । 

सचिनोति च शास्परार्यन्यमे सन्नियममुंत ॥ ३० ॥ 
पूर्वेभ्यो वेदयित्वेह श्रौत सप्तर्प॑योऽन् वनु । 

ऋचो यज्ूथि सामानि ब्रह्मणोऽद्धानि च शरुत्ति ॥३१॥ 
मन्वन्तरस्यातीतस्य स्मृद्वाचार पुनर्जंगौ ^ 

तस्मात्स्मातं स्मृतो धर्मो वर्णाधरमविभागरज } ३२ ॥ 

स एष द्विविधो धर्म॑शिष्टाचार ्ोच्यते । 

श्ेपशब्दात्‌ रिष्ट इति शिष्टाचार प्रचक्ष्यते ॥ ३३ ॥ 
मन्वन्तरेषु ये शिष्टा ट्‌ तिष्ठन्ति घामिका । 

मनु म्त्पयदरचेव सोकसन्तानकारणात्‌ 1 

धर्माय ये च शिष्टा दो यायात्तययं भ्रचद्यते ॥1 ३े४॥ 
मन्वादयश्च ये शिष्टा ये मया प्रागुदीरिता । 

तं शिष्टैश्चरितो धम सम्यगेव युगे युमे ॥ ३५॥ 

पटपर ब्ाचारयो हे दवारा ष्टवे श्रापड है उह धमं उष्देन 


श्वि-सरष ]} [ ५०५ 


रिया जाता है 1 वृढ, म्रलोलुष श्रातमा वलि दम्भे से ररित, भली भानि विनीत भ्रौर 
जो मरल-सीचे होति ह उनको भ्राचावं कते हैं ॥२६॥ स्वय भौ भ्राचरण करता 
दै श्रौरश्राचारकी स्यापना भीक्ियाक्स्ता है। यज्ञ भ्रीरप्रच्दे नियमोसे 
मुक्तं होता हृप्रा क्षाल्लनो के भ्यो काचारोमोरसे चयन क्या कतार हसी 
कारणस भ्राचायं क्हा जाता ॥३०॥। पूर्वमे होने वानोसे जानकर यहां 
पर क्षपियोमे श्रौत को दतलाया या! छग्‌-यद्धु-माम-व्रदयके गद्धोको 
भौर शति उग्होने बततलाये ये ।1३१।। जो पन्वन्तर व्यतीत हौ गया उसका 
स्मरएक्रके प्राधारषोफिरयायाया। इमसे वणं शरीर भराश्वमके विभाग 
से जन्मने वाला स्मत घमं स्मातं कहा गया है (1३२॥ बह यह घमं दो प्रवार 
काह 1 य पर शिष्टाचार क्टाजातादहै। देप दब्द से गिष्टयहहोताहै श्रीर्‌ 
हमरे गि्टाचार का जाता है ॥३३॥ मन्वन्तरो जो भि ह पहं धामिक होते 
हैजोकिमनु श्रौर सप्घपि लोकं सन्तानके बारणसेहोनेरहै। धर्मकेनिए 
जौ रिष्ट ह उनका यथानेष्य कटा ॥३४। मन्वादि जो रिष्टरप्मौर जौ्ैनि 
पिते फटे ६ उन भिष्ठो के दवाय चरिव-घं युग-युग मे प्रच्या ही 
टता है ॥३५॥ 

श्रयी वार्ता दण्डनीतिरिज्या वणाश्िमास्तया 1 

रिष्टैराचयते यस्मान्मनुना च पुनः पून ॥ 

पूर्वः पूर्वगतत्वाच्च दिष्टाचार स शाश्वत ॥३९॥ 

दान सत्यन्तपोऽनोमो व्रिद्येज्याप्रजनी दया 1 

श्र्टौ तानि चरित्राणि शिष्टाचारस्य लक्षराम्‌ ॥२७।। 

लिटा यस्माच्रन्तयेन मनुः स्ठपयद्व वे 1 

मन्वन्तरेषु स्वेपु दिष्टाचारस्ततत॒स्मृत ॥द्५ 

विक्नेय श्रच्खात्‌ शौनः स्मरणाद्‌ स्मात्ते उच्यते । 

ज्या बेदारमर श्रौत. स्मार्तो वर्णाश्रमात्मक । 

प्रत्यद्धानि च वक्ष्यामि धमेस्वेह वुं तक्षणम्‌ ॥३६॥ 

दृष्ट्वा प्रनरुनमयं य. पृष्टोवे न निगूृति। 

यया बरतप्रवादन्नु इव्दतत्मत्यतश्रणम्‌ ।४०।। 


५०६ ] [9 वायु पुराणं 


ब्रह्मचयं जपो मौन निराहारर्वमेव च। 
इत्येतत्‌ तपसो भूल सुघोर तद्दुरासमरं ॥४९॥। 
पदूना द्रव्यहविपामूृक्सामयजुपा तथो । 


ऋत्विजा दक्षिंणानाश् सयोगो योगं उच्यते ॥४२॥ 
भ्रयौ वार्ता-दरएड नीति--ष्ज्या तथा वशं प्रौर भ्राम जिस कारण 


से रिष्ठो केद्वारा वार-वार भाचरित होते रै, पूर्वगत होने से पू्वोँके दरार 
वह्‌ शाश्वत दिष्टाचार पहा गया है ॥३९॥ दान--सत्य--तप--धलोभ-- 
विद्या,--इज्या-प्रजनी मौर दया--पे भ्राठवे चरित्र जोरि शिशचारका 
सक्षण होते ह ।१३७॥। क्यो मका दिष्ट चरणा वरते है, मनु भौर सतपि 
गगा चरण श्रिया करते ह ठेमा सभी मरन्वन्तरो मे रिया जाता है, इसत्निये यह 
िष्टाचारक्टा गपाहै॥३८॥ श्रवण वरेसे श्रौत जानना चारिए भौर 
स्मरणे स्मतं कटा जाताहै। दज्या वेदात्मक हनि चे भौत दै गौर वर्णा 
मात्म स्मार्तं टोवा दै । धवजम थमवा तशा भौर गही परष्मद्धोको 
दताडगा ।1 ६६4 यटूत-गा भवं देमरर जो पृष्ठा गया वह दुभौ दाता 
नहो  । जमा भूत प्रवाहै यही सत्य षा सक्षण होता ।१४०॥ द्रह्मचपं- 
जपर-मौन-निराहारत्य यह्‌ दनेता तपवा सुपार भौर दुरासद भूतल होना 
१।४१॥ पुषा षा, द्रव्य-हवियो षा, चद्‌, साम पौरयनरु षां, श्रुरिवओो 
कभौर्‌ दक्षिग्णाप्रोःषाणजा सपाटता पटी पोगकहाजतादहै ।४२॥ 
प्रात्मवत्म्यनरूतेषु यो ह्तिायाटिताय च । 
ममा प्रवर्तते दि एतना ष्यं पा दया स्मृता ॥४३॥ 
भरा्रटोऽचिहतो कापि नाक्रो्छो नदहन्तिवा। 
याद््मनकमंनिः क्षान्तित्तितिदा क्षमा रमूता ॥४५॥ 
श्पामिनारद्यमाणानामुद्ृष्टनाच मृत्यु ष। 
परर्दानामनादानममोम ष्ट पोत्यते ॥४५॥ 
मेयुगन्याममाचामे व्ठिनिम्तनमवत्पनम्‌ 1 
तिवृ्ति्रह्यवयं सदेर्द्धुदि दम उच्यते ॥८६॥ 
दास्मापं वादगपंवा दद्धिराणीर यत्य! 
म मिष्या सम्थरवरतरते समस्य नतु षक्तग्पम्‌ ॥३अ॥ 





ऋछपि-लक्नण ] [ ५५७ 


द्मात्मके यो विपये कारणो चाष्टनक्षण । 

न कव्यनु प्रतिहत स जितात्मा विभाव्यते (४८८1 

यद्यदिषतम दव्य त्यायेनोपागतचच येद्‌ 1 

तत्तद्गुणवते देयमित्येतदानलक्षणम्‌ 11४६॥ 

जो हित भ्नौर श्रित के व्यि समस्त प्रारियो मे श्रपने ही समानि 

वौ प्रवृत्त किया क्स्ताहै वह प्ररं दया कटी मई है ॥1४३॥ बुरा मला कहा 
जान वाला श्रौर श्रिहत श्रत्‌ मारापीटाद्यामी न सो कुरा-मलाक्ह्‌क्र 
करोषि होना है वौरन मासताही है, वाणी, मनश्रौर कमं जो सान्ति 
दोनी है वह्‌ तितिक्षा छमा कटी गरदं है 11४४॥ स्वामी के दाय ब्ररक्षितेप्रीर 
म्टिमेयो ही च्च्ृष्ट परये घनोकानग्रहसाक्रना ही यहां परग्रलोमक्हा 
जाता दै 11४५1 नैयुन का अषमाचार, ग्रचिन्तन॒ तया प्ररल्पन, निवृत्ति, ब्रह्म- 
अरयंजोहोताहै वह्‌ घचिद्रदम कहा जाना दै 1४६ धप लियियादूषरे 
के लिये यदां पर जिसकी इन्द्रियां भ्रवृत्त नटी होनी है यदी दाम वा यवर होता 
दै अर्यान्‌ इसा नो शम क्ठते ह 11४७ जो दामक्र पिषममे श्रौरं प्रा लक्षण 
वा कारणा मे प्रनिहन होता भी व्रोव नही करता है, वह्‌ जितात्मा बिमाविन 
होता ह ।।४०॥ जो-जो दनम द्य मोर जो न्याय ने उपागत हं वही वह्‌ 
गूरवान्‌ षौ देना चादिए यट दान का लश्रण होता है ॥४६। 

दान तिविव भित्येतत्‌ वनिन्येष्ठमच्यममू 1 

तव नैश्रोयस ज्येष्ठ कनिष्ठ स्वायसिदये1 

कारप्यात्सर्वभूतेम्य- सुविभागस्तु वन्ुपु ॥५०॥ 

श तिस्पृतिम्या विदितो धर्मो वर्णाश्रमात्मक । 

ल्िष्टाचाराविस्टश्च घर्मं सत्साघुमद्नन ॥५१। 

अप्रदेपो द्छनिष्टेषु तयेष्टानभिनन्दनम्‌ ॥ 

प्रीतितापविपदरेम्यो विनिवृत्तिविरकत्तता 1५२ 

सन्यास वर्मणो न्याम कृतानामषतं सह 1 

कुदलादरु्लानाच प्रदाण त्वाय उच्यते ५५३॥ 

श्रव्यक्तायोऽविररोपाद्च विकारोऽस्मिन्नचेनने । 

चेतनाचेतान्यत्वविनान ज्नानमुच्यने 1\५४॥ 


भ५०्८ ] [ वायु ¶ुस्ण 


प्रत्यन्नाना तरु धर्मस्य इत्येतल्लक्षण समृतम । 
शयिमिर्धमंतत्वज्ञैः पूर्वे स्वायम्मुवेऽन्तरे ॥५५॥ 
अनवो वर्तयिष्यामि विधिमेन्वन्तरस्य यः। 
इतरेतरवणंस्य चातुवंशंस्य चैव हि । 
प्रतिमन्वन्तरञ्चव श्र्‌.तिरन्या विधीयते ।(४६॥ 


दान भी तीन प्रकार का होता दै- कनिष्ठ, मघ्यम प्रीर ग्येषठ-ये तीन 
दन केभेदङहँ। उनमे जो दान निध्रेयसे सम्बन्धित है वही ज्येष्ठ वान होता 
है-जो भ्रपने श्रयं कौ िद्धिके क्षिये दिपा जाता है वह कनि्ट दान होता है । 
जो कष्एा से समस्त प्राखियो के लिये बन्धुमो मे भली भांति विभाग करना 
मंष्यम दान होता है ॥५०॥ श्रुति भौर स्मृनिके द्वारा विदित वर्णाधरमात्मक 
धमं है! शिष्टाचार से अविरुद्ध सतु एव साघु पुरषो केद्वारा सङ्गत धमं 
1५९) भ्रमीष्ट वस्तुप्रोमे श्रृष्टदवेपकान होना तथा इष्ट वस्तु का विदोप 
श्रमिनन्दन ने करना--प्रीति, ताप श्रौर विपादोस्े बिदेप निवृत्ति विरक्तता 
होती है ॥५२॥ कमं का भली भाति न्यास ही सन्यास होता) ध्रद्ृतोके 
साथ ङ्त का, कशल भौर अदुशलो का जो प्रहाण द्येतादहै वही स्याग कहा 
जाता है 1५३॥ जो अ्रन्ययसतेभ्रौर भरविदेपसे इम घेतनमे चिकारदैतथा 
चेतना चेतनान्यत्व का विदे ज्ञान है वही ज्ञान कहा जाता दै ।॥५४॥ ध्म के 
भ्रत्यद्धौ का यह्‌ लक्षण कठा गयाहै जो क्रि धमं तत्व के ज्ञाता पूवं स्वायम्भुव 
मन्वन्तर मे पियो ने कटा है ॥५५।। यहाँ मँ आपको मन्वन्तर कौ जौ विवि 
है वताय । इतरेतर वणं का त्था चतुर्वं का अरति मन्वन्तर्‌ मे जन्य शति 
का विधान किया माता दै 11५६॥ 


चयो यजू-पि सामानि यथावत्‌ प्रतिदेवतमर्‌ । 
सआभूत सप्लवस्यापि वर्ज्येक शतरुद्रियम्‌ ॥५७11 
विचिहोत्र तया स्तोत्र पूवंवत्सम्प्रयर्तते } 
द्रव्यस्तोत्र गुणस्तोधः कम॑स्तोत्र तथैव च । 
चतु्यंमाभिजनिक स्तोवमेतच्चतुविघम्‌ ॥५८॥ 


ऋपि-नक्षणा ] [ ५०६ 


मन्वन्तरेषु सवपु यथा देवा भवन्ति ये । 

प्रवर्तयति तेपा वे ब्र्मस्तोत चतुविधम्‌ 1 

एवं मन्त्रगुणानान्च समृत्वत्तिदचतुचिधा ॥५६॥ 
भय्वेयजु गर साम्ना वेदेष्विह एूयक्‌ पयर्‌ 1 
छपीगान्तप्यतामूप्रन्तप" परमदुरचरम्‌ ॥1६०॥ 
मन्वा. ्रादुर्बभूर्वुहि पुवं मन्वन्तरेष्विह । 
परितोपाद्धयाददु काल्ुवाच्योकाच पञ्चवा ॥५६१॥ 
शऋपीणा तप-कात्स््यन द्णनेन यद्च्यपा 1 
ऋपीरा यहपित्व हि तद्रहामीह लक्षणं एईरा 
श्रतीतानागतानान्तु पञ्चधा ऋपिरन्यते 1 
श्रतस्तवरृपीणा वक्ष्यामि द्यापंन्य च समृद्धूवम्‌ 1६३11 


शत्‌ पजु प्रीर साम प्रि देवत ययाकत दै! भरागूत स्तव का भी 
एकर पातएद्िय व्यं होना है 11५} विषिरव्र नया स्तोत्र यह्‌ भीपूर्वं क 
माति मम्प्रवृत्त होने है 2व्य स्तोधर-गृएा स्योन-कमं स्त्रोत प्रोर चौया भ्राभि- 
जानिके स्तोत्र हस तरह मे यहे स्तोत्र चार प्रकारका होना है ।५८॥ समस्त 
भन्वन्तरोभे ज दैव जिमश्रकारमे होते उनका चारो प्रकारका ब्रह्मं स्वौन 
प्रवृत्तहेतादै। इम प्रक्रारमे अन्त्‌ युग्यो को चार प्रार्‌ की समुम्पत्ति दोनी 
द ।(५६५ प्रयवं यनु श्नोर साम वेदोमे यद पृषर्‌-पृयर्‌ होनी है! तप करने 
हु ऋूपियो ब उग्र तप परम दुदबर्‌ टृभ्रा कग्ना दै ।1६०॥ पूर्वं मन्वन्तरोमे 
यहा मन्व प्रादु्रूत हये ये । वे पण्तिप मे--भवमे-दु खसय मे बौर 
धोक्मे पाव प्रह्नग्के दै ॥६१॥ तपको हत्नतासे ऋपिपो बे यदृच्छा 
दधन तेच्यियोका जो -ष्टुपित्व होनादै बह नलो कै दवारा वनना- 
ऊगा ॥९२॥ भ्रनीने प्रौर भनागतो म पाँच प्रक्र क छवि र्रै जाने 1 एम 
न्त्‌ क्ट्वरियो ङे आयं डे मभुद्रव को कटैया 11९31) 


गुणसाम्ये वत्तमाने मवेनम्प्रलये तदा 1 
भ्रनिचारे तु देवानामतिदेमे तयोर्वा 1६४1 


५१० ] वायु पुराण ] 
अवुद्धिपूवेव तद्व चेतनायं प्रवर्तते । 
तेन ह्यवुद्धिपूवं तच्चेतनेन ह्यधिष्ठितमु ॥६५॥ 
वर्तते च यथा तौ तु यथा मत्स्योदके उभे 
चेतनाचिष्ठित तत्व प्रवत्त॑ति गुणात्मना ॥६६॥ 
करणत्वात्तथा कार्यं तदा तस्य प्रवर्तते 1 
विषये विपियात्वाच् ह्यर्थेऽथित्वात्तयेव च ॥)६७। 
कालेन प्रापणीयेन भेदास्तु कारणात्मकाः 1 
संिध्यन्ति तदा व्यक्ता. क्रमेण महदादय ६५} 
महतश्चाप्यहद्धुारस्तस्माद्. तेन्द्रियाणि च 1 
भरूतभेदास्तु भेदेभ्यो जज्ञिरे ते परस्परम्‌ । 
ससिद्धिकारण कार्य सद्य एव विवर्तते १।६६॥ 
यथोल्मुकसव्‌ टन्ुद्ं मेककाल प्रवक्तते । 

* कथा निवृत्त कषेत्रल कालेनैकेन कमणा ॥1७०॥ 
यथान्धकारे खद्योतः सहश्षा सम्प्रदृश्यते । 
तथा विवृत्तौ छयन्यक्तात्‌ खद्योत इव चोल्वण ॥१७१॥ 


गुखो के साम्थके वर्तमान होने पर उम समय मे सवका सम्प्रलयं होने 
पर-देवो पै श्रतिवार होने पर, उन दोनो के भरतिदेदा होने पर, भ्रयुदिपूवंक वह 
चेतना धैः निए प्रवृत्त होता दै ! भ्रवुद्धपूवंक उस चेतन से श्रधिष्िन होता 
दै ॥६५। जि प्रक्ारसेवे दोनो मत्स्य घौर उदकचेताधिष्ठित तत्व कौ 
गुात्मा से प्रवृत्त होता है ॥६६॥। उत समय करण होने से काथं भ्रवत्तित होता 
है 1 विषयमे विषयत्व होने से तया प्रथं मे प्रयित्कहोनेसे प्रवत्तिति होता 
ट ॥६७॥ प्रायणीय षान से कारणात्मक भेद उम शमय मे महदादि व्यक्त 
द्यत दए पै तिद दते ह ६८॥ महत्‌ से ्रहद्धार भौर भ्रहद्धार से भूतैद्धिां 
ष्टोतिषै। भूनोकैमेदतोभेदोमे परस्परमे उघ्यन्नदहोतेरह। बपिद्धि कारणं 
वायं तुरन्त ष्टौ विवत्तितिदो जाता है ५६६॥ जिय प्रश्रते परमे उत्पू 
दरट्ताहपा एव्र वानर प्रवृत्त होनादै उनी प्रकार मे एक क्यतीन बर्मते 


न्पि-लकषण | [ ५११ 


क्षिनज्ञ विव्रृत्त लेना है । जिस तरह खद्योतं भ्नन्यकार मे सहसा दिखाई दिया 
करता दै उसी प्रकार से विवृत्त उल्वण खद्योत कौ माति ही होना है 11७०-७१॥1 
स महान्‌ सदारीरस्तु यत्रं वाग्रं व्यवस्वितः । 
तत्रव सस्तो विदधान द्रारञ्नालामुते स्थित्तः 1७२1 
मास्तु तमतः पारे वेलक्षण्याद्विभाव्पते । 
तत्रव ्स्मितो विद्वास्तममोऽन्त इति धतिः ॥७३॥ 
वुद्ििवत्तंमानस्य ्रादुम्‌' ता चतुधा ॥ 
ज्ञाने वे रम्यम ग्वं धर्मश्चेति चतुष्टयम्‌ 11७४1 
सासिद्धिकान्ययेतानि मुप्रतीकरानि तस्य वं! 
महतः सयरोरस्य वेवर्त्यात्‌ सिद्धिरुच्यते ॥॥७५॥1 
शत्र लेते च यत्ुर्याक्ेत्रज्ञानमयापि वा 1 
पुरीदायतवात्पुखुपः ्षेतरज्ञानात्‌ समून्यते ॥७९॥ 
कषेमस्चः कषेत्रविक्लानात्‌ भगवान्‌ मतिरुच्यते । 
यस्मादूवुद्ध या तु शेते ह तस्माद्रोधाटमकः स वं । 
सकिदधये परिगत व्यक्ताव्यक्तमचेननम्‌ ७.51} 


दागौर्‌ कै महित वह्‌ महान्‌ जरहाषर्‌ टौ भ्रागे न्यवत््यिनहोनादहै वहाँ 
पष्हीद्यारतातयके मुख प्रर विद्वान मस्विव होता है 19२॥ महावु ततौ तम 
चै पारमे वंलषएप रते के कारणमे विमाजिन दोना है! वर्हापग टी विदरान 
तमके मन्दर सन्थिनिदेोत्राहै- रमी धूति दै अ विवर्तमान की बृद्धि 
षार प्रकार घासी प्रदुमूत हूं । जान --वैराग्य-ु्षर्यं प्रौर घम ये उक चार्‌ 
भेद होगे 1131 सदारीर उम मल्‌ कै ये मापिद्धिक सुप्रतीक ह । वैकत्वसे 
निद्धिर्हौीजानोहै 13 यहां पप्पुरोम पो प्ै्ज्ञान शापन करतादै 
वहपुगेमे शयन क्लेसेपुर्यदोकक्ञान से मनो भाति कहा जाता टै 1७६ 
सोत्र विन्नानकेटोने से सेत्रल-ममवान्‌ भोर मति कहा जनादहै। निस 
भार्ण से वुद्धिमे यन्‌ करा है उमने वह बौवा््मब निर्यय स्पमे होना 
दर कध ङे धर्‌ अदेय व्यलस्यं ह शरि दे दै १०.०४ 


५१० 


1 यायु पृण |] 


भ्वुदधिपूर्ववः तद्र चेतनायं प्रवर्तते । 

तेन यवृद्धिपूवं तच्चेतनेन श्यपिषठितम्‌ ॥६५॥ 
वर्तेते च यथा तौ तु यथा मस्योदमे उभे} 
चेतनाधिष्ठित तत्तव प्रवत्तति गुणात्मना (६६1 
फरशणत्यात्तया वायं तदा तस्य प्रवर्तते । 

विपये विपियात्वाञ्च ह्यर्थेऽथित्वात्तथेव च ।1९७॥। 
कालेन भ्रापणीयेन भेदास्तु कारणात्मवाः। 
सिध्यन्ति तदा व्यक्ता क्रमेण महदादय ॥६८॥ 
महतदचाप्यहद्धारस्तस्माद्भ.तेन्दरियाणि च 1 
भूतभेदास्तु भेदेम्यो जन्निरे ते परस्परम्‌ । 
ससिद्धिकारणए कायं सय एव विवत्तं ते ।६६॥ 
यथोल्मूकरन्‌ टन्तृद मेककाल प्रवर्तते । 

तेथा विवृत्त क्षेनरज्ञ कलिनेकेन वर्मणा 17७०) 
यथान्धकारे खयोत सहक्षा सम्प्रदृश्यते । 

तथा विवृत्तो ह्यव्यक्तात्‌ खद्योत इव चोल्वण ।\५१॥ 


गुणौ बै साम्थके वर्तमान होने पर उस समयमे सवक्य सम्प्रलय न 


पर-देवो कै अ्रतिचार होने पर, उन दोनो क अतिदेश होने पर, श्रवुदधिपूरवक वहं 
चेतना के लिए वृत्त होता दै । भरबुदिपूवंक उस चेतन से प्रधिष्ठित होता 
है ॥६५॥ जिस प्रकारसेवे दोनो मत्स्व श्रौर उदकचेतापिष्टित तत्व को 
गुणात्मा ते प्रवृत्त होता है ६६। उस समय करण होने से कारव प्रवत्तित होता 
है । विपय मै विपयसव होने से तया अथं मे श्रयित्व होति से परवति होता 
दै १।६७॥ प्रायीय कान से कारणात्मक भेद उस समय मे महदादि व्यक्त 
होते हए से सिदध होत ह ।६०॥ मह्‌ से अद्वार प्रौर श्रहद्धार से भूतेन्दिया 
होतेह) भूतोकेम्ेदतोभेदो से परस्परमे उत्पत दते दै} सिद्धि कास्ण 
कायं तुरन्त ही विवत्तित हौ जाता है ॥६६]। जिम प्रकारसे ऊपर मे उस्म 
टना हृश्रा एक काल परे प्रवृत्त होता है उनी प्रकार से एक कालीन कर्म से 


श्रैपि-वदए ] { ३११ 


सषैन्ज विवृक्त टत है + जिम तरह खद्योत ्न्कार मे खटा दिलाई दिया 
वरता है उसी प्रक्र वरिगृत्त उल्वण खद्योत बौ नाति ही होना है ॥७०-७१॥ 
स महान्‌ सशरीरस्तु यत्र वाग्रं व्यवम्यित्त. । 
तरतव सम्यितो विद्धान्‌ हारदालामुवे स्थित. ७२ 
महाश्नु तमम पारे वैलज्ञण्यारदविमान्यते ! 
तमव सस्यितो विद्रास्तममोऽन्त इतिश्र्‌ति ॥७३॥ 
वुद्धिविवर्तमानस्य प्रादुमू ता चनुविवा। 
ज्ञान वेराग्यम्‌ श्रयं धमश्चेति चतुष्टयम्‌ 11७४ 
सायिद्धिकान्ययेत्ानि सुप्रतीकानि तम्य वं 1 
महत सगसेरम्य ववरा्‌ सिद्धिरुच्यते ॥(७१॥। 
श्रव रोते च यतूर्याक्षेतक्नानमयापि वा। 
पुरोक्चयत्वात्युख्य. ्षेनज्ञानातु समज्यते ॥1७६॥} 
नोतज्ञ. क्षेनविक्ञानाद्‌ भगवान्‌ मनिरच्यते ! 
यरमादुवृद्ध या ततु नेते हं तस्माद्रोषात्मक सवं 1 
सभिदधये परिगत व्यक्ताव्यक्तपचेननम्‌ 11911 


सयैरके सहित वह मदाद्‌ जहां परी श्राय व्यवश््यित होना दहै वहा 
पर ही द्वास्णाला के मूख परं व्रिद्धन मस्थिन दाना ॥अर१ महानु तो तम 
बे पारमे वंलघ्र्य दोन के वारर से विमात्रित दोतादै। वषर टी विद्रान 
तमके न्दर गस्य होता है--रेमी श्रुति है 1139311 चिवर्तमान कौ वृहि 
चार्‌ प्रक्र वानी प्राटुभरूत हृद । जान यम्प-ददवयं प्रौर्‌ घमं य उश्करे चार्‌ 
भेदने दहै 1134! मदारीर उम महन्‌ के यमापदधिक मूप्रतीक है 1 वव्यंसे 
पिदिक्टीजानी है 0३५॥ यहाँपररपुगीम जा क्ेतरन्ान पेन काद 
वद्‌ पुरी मे शयन क्न से पुस्यर भेव जान स भनी माति कटा जता है (१७६॥ 
क्षय के विजने होने से क्षेवल-सगवान्‌ प्रोर मति कटा जानाहै। निष 
करणम वुद्धि धमन करदह उमने वह बोगल्नक निङ्वय च्पप्ते हना 
दै! सर्निदि के निए प्रचेतन व्यक्ताव्यक्त के परिगत होता ॥33॥] 


५१२ 1 वायु पुस्स ] 


एव निवृत्ति क्षेत्रज्ञा क्षेनज्ञेनामिस हिता! 

्षेनज्ञेन परिक्ातो भोग्योऽय विपयस्त्विति {५७८ 

ऋछपीत्येष गतौ घातु श्रत त्ये तपस्य 1 

एतत्सनियते तस्मिन्‌ ब्रह्मणा स पि स्मृत ।७६॥ 

निवृत्तिममकाल तु बुद्ध याव्यक्तमृपि स्वयम्‌ \ 

पग हि ऋषते यस्मात्परमपिस्तत स्मृत ॥८०॥॥ 

गत्यर्थाहपतेद्धातोर्नामनिवृं ्तिरादित । 

यस्मादेष स्वयम्म्‌ तस्तस्माद्व्मापता स्मृता । 

ईश्वरा स्वयमुद्ध.ता मानसा ब्रह्मण सुता ॥८१॥ 

यस्मान्न ह॒न्यते मानै्मंहानू परिगतं पुर ॥ 

य स्माद्पन्तिये घीरा महान्त सर्वतो गुणौ । 

तस्मान्महर्पय प्रोक्ता बुद्धो परमदश्िन ॥५२॥ 

ईहवराणा शुभास्तेपा मानसान्तरसाइच ते । 

श्रहद्धर तमदचैव त्यवत्वए च "विता द्धता ॥{८३॥ 

तस्मात्त, ऋषयस्ते वे भूतादौ तत्त्वदर्दाना 1 

च्छपिपुत्रा छपीवस्तु मेथुनाद्र्भेसम्भवा ।1८४॥ 

षय प्रवार मे क्षेवजञ से श्रमिमहिन क्षे निवृत्ति होतो है । पतरसने' 
द्वारा परिज्ञात भोगने योग्य जो है वह्‌ विषय होता है ॥७८। ऋषि यहं धातु- 
गति म~ूति म-सत्यमे घौर तपमे होती है । उसवे इमं स्रियत होने पर 
ब्रह्माबेष्टारा कपि बहा गया है {\७६॥ त्ववृत्तिवे रमकातमे श्रपपि स्वय 
गदि से पव्यत्- होतः है । जिस कारण से पर षो रूप करता ह॑ दये परमपि 
हा जाना है ॥८०॥ मत्यथंतर श्प धातु स प्रादि नाम कौ निवृत्ति ष्ोती है । 
क्योकि यट स्वयम्भूत है दमिए पारमिता कटी गह है 1 ईश्वर स्वय उदू 
हरै धौरये ग्र्या वे मानम पृतं 1८१ करयोरि यहं यानो से हन्यमान 
मषटीहोना दै, पा महान्‌ परिगत रै! जिमकारणयेय धीर शवभोरमे 
गु द्वारा महाद्‌ कौ रिवन है दग कारण गे यृदि परमद्ी महि बृञ्शतः 
दै ॥८२॥ उन ह्वदाङ़द्ुमवेमानमातदगदटै अर घषर तथाता 


च्छेपि-नक्षर ] [ ५१३ 
त्पाग करके ऋछपिना को तदो गए हे! इमसेवे पिप भूतादिमे 
वत्र के देखने वात द । पियो दे पुव छयीक् तो मंयुनके ध्म द्रारमर्नेमे 
उत्तरे वतिटेने रह ॥४॥ा 

तन्मानाणि च सत्यस्च ऋषन्ते ते महौजसे 1 

सत्य्पेयस्ततस्ते वे परमा. सत्यदर्थना ५२५१ 

ऋछपीणाञ्च गतास्ते तु विज्ञ या चछपिपुचका. । ॥ 

ऋषन्ति वे श्रत यम्माद्विनेपाय्चैव तततवत ॥ 

तस्मात्‌ ध्र्‌.तपयस्तेऽपि धर्‌ तम्य परिदटोना. 11५६१ 

्रव्यक्तात्मा महात्मा चाहद्धारत्मा तयेव च । 

भूतात्मा चेन्द्रियात्मा च तेपा तज्त्ानमुच्यते। 

इत्येता छपिजातीम्तु नामभिः पञ्च वं शुरु ।(=७॥ 

धगु्मगोचिरत्रिदच श्रद्धया पलट. क्तु 1 

मनूरदक्लो व्षिष्ठशच पुनस्त्यञ्चेति ते दग ॥ 

ब्रह्मणो मानमा ह्येते उद्धता न्वयपरोदवरा += 

प्रवर्तन्ते -श्पेर्यस्मान्महास्तम्मान्महरपंय 1 

ईव राणा सुताम्त्वेते छपयस्तात्रिवो धन ८६ 

काव्यो वृह्ुस्पतिस्चैव क्हयपद्चोणनाम्तया । 

उनय्यो वाम्देवद्च ग्रयोज्यस्वैधिजन्तया ॥६०॥1 

कट्‌ मो विध्वा. धाक्तिर्वालचित्यम्तया धरा । 

इत्येते चछपय भोक्ता जानतो च्छपिताद्न्ता. ६१९५1 

वे मटन भरो याने तन्मात्रो को श्रीर्‌ सत्य च्छ्य क्रनैर्हइम दारणा 
मे प्ररम मत्य वे देगने वाते सत्यपि होतर्है < क्पिपोके जो पृष्रह 
वे ्छपि-दुवर जानने के पोग्यहोतेरर। क्योकिधुतर ौष्धपरक्रने हैभोग 
तवसे ददिपोकोमोश्रियाक्रतेर्है हय कारणाने शून परदिदि्ेने करने वति 
वे शूतवि मौ कदरे जाते ह १८६१ प्रव्यनात्मा-मटाना-परदद्धारामा-मूनास्मा 
पनीर ष््िफामा उनका वटं शान कटा उता दै ॥ ननो ये ्छपियों कम जातिया 
यो रणे वरे प्रर ठे ऊने दतो ५८) पगु-ररोद-शतरि- पद्भिर्‌ 


५१४ ] { वा्ु पुराण 


क्रतु-मनु-दक्ष-वमिष्ठ चौर पुलस्यये व्वार्है। ये ब्रह्मा के मानस-पूत्रहं जो 
ईदवर से स्वय उद्भूत हए थे ॥८८॥ जिय ऋषि से प्रवृत्त होति है, महाबु है 
ह्समे महरि होते द। ये ऋषि ई्वरोके पुत्र ह उन्हे धव जान सो ॥*९॥ 
कव्य-वृहस्मनि-क्दयप-उशना-उतय्य-वामदेव-अरयोज्य-एेयिन-कदं म-विश्चवा-दाक्ति, 
वालचिस्प-धरा-ये पि कहे ग्येहै ब्मीर ज्ञान मे क्पिता को प्रप ट्ृए्‌ 
ये ॥९०।1६१॥ 


ऋपिपुत्रानृधिकास्तु गर्मोलपन्नानिवोचत 1 

वत्मरो नग्रहुश्चैव भारद्वाजम्तथेव च ॥६२॥ 
बरृहदुत्य शरद्राश्च अ्रगस्त्यश्चौ रिजस्तया । 
ऋद्मविर्दीघंतमास््वंव बृहदुक्थः शरद्रतः ।६३। 
वाजश्रवा सुवित्तश्च सुबाग्वेपपरायणः । 

दधीच. गद्ख॒माश्चैव राजा वैश्रवणस्तथा 1 

इत्येते श्रधपिकाः भ्रोक्तास्ते सत्याहपिताद्धता. ॥&५। 
ईश्वरा चऋपिकाङ्चैव ये चान्ये वं तथा स्मृताः । 
एते मननक्रृतः म्व कृत्स्रश्तात्निवोधत ।६५।॥ 
भगु का्य. प्रचेतास्त्‌, दधीचो ह्यात्मवानपि । 
श्रोर्वोऽये जमदग्निश्च विद सारस्वतस्तथा ॥६६॥1 
श्रद्विपेण ह्यख्पश्च वीतहव्य सुमेधसः 1 

वैन्यः पृयुद्विवोदास. श्रदवारोगृत्समान्नभ 1 
र्कमेनविश्चदित्येते कपो मन्ध्रवादिनः 116.3॥1 
श्रद्धिय वेधमचैव मारद्वाजोऽय वाप्कलिः। 
तयामूृतस्यना माग्यंः नैनी सहूतिरेव न ॥\&५॥ 


वि लक्वण ` ] [ ५९५ 


उतथ्यश्च भर्राजस्तथा वाजदा अपि। 
श्रायप्यस्च सुचित्तिश्च वामदेवस्तथेव च ।।१०१1। 
श्रीगजो वृहदुक्थस्च ऋपिरदीधंतपास्तथा ॥ 
कक्लीवारच त्रय्लिशव्‌ स्मृता अरद्धिरसो वराः} 
एते मन्तङृत सर्वे कादयपास्तुः निबोधत 1१०२ 


चऋि-वुच रोर ऋषिको को गर्म से उत्पत्र समक्त लो 1 वतत्सरनग्रहु- 
मादान ह चादमसमनव-वपो-कय -य 
श्रवा-मुषित-ुवाग्‌बेषपरायण-दधोच-य मानन शरीर व्॑यग-ये इतने मव 
ऋषी कदे गये ह शौर बे सत्य से ऋयिता यन प्रात दष ये 1 ६२।६२।६४॥ 
जो दने श्रन्य है वे ईद्वर प्रौर पीक कहे गेह । ये सव मन्त हैउन्दे 
पूरं रूप से जान लेना चादिष ॥६५॥\ भगुनकावय-प्रचेता-दपीचमातमवान्‌ शरव 
जमदाणिि-विद-सारस्वत-श्दविे-गररुप--वीन हन्य" -सुमस-वैन्ू-दिवो दास 
भ्रवार, गृत्समानु-नभ ये उद्मीस पर्नवादी दै १1६६।६७॥ अद्जिरा-नेधस- 
भारद्वाज वाप्वलि- अमूत -मन -संहति-- परवुत्स--मान्धावा-सम्वरीप-- 
श्राय श्राजमीढ- ऋषभ दलि-- पृषदश्व विरूप-क एव -दगल-युबनारव- 
यानत सदस्‌ -द्युमा्‌ वय मसान -वाजथ युचित्ति- 
गामव मगन कय वद्मा सीरन्‌ ये हेती वर प्र््िरम 
फटे गए 1 ये सव मन्मत 1 भ्रव क्यपो को जान लो ॥६६।।६७।॥ ६१ 
1६६।1१००।।१०१॥ १०२ 

कादयपर्चव वत्सारो विभ्रमो स्म्यएवच॥ 

असिनो देवलदचैव पडते ब्रह्मवादिनः ॥।१०३।। 

श्मतिर्यद्वसनर्चैव श्यामावाश्नाय निष्टुरः 1 

वल्मूतको मुनि्दीनिान्वया पूर्वातिथिश्च य. 1 

इत्येते चात्रय. प्रोक्ता मन्मकासा मर्पय ॥११०८॥ 

वसिष्ठश्चैव शक्त्य तयेव च परावरः 1 

चतुथं इन्द्रप्रमतिः पच्चमम्तु भरदसु 11१०५1१ 


०, [ वयु पृरण 


पष्ठस्तु मे त्राचर्ण दुष्डिन सप्तमस्तथा 1 

सद्‌.म्न्चाष्टमल्चेव नवमोऽय वृहस्पति । 

दशमस्तु भरद्वाजो मन्वब्राह्मणकारका ॥१०६॥ 

एते चैवहि कर्तारो विवर्मध्वसकारिणा 1 

लक्षण ब्रह्मणस्चेतद्धिहित सवंशाखिनाभू ।\१०७॥ 

दितुहिते स्मृतो धातोय चिहृन्तयुदितम्परं } 

श्रथ वाथपरि्राम्तेहिनोते्मतिकमंण ॥१०८॥ 

तथा निवंचन न्न याद्वावयाथंस्यावधारणम्‌ 1 

निन्दा तामाहुराचार्या यदहौपासनिन्यते वच ॥१०६॥ 

्पूर्वाच्छैसतेर्धातो प्रशसा गुरावत्तया । 

हदन्त्विदभिद नेदमित्यनिश्चित्य संशय 11११०) 

काद्यप-वत्यार विश्रम-रेम्य-सित देवल--ये छ ब्रह्मवादी होते 
ह ॥१०३॥ श्रत्रि श्रतिसम-दयामावानू-निष्टुर-वल्यूतक मनि धीमानु पूरवातिधि-- 
महि मन्य्रकार प्रात्र कहे गए है ॥१०४॥ वरिष शक्ति पाराशर-चौया ददर 
प्रमतिश्रौर पावर्वा नरदसु-छडा मैवरावरुण-सातवां कुरिढन-भ्राठ्व सुम्न 


नवम्‌ वृहस्पत्ति-ददम्‌ भरद्राज ये मन्त्र प्रौर ब्रण के करन्‌ वाल 
है ॥१०४।१०६॥ ये सव करने वाते ्रौर विधर्म के ध्वस करने वलि ह। 


यह ब्रह्मा का लक्षणा समस्त श्राखा वालो मे विदित है ॥१०७॥। दिति धातुसे 
हेतु हा गथादैजोपरोके द्वार उदितिका निहननं करते ई! भ्रं परि- 
भराति मतिकमं वाली हिनोत से होता है ।१०८।। तथा वाक्यां र श्रव 
धर्रण निर्वचन बोलना चाहिए । माचायं लोग, जिप् दोपसै वथनकी निष्दा 
की जाती है, उसको निन्दा वते है 11१०६॥१ प्रपूरक शम घातु से गुणवत्ता के 


भार्ण मे श्र्सा होनी है श्रद्‌ प्रणता कटी जाती दै 1 पह है-यह नही र 
फसा भनिश्चय करके ही स्वय हीना है ।(११०॥ 


दमेव विधातव्यमित्थय विधिर्च्यने । 

प्रन्यस्यान्यस चोक्तत्वादवुधे परकृति रमृता 11१९१ 
0 ह्यत्यन्ततयेक्तदच पुराकल्प स उच्यते ! 
(रायिक्रान्तवाचित्वात्‌ पुराकल्पस्य कत्पना ॥११२॥ 


छपि-लक्रण ] [ ११७ 


भन्वत्राद्यएकल्वंस्तु निगमं बुद्धविस्तरं 1 
अनिरिचित्य कृतामाहू्व्यवधारणकत्पनामु ॥ ११३ 
यया हद तथा तदं इद वापि तथैव तत्‌ । 
इत्येप ह्य पदेयेऽय ददामो ब्राहमणस्य तु 11११४ 
इत्येतदुत्राह्मणएस्यादौ विदितं लक्षण बुव 1 
तस्य तद्वृत्तिरुदि्ा व्याद्याप्यनुषद द्विजै ॥(११५॥ 
मन्ाएा कल्पन चव विषिदृष्टेपु कमेषु 1 
मन्यो मन्ययतेघतिो््रा्णो त्रह्यणोऽनावु 1 ९९६॥1 
श्रल्पाकरमसन्दिवि सारवद्विश्वतोमुखम्‌ 1 
श्रस्तोभमनवयच सूते सूत्रविदो विदू ॥११७ 
यहौ करना चाद्िए्‌, इख प्रकारसे जो रोतो है वह्‌ विधि कटी जाती 
है) श्र्य-तरन्यके कथन टोतेये कृषोके दाया परति क्टी जाकी है १११ 
जो भ्रस्यन्ततर्‌ कटा गया है वह पुराकल्प कटा जाना है 1 पुरा विक्रान्त वाची 
होन से पुरक्स्प की कल्पना रोती दै ॥११२॥१ मन्त्र ब्राह्यस क्ल्नोके द्राण 
भौर शुद्ध विस्तर निगमोके दारा मरनिन्चय करक को हुई कयो व्यवधारण 
कल्पना कहते है 11१९३ जिखुश्रकारसे यहहैवंसेटी वहदै1 यह्‌ श्नथवा 
उमी प्रकार से वह्‌ है, यह्‌ ब्राह्मण का दशाम उपदे है ॥१८४॥। यह्‌ आदिमे 
ब्राह्मरोका कक्षरवृंषोके द्वाराय यथाह) ब्र्यणोकं दारा ब्रनुपद 
प्याया भी उषी वृत्ति उदिशकी ईह ११५॥ विचिदटष्ट क्मोंममन्तरा 
का क्त्यन होना है} मन्वपति घाते मन्वहोतादैश्रोरब्रह्मकी रछा करने 
से ब्रह्मणक्हाजातादै॥ दषा सूत्राके नाता तोग प्रत्पाक्षर्‌ वाना-भम- 
दिग्ब~-णर वाला-विदवन्येमुल-परस्नोन अनवय को भूव केह! ११७११ 
1 प्ररं ९२--महास्यान रीं वर्सन ॥ 
श्टपयस्तद्वच श्र त्वा सूत्रमाहु सुदुस्तरमु 1 
कय वेदा पुरा व्यन्ताम्तस्नो ब्रहि मलामते 1१1 
द्वापरे तु परावृत्ते मनो स्वायम्भुवेऽन्नरे 1 
ब्रह्मा मनुमुवचिद तद्रदिष्ये महामते 1२४ 


५१८ | [ वामु दुत 


परवृत्ते युगे ताव स्वत्पगीर्या द्विजातय 1 

सवृत्ता युग दोपेण सर्वे चैव यथाक्रमम्‌ 1३! 

श्रद्यमान युगवशादत्परिष्ट दहि ददयते । 

दशसाहघ्नभागेन ह्यवि कृत7दिदम्‌ ॥४॥ 

वीर्यं तेजो बल वाक्य सर्वं व प्रणयति । 

वेदवेदा हिं कार्या स्युमश्चद्रेदविनागनम्र ।५॥1 

वेदे नाशमनुप्राप्ते यज्ञो नाग गमिष्यति ( 

यज्ञे नष्टे दैवनाशस्तत सर्वं प्रास्यति ॥६॥ 

श्राय वेददचतुप्पाद शतसाहखसक्ञित । 

पूनदंशगुण कृत्स्नो यज्ञो वं सवं कामधुक्‌ 11७11 

कऋवियो ने इस प्रकार के वचनो को बुनकर भूतनी से शद 
तर वचन कंहा-हे महामते । वेद पहले किस प्रकार व्यस्त किथि गयेथे दस 
[त को हमको श्राप बततलादये 11१ श्रौ सूतजो ने कहा--हे महामते । द्वापर 
; पशवृत्त हो जानि परर स्वायम्भुवं मन्व्रमे ब्रह्माजी ने यह्‌ मनुते कहा, 
सि भ वतललागा 11२॥ है तात । यग के परिवृत्त हो जाने पर द्विजाति लोग 
वल्प वीयं वलति होग्ये धे। सभी युगके दोसे वे यथाक्रम हीन वीयं 
गमये 11३ युगके कारण से सव श्रश्यमान भ्रौर भल्प शिष्ट दिललाई 
देता है ! यह दम हजारे भासे छत युग से धवदिष्ट होता है ।॥५॥ बीमं 
तेज वल प्रौर वाक्य यह्‌ सभी नष्ट हो जारे बेद के ज्ञान वाले सव श्ण 


श्पिन्तक्षण [ ५१६ 


तदिद वर्तमानेन युष्माक वेदकल्पनम्‌ 11६11 
मन्वन्तरेण वश्यामि व्यतीताना भरतत्पनपर 1 } 
्रतयसेण पेक्ष वै तच्निवोधत सत्तमा- ॥९०॥1 
परस्मिन्‌ युगे छतो व्यास. पाराशयं" परन्तप. । 
द्रं पायन इति स्यातो विष्णोर प्रकीतितं ॥११।1 
बरह्मणा चोदित सोऽस्मिनु येद व्यस्तु प्रचक्रमे 1 
मय रिप्यान्‌ घ जग्राद्‌ चतुरो वेदकारणात्‌ 1१९२५ 
स पिनि सुमनतुल्च वेशषम्पायनमेव च । 
पैलन्तेपा चतुर्यन्तु पञ्चम ल पणम्‌ ।११३॥ 
ऋर्वेदश्रावक पैनघ्ग्राह विधिवद्द्विजम्‌ । 
यचुर्वेदप्रवक्तार वंशम्पायनमेव च 1९४ 
दूस प्रकार से क हृ्रा लोक के हित म सत रहने वाला मनु ने तवास्तु 
र्यात्‌ पेमा ही हो-यह्‌ कहकर प्रथु ने चार पाद बलि एक वेद को चार प्रकार 
से विभाजित किया था ॥८।। हे तात 1 ब्रह्माजो के वचन्‌ चेसोगोकेदितिकी 
कामनासे प्रापके वर्तमानम यह वेदवा कल्पन किया था 11६11 श्रवमें 
मन्वन्तर से व्यनीतोके प्रकटयन्‌ को बताजंमा । टे सत्तमा } श्रव श्राप लोगो 
भौ प्रत्यय गे परोक्ष वौ जात लेना चाष ॥१०॥। इम यग मकरिमाहप्राव्यास 
( विस्तार ) परन्तप एव पारदं है 1 वह दवैपायन स नाम से स्यात दटुप्रा 
है प्रौर मवान्‌ विष्णु का म्रदा ददा गयादै ॥\११॥ ब्रह्मा केद्वाराम्रेस्तिदोन 
हए उमने वेद बे व्यस्त बरे बा उपक्रम विपाया। दमक श्रनन्तर वेद फे 
कारणस उमने चार दविष्योको ग्रहष्यविया या॥ १२॥ जंमिनि-मुमन्तु- 
ईथम्पायन भ्रोर उनमे चौषः वैल, चौय सोमहपण या ॥१३॥ नवद च 
श्रावक ( सुनने वाता ) वैल वोप्रटण तियापौर वैल द्विजो विधि के माप 
स्वोवार्क्रिपाथा। यजुर्वेद के प्रयता वैशम्पायन को प्ररण क्रिया 11१1 
सैमिनि सामवेदार्थदनावकः सोऽन्वपद्यत ॥ 
तसेवायदंदेदम्य मुमन्तुमृपिसत्तमम्‌ १९५११ 
इतिदामपुाणम्य वक्तार सम्यगेव टि । 


५२० |] { बधु पुय 


माञ्चेव प्रतिजग्राह भगवानीश्वर प्रभुः ॥१६॥ 

एक ग्रासीयजुरवेदस्त चतुधा व्यकल्पयत्‌ 

चतुद मभृत्तस्मिस्तेन यज्मव त्यत्‌ ।\१७॥\ 

ग्ाप्वय॑व यजुिस्तु ऋगिभिर्होत्र' तयंव च । 

उद्गाच्र सामभिश्चक्रे ब्रह्मत्वश्वाप्यथवंमि 1 

ब्रह्मत्वमकरोदज्ञे वेदेनायवंरोन तु ।१८॥ 

तत. स ऋचमुद,त्य ग्वेद समकत्पयत्‌ । 

होक कल्प्यते तेन यज्चवाह्‌ जगद्धितम्‌ ॥१६। 

सामभि सामवेदश्च तैनोद्गात्रमरोचयत्‌ 1 

राज्ञस्त्वथर्ववेदेन सर्वेकमण्यिकारयत्‌ ॥२०॥ 

आस्याने श्चपप्युपाख्य नै्गायामि कुलक्मंभिः 1 

पुराणसहिताइचक्र पुराणाथं विद्ारद ॥२१॥ 

सामवेद के रथं का श्रावक उसने समन को दिष्य ग्रहण दवियाथा। 

¡प्रकार से श्रय्ेवेद का प्रवक्ता ऋषियोमे श्रढ सुमन्तु को रिव के 
मे ग्रहणा किया था॥१५॥ इतिहास पुराणा का श्वच्छी प्रकारे प्रवक्ता 

भगवान्‌ प्रमु ईश्वरने मुमको ग्रहण क्ियाया॥१६॥ यजुवेदषएकही धा, 
उसको चार प्रकारके भेदो मे कल्पित किया था} उक्तने उसमे यज्ञ की क्ल्यना 
कीजो दि चुटू या ॥१७॥ यजु सेश्राष्वर्यव, ऋक्‌ मे उषी प्रक्र होत 
साम से उदृगात्र धौर श्रयर्वं से ब्रह्मत्व किया। श्रर्वं वेदसे यज्ञम ब्रह्मत्व 
तिया भा॥१८ इसके श्रनन्तर उसमे ऋक्‌ का उद्धार करके श्रूष्वेद की 
शत्पना कौ थी} उसके दवारा हतक यज्ञवाह जगत-हित की कल्पना कः जाती 
दै 1१६} सार्मोतते सामवेदो श्रौर उरन्ने उदूगात्रको रोचि दपि था!+ 
राजा कै भधवं वेदसे समघ्तकर्भोको कराया धा ॥२०॥ भ्रास्यानोसे तथा 
उवाम्यानों से गायाप्नोके हारा ओौरढुलक्मोंसे पुराणो अथं बै विशारद 
न पुराण सहिता की धर्यातु युराणा सहिता की रचना दी ॥२१॥ 

यच्छिष्टन्तु यजुवद तेन यज्ञमयागरुज्‌ 1 

युद्चानः म यजु्दे इत्ति सास््रविनिद्वय ।।२२॥1 


छपि-नफ |] , [ ५२१ 


पद्रानामुद्ध, तत्वाच्च यजूपि विषमाणि व । 

स तेनो. तवीर्यस्तु छत्विग्भिवेदपारभेः 1 

प्रयुज्यते हयरवमेवस्तेन वा युज्यते त सः 1२२५ 

ऋचो गृहीत्वा पैलस्तु व्यभजत्तदुद्धिया पूनः 1 

द्विप्करत्वा संयुगे चैव शिप्याम्यामददत्परमुः ॥॥२४॥ 

इनद्रपरमतये चका द्वितीया वाप्कलाय च॥ 

चत्त. सहिताः कृत्वा वाष्छलिद्विजसत्तमः 1 

श्िप्यानव्यापयामास युश धाभिरतान्‌ टितान्‌ ॥२५॥ 

बोयन्नु प्रथमा शाखा द्वितीयामभ्निमाखरम्‌ ॥ 

पारदं वृत्तीयान्तु याज्ञव्रत्क्यामयापराम्‌ ॥\२६॥1 

इषद्रप्मतिरेकान्तु सहितं द्विजसत्तम. । 

श्रघ्यापयन्महाभागं माकंण्डय यदास्विनम्‌ ॥1२७। 

सत्यथवसमग्यन्त्‌ पुत्रः स तु महायगाः। 

सद्यश्रवाः सत्यहित पूनरघ्यापयदुद्िज ॥२८॥] 

जौ कुद ययुवेद मे धिष्ट या उमे इमके परस्चा्‌ यज कौ योजित किमा 
धा | सजुरेदमे चहं युञ्जनये वही शान्वरक्ा विज्ञेपरपमे निस्वय दै ॥1२२॥ 
पोरे उदन्त होनिके कारगासे यजु वरिम है 1 इमने उदढध.त वीर्यं उमने वेद 
कै पारगामी ्रून्विगोके द्वार परदवमेव क्न प्रयुक्त क्रिया प्रवा वह्‌ युज्यमानं 
क्रियाजानादहै 1२३) पैलनेतो च्छचाश्रोकोग्रटण क्के उनकी दोप्रक्रार 
से त्िनानित स्यथ! दोक्र्के प्रमुनेनयुगमे ्षष्योदैक्िदेद्िया 
था (रला एकौ इन्द्रपरमितिके सिये दिया रीर दूनरौको वष्डयिके पिये 
दिया । द्विजश्रेट दाष्वलिने चारयटिताकरदै उोमेवात चनुराग रने 
वलि प्रौर्‌ परमि दिष्य ये उनो उनका प्रध्यापन कर दिया या१,१५। 
धयमडात्राको योध नामक शिष्ययो षठाया घौर दूगगी धायानो प्रग्नि- 
राठरक्योपदरायाया 1 तौनगोान्ाक्ते प्रारयर क पौर चोय सायाका 
श्मष्यापन यान्नदल्वय कौ वरा प्याया [२६1 द्विजोमे परम थे इनदर प्रपिति 
नेव सहितान भी यदाम्वी मट्‌ नाय वावि मङरडेय क्य प्रादि 


५२२ 1 


[ बाग पुराण 


था ॥२७॥ सच्यश्रवाद्विनने जोकि महान्‌ यश॒ वाताथा, सत्यमे पत्य 
श्रवस श्रण्य पृत्र को षद़ाया था ।(२८१ 


सोऽपि सत्यतर पुत्रः पुनरघ्यापयापयद्विभुः। 
सत्यश्रियं महात्मानं सत्यवर्मपरायणम्‌ ॥२६॥ 
मभवंस्तस्य शिष्या वे त्रयस्तु सुमहौज्षः। 
सत्यध्रियस्तु विद्रास. भालग्रहएातत्पराः ।२३०॥ 
शाकल्यः प्रथमस्तेषां तस्मादन्यो रथ()न्तरः । 
वाध्कलिटच भरद्वाज इति शाखाप्रवत्तकाः ।३१॥ 
देवमित्रस्तु दाकलत्यो ज्ञानाहद्ारर्गावितः। 
जनकस्यस यज्ञे गै विनादामगमद्धिजः॥३२॥ 
फथ' विनाशमगमत्स मुनिज्ञनिग्वितः । 
जमकस्याङ्वमेभेन कथ चाद वभूव ह्‌ ॥३३॥ 
किमर्थञ्चाभवद्टाद. केन साद्धमथापिवा। 

स्व मेतद्यथाद्ृत्तमाचक्ष्व॒विदितन्तव 1 
ऋपीणान्तु वचः श्रूत्वा तदुत्तरमयात्रवीत्‌ ॥३४॥। 
जनकस्यारवमेषे तु महानासीत्समागमः ! 
श्ऋपीणान्तु सहस्राणि तत्राजम्मुरनेकशः । 
राअर्पेरजनकस्याथ तं यज्ञ हि दिदृक्षवः ।।३५॥ 


उसर्विप्र ने भी पिर भ्रपने सत्यतर नामकपुव्रवो पदायाया 
सत्यश्षी दाला, महान ्रत्मासे युक्त श्रौर सत्य धमं मे परायण था ।२६ 
उदके महा रोज वालि तीन शिष्य हूए य । वे सत्य्रिय परम विद्वानु भ्रौर दा 
के ग्रहण करने मे तत्पर ये ।।३०।। उनमरे पिला श्णक्ल्य या भ्रौर उस 
.दूमरा यन्तर या। वाष्कलि भौर भ्राज ये पासा प्रवर्तक हू 
थे ॥३१॥ देवामित्र शाक्ल्यतो ज्ञान के हकार सेबड़ादही गवंवालाथ 
यह्‌ जनक कै यत्त र च्नित्णन क्न चाप्र दश्रा था =¬" शाद्यपायः 


शटूपि-त्ण | [ ५२३ 
टा ? जनक के जस्वमघ म वाद वे माथा ? 11३३1 ओर वह्‌ वाद कित 
विषहा या श्रीर्‌ किसके साय हूभ्राथा? यह्‌ सव जैसाभी कृ हम्नाया 
वह्‌ समम्त वनान्त वंन करं जंयकि अ्रापक्तो समो कु विदित है1 ऋष्यो 

के हम बचन को सुन कर इमक म्रन्तर उसका उत्तर कन लये ॥1३४॥1 श्रीसूत 
जो ने कदा--जनक के ्ररवभेय म वहत वडा समागम हृता था 1 सहसो क 
सस्याम अनेक क्रपिगण वहां श्रायिये क्याकि यजि जनक कै उस यज्ञ को 
सभी दखन की इच्छा वान य 113५॥॥ 

भ्रागतान्‌ ब्राह्मणान्‌ इष्टवा जिज्ञासास्यामवत्तत । 

कोन्येषा ब्राह्मण श्रेष्ठ कथ मे निद्चयो भवेत्‌ । 

इति निदिचत्य मनसानुद्धि चकर अनाधिप ॥३६॥ 

गवा सहस्रमादाय सुवणं मधिक ततं । 

ग्रामानु रत्नानि दासाश्च मुनीन्‌ प्राहु नराधिप 1 

सर्वानह प्रपन्नोऽस्मि दिरमा श्रे टमानिन रे 

यदेलदाुत वित्त यो व शं छठनमौ मवेत्‌ । 

तस्मै तदुपनोत विद्यावित्त द्विजोनमा ॥\३८॥ 

जनवस्य वच श्य स्वा मुनयस्ते ध्र.तिक्षमा । 

दृष्ट्वा घन महामार घनवृदधया जिधृक्नव 1 

शरद्धया्चक्र.रन्योन्य वेदज्ञानण्दोल्वएणा \२६॥ 

मनसा गतवित्तास्ते मेद चनमित्युत । 

ममेवेतन वेत्यन्यो द्रुहि किना विकल्प्यते 1 

इत्येव धनदोपेगा वादादचक्र सकरा १४०1 

तयान्यस्तय वै विदान्‌ ब्रह्मवाहमुतु कवि । 

याज्ञवल्वयो मदहातेजातपम्वी दरद्यावित्तम ॥४१।1 

ब्रह्ममोऽद्भात्‌ मुत्यनो वाय प्रावाच सुस्वरम्‌ 1 

धिष्य ब्रह्मविदा ग्ंषठो धनमेतद्गृहाण भो ॥४२॥ 

प्राय दूए ब्रादयणा का दग कर दमे पनन्त दवमको भिना दई ङि 

{ प्रासो म वौन मदुगादयण अधिक भ्ठ द-प निश्चय मुने वंत टे । 


{ ५२४ [ वणुषुगण 


भनमे दरा निक्चय करे उस जनो बे स्वामी ते वुद्धि कौ धर्थादु विचार 
क्रिया या ।३६॥ सहत गौग्रोषो लाक्रश्रौर यदटत-सा सुवणं, प्राम, रल, 
दासो को लाकर वह्‌ नराधिप बोला प्राप सव्रेषठभाग वालो धिरे 
प्रपन्न हं ॥३७।) जो यह सव धन लाया गया है, श्रपलोमोम प्रमे 
द्विज होगा हे उत्तम ब्राह्मणो! विद्याकेथन वातिके यह उषएवीत शिया 
नायगा 1)३८॥ उन श्ूतिक्षम मुनियो म उस महानु स्र वाले धन कौ देवकर 
धन कौ वृद्धिसे उत ्रहणा करने की इच्छा वाले हात हृए जनक के उस वचन 
क्ये मुनकरवेदके ज्ञानके मदसे उल्वण व सव ब्रन्योन्यमे श्रद्धा कले 
लगे ॥। ३६) मन से गत्तचित्त वाते यह मेराधनदहैश्रयवा यहमेराहीदैया 
यह नेही प्रथवा कोषं श्रय बोल क्या विकल्प किया जाता दहै। इसप्रकारसे 
धन के दोप से वहं ्रनेक प्रकारके वाद करने लगे | ४०॥ उस प्रकार से वहा 
पर भ्रति विद्वानु ब्रह्मवाह का पुज कवि महानु तेज वाला, तपस्वी श्रौर ब्रह्म 
वित्तम याज्चवत्वय जो कि ब्र्माजी के अ्गमे समुत्थन हुये ये, शिष्य स सुम्बर 
वाक्य बोले -भो ब्रहमवत्ताग्रोमेश्रंष्ठ श्राप इम धन षौ ग्रहृण वरिये ॥४२॥ 


नयस्व च गृह्‌ वत्स ममैतन्नान सशय । 
सर्ववेदेष्वह यक्ता नान्य कचतु मत्सम 
योवानप्रीयते विप्रासमे ह्वयत माऽचिरम्‌ ॥४३॥ 
ततो ब्रह्मारोव क्षुव्य समुद्र इव सम्प्लवे 1 
तानुवाच तत स्वस्थो याज्ञवल्क्यो हसन्निव ॥५य। 
रोध माकापुःविद्धासो भवन्त सत्यवादिन । 
वदामहे यथायुक्त जिज्ञासन्त परस्परम्‌ ॥४५५॥ 
ततोऽम्युपागमस्तेषा वादा जग्मुरनेक्दा । 

सहस्रधा गुभैरर्थे सूक 1दशंनसम्भवै (१४६॥ 

नोबे वैदे तयाघ्यासमे विदयस्थानैरलद्रता । 
भापोत्तमगुणौु क्ता नृपौघपरिवर्जना । 

वादा समभवम्तच्र धनहेनोमं हात्मनाम्‌ ।१४७॥ 


शपि-नलर |] [ ५२५ 


ऋपयस्त्वेकतत सर्गे याज्ञवल्क्यस्तयैकत । 
सर्वेमिति होवाच वादकत्तारमञ्जसा ॥४६ा1 


देवत्य 1 इमे गृहम ने जाग्रो, यह्‌ सारा घन मेरा ही है, इममे ठनिक~ 
भी सणयनही दै! समस्तवेदोमेर्मै वक्ताहं नौर कोद भी मेरे प्रमान यहां 
नहीदहै। जो ब्राह्मण इय वात कौ पमन्द नही करता वह मेरे साय शीघ्रता 
करे । इसरे पश्चातु सम्प्लवे के समयमे समुद्रकीटी भांति उम समपवद्‌ 
ब्रह्मणो वासागरक्ुघदहोउठाथा। इम श्रनन्तर परम स्वस्य या्नवल्वय 
टेषते हए उन रवसे वोत ।॥४३।४४। प्राप खव विद्टान भौर सत्यवादी हु दस 
समय द्वन क्रिषए्‌1 परस्परम जिन्नासा रखने वात्ते हम ययायुक्त बाद 
करे ॥\४५। दके श्रनन्तर वहां उपस्थित होते हुए उनके सदसा प्रकार के 
सूक्ष्म दर्यन से उन्न युभ भयो कै द्वारा श्रनक्रौ चाद हृष ।५६॥ लोक मेतया 
येदमे व्रिया स्थानो मे वरिभूपित--यागोत्तम गुखो से युक्त--टपो कै समदाय 
से परिवजेन वाते महारमाग्नो के वहां श्रनक् वाद ह्ये ये ४७ एक तर्कतो 
ममस्त श्रूपिगण ये श्रौर एक श्रोर केवल एक्‌ याज्ववल्क्य ये । वे मव मृनिगण 
धीमान याज्ञवल्वय वै द्वारा एक-एक करके पृ गर्‌ न्तु कादं मी उनम से 
उनका उत्तर नीं बौला था 11४८1] तव -उम ब्रह्म कौ रक्षि महान्‌ यूति वाने 
या्तवस्क्य उन समस्त मुनियो को विजित करे वादने कर्ता शाक्त्य से 
भरचानक् वोते ॥४६॥ 

शाकल्य वद वक्तव्य कि घ्यायन्नतिष्ठमे 1 

पूस्वत्व जडमानेन वाताव्मातो यया हति 1५०11 

एव स धपितस्तेन रोपात्ता स्राम्यलोचन 1 

प्रोवाच याज्ञवल्क्य त परप मूनिमव्रिघौ ॥५१॥ 

त्वमम्माम्नरवत्त्यकन्वा तयेवेमान्‌ द्विजोत्तमान्‌ । 

विद्याधन महासार स्वयग्राह्‌ जिधृश्नक्ति 1\५२॥ 

याक्त्येन॑वमुन न्यादाज्नवन्क्य नमव्रवीत्‌ 1 

व्रह्वि्ठाना वल विद्धि विद्यानत्वा्यंदलेनमू ॥५२॥ 


ऋषपि-वश्ख ] ~ { ५२५ 


अरय सन्नोदित प्रदन याज्ञवल्क्येन धीमता 1 
याकल्यस्तमयिन्ञाय सदयो मृद्युमवाप्नुयात्‌ ॥\५& 
एव मृत्त स लाकल्य प्रदनव्या्यानपीटिति 1 

एव' वादद्च सुमहानासौत्तेपा धनाधिभि । 

ऋपीणा मुनिभि साद्धं याञ्नवल्क्यस्य चेव हि ॥६० 
सर्वे पृष्ठस्तु सम्य्रद्नानु रततदयोऽय राहघ्तस्ञ । 
व्याल्याय ने मुने तेपा प्रस्नस्रार महायति १६१ 
याज्ञवल्क्यो धन गृह्य यदो विस्याप्य चात्मन 1 
जगाम चै गृहस्वस्य दिष्य परिवृतो वदी ॥६२ 


देवमिनस्तु शाकल्यो महात्मा द्िजातमः द्विजसत्तम । 
चकार सहिता पच बुद्धिमान्‌ पदवित्तम ६३ 


दके श्रनन्तर शाकल्य ने पटिते एक सतख प्रन उमसे क्िएिये प्रर 
याञ्ञवस्वेय ने उस समय मे समस्त ऋषपियो कै मुनते हए सव्र प्रदनो के उत्तर 
दे दिए ये ॥५७।१ जव शाक्ल्व निर्वादि टो गए तो यात्तव्त्वय ने उत्से क्टा-- 
श्ापमेरा भी एक पदन क्तामिक वनलामो । इख दाद का पण शापवोले वह्‌ 
मृत्यु कौ जावे ॥५८॥ इनके पदवत्‌ धीमाद्‌ यात्तवत्कप के द्वारा सञ्जोरित 
उत प्रदन को शाक्ल्यने न जानकर मृत्यु बो प्राप्त कपा 11५रा। दम प्रत्रार 
सेव्‌ प्ररन पै व्वाच्यान स पीडित दाक्ल्य मृतो गमा । इस अकार स्षेधन 
यें प्रथं मुनिया कै साथ उन छपियो बा नौर यज्नवल्वय का वहत ही वडा वाद 
ह्प्रा या 11६०1 सक्र दाया रसंक्डो तया सटतापू्धे पए प्रदनो कौ व्यास्या 
करै भौर उन प्रदनस्नर को ममम करके महामिं याज्ञवन्क्यने धन का 
ग्रहण करके श्नौर यपना यदा दिख्यान करके शिघ्योकं दारा पविनिवली 
स्वस्य होना हरा श्रपने चरको चते गए 1६१।६३॥ पदवित्तय-द्विन धरे 
महात्मा मौर बुद्धिमान देवामित्र शाक्त्य ने वच मल्ि वी ॥६३॥। 

तच्छिप्या श्रमवनू पञ्च मुग्दलौ गोलक्स्तया 1 

खानीयश्च तया मन्स्व शं दिरेयम्तु प्वम. ॥६४ 


५२९ 1 [ गु पुण 


कामदचार्थेन सम्बद्धस्तेनाथः कामयामहे । 

कामप्रदनघना विप्रा कामप्ररनान्वदामरे १।५४॥ 

पणदचैपोऽस्य राजपेस्तस्मा सीत धन मया । 

एतच्छ.त्वा वचस्तस्य शाकल्य क्राधमूच्छित 1 

याज्ञवल्क्यमथोवाच कामप्रब्नार्थमद्च ॥॥५५॥ 

ब्रू हीदानी मयोटिष्टान्‌ कामप्रदनानु यथार्थत 1 

तत सममवद्रादस्तयोत्रं ह्यषिदो्महानु ।१५६॥ 

ह दाक्ल्य । बोलाजो बुद्ध भी अ्रापका वक्तव्यहो क्या ध्यानं करते 
हए चृपचाप खडे हए है ? भ्राप तो जडमाव्रमे पृण ह जैसे बात से प्राध्मात 
हति होना है ॥॥५०॥ इम प्रकार मे उसके दवारा धिन होते हृए रोप सं ताम्र 
मुख ओर लोचना वाले उनने मुनियो की सिधि म उस याज्ञवल्कय पुरुप मे 
कहा ॥५११ श्राप मुभको गिनके की भाति त्याग करके तया इन अयष्ट 
द्िजाकाभी त्याग करकं इस महान्‌ सार वाल विद्या घन बौ स्वषही ग्रहण 
करने षा दच्या रते है ॥५२॥ दाक्ल्यकंद्वारा इम तरहस बहे हृए यान 
वल्य न उसमे बहा-विद्यावे तत्वाथके देखने वाने ब्रदधिषठोते वतको 
जानमो \५३॥ कामकी प्रथमे सम्बदतां होतीहै दततिए्‌ हम श्रषषी 
कामना करतटै! ब्रा्ण्ण कामर्क प्रधन वानेहोते दभर हम कामदे 

भररना का वोनन ह ॥५४॥ राजपिका यदंप्रणहै दमनेर्मेन धनकौलिया 
है । यह्‌ उगका वचने मुनकर शाकस्य द्वये मूरद्धिति रोते हुए यजक्वय से 
याम प्रस्नवे श्रयं वात वचन को वोत ॥५५॥ श्रवमेरे द्रारा उर्दि वाम 
पर्नाका ययायसम्पमयोतरा। दमम वादपुन दोना ब्रह वेत्तापो षा बहत 
अष्टा विवाददट्रम्राया॥५६॥ 

साग्र प्रदनमदचन्तु घाव यस्तमनचू वदत्‌ 1 

यालवल्क्योऽग्रवीत्मर्वानू श्रटपीगया शृण्यता तदा १५७ 

श्रावये चापि निर्वादिं यश्रवत्त्रयन्तमग्रवौत्‌ । 

प्रस्नमकर ममापि वद शाकल्य वामिषम्‌1 

दाव पणाम्य वादरम्य भ्व्र्‌वन्‌ मूद्ुमात्रजत्‌ ।५८ 


ऋपिलकषण | [ ५२७ 


अथ सन्नोदित प्रन याेषत््येन धीमना 1 
गाकल्यस्तमविन्नाय सदयो मृच्युमवाप्नुयाव्‌ ॥५९ 

एवे मृत स शाकल्य प्रदन्याल्यानपीडित 1 

एव वादद्च सुमहानासीत्तेपा घनाथिमि 1 

पणा मुनिभि साद्धं याज्नवत्वेयस्य चेव दि ॥६० 
सर्वे पृष्टास्तु सम्प्रद्नानू शतयोऽय सहसस । 
व्याख्याय नै मुने तेषा प्रवनसार मागि ॥६१ 
याज्ञवल्क्यो धन गृह्य यदो विरपाप्य चात्मन । 
जगाम यै गृहम्वस्य चिष्यं परिवृतो वद्ची ॥६२ 
देवभिनस्तु शाक्त्यो महात्मा द्विजात्म द्विजसत्तम 1 
चकार सहिता पञ्च बुद्धिमान्‌ पदवित्तम ॥६३ 


इग श्रननर धाक्त्य ने पिते एक सट प्रघन उमसे शरिएुये प्रर 
योशवस्वय ने उस समयमे ममस्न -ऋषिया क ॒मुनते हए सव प्रदनौ के उत्तर 
द दिए ये ॥५७।) जव दाक्ल्य निर्वादो गए तो याज्वन्वय ने उसे क्टा-- 
श्रापमेराभी एक प्रन कामिक वनलाम्नो 1 इम वादकापणाशापवाते वह्‌ 
भूयु वो जावे ॥५८॥ इनके पर्वात्‌ धीपरातु याज्ञवल्क्य कै हारा सम्जोरिति 
उत प्ररन यो शाक्स्यन न जानकर भृत्यु का प्राप्त दरिया 14६ इम प्रक्रार 
से बह प्रण के व्यास्यान से पीडित शाकल्य मूतटोगया। इस प्रकार सेघन 
कै श्रीं मुनिया चै साय उन छपिया का प्रौर याज्नवन्क्य का वटव ही वा वाद 
ट्पराथा (1६०1 सवके द्वारा संक्डा तया सरसरा पृद्धे प्रषु भ्रदनो की व्पारया 
मरकं श्रीर्‌ उनके भलनस्तर को सममा करे महामति यात्तवन्क्यने घन मो 

भ्रट्ख करव श्रौर अपना यदा विन्या क्रक शिप्याकते हारा परिवृत वदी 

श्वस्य होवा टमा श्रपन घर कयो चते गर्‌ ॥६१।६२॥ पदवित्तय-द्विज धे ~ 
महात्मा चर्‌ बुद्धिमान दकामित आास्त्व ते गव सहिते को 11६२ 

तच्िप्या श्रमवनू पञ्च मुण्दलौ गोनक्स्तया 1 

सानीपश्च तया मन्म्य शं विस्यन्तु पन्चम भाष्य 


भ्र ]* { क्यु दरण 


प्रोवाच सदितास्तिच्र यावं पूणंरथीतर 1 

निरुक्त व पुनश्चके चतुर्थं दविजसत्तम ६५ 

तस्य िस्यास्तु चत्वार केत्तवो दालकिस्तथा 1 

धर्म्मा देवमर्मा सर्गे व्रतवरा द्विजा ॥६६ 

शाक्ल्ये तु मृते सर्गे ्रह्मघ्नास्ते वभूविरे! 

तदा चिन्ता परा प्राप्य गतास्ते ब्रह्मणोऽन्तकम्‌ ॥६७ 

तान्‌ ज्ञात्वा चेतसा ब्रह्मा प्रेपित पवने पुरे । 

तच्र गच्छत गूयव सद्य पाप प्ररार्यति (दप 

द्ादशाकं नमस्कृत्य तथा वै वालुकेश्वरमू 1 

एकादश्च तथा दद्रानू वायुषुन विदेपत 1 

कुण्डे चतुष्टये स्नात्वा ब्रह्महत्या तरिष्यथ ।1६६॥ 

सें शीघ्रतरा भूप्वा तत्पुर समुपागता । 

स्नान करत विधानेन देवाना ददन कृतम्‌ 1७०] 

उसके पांच सिष्य हृष्‌ ये उनके नाण मुग्दल-गालव-वालौय-मत्स्य- 
गौर दौिरेय पाचके ये॥६४॥ वाङ्पू रथीतर ने तीन रहिता वानी ओर द्विन- 
पर्ने फिर चौया निरुक्त त्रिया ॥६५॥ उस्रक चार शिष्य हुए ये जिनके नाम 
हनिव-दालक्रि-धमं धर्मादेव चर्माये। य॒ सवं ब्राह्यणा ब्रतधारी ये ॥६६॥ 
शावल्यके मून दहो जान परवे मवग्रद्यघ्नदहो गये ये! इसके पश्चात्‌ वे सव 
परम चिन्तित होकर ब्रह्माजो कै समीपम गण्‌ ॥६७॥ ब्रह्माजी न उनवो चित्त 
ही जानकर पवनपुर म प्रमित शिया। उन्डोनि कदा--प्राप सव वहाँ जाम 
रौ श्रापका मारा पाप तुरन्त नष्ट हो जायगा ॥६८॥ द्वादश सूर्यं का नमस्कार 
करम तथा वानुवरेश्वर वा प्रणाम वरे प्रौरचारोकृरोम स्नान करै 
श्राप सव दस ष्रहादृत्यामे तर जभमोगे ॥६६॥ वे राव दौध्गामी होषर उम 
पुर मे प्राय । वदा उन्दने दिधानूरवंक स्नान किया पौर देवो का दयेनष्र 
बे पापमुक्तहो गणु 13०) 

॥ इति वायुपुराण (प्रथम खण्ड ) ॥ 
> 1